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________________ के चश्मे होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन में एक ही तरह की म है। भीतर की आंख की एक ही बीमारी है। वह बीमारी है कि पास जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दूर की आकांक्षा होती है। दूर के ढोल सुहावने ! तो मन भटकता है। किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू ? पास देखने की दृष्टि का नाम धर्म है। जो मिला हुआ है, उससे पहचान बनाने का नाम धर्म है। जिसे कभी खोया ही नहीं है। उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका ही नाम धर्म है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। कम न होगा। कम नहीं है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। क्योंकि मन कहे जाता है और मिल सकता है, और मिल सकता है, और मिल सकता है।' परसों रात एक संन्यासिनी मुझसे चप्पल मांगने लगी कि आपकी चप्पल दें। वह पहले भी आयी थी, तब भी उसने चप्पल मांगी थी। मैंने उसे कुछ दिया था; क्योंकि सवाल, क्या | देता हूं, यह थोड़े ही है। मैंने दिया । उसे कुछ दिया था, मैंने | कहा, यह ले जा । क्योंकि चप्पल मांगने का रोग बढ़ जाये तो मैं | मुसीबत में पड़ जाता हूं! कितनी चप्पलें दूं? और एक के पास दिखती है तो दूसरा मांगने आ जाता है, तीसरा मांगने आ जाता है । फिर किसको मना करो। तो मैंने उसे काष्ठ की एक छोटी डब्बी दी थी। इस बार वह फिर आई, उसने फिर मांगा कि चप्पल। तो मैंने उससे कहा, पहले मैंने तुझे कुछ दिया था ? उसने कहा, कुछ नहीं, एक छोटी-सी डिब्बी दी थी। अब अगर इसे मैं चप्पल भी दूं तो अगले साल यह आकर कहेगी, 'क्या दिया था - चप्पल !' क्योंकि सवाल... मैं तुम्हारे हाथ में खाली हाथ दूं, तो भी कुछ दे रहा हूं। देखने | की आंख चाहिए। और ऐसे मैं उठकर तुम्हारे घर भी चला आऊं, तो भी तुम कहोगे, 'यह और एक मुसीबत कहां से घर आ गई! अब इनकी कौन साज-सम्हाल करे !' लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता। वह दिखाई इसीलिए नहीं पड़ता कि वह इतना ज्यादा है, इतना घना 'आखिर मैं क्या चाहता हूं ? जो कुछ भी मुझे मिला है और है, सब ओर से है, बाहर-भीतर है; देखनेवाला भी वही है, मिल रहा है, वह कम नहीं है।' दिखाई पड़नेवाला भी वही है - इसीलिए चूके जा रहे हैं । इसलिए थोड़े ही कि वह कहीं दूर है, बहुत दूर अगर बहुत दूर होता, हम पा ही लेते उसे । चांद पर पहुंच गए, कितनी दूर होगा ! दृष्टि की बात है। बहुत मिल रहा है, मगर तुम्हारे पास जो मन है, वह उसे देख ही नहीं पाता, जो है। मन की आदत अभाव को | देखने की है। Jain Education International जिंदगी नाम है रवानी का कभी पता है, दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है ! जब तक था, कभी न गई। जब टूट जाता है तो वहीं वहीं जाती हैं। खाली जगह । अभाव ! तुम लाख सरकाते हो वहां से कि क्या सार है; पता तो चल गया एक दफे कि दांत टूट गया है - लेकिन फिर, भूले-चूके फिर तुम पाओगे, जीभ वहीं टटोल रही है। जैसे जीभ अभाव को टटोलती है, ऐसे ही मन जो नहीं है उसको टटोलता है। जो है, उसे देखने की मन की आदत ही नहीं है। जब पहला रूसी अंतरिक्ष यात्री वापिस लौटा, तो कहते हैं खुश्चेव ने उससे पहली बात पूछी, 'ईश्वर मिला?' तो उसने कहा कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं मिला, चांद बिलकुल खाली है। तो रूस में लेनिनग्राड में उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा के लिए एक अनुसंधानशाला बनाई है। उसके द्वार पर ये वचन लिख दिए गए हैं कि 'हमारे अंतरिक्ष यात्री चांद पर पहुंच गए और उन्होंने वहां पाया कि ईश्वर नहीं है।' जिनको जमीन पर नहीं मिलता उनको चांद पर कैसे मिलेगा, यह भी तो थोड़ा सोचो! तुम तो तुम ही हो ! देखने की नजर तुम्हारी ही है। मिलता होता तो यहां मिल जाता । रवींद्रनाथ ने बुद्ध के संबंध में एक कविता लिखी है। कविता बड़ी मधुर है। बुद्ध वापिस लौटे हैं, बारह वर्षों के बाद । यशोधरा ने उनसे पूछा है कि मैं तुमसे एक ही प्रश्न पूछती हूं, इस एक प्रश्न पूछने के लिए जीती रही हूं, कि तुम्हें जो वहां मिला, वह यहां नहीं मिल सकता था ? जो तुम्हें जंगल में जाकर मिला, वह घर में नहीं मिल सकता था? बस एक ही प्रश्न मुझे पूछना है। बुद्ध को कभी किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा स्तब्ध नहीं रहते देखा गया, जैसे बुद्ध स्तब्ध खड़े रह गए। यह तो वे भी न कह सकेंगे कि यहां नहीं मिल सकता था। नजर की बात थी । अब For Private & Personal Use Only 219 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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