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________________ S S जिन सूत्र भागः1 m F Story गी तो किसी चित्र में चित्रित होंगी, वास्तविक न एक पात्र नाराज होकर ईश्वर से कहता है: यह अपनी टिकिट त होंगी, कागजी होंगी। और सागर नहीं हो सकता लहरों के वापिस ले ले। यह जीवन हमें नहीं चाहिए! सम्हाल अपने बिना; अगर होगा तो मुर्दा होगा। उसमें कोई जीवन न होगा। जीवन को! जीवन को जो त्यागकर जा रहा है, वह यही कह रहा जीवन होगा तो हवाएं भी उठेगी और जीवन होगा तो तरंगें भी है कि ये फूल हमें न भाये, ये फूल हमें शूल सिद्ध हुए। यह तूने उठेगी। और जितना विराट सागर होगा उतने विराट तूफानों को जो वर्षा की थी, यह अमृत की नहीं थी, जहर की थी। और यह झेलने की झमता होगी। ये लहरें भी उसी की हैं। यह मन भी तूने हमें जीवन दिया था, यह देने योग्य न था। तूने किसे धोखा उसी का! हम भी उसी के! यह तन भी उसी का! देना चाहा? भक्त की भाषा अलग है। इस प्रश्न में उलझन है। यह प्रश्न त्यागी यह कह रहा है कि हम छोड़ते हैं तेरे जीवन को; हमें साफ नहीं है। और जिसने भी ये दो पंक्तियां रची होंगी, उसके आवागमन से छुटकारा चाहिए। त्यागी प्रकृति के विपरीत चलता मन में भी साफ नहीं थी बात कि वह क्या कह रहा है। उसके मन है। वह नदी की धार के विपरीत लड़ता है। वह गंगोत्री की तरफ में खिचड़ी रही। प्रश्न तो साधक का था, और भाषा भक्त की बहता है; भक्त गंगासागर की तरफ। भक्त कहता है, जहां ले थी। ऐसी उलझन में जो भी पड़ेगा वह बड़े संकट में पड़ जाता जाये गंगा! हम भी उसी के, गंगा भी उसी की, हवाएं भी उसी है-आत्मसंकट में। उसका मन दो खंडों में बंट जाता है। वह की। तो जहां भी पहुंचा देगा वहीं मंजिल होगी! और हम कौन हैं टिकिट तो लेता है कलकत्ता जाने की और ट्रेन में बैठ जाता है मंजिल को तय करें। तो अगर मन में तरंगें उठती हैं तो उन्हीं बंबई की। तो वह सोचता है, टिकिट भी मेरे पास है; और वह तरंगों में वह प्रभु के नाम को गुनगुनाता है। सोचता है टिकिट-चैकर मुझे परेशान क्यों कर रहा है! टिकिट इसलिए भक्त तुम्हें गुनगुनाता मिलेगा। ज्ञानी तुम्हें मौन उसके पास है, लेकिन उसे किसी और दिशा में जाना था। जहां मिलेगा। ज्ञानी बाहर से ही मौन नहीं है, भीतर से भी चुप है। वह जा रहा है, वहां की टिकिट उसके पास नहीं है। शब्द उठा कि संसार उठा। वह संसार से ही नहीं डर गया, शब्द ऋग्वेद में एक परम वचन है : 'ऋतस्य यथा प्रेत'; जो से भी डर गया है। भक्त तुम्हें बाहर भी गुनगुनाता मिलेगा, प्राकृतिक है, वही प्रिय है। जो स्वाभाविक है, वही शुभ है। भीतर भी गुनगुनाता मिलेगा। लहरें उसे स्वीकार हैं। वह लहरों स्वभाव के अनुसार जीवन व्यतीत करो। ऋतस्य यथा प्रेत! यही को बदलने की कीमिया जानता है। उसने लहरें भी परमात्मा के लाओत्सु का आधार है : ताओ। पूरे ताओ को इस ऋग्वेद के चरणों में समर्पित कर दी हैं। वह इससे भयभीत नहीं होता। एक छोटे-से सूत्र में रखा जा सकता है : ऋतस्य यथा प्रेत। प्रकृति और उसके बीच कोई विरोध नहीं है। इनकार की भाषा जो प्राकृतिक, वही प्रिय। तुम श्रेय और प्रेय को तोड़ो मत। जो उसे नहीं आती। वस्तुतः भक्त के लिए इनकार की भाषा में ही प्रीतिकर लग रहा है वही श्रेयस्कर है। प्रीतिकर लगना श्रेयस्कर नास्तिकता छिपी है। की खबर है। कहीं पास ही श्रेय भी छुपा होगा। तुम श्रेय के द्वार। इसलिए ऐसा तो हुआ कि अनेक ज्ञानी नास्तिक हुए; लेकिन को खोज लो। एक भी भक्त नास्तिक नहीं हुआ। यह तुम थोड़ा सोचना। इसलिए वेदों का जो ऋषि है, वह कोई भगोड़ा नहीं है। उसने बुद्ध नास्तिक हैं। परमज्ञान को उपलब्ध हो गए, लेकिन जीवन का निषेध नहीं किया है। जीवन का परम स्वीकार है। नास्तिकता इससे नहीं छूटी है। महावीर नास्तिक हैं। परमज्ञान परमात्मा ने जो दिया है, वह प्रसाद है। वह उसकी भेंट है। | को उपलब्ध हुए, लेकिन परमात्मा की कोई जगह नहीं। क्योंकि उसका अस्वीकार कैसे हो? उसका त्याग कैसे हो? जब पूजा की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो सकती त्याग का तो अर्थ ही होगा कि तेरी भेंट हम...राजी नहीं होते है? जब प्रार्थना की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो तेरी भेंट से! तेरी भेट, भेंट के योग्य नहीं! तूने जीवन दिया, यह सकती है? ले वापिस! तो एक अनूठी घटना घटी कि बुद्ध और महावीर जैसे दोस्तोवस्की के बड़े प्रसिद्ध उपन्यास 'ब्रदर्स करमाझोव' में परमज्ञानी नास्तिक हैं। जब पश्चिम को पहली दफा पता चला 6461 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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