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________________ पलकन पग पोंछं आज पिया के दूसरा प्रश्न : मेरे भीतर जैसे स्तब्धता, सन्नाटा-सा लग रहा हैं, तो हाथ खाली हो जाते हैं। हाथों का खाली हो जाना सत्य के है। खाली-खाली, शून्यता जैसे छा गई हो। और साथ ही उतरने के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन व्यर्थ के जाने और सत्य अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी हावी होता रहता है। मैं | के आने के बीच में थोड़ा अंतराल है। उस अंतराल में बड़ी पीड़ा क्या करूं? मैं बावरी-सी हो गई हूं। मैं अपने को बहुत होती है। उस अंतराल को जो पार नहीं कर पाता, वह घबड़ाकर असहाय, अकेली और असुरक्षित पा रही हूं। भय लगता है। फिर बाहर निकल आता है। | इसीलिए 'सरोज' ने पूछा है : 'एक तरफ खाली-खालीपन 'सरोज' का प्रश्न है। और शून्यता छा गई है और दूसरी तरफ अच्छे-बरे विचारों का ऐसा होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। क्योंकि जैसे ही हम आक्रमण भी होता रहता है।' भीतर जाते हैं, हम अकेले हो जाते हैं। इसीलिए तो लोग भीतर | वह आक्रमण इसीलिए हो रहा है। वह आक्रमण हो रहा है, जाने से डरते हैं। ऐसा नहीं, बल्कि तुम चेष्टा कर-करके अच्छे-बुरे विचारों को बाहर हैं और लोग, भीतर तो कोई भी नहीं। भीतर तो तुम हो पकड़ रही हो, ताकि भीतर जो निस्तब्धता है वह एकदम भयावनी और बस तुम हो। बाहर अनंत लोग हैं, चहल-पहल है। भीतर न हो जाये। कुछ तो सहारा रहे। विचार ही सही, कुछ तो तरंगें तो सन्नाटा है। बाहर बहुत भरावट है, भीतर तो शून्य है। और उठती रहें, तो कुछ व्यस्तता बनी रहे। क हम बाहर जीए, संबंधों में जीए, औरों के साथ लोग खाली होने की बजाय दुखी होना भी पसंद करते हैं, जीए, भीड़-बाजार, घर-गृहस्थी-हजार व्यस्तताएं। क्योंकि कम से कम दुख तो है! कुछ तो है हाथ में! हाथ __ तो जब भीतर चलना शुरू करोगे तो अचानक अनुभव में बिलकुल खाली तो नहीं। कंकड़-पत्थर सही, न हुए आना शुरू हो गया, वह सब तो दूर छूट गया और इस भीतर तो हीरे-जवाहरात! लेकिन कोई यह तो नहीं कह सकता कि कुछ तुम्हारा निकटतम प्रियजन भी नहीं आ सकता। यह तो तुम्हारा भी नहीं है। नितांत एकांत है। यह तो इतना निजी है, इतना प्राइवेट है कि तुम __ अधिक लोग दुख को भी नहीं छोड़ते, क्योंकि उनको डर अपने प्रेमी को भी इसमें निमंत्रित न कर सकोगे। यहां तो बस लगता है—छोड़ दिया इतने दिनों का संग-साथ, तो अकेले हो तुम हो और तुम हो। जायेंगे। तो शुरू-शुरू में बड़ी निस्तब्धता, सन्नाटा, सूनापन | तुमने कभी खयाल किया, बहुत दिन बीमार रहने के बाद अगर नकारात्मक मालूम होगा। तुम बिस्तर से उठो तो बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है : अब कहां राह देखी नहीं और दूर है मंजिल मेरी जायें। अब तो बिस्तर पर होना जीवन की शैली हो गयी थी। कोई साकी नहीं, मैं हं, मेरी तन्हाई है। अगर दो-चार साल बिस्तर पर रह गये, तो जो आदमी दो-चार घबड़ाहट भी होगी; क्योंकि राह देखी नहीं, मंजिल का कोई साल बिस्तर पर रह जाता है, फिर वह उठता ही नहीं; इसलिए पक्का पता नहीं कहां है, कहां जा रहे हैं, क्या हो रहा है। मील के नहीं कि बीमारी ठीक नहीं होती, बीमारी ठीक भी हो जाये तो अब पत्थर भी नहीं हैं भीतर। कौन लगायेगा मील का पत्थर? कोई| वह बीमारी को पकड़ लेता है। चिकित्सक इस घटना से नक्शा भी नहीं है भीतर का। कौन देगा नक्शा? वहां कोई हाथ भलीभांति परिचित हैं कि अगर बीमारी ज्यादा दिन रह जाए तो लेकर चलानेवाला भी नहीं है। तो अचानक आदमी असहाय बीमार को फिर ठीक करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसकी मालूम होता है। बीमारी आदत का हिस्सा हो जाती है। अब बीमारी को वह अपने इस असहाय अवस्था से अगर गुजर गये, अगर इस असहाय जीवन के ढंग में समा लेता है। अब इस ढंग को छोड़ने में अवस्था को शांति से पार कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में पहली | अड़चन होगी। दफा आत्मबल का जन्म होगा। लेकिन उसके पहले असहाय अगर तुम एक दुख के आदी हो गये हो तो तुम उस दुख को अवस्था से गुजर जाना जरूरी है। जब झूठी चीजें हाथ से छूटती सम्हाले रहोगे। 439 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrar corg
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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