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________________ नुकरण नहीं-आत्म-अनुसंधान सामान यहीं रख दो, नहीं तो तुम्हारी खैरियत नहीं!' बोरे में चाय और चाहिए नहीं। की छननी डालकर चोर बोला, 'अब इतने बेईमान मत बनो तो जब महावीर कहते हैं, 'हे मुने। मैं उन्हें जीतकर...' सरकार ! इसमें आधा माल तो आपके पड़ोसी का है।' इंद्रियों के ऊपर विवेक जाग गया है। इंद्रियों की अंधेरी रात पर चोर भी...'इतने बेईमान मत बनो सरकार!' यहां सभी विवेक का सूरज उग आया है, सूर्यास्त समाप्त हुआ है, सूर्योदय बेईमानों को ईमानदार होने का खयाल है। कसौटी यह है कि हुआ है। अगर तुम्हारी ईमानदारी सुख न लाए, जब मैं कहता हूं, तुम्हारी 'मैं उन्हें जीतकर, धर्मानुसार यथान्याय आचरण करता हूं।' ईमानदारी सुख न लाए, तो मेरा मतलब है: जब तुम्हारी इससे ऐसा मत समझना कि महावीर सोच-सोचकर आचरण ईमानदारी ही सुख न हो जाए। भाषा में तो हमें आगे-पीछे शब्द करते हैं। हमें ऐसा ही लगता है। इससे सारा धर्म उलटा हो जाता रखने पड़ते हैं, क्योंकि एक साथ सभी शब्द नहीं बोले जा है हमारी समझ में। एक अंधा आदमी टटोल-टटोलकर दरवाजा सकते; लेकिन जीवन में ईमानदारी और सुख साथ-साथ घटता खोजता है, कहां से बाहर जाऊं। आंखवाला आदमी निकल है। कहने में तो कहना पड़ेगा, ईमानदारी सुख लाती है। क्योंकि जाता है, सोचता थोड़े ही है! इतना भी नहीं सोचता कि दरवाजा भाषा लाइन में जमानी पड़ती है, पंक्तिबद्ध, रेल के डब्बों की कहां है। आंख है तो बस दरवाजा दिखाई पड़ता है। सोचता भांति, एक डब्बे के पीछे दूसरा डब्बा रखना पड़ता है। जीवन तो | कौन है! पूछता भी नहीं दरवाजा कहां है। निकल जाता है। युगपत है, साइमल्टेनियस है। टटोलता भी नहीं। । इधर मैं बोल रहा है, उधर पक्षी गीत गा रहे हैं, इधर तम सुन रहे ते जिणित्त जहानाय, विहरामि अहं मणी। हो, हवाएं वृक्षों से घूम रही हैं—यह सब एक साथ हो रहा है। -अब मैं बिहार कर रहा हूं, परम आनंद में! हे मुने! लेकिन अगर इसको भाषा में रखना हो तो एक के पीछे दूसरे को | जीतकर इंद्रियों को, अब सुख ही सुख है। बिहार! अब आनंद रखना पड़ेगा, नहीं तो बड़ी गडमड हो जाएगी। फिर कुछ समझ | ही आनंद है। में न आएगा। इसलिए कहते हैं कि ईमानदारी सख लाती है।। मौजे-सहबा निगाह थी अपनी लेकिन वह कहने की बात है। ईमानदारी सुख है। ईमानदारी रक्से-मस्ती कलाम था अपना। सुख है, इसमें भी तो सुख को पीछे रखना पड़ रहा है। ईमानदारी अगर सूफियों की भाषा में इसको कहें, तो शराब की लहरें अब के इतना भी पीछे नहीं है। ईमानदारी में ही सुख है। अपनी आंखों में हैं। ईमानदारी का सुख उसके बाहर नहीं है। बेईमान का सुख मौजे-सहबा निगाह थी अपनी! उसके बाहर है। इसे समझ लो। कोई बेईमानी के लिए ही थोड़ी | -शराब की लहरें आंखें हो गयी हैं; या आंखें शराब की | बेईमानी करता है; कुछ और पाने के लिए करता है। बेईमानी में लहरें हो गई हैं। खुद थोड़ी साध्य है, साधन है। आदमी चोरी भी करता है तो चोर रक्से-मस्ती कलाम था अपना। | होने के लिए थोड़े ही; हत्या भी करता है तो हत्यारा होने के लिए -और अब नृत्य की मस्ती ही हमारे भीतर का गीत है, थोड़े ही कुछ और आकांक्षा है। बेईमान की आकांक्षा बेईमानी कलाम है, कविता है। के बाहर है। जिसका भी विवेक जागा, उसकी मस्ती जागी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हारे जीवन की साधना में जिसका विवेक जागा, उसका आनंद जागा। आनंद और तुम्हारे जीवन का सुख समाविष्ट न हो तो तुम बेईमान हो, मस्ती विवेक के अनुषंग हैं। ध्यान के साथ मस्ती वैसे ही आती अधार्मिक हो। अगर तुम कहो कि ध्यान करने से क्या मिलेगा तो है, जैसे तम्हारे साथ तम्हारी छाया आती है। मस्ती गौण है, जैसे तुम बेईमान हो, अधार्मिक हो। अगर तुम कहो, प्रेम करने से छाया गौण है। तुम आ गए तो छाया भी आ गई। अगर मैं तुम्हें क्या मिलेगा, तो तुम दुकानदार हो, बेईमान हो। निमंत्रण देने जाऊं और कहूं कि आना, तो तुम्हारी छाया के लिए प्रेम 'मिलना' है-आगे-पीछे क्या? प्रेम पर्याप्त है, कछ अलग से निमत्रंण नहीं देता। तुम्हारी छाया अपने से आती है। 197 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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