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________________ रखना। अधिक लोगों ने जीवन के आधार ज्ञान पर रख लिए हैं। तर्क से, विचार से, बुद्धि से जो बात ठीक लगी है - सोचा, उसे स्वीकार कर लें। लेकिन जो तर्क से ठीक लगा है वह हृदय न जा सकेगा, क्योंकि तर्क की पहुंच हृदय तक नहीं। तर्क तो सिर्फ खोपड़ी की खुजलाहट है; बहुत ऊपर-ऊपर है। प्राणों को आंदोलित नहीं करता तर्क । श्रद्धा तर्क के लिए कभी किसी ने प्राण दिये ? तर्क के लिए कभी कोई शहीद हुआ ? तुम जिसके लिए मर सको, वही तुम्हारी है । तुम जिसके बिना जी न सको, वही तुम्हारी श्रद्धा है। तुम कहो जीयेंगे तो इसके साथ, इसके बिना तो मृत्यु हो जायेगी – वही श्रद्धा है। जो जीवन से भी बड़ी है, वही श्रद्धा है। जिसके लिए जीवन भी निछावर किया जा सकता है, वही श्रद्धा है। तर्क के लिए तुमने कभी किसी को जीवन निछावर करते देखा ? दो और दो चार होते हैं - इस सत्य का अगर कोई प्रतिपादन करता हो और तुम तलवार लेकर खड़े हो जाओ, तो क्या वह सत्य की रक्षा के लिए अपने जीवन को देना चाहेगा? मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा। दो और दो चार होते हैं, इसके लिए मरने में कोई सार न मालूम होगा । वह कहेगा कि तुम्हारी मर्जी, दो और दो पांच कर लो कि दो और दो तीन कर लो; लेकिन दो और दो चार कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए मैं जीवन को गंवा दूं । प्रेम के लिए कोई जीवन को गंवा सकता है। इसलिए श्रद्धा जीवन का आधार ज्ञान पर मत रखना - दृष्टि पर, दर्शन पर प्रेम की भांति है। महावीर कहते हैं, श्रद्धा पर जीवन को खड़ा ना णेण जाणई भावे - ज्ञान से मनुष्य जानता है। दंसणेण य सद्दहे - दर्शन से श्रद्धा उत्पन्न होती है। चरित्तेण निगिण्हाइ – चरित्र से निरोध होता है, निषेध होता है। तवेण परिसुज्झई — और तप से मनुष्य विशुद्ध होता है । ज्ञान से हम जानते हैं। लेकिन जानना काफी नहीं है। जानना बहुत ऊपर-ऊपर है। मात्र जान लेने से श्रद्धा पैदा नहीं होती। जब तक कि स्वयं दर्शन न हो जाये, जब तक कि खुद की आंखों से हम न देख लें - तब तक श्रद्धा नहीं होती। महावीर ने देखा; हमने सुना । जो सुनकर जान लिया, उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। कृष्ण ने कहा; हमने सुना । मान लिया सुनकर। उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। और अगर तुमने श्रद्धा किसी भांति आरोपित कर ली तो तुम भटक जाओगे। क्योंकि झूठी श्रद्धा जीवन को रूपांतरित नहीं करती। वही लक्षण है झूठी श्रद्धा का, कि जीवन तो कहीं और जाता है, श्रद्धा कुछ और कहती है। श्रद्धा कहती है, त्याग; और जीवन धन को इकट्ठा करता चला जाता है। तो श्रद्धा झूठी है, मिथ्या है। जब जीवन और श्रद्धा साथ-साथ चलने लगे, जब जीवन श्रद्धा के पीछे छाया की भांति चलने लगे, तभी जानना की श्रद्धा सच्ची है। तो महावीर कहते हैं, श्रद्धा मौलिक है। श्रद्धा जो ज्ञान आविर्भूत हो, वही ज्ञान है। और जब श्रद्धा से ज्ञान आविर्भूत होगा तो ज्ञान से चारित्र्य अपने-आप निष्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only 537 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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