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________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक हो जाती है कि उसे सिवाय ब्रह्म के फिर कुछ दिखाई पड़ता नहीं। बचाना हुआ? यह तो नाम का ही फर्क हुआ। ण और श्रमण संस्कृतियां विपरीत खड़ी रही हैं। हिंदु संस्कृति भोग का परम स्वीकार है। और भोग में ही श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति भोग की परमात्मा का आविष्कार है। श्रमण-संस्कृति त्याग का, संन्यास संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के ऐश्वर्य की संस्कृति का, छोड़ने का, विरक्ति का, वैराग्य का मार्ग है। और उसी से है, परमात्मा के विस्तार की। श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति परमात्मा को पाना है। है, वीतराग की, परमात्मा के संकोच की, वापसी यात्रा है। मेरे देखे, त्याग और भोग दो पंखों की तरह हैं। इसीलिए रामानुज, वल्लभ और निम्बार्क; शंकर को हिंदू नहीं श्रमण-संस्कृति भी अधूरी है, ब्राह्मण-संस्कृति भी अधूरी है। मानते। वे कहते हैं, प्रच्छन्न बौद्ध, छिपा हुआ बौद्ध है यह मैं उसी आदमी को पूरा कहता हूं, उसी को मैं परमहंस कहता हूं, आदमी। निम्बार्क, शंकर के बीच; वल्लभ, शंकर के बीच; जिसके दोनों पंख सुदृढ़ हैं; जो न भोग की तरफ झुका है न त्याग रामानुज, शंकर के बीच बड़ा विवाद है। और मैं भी मानता हूं, की तरफ झुका है; जिसका कोई चुनाव ही नहीं है; जो सहज शंकर हिंदू नहीं हैं—हो नहीं सकते। शंकर ने बड़े छिपे रास्ते से शांत जो भी घट रहा है, उसे स्वीकार किया है; घर में है तो घर में श्रमण-संस्कृति को ब्राह्मण-संस्कृति की छाती पर हावी कर स्वीकार है, मंदिर में है तो मंदिर में; पत्नी है तो ठीक, पत्नी मर दिया। इसलिए शंकर के संन्यासी को तुम जानते हो, वही | गई तो ठीक; पत्नी होनी ही चाहिए, ऐसा भी नहीं है; पत्नी नहीं संन्यासी हो गया खास। वह संन्यासी बिलकुल हिंदू है ही नहीं। ही होनी चाहिए, ऐसा भी नहीं है जिसका कोई आग्रह नहीं है, तुमने उपनिषद के ऋषि-मुनियों को देखा है, सुनी है उनकी | निराग्रही! बात, उनकी खबर, उनकी कहानी सुनी? उपनिषद के संन्यास का मैं अर्थ करता हूं : सम्यक न्यास। जिसने अपने ऋषि-मुनि गृहस्थ थे। पत्नी थी उनकी, बच्चे थे उनके, घर-द्वार | जीवन को संतुलित कर लिया है; जिसने अपने जीवन को ऐसी था उनका, बाग-उपवन थे उनके, गऊएं थीं उनकी, धन-धान्य बुनियाद दी है जो अपंग नहीं है, जो अधूरी नहीं है, जो परिपूर्ण था; त्यागी नहीं थे। बुद्ध और जैन अर्थों में त्यागी नहीं थे। है। भोग और त्याग दोनों जिसमें समाविष्ट हैं, वही मेरे लिए भोगकर ही भगवान को उन्होंने जाना था। शंकर ने संन्यासी है।। श्रमण-संस्कृति की बात का प्रभाव देखकर...क्योंकि जब और मजा ही क्या, छोड़कर भाग गये तब छटा तो मजा क्या! श्रमण साधु खड़े हुए तो स्वभावतः हिंदू ब्राह्मण, ऋषि-मुनि फीके यहां रहे और छोड़ा, बाजार में खड़े रहे और भीतर हिमालय प्रगट पड़ने लगे। क्योंकि ये तेजस्वी मालूम पड़े। सब छोड़ दिया! ये हुआ...! चमत्कारी मालूम पड़े, क्योंकि बड़े उलटे मालूम पड़े। स्वभावतः यह हमीं हैं कि तेरा दर्द छुपाकर दिल में रास्ते पर सब लोग चलते हैं, कोई जरा शीर्षासन लगाकर खड़ा काम दुनिया के बदस्तूर किए जाते हैं। हो जाये, तो भीड़ इकट्ठी हो जायेगी। वही आदमी पैर के बल छोड़ देना आसान है, पकड़ रखना भी आसान है; पकड़े हुए खड़ा रहे, कोई न आयेगा; सिर के बल खड़ा हो जाये, सब आ छोड़ देना अति कठिन है। बड़ी कुशलता चाहिए। कृष्ण ने जायेंगे। वे कहेंगे, क्या मामला हो गया! कोई फूल चढ़ाने | जिसको कहा हैः योगः कर्मसु कौशलम्। बड़ी कुशलता लगेगा, कोई हाथ जोड़ने लगेगा कि कोई चमत्कार कर रहा है, | चाहिए! योग की कुशलता चाहिए! जैसे कि कोई नट सधी हुई यह आदमी बड़ा त्यागी है! उलटा आकर्षित करता है। रस्सी पर चलता है, दो खाइयों के बीच खिंची हुई रस्सी पर तो जैन और बौद्ध संन्यासियों ने बड़ा आकर्षण पैदा किया। चलता है। तो देखा, कैसा सम्हालता है, संतुलित करता है; शंकर ने बड़े छिपे द्वार से उनकी ही बात को हिंदु-छाती पर सवार | कभी बायें झुकता कभी दायें झुकता; जब दिखता है, बायें झुकना , करवा दिया। अगर कोई गौर से देखे तो हिंदू संस्कृति को ज्यादा हो गया, अब गिरूंगा, तो दायें झुकता है, ताकि बायें की 'बचानेवाले शंकर नहीं हैं, नष्ट करनेवाले हैं। हालांकि लोग | तरफ जो असंतुलन हो गया था, वह संतुलित हो जाये। फिर सोचते हैं, शंकर ने बचा लिया-बचाया नहीं। यह बचाना क्या देखता है, अब दायें तरफ ज्यादा झुकने लगा, तो बायें तरफ 181 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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