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________________ | जिन सूत्र भाग : 1 छोड़ने के लिए संन्यास का उपयोग कर लेना, बस। फिर उससे लेने को आये हो, अभी जल्दी मत करो।' पर उन्होंने कहा, भी पार हो जाना। अगर अंततः छोड़ ही देना है तो लेने से सार क्या? माना कि यहां कारागृह से थक जाना तो जरूरी है; जिसको हम घर | औषधि अंततः छोड़ देनी होगी–लेकिन तब जब बीमारी जा कहते हैं, अपना घर कहते हैं, आशियां कहते हैं उससे भी | चुकी हो। तुम यह तो नहीं कहते चिकित्सक को कि औषधि लेने थक जाना जरूरी है। से फायदा क्या, अंततः तो छोड़ ही देनी है! अगर न लोगे तो वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ | बीमारी में अटके रह जाओगे। औषधि तो लेनी होगी और तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। छोड़नी भी होगी। सीढ़ियां चढ़नी भी होंगी और छोड़नी भी अगर कोई गौर से देखे उथल-पुथल आंधियों की, तो तुम होंगी। तुमने कहा, जब छोड़ ही देनी है तो चढ़ना क्या, तो फिर कारागृह से थोड़े ही थकोगे, घर से भी थक जाओगे। तुम नीचे ही रह जाओगे। वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ महावीर को तत्क्षण खयाल उठा होगा, यह जो मैंने कहा कि तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम। पाप भी छोड़ दो, पुण्य भी छोड़ दो, क्योंकि दोनों बंधन हैं तो तब तुम जिंदगी के घर से भी थक जाओगे। जहां सुरक्षा शायद आदमी चोरी तो नहीं छोड़ेगा, दान करना छोड़ देगा: मिलती है, शरण मिलती है, उससे भी थक जाओगे। जहां 'क्या फायदा! इतना ही बंधन काफी है चोरी का ही, अब और सहारा मिलता है, आसरा मिलता है, उससे भी थक जाओगे। दान का बंधन क्यों सिर पर लेना! संसार का बंधन ही काफी है, शत्रु से तो थकोगे ही, मित्र से भी थक जाओगे। पराये से तो अब संन्यास का बंधन और क्यों सिर पर लेना! एक ही बंधन थकोगे ही अपने से भी थक जाओगे; क्योंकि वस्तुतः तो अपना बहुत है—हाथ में लोहे की जंजीरें पड़ी हैं, अब सोने की और भी पराया है। | क्या डालना!' तथापि, फिर महावीर कहते हैं, 'परमार्थतः दोनों प्रकार के तो महावीर को तत्क्षण कहना पड़ा, 'व्रत व तपादि के द्वारा कर्मों को कुशील जानकर उनसे राग न करना चाहिए। क्योंकि स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना उनका संसर्ग...कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से ठीक नहीं...।' स्वाधीनता नष्ट होती है।' औषधि कड़वी भी हो तो भी उसका कड़वापन झेल लेना उचित 'तथापि, व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके है। क्योंकि उसके बिना फिर बीमारी का नर्क है। न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं। क्योंकि कष्ट सहते ...क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं बेहतर, में खड़े रहने कहीं अच्छा है।' कहीं अच्छा है।' संन्यास की एक छाया है। आत्यंतिक छाया नहीं, आखिरी महावीर जब कह रहे हैं कि छोड़ दो सब-पुण्य भी, पाप छाया नहीं-आखिरी छाया तो आत्मा की है। संन्यास की एक भी-तब तत्क्षण उन्हें खयाल आया होगा कि आदमी बड़ा सुरक्षा है; अंतिम सुरक्षा नहीं, बीच का पड़ाव है। लंबी यात्रा में बेईमान है। उससे कहो, छोड़ दो पुण्य भी, पाप भी, तो पाप तो बीच में पड़ी धर्मशाला है। वहां विश्राम करके सुबह चल शायद न छोड़ेगा, पुण्य छोड़ देगा। वह कहेगा, बिलकुल ठीक! पड़ना। लेकिन यह मत सोचना कि जब सुबह चल ही पड़ना है अभी मैंने कहा कि छोड़ दो संसार, छोड़ दो संन्यास! तुम में से तो रात विश्राम क्या करना, चलते ही रहो! तो फिर तुम ज्यादा न कई के मन में उठा होगाः अरे, यह तो बिलकुल बेहतर, तो छोड़ चल पाओगे। तो फिर तुम बहुत दूर न पहुंच पाओगे। दो संन्यास! महावीर जैसे व्यक्तियों को निरंतर एक अड़चन खड़ी रहती है: हम अपने मतलब की सुन लेते हैं। | जब भी वे बोलते हैं तो एक तो वे बोलते हैं जो उन्हें लगता है ठीक एक मित्र ने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि 'अंततः तो सब | है, और तत्क्षण उन्हें तुम्हारा भी ध्यान रखना पड़ता है, तब वे वह छोड़ ही देना है?' मैंने कहा, 'अभी तुम लिये भी नहीं, अभी | भी बोलते हैं जो तुम कहीं गलत न समझ लो। तो वे कहते हैं, 506 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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