SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन सूत्र भाग संसार की ही इच्छा। इसलिए पुण्य की इच्छा पर ही मत रुक तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब जाना। पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप से छुटकारा हो सके। तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती। एक कांटा लग जाए, दूसरे से निकाल लेते हैं ऐसे ही पुण्य की | यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! इच्छा करना ताकि पाप निकल जाये। लेकिन जब एक कांटा परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर निकल जाये तो दूसरे को घाव में मत रख लेना। दूसरा भी उतना पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा ही कांटा है; माना कि पहले को निकालने में सहयोगी हुआ। दिया है, बिस्तर लगा दिया है। धन्यवाद दे देना और दोनों को फेंक देना। पाप जब निकल जाये नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां तो पुण्य को मत सम्हालने लगना; अन्यथा संसार ही सम्हाला विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर जाता है। बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ __ 'जो पुण्य की इच्छा करता है वह भी संसार की ही इच्छा करता सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण है। पुण्य सुगति का हेतु है, किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक होता है।' जाता है। इधर अंधेरे की लानते हैं, उधर उजाले की जहमतें हैं वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? है। विराम वहां नहीं है, राम वहां नहीं है। विश्राम तो भीतर है बड़ी कठिनाई है! इधर अंधेरे की लानते हैं—यहां अंधेरे की जहां तृष्णा शून्य हो जाती है। तकलीफें हैं। उधर उजाले की जहमतें हैं—उधर प्रकाश की भी 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो।' झंझटें हैं। इधर पाप सताता है, उधर पुण्य भी सताता है। तेरे इस वचन को गौर से सुनना। मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? यह जो 'अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सशील जानो। जिंदगी का मरुस्थल है, इस पर कहां विश्राम करें? इस जिंदगी किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है, जो संसार में प्रविष्ट के मरुस्थल में विश्राम की कोई जगह नहीं। विश्राम की जगह तो कराता है ?' मुसाफिर के भीतर है। यहां बाहर बिस्तर लगाया तो भटके। पहले महावीर कहते हैं, अशुभ कर्म को कुशील, शुभ कर्म को यहां तो भीतर बिस्तर लगाना होगा। उस भीतर बिस्तर लगाने सुशील जानो। तत्क्षण दूसरे वाक्य में खंडन करते हैं। कहते हैं, को महावीर कहते हैं, 'अनन्यगत; स्व-द्रव्य में प्रवृत्त किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट परिणाम।' लगा लिया भीतर बिस्तर! कराता है? तर्क से भरी हुई बुद्धि को लगेगा, यह क्या मामला देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर | है! यह तो वक्तव्य तत्क्षण विपरीत हो गया। एक वाक्य पहले क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है! ही कहा कि अशुभ को कुशील, शुभ को सुशील जानो-और [ अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत | फिर कहते हैं कि सुशील कैसे जाना जा सकता है शुभ को, नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? क्योंकि वह संसार में प्रवेश कराता है! शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है। ___ यह दो तलों के लोगों के लिए कहा गया वक्तव्य है। महावीर नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर | जैसे व्यक्तियों के वक्तव्यों में अगर असंगति मिले तो इतना ही छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के | समझना कि वह वक्तव्य कई तलों पर दिये गये हैं। पहले वे कह सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है...! लक्ष्मी उसके पैर रहे हैं उससे, जो पाप में रत है। उससे वे कह रहे हैं कि अशुभ दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव कर्म को कुशील जान, शुभ कर्म को सुशील। फिर जब वह पाप सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा से मुक्त हो गया है, तो वे उससे कहते हैं, 'लेकिन सुन! उसे करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? 502 Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy