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________________ 4. हला प्रश्न : प शाम शाम कूकदी नूं जिंदगी दी शाम होई। आया नहीं शाम मेरा, ओसनूं मिलायो जी।। 'श्याम-श्याम रटते जीवन की सांझ हो गयी है, अभी तक मेरा श्याम नहीं आया। मुझे उसके दर्शन कराना।' आपकी शरण आयी हूं, स्वीकार करो! कहीं चूक न जाऊं ! परमात्मा को पाना मात्र रटन की बात नहीं है। रटने से ही होता होता तो बड़ा आसान होता । रट तो तोते भी लेते हैं। बोध चाहिए! अकेली रटन काम न देगी। रटन ठीक है, उपयोगी है, बहुमूल्य है - लेकिन बोध से संयुक्त हो तभी; अन्यथा रटन यांत्रिक हो जाती है। कोई रटता रहता है श्याम श्याम श्याम, लेकिन इस रटन के पीछे और हजार विचार चलते रहते हैं। यह | रटन धीरे-धीरे अभ्यास हो जाती है। इसे करने के लिए, रटने के लिए, किसी बोध की जरूरत ही नहीं रह जाती; यंत्रवत सरकती रहती है। तुम न भी चाहो तो होती रहती है । और भीतर गहरे तलों पर हजार-हजार विचार चलते रहते हैं, हजार वासनाएं चलती रहती हैं। जब तक वे भीतर के तल पर विचार और | वासनाएं खो न जायें, जब तक रटन अकेली न रह जाये, श्याम | के लिए पुकार उठे तो बस पुकार हो, भीतर कुछ और न हो— तब तो पुकारने की भी जरूरत न पड़ेगी, बिन पुकारे परमात्मा पास आ जाता है। है - बाहर भी वही, भीतर भी वही । Jain Education International जिसे तुम रट रहे हो, वह तो परमात्मा है ही; जो रट रहा है, वह भी परमात्मा है। तो रटन में ज्यादा मत उलझ जाना । पुनरुक्ति कहीं मन को बहुत ज्यादा ग्रसित न कर ले ! रटन पर बहुत ज्यादा भरोसा मत कर लेना । उपयोगी है, लेकिन कुछ और भी चाहिए। वह है बोध । वह है ध्यान । 'श्याम श्याम रटते ही जीवन की सांझ हो गई। अभी तक मेरा श्याम नहीं आया।' नहीं, पहचान तुम्हारे पास नहीं, श्याम तो बहुत बार आया । श्याम तो आता ही रहा । श्याम तो आता ही रहता है। उसके सिवाय और कोई है ही नहीं जो आये । जो भी आया है उसमें श्याम ही आया है। कोई और तो आयेगा कैसे ? सभी उसके रूप हैं। सभी उसके ढंग हैं। सभी उसके रंग हैं। फूल में भी वही । पत्तों में भी वही । पहाड़ों- पत्थरों में भी वही । पशु-पक्षियों में वही । स्त्री-पुरुषों में वही ! जहां 'कुछ' है, वही है; और जहां कुछ भी नहीं है, वहां भी वही है। इसलिए आने-जाने की भाषा तो हमारे मन की भाषा है। परमात्मा है : न आता न जाता । जो 'है' उसका ही नाम परमात्मा है - जो सदा है, जिसमें कोई गति नहीं है, जिसमें कोई प्रक्रिया - क्रिया नहीं है, जो 'मात्र होना' है! इस क्षण भी तुम्हें उसी ने घेरा है। तुम राह किसकी देखते हो ? कहीं राह देखने में ही तो नहीं चूक रहे हो ? क्योंकि जब आंखें किसी की राह देखती हैं, तो और सब चूक जाता है। तुम अगर अपनी प्रेयसी की राह देख रहे हो द्वार पर बैठकर, तो फिर और कोई नहीं दिखायी परमात्मा कभी दूर गया नहीं । जो दूर चला जाये वह परमात्मा नहीं। वह सदा तुम्हारे पास है। सब तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा | For Private & Personal Use Only 115 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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