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________________ 522 जिन सूत्र भाग: 1 तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा न होती। तुम बाल हो जाते बड़ी लंबी, प्रणाम । यह भी पहली दफे कहा है। मगर भीतर गेहूं का दाना न होता । इस जीवन में जैसा है, सब वैसा ही जरूरी है। जो चेष्टा से मिलना चाहिए, वह चेष्टा से ही मिलता है। क्योंकि बिना चेष्टा के वह मिल ही नहीं सकता; वह पैदा ही नहीं होता; तुम्हारी पात्रता ही निर्मित नहीं होती। दूसरा प्रश्न : भगवान, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम ! 'दर्शन' ने पूछा है। प्रश्न तो है ही नहीं। 'दर्शन' की वृत्ति भी प्रश्न पूछने की नहीं हृदय का है। है। उसने सिर्फ अपना अहोभाव प्रगट किया है। इसे समझना । जो पूछते हैं, जरूरी नहीं कि समझ पायेंगे। पूछने के कारण ही बहुत बार तुम समझने से वंचित रह जाते हो। क्योंकि जब तुम पूछते हो तो प्रश्न को तुम इतना इतना भारी समझ लेते हो, और तुम प्रश्न में इतने व्यस्त हो जाते हो कि उत्तर के लिए जगह ही नहीं मिलती तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने की । तुम उत्तर के लिए दरवाजा नहीं छोड़ते। समझ तो वे ही सकते हैं जो पूछते नहीं । न पूछना ठीक-ठीक उत्तर को समझ लेने का अनिवार्य चरण है। तो 'दर्शन' ने न तो कभी कुछ पूछा है— सिर्फ एक बार को छोड़कर। पहली बार जब वह मुझे मिलने आयी थी, वर्षों पहले, तब विवाद करने आयी थी। कोई बात उसे जंची न थी तो तर्क करने आयी थी। मैंने उसी दिन देख लिया था कि वह उलझ गयी, अब लौट न सकेगी। आयी थी तर्क करने, रह गयी सदा को। उसके बाद उसने कभी कुछ पूछा नहीं। वर्षों बीत गये। और इन वर्षों में बहुत लोग आये गये, वह फिर मेरे साथ रही। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था तो भी; कंटकाकीर्ण था तो भी। अब तो मैं धीरे-धीरे आश्वस्त हो गया हूं कि लौटकर पीछे देखूंगा तो कोई भी न हो, तो भी 'दर्शन' होगी। वह छाया की तरह पीछे रही है। पहले ही दिन विवाद उसने छोड़ दिया। संवाद शुरू होता है तभी, जब हम विवाद छोड़ते हैं। उत्तर पहुंचने लगता है तभी जब हम प्रश्न छोड़ देते हैं। उसने कुछ पूछा नहीं, इतना सिर्फ कहा है, तुम्हारे चरणों में शत-शत नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम ? - प्रेम कोई छिपाने की बात नहीं । नागुफ्तनी हदीसे - मुहब्बत नहीं मगर - प्रेम कोई न कहने की बात नहीं। जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम ? लेकिन जो दिल की बात है उसे कैसे जबान से कहा जाये ! कहना भी चाहें तो भी कही नहीं जा सकती। जो भी कहा जा सकता है, वह बुद्धि का होता है। जो नहीं कहा जा सकता, वही Jain Education International तो उसे मैंने रोते देखा है, हंसते देखा है; प्रसन्न देखा है, उदास देखा है। लेकिन कभी उसने कुछ कहा नहीं। इस न कहने के कारण उसे बहुत कुछ मिला है, जो उनको नहीं मिल पाया जो बहुत कहने में लगे हैं। लेकिन, फिर भी खामोश भी रहो, चुप भी रहो तो भी हृदय कुछ कहना चाहता है। नहीं कह सकता, असमर्थ पाता है फिर भी कुछ कहना चाहता है। कहने में, अभिव्यक्त होने में संबंधित होना चाहता है। मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या ? कि दयारे-नाजे - हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। उस प्रेमी के दरबार में, उस प्रेमी की महफिल में, मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या न कहो, सम्हालो तो भी : दयारे-नाजे - हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। लेकिन चुप रहना भी तो अभिव्यक्ति हो जाती है । न कुछ कहकर भी तो कुछ कह दिया जाता है। मौन भी तो अपनी एक मुखरता रखता है। तो यद्यपि 'दर्शन' ने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन बहुत कुछ वह कहती रही है - अपनी चुप्पी से, अपने शांत मौन से । अनेक बार मैंने उससे पूछा भी है, लेकिन फिर भी वह बचा गयी, उसने कुछ कहा नहीं है। ऐसी भाव दशा जल्दी ही परम फूलों को उपलब्ध होती है। और आज उसने पहली दफा लिखा है। एक बार और उसने पत्र लिखा था - वह भी खाली कागज भेजा था; उसमें कुछ लिखा नहीं था। उत्तर मैं उसका भी दिया था। क्योंकि खाली कागज में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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