SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 परंपरा से अलग खड़ा होना जरूरी है। अलग खड़े होने के लिए 'नहीं' शब्दों का उपयोग करना पड़ा, ताकि सीमा-रेखा साफ हो जाये। और जब अल्पमत में कोई होता है तो उसे बड़ी स्पष्टता से अपनी सीमा रेखा बनानी पड़ती है, क्योंकि बहुमत उसे लील जायेगा। हिंदुओं का विराट सागर था; जैनों, बौद्धों की नदी कहीं भी खो जाती इसमें, यह ताल तलैया कहीं भी खो जाता, इसका कहीं पता भी न चलता। तो उस ताल तलैया को बहुत सुरक्षित होकर अपनी व्यवस्था करनी पड़ी। उसने उन सारे शब्दों का उपयोग रोक दिया, जो हिंदू उपयोग करते थे । वे शब्द अपने-आप में बहुमूल्य थे; लेकिन मजबूरी थी, उन शब्दों के साथ संबंध हिंदुओं का था। अगर ब्रह्म शब्द का उपयोग करो - डूबे ! अगर परमात्मा शब्द का उपयोग करो - डूबे ! हिंदुओं के पास लंबी परंपरा थी। उस परंपरा के कारण सारे विधायक शब्द उपयोग कर लिये गये थे। हिंदुओं का वही तो बल है। हिंदू इतने आघातों के बाद जीते रहे हैं, उसका कारण कहां है? उसका कारण है उनकी विधायकता में, स्वीकार में, अंगीकार में अगर तुम वैदिक, उपनिषद के ऋषियों का स्मरण करो तो तुम्हें समझ में आयेगा कि अब तुम जिसे साधु और संन्यासी कहते हो, उस हिसाब से वे साधु-संन्यासी न थे। मैं जिस हिसाब से संन्यासी कहता हूं, उस हिसाब से संन्यासी थे। घर में थे, गृहस्थी में थे, उनकी पत्नियां थीं, बच्चे थे, धन-दौलत थी। बड़ा विधायक रूप था । संन्यास हिंदुओं के लिए गृहस्थी के विपरीत नहीं था, गृहस्थी का ही आत्यंतिक फल था । ऐसा नहीं था कि घर को छोड़कर जो चला गया, वह संन्यासी है; नहीं, जिसने घर पूरा कर लिया, वह संन्यासी है। जो घर में पूरा-पूरा जी लिया और पार हो गया; जीवन के अनुभव एक-एक सोपान की तरह चढ़ गया - वह संन्यासी है। संन्यास हिंदुओं के लिए जीवन का अंतिम शिखर था। पहले ब्रह्मचर्य, फिर गार्हस्थ्य, फिर वानप्रस्थ, फिर संन्यास - ऐसी जीवन में एक क्रमबद्धता थी, एक विकास था। बहुत वैज्ञानिक बात थी। पहले संसार को ठीक से अनुभव तो कर लो, भोग की पीड़ा तो जानो, ताकि तुम त्यागी हो सको । धन की व्यर्थता तो जानो ताकि विराग का जन्म हो सके ! इस देह की नश्वरता को तो पहचानो ! शास्त्रों से नहीं -- जीवन, Jain Education International उठो, जागो - सुबह करीब है। अनुभव...! सभी को अनुभव हाथ आ जाता है। तो हिंदुओं के हिसाब से संन्यास जीवन-विरोधी न था, जीवन का नवनीत था। जिन्होंने जीवन को जीया, वे उस नवनीत को उपलब्ध हुए। दूध है; उसे जमाओ, दही बनाओ, दही का मंथन करो, मक्खन निकालो, मक्खन को गरमाओ, घी बनाओ – ऐसा संन्यास था। घी की तरह ! फिर घी का तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुमने कभी खयाल किया, घी के बाद कोई गति नहीं है। घी को तुम कुछ और नहीं बना सकते। दूध दही हो सकता है; दही मक्खन बन जाता है; मक्खन घी बन जाता है - लेकिन अब तुम घी को कुछ भी नहीं बना सकते। पराकाष्ठा ! अब अगर तुम चाहो, कि घी को पीछे भी लौटायें तो वह भी नहीं कर सकते। तुम चाहो कि अब घी का मक्खन बना लें, कि मक्खन का अब दही बना लें, कि दही से अब दूध में उतर जायें - वह भी नहीं हो सकता। तो हिंदुओं के लिए तो संन्यास घी की तरह था; वह आखिरी बात थी – जिससे पीछे लौटना नहीं होता, जिसके आगे जाना नहीं है । और उस तक जिसे पहुंचना है, उसे ये सारी सीढ़ियां पार करनी होंगी। इस सनातन धर्म के बीच महावीर का आविर्भाव हुआ । यह परंपरा सड़ गई थी, गल गई थी। सभी परंपराएं एक दिन सड़ जाती हैं, गल जाती हैं। यह जीवन का स्वाभाविक धर्म है। जैसे हर जवान बूढ़ा हो जाता है, फिर हर बूढ़ा मर जाता है, फिर एक दिन अस्थि लेकर हम जाकर जला आते हैं — ठीक ऐसी ही संस्कृतियां पैदा होती हैं, धर्म पैदा होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े होते हैं, मरते हैं। लेकिन जिस बात को हम सामान्यतया जीवन में कर लेते हैं...मां मर गई तो बहुत प्रेम था, फिर भी क्या करोगे ? रोते हो, धोते हो, रोते जाते हो, अर्थी बांधते जाते हो—करोगे क्या ? रोते जाते हो, अर्थी लेकर चल पड़ते हो । रोते जाते हो, जला आते हो। इतनी हिम्मत हम धर्मों के साथ न कर पाये कि वे भी जवान होते हैं; जब जवान होते हैं तब उनका मजा और! जब हिंदू धर्म शिखर पर ना तो उसने उपनिषद जैसे शास्त्रों को जन्म दिया, महाकाव्य पैदा हुआ ! सब तरफ गीत गूंज उठा हिंदू धर्म का ! प्राणों में पुलक थी, उत्साह था, जवानी थी ! फिर हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ । जब हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ और मर For Private & Personal Use Only 347 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy