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________________ भी नहीं होता, तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है । ' लोभ की तोंद बड़ी है। जो पास है वह तो दिखाई ही नहीं पड़ता। जो दूर है वही दिखाई पड़ता है। लेकिन जो दूर है वह तभी तक दिखाई पड़ता है जब तक दूर है। जैसे-जैसे तुम पास आए, तुम्हारी तोंद भी गई। जब तुम पास पहुंचे वह तोंद के नीचे फिर ढंक गया। अब फिर दूर रखो। तुम्हारे पास दस हजार हैं तो | नहीं दिखाई पड़ते, लाख दिखाई पड़ते हैं। लाख हो गए, वे नहीं दिखाई पड़ते, वे तोंद के नीचे पड़ गए - दस लाख दिखाई पड़ते | हैं। अगर यह गणित समझ में आ गया, तो एक हिमालय हो कि | हजार हिमालय हो जाएं सोने से भरे हुए तुम्हारे पास, क्या फर्क पड़ता है! जो तुम्हारे पास है, वह लोभ को दिखाई नहीं पड़ेगा; जो दूर है, जो नहीं है, वही दिखाई पड़ता है। सोने और चांदी के कैलाश, हिमालय के हिमालय सोने और चांदी के, अनंत हिमालय, असंख्य पर्वत तुम्हें उपलब्ध हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता। क्योंकि लोभ का इससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ का जो तुम्हारे पास है | उससे कोई संबंध ही नहीं है। लोभ की दौड़ तो उसके लिए है जो तुम्हारे पास नहीं है । यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि जैनों के चौबीस ही तीर्थंकर लोभ के गणित को समझो। जो तुम्हारे पास है, लोभ उसको राजपुत्र थे। यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि बुद्ध भी राजपुत्र देखता ही नहीं; जो तुमसे दूर है, उसी को देखता है। और कृष्ण और राम और हिंदुओं के सारे अवतार शाही घरों से आए थे। अगर उनको यह दिखाई पड़ गया, तो इसके दिखाई पड़ने के पीछे एक कारण है। उन्होंने दौड़ को देखा। कितना धन था, कुछ सार नहीं मिलता, लोभ तो पकड़े ही रहता है ! एक बहुत मोटा आदमी था। डाक्टर ने उसको सलाह दी कि अब तुम कुछ और नहीं करते तो मरोगे। तुम गोल्फ खेलना शुरू कर दो। तो वह सात दिन बाद आया। उसने कहा, बड़ी मुश्किल है। अगर गेंद को बहुत पास रखता हूं तो दिखाई नहीं पड़ती ! तोंद बड़ी है। अगर बहुत दूर रखता हूं तो चोट नहीं मार सकता। अब करूं क्या ? तो जो इस बात को समझ लेगा, वह एक बात समझ लेगा कि | लोभ के तृप्त होने का कोई उपाय नहीं है। चोट लग ही नहीं सकती। पास रखो, दिखाई नहीं पड़ता; दूर रखो, दिखाई पड़ता है - लेकिन दूर को चोट कैसे मारो! चोट तो पास को लग |सकती थी । इसलिए लोभ कभी तृप्त नहीं होता। तुम यह मत सोचना कि गरीब आदमी का तृप्त नहीं होता, अमीर का तो हो जाता होगा। किसी का तृप्त नहीं होता । अमीर गरीब से भी Jain Education International जीवन एक सुअवसर ज्यादा गरीब हो जाता है । जितना होता जाता है उतनी ही मुश्किल होती जाती है। इतना हो गया, कुछ भी नहीं हुआ— और बेचैनी बढ़ती है। गरीब को तो कम से कम एक चैन रहता है, एक आशा रहती है कि जब हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा; अमीर की वह आशा भी छिन जाती है। क्योंकि उसे एक बात... कब तक झुठलाएगा वह कि इतना तो हो गया, भी नहीं हुआ ! और कुछ है तो एक बात तय है कि लोभ का जिसने साथ रखा, अतृप्ति की छाया बनती रहेगी। लोभ से जिसने तृप्ति चाही, वह असंभव चाह रहा है— जो न हुआ है, न होता है, न हो सकता है। तृप्ति अगर चाहनी हो तो लोभ से जागो । 'कदाचित सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं. ।' 'सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया...' असंख्य हो जाएं कैलास; 'नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि...' फिर भी लोभी को कोई तृप्ति नहीं । 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया । ' इच्छा आकाश की तरह अनंत है। बढ़ो, दिखाई पड़ता है, आकाश छू रहा है पृथ्वी को, यही कोई दस-पांच मील दूर, क्षितिज पास ही दिखाई पड़ता है— पहुंचो, कभी मिलता नहीं। तुम जितने बढ़ते हो, क्षितिज भी उतना ही तुम्हारे साथ बढ़ता जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच का जो फासला है, वह सदा उतना ही रहता है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता । तुम्हारे पास क्या है, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता । तुम्हारे और तुम्हारे लोभ का अंतर सदा समान रहता है। गरीब और उसकी उपलब्धि में, अमीर और उसकी उपलब्धि में उतना ही अंतर है। अंतर बराबर है। ऐ शेख ! अगर खुल्द की तारीफ यही है मैं इसका तलबगार कभी हो नहीं सकता। For Private & Personal Use Only 147 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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