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जिन सत्र भाग : 1
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कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो! कुछ कहना है।' मैं कहता हूं, सभी के सामने कह दो; एकांत
मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है | की क्या जरूरत है? वे कहते हैं कि नहीं, एकांत में। अब तो मैंने इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा एकांत में मिलना बंद कर दिया है। क्योंकि एकांत में...जब भी जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना साधु-संन्यासी आयें तो वे एकांत ही मांगते हैं। और एकांत में सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब एक ही प्रश्न है उनका कि यह कामवासना से कैसे छुटकारा हो! सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि | कोई सत्तर साल का हो गया है, कोई चालीस साल से मुनि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है-तो तुम क्या करते रहे चालीस साल? कहते हैं, क्या है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार बतायें, जो-जो शास्त्र में कहा है, जो-जो सुना है-वह करते रहे महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से हैं। उससे तो हालत और बिगड़ती चली गई है। धुआं निकल जायेगा।
। मवाद को दबाया है, निकालना था। घाव पर तुमने ऊपर से तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन मलहम-पट्टी की है; आपरेशन की जरूरत थी। तो जिस मवाद में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में को तुमने भीतर छिपा लिया है, वह अब तुम्हारी रग-रग में फैल | किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का गई है; अब तुम्हारा पूरा शरीर मवाद से भर गया है। सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को तो थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। आपरेशन से गुजरना देखने कहां देती है ! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो होगा। और तुम्हीं कर सकते हो वह आपरेशन; कोई और कर अपने ही सपने फैलाये।
नहीं सकता। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारी शल्यक्रिया होगी। तब और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही एक घंटा रोज...। तुम चकित होओगे, अगर तुमने एक-दो चली जाती है।
महीने भी इस प्रक्रिया को बिना किसी विरोध के भीतर उठाये, एक बहुत मोटा आदमी दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने बिना अपराध भाव के निश्चित मन से किया, तो तुम अचानक अचकन के लिए बड़ी कठिनाई से उसका नाप लिया। फिर एक पाओगे: धुएं की तरह कुछ बातें खो गईं! महीने दो महीने के सौ रुपये की सिलाई मांगी। वे महाशय बोले, 'टेलीफोन पर तो बाद तुम पाओगे: तुम बैठे रहते हो, घड़ी बीत जाती है, कोई तमने पच्चीस रुपये सिलाई कही थी, अब सौ रुपये? हद्द हो | कल्पना नहीं आती, कोई वासना नहीं उठती। तब तुम अचानक गई! बेईमानी की भी कोई सीमा है!'
पाओगे: अब तुम चलते हो बाहर, तुम्हारी आंखों का रंग और! दर्जी ने कहा, 'महाराज! वह अचकन की सिलाई थी, यह अब तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा! क्योंकि सब सौंदर्य परमात्मा का शामियाने की है।'
सौंदर्य है। स्त्री का, पुरुष का कोई सौंदर्य होता है? फूल का, अचकनें शामियाने बन जाती हैं। वासना फैलती ही चली | पत्ती का, कोई सौंदर्य होता है? सौंदर्य कहीं से भी प्रगट हो; जाती है। तंबू बड़े से बड़ा होता चला जाता है। अचकन तक सौंदर्य परमात्मा का है, सौंदर्य सत्य का है। लेकिन सौंदर्य को ठीक था, लेकिन जब शामियाना ढोना पड़े चारों तरफ तो देख ही वही पाता है, जिसने वासना को अपनी आंख से हटाया। कठिनाई होती है।
वासना का पर्दा आंख पर पड़ा रहे, तुम सौंदर्य थोड़े ही देखते मैं अड़चन समझता हूं। लेकिन अड़चन का तुम मूल कारण | हो! सौंदर्य तुम देख ही नहीं सकते। खयाल में ले लेना : तुमने दबाया है। तुमने दमन किया है। तुम वासना कुरूप कर जाती है सभी चीजों को। इसलिए तमने गलत शिक्षा और गलत संस्कारों के द्वारा अभिशापित हुए हो। जिसको भी वासना से देखा, वही तुम पर नाराज हो जाता है। तुमने जिन्हें साधु-महात्मा समझा है, तुमने जिनकी बातों को कभी तुमने खयाल किया? किसी स्त्री को तुम वासना से देखो, पकड़ा है—न वे जानते हैं, न उन्होंने तुम्हें जानने दिया है। वही बेचैन हो जाती है। किसी पुरुष को वासना से देखो, वही मेरे पास साधु संन्यासी आते हैं तो कहते हैं, 'एकांत में आपसे थोड़ा उद्विग्न हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम वासना से
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