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________________ 176 जिन सूत्र भाग: 1 . अभ्यास से नहीं ।' आदमियों से थोड़े ही बंधना है - सत्य की खोज करनी है ! समझ अभ्यास बन गई। फिर चूक हो गई। तो 'जिन' तो खो जहां से जितना इशारा मिल जाये, जीवंत, उतना ले लेना और गये, जैन हैं। आगे बढ़ते जाना। एक दिन ऐसी घड़ी भी आ जायेगी कि तुम अपना भी प्रकाश पैदा कर लोगे। तब फिर किसी गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और ऐसा ही सभी धर्मों के साथ हुआ है। ऐसा ही मैं जो तुमसे कह रहा हूं, मेरे साथ होगा। यह प्रकृति का नियम है। इसलिए इस पर नाराज मत होना। जब तुम्हें समझ में आ जाये तो तुम खिसक जाना इसके घेरे के बाहर, बस। इस पर नाराज होने जैसा कुछ नहीं है। ऐसा सदा होगा। आखिर मैं अपने शब्दों का अर्थ करने कितनी देर बैठा रहूंगा ? एक न एक दिन तुम मेरे शब्दों का अर्थ करने के मालिक हो जाओगे। फिर मैं कुछ न कर सकूंगा। तुम जो अर्थ निकालोगे, तुम्हारी मौज । इसलिए तो इतने धर्मों के संप्रदाय पैदा होते हैं। अब महावीर के भी संप्रदाय हो गये। छोटी-सी संख्या है जैनों की; उसमें भी दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं; फिर श्वेतांबरों में भी स्थानकवासी हैं, और तेरापंथी हैं; और एक गच्छ, दूसरा गच्छ । फिर दिगंबरों में भी तारणपंथी हैं। और छोटे-छोटे पंथ! और उनके झगड़े क्या हैं—बड़े छोटे-छोटे ! हंसने जैसे कुछ मुद्दा नहीं है उनमें। लेकिन सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि जब सदगुरु जा चुका तो अनुयायी अपने-अपने तरह से अर्थ करेंगे । अर्थों में भेद हो जायेंगे। भेदों के माननेवाले अलग-अलग हो जायेंगे, संप्रदायों में टूट जायेंगे। यह भेद कुछ महावीर के वचनों में नहीं है । यह भेद अर्थ करनेवालों की व्याख्या में है । सब व्याख्याएं तुम्हारी होंगी। तो क्या उपाय है ? . इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अगर तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल सके, तो खोज लेना; अगर न मिल सके तो मजबूरी में शास्त्र में उतरना । क्योंकि शास्त्र में तुम अकेले छूट जाओगे। तुम्हीं अर्थ करोगे, तुम्हीं पढ़ोगे। कौन निर्णय देगा कि तुमने जो पढ़ा, ठीक पढ़ा? कि तुमने जो अर्थ किया वह ठीक किया ? बहुत बेईमानी की संभावना पैदा हो जाती है, जब तुम अकेले छूट जाते हो। तुम बेईमान हो ! अपनी इस बेईमानी के प्रति सावचेत रहना । कहीं ऐसे व्यक्ति को खोजो, जो तुमसे चार कदम भी आगे हो तो भी चलेगा। कम से कम चार कदम तो तुम सुरक्षा से प्रकाश में चल सकोगे ! फिर चार कदम के बाद वह काम का न रह जाये, किसी और को खोज लेना । Jain Education International आखिरी प्रश्नः किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती हैं ! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति ? कृपया मेरा मार्ग-निर्देश करें। ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते रहे जिनमें लिखा है : ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया। जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत है— दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है। मेरे • अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस - पैंतालीस साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं। जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें - तो फिर जरा रोग मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे तथाकथित साधुओं के कारण है— जिनने तुम्हें जीवन को सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला गया है: कामवासना पाप है। तो कामवासना को कभी प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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