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________________ vavi tor पर्म की मूल भित्तिः अभय S R एक हिंदू पंडित में और एक मुसलमान मौलवी में बड़ी दोस्ती के लिये है। इसकी क्षणभंगुरता को गौर से देखते रहो, तो तुम थी। मौलवी नयी मस्जिद बनाने के लिये योजना कर रहा था इसे 'मेरा' न कहोगे। और दान मांग रहा था। उसने मित्रों को भी पत्र लिखे। उसने उस तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल! पंडित को भी पत्र लिखा कि मस्जिद बनाने के लिए चेष्टा कर रहे | और दिल की जो गहन शांति है, वह जो आत्म-शांति है, हैं, कुछ दान! पंडित ने पत्र लिखा कि यह तो असंभव है; मैं हिंदू | वासना के त्याग से ही मिलेगी: ममता के त्याग से ही मिलेगी। हूं और मस्जिद बनाने के लिए दान दूं, यह तो संभव नहीं है। हां, दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! पुरानी को गिराने के निमित्त सौ रुपये भेज रहा हूं। पुरानी 'मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा ज्ञान-दर्शन से गिराओगे न, नयी बनाने के पहले! मेरा दान पुरानी को गिराने के परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर लिये है। इसका उपयोग भर गिराने में कर लेना। बनाने के लिए मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।' तो मैं कैसे दे सकता हूं! अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो। मस्जिद गिर जाये, हिंदू प्रसन्न है। मंदिर जल जाये, मुसलमान तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।। प्रसन्न है। किसी को परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है, . "मैं एक हूं...।' अपना-अपना है। अगर तुम्हारे परमात्मा पिट रहे हों तो कोई | __ एक-एक शब्द समझना इस सूत्र का। महावीर कहते हैं, मैं बचाने भी न आयेगा। लोग खुश ही होंगे कि अच्छा है, तुम्हारे एक हूं। तुम न कह सकोगे कि तुम एक हो। तुम तो अगर गौर ही पिट रहे हैं। | करोगे, तो पाओगे तुम एक भीड़ हो। तुम अनेक हो। तुम तो जबलपुर में गणेश-उत्सव पर गणेशों का जुलूस निकलता है, एक बाजार हो। एक उपद्रव हो, जिसके भीतर कई स्वर हैं। शोभा-यात्रा निकलती है। और हर मुहल्ले के गणेशों की जगह महावीर ने कहा, साधारणतः मनुष्य 'बहुचित्तवान' है। इस बंटी हुई है। तो पहले ब्राह्मणों के टोले का गणेश होता है, फिर | शब्द का प्रयोग अकेले महावीर ने किया है पच्चीस सौ साल दसरे टोले। फिर ऐसे पीछे आखिर में हरिजन टोले। पहले। अब आधुनिक मनोविज्ञान इस शब्द का उपयोग करता एक बार ब्राह्मणों का टोला आने में थोड़ी देर हो गई और है। वह कहता है: मल्टीसाइकिक, बहुचित्तवान। एक-एक तेलियों के गणेश पहले आ गये। तो जब ब्राह्मणों के गणेश आदमी के पास एक-एक मन नहीं है; एक-एक आदमी के पास पहुंचे, ब्राह्मणों ने कहा, 'हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों न मालूम कितने मन हैं! का गणेश और आगे!' | तुम अकसर कहते हो कि यह मेरे मन को नहीं भाता। लेकिन हां, गणेश भी तेलियों के, ब्राह्मणों के अलग-अलग हैं! तुमने कभी खयाल किया कि सुबह जो तुम्हारे मन को नहीं तेलियों का गणेश, हटाओ पीछे। यह तो बेइज्जती की बात हो भाता। वही शाम को भाने लगता है! आज जो अच्छा लगता है, गई। और तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। कल बुरा लगने लगता है। क्षणभर पहले जो प्रीतिकर था, अब हिंदू-मुसलमान के देवी-देवता तो छोड़ो, हिंदू के भी शत्रु मालूम होने लगता है। तो तुम सोचते नहीं कि तुम्हारे भीतर देवी-देवता! तेली और ब्राह्मण के अलग हो जाते हैं। बहुत मन हैं; एक मन नहीं है। अगर एक मन हो तो तुम्हारा प्रेम सब जगह आदमी अपने अहंकार की पताका लिये खड़ा रहता एकरस होगा। अगर एक मन हो तो तुम्हारा भाव थिर होगा। है। इस पताका को जो गिरा देता है वही आत्मा को जानने में | अगर एक मन हो तो बदलाहट न होगी। तुम्हारे भीतर शाश्वतता समर्थ होता है। होगी, चिरंतनता होगी। छोड़ो इस मेरे-तेरे को। सपनों में ज्यादा रस मत लो। लेकिन तुम तो एक भीड़ हो। गुरजिएफ कहता था, तुम एक तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल ऐसे घर हो जिसका मालिक तो सोया है और नौकर पाली बांध दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या! लिये हैं। क्योंकि सभी नौकर मालिक होना चाहते हैं। सभी एक इतना ही देखते रहो कि यहां जो है, दो दिन के लिये है, क्षणभर साथ तो हो नहीं सकते। और मालिक सोया है, तो नौकरों ने 425 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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