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________________ 496 जिन सूत्र भाग: 1 आनंद है, सामायिक परम शांति है। भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा धन को साधन बनाया था – सोचा था, धन से सुख मिलेगा; ही नहीं। धोखा किसको दिया ? अपने को दे लिया। कभी इसने पद को साधन बनाया था - सोचा था पद-प्रतिष्ठा से उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है : कृपणा फलहेतवः | जो सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा | व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, था, हजारों की गर्दनें काट दी थीं - सोचा था इससे सुख वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पा का सत्य ही न जाना । होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम - साधन; योग, ध्यान, सामायिक - साधन । लेकिन मूल गणित वही है । जो भी कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं : फलाकांक्षा! वह देख रहा है आगे : यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह मिलेगा – इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर कैसे मिलेगा ? 1 महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो - एक बात भीतर खोजते रहनाः ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त की तरह ? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो । अभी तुम्हारे भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, भव्य बना दे । चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर लिया - छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा । तो जैसा छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष की रस्सी बांध लेगी। महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ पाने की आकांक्षा से—भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही हो — धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में 'यद्यपि ' जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है । उसमें रुचि भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है- फिर भी वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं । धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग |पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी - कमंडल छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा ! पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए धर्म साध्य है, साधन नहीं। 'भव्य' शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है । तो भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का जल्दी क्या है ? तो जाना कहां है? वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए 'इसलिए' जैसी कोई बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक Jain Education International है । भव्य का अर्थ है : जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ । भव्य का अर्थ है : जो कृपण न रहा । कृपणा फलहेतवः ! अब जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी ! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से नहीं जीता – अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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