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________________ जीवन की भव्यता : अभी और यहीं यह भी सुशील नहीं है। यह तो कामचलाऊ बात थी, चलाने जैसा क्या है? वह तो मजबूरी से कर रहा है कि खूब पाप व्यवहारिक थी। किए हैं, अब उनको धोना है; खूब गंदगी इकट्ठी कर ली है, अब महावीर ने कहा है, वक्तव्य उनके दो आधारों पर स्नान करना है। तो तुम स्नान-घर अपना मकान के सामने थोड़े हैं-व्यवहारिक-नय और निश्चय-नय। एक वक्तव्य ऐसा है ही बनाते हो—कि खड़े हैं बीच सड़क पर और स्नान कर रहे हैं; जो व्यवहारिक है। एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालना है; कि सारा गांव देख ले कि कैसे स्वच्छ हो रहे हैं! स्नान-घर में तो इसलिए वे कहते हैं, यह कांटा बड़ा शुभ है, इससे तुम लगे हुए तुम छिपकर चुपचाप स्नान कर लेते हो। तुम्हारा पुण्य का गृह भी कांटे को निकाल लो। जब कांटा निकल जाता है तब वे निश्चय ऐसा ही छुपा होना चाहिए। क्योंकि अगर तुमने इससे प्रशंसा वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं, अब दोनों कांटों को फेंक दो क्योंकि पायी तो यह एक नया उपद्रव बन जायेगा। तो फिर तुम प्रशंसा कोई कांटा सुशील कैसे हो सकता है! कांटा तो दुशील ही है, पाने का जो मजा है उसके लिए पुण्य करने लगोगे। फिर भव्य न कुशील ही है। रहे, अभव्य हो गए। तो महावीर की सारी वाणी दो तलों पर है। एक तल है जहां तो पुण्य को जो चुपचाप करे वही भव्य है। पुण्य की जो तुम खड़े हो, तुमसे बोल रहे हैं। और दूसरा तल है जब तुम घोषणा करके करे वह अभव्य है। लेकिन हम तो पुण्य करते ही उनकी सुन लोगे, समझ लोगे, मान लोगे, तब तत्क्षण वे तुमसे इसलिए हैं ताकि घोषणा हो। हम तो पुण्य करने के लिए राजी ही कहेंगे, अब इस कांटे को पकड़कर पूजा मत करने लगना। इसीलिए होते हैं, पुण्य के लिए थोड़े ही, घोषणा के लिए। पुण्य अच्छा है कामचलाऊ दृष्टि से; क्योंकि पाप से छुटकारा जो लोग दान इकट्ठा करते हैं वे भलीभांति जानते हैं। वे गांव के दिलाने में सहयोगी है। लेकिन इसको पकड़कर मत बैठ जाना। दो-चार धनी-मानी व्यक्तियों से पहले लिस्ट पर नाम लिखवा पुण्य ही तुम्हारे जीवन की अंतिम दिशा न बन जाये। अन्यथा लाते हैं। वे कहते हैं, न देना आप दस हजार, देना हजार; बीमारी से छूटे, औषधि से पकड़ गये। औषधि शुभ है, बीमारी लेकिन लिख तो दो दस हजार, ताकि दूसरे लोगों को देखकर से छुटा देने को; लेकिन औषधि की पूजा मत करना। पुण्य के लगे कि फलां ने दस हजार दिये, ईर्ष्या जगे, स्पर्धा पैदा हो गुणगान मत गाना। 'अच्छा तो यह अपने को समझता क्या है! दस हजार दिये तो लेकिन यही होता है। एक आदमी जरा-सा दान कर देता है तो लिखो ग्यारह हजार!' उसकी चर्चा करता है। न केवल चर्चा करता है, आयोजन करता दान के लिए भी अहंकार को ही फुसलाना पड़ता है। पुण्य के है कि लोग जानें कि इसने दान किया; अखबार में खबर छपे, | लिए भी बीमारी को ही खुजलाना पड़ता है। फिर जब दान हो फोटो छपे कि इसने दान किया। जाए तो दानी प्रतीक्षा करता है: अब प्रतिफल! शोभा-यात्रा महावीर कहते हैं, दान किया, यह तो ऐसा ही था कि पाप किया निकले। बैंड-बाजे बजें! सारे गांव में चर्चा हो! दूर-दूरदिगंत था, उसका प्रक्षालन किया; पाप किया था, उसका पश्चात्ताप तक उसकी खबर पहुंचे! किया- इसमें शोरगुल क्या मचा रहे हो? किसी आदमी को एक सज्जन मुझे मिलने आये थे। पत्नी भी साथ थी। तो पत्नी टी. बी. हो गयी थी, उसने दवा ली, ठीक हो गया तो वह ने मुझसे कहा कि शायद आपको मेरे पति का परिचय नहीं है। कोई अखबारों में खबर देने जाता है कि देखो, मैं कैसा महापुरुष, पत्नी मुझे एक-दो बार आकर मिल गयी थी। मैंने कहा कि ये कि दवा ली और ठीक हो गया! तो हम उसे पागल कहेंगे। पहली दफे आये हैं। उसने कहा, 'ये बड़े दानी हैं। एक लाख महावीर कहते हैं, खूब पाप किया है, थोड़ा-थोड़ा पुण्य करके | रुपया अब तक दान कर चुके हैं।' उसे छांटते हो, तो इसमें शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं। पति ने तत्क्षण पत्नी का पैर दबाया और कहा, 'एक लाख नहीं तो वास्तविक पुण्यात्मा व्यक्ति तो ऐसे करेगा पुण्य कि एक हाथ | एक लाख दस हजार!' वह दस हजार भी कम बोल रही है तो से करे और दूसरे हाथ को पता न चले। चुपचाप करेगा। पता ही पति को कष्ट हो गया; सुधार किया। नहीं चले किसी को क्योंकि पुण्य तो पश्चात्ताप है, इसमें पता दानी दान से मान इकट्ठा नहीं कर सकता। दानी मानी नहीं हो 503 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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