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________________ 668 जिन सूत्र भाग: 1 उपलब्ध नहीं हो सकीं, वहां अप्सराओं की तरह बैठी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं ! इतना ही नहीं, अगर तुम किसी वृक्ष के नीचे ध्यान वगैरह करो, तो उर्वशी और मेनका आकर तुमको परेशान करेंगी। तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं बिलकुल कि तुम कब करो तपश्चर्या कि वे आयें। यह वासना, अतृप्त वासना ही, नये-नये विक्षेप कर रही है। यह अतृप्त वासना का ही विस्तार है। तो महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की आकांक्षा—वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो— संसार में लौटा लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी। निष्कांक्षा ! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो ? आकांक्षा को समझने से; आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से तेल निचोड़ रहा और न निचुड़ता हो और परेशान हो रहा हो और कोई उसे बता दे कि 'पागल, रेत में तेल होता ही नहीं; इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं तेल निकलेगा नहीं; तू लाख सिर मार, तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत से तेल निकलेगा नहीं ।' अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं । ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण करो, विश्लेषण करो । खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का । तीसरा — निर्विचिकित्सा । जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा । प्रत्येक व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और दूसरों के गुण छिपाते हैं। अगर तुमसे कोई कहे फलां आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है, तुम फौरन कहते हो : वह क्या बांसुरी बजायेगा ! चोर, लुच्चा, लंपट! अब चोर, लुच्चा, लंपट से बांसुरी बजाने Jain Education International का कोई भी संबंध नहीं है । कोई चोर है, इससे बांसुरी बजाने में बाधा नहीं पड़ती। लेकिन तुम तत्क्षण दबा देते हो कि वह चोर है, वह क्या बांसुरी बजायेगा ! और तुम अपने दोषों को छिपाये चले जाते हो। तुम अगर क्रोध भी करते हो तो जिस पर क्रोध करते हो उसी के हित के लिये करते हो, सुधार के लिये, एक तरह की सेवा समझो। अगर तुम बच्चे को पीटते भी हो, तो उसी के भविष्य के लिये। हालांकि कभी पीटने से, किसी का भविष्य बना नहीं, बिगड़ा भला मां अगर बेटे को पीटती है, तो सोचती है, क्योंकि वह कपड़े खराब कर आया, धूल-धवांस में खेला, या गलत बच्चों के साथ खेला। लेकिन अगर भीतर खोज करे तो पायेगी कि वह क्रोध से उबल रही थी। पति से कुछ झंझट हो गई थी। पति पर न फेंक पाई क्रोध को, बच्चे की प्रतीक्षा करती रही। क्योंकि यह बच्चा कल भी उन्हीं बच्चों के साथ खेला था और कल भी यह धूल-धवांस से भरा लौटा था। बच्चे हैं- लौटेंगे ही। बच्चे बूढ़े नहीं हैं । और समय के पहले उन्हें बूढ़ा बनाने की चेष्टा बड़ी खतरनाक है । उनके लिये अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं है—और शुभ है कि कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस दिन कपड़ों का मूल्य हो जाता है उसी दिन अपने भीतर के सब मूल्य खो जाते हैं । अभी भीतर का आनंद पर्याप्त है, कपड़े गंदे भी हो जाते हैं तो चिंता नहीं; लेकिन भीतर का खेल शुद्ध रहता है, स्वच्छ रहता है। अभी भीतर की मौज इतनी बड़ी है कि थोड़ी धूल पड़ जाये तो बर्दाश्त कर लेती है। अभी बच्चे में प्रदर्शन का भाव नहीं जगा है और अभी थोथी वस्तुओं का मूल्य निर्मित नहीं हुआ है। अभी असली का मूल्य है। खेल का आनंद, रस मूल्यवान है। कपड़े इत्यादि अभी निर्मूल्य हैं। अभी इनका कोई, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन कल भी वह ऐसा ही आया था, तब मां ने कुछ भी न कहा था। लेकिन आज टूट पड़ती है, पीटने लगती है। पूछो तो कहेगी, सुधार के लिये ! लेकिन अगर गौर से निरीक्षण करे तो पायेगी कि पति पर नाराजगी थी। पति पर निकाल न सकी-पति परमात्मा है ! ऐसा पतियों ने ही समझाया हुआ है, तो उन पर नाराजगी निकाली भी नहीं जा सकती। वहां द्वार दरवाजा बंद है। तो जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, ऐसा ही क्रोध भी अपने से कमजोर की तरफ बहता है। बच्चे से ज्यादा कमजोर और तुम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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