SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 474 जिन सूत्र भाग: 1 नहीं देखता। लेकिन धन को छोड़कर कहां जाओगे ? धन तो बाहर था, बाहर ही रहेगा। तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम्हारे भीतर की लोभ - दशा कैसे बदलेगी ? कोई देखता है, पद में उपद्रव है, अशांति है— पद छोड़कर हट जाता है। न तो अशांति पद में है, न धन में है। कोई देखता है, प्रेम में उलझाव है । प्रेम में उलझाव नहीं है। उलझाव तो तुम्हारी प्रेम न कर पाने की स्थिति में है। तुमने प्रेम के नाम पर कुछ और किया है, इसलिए उलझाव है। थोड़ा समझो। इधर मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग अपनी प्रेम की समस्या लेकर मेरे पास आते हैं। तो पहली बात तो यह है कि प्रेम तो उन्होंने किया ही नहीं है, समस्या है। प्रेम के नाम पर कुछ और किया है। प्रेम के नाम पर ईर्ष्या की है। प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत साधनी चाही है। प्रेम के नाम पर राजनीति की है। प्रेम के नाम पर किसी को दबाना चाहा है, सताना चाहा है। प्रेम के नाम पर किसी के सिर पर बैठ जाना चाहा है । यह नाम प्रेम का है, भीतर छिपा कुछ और है। तुम जिस स्त्री से कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया? तुम जिस पुरुष को कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया ? जिस बेटे को तुम 'कहते मैंने प्रेम किया, प्रेम किया? बेटे में तुमने महत्वाकांक्षा की है कि तुम जो नहीं कर पाये, बेटा पूरा करेगा। तुम जो अधूरा छोड़ जाओगे, बेटा पूरा करेगा। बेटे के माध्यम से तुमने एक तरह का अमरत्व साधना चाहा। तुम तो मरोगे, तुम्हारा अंश तुम्हारे बेटे में जीयेगा। चलो इतना ही सही, पूरे न बचोगे, एक अंश बचेगा। वृक्ष न बचेगा, लेकिन बीज तो बचेगा। चलो यही सही। इतना तो इंतजाम कर लें। कौन अपने बेटे को प्रेम करता है ! बेटे के माध्यम से कुछ और चीजें हैं, कुछ अहंकार की एषणाएं हैं जिन्हें तुम पूरा करना चाहते हो। तुम नहीं बन पाये प्रधानमंत्री, बेटा बन जायेगा। तुम नहीं हो पाये बड़े धन कुबेर, बेटा हो जायेगा । नाम तो रहेगा। नाम तो तुम्हारा है, बेटा तो तुम्हारा है ! इसलिए दुनिया में इतने मां-बाप कहते हैं कि हम अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, लेकिन दुनिया में कहीं प्रेम दिखाई नहीं पड़ता । सभी बच्चे तो मां-बाप से पैदा होते हैं। अगर सच में ही मां-बाप प्रेम करते हैं तो सभी बच्चे प्रेम से पैदा हों और उनके जीवन में प्रेम की सुगंध हो । लेकिन वह सुगंध तो कहीं दिखाई नहीं Jain Education International पड़ती । दिखाई तो पड़ती है घृणा की दुर्गंध । दिखाई तो पड़ता है युद्ध, वैमनस्य, हत्या, हिंसा, क्रोध, और सभी प्रेम के स्रोत से आते हैं। तो जरूर प्रेम के स्रोत में कहीं कोई जहर मिला है। क्योंकि अंतिम परिणाम बताते हैं। फल से पता चलता है वृक्ष का। तो तुम्हारे बेटे के जीवन में अगर प्रेम फले तो ही पता चलेगा कि तुमने प्रेम किया था, तुमने प्रेम की खाद डाली थी। लेकिन किसी बेटे के जीवन से पता नहीं चलता। पत्नी है, पति है, एक-दूसरे को कहते हैं कि प्रेम करते हैं। लेकिन कभी तुमने देखा, गौर से समझा – यह प्रेम है या कुछ और ? प्रेम के नाम से धोखा दे रहा है। फिर समस्याएं खड़ी होती हैं । तुम्हारी पत्नी किसी दूसरे की तरफ गौर से भी देख ले तो अड़चन शुरू हो जाती है। तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुमने कुछ सौंदर्य की मोनोपाली, एकाधिकार नहीं कर लिया है । तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुममें भी सौंदर्य है, क्योंकि जगत में सौंदर्य है, अन्यथा तुममें भी न होता। तो अगर पत्नी किसी की तरफ भरनजर देख लेती है, तुम घबड़ा क्यों गये हो ? इतने परेशान क्यों हो गये हो ? घबड़ाहट है। प्रेम कहीं घबड़ाता है? अगर प्रेम हो तो तुम चुपचाप पूछोगे, 'सुंदर लगा यह व्यक्ति ? मुझे भी सुंदर लगा। सुंदर है।' न तो पत्नी को यह छिपाना पड़ेगा कि यह व्यक्ति सुंदर लगा, न तुम्हें इसके लिए कोई संघर्ष करना पड़ेगा कि तुम पत्नी को दबाओ, कि पत्नी की आंख को हटाओ, कि पत्नी पर नियंत्रण करो। कहां क्या बुरा हुआ है ? पति अगर किसी और स्त्री से हंसकर बोल ले, मुस्कुराकर बोल ले तो पत्नी बेचैन है, परेशान है। यह कैसा प्रेम है ? यह कैसा प्रेम है जो पति को मुस्कुराते नहीं देख सकता ? पत्नी कहती है, मुस्कुराना तो बस मेरे पास। यह तो ऐसे हुआ, जैसे कि तुम कहो कि सांस लेना तो बस मेरे पास ! बाकी चौबीस घंटे और कहीं श्वास मत लेना । मुस्कुराहट भी श्वास है । प्रेम भी श्वास है । और जैसे बिना भोजन के आदमी मर जाता है— बिना प्रेम के आदमी मर जाता है । बिना भोजन के शरीर मरता है - बिना प्रेम के आत्मा मर जाती है । तो बिना भोजन के तो तुम जी भी लो-थोड़े दिन; बिना प्रेम के तो तुम क्षणभर नहीं जी सकते। क्योंकि प्रेम ही तुम्हारी आत्मा की श्वास है । जैसे शरीर को आक्सीजन चाहिए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy