________________
14
जिन सूत्र भाग: 1
के लिए और आखिर में पाते हैं, कांटे छिद गए।
तुमने भी कितनी बार सुख नहीं चाहा ! पाया है? महावीर कहते हैं, शायद थोड़ा-सा आभास मिला हो, प्रथम क्षण में, शायद उल्लास के क्षण में कि मिल गया, तुमने अपने को धोखा लिया हो; पर जल्दी ही झूठी पर्तें उघड़ जाती हैं। जल्दी ही पता चल जाता है।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर में अपने मालिक से बोला कि शादी की है, हनीमून के लिए पहाड़ जाना चाहता हूं— दो सप्ताह, तीन सप्ताह की छुट्टी! मालिक ने कहा, हनीमून कितने दिन चलेगा - एक सप्ताह, दो सप्ताह, तीन सप्ताह ! उतनी छुट्टी ले लो। मुल्ला ने कहा, आप ही बता दें। | मालिक ने कहा, मैंने तुम्हारी पत्नी को अभी देखा ही नहीं, मैं बताऊं कैसे कितनी देर चलेगा ?
देर - अबेर हो सकती है, पर जल्दी ही घड़ी आ जाती है, जब प्रेम राख हो जाता है। कोई थोड़ी देर तक अपने को भुलाए रखता है, कोई थोड़ी जल्दी जाग जाता है। पर देर-अबेर सभी जाग जाते हैं। इस संसार में जो भी प्रेम है, वह चाहे धन का हो, चाहे रूप का हो, चाहे पद का हो, वह देर-अबेर उखड़ ही जाता है। असलियत कब तक छिपाए छिपेगी ?
असलियत दुख है। सुख तो ऊपर का रंग-रोगन है; जरा वर्षा पड़ी, बह गया रंग-रोगन । वह तो कागज के फूलों जैसा है; जरा वर्षा पड़ी, बिखर गये, गल गए ।
‘ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देनेवाले हैं; बहुत दुख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं; संसार- मुक्ति के विरोधी...' संसार से मुक्त होने के विरोधी हैं, क्योंकि इन्हीं की आशा में तो लोग अटके रहते हैं, क्यू लगाए खड़े रहते हैं : अब मिला, अब मिला ! अब तक नहीं मिला, मिलता ही होगा ! लोग राह ही देखते रहते हैं, बिना यह सोचे कि जिस क्यू में खड़े हैं उसमें किसी को भी कभी मिला ? माना कि कुछ लोग क्यू में बिलकुल आगे पहुंच गए हैं— कोई सिकंदर — मगर सिकंदर से भी तो पूछो, मिला ?
सिकंदर मर रहा था तो उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि मैं अपनी मां को बिना देखे नहीं मरना चाहता हूं। लेकिन मां दूसरे गांव में थी । या तो वह आए या सिकंदर वहां तक पहुंचे। चौबीस घंटे की कम से कम जरूरत थी । और सिकंदर ने कहा
Jain Education International
कि मैं सब कुछ देने को तैयार हूं; जो भी तुम्हारी फीस हो ले लो, लेकिन चौबीस घंटे मुझे और जिला लो; जिससे मैं पैदा हुआ हूं उससे विदा तो ले लेने दो; मां को देखकर जाना चाहता हूं। चिकित्सकों ने कहा, असंभव है। सिकंदर ने कहा, अपना आधा साम्राज्य दे दूंगा। उदास खड़े चिकित्सक ! उसने कहा, पूरा ले लो। काश ! मुझे पहले पता होता कि पूरा साम्राज्य देकर भी एक सांस नहीं मिलती, तो अपने जीवनभर की सांसें इस साम्राज्य के लिए क्यों खराब करता !
लेकिन इसी आपा-धापी में, इसी दौड़-धूप में सब गया। एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों को! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है ? कहीं ऐसा न हो कि गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, और जो पाया वह कुछ भी न था । असली हीरों के धोखे में नकली हीरे ले बैठे !
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा! जिंदगी सिलसिला है : धोखे पर धोखा।
'बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' लगता है - लगता है, मूर्च्छा के कारण।
कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते ! चबाता है कितने रस से ! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, ता लहू - सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है। जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय सुख सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org