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________________ जिन-शासन की आधारशिला : संकल्प लकीर जैसा है जीवन। यहां तुम खींच भी नहीं पाते लकीर कि वस्तुओं का भरोसा है, न देह का भरोसा है, न मन का भरोसा मिट जाती है। यहां तुम बना भी नहीं पाते महल कि विदा होने का | है...। क्षण आ जाता है। साज-सामान जुटा पाते हो, गीत गा भी नहीं मुझे दिल की धड़कनों का नहीं एतिबार 'माहिर' पाते कि विदाई उपस्थित हो जाती है। जीवन की तैयारी ही करने। | कभी हो गईं शिकवे, कभी बन गईं दुआएं। में जीवन बीत जाता है और मौत आ जाती है। यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं है। क्षणभर में प्रसन्न है, _ 'अध्रुव, अशाश्वत, दुखबहुल...।' और जहां दुख ज्यादा क्षणभर में रोता है। क्षणभर पहले दुआएं दे रहा था, क्षणभर बाद है और सुख तो केवल आशा है जहां; जहां सुख के केवल सपने शिकायतों से भर गया। क्षणभर पहले ऐसा प्रकाशोज्ज्वल हैं, सत्य तो जहां दुख है-यहां ऐसे इस जगत में कौन-सा ऐसा मालूम होता था और क्षणभर बाद गहन अंधकार से घिर गया। कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं? क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि यहां अपने ही दिल का भरोसा नहीं, जो इतने करीब है! दिल व्यर्थ लकीरें खींचने में मैं अपने लिए दुर्गति बना रहा होऊं। हम यानी तुमसे जो करीब से करीब है। उसका भी भरोसा नहीं है। बना रहे हैं। व्यर्थ की आकांक्षा में हम अपने लिए ऐसा जाल बुन यहां किस और चीज का भरोसा करें! रहे हैं, जैसे कभी-कभी मकड़ा जाल बुनता है और खुद ही उसमें कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबानें सूखी हैं फंस जाता है। और जो हम बुन रहे हैं उससे कुछ मिलने का नहीं हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। है। उससे कुछ खो जाता है। कहीं कुछ धोखा हो गया है। सभी लोग सुख चाहते हैं, धन पाने के लिए लोग कितना दौड़ते हैं! पाकर भी क्या पाते मिलता दुख है। सभी लोग फूल मांगते हैं, मिलते कांटे हैं। सभी हैं? क्या मिल पाता है? हाथ तो खाली के खाली रह जाते हैं। लोग आनंद के लिए आतुर और व्यथित हैं, पाते संताप हैं। मरते वक्त निर्धन के निर्धन ही रहते हैं। मगर सारा जीवन गंवा | कलियों के जिगर अफसुर्दा हैं, कांटों की जबाने सूखी हैं देते हैं। वही जीवन ध्यान भी बन सकता था, जिसे तुमने धन हम बाग के धोखे में शायद, जंगल के किनारे आ बैठे। बनाया। वही जीवन-ऊर्जा ध्यान भी बन सकती थी, जिसे तुमने कहीं कुछ भूल हो गई है। कहीं कोई बुनियादी चूक हो गई है। धन में गंवाया। वही जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन का आत्यंतिक हम शायद समझ नहीं पा रहे। हम शायद रेत से तेल निकालने समाधान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, और तुम व्यर्थ | की चेष्टा में संलग्न हैं, अन्यथा इतना दुख कैसे होता? सभी सामान जुटाने में लगे रहे। और सामान भी ऐसा जुटाया जो मौत सुख चाहते हों, इतना दुख कैसे होता? सभी लोग अमृत चाहते के क्षण में साथ न ले जा सकोगे, मौत जिसे छीन लेगी। और हों और मौत ही घटती है, अमृत तो घटता दिखाई नहीं पड़ता। सामान भी ऐसा जुटाया कि न मालूम कितनों को दुख दिया, न सभी लोग चाहते हैं कि नाचते, प्रसन्न होते; लेकिन रसधार मालूम कितनों की पीड़ा निर्मित की, न मालूम कितनों के लिए रोज-रोज सूखती चली जाती है। न नाच है जीवन में, न उमंग है, नर्क बनाया। इतना दुख देकर तुम सुखी हो कैसे सकोगे? इतना न कोई उत्सव है। दुख तुम पर लौट-लौट आएगा, अनंत गुना होकर बरसेगा। 'ऐसा कौन-सा कर्म करूं, जिससे इस दुर्गति से बचूं।' क्योंकि जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओ, तुम्हारा ही क्या करूं? क्या करना मुझे इस उपद्रव के बाहर ले जाएगा? गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाता है। तुम गालियां | ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले बको, तुम्हारी ही गालियां लौटकर तुम पर बरस जाती हैं, छिद | हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार-मुक्ति के जाती हैं। विरोधी, और अनर्थों की खान हैं।' यह जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है। थोड़ा-सा सुख! ऐसे ही है जैसे कोई मछलियों को पकड़ने तो महावीर कहते हैं, मौलिक सवाल यह है कि मैं कौन-सा जाता है, कांटे पर आटा लगा देता है। मछलियां आटे के लिए ! इस दखबहल संसार में, इस अशाश्वत संसार में, आती हैं, कांटे के लिए नहीं मिलता कांटा है। ऐसा ही लगता है जहां सभी कुछ क्षण-क्षण में बदला जा रहा है, जहां न तो कि जैसे कोई मछुआ मजाक किए जा रहा है। सभी दौड़ते हैं सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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