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________________ थोड़ा सोचो! सुगति का मार्ग पता न था, क्या ऐसे लोग न थे जो सुगति का मार्ग बता रहे थे ? महावीर के पहले जैनों के भी तेईस तीर्थंकर हो गये। महिमावान पुरुष हुए। सुगति का मार्ग तो था, बतानेवाले थे - सुना नहीं महावीर ने। उसी लिए आज रोते | हैं। सुगति का मार्ग तो था, लेकिन उस पर चले नहीं। क्योंकि यह मार्ग कुछ ऐसा है कि चलने से ही बनता है । यह कोई बना-बनाया मार्ग नहीं है। कोई पी. डब्ल्यू. डी. नहीं है कहीं आकाश में कि रास्ते बनाती है कि तुम बस तैयार रास्ते हैं, चल पड़ो। जब मौज आ जाए, निकाल लो गैरेज से अपनी गाड़ी और चल पड़ो। नहीं, बने-बनाये रास्ते नहीं हैं। रास्ता चल चलकर | बनता है। पगडंडियों जैसा है, राजपथ नहीं। चलते हो, उतना ही बनता है। सुनो उनकी जिन्होंने पाया हो । गुनो उनकी जिन्होंने पाया हो । पीयो उनको जिन्होंने पाया हो। और फिर थोड़ा-सा जो तुम्हारे गले में घूंट उतर जाए, उसको सिर्फ ज्ञान बनाकर मत रह जाना। उसको पचाओ। पचाने का अर्थ है: चलो। जो तुमने सुना और समझा, थोड़ा उसका जीवन में प्रयोग करो। उतना रास्ता बनता है । और एक कदम उठता है तो दूसरे कदम के लिए सुविधा बनती है। दूसरा कदम उठता है तो तीसरे कदम की सुविधा बनती है। और एक-एक कदम से आदमी हजारों मील की यात्रा कर जाता है। 'हा, खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।' 'जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त हो गया है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता; जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।' महावीर कहते हैं, नहीं कि मैंने नहीं सुना था; नहीं कि सदगुरु नहीं थे। लेकिन बुद्धि विपरीत थी । सुनता था कुछ, ना कुछ । जो कहा जाता था उससे विपरीत सुन लेता था। जो बताया जाता था, उससे उलटा चल पड़ता था । एक वकील के दफ्तर में ऐसा घटा। एक बहुत बड़े वकील अपने दफ्तर में कार्य करनेवाले लड़के को सुधारने की कोशिश कर रहे थे। एक दिन लड़का अपनी टोपी उछालते हुए कमरे में आया और बोला, 'मिश्रा जी, आज एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है और मैं वहां जाना चाहता हूं।' मिश्रा जी भी चाहते थे कि Jain Education International बोध गहन बोध-मुक्ति है लड़का नाटक देख ले, पर उसे कुछ तमीज सिखाने के खयाल से उन्होंने कहा, 'छोटे! पूछने का यह कोई तरीका है ? टोपी उछालते हुए चले आ रहे हो दफ्तर में । यह कोई ढंग है? तुम मेरी कुर्सी पर बैठो, मैं तुम्हें सही तरीका सिखाता हूं।' लड़का कुर्सी पर बैठ गया और वकील साहब कमरे के बाहर चले गये । फिर उन्होंने अंदर आने के लिये धीरे से दरवाजा खोला और कहा, 'साहब! आज दोपहर को एक बहुत अच्छा नाटक हो रहा है, यदि आप मुझे छुट्टी दे दें तो मैं उसे देख आऊं !' 'क्यों नहीं', कुर्सी पर बैठे लड़के ने कहा, 'और छोटे ! यह लो टिकट के पांच रुपये।' बड़ा मुश्किल है सिखाना! क्योंकि जिसे तुम सिखाने चले हो, वह पहले से ही सीखा बैठा हुआ है। इस संसार में शिष्य खोजना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि शिष्य पहले से ही गुरु बना बैठा है। लोग जानते ही हैं। उसी जानकारी के कारण अगर कोई जाननेवाला भी मिल जाए तो उससे चूक जाते हैं। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारे शास्त्र में तो ऐसा लिखा है और आपने ऐसा कहा । तो मैं उनसे कहता हूं, तुम्हें शास्त्र ठीक लगता हो तो उस पर चलो ! चलो ! तुम्हें मैं ठीक लगता हूं, मुझ पर चलो। कृपा करके इस झंझट में तो न पड़ो कि शास्त्र ठीक कि मैं ठीक। क्योंकि ठीक का पता सोच-विचार से न चलेगा, चलने से चलेगा। मैंने तुमसे कहा, पूर्व से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। कोई तुमसे कहता है, पश्चिम से जाओ तो नदी पहुंच जाओगे। तो मैं कहता हूं, कैसे तय करोगे यहीं खड़े-खड़े, कौन ठीक कहता है? चलो, जिस पर तुम्हें भरोसा हो । शास्त्र पर भरोसा हो, चलो। अगर नदी न मिले तो हिम्मत रखना स्वीकार करने की कि शास्त्र गलत । अगर मेरी बात मानकर चलो और नदी न मिले, तो हिम्मत रखना यह बात स्वीकार करने की कि जिसको गुरु समझा था वह गलत था । फिर ऐसा मत करना कि जब एक दफा मान लिया किसी की बात को कि पूरब में नदी है, तो अब चाहे पूरब में नदी मिले या न मिले, चाहे जन्म-जन्म भटक जाएं लेकिन हम पूरब में ही खोजेंगे, क्योंकि मान लिया सो मान लिया। ऐसी हठग्राहिता से कुछ अर्थ नहीं है। लोग माने बैठे हैं, चले भी नहीं, कभी प्रयोग करके भी नहीं देखा। सैद्धांतिक बकवास For Private & Personal Use Only 59 www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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