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________________ | प्रेम है आत्यंतिक मुक्ति हूं।...छिया-छी! साधक कई बार चूक जाता है पहंच-पहंचकर; क्योंकि साधक भक्त कभी-कभी बड़े स्वाभिमान से भी बात करता है। भक्त | का पहुंचना मन की एक खास दशा पर निर्भर करता है। वह दशा ही कर सकता है स्वाभिमान से बात, क्योंकि जिसका कोई बड़ी संकीर्ण है और बड़ी कठिन है। उसे क्षणभर भी बांधकर अहंकार नहीं वही स्वाभिमान से बात कर सकता है। रखना बहुत मुश्किल है। महावीर ने कहा है, अड़तालीस सैकिंड महाराष्ट्र में प्यारी कथा है विठोबा के मंदिर की, कि एक भक्त । तुम ध्यान में रह जाओ तो सत्य की उपलब्धि हो जायेगी। अपनी मां की सेवा कर रहा है और कृष्ण उसे दर्शन देने आए हैं। अड़तालीस सैकिंड! अड़तालीस सैकिंड भी मन को ध्यान की उन्होंने द्वार पर दस्तक दी है। तो उसने कहा, अभी गड़बड़ न अवस्था में रखना कठिन है।। करो, अभी मैं मां के पैर दाबता हूं। लेकिन कृष्ण ने कहा, सुनो लेकिन भक्त तो चौबीस घंटे भी भगवान के भाव में रह सकता भी मैं कौन हूं। जिसके लिए तुमने सदा प्रार्थना की और सदा है। वह भूलता भी है तो भी उसी को भूलता है; याद भी करता है पुकारा, वही कृष्ण हूँ। इतनी मुश्किल और इतनी प्रार्थनाओं के तो भी उसी की याद करता है लेकिन उससे कभी नहीं छूटता। बाद आया हूं।' तो उसके पास एक ईंट पड़ी थी, उसने ईंट उसका भूलना भी उसी का भूलना है ! अगर पीठ भी करता है तो सरका दी, लेकिन उस तरफ देखा नहीं, और कहा, 'इस पर | उसी की तरफ करता है और मुंह भी करता है तो उसी की तरफ बैठो, विश्राम करो, जब तक मैं मां के पैर दाब लूं।' वह रातभर करता है। भक्त की बड़ी अनूठी स्थिति है! पैर दाबता रहा और कृष्ण उस ईंट पर खड़े-खड़े थक गये और तो तुम पर निर्भर है, पूछनेवाले पर निर्भर है। अगर बामुश्किल मर्ति हो गये होंगे। तो विठोबा की मर्ति है वह ईंट पर खड़ी है। खोज पाए हो तो जब पहुंच जाओ पास तो देर मत कर देना, मगर गजब का भक्त रहा होगा-गजब का भरोसा रहा होगा! एकदम पी लेना ! कौन जाने, कहीं पास आया हुआ स्रोत फिर न खद्दारियां यह मेरे तजस्सस की देखना! खो जाये। हां, अगर भक्त हो तो थोड़ा मजा और खेल का ले -यह स्वाभिमान मेरी खोज का! सकते हो। और पहुंचकर खेल का जो मजा है वह और ही है! मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूँ मैं। पहले तो हम तड़फते हैं, डरे हुए रहते हैं, परेशान रहते हैं, बेचैन कृष्ण को भी खड़ा रखा। कृष्ण को भी ईंट पर खड़ा कर दिया। रहते हैं! भक्त का भरोसा इतना है, भक्त की श्रद्धा इतनी है कि जल्दी क्या इसलिए तुमने अकसर देखा, मंजिल पर जब लोग पहुंच जाते है! बेचैनी क्या है! भक्त को भगवान मिला ही हआ है। हैं तो सामने ही बैठ जाते हैं विश्राम के लिए। वैसे चलते रहे. बड़े भगवान लौट जायेगा, यह तो सवाल ही नहीं उठता। लौट भी मीलों चलकर आए होंगे, लेकिन ठीक जब द्वार पर आ जाते हैं जायेगा तो जायेगा कहां! | तो सोचते हैं ठीक, सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं विश्राम करने के इसलिए अगर भक्त की दशा हो और खेल थोड़ी देर और लिए। अब कुछ देर नहीं, लेकिन अब पहुंच ही गए तो अब चलाना हो, तो जलस्रोत सामने फूट पड़े, तुम्हें छाती तक डुबा जल्दी भी क्या है! ले, तो भी खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं। आएगा! वह भी आ रहा है. तम्हें खोज रहा है। वह ओंठों तक भी आयेगा। लेकिन अगर तीसरा प्रश्न: आपके प्रति इतना प्रेम रहते हए भी आपको बहुत चेष्टा से आए हो तो इतना धैर्य मत करना। क्योंकि जो सुनते वक्त कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने चेष्टा से मिलता है वह क्षण में खो भी सकता है। मन की किसी लगता है? भाव-दशा में जलस्रोत दिखाई पड़ता है; भाव-दशा बदल जाये, खो जायेगा। अगर मन की तरंगों पर कब्जा पाकर, प्रेम है-इसीलिए। ध्यानस्थ होकर, उसके जलस्रोत की झलक मिली हो तो जल्दी | तुम्हारा प्रेम क्रोध से मुक्त तो अभी नहीं हो सकता। तुम्हारे प्रेम पी लेना, क्योंकि तरंगों का क्या पता, विचार फिर आ जायें, फिर में तो क्रोध अभी होगा ही। तुम्हारी दोस्ती में तुम्हारी दुश्मनी भी चूक जाओ! अभी होगी। क्योंकि तुम बंटे-बंटे हो। अभी तुम एकरस नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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