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धर्म : निजी और वैयक्तिक
जलधारों पर लेकिन गीले न हों; आग से गुजरना हो जाये, तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर लेकिन कोई घाव न पड़े। और ऐसा संभव है। और ऐसा जिस खुदा है शेख जी! हमसे भी गुनहगारों का। दिन बहुत बड़ी मात्रा में संभव होगा, उस दिन जीवन की दो भक्त कहता है, 'शेख जी! तुम्हें तो बड़ा गरूर है अपने कर्मों धाराएं, श्रमण और ब्राह्मण, मिलेंगी; भक्त और ज्ञानी आलिंगन का, शुभ कर्मों का, उपासना, पूजा, प्रार्थना का, साधना, करेगा। और उस दिन जगत में पहली दफा धर्म की परिपूर्णता | तपश्चर्या का!' प्रगट होगी। अभी तक धर्म अधूरा-अधूरा प्रगट हुआ है, तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर! खंड-खंड में प्रगट हआ है।
लेकिन भक्त यह भी कहता है कि यह सब जो तुमने किया है,
थोथा है; क्योंकि करने का भाव तो भीतर मौजूद ही है। इसलिए तीसरा प्रश्नः एक मार्ग भगवान महावीर का है-संघर्ष का, यह सब वंचना है। और हम तुम से कहते हैं : खुदा है शेख संकल्प का; दुसरा मार्ग शरणागति का, समर्पण का। और जी! हमसे भी गुनहगारों का। वह हमारी भी खबर लेगा। वह दोनों मुक्ति के लिए हैं।
सिर्फ धार्मिकों का ही नहीं है, गनहगारों का भी है। कृपया बतायें कि भक्ति करने से आदमी को अपने बरे फरिश्ते हश्र में पूछेगे पाकबाजों से का फल भोगना पड़ेगा अथवा नहीं?
गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?
वे जो पुण्यात्मा हैं, भक्त कहता है, उनसे जरूर फरिश्ते पड़ेंगे कर्म की भाषा भक्त की भाषा नहीं है। यह तो ऐसे ही है, जैसे | स्वर्ग में। तुम पूछो कि बगीचे से गुजरने पर मरुस्थल बीच में पड़ेगा या फरिश्ते हश्र में पूछेगे पाकबाजों से। नहीं; या मरुस्थल से गुजरने पर फूल कमल के खिले हुए मिलेंगे | -पवित्र लोगों से, धर्मात्माओं से, पुण्यात्माओं से। या नहीं। तुम अलग-अलग धाराओं की बात कर रहे हो। गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?
कर्म की भाषा समर्पण के मार्ग की भाषा नहीं है; संकल्प के क्या तुम्हें भरोसा न था कि उसकी करुणा अपरंपार है? तुम्हें मार्ग की भाषा है। संकल्प कहता है : तुमने जो किया है वही तुम कुछ संदेह था? कर लेते गुनाह! ऐसे क्या डरे-डरे जीये? पाओगे। इसलिए महावीर का तो पूरा शास्त्र कर्म के सिद्धांत पर नहीं, भक्त की भाषा अलग है। खड़ा है। भगवान तो हटा ही दिया है महावीर ने; कर्म ही ध्यान रखो, अगर कर्मों का हिसाब रखना हो तो भक्ति का भगवान हो गया है-तुम जो करते हो वही; कार्य-कारण; रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। गणित और काव्य की भाषा सीधा विज्ञान है।
अलग-अलग है। गणित में दो और दो चार ही होते हैं, काव्य में भक्त को कर्म की भाषा ही नहीं आती। भक्त कहता है, हमने कभी-कभी दो और दो पांच भी हो जाते हैं, कभी तीन भी रह कभी कुछ किया ही नहीं, वही करवा रहा है। भक्त कहता है, | जाते हैं। काव्य तो रहस्य है। हम कर्ता ही नहीं हैं, कर्ता वही है; और उसने जो करवाया हमने तो अगर तुम्हें गणित की भाषा समझ में आती हो तो तुम भक्ति किया; गुनहगार हो तो वही हो। भक्त के सामने भगवान को की भाषा ही छोड़ो, तो फिर कर्मों का हिसाब रखो। जो-जो बुरा मुश्किल पड़ेगी; क्योंकि भक्त कहेगा, 'तूने करवाया, हमने किया है, उसके ठीक-ठीक तुलना में गणित की तरह भला किया, हमको फंसाता है?'
करो। एक-एक काटो। कठिन होगा मार्ग, लेकिन किसी की इसलिए भक्त कर्म की भाषा नहीं बोलता। भक्त कहता है, | करुणा पर तुम्हें निर्भर न रहना पड़ेगा। जटिल होगा, बड़ा दुर्धर्ष सब तुझ पर छोड़ा, कर्म भी छोड़े। अपने को ही छोड़ा तो अब संघर्ष होगा। क्योंकि अनंत-अनंत जन्मों के पाप हैं, उन्हें काटना कर्म का खाता कहां अलग रखें? जब सब छोड़ा तो बैंक-बैलेंस आसान नहीं है। इसलिए तो महावीर जन्मों-जन्मों यात्रा करते भी तुझे ही दिया। ऐसा थोड़े ही है कि अपना बैंक-बैलेंस बचा हैं। काटते-काटते, काटते-काटते, पच्चीस सौ वर्ष पहले वह लिया और कहा कि बाकी सब दिया।
घड़ी आई, जब वह काट पाये। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों
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