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________________ 564 जिन सूत्र भाग: 1 तुम्हारी संपदा तुम हो। तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर इसी क्षण मौजूद है। कहीं न जाओ-न आगे न पीछे, न उत्तर न दक्षिण, न पश्चिम न पूरब, न नीचे न ऊपर - दसों दिशाओं को छोड़ दो। दसों दिशाओं को छोड़कर जो खड़ा हो जाता है, उस अवस्था को महावीर कहते हैं समाधि । वह आ गया घर ! वापसी हो गयी ! उसने जान लिया उसे - जिसका विस्मरण हो गया था। यह भी खयाल रख लेना : तुम चाहते हो मुझे कि मैं तुम्हें कुछ चलाऊं, दौड़ाऊं, कहीं पहुंचाऊं, तुम्हें कोई ज्वर दूं, तुम्हें कोई तड़फ दूं, उत्साह दूं । मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, जरा हमें उत्साह दें - उत्साह ढीला पड़ा जा रहा है। उत्साह किसलिए ? तुम कोई सैनिक नहीं हो कि कहीं युद्ध पर जा रहे हो। तुम संन्यासी हो, अपने घर आ रहे हो - उत्साह कैसा ? लेकिन लोगों को उत्साह चाहिए, दौड़ने के लिए उत्साह जरूरी है, रुकने के लिए उत्साह की जरूरत है ? रुकने के लिए तो उत्साह बाधा भी बन सकता है। क्योंकि वह तुम्हें दौड़ाए रखेगा। शांत बैठ जाना है – कैसा उत्साह ? कहीं जाना नहीं, ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं करना है। जैसे शांत झील हो, ऐसे हो जाना है— जिसमें तरंग नहीं उठती, लहर नहीं उठती। भजन भक्तों का शब्द । उसे भी समझ लेना जरूरी है। भजन के लिए दर्शन जरूरी नहीं । भजन के लिए भाव जरूरी है। महावीर का 'दर्शन' पाना हो तो निर्भाव होना जरूरी है। वे विपरीत रास्ते हैं। वहां सारे भाव का त्याग कर देना है। वहां तो भाव राग है। वहां तो प्रेम भी बंधन है। भक्त के मार्ग पर भाव प्रारंभ है: भाव, भजन, भगवान! वहां न ज्ञान, न दर्शन, न चारित्र्य । भक्त को चरित्र इत्यादि की चिंता ही नहीं। वह कहता है, 'चरित्र उसका, हमारा क्या? उसकी जैसी मर्जी! वह जैसा नाच नचाये !' भक्त तो कहता है, 'हम तो कठपुतली की भांति हैं; धागे उसके हाथ में हैं। वह जो बनाये हम बन जाते हैं। दूसरा प्रश्न : दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या लीला उसकी है। सारा नाटक उसका रचा हुआ है। हम तो भजन कहते हैं? कृपा करके समझाएं। केवल पात्र हैं नाटक में राम बना देता है, राम बन जाते हैं; रावण बना देता है, रावण बन जाते हैं।' लेकिन तुम डरते हो। तुमने अब तक तो जिसको जीवन जाना है, वह दौड़-धूप है, आपा-धापी है। तुमने उसके अतिरिक्त कोई जीवन नहीं जाना। तुमसे अगर कोई बैठने को कहे तो लगता है, यह तो मरने जैसा हो गया; इसमें जीवन कहां है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जीवन तुम्हारे भीतर है। उसे दौड़-धूप करके तुम न पा सकोगे। जब दौड़-धूप से थक जाओगे, बैठ जाओगे, और कहोगे, अब कहीं जाने की कोई इच्छा न रही - तत्क्षण तुम पाओगे कि वह मिल गया। 'दर्शन' महावीर की साधना-पद्धति का शब्द है; 'भजन' | उनकी साधना-पद्धति का शब्द नहीं । दर्शन के बाद तो महावीर कहते हैं, ज्ञान घटता है। ज्ञान के बाद चारित्र्य घटता है। भजन की कोई जगह महावीर की विचार - शृंखला में नहीं है । भजन भक्तों की परंपरा का शब्द है। दोनों को जोड़ने की कोशिश मत करो, अन्यथा तुम और उलझ जाओगे। दोनों को अलग-अलग ही रखो। दोनों सही हैं; पर अलग-अलग सही हैं; अलग-अलग यंत्रों के अंग हैं। महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई जगह नहीं है। क्योंकि भजन का अर्थ होता है: उत्सव । भजन का अर्थ होता है: प्रभु - नाम-स्मरण । भजन का अर्थ होता है: तल्लीनता । भजन का अर्थ होता है: बेहोशी, बेखुदी । भजन तो ऐसा है जैसे कोई भीतर की शराब, पीये और मस्त हो गये! भजन तो नृत्य है, गुनगुनाना है, गीत है। महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई चीज नहीं है। वह मार्ग बिलकुल भजन - शून्य है। इसलिए अगर महावीर के मार्ग के शब्द 'दर्शन' का उपयोग कर रहे हो तो भजन को भूल जाओ। महावीर कहते हैं, दर्शन से होगा ज्ञान, बोध | भजन तो है अबोध । महावीर कहते हैं, होगा ज्ञान । महावीर कहते हैं, आयेगी जागृति । भजन तो है गहरी आत्म-विस्मृति, तल्लीनता । और महावीर कहते हैं, ज्ञान से चारित्र्य रूपांतरित होगा। Jain Education International भक्त की भाव- दशा बड़ी अलग है। तो भक्त प्रेम से चलता है, भाव से चलता है। भाव ही सघन होकर भक्ति बनती है। और भक्ति जब प्रगट होती है फूलों की तरह, तो भजन । भाव से शुरुआत है। जब भाव बहुत गहन होने लगता है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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