SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म आविष्कार है-स्वयं का प्रतिपल आनंद-भाव से जीना लक्ष्य है। यहां पल-पल धर्म मनुष्य के भीतर फूल उगाने की कला है। और फूल आनंद-निमग्न होना लक्ष्य है। | अंतिम है, चरम है; इसके पार कुछ भी नहीं। प्रत्येक क्षण चरम पूछो फूलों से, 'क्यों खिले हो?' क्या कहेंगे बेचारे! पूछो है। जगत कहीं जा नहीं रहा है-जगत है। तुम भी इस 'है' में आकाश के तारों से, 'क्यों ज्योतिर्मय हो?' क्या कहेंगे! डूब जाओ। लेकिन तुम्हारे पास अगर गणित की भाषा है, जो लेकिन सब तरफ एक अहोगीत चल रहा है। एक अहोभाव नाच | पूछती है कि हम यह तो करेंगे, लेकिन किसलिए, तो चूक हो रहा है! पल-पल, प्रतिपल! जायेगी। धर्म इस ढंग से जीने का मार्ग है कि तुम प्रतिक्षण से आनंद को मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह खेल की भाषा है, दुकान की निचोड़ लो। प्रतिक्षण में छिपा है स्वर्ग। तुम उसे चूस लो, नहीं। छोटे बच्चे खेल रहे हैं। तुम पहुंच जाते हो, डांटने-डपटने निचोड़ लो, पी लो। प्रतिक्षण में छिपी है रसधार। लगते हो : 'क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो, इससे क्या अब यहां लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम ध्यान क्यों कर रहे मिलेगा?' छोटे बच्चे हैरान होते हैं कि...मिलने की बात ही हैं? वे यह पूछ रहे हैं कि इससे क्या मिलेगा? ध्यान से कभी उनकी समझ में नहीं आती। मिलने का सवाल कहां है? कोई कुछ मिला है! ध्यान ही मिलना है। ध्यान में आनंद है। ध्यान में बैंक में बैलेंस बढ़ जायेगा? खाते-बही में ज्यादा पैसे इकट्ठे हो प्रफुल्लता है, नृत्य है। ध्यान के क्षण में सब कुछ है, अंतर्निहित जायेंगे? यह उनकी समझ में ही नहीं आता। खेल रहे थे, मिल है। ध्यान के क्षण के बाहर कुछ भी नहीं है। लेकिन यह भक्त रहा था। नाच रहे थे, मिल रहा था। इसके पार थोड़े ही कुछ की भाषा है। मिलना है। ज्ञानी की भाषा तो लक्ष्य की भाषा होती है। यह प्रेमी की भाषा इसलिए भक्त कहता है, जीवन एक लीला है। है। प्रेमी कहता है, प्रेम में सब कुछ है, प्रेम के बाहर क्या है! प्रेम ज्ञानी कहता है, जीवन हिसाब-किताब है। कर्म का जाल है। किसी और चीज के लिए साधन थोड़े ही है, साध्य है। ज्ञानी | इसमें साधन जुटाने हैं, साध्य पाना है। पूछता है साधन! यह साधन है, साध्य क्या है? मुझे तो भक्त की भाषा प्रीतिकर है। ज्ञानी की भाषा उतनी तो वह जो जैन बुद्धि मन में बैठी है, वह पूछती है, 'क्या महिमापूर्ण नहीं है। गणित हो भी नहीं सकता उतना महिमापूर्ण मिलेगा? उपवास करेंगे तो यह मिलेगा। इतने उपवास करेंगे तो | जैसा काव्य होता है। और जब काव्य बन सकता हो जीवन, तो यह मिलेगा। इतना त्याग करेंगे, इतना तप करेंगे, तो इतना पुण्य गणित क्यों बनाना? हां, जब काव्य न बन सकता हो, मजबूरी का अर्जन होगा। इससे स्वर्ग मिलेगा। यह ध्यान करके यहां है, तब गणित बना लेना। जब तर्क के बिना नृत्य हो सकता हो क्या कर रहे हो? इससे क्या मिलेगा?' मैंने कभी तुम्हें कहा भी तो तर्क को बीच में क्यों लाना? हां, अगर नाच आता ही न हो, नहीं कि इससे कुछ मिलेगा। मैं तो तुमसे कहता हूं, इसी में तर्क ही तर्क आता हो, तो फिर ठीक है, तर्क को ही जी लेना। मिलता है, इसी में मिल रहा है। तम इसके बाहर नजर ही मत ले जाओ। इसमें ही डूबो, डुबकी लगाओ। इसमें ही ऐसे पूर्ण भाव तीसरा प्रश्न : जाग्रत पुरुषों ने देश-काल-परिस्थिति और से डूब जाओ कि न कुछ खोज रह जाये, न कोई खोजनेवाला रह | लोगों की युगानुकूल मनोदशा का खयाल रखकर एक ही सत्य जाये। ऐसी तन्मयता, ऐसी तल्लीनता प्रगट हो, तो यही क्षण को बड़े भिन्न-भिन्न रूप से अभिव्यक्त किया है। यहां तक कि परमात्म-क्षण हो गया। वे परस्पर बिलकुल विवादास्पद तथा विरोधाभासी तक बन प्रतिक्षण परमात्मा तुम्हारे चारों तरफ बरस रहा है। परमात्मा | गये हैं। जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष एक उपस्थिति है आनंद की। तुम जरा भीतर अपने साज को अभिव्यक्ति संभव नहीं है? क्या सदा ही युग व लोक-दशा ठीक से बिठा लो। धुन बजने लगेगी। तुम्हारे भीतर से वैसे ही की सीमा सत्य पर आरोपित होती रहेगी? झरने फूटने लगेंगे, जैसे पहाड़ों से फूटते हैं। और तुम्हारे भीतर वैसे ही फूल खिलने लगेंगे, जैसे वृक्षों पर खिलते हैं। अभिव्यक्ति तो सदा सीमित होगी। अभिव्यक्ति तो सदा 403 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy