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________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम यह चिंता जैन मुनि की चिंता नहीं है। जैन मुनि चिंता करता है, इसलिए मैं कहता हूं, अहिंसा का मौलिक अर्थ प्रेम है। वृक्ष का पत्ता नहीं तोड़ना है, क्योंकि उसे स्वर्ग जाना है। पशु को | तुम घबड़ाना मत! प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम तुम्हें नहीं मारना है, क्योंकि नर्क से बचना है। यह दुकानदार का तुम्हारे अहंकार का नर्क बतायेगा; तुम उसे छोड़ देना। और प्रेम हिसाब है। महावीर वृक्ष को चोट नहीं पहुंचाते, क्योंकि उन्हें तुम्हें तुम्हारे हृदय का स्वर्ग भी दिखायेगा; तो उसे पकड़ लेना। दिखाई पड़ा कि वृक्ष सिर्फ वृक्ष नहीं है, जीवंत आत्मा है। न आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी केवल इतना दिखाई पड़ा कि वृक्ष जीवंत आत्मा है, यह भी यासी हिरमान के दुख-दर्द के मानी सीखे दिखाई पड़ा कि ठीक मेरे जैसी ही आत्मा है-उसी राह पर जिस जेरदस्तों के मुशाइब को समझना सीखा पर मैं हूं, थोड़े पीछे सही; आज नहीं कल मनुष्य हो जायेगा। सर्द आहों के रुखे-जर्द के मानी सीखे। इसलिए महावीर ने सारे जीवन को पांच हिस्सों में बांट दिया। प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम के अतिरिक्त कोई और एकेंद्रिय जीव। पृथ्वी को उन्होंने कहा, एक-इंद्रिय जीव। पृथ्वी सिखा ही नहीं सकता। इसलिए अगर प्रेम में कुछ अड़चन भी! महावीर जमीन पर भी चलते हैं तो बहुत क्षमा मांगते हुए मालूम होती है तो उसे प्रेम की अड़चन मत कहना। तुमने अभी चलते हैं। वह भी जीवन है। एक ही उसकी इंद्रिय है-केवल प्रेम के पाठ पूरे नहीं सीखे, इसलिए अड़चन आ रही है। जैसे काया, केवल देह। | कोई आदमी नया-नया पानी में तैरना शुरू करता है तो हाथ-पैर जिसको वैज्ञानिक अब कहते हैं, अमीबा-महावीर को तड़फड़ाता है, घबड़ाता है, बेचैनी होती है। यह कोई तैरना तैरने उसकी पकड़ आ गई थी। वैज्ञानिक कहते हैं, अमीबा पहला का स्वरूप नहीं है; यह तो न तैरने की वजह से हो रहा है। प्राण-स्पंदन है। उसके पास केवल देह होती है, न हड्डी, न तुम अगर मुझसे पूछो तो मैं ऐसा कहूंगा, कि प्रेम में जो समस्या मस्तिष्क, न आंख, न कान, कुछ भी नहीं; कोई इंद्रिय नहीं, | है, वह अप्रेम की वजह से पैदा हो रही है। जब यह आदमी तैरना सिर्फ शरीर होता है। वह अपने शरीर को ही अपने भोजन के | सीख जायेगा तो तैरने में एक प्रसाद आ जाता, तब कोई चेष्टा पास ले आता है। अपने भोजन के ऊपर बैठ जाता है और शरीर नहीं करनी होती। तब ठीक-ठीक तैराक तो नदी पर छोड़ देता है और उसका भोजन मिलकर विलीन हो जाते हैं, एक-दूसरे में अपने को। हाथ-पैर भी नहीं चलाता। नदी ही सम्हाल लेती है। लीन हो जाते हैं। उसके पास कोई मुंह भी नहीं है। फिर उसका ऐसी कुशलता आ जाती है कि कुछ भी करना नहीं पड़ता; होना शरीर जब बड़ा होने लगता है-इतना बड़ा हो जाता है कि काफी रहता है और नदी सम्हाल लेती है। सम्हालना मुश्किल हो जाता है, तो शरीर दो हिस्सों में टूट जाता प्रेम भी चैतन्य के सागर में तैरना है; दूसरे के सागर में डुबकी है और दो अमीबा हो जाते हैं। इसी तरह उसकी संतति होती है। लगानी है। पहले-पहले हाथ-पैर तड़फड़ायेंगे; घबड़ाहट लेकिन वह जीवन का पहला रूप है। होगी; सांस रुंधेगी; लगेगा मरे, डूबे; चिल्लाहट होगी कि महावीर ने कहा, एक-इंद्रिय, सिर्फ शरीर जीवन का पहला | बचाओ! लेकिन जल्दी ही, इस बचाव की आवाज के कारण रूप है। मनुष्य है पंचेंद्रिय। उसके पास पांच इंद्रियां हैं। वह निकलकर भाग मत खड़े होना। यह तो तुम्हारी अकुशलता के सबसे विकसित रूप है। लेकिन वृक्ष, पशु-पौधे, सब उसी कारण है। यह तो धीरे-धीरे चली जायेगी। रफ्ता-रफ्ता, कतार में हैं; चले आ रहे हैं बढ़ते। हम भी कभी वृक्ष थे और आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास गहरा होता जायेगा। वृक्ष कभी हम जैसे हो जायेंगे। तो प्रेम मत छोड़ो; प्रेम में जागरण को सम्मिलित करो। प्रेम तो महावीर ने जीवन का एक सागर खोज लिया, जिसमें सभी मत छोड़ो; प्रेम के साथ धर्म को, ध्यान को जोड़ो। प्रेम + ध्यान, जीवन की घटनाएं हैं। यह महा प्रेम में घटा है। यह कोई तार्किक बस इतना करो और समस्या विदा हो जायेगी। और समस्या की विश्लेषण नहीं है। यह महावीर को अनुभव हुआ है। यह जगह तुम पाओगेः प्रेम एक अदभुत रहस्य है-और पहला तेजस्विता जीवन की उनको प्रतीत हुई। यह बहत प्रेम में ही हो रहस्य जहां से परमात्मा की खबर मिलती है। शुरू-शुरू में सकती है। घबड़ाहट स्वाभाविक है। 1479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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