SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेम से मझे प्रेम है । जाओगे। लेकिन खोने के पहले एक शर्त पूरी कर देनी जरूरी है। यहां संसार में धन नहीं मिलता; यहां संसार में प्रेमपात्र नहीं कि तुम जो कर सकते हो वह कर लो; अन्यथा तुम्हें ऐसा लगा | मिलता; यहां संसार में कुछ भी नहीं मिलता-ऐसे संसार में रहेगा कुछ न कुछ कर लेते। अटके रहोगे। अहंकार थोड़ी-सी हमने परमात्मा को मांगा है। जहां कुछ भी नहीं मिलता; जहां जो जगह बनाए रखेगा। दिखाई पड़नेवाली चीजें हैं, वे भी हाथ में पकड़ में नहीं प्रेम की आकांक्षा जिसने की है और भक्ति का मार्ग जिसने आतीं-वहां हमने अदृश्य को पकड़ना मांगा है! दृश्य पकड़ में चुना है, उसने बड़े असंभव की आकांक्षा की है। नहीं आता, सीमित पर हाथ नहीं बंधते-वहां हमने असीम की इसलिए महावीर गणित की तरह साफ हैं। वहां साफ-सुथरा अभीप्सा की है! विज्ञान है। इसलिए जैन-धर्म में विज्ञान की भाषा है। मीरा और ___ उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे चैतन्य, नारद और कबीर-उनकी भाषा अटपटी है, जो दर्द भी नाकाबिले-दरमा नज़र आया। सधुक्कड़ी, उलटबांसी जैसी। वहां गंगा गंगोत्री की तरफ बहती राह बड़ी पीड़ा से भरी है, पर पीड़ा बड़ी मधुर है। उसके मार्ग है। बड़ी रहस्य से भरी, क्योंकि उन्होंने बड़े असंभव की पर लगे कांटे भी अंततः फूल बन जाते हैं। आकांक्षा की है। महावीर की बात चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़ती हो, लेकिन गणित के समझ में आनेवाली है। और प्रेमियों आज इतना ही। की बात चाहे कितनी ही सरल मालूम पड़ती हो, बड़ी असाध्य मालूम होती है। उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -प्रेम का दर्द ऐसा है कि असाध्य है। इसका कोई इलाज नहीं उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -जिसका कोई इलाज नहीं, असाध्य है, जिसकी कोई औषधि नहीं। प्रेम एक ऐसी पीड़ा है, जिसका कोई इलाज नहीं। लेकिन जिसने उस पीड़ा को स्वीकार कर लिया है, वह धीरे-धीरे पायेगाः पीड़ा मीठी होती जाती है; पीड़ा और मीठी होती जाती है। और एक दिन पता चलता है कि जिसे हमने पहले क्षण में दर्द जाना था, वह दर्द न था; वह उस प्रभु के आने की खबर थी, उसके पगों की ध्वनि थी, आहट थी। हम परिचित न थे, इसलिए दर्द जैसा मालूम हुआ था; या प्रभु इतनी तीव्रता से करीब आया था कि हम झेल न सके थे, हमारी पात्रता न थी; जैसे कि आंख में सूरज एकदम से पड़ गया हो और आंखें चौंधिया जायें और दर्द मालूम पड़े। जब परमात्मा की तरफ कोई चल रहा है तो उसने एक ऐसी दीवानगी मांगी है, जो असंभव जैसी लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy