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________________ जिन सूत्र भाग 1 तो महावीर ने कहा, जब तुम गुजर रहे थे उसके पास से, तब मिलता वहां भी खोजे चले जाते हैं! उसका हाथ तलवार पर था। मरता तो सातवें नर्क जाता। लेकिन एक सूफी फकीर के घर एक रात चोर घुस गए। सूफी सोया अब अगर मरे तो मोक्ष उसका है। घड़ी भर का ही फासला हुआ था, उठा और दीया जला लिया उसने। चोर बड़े घबड़ा गए। है। बाहर से देखने पर प्रसेनचंद्र अब भी वैसा है। बाहर तो कोई उसने कहा, 'घबड़ाओ मत! मैं तुम्हारा साथ दूंगा।' भी फर्कन पड़ा, लेकिन भीतर की भाव-दशा बदल गई। उन्होंने कहा, 'मतलब? तुम पागल तो नहीं हो? होश में तुम्हारा होना, तुम्हारा भीतर, तुम्हारा आंतरिक तत्व है। भाव हो? हम चोर हैं!' तम्हें भीतर बदलते हैं। विचार तुम्हें भीतर बदलते हैं। बाहर तो उसने कहा, 'तम फिक्र छोडो। इस घर में मैं तीस साल से रह जब तुम विचारों को लाते हो तो समाज शुरू होता है। समाज | रहा हूं और खोज रहा हूं कि कुछ मिल जाये, मिलता नहीं। मैं जहां शुरू होता है वहां कानून शुरू होता है। लेकिन तुम जहां हो, तुम्हें साथ दूंगा। अगर तुम खोज लो, आधा-आधा बांट लेंगे। वहां पाप और पुण्य का हिसाब है, वहां धर्म का हिसाब है। तो मैं दीया जलाकर आया, भाग मत जाना।' 'राग आदि की उत्पत्ति हिंसा, अनुत्पत्ति अहिंसा है।' जिस जिंदगी में तुम रह रहे हो जन्मों से, उसमें कुछ पाया है? जान भी जिंदगी पे देते हैं लेकिन उम्मीद नहीं छूटती। शायद मिले कल, ऐसे आशा के जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। सहारे बंधे जीते हो। अनुभव पर सदा तुम्हारी आशा जीत जाती मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था है। यही जीवन का सबसे बड़ा रोग है : अनुभव पर आशा की अब तो गरदानती जमीं भी नहीं। जीत। अनुभव तो कहता है, कुछ भी नहीं है। अनुभव तो हजार आज नहीं कल, यह शरीर तो गिरेगा, मिट्टी में मिल जायेगा। बार कह चुका कि कुछ भी नहीं है। अनुभव से तो सदा हाथ में मैं हूं वोह जिससे चर्ख दबता था-कभी आकाश दबता था। राख लगी है। लेकिन आशा कहती है, कौन जाने! अब तो गरदानती जमीं भी नहीं-फिर जमीन भी कोई फिक्र न उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती करेगी। वादा न वफा करते, वादा तो किया होता। जान भी जिंदगी पे देते हैं। उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती—एक भरोसा तो जिंदगी काबिले-यकी भी नहीं। आ जाता, एक आशा तो बंध जाती! वादा न वफा करते-कोई और जिस जिंदगी पर हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं, जरूरत न थी कि जो वायदा किया था वह पूरा करते। वादा तो वह जिंदगी पानी का एक बबूला है-अब मिटा तब मिटा; एक किया होता! सपने में खींची गई लकीर है—खिंची भी नहीं. सिर्फ खिचे होने | __ आदमी इतने से ही जीये चला जाता है: 'कहा तो होता! का खयाल है! आशा तो बंधा दी होती! सांत्वना तो रखवा देते!' जिस जिंदगी के लिए हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं उस तुमने कभी गौर किया? तुम उन चीजों पर भी भरोसा किये जिंदगी का मूल्य कितना है? जिस दिन व्यक्ति को अपने जीवन जाते हो जिनको तुम जानते हो कुछ परिणाम होने का नहीं। बहुत का मूल्य दिखाई पड़ना शुरू होता है कि इस जीवन का कोई भी बार जान चुके हो कि कुछ मिलता नहीं! कितनी बार क्रोध मूल्य नहीं है, मिट्टी में मिट्टी गिर जायेगी, तो मैं व्यर्थ इस मिट्टी किया! कितनी बार कामवासना में जले, डूबे, क्या मिला? को बचाने के लिए जो उपाय करता हूं, राग-द्वेष करता हूं, उनका हाथ खाली के खाली रहे। लेकिन फिर भी...। कोई सार नहीं है। जीवन की असारता दिखाई पड़ जाये तो सब ___ हजार बार भी वादा वफा न हो लेकिन राग-द्वेष की असारता दिखाई पड़ जाती है। उस असारता के | मैं उनकी राह में आंखें बिछा के देख तो लूं। अनुभव का नाम ही अहिंसा है। -न आये, कोई हर्जा नहीं! हजार बार न आये, कोई हर्जा लेकिन हम झूठ में ऐसे रगे-पगे हैं, कि जहां बार-बार आशा नहीं। एक हजार एकवीं बार शायद आ जाये। मैं उनकी राह में टूटती है वहां भी आशा किये चले जाते हैं; जहां कभी कुछ नहीं आंखें बिछा के देख तो लूँ! 284| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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