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________________ BREA प्यास ही प्रार्थना है जब आंख खुल गई न जियां था न सूद था। तुम ही धारा के बाहर हो जाओ। यह संसार तो चलता ही रहेगा, मेरा-तेरा संयोग सपने की कल्पना थी, क्योंकि जब आंख चलता ही रहा है। तुम्हीं छलांग लगा लो। तुम्ही किनारे खड़े हो खुल गई तो-बकौल तुलसीदास 'हानि-लाभ न कछु।' बड़ा | जाओ। बस इतना ही हो सकता है कि तुम अलग हो जाओ इस हिसाब था! बड़ा धंधा किया था सपने में। सुबह उठकर पाते हैं, | उपद्रव से, तुम सपने से जाग जाओ। 'हानि-लाभ न कछु।' जिंदगी किसे कहते हो तुम? जन्म और मृत्यु के बीच जो है, जिसे तुम जीवन कहते हो वह स्वप्न है। अच्छा हो, तुम उसे उसे तुम जिंदगी कहते हो? महावीर कहते हैं उसे जिंदगी, जो सपना कहो। जीवन को अभी तुमने जाना नहीं। और जिसे तुमने जन्म और मृत्यु के पार है। जन्म और मृत्यु के बीच जो है, वह जाना है वह जीवन नहीं है। | जिंदगी नहीं, एक लंबा सपना है। जन्म के समय तुम सो जाते कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो हो, मृत्यु के समय जागते हो-तब पता चलता है कि यह जिंदगी कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! एक सपना थी। इस फिजूल की जिंदगी से मिलता क्या है! कोई मुझे सुझा दो खत्म न होगा जिंदगी का सफर कि इसमें क्या अर्थपूर्ण है। कोई मुझे राह बता दो कि कैसे इस मौत बस रास्ता बदलती है। व्यर्थ के कारागृह से मैं बाहर हो जाऊं! मौत रास्ता बदलती जाती है। मौत बस रास्ता बदलती है। एक कोई मुझको दौरे जमां ओ मकां से निकलने की सूरत बता दो। जिंदगी खत्म हुई, दूसरी जिंदगी शुरू; दूसरी जिंदगी खत्म हुई, कोई यह सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-रायगां से! तीसरी जिंदगी शुरू। मौत सिर्फ रास्ता बदलती है। जब तक कि इस व्यर्थ की दौड़-धूप से क्या हासिल है? तुम जागकर अलग न हो जाओ इस धारा से, इस मूर्छा और तंद्रा कोई पुकारो कि उम्र होने आई है से...। फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। | नहीं, महावीर ने इस देश को न तो दीनता दी है न दरिद्रता दी कोई पुकारो, कहो आकाश को कि रोक, अब यह काफिला है। हां, यह हो सकता है कि महावीर को सुनकर तुमने जो सबह और शाम का, समय के पार होने की यात्रा होने दे। समय समझा, उससे तुमने दीनता-दरिद्रता में अपने को आरोपित कर में बहुत जी लिये। लिया हो। महावीर ने तो तुम्हें महाजीवन का सूत्र दिया था। सुबह होती शाम होती, उम्र तमाम होती! महावीर का जो जीवन-अस्वीकार है, उसे इतना ही कहना फिर वही सुबह, फिर वही सांझ, फिर वही दोहरावा--कोल्हू चाहिए कि वह भ्रामक जीवन का अस्वीकार है। और भ्रामक के बैल की तरह घूमते हैं! आंख पर पट्टियां, अंधे की तरह! जीवन का अस्वीकार वास्तविक जीवन की बुनियाद है। भ्रामक लगता है, यात्रा हो रही है, पहुंचते कहीं भी नहीं। अगर यात्रा जीवन का अस्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत है। और होती होती तो कहीं तो पहुंचते। कभी यह तो सोचो, पहुंचे सत्य-जीवन की उपलब्धि अध्यात्म की पूर्णता है। कहां? चलते बहुत हैं, थक गए हैं बहुत, पहुंचते कभी भी नहीं, । खड़े वहीं के वहीं हैं! कैसी पागल यह दौड़ है, जहां रत्तीभर यात्रा दुसरा प्रश्न ः प्रतिक्रमण, घर वापिस लौटना. हमें असहज. नहीं होती और जीवन पर जीवन चुकते चले जाते हैं! कठिन और असंभव सा क्यों लगता है? कोई पुकारो कि उम्र होने आई है .. फलक को काफिला-ए-रोज-ओ-शाम ठहराए। स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक घर से दूर आने को ही जीवन मगर यह सुबह और शाम का काफिला आकाश नहीं समझा। उसी की आदत बनी। उसी में रंगे, पगे, बड़े हुए। वही ठहराता-तुम्हीं को ठहराना पड़ेगा! यह किसी के पुकारने की हमारे मन का शिक्षण है। वही हमारा संस्कार है। वही हमारे बात नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे सुबह-शाम के काफिले को नहीं कर्मों की थाती है। वही हमारे सारे जीवनों का निचोड़ ठहरा सकता। यह तो सुबह-शाम की धारा चलती ही रहेगी, है।...बाहर जाने को ही जाना है। कभी भीतर तो गए ही नहीं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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