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________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता। क्योंकि जो मानी है वह दानी कैसे हो सकेगा? थोड़ी देर पुण्य में विश्राम कर लेना-लेकिन जाना है मोक्ष। तो महावीर कहते हैं, 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ को ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहंच न सकी सुशील जानो किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार | ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका। में प्रविष्ट करा दे?' नहीं वह भी कुशील है अंततः। अगर पाप पुण्य को कितना ही छलकाओ, पुण्य को कितना ही प्रदर्शित की दृष्टि से सोचो तो पुण्य सुशील है। अगर मोक्ष की दृष्टि से | करो, इससे तुम्हारा भव्य रूप प्रगट न होगा। शुभ रूप प्रगट सोचो तो पुण्य कुशील है! होगा, भव्य रूप नहीं क्योंकि भव्य तो शुभ से भी उतना ही दूर है इसलिए महावीर के सभी वक्तव्य दृष्टि-वक्तव्य हैं। इसको | जितना शुभ अशुभ से दूर है। भव्य तो बड़ा लोकतीत है। महावीर की परिभाषा में 'नय' कहते हैं-देखने का एक ढंग। ये मय छलक के भी उस हस्न को पहंच न सकी महावीर कहते हैं, कोई भी वक्तव्य निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।। तुम कहते हो, फलां आदमी बहुत लंबा। इसका कोई मतलब वह जो तुम्हारा परम सौंदर्य है, जो अंतसौंदर्य है, उसको पुण्य नहीं होता, क्योंकि कोई ऊंट से लंबा नहीं होगा, पहाड़ से लंबा | भी नहीं छू सकता। क्योंकि पुण्य भी कृत्य है। कृत्य कितना ही नहीं होगा, झाड़ से लंबा नहीं होगा। तुम जब कहते हो फलां | बड़ा हो, आत्मा से छोटा होता है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, आदमी लंबा, तो तुम मानकर चलते हो कि आदमी की एक कर्ता से छोटा होता है। तुमने जो किया है वह तुमसे बड़ा नहीं हो सामान्य ऊंचाई है, छह फीट, वह सात फीट है। लेकिन पहाड़ | सकता। करनेवाला सदा ही बड़ा है। के नीचे है। यह बड़ा मूलभूत दृष्टिकोण है कि कर्ता कृत्य से बड़ा है। जिस कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाने से डरते हैं। डरते होंगे, | जीवन की ऊर्जा से छोटी-छोटी लहरें पुण्य की उठती हैं, वे लहरें क्योंकि जब रेगिस्तान में चलते रहते हैं तो वही पहाड़ है। जब उस जीवन-ऊर्जा से बड़ी नहीं हो सकतीं। सागर में कितनी ही पहाड़ करीब आने लगता है तो दीनता प्रगट होती है। बड़ी लहर उठती हो, सागर से बड़ी नहीं हो सकती। हमारे सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। एक दृष्टि से ठीक होंगे, तुम सोच सकते हो सागर में ऐसी कोई लहर कभी उठ सकती तत्क्षण दूसरी दृष्टि से गलत हो जायेंगे। है जो सागर से बड़ी हो? असंभव! कितनी ही बड़ी लहर उठे, आइंस्टीन ने तो बहुत बाद में, ढाई हजार साल बाद महावीर | एक बात तय रहेगी कि सागर से छोटी रहेगी। अब तुम कोई के, विज्ञान के जगत में सापेक्षता का नियम सिद्ध किया। पर चाय की प्याली में थोड़े ही सागर की लहर उठा सकते हो। चाय महावीर ने ढाई हजार साल पहले धर्म के जगत में वही नियम की प्याली में चाय की प्याली की ही लहर उठेगी। वह चाय की सिद्ध किया था। प्याली से छोटी रहेगी। महावीर और आइंस्टीन बड़े एक साथ खड़े हैं। जो दान | महावीर कहते हैं कि जो हमारी अंतरात्मा है वह विराट है। महावीर का धर्म के जगत में है, वही दान आइंस्टीन का विज्ञान के | कृत्य तो छोटी-छोटी तरंगें हैं। उन छोटी-छोटी तरंगों को तुम जगत में है। आइंस्टीन ने डांवांडोल कर दिया विज्ञान का सारा | सब कुछ मत मान लेना। वे पुण्य की भी हों तरंगें तो भी तुम्हारे जगत। सारी चीजें सापेक्ष हो गयीं। निरपेक्ष कोई वक्तव्य न परम सौंदर्य को न छू पायेंगी। और कितने ही पुण्य के फूल रहा। कोई ऐसा वक्तव्य नहीं है जो तुम बिना किसी शर्त के कह | खिलते जाएं तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य के सामने चरणों में चढ़ाने सको। सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। | के योग्य भी न हो पायेंगे। महावीर ने भी कहा, सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। इसलिए इस संसार में तो हम जो भी करते हैं वह कृत्य है। पुण्य करें, इसमें तुम विरोध मत देखना और विसंगति मत देखना। यह दो | पाप करें; अच्छा करें, बुरा करें-जो भी हम बाहर करते हैं वह दृष्टियों से कही गयी बात है। कृत्य है। जो भीतर बैठा है, करने के पार, साक्षी-वह इस कितनी ही चेष्टा करो, पुण्य के द्वारा तुम्हारा परम रूप प्रगट न | संसार का हिस्सा नहीं है। हो सकेगा। पुण्य बीच की मंजिल हो सकती है। पाप से हटकर | वही है हमारा परम सौंदर्य। वही है मुक्ति, मोक्ष। 504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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