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________________ 468 जिन सूत्र भाग: 1 गलत नहीं होते। इतना तुम्हें स्मरण रहे तो तुम्हारे भीतर संप्रदाय तरफ देख रहा है; अंतर्मुखी हों तो अंदर की तरफ देख रहा है। का भाव पैदा नहीं होगा । बहिर्मुख, अंतर्मुख, दोनों से मुक्त हों तो परमात्मा स्थित हुआ, स्वस्थ हुआ, अपने में लौट आया। इस अवस्था को महावीर मोक्ष कहते हैं। संप्रदाय का भाव इस तरह पैदा होता है। इन सूत्रों को जो पढ़ेगा...। जैन पढ़ते रहे हैं। तो जब वे देखते हैं किसी को मंदिर की तरफ जाते कृष्ण के, तब उनको लगता है, बेचारा भटका ! | उनको याद आता है महावीर का सूत्र कि राग का अंश है भक्ति ! और यह आदमी राग में पड़ा है। नहीं, यह तुम सोचना ही मत । तुमने अपने लिए सोच लिया, काफी है। तुम्हें दूसरे की अंतर्व्यवस्था का कुछ भी पता नहीं है। तुम बस अपने लिए निर्णय कर लो, उतना बहुत । और वह निर्णय भी चलने के लिए हो, बैठे-बैठे सोचने के लिए नहीं । महावीर तुम्हें वहां ले जाना चाहते हैं जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता – जहां बस तुम एकांत अकेले अपनी परिपूर्णता शुद्धता में बच रहते हो ! निर्धूम जलती है तुम्हारी चेतना ! हर मंजर - ए - बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं । ऊंचाइयां भी जहां नीचे छूट जाती हैं। हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऊंचाइयां भी पीछे छूट गईं। ऊंचाइयां भी नीचाइयां तो छूट ही गईं, ऊंचाइयां भी छूट गईं। अशुभ तो छूट ही गया, शुभ भी छूट गया। पाप तो छूटा, पुण्य भी छूटा । हर मंजर - ए - बुलंद भी अब पस्त हो चुका ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं । — और मैं किस आकाश में उड़ रहा हूं! महावीर उस आकाश को आत्मा कहते हैं। अंतअकाश! परम आनंद है वहां परम शांति ! महावीर उस परम दशा को ही परमात्म-दशा कहते हैं। परमात्मा एक नहीं है महावीर के लिए, वरन प्रत्येक व्यक्ति की नियति है। हर व्यक्ति परमात्मा होने के मार्ग पर है। हर व्यक्ति परमात्मा हो रहा है; देर- अबेर होता चला जा रहा है। 1 परमात्मा सृष्टि के प्रथम क्षण में नहीं है— परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति की अंतिम उपलब्धि में है। उतने ही परमात्मा हैं जितनी आत्माएं हैं। फिर ये आत्माएं बहिर्मुखी हों तो परमात्मा बाहर की Jain Education International For Private & Personal Use Only आज इतना ही। www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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