SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुम्हारी संपदा-तुम हो। मानता है। कोई गीता को पूजता है, कोई कुरान को-कोई हूं, प्रतीक्षा करूंगा। कैपिटल को पूजता है। फर्क कुछ भी नहीं है। | प्रार्थना करो, प्रतीक्षा करो; लेकिन विश्वास को निर्मित मत वहां सोवियत रूस में पुराने देवता तो विदा हो गये, पुराने धर्म करो। होगा! धीरज रखो। और अगर धीरज से हुआ, खो गये, पुराने चर्च खो गये; लेकिन कम्युनिज्म का नया चर्च अपने-आप हुआ और तुम सिर्फ साक्षी रहे, गवाह; बनानेवाले निर्मित हो गया है। कम्युनिस्ट नेताओं की नयी प्रतिमाएं निर्मित नहीं, तुमने सिर्फ जगते देखा श्रद्धा को, तुमने श्रद्धा का वृक्ष बढ़ते हो गयी हैं। ईश्वर नहीं है, यही सिद्धांत हो गया है विश्वास का। देखा, तुमने श्रद्धा में फूल-फल लगते देखे, तुम सिर्फ साक्षी बच्चों को रटाया जाता है। जैसे ईसाई रटाते हैं बच्चों को, जैसे रहे तो तुम पाओगे यह श्रद्धा मुक्तिदायी है। मुसलमान रटाते हैं, हिंदू, जैन रटाते हैं बच्चों को, अपनी-अपनी इस श्रद्धा को ही महावीर ने दर्शन कहा है। दर्शन यानी धारणा-वैसे ही कम्युनिज्म अपनी धारणा रटाता है। लेकिन जिसको तुमने देखा, बनाया नहीं। श्रद्धा तुम्हारा कर्म नहीं है, दोनों ही विश्वास हैं। | दर्शन है। श्रद्धा तुम्हारा कृत्य नहीं है, तुम्हारा दर्शन है। जिसको विश्वास का अर्थ यही है : जो तुमने चेष्टा से करके पैदा कर तुमने उठते देखा, फैलते देखा, पूरे आकाश को भरते देखा, तुम लिया है। मनुष्य निर्मित का नाम है विश्वास। और जब मनुष्य साक्षी रहे जिसके-तब विराट से आयी श्रद्धा। और जो विराट कुछ निर्माण नहीं करता, न विश्वास न अविश्वास, न पक्ष न से आती है वह विराट कर जाती है। जो क्षुद्र की है वह क्षुद्र है। विपक्ष, खाली खड़ा रह जाता है; वह कहता है, जब तेरी मर्जी हो । 'अब न पीछे जा सकता हूं, न आगे ही बढ़ सकता हूं!' तब भर देना, अगर न भरेगा तो भी हम राजी हैं—तब एक दिन कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। तुम जहां हो, वहीं डूबने की तुम्हारे शून्य में उस पूर्ण का आगमन होता है। तब तुम्हारी अंधेरी | जरूरत है। आगे-पीछे की भाषा मन की है। आगे-पीछे की रात में जलता है उसका दीया। और यह तुम्हारा जलाया नहीं भाषा महत्वाकांक्षा की है। आगे-पीछे की भाषा : प्रगति हो रही होता; क्योंकि तुम्हारा जलाया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। कि नहीं, गति हो रही कि नहीं, कहीं जा रहा हूं कि नहीं! जाना तुम्हारा जलाया तुम्हारा ही हिस्सा होगा। तुम्हारा जलाया तुम्हारा कहां है? जो हो, वहीं ठहर जाना है! जो हो, उसमें ही लवलीन ही निर्माण होगा। तुम परमात्मा को मौका दो। तुम थोड़े बीच में हो जाना है। जो हो, उसमें ही तल्लीन हो जाना है। अपने में दखलंदाजी न करो। तुम खड़े देखते रहो। डूबना है, जाना कहां है? सब जाना बाहर है। घर आना है! यह शुभ घड़ी है कि पुराना विश्वास बिखर चुका और नया पैदा और तुम यह मत सोचना कि घर आने के लिए भी कहीं जाना करना भी मत! तुम जल्दी करोगे, क्योंकि खाली होगा। घर तो तम हो ही। जरा बेचैनी छोडो. विचार छोडो. तो जगह अखरती है। जैसे दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं | अचानक तुम पाओगे कि इस घर को तुमने कभी छोड़ा ही नहीं; जाती है—ऐसा जब पुराना विश्वास हट जाता है तो बार-बार तुम सदा ही इसमें थे। खयालों में ही छोड़ा था वस्तुतः कभी नहीं मन वहीं-वहीं लौटता है कि जल्दी विश्वास बनाओ! घर | छोड़ा था। खाली-खाली लगता है, बेचैनी मालूम होती है। इस बेचैनी को बोधिधर्म जब जाग्रत हुआ तो हंसने लगा, खूब हंसने लगा! झेल लेना। लेकिन विश्वास अब मत बनाना। बहुत तुमने उसके आसपास के और भिक्षुओं ने पूछा कि तुम पागल तो नहीं बनाए, कोई काम न आये। कितने-कितने धर्मों में तुम जी नहीं हो गये हो, हुआ क्या है? उसने कहा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि चुके हो! कितने-कितने शास्त्रों को तुम पूज नहीं चुके हो! जिसको मैं खोजता था जन्मों-जन्मों से, उसे कभी खोया नहीं कितने-कितने परमात्मा तुमने निर्मित नहीं किये हैं। कितनी | था। खूब मजाक रही! प्रतिमाएं तुम्हारी अर्चना और पूजा को स्वीकार नहीं कर चुकी हैं। तुम्हीं सोचो कि वर्षों तक तुम खोजते रहे किसी चीज को और लेकिन क्या हुआ? अब तुम कह दो कि अब मैं न बनाऊंगा। आखिर में खीसे में हाथ डाला और वहां पायी! और खीसे में अब जब प्रकृति ही उपजाएगी... । अब कागज और प्लास्टिक तुमने खोजा ही नहीं अब तक; क्योंकि यह खयाल ही नहीं उठा के फूल नहीं; अब तो जब असली फूल आएंगे तभी। मैं राजी | कि खीसे में भी हो सकती है। 563) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 3
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy