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जिन सूत्र भागः 1
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यह बड़े मजे की बात है। महावीर तो क्षत्रिय, लेकिन महावीर | दिन तुम जहां हो वहीं मंदिर है। अंतर्यात्रा ! तुम्हारी ही देह मंदिर के जितने गणधर, सब ब्राह्मण! तो बड़ी हैरानी की बात है। बन जाती है। क्या, मामला क्या है? महावीर के मरते ही ब्राह्मण झपटे, 'प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना, हमें असहज, कठिन, उन्होंने कहा, यह तो अच्छा अवसर मिला, फिर शास्त्र बना लो। | असंभव-सा क्यों लगता है ?' उन्होंने तत्क्षण शास्त्र खड़े कर दिए। जैन धर्म निर्मित हो गया। स्वाभाविक है। कभी गए नहीं उस द्वार, कभी चखा नहीं उसे, अब अगर कोई पुनः जीवंत धर्म को लाए, तो फिर शास्त्री, कोई संबंध न बना, अजनबी हो-इसलिए। थोड़ा-थोड़ा पंडित, शास्त्र का पूजक, फिर कठिनाई में पड़ जाता है, फिर अभ्यास करो। बैठो उन लोगों के पास जो पहले से पीये हों। मश्किल में पड़ जाता है। वह कहता है, यह फिर गड़बड़ हुई। थोड़ी उनकी मस्ती को संक्रामक होने दो। थोड़े उनके साथ फिर उसके व्यवसाय में व्याघात हुआ।
डोलो, उठो, बैठो, परिक्रमा करो, सेवा करो। थोड़ा झुको उनके ध्यान रखना, भीतर अगर तुम जाना चाहते हो तो कोई न कोई पास, जो लबालब हैं और ऊपर से बहे जा रहे हैं। थोड़े न बहुत द्वार कहीं न कहीं पृथ्वी पर सदा खुला है। तुम जरा आंखें खुली छींटे तुम तक भी पहुंच ही जाएंगे। रखना, शास्त्रों से भरी मत रखना; तुम जरा मन ताजा रखना, बस इतनी ही चेष्टा है यहां कि थोड़े छींटे तुम तक पहुंच जाएं। शब्दों से बोझिल मत रखना; सिद्धांतों से दबे मत रहना, जरा | एक बार भी तुम्हें भीतर की धुन का जरा-सा नशा आ जाए, फिर सिद्धांतों के पत्तों को हटाकर तम जीवंत धारा को देखने की तम न रुकोगे, फिर तम्हें कोई भी न रोक पाएगा। फिर कोई कभी क्षमता बनाए रखना। तो कहीं न कहीं तुम्हें कोई सदगुरु मिल | किसी को रोक ही नहीं पाया। जाएगा। उसके पास ही तुम्हारा भय मिटेगा भीतर जाने का। अभी तो तम शास्त्र पढ़ते रहो, मंदिर में घंटियां बजाते रहो, पूजा तीसरा प्रश्न : मुझे मालूम नहीं, प्रसाद संकल्प से मिला या करते रहो, अर्चना के थाल सजाते रहो-सब धोखा है। समर्पण से, पर मिला, और मिल रहा है, और अकारण, और दिल को महवे-गमे-दिलदार किए बैठे हैं ।
अयाचित, और असमय, और भरपूर-वर्षा की भांति!? रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं। लोग बनते हैं कि मद्यप हैं, कि शराब पिए हैं, कि मस्ती में हैं। | अब इससे प्रश्न मत उठाओ। डूबो! अब चिंता मत करो: रिंद बनते हैं मगर जहर पिए बैठे हैं! खयाल ही देते हैं कि बड़ी | कहां से मिल रहा है, क्यों मिल रहा है! परमात्मा जब मिलता है मस्ती में हैं; लेकिन गौर से भीतर देखो तो हृदय में सिवाय घावों तो ऐसे ही बेबूझ मिलता है। तुम्हारे हिसाब-किताब से थोड़े ही के और कुछ भी नहीं, जहर पिए बैठे हैं।
मिलता है। तुमने कुछ किया, इसलिए थोड़े ही मिलता है। तुम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, जो तुम्हें लोग पूजा और ने चाहा...! प्रार्थना में डोलते हुए मालूम पड़ते हैं, धोखे में मत पड़ जाना, जरा ___ अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर उनके भीतर देखना; कुछ भी नहीं डोल रहा है! वे नाहक का अगर है तश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे। व्यायाम कर रहे हैं। जब भीतर कोई डोलता है तो फिर क्या मंदिर बस प्यास पूरी हो, तो प्याले भर जाएंगे।
और क्या मस्जिद! फिर पूजा के थाल क्या सजाना। फिर तो | अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जहां भी वे होते हैं, वहीं डोलते हैं। कबीर ने कहा है प्यास हो तो परमात्मा तुम्हें खोजता है। फिर गिड़गिड़ाना थोड़े 'जहां-जहां डोलं सो-सो परिक्रमा, खाऊ-पिऊ सो सेवा।' | ही पड़ता है! फिर भिखारी की तरह रोना थोड़े ही पड़ता है, झोली परमात्मा की सेवा हो गई, खा-पी लिया, मजे से खा-पी लिया, | थोड़ी फैलानी पड़ती है! चढ़ गया भोग। और कहां जाना है?
- अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर! जिस दिन तुम्हारे जीवन में मधु का अवतरण होता है, जिस दिन कहीं भी बैठे होओ, अलग कि भीड़ में, क्या फर्क पड़ता है! तुम्हारे जीवन में अंतरात्मा की झलक भी मिलने लगती है, उस जहां प्यास है, वहां साकी की नजर पहुंच ही जाती है। प्यास ही
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