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________________ जिन सूत्र भागः1 HARIWARRIA नहीं। पहुंचाना अपने ही स्वभाव को नुकसान पहुंचाना है। देखो-देखो इन आंसुओं पे 'जमील' "जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है। और जिसे तू तुहमते-इल्तिजा न आ जाए! आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तु ही है। इसलिए न तो जमील ने कहा है कि ये जो आंसू बह रहे हैं आनंद के, कोई किसी को आज्ञा में रख, न किसी को हनन योग्य मान।' भूल से इन्हें प्रार्थना न समझ ले! कहीं इन पर प्रार्थना का आरोप यहां सभी मालिक हैं; गुलाम होने को कोई भी नहीं है। न आ जाए! थोड़ा सोचना। तुम तो जिनसे प्रेम करते हो, उन्हें भी गुलाम महावीर ने कभी हाथ भी नहीं जोड़े, झुके भी नहीं-कहीं | बना लेते हो। पति पत्नी का मालिक हो जाता है। वह पत्नी से प्रार्थना का आरोप न आ जाए! कहीं कोई यह न कह दे कि यह कहता है, मान कि मैं परमात्मा हूं। पति परमेश्वर हो जाता है। आदमी प्रार्थना कर रहा है! पत्नी यद्यपि लिखती है, 'तुम्हारी दासी' चिट्ठी-पत्री में, बाकी क्योंकि प्रार्थना का अर्थ हुआ : मैंने किया है गलत, कोई और वह असलियत नहीं है। दिल में वह भी सोचती है कि तुम्हारी उसे ठीक कर दे। लेकिन यह तो गणित के बाहर होगा, जीवन के | मालकिन। इसीलिए तो घर स्त्री का समझा जाता है, वह गणित के विपरीत होगा। मैंने किया गलत, मुझे ही ठीक करना घरवाली समझी जाती है। कोई पति को थोड़े ही घरवाला कहता होगा। जो घट रहा है मेरे पास, वह मेरे ही कर्मों का फल है। मुझे है, पत्नी को! मालकियत उसकी है। और मुश्किल है ऐसा पति कर्म रूपांतरित करने होंगे। कठिन होगा मार्ग, लेकिन कोई | खोजना जो उसकी मालकियत मानकर न चलता हो। तो उपाय नहीं। कठिन होगा मार्ग, पर बस एक ही मार्ग है। कठिन ऊपर-ऊपर पति बाजार में दिखलाता रहता है कि मैं मालिक हूं, ही मार्ग है। | भीतर-भीतर पत्नी रोज उसे जतलाती रहती है सुबह से सांझ 'जिसे तू हनन योग्य मानता है वह तू ही है।' जिसे तू मारने तक, अनेक मौकों पर कि मालिक कौन है, ठीक समझ लेना! चला है, जिसे तूने मारने की योजना बनाई है, वह तू ही है। मुल्ला नसरुद्दीन के घर उसके मित्र इकट्ठे थे एक दिन। कुछ 'जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तू ही है।' जिसे झंझट हो गई। पत्नी झपटी, जैसी उसकी आदत। तो वह तूने गुलाम बना लिया है वह भी तू है। जिसे तू मारने चला है वह भागकर बिस्तर के नीचे छिप गया। पत्नी झुक आयी और उसने भी तू है। यह एक ही आत्मा का विस्तार है। ठीक तेरे जैसा ही कहा, 'निकल बाहर...! निकलो बाहर।' तो मुल्ला और चैतन्य दूसरे में भी है। भीतर सरकता गया बिस्तर के। उसने कहा, 'निकलते हो कि हजार मिट्टी के दीये हों, ज्योति एक है। ज्योति का स्वभाव एक नहीं...!' उसने कहा कि 'आज तय ही हो जाये कि मालिक है। मिट्टी के दीयों में बड़ा फर्क हो सकता है—एक आकार, | कौन है! नहीं निकलते!' दूसरा आकार, हजार आकार हो सकते हैं; एक रंग, दूसरा रंग, यह कोई तय करने का ढंग हआ। लेकिन जिन्हें हम प्रेम करते हजार रंग हो सकते हैं। छोटे दीये, बड़े दीये, लेकिन सबके हैं उनको भी हम गुलामी में बांधते हैं। इसलिए तो प्रेम से भी भीतर जो ज्योति जलती है वह एक है। लोग ऊब जाते हैं; प्रेम से भी छुटकारा चाहते हैं। बड़ी अजीब जो मेरे भीतर है, उससे अन्यथा तुम्हारे भीतर नहीं है। मुझ में बात है! यहां इस जगत में प्रेम भी दुख देता मालूम पड़ता है। और तुम में जो फर्क और फासले हैं, वे मिट्टी के दीये के हैं। मेरी क्योंकि प्रेम हम कहते हैं, है कुछ और। नाम हम अच्छे चुनते हैं, देह अलग, तुम्हारी देह अलग; रंग-ढंग अलग, संदर चुनते हैं लेकिन नाम ही संदर और अच्छे हैं. भीतर कछ शैली-व्यवस्था अलग-पर सब ऊपर-ऊपर की बात है! और है। जैसे-जैसे भीतर उतरोगे, वैसे-वैसे ही भेद समाप्त होते जाते हैं। तुम जरा गौर करना कि जब तुम किसी को कहते हो कि मुझे जब ठीक अंतर्तम में पहुंचोगे तो पाओगेः जो दीया यहां जल रहा तुझसे प्रेम है, तो तुम जरा गौर करना, तुम्हारी असली आकांक्षा है, जो ज्योति यहां जल रही है, वही ज्योति वहां भी जल रही है। क्या है? असली आकांक्षा कुछ और होगी। प्रेम के नाम के नीचे ज्योति का स्वभाव एक है। इसलिए इस ज्योति को नुकसान कुछ और छिपा होगा-हिंसा छिपी होगी, स्वामित्व का भाव 12801 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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