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________________ जिन सूत्र भाग : 15 अब मैं तुमसे कहता हूं कि पहला मार्ग बड़ा खतरनाक है। चीजें को रास आता है, जो उनके शास्त्र के अनुकूल पड़ता है, वही छोड़ो, पक्का नहीं है कि चीजें छूटने से उसका दर्शन हो जायेगा; बोलना पड़ता है। जब मेरे पास कभी आ जाते हैं, क्योंकि अब कहीं ऐसा न हो कि चीजें छूटने से तुम केवल सिकुड़कर रह तो उनके अनुयायी भी आने नहीं देते; पहले आ जाते थे, तो वे जाओ और दर्शन की क्षमता भी खो जाये। ऐसा ही हुआ है। मुझसे कहते थे, अकेले में बात करनी है। अपने अनुयायियों को कभी कोई एक-आध महावीर अपवाद हो जाते हैं, बात अलग। बाहर कर देते। अकेले में क्यों करनी है? वे कहते कि आप नियम नहीं हैं वे। अधिक लोगों को तो मैं यही देखता हूं कि चीजें इनको तो बाहर जाने दें, इनके सामने सच न कहा जा सकेगा। छोड़-छोड़कर उनको कुछ मिला नहीं है; कुछ छूटा जरूर, मिला अकेले में उनके प्रश्न बुनियादी रूप से तीन मैंने पाये। एक, कि कुछ भी नहीं है। मिलने से तो वे भयभीत हो गये हैं, डरते हैं। मैं उन्होंने छोड़ दिया सब, लेकिन भीतर से रस नहीं गया है। दूसरा, तो तुमसे कहूंगा छोड़ना मत, जब तक कि श्रेष्ठ का अनुभव न हो | जो-जो वासनायें उन्होंने दबा ली हैं, जैसे-जैसे देह कमजोर होती जाये। श्रेष्ठ को पहले उतरने दो; आने दो रोशनी को, फिर | जाती है, वे वासनाएं प्रबल होकर उभर रही हैं। पैंतालीस साल अंधेरा जायेगा। के बाद पता चलना शुरू होता है, जो-जो दबा लिया, वह तम खेल रहे थे कंकड़-पत्थर से, फिर कोई हीरे दे गया था; मुश्किल में डालता है। क्योंकि दबाने की ताकत कमजोर हो कंकड़-पत्थर छुट जायेंगे। हीरे जब सामने हों तो मुट्ठियां कौन जाती है। दबानेवाला दीन होने लगता है, क्षीण होने लगता है। कंकड़-पत्थरों से भरेगा! और जो वासना दबाई है, अंगार की तरह वह ताजी रहती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम कंकड़-पत्थर छोड़ दो तो कोई | और तीसरी बात, एक संदेह कि हमने जो किया है, वह ठीक आकर हीरों से तुम्हारी मुट्ठियां भर दे। किया? यह उचित हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो संसार में अकसर तो मैं देखा हूं, जैन मुनि जब मेरे पास कभी आते हैं, तो है वही ठीक हो? उनकी बात सुनकर बड़ी व्यथा होती है। अब यह बड़ी दयनीय दशा है। यह तुमसे ज्यादा दयनीय दशा तो वे यही कहते हैं कि हमने छोड़ तो सब दिया, लेकिन पाया | है। यह तुमसे ज्यादा मुश्किल और उलझन की दशा है। तुम्हारे तो कुछ भी नहीं। जिंदगी हो गई छोड़ने में, अब मौत करीब आने पास कुछ तो है—संसार ही सही; ये हाथ बिलकुल खाली हो लगी। अब तो हाथ-पैर भी कंपने लगे। अब डर भी समाने गये। इन खाली हाथों की दीनता देखो लगा। अब लौटकर भी उस संसार में नहीं जा सकते जिसको मैं तुम्हें दीन नहीं बनाना चाहता। मैं कहता हूं, तुम परमात्मा छोड़ आये। अब थूककर चाटना ठीक भी नहीं मालूम होता।' को खोजो। वह जैसे-जैसे मिलता जायेगा, वैसे-वैसे संसार और समय भी न रहा, शक्ति भी न रही। लेकिन भीतर एक तिरोहित होता जायेगा। जैसे-जैसे तुम्हारे हाथ भरने लगेंगे संदेह उठता है। न मालूम कितने जैन मुनियों ने मुझसे कहा है कि उससे, वैसे-वैसे तुम पाओगे संसार से हाथ हटने लगे। हटाना भीतर एक संदेह उठता है कि हमने छोड़कर ठीक किया? कहीं न पड़ेंगे। हटाना पड़े तो दमन होता है। हट जायें, अपने से हट हमसे कुछ भूल तो नहीं हो गई? जायें तो उसका सौंदर्य ही अनूठा है। फिर उसकी लकीर भी नहीं कहीं ऐसा तो नहीं था कि यही संसार सब कुछ है और हम | रह जाती भीतर, पीड़ा भी नहीं रह जाती। इसको भी छोड़ बैठे? दूसरा तो मिला नहीं, यह छूट गया। जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां तुम्हें उनकी पीड़ा का अंदाज नहीं, क्योंकि तुम केवल उनका आगे बढ़े हए हैं हर इक कारवां से हम। प्रवचन सुनते हो। प्रवचन में तो वे वही दोहराते हैं, जिसको | -और जिस दिन तुम अपनी बागडोर प्रेम के हाथ में दे सुनकर वे फंस गये हैं। प्रवचन में तो वे सत्य नहीं कहते। | दोगे... अभी तक आदमी इस प्रामाणिकता को उपलब्ध नहीं हुआ कि जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां प्रवचन में सत्य कहे। प्रवचन में तो वह वही कहता है जो तुम्हें -और जिस दिन से तुम्हारा पथ-प्रदर्शक, अगुआ प्रेम हो रास आता है, भाता है। अब जैनों के बीच बोलते हैं तो जो जैनों | जायेगा... 354 ain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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