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________________ عل माच्छादित गौरीशंकर के शिखर करीब आने लगे। महावीर क्रमशः ऊंचाइयों और ऊंचाइयों पर उड़ रहे हैं! समझना क्रमशः कठिन होता जायेगा। क्योंकि जिन ऊंचाइयों की हमें आदत नहीं है, उन ऊंचाइयों को समझना तो दूर उन ऊंचाइयों पर श्वास लेना भी कठिन हो जाता है। और जिन ऊंचाइयों का हमें कोई अनुभव नहीं, उनके संबंध में शब्द भला हमें सुनायी पड़ जायें, अर्थ का विस्फोट नहीं होता है। गुजर जाते हैं शब्द हमारे पास से। अगर बहुत बार सुने हुए हैं तो ऐसी भ्रांति भी होती है कि समझ में आ गये। इसे स्मरण रखना कि महावीर जो कह रहे हैं, वह अगर समझ में न आये तो स्वाभाविक है; समझ में आ जाये तो संदेह करना, क्योंकि वही अस्वाभाविक है। अनुभव से ही समझ में आयेगा । उसके पहले ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि अनुभव के लिए एक प्यास प्रज्वलित हो जाये, कि अनुभव की आकांक्षा पैदा हो, कि काश, ऐसी ऊंचाइयों पर हम भी उड़ सकते! जिन दूर की बातों को महावीर पास ला रहे हैं, काश हमारे भी जीवन की संपदा उन्हीं स्वर्ण-रत्नों से बन सकती ! प्यास उठ आये, बस इतना काफी है।... तो समझ में न आये, तो धैर्य रखना। घबड़ाना मत ! और ऐसा मत सोच लेना कि हमारी समझ में आएगा ही नहीं। और ऐसा तो भूलकर भी मत सोच लेना कि यह बात समझने योग्य ही नहीं है। क्योंकि हमारा मन इस तरह के बहुत उपाय करता है। अहंकारी मन हो तो वह कह देता है, इन बातों में कुछ सार नहीं। इस तरह हम अपने Jain Education International अहंकार को सुरक्षित कर लेते है। इस तरह ऊंचाई पास आती थी तो हम उससे दूर हट जाते हैं। क्योंकि ऊंचाई के पास हमें अपनी नीचाई मालूम पड़ने लगती है ! ऊंचाइयों से दूर मत हटना। उन्हें बुलाना ! उनकी खोज करना ! तुम्हें जितने शिखर मिल जायें, उतना ही शुभ है। क्योंकि जितने तुम्हें शिखर मिलें, उतने ही अहंकार के विसर्जन की संभावना बढ़ेगी, उतना ही तुम छोड़ पाओगे यह 'मैं' का खयाल । इसीलिए तो तीर्थंकरों, प्रबुद्ध पुरुषों को हमने बहुत स्वागत से कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी मौजूदगी हमें हीन करती मालूम पड़ने लगी। उनके सामने हम खड़े हुए तो छोटे मालूम होने लगे। उनके पास हम आये, तो हम जैसे जमीन पर चींटियां रेंगती हों, ऐसे रेंगते हुए मालूम होने लगे। तो दो ही उपाय थे—या तो हम भी उनके साथ उड़ना सीखें और या हम उन्हें इनकार ही कर दें कि यह सब कल्पना जाल है; कि ये दूर की बातें सब काव्य-शास्त्र हैं; कि ये बातें कहीं हैं नहीं; ये सब बातें हैं। या हम यह कहकर हट जायें कि ये बातें हमारी समझ में नहीं पड़तीं, तो जो समझ में ही नहीं पड़ती हैं उन बातों को मानकर हम चलें कैसे ? वहां भी भूल हो जायेगी। ध्यान रखना जो तुम्हारे समझ में नहीं पड़ता वह इसलिए समझ में नहीं पड़ता कि उसका कोई अनुभव नहीं हुआ है। अनुभव के बिना समझ कैसे होगी ? अनुभव के बिना कोई अंडरस्टैंडिंग, कोई प्रज्ञा का प्रादुर्भाव नहीं होता। तो तुम यह मत कहना कि जब समझ में ही नहीं आता तो हम चलें कैसे ? क्योंकि चलोगे, तो ही समझ में आयेगा । यह तो तुमने अगर For Private & Personal Use Only 579 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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