SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खबर दे रहा हूं; यह तो धूल है जो रथ के पहियों से उड़ी थी। यह कोई रथ तो नहीं है। और रथ में विराजमान जो आया था, उसकी तो बात ही क्या करनी ! उस क्षण तो मैं बिलकुल मिट गया था। बुद्धि न थी, मैं न था । तो एक चित्र भी तो न पकड़ पाया, एक छवि भी तो न खींच पाया कि लोगों को दिखा देता ! फिर भी... उसके चरण की धूल भी सही ! उसके चरणों ने छुआ है, या उसके रथ के पहियों ने छुआ है, तो इस धूल में भी कुछ स्वा आ गया होगा। बस ! उस धूल की बात है। ज्ञानी है, वह जब ध्यान की परम दशा में पहुंचता है, सब विचार शांत हो जाते हैं। जब अनुभव होता है, तब विचार नहीं होते। जब विचार लौटते हैं, तब अनुभव जा चुका होता है । तो विचार हमेशा पीछे-पीछे आते हैं। और कुछ टूटा-फूटा, कुछ जूठा, कुछ रेखाएं पड़ी रह गईं समय पर, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उन्हीं को हम अभिव्यक्ति बनाते हैं। जाना गया है, वह कभी कहा नहीं गया। जो कहा गया है, वह वस्तुतः वैसा कभी जाना नहीं गया था। इसलिए शब्दों को मत पकड़ना । इसीलिए मैं निरंतर कहता हूं कि शास्त्र सहयोगी नहीं हो पाते। क्योंकि जब तुम किसी सदगुरु के पास होते हो, तब उसके शब्दों में भी उसके निशब्द की ध्वनि आती है। तब उसकी अभिव्यक्ति तुम्हारे भीतर उसके फूल खिलने लगते हैं, जो अनभिव्यक्त रह गया है। तब उसके बोलने में भी तुम उसके अबोल को सुन पाते हो। उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति; तुम्हें छूती है, तुम्हें स्पर्श करती है, तुम्हें नहला जाती है। वह जो शब्दों से कहता है, वह तो ठीक ही है, वह तो शास्त्र भी कह देंगे; लेकिन जो उसकी मौजूदगी के स्पर्श में तुम्हें अनुभव होता है, वह शास्त्र न कह पायेंगे। इसलिए सदगुरु के सान्निध्य में तो क्षणभर को तुम्हें ऐसा लगता है कि उसकी अभिव्यक्ति ने छू लिया। बात जतला दी, बता दी, इशारा हो गया। खिड़की खुली थी, देख लिया। ऐसा तुम्हें लगता है कि जो मैं खुद भी कहना चाहता था और न कह पाता था, वह तुमने कह दिया। देखना तकरीर की लज्ज्त कि जो उसने कहा मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है। बहुत बार तुम्हें लगेगा सदगुरु के पास कि ठीक, बिलकुल ठीक, यही तो मैं कहना चाहता था, लेकिन शब्द न जुटा पाता Jain Education International धर्म आविष्कार है— स्वयं का था, असमर्थ था। जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह दिया। कई बार सदगुरु के सान्निध्य में तुम्हारा हृदय ठीक उस जगह जायेगा, जहां कुछ अनुभव होता है। लेकिन वह अनुभव होता है उपस्थिति से । वह है सत्संग । शास्त्र में तो राख रह जाती है। राख की भी राख । छाया की भी छाया । तो अगर कोई जीवित व्यक्ति मिल सके, ऐसा सौभाग्य हो, तो हजार काम छोड़कर उसके चरणों में बैठने का अवसर मत छोड़ना । क्योंकि जो शास्त्र नहीं कह पाते हैं, यद्यपि कहने की चेष्टा की गई है, वह उसकी मौजूदगी कहेगी। इसलिए जो लोग महावीर के पास थे, उन्होंने जो जाना; जिन्होंने कृष्ण के पास होने का सौभाग्य पाया, उन्होंने जो जाना — वह तुम गीता पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे; वह तुम जिन-सूत्र पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे ! उसका कोई उपाय नहीं । सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई—वही शास्त्र है। केंचुली जब सांप पर चढ़ी थी, तब भी केंचुली ही थी, लेकिन तब जीवंत थी। तब सांप चलता था तो केंचुली भी चलती थी। तब सांप फुफकारता था तो केंचुली भी फुफकारती थी । फिर सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई। अब हवा के झोंके में हिलती-डुलती है, लेकिन अब चलती नहीं; अब उसके पास अपने कोई प्राण नहीं हैं, जीवंत आत्मा नहीं है। सभी धर्म जब पैदा होते हैं तो किसी सदगुरु की मौजूदगी में पैदा होते हैं। सदगुरु के विदा हो जाने पर सांप की केंचुलियां पड़ी रह जाती हैं अनंत सदियों तक, और लोग उनकी पूजा करते रहते हैं। हां, सदगुरु न मिले तो मजबूरी है। तो फिर तुम शास्त्र को ही पूज लेना। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सदगुरु न हों! सदा होते हैं । यद्यपि दुर्भाग्य यह है कि जब वह होते हैं, बहुत कम लोग पहचानते हैं। जब वह जा चुके होते हैं, तब मुर्दा केंचुली को बहुत लोग पूजते हैं। लोगों का मरे से कुछ लगाव है, जिंदा से कुछ घबड़ाहट है! जीवन से कुछ डर है, मृत्यु की बड़ी पूजा है ! आखिरी प्रश्न : जब कोई प्यासा या प्यारा मिल जाता है, तब मेरी दशा पूर पर आई नदी जैसी हो जाती है। मैं आपको लेकर उस पर बरस पड़ती हूं। जाने किस नगरी की आवाज निकल पड़ती है। मैं दोनों सिरों पर जलती हुई मशाल जैसी हो जाती For Private & Personal Use Only 405 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy