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________________ जिन सूत्र भागः1HILE माने हुए हैं कि हम शरीर ही हैं। जब तक हम शरीर के ठोसपन तो महावीर क्यों कर कहेंगे, भाग जाओ संसार से। हां, किसी से जुड़े हैं, तभी तक हम मौत की सीमा में हैं। जैसे ही हम शरीर को स्वभाव के अनुकूल बैठता हो संसार से अलग हट जाना तो के ठोसपन से मुक्त हुए, हम मौत के बाहर हुए। वह भागना नहीं है। जब किसी के घर में आग लगती है और इस जिंदगी में इन तीनों लोकों में जो भी मिल जाता है, वह कोई आदमी भागकर बाहर आता है तो तुम उसको भगोड़ा तो बाहर-बाहर है। वह हमारा कभी नहीं हो पाता। जो बाहर है वह नहीं कहते! तुम यह तो नहीं कहते, एस्केपिस्ट हो, पलायनवादी बाहर ही रह जाता है; उसे तुम भीतर ले जाओगे बैसे? तुम हो! अगर वह घर में ही बैठा रहे और जल जाये तो तुम उसको संपत्ति का ढेर लगा लोगे, ढेर बाहर लगेगा, भीतर कैसे | मूढ़ जरूर कहोगे, लेकिन बाहर निकल आए तो भगोड़ा तो न लगाओगे? भीतर ज्यादा से ज्यादा हिसाब रख सकते हो, कहोगे! किसी व्यक्ति को अगर संसार का जीवन तालमेल न संपत्ति के आंकड़े रख सकते हो; वह भी बहुत भीतर नहीं, वह खाता हो, उसके भीतर के संगीत में न बैठता हो, उसकी भी मन में होंगे; वह भी चैतन्य में न पहुंच पाएंगे। चैतन्य तक तो लयबद्धता खंडित होती हो, तो वह हट जाये। लेकिन वह आंकड़े भी नहीं पहुंचेंगे, संपत्ति तो बाहर रहेगी, गणित मन तक | भगोड़ा नहीं है। भगोड़ा तो वह है जो यह सोचता है कि संसार से पहुंच जायेगा। संपत्ति मन तक भी नहीं पहुंचेगी, गणित भी न हट जाने के कारण मुझे मोक्ष मिलेगा। जो संसार से हट जाने को पहंच पायेगा चैतन्य तक। तुम्हारी चेतना तो पार ही रहेगी। तो मोक्ष पाने का साधन बनाता है, वह भगोड़ा है। मोक्ष का कोई जब तक भीतर की कोई संपदा न मिल जाये तब तक कोई संपदा संबंध संसार से भाग जाने से नहीं है। काम की नहीं है। महावीर कहते हैं, 'जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से जल से 'अधिक क्या कहें? अतीतकाल में जो श्रेष्ठजन सिद्ध हुए लिप्त नहीं होता वैसे ही सत्पुरुष, सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और जो आगे सिद्ध होंगे, वह इस एक सम्यक्त्व का ही परिणाम और विषयों से लिप्त नहीं होते।' वह अगर कषायों और विषयों है। इसी एक सम्यकत्व का महात्म्य है।' के बीच भी खड़े रहें, जैसे कमलिनी का पत्र सरोवर में पड़ा रहता किं बहुणा भणिएणं-क्या कहें ज्यादा अब? जे सिद्धा है, तो भी लिप्त नहीं होते। एक दफा दिखायी पड़ना शुरू हो णरवरा गए काले-वह जो बीते समय में हुए हैं सिद्ध... । जैनों जाये, बस वह दृष्टि ही अलिप्तता बन जाती है। से कुछ लेना-देना नहीं है इसका। ये वचन शुद्ध उन सबके लिए दुनिया की महफिलों से उकता गया हूं या रब हैं जो सिद्ध हए हैं। इसमें वेदों के ऋषि और उपनिषदों के कवि __ क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो। सभी सम्मिलित हैं। एक दफा वासना बुझ जाये, एक बार वासना की जगह दृष्टि | किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। जो-जो बीते | का दीया जल जाये... समय में, बीते काल में...बेशर्त महावीर कह रहे हैं, कोई शर्त दुनिया से कुछ लगाव न उक्बा की आरजू है नहीं लगायी है। नहीं तो कहते, कि जैन सिद्ध जो हुए हैं अतीत | तंग आ गये हैं इस दिले बे-मुद्दआ से हम। में। जो अभी जागे हैं...! जैन से क्या लेना-देना जागने का? और फिर न तो इस दुनिया का कोई लगाव रह जाता और न जो जाग गये, वे सभी जिन हैं। उस दुनिया की कोई आकांक्षा रह जाती है। जिनके मन में उस सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं। दुनिया की कोई आकांक्षा रह गयी है—वह दुनिया इसी दुनिया -वे इसी सम्यकत्व के महात्म्य से उपलब्ध हए हैं। वे इसी का विस्तार है-वह दुनिया से अभी उकताए नहीं। जो सोच रहे दृष्टि के, इसी जागरण से, इसी ध्यान, इसी समाधि से उपलब्ध हैं, स्वर्ग में मजे करेंगे; जो सोच रहे हैं स्वर्ग में नचाएंगे अप्सराओं को; जो सोच रहे हैं, स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे 'जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता | हैं, डुबकी लेंगे-वे इस दुनिया से उकताए नहीं हैं। समझ उन्हें वैसे ही सत्पुरुष सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से आयी नहीं; जागरण हुआ नहीं। लिप्त नहीं होते।' 'सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा 636 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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