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अप्रेल, १९७०
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যুকান
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श्री ऋषभदेव को प्राचीन मूति, राजगिर ********xxxxxxxxxxx
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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हैमासिक
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२० ।
विषय-सूची
अनेकान्त के ग्राहकों से विषय
पृष्ठ ।
अनेकान्त के उन सदस्यो या ग्राहकों से मानुरोष १ श्रीवर्द्धमान जिन स्तुति-प्राचार्य समन्तभद्र
| निवेदन है कि जिन ग्राहकों ने अपने पिछले वर्ष का २ 'जबू सामिचरिउ' में वणित गुर्जरता प्रदेश
वार्षिक शुल्क ६) रुपया अब तक नहीं भेजा, कृपया उसे की स्थिति-रामवल्लभ सोमाणी ३ भारत में वर्णनात्मक कथा साहित्य
भिजवाएँ । ६) रुपया पिछले वर्ष का और ६) रुपया डा० ए०एन० उपाध्ये ए. एम. डी. लिट ३
| २३वे चालू वर्ष का कुल मिलाकर १२) १० भिजवाने
की कृपा करे। ४ इतिहास के परिप्रेक्ष्य मे पवा जी (पावागिरि)
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' डा० भागचन्द जैन 'भागेन्दु'एम.ए.पी.एच.डी. 1.
वीर सेवामन्दिर २१, दरियागंज ५ भीमपुर का जैन अभिलेख
दिल्ली। कस्तूरचन्द जैन 'सुमन' ६ चित्तौड़ का जन कीर्तिस्तम्भ
नेमचन्द धन्नूसा जैन ७ ढूंढाडी भाषा की जैन रचनाए
__अनेकान्त के प्रेमियों से ___डा० गगाराम गर्ग
२२ | अनेकान्त की सचालक समिति न पत्र में कुछ ऐसी ८ ब्रह्म साधारण की पहली कृति कोइल पंचमीका सामग्री देने की योजना की है, जिससे पत्र चिपूर्ण हो, --डा० भागचन्द्र जैन भास्कर
और सभी तरह के पाठकों को उसमे यथेष्ट लाभ मिन है वैदेही सीता (कहानी)--श्री मुबोधकुमार जैन २५ | सके । इसके लिए अनेकान्त मे प्राधा मैटर तो पुगतत्त्व, १० सत्य के प्रादर्श की ओर (कहानी)
| साहित्य, इतिहास आदि का रहेगा, और शेप २४ पेज परमानन्द जैन शास्त्री
| के मैटर में कहानियाँ, कविता, और हिन्दी भाषा में लिखे ११ कवि रूपचन्द का एक गीत
| गये धार्मिक दार्शनिक लेख रहेंगे। इससे सभी पाठको १२ धर्म की कहानी : अपनी जबानी
को दिलचस्प सामग्री मिलेगी। ग्राशा है अनकान्त के डा० भागचन्द्र जैन 'भाकर' ३६ | प्रेमी सज्जन उसको ग्राहक संख्या में वृद्धि करने का प्रयत्न १३ तमिल व कन्नड़ साहित्य के निर्माण मे नाचायों करेगे । स्वयं ग्राहक बने और अपने मिलने वाले मित्रो का विशेष योगदान -डा. प्रार. वी. के. राव
और रिश्तेदारो को ग्राहक बनने के लिये प्रेरित करे । १४ साहित्य के प्रति उपेक्षा क्यो ?
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' परमानन्द शास्त्री
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज १५ 'प्रमाण प्रमेय कलिका' के रचयिता नरेन्द्रसेन
दिल्ली। कौन?-रायप्पा धरणप्पा टीकण्णवर १६ प्रात्म-विश्वास-पूज्य वर्णी जी
सम्पादक-मण्डल १७ सर्वोषधि दान (कहानी)-परमानन्द शास्त्री
डा० प्रा० ने उपाध्ये १८ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री
डा० प्रेमसागर जेन
श्री यशपाल जैन
परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक अनेकन्त का वाषिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक भनेकान्त । एक किरण को मूल्य १ रुपया २५ पसा
४०.
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प्रोन् महन्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
।
वर्ष २३ किरण १
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२७
{ अप्रेल
१६७०
श्रीवर्धमान-जिन-स्तुति
धीमत्सुवन्धमान्याय कामोद्वामितवित्तषे । श्रीमते वर्षमानाय नमो नमितविद्विषे ॥१०२
-प्राचार्य समन्तभद्रः
मर्च-हे वर्षमान स्वामिन् ! पाप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञान के धारी गणघरादिकों-के द्वारा वन्दनीय मोर पूज्य हैं। भाप ने ज्ञान की तृष्णा को बिल्कुल नष्ट कर दिया है-पापको सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो गया है जिससे प्रापकी ज्ञान-विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी है। पाप अन्तरंग-बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त हैं भोर भाप के शत्रु भी प्रापको नमस्कार करते है-आपकी अलौकिक शान्ति तथा लोकोतर प्रभाव को देखकर मापके विरोधी वैरी भी मापको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो ! पापको मेरा नमस्कार हो ॥१०२॥
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"जंबू सामि चरिउ" में वर्णित गजरत्ता प्रदेश की स्थिति
श्री रामवल्लभ सोमारपी
"जब सामि चरिउ" वि० सं० १०७० में वीर कवि प्रदेश से सम्बन्धित बतलाया है। द्वारा विरचित किया गया था। इसका हाल ही में भारतीय (२) अल बरुनी ने नरेणा को गुजरात की राजधानी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशन हुआ है। इसमे गुजरत्ता प्रदेश लिखा है। उसने इस नरेणा के दक्षिण में मेवाड़ और के सम्बन्ध में बडी महत्वपूर्ण सूचना दी है कि इसकी चित्तौड आदि माने हैं। स्थिति सपादलक्ष' के पास थी। वस्तुतः 'गुर्जरता' शब्द (३) मगलाना और डीडवाणा के लेखो मे स्पष्टतः का उपयोग घटियाले के वि० सं० ६१८ के लेख मे भी गुर्जर प्रदेश नाम दिया गया है। प्राता है जहां प्रतिहार राजा कक्कुक का वर्णन करते (४) "जब सामि चरिउ" मे भीनमाल को गुर्जर' समय लिखा गया है कि उक्त राजा के सच्चरित्र के कारण प्रदेश से भिन्न लिखा है जिसकी पुष्टि समसामयिक शिला'मरु माड़ वल्ल तमणी और गुजरात प्रदेश के लोगों का लेखो आदि से भी होती है जो भीनमाल क्षेत्र से प्राप्त हुए अनुराग मिला था। अतएव प्रश्न यह था कि इस लेख है। इनमे इस प्रदेश को "मरु मडल' लिखा गया है। . मे वणित “गुर्जरता" वस्तुत: वर्तमान गुजरात प्रदेश है (५) कुवलयमाला मे मरु प्रदेश को भिन्न लिखा है। अथवा अन्य । कठिनाई यह थी कि कुवलयमाला आदि में अतएव सपादलक्ष के पास वाले गुजरात और भीनमाल जालोर भीनमाल प्रदेश को गुर्जर मंडल प्रादि लिखा गया वाले गुजरात के मध्य मे मरु प्रदेश और स्थित था। है। इसके साथ ही साथ जोधपुर के उत्तर में स्थित मग- अतएव इस सारी सामग्री के आधार पर यह कहा लाना गांव के एक हवी शताब्दी के लेख मे उसको गुर्जर जा सकता है कि १०वी और ११वी शताब्दी तक मपादप्रदेश के अन्तर्गत लिखा है। इसी प्रकार प्रतिहार राजा लक्ष के पास गुर्जरत्ता नाम का एक भू भाग था और इसी भोज के ६०० वि० के ताम्रपात्र में "डीडवाडा" गाँव का संकेत कक्कूक के लेख में भी किया गया है। अतएव को गुर्जर प्रदेश के अन्तर्गत बतलाया गया है। अतएव जम्बू सामि चरिउ की सूचना महत्वपूर्ण है। क्या समस्त पश्चिमी राजस्थान के भू भाग को गुजरत्ता
३. नगरेसु सयं वुच्छो भुत्तु वा जाव गुज्जरत्ताए।
... की संज्ञा दी जाती थी अथवा यह एक व्यापक नाम था
____नागउराइसु जिणमंदिराणि जायाणि णेगाणि ॥१४॥ अथवा राजस्थान में गुजरत्ता नाम का एक अन्य प्रदेश ४. हिस्टी ग्राफ इडिया-(इलियट एण्ड जोनसन) और था। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी मिल Vol. I. ५८-६०) नहीं रही थी। अब इस ग्रथ की सूचना के अनुसार "गुर्ज- ५. "गुजरत्रा भूमौ डेण्डवानक विषयसम्बद्धसिवा प्रामारत्ता" प्रदेश सपादलक्ष के पास स्थित रहा होगा। इसकी ग्रहार....।" एपिग्राफिमा इडिका Vol. Vपृ. २७७ पुष्टि के लिए निम्नाकित सामग्री और है :
श्रीमद् गुर्जरत्रा मण्डलान्तः पाति मंगलानक विनिर्गति.... (१) धर्मोपदेशमाला में नागोर प्रदेश को गुजरात
(उपरोक्त)
६. "पच्छिमेणं थली मंडलं बालभं सोम सोरट्ट-कच्छ मह १. उत्तरेण य सायंभरी गुज्जरताए रवस बब्बर भिल्ल मालं विसाल च सोवण्ण दोणी सम । अन्बुयं
लाडदेसं च मेवाड़-चित्तउड़ मालव य तलहारिय। पारि२. 'मरुमाण वल्ल तमणी परि अंका प्रज्ज गुज्जरित्ता सु'
यत्तं भवंती तदा तावलित्ती भडं दुग्गमं । उत्तरेण य सायं [जरनल रायल एशियाटिक सोसाइटी १८९५
भरी गुज्जरत्ताए खस बब्बरं टक्क-करहाड-कसमीर पृ.५१३-५२१] हम्मीर कीरं तुरक्कं तहा ताइयं ।' जंबू. च. ६. १६,७-१८
टक्क..."
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
० ए एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट्
[गत किरण ६ से आगे] ४. जैन साहित्य :
हैं। अन्य तीर्थकरों की जीवनियाँ जो कल्पसूत्र में दो (भ) प्रागम-स्तर का
है, वास्तव में जीवनियां वे है ही नहीं। वे तो पाठकों को
एक नामावली मात्र प्रस्तुत कर देती है जिनसे उसकी अब हम जैन साहित्य का सर्वेक्षण करें। जैनों
वांचना देने वाला वाचना देते समय विस्तृत वर्णन दे सके। के अर्धगधी प्रागम ग्रन्थों को यद्यपि वर्तमान रूप
दूसरे शास्त्र या ग्रथों से हमे नेमिनाथ, पार्श्वनाथ मादि की बहुत बाद में ही प्राप्त हुआ है फिर भी, उनमे ऐसा
जीवन झाकियां भी मिल जाती हैं । प्राचीन अश निःसन्देह ही है कि जिसको जैनों के
आदि मे जो सामान्य उमाए या रूपक होगे, वे ही अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर के युग के सन्निकट
कालान्तर मे वर्णात्मक कथायो का रूप पा गये है ताकि का समय ही दिया जा सकता है। इन आगमों में वर्ण
उपमा या रूपक की सभी दृष्टियाँ उसमे प्रस्फुटित हो जाएं नात्मक अंश भी पर्याप्त है जो कि प्रौपदेशिक और उन्ना
और पुण्यात्मानों के लिए उनमे से शिक्षासार भी निकाला यक दृष्टि का कहा जा सकता है। इस प्रश मे धर्मवीरों
जा सके। नायाधम्मकहानों में हमे कतिपय अच्छे उदाजैसे कि तीर्थंकरों और उनके त्यागी अनुयायियो की
हरण मिलते है । कच्छप अपने हाथ-पैरो मे पूर्ण सुरक्षित जिनमें शलाका पूरुष भी है की जीवनियां है। इनमें अर्थ
होता है ऐसा माना जाता है । तूंबा मिट्टी से सना हुआ हो प्रकाशक उपमाये है. दृष्टान्त और सवाद है। प्रौपदेशिक
तभी डूबता है और नन्दीवृक्ष के फल हानिकर होते हैं। भोर अनुकरणीय कथाएँ है और उन नर एवम् नारियों
इन भावों का कोई न कोई उपदेश देने में उपयोग किया की प्रादर्श कथाएं है कि जो भिक्ष और भिक्षुणी हो गए थे
गया है। इनके दृष्टान्त से समझाया जाता है कि प्रसावपौर जिनने परभव में अच्छा जीवन पाया था।
धान भिक्षु कैसे नष्ट हो जाता है ? कर्मों के बोझ से भारी दो याने प्राचारांग और कल्पसूत्र में भिक्षु जीवन में हुए जीव कैसे नरक मे जाते हैं ? और जो जीवन के सहे परिपहों के विशद वर्णन सहित महावीर की जीवनी सुखोपभोगो मे प्रासक्त रहते है अन्त में वे दुख क्यों उठाते दी हुई है। भगवती सूत्र के भिन्न-भिन्न सवादों में महावीर
है ? बिल्कुल इसी प्रकार रूपकाख्यानों को या तो वर्णात्मक के व्यक्तित्व की, विशेषकर विवादों में, उनकी चतुराई
कथा के रूप में या सजीव सवाद-विवाद के रूप मे पल्लवित पौर अपने गिष्यो की शंकायों व प्रश्नों के उत्तर में की
किया जाता है और उसका प्रत्येक विवरण कुछ न कुछ व्याख्यानों मे उनके व्यक्तित्व की कुछ झांकियां मिलती
प्रोपदेशिक या शिक्षादायी होता है सूयगडांग में दिया १०. इन ग्रन्थो के सस्करण आदि विवरण के लिए पाठक कमलसर का रूपक बड़ा जटिल है। कमलों से भरे एक
को विन्टरनिट्ज की (ए हिस्ट्री प्राफ इडियन लिटरेचर) सरोवर के केन्द्र में एक बहुत बड़ा कमल खड़ा हुपा है। भाग २ (कलकत्ता संस्करण १६३३) और शुविग चारो दिशाओं से चार व्यक्ति उस सरोवर पर पाते है की डी. ए. लेहे डे जैनास (बलिन और लेपजिग एवम उस केन्द्रस्थ बड़े कमल को तोड़ लेने का प्रयल १९३५) देखने की साधना है। स्थानाभाव के कारण करते है। परन्तु कोई भी उसे तोड़ लेने में समर्थ नहीं यहाँ केवल मत्यन्त प्रावश्यक ग्रन्थ निर्देश ही दिये होता है। फिर एक भिक्ष तट पर खड़ा-खड़ा ही कुछ शब्द गये है।
उच्चारण करता है और उसे तोड लेने में सफल हो जाता
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४ वर्ष २३ कि० १
है। यहां सरोवर यह संसार ही है। कमल जो उसमें हैं, वे मानवप्रजा हैं और केन्द्रस्थ बड़ा कमल उस प्रजा का राजा है जो चार पुरुष उसे तोड़ने को धाते हैं, वे मिथ्यात्वी है और जो कमल को तोड लेता है वह एक जैन साधू है जो सच्चा धर्म सुना कर राजा को मुग्ध कर लेता है और इस प्रकार उसका धर्म विजयी होता है । इस रूपक के निहिताशय के अतिरिक्त भी एक बात मुझे बिलकुल स्पष्ट यह प्रतीत होती है कि राजा की छत्रछाया ही धर्म प्रचार पाते हैं और इसलिए राज्याश्रय प्राप्त करने में पूरी-पूरी प्रतिद्वन्द्वता या होडा होड़ होती थी। नायाधम्मकहाओ मे चार बहुत्रों का एक रूपक है। यह एक सामान्य लोक कथा ही है जिसका उपयोग धार्मिक लक्ष्य के लिए बड़ी चतुराई से किया गया है। एक चतुर वसुर अपनी चार पुत्रवधुओं को शाति के पायांच दाने दे कर कहता है कि ये दाने मागने पर उन्हें उसे लौटाने होंगे। सबसे बड़ी पुत्रवधू अभिमानी पर पितारहित है, अतः वह उन दानो को यह सोचते हुए तुरन्त फेंक देती है कि घर के भण्डारों में शालि ही शालि भरे हैं । दूसरी भी कुछ ऐसा ही सोचती है, परन्तु फेंक देने के एवज वह उन दानों को खा जाती है । तीसरी बड़ी सावधानी से उन्हें अपने ग्राभूषणों के बच्चे में सुर क्षित रख देती है और चौथी उन्हें वो देती है और फिर उनसे अच्छी फसल काटती है जिसके परिणामस्वरूप पाँच वर्ष के अन्त में उसके पास घान की एक बड़ी राशि इकट्ठी हो जाती है । श्वसुर अंत में दोनों बड़ी बहनों को दण्ड देता है, तीसरी को समस्त सम्पत्ति की सुरक्षा का भार सौंप देता है और चौथी को गृहस्थी का सारा ही प्रबन्ध | चारों बधुएं चार भिक्षु हैं और शालि के पांच दाने उनके पांच महाव्रत है कुछ भिक्षु इनकी उपेक्षा करते हैं तो कुछ उनका सावधानी से पालन करते है । परन्तु कुछ ऐसे भी महान भिक्षु हैं जो केवल स्वयं ही उन पांच महाव्रतों का पालन नहीं करते, अपितु उनका उपदेश भी दूसरों की भलाई के लिए करते हैं। माकंदी राजकुमारों का कथानक नाविकों की ही एक कहानी है। जिसे रूपक का रूप देकर धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखने की आवश्यकता के उपदेश का लाभ उठाया गया है। उत्तरा
+
अनेकान्त
ध्ययन में भी इस प्रकार के कुछ रूपक हैं। भेष का रूपक
(प्रध्याय ७) उस व्यक्ति की दशा का चित्रण करता है।
कि जो सांसारिक सुखों में ही रचापचा रहता है और यह शिक्षा देता है कि मनुष्य जीवन ऐसा धन है कि जिससे मोक्ष प्राप्त करना चाहिए यदि पूंजी नष्ट कर दी जाती है तो जीव या तो नरक में जाता है या तियंच होता है । वृक्ष का पत्र ( अध्याय १०) मानवी भोग-सुखों की प्रसारता बताता है। इसमे हृदयग्राही उपमाएं दी गई है और प्रमाद नही करने को मुमुक्षु को बारम्बार सावपान किया गया है। अडियल बैल का दृष्टान्त यद्यपि एकदम सीमा और सादा है, परन्तु गुरु के अविनयी और झगड़ालू शिष्य की बड़ी हृदयस्पर्शी टीका उसमें है ।
सिद्ध-पुरुषों की जीवन-कथाएं भी अनेक हमारे सामने श्राती है कि जिनमे गुणों और अवगुणों के अच्छे और बुरे परिणामों के दृष्टात प्रस्तुत हुए है। कथा के पात्र न केवल अच्छे लोक में ही फिर जन्म लेते है श्रपितु महावीर पार्श्व और नेमि उपदिष्ट धर्म का आचरण करते हुए वे मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं । अथवा उसके विरुद्ध प्राच रण कर नीच योनि मे ही नहीं अपितु नरक में भी जन्म पाते है। कितने ही मिथ्यात्वियों के तीर्थंकर के धर्म मे श्री जाने को भी कहा गया है। इन कथानों मे से कुछ तो बिलकुल मूल से ही जैन है और अन्य भारतीय कथासाहित्य के साधारण पुंज में से जैनाचार का प्रचार करने के लिए चुन कर उपयोगी बना ली गई है और इनका हिन्दू एवम् बौद्ध दोनों ही साहित्य मे प्रतिरूप प्राप्त है। इनमें धनेक जीवनियाँ, कृष्ण, ब्रह्मदत, श्रेणिक यादि विश्वात व्यक्तियों से सम्बन्धित कथाओं के चकमाल से जुड़ी हैं। जैन धर्म के अनुसार घर्मिष्ठ गृहस्थ और गृहस्थिणी के गुण सर्व त्यागमय वैरागी जीवन के अवश्य ही प्रेरक हैं। और यदि कोई गृहस्थ धार्मिक जीवन के पदों का निष्ठा से निरतर पालन करता रहे तो वह बिना प्रयास ही भिक्षु जीवन की स्थिति को अनायास स्वतः प्राप्त कर लेता है । स्वभावतः ही अधिकांश जीवनियाँ दृष्टिकोण में वैराग्यप्रधान है। श्रमण धर्म और उसमें भी विशेष रूप से जन धर्म ने बैराग्य पर बहुत बल दिया है और इसी का यह परिणाम है कि जैन साहित्य में वैरागी-वीरों की कुछ
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
जीवनियां ऐसी दी गई हैं कि जिनको देवों, मनुष्यों और नायाधम्मकहानो मे राजकुमार मेघ को, जब कि वह बहुत नीच प्रात्मानों के हाथों अत्यन्त कठोर परिषह सहने पड़े ही अस्थि रमना हो रहा था, महावीर ने वैरागी जीनव के और घोर तपश्चरण करते हुए जिनने मृत्यु के अन्तिम प्रति उसकी श्रद्धा उसके पूर्वभव की ही कथा सुना कर क्षणों में अपनी आध्यात्मिक-समाधि को स्थिर रखा एव दृढ़ की थी। महावीर ने कहा था कि कैसे उसने हाथी के पुनर्भव में वर्तमान से उच्च स्थिति का जीवन प्राप्त किया पूर्वभव में एक शशक को अपना पैर उठाए रखकर शांति या बिताया। बहुत ही संभव है कि अनेक कथाएं मूलतः के साथ रक्षा की थी। धन्न सार्थवाह को उसके वास्तविक ही हों; क्योकि वे ऐतिहासिक वैरागियों का ही पुत्र के घातक के साथ ही कारागृह में बेड़ी से बांध दिया उल्लेख करती है परन्तु समय पा कर जिनका विवरण गया था और अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के विचार जटिलता को प्राप्त हो गया होगा। कभी-कभी तो उनके से ही उस घातकी को अपने भोजन का प्राधा प्रश उसे नाम मात्र का ही कथा मे निर्देश है और टीकाकारों ने देना पड़ता था। इसी प्रकार भिक्ष को भोजन आदि उनके जीवन का प्रावश्यक विवरण बाद में अपनी ओर से केवल जीवन निर्वाह के, न कि जिह्वा स्वाद के लिए और बढ़ाया या जोड़ दिया है।
गरीर पोषण या दृढ करने के लिए लेना चाहिए ताकि शिशपाल, द्वैपायन, पाराशर प्रादि के आकस्मिक संयम का पालन भली प्रकार किया जा मके । राजा उल्लेख के अतिरिक्त, सूयगडाग में आद्रक की कथा भी सेलग की जिसे भगवान अरिष्टनेमि के धर्म का बोध प्राप्त है। परन्तु उसके सम्बन्ध में नियुक्ति और टीकाग्रो मे हा था, मद्यपी होने के कारण धर्माचार की उपेक्षा करने बहुत कुछ मनोरंजक वर्णन है। सूत्र में यह बताया गया लगा था। परन्तु उसी के प्राज्ञानुवर्ती शिष्यो द्वारा फिर है कि पाक ने गोशाला, एक बौद्ध, एक वेदान्ती और से उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हई। इस कथा मे भिक्षु को एक हस्ति-तापस को कैसे निरुत्तर किया था? प्रति- वैरागी जीवन के कर्तव्यो के पालन में सदा सजग रहने वादियो को निरुत्तर कर वह महावीर वो वंदन करने जब का अनुरोध किया गया है। किसी पूर्वभव मे धर्माचार मे जा रहा था तो एक हाथी बधन तोड़कर उसकी पोर ।
कपटाचरण करने के परिणाम स्वरूप मल्ली का जन्म स्त्री झपटा। परन्तु निकट पहुँचते ही उसने उसके सामने सपना । विवाह करने के इचटक नमस्कार करने को घुटने झुका दिये । राजा श्रेणिक जिसने कि जो पूर्वभव में भी उसके ही साथी थे, अपनी सुवर्ण यह सब दृश्य देखा था। आश्चर्य विभूत हो कर सोच मूर्ति मे भरे भोजन की दुर्गन्ध द्वारा अपनी प्रत्यक्ष दीखती रहा था कि उस हाथी ने साकलों के बंधन स्वतः कैसे अत्यन्त सुन्दर देहकी प्राभ्यन्तरिक घृण्यता को उनने उद्बोध तोड़ लिए ? माईक कुमार ने उसकी जिज्ञासा शांत कराया और उन्हे भी अपने साथ ससार-त्याग करने को करते हुए कहा, इससे तो यह अधिक आश्चर्यकारी बात कटिबद्ध किया एवम् सातो ही मोक्ष गए । राजा जियसत्तु है कि मनुष्य अपने सांसारिक बंधनों को कैसे तोड़ फेंकता को उसके मंत्री सुबुद्धि ने सद्धर्म मे श्रद्धा कराने के लिए है ? हम बहुधा पाव और महावीर के श्रमणों के बीच गदे पानी के बारम्बार निर्मलीकरण द्वारा स्वच्छ पेय पानी हुए विवाद अोर सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण का विवरण बना कर यह प्रमाणित कर दिया कि पदार्थ मात्र परिउत्तराध्ययन जैसे शास्त्रों में पढ़ते हैं । परमार्थपेक्षी मनुष्य णमनशील है और इसके फल स्वरूप गजा जियमत्तु सद्धर्म और स्त्रियाँ जैसे कि शिवराज, सुदर्शन, शंख, सोमिल, में श्रद्धाशील हो गया। नगरजनों के लाभ के लिए निज जयन्ती प्रादि [भगवती सूत्र में] महावीर के पास अनेक धन खर्च से बनाई पुष्करणी एवम् उसके क्रीडा-स्थलो व वार जाते हैं और उनसे सैद्धांतिक प्रकाश प्राप्त करते है। सामग्रियों के प्रति प्रतीव भासक्ति के कारण ही नन्द ने
कितनी ही कहानियों में जो कि स्पष्टतया उपदेश उसके मेडक रूप से अगला जन्म पाया। जब उधर महाहै, संयमों और व्यसनों के माचरण से होने वाले अच्छे वीर का विहार हुआ तो वह उनके दर्शनों को जाते-जाते और बुरे परिणाम दृष्टान्त द्वारा व्यक्त किए गए है। मार्ग में श्रेणिक राजा के अश्व के खुर तले कुचला जाकर
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१ वर्ष २३ कि..
अनेकान्त
मृत्यु को प्राप्त हुमा था, परन्तु मालोचना पूर्वक मृत्यु अपने चारों पुत्रों सहित पिलाय का पीछा करते हुए भी होने से उसने देव रूप जन्म पाया। मामात्य तेयालिपुत्र वहां पहुंचा । उन सबने जीवन बचाने के लिए सुंसुमा के की भार्या पोट्टिला ने यह देख कर कि पति का प्रेम वह मस्तक रहित मृत शरीर के रक्त-मांस का भोजन किया । गमा चुकी है, प्रव्रज्या ले ली और मरने पर वह देवलोक उसी प्रकार भिक्ष एवम् भिक्षुणियों को मात्र जीवन निर्वाह में उत्पन्न पति से की गई अपनी प्रतिज्ञानुसार उसने और संयम की माराधना के लिए ही भोजन करना तेयालिपुत्र को सद्धर्म का प्रतिबोध देने के बार-बार प्रयत्न चाहिए । ऐसे भिक्खू भिक्खुणी घन्न पौर उसके पुत्रों की किए। परन्तु तेयालिपुत्र को ससार-त्याग के मूल्य की भांति सुख-शाति से अपनी जीवन-यात्रा समाप्त करते है। प्रतीति तब हुई कि जब राज का अनुग्रह खो कर वह पूर्ण राजा पुण्डरीक अपने भाई कुण्डरीक को प्रव्रज्या लेने की दुर्भाग्य ग्रसित हो गया था और आत्महत्या का प्रयत्न प्राज्ञा दे देता है और भिक्ष-जीवन बिताने में उस समय तक उसने किया था। अन्त में वह भिक्ष हो गया और सहायता भी करता है जबकि वह रुग्ण होकर दुख पा रहा राजा को भी जब उसने सद्धर्म की प्राप्ति कगई तो राजा है। परन्तु जब दूसरी बार वह ऐसा करने मे सफल नही ने अपन किए उसके प्रति पूर्व-दुर्व्यवहार की उससे क्षमा होता है तो उसे राजपाट देकर वह स्वयम् ही प्रवजित हो याचना की और अन्त में दोनो ही को मोक्ष लाभ हुअा। जाता है। कुण्डरीक राजसुखों को भी अन्त में दुखदाई धम्मरुई ने चीटियों का जीवन बचाने के लिए विषमय पाता है और मरने पर वह नरक में जाता है। पक्षान्तर पाहार का स्वयम् भक्षण कर लिया और उसके फल स्व- मे पुण्डरीक एक पूर्ण श्रद्धेय भिक्ष ही नहीं हो जाता है रूप मर कर वह पहले देव हुमा और अन्त मे मोक्ष। अपितु अन्त मे मुक्ति भी प्राप्त करता है । इस कथा का परन्तु नागधी कि जिसने उसे विषभोजन बहराया था, यह उपनय बिलकुल स्पष्ट है कि भिक्षुग्यो को पुण्डरीक के उसी जीवन मे रोग-ग्रस्त और दरिद्रिणी हो गई। मर कर प्रादर्श का अनुसरण करना चाहिए। इन सब कथानो में वह सुकुमालिया नाम की स्त्री नंदा हुई और किसी भी साधक भिक्ष भिक्षणी के लिए कुछ न कुछ उपदेश है ही। द्वारा विवाही नहीं जाने पर वह भिक्षुणी हो गई । भिक्षुणी उवासगदसापो में जो दस वर्णक है वे नमूने के ही है जीवन में किसी वेश्या को देख कर उसकी सुप्त काम और उनमे ऐस व्रती श्रावकों का गुण-कीर्तन किया गया वासना जागृत हो गई और अगले जन्म में उसकी पूर्ति हो है कि जो सब के लिए प्रादर्शरूप है । वे सब महावीर के यह कामना वह सदा ही करती रही। मरने पर इससे वह समकालिक ही हैं। वे ही उनको ऐसे जटिल व्रत दिलाते पहले तो देव-वागगना हुई और तदनन्तर वह दोवई है जिनका पाचरण कर वे यथाकाल मुक्ति मे पहुँचते है। [द्रोपदी] नामक राजकन्या हुई कि जिसका विवाह पाँचों प्रानन्द एक आदर्श उवासग है जिसे व्रत पाराधना का पाण्डवों के ही साथ हुआ। फिर अवरकका का राजा पालन करते हए ही अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है । कामपोमनाथ उसे हर कर ले गया क्योकि नारद ने उसके रूप देव, चूलनीपिय, सुरादेव और चुल्लसयय बाह्य प्रलोभनों की उसके सामने प्रति प्रशमा की। उसको हग कर कृष्ण- और भर्यों के बावजूद भी अपने व्रतों में दृढ़ रहते है, जब वासुदेव द्रौपदी को लौटा लाया और पाण्डवो को सौप कि उनका जीवन ही जोखम में था। उनके सम्बन्धियों दिया। अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार कर एवम् खब पर घोर अत्याचार किए जा रहे थे और उनका स्वास्थ्य तपस्या करके पाँचों पाण्डव मुनियो एवम् द्रौपदी ने भी एवम् सम्पत्ति भी जोखम में थी। कुण्डकोलिय अपनी यथाकाल मोक्ष प्राप्त किया। चिलाय लुटेरे ने सुसुगा का श्रद्धा में पूर्ण दृढ़ रहता है और किसी भी प्रकार का अपहरण किया और उसे बहुत ही कष्ट सहना पड़ा इतना लालच, गोशाला का धर्म उससे स्वीकार नही कराता है। ही नहीं अपितु उसका सिर काट साथ में लेकर जंगल मे सहाल पुत्र प्राजीवक धर्म छोड़ कर महावीर का धर्म स्वीभाग जाना पड़ा। विषय सुखो मे प्रासक्ति रखने वाले कार करता है और गोशालक उसको अपने धर्म मे लौटा भिक्षु भी इसी प्रकार दुःख सहते हैं । उधर धन्न सार्थवाह लाने में किसी प्रकार भी सफल नहीं होता है । महासयय
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
एक धर्मभीरू गृहस्थ है; उसकी विषयासक्त भार्या उसे अन्तगडदसाप्रो की कथाएँ भी दो भागों में विभक्त अनुरक्त करने की भरसक चेष्टा करती है यहाँतक कि अंत की जा सकती है, एक तो वे जिनका सम्बन्ध अरिठ्ठनेमि में तंग होकर महासयय उसे यह शाप दे देता है कि उसका और कृष्ण-वासुदेव के युग से है और दूसरी वे जिनका नरक में जन्म हो। महावीर उसे इसका प्रायश्चित्त करने महावीर और सेणीय के युग से । इन ६२ प्रकरणों मे हमे को कहते हैं और वह प्रायश्चित्त करता है और यथाकाल ऐसे नर और नारियों की कथाएँ दी गई हैं कि जिनने उसे मुक्ति मिलती है। नन्दनीपिया और सालिहीपिया तीर्थकर के धर्म के अनुसार चलते हुए संसारचक्र का नाश भी धर्मभीरु गृहस्थ हैं जो यथाकाल मुक्ति प्राप्त करते हैं। कर दिया था और मुक्ति प्राप्त कर ली थी। हम इस ये कहानियाँ उस सांचे में ढली हई है कि सिर्फ नाम, ठाम
विचार से कि राजवंशों के नर और नारी भी भिक्षुमष मे बदल कर ही उन्हें कई गुणित किया जा सकता है। इन
अपने ग्रापको दीक्षित करा लेते है, पराभूत ही हो जाते सब कहानियों का लक्ष्य एक ही है। इनमे नाम, ठाम
हैं । प्राध्यात्मिक स्वातत्र्य की पुकार धार्मिक रगरूटों की आदि विवरण ही भिन्न-भिन्न है। 'दढ़प इथा' प्रात्मा का
मांग खूब जोरों से कर रही है और इस प्रकार वैगगी प्रतीतात्मक एक नाम ही प्रतीत होता है कि जिसने दृढ़
सेना की सैन्यपंक्ति बढती ही जा रही है। कुछ ही कथाएँ श्रद्धा का विकास कर लिया है और इस प्रकार मुक्ति
पूर्णरूप में दी गई है। शेप इतना मा कह कर ही समाप्त प्राप्त करती है। ऐसी प्रात्मा की जीवनी उववाइय और
कर दी गई है कि नाम, ठाम प्रादि के सिवा वे पूर्ववत ही रायपसेणइय दोनों मे ही दी गई है।
है। इनमे गजमुकुमाल की एक प्रादर्श वैराग्य कहानी है अपरिवर्तनीय नमूने के वर्ण की ओर उनका वों में
जिसमे क्षमा और प्रायश्चित्त-शौर्य का अपूर्व दृष्टान्त हमारे विभाजन का विचार करते हुए, नायाधम्मकहानो का
सामने प्राता है। देवकी के छह पुत्र जन्मते ही हरिणगद्वितीय श्रुतस्कन्ध, अन्त गडदसामो, अनुत्तरोववाइयदसाम्रो
मेसी देव की कृपा से सुलसा की गोद मे पहुँचा दिए गए और निरयावलियायो कि जिस मे अन्तिम पाँच उपाग
थे और बड़े होने पर वे भिक्षु बन गए थे। जब देवकी सन्निविस्ट है, को एक ही वर्ग में रखा जा सकता है।
इस बात से शीर्ण-क्षीण हो रही थी कि उमका कोई भी नाया के दूसरे स्कध मे दिए ढांचे, नाम और कथा के उद्
पुत्र उसके पास नहीं है और कृष्ण भी उमसे छह छह घोष-शब्द से ऐसी २०६ कथाए स्वतः ही पावृत्तिकार रच
महीने बाद ही मिलते है, तो कृष्ण ने किमी देवी को ले जैसी पूर्ण कथा काली की वहाँ दी गई है। ये सब प्रसन्न कर यह वर प्राप्त किया faaz इतना ही समझाने के लिए है कि किस प्रकार पूर्व जन्मों माल के रुप में देवकी के गर्भ मे जसले में की धर्माधना के कारण इन देवियों को ऐसी-ऐसी समय पाने पर देवकी के पुत्र रूप से गजमकुमाल का स्थिति प्राप्त हुई। उदाहरणार्थ, काली पाश्वनाथ का जन्म हपा था। अवस्था पाने पर और बहुत कुछ समझाते प्रवचन सुनती है और पुप्फचूला आर्या की नेश्रा में भिक्षुणी बुझाते हुए भी गजसुकुमाल ने दीक्षा लेकर अपने श्वसुर बन जाती है। जैसा उसके विषय मे सन्देह किया जाता सोमिल को बहत ही अप्रसन्न और क्रुद्ध कर दिया; क्योकि था. भिक्षणी होने पर भी वह शरीर की जरा भी उपेक्षा वह यह मान बैठा या कि भर जवानी में उसकी पुत्री का नही करती है, परन्तु न्हवण, विलेपन प्रादि मे वैसी ही उसने जानबूझ कर हो तिरस्कार किया है। इसलिए एक रत रहती है और इसलिए अन्त में उसे गण से बाहर कर दिन जब कि गजसुकुमाल श्मशानभूमि मे तप कर रहे थे, दिया जाता है। परन्तु वह उपवासादि तपस्या तो करती सोमिल ने बदला लेने की धुन में, उनके सिर पर मिट्टी ही रहती है और मरने पर इसीलिए वह देवी रूप जन्म का एक चुला बनाया और बधगते अंगारे चिता से उठा लेती है। यह देवी महावीर का दर्शन-वंदन करने पाती कर उसमें उसने लबालब भर दिए। युवक भिक्षु ने यह है मौर महावीर गौतम को तब उसका भविष्य कह सब घोर परिषह पूर्ण शांति और समता के साथ सहन देते है।
किया और उसे सहते हुए अपने प्रष्ट-कर्म दलिकों को
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वर्ष १३ कि. १
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जला कर मोक्ष ही प्राप्त कर लिया। उधर सोमिल कृष्ण को देखते ही भय से धकाल मरण कर गया। इस शास्त्र में ही हमें द्वारका और यादव कुल के नाश का भी वृत्त मिलता है। पूजकों को सताने वाले गुण्डों के विरुद्ध गदा उठाने वाले मुद्गर प्राणी यक्ष की, और अर्जुन माली उसकी स्त्री वंधुमति की कथा ऐसे लोगो की लोककथा के अत्यन्त सुन्दर नमूने हैं कि जो देव और देवियों के भक्त है। परन्तु यह बात कि मुद्गरपाणी परमधर्मष्ठ सुदर्शन के विरुद्ध कुछ भी नही कर पाता है, इतना ही नही अपितु एक दम असहाय ही हो जाता है, हमे बता रही है कि महावीर के अनुयायियो की उससे उच्चता और महत्ता स्थापित करने में इस लोक कथा का उपयोग पूरी पूरी कुशलता से कर लिया गया है। अर्जुनक माली महावीर का भक्त अनुयायी बन जाना है और भिक्षु होने के पश्चात् वह शांति और समता के साथ लोगों द्वारा दी गई यातनाएं दुःख और दुत्कार-फटकार सभी कुछ सहता है। जिसका परिणाम यह होता है कि इस तरह पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त करते हुए वह अन्त मे मुक्ति प्राप्त कर देता है। राजकुमार अतिमुक्तक की कथा यह बताती है कि पाप्यात्मिक समस्याओं ने तब नवयुवकों को भी कंसा तीव्र प्रेरित किया था और वे भिक्षु जीवन स्वीकार कर तप साधना से अन्ततोगत्वा मुक्ति प्राप्त कर सदा के लिए ही उस समस्या का हल निकाल लिया करते थे ।
अनुत्तरोववाइय-दामो में उन लोगों की कहानियां हैं कि जिनने तप साधना से अनुत्तर विमानों की प्राप्ति की । इनमें धन्न की कथा एक नमूना रूप ही है और वह यह प्रतिपादित करती है कि वैरागी जीवन की साधना में तप का कितना भारी महत्व है।
निरयापलिया में हम चेलण राणी से राजा श्रेणिक का पुत्र, कुणिय, के जन्म की कथा का जीवन्त वर्णन पाते हैं। जब वह गर्भ में था तब चेल्लणा राणी को अपने पति हो का मांस खाने का अद्भुत दोहद उत्पन्न हुआ । इस दोहद को उसके सौत पुत्र अभय ने कौशलपूर्ण रीति से पूर्ण कराया था पर इस दोहद की घटना से चेहलणा रानी पूरी भयभीत थी और मान रही थी कि उसकी यह सतान अवश्य ही राज्यवंश का कलंक होगी । और
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इसलिए उसने शिशु को गर्म में ही नष्ट कर देने का प्रयत्न तक किया था, परन्तु सब प्रयत्न विफल गए। जैसा कि उसे भविष्य भासा था, कुणिय निःसन्देह बड़ा दुष्ट कुमार हुआ। वह पिता के जीते ही उन्हें कंद कर राज्यसिंहासन हड़प लेना चाहता था और उसने ऐसा ही किया । श्रपने सगे भाई बेहल्ल से राजा होने पर वह रत्नहार और गजराज छीन लेना चाहता था कि जो उसे पिता श्रेणिक से ही इनाम रूप मे मिले हुए थे। बेह ने इसलिए अपने नाना चेटक के यहाँ जाकर शरण ले ली श्रौर चेटक ने नव मल्लिकों, नव लिच्छवियो के साथ वेहल्ल के सत्य-पक्ष की रक्षा करने के लिए सधियाँ कुणिय और उसके दस भाइयों के विरुद्ध की । जो घमासान युद्ध हुआ उसमें कुणिय के दसो भाई मारे गए और वे हेमाभ नरक में गए। कुप्पियाँ में काल आदि भाइयों के पुत्रों की कि जो महावीर के भिक्षु बन गए थे और जो धर्माचरण कर भिन्न भिन्न स्वर्गों में गए, ही कथा चलती है। पुफिया मे सावत्थी के प्रगाई की कथा है कि जिसको भगवान् पार्श्वनाथ ने भिक्षु दीक्षा दी थी और जो भ्रपने साध्वापारी धनुशासन का कठोर पालन करने के फलस्वरूप मरने पर चंद्र-क्षेत्र में चंद्रमा के रूप में जम्म पाया। इसमें दूसरी मनोरंजक कथा वेदादि निष्णात ब्राह्मण सोमिल की है कि जिसको पार्श्वनाथ ने ही सम्यक श्रद्धान प्रायः करा दिया था, परन्तु भागे चल कर वह श्रमण साधना में विदिताचारी हो गया और वृक्षादि शेपग करता हुआ फिर से ब्राह्मण धर्मानुसार ही जीवन यापन करने लगा एवम् अन्त में वह दिशावोवसीय सामू या परिव्राजक हो गया। किसी देव ने प्रतिबोध देकर उसे अपनी स्थिति का भान कराया तो वह फिर से जैन साध्वाचार का पालन करने लगा । घोर प्रायश्चित्त करते हुए मृत्यु प्राप्त कर वह शुक्र ग्रह हो गया और यथाकाले वह निर्वाण प्राप्त करेगा । सुभद्रा की कथा में कहा गया है कि वह बच्चों के लिए बहुत ही लालायित रहती थी। परन्तु उसके कोई भी संतान नही हुई। पहले उसने श्राविका के व्रत अंगीकार किए और फिर वह भिक्षुणी ग्रार्या भी हो गई। परन्तु उसकी बच्चों को तीव्र लालसा फिर भी नहीं भरी और इस लिए भिक्षुणी जीवन में भी वह दूसरों के बच्चों का
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
लाड-दुलार करने लगी। फलतः उसे भिक्षुणी संघ से गए और मरने पर वह मृगापुत्र रूप से महान घृण्य शरीर बाहर कर दिया गया। फिर भी वह भिक्षुणी रहती हुई वाला जन्मा। पशुओं, पक्षियों मादि के अनेक भव करने बच्चों को उसी प्रकार लाड-प्यार करती ही रही। इसके के पश्चात् यह मृगापुत्र का जीव एक धनी सार्थवाह का फलस्वरूप वह मरणोत्तर बहुपुत्रिका देवी रूप में जन्म जन्म लेगा और उस भव में वह जैन व्रतों को अगीकार पाई। इस भव के अनन्तर उसने सोमा रूप से जन्म पाया करेगा एवम् मुनि जीवन बिता कर स्वर्ग मे जाएगा। जहाँ उसका विवाह राष्ट्रकूट ब्राह्मण से हुआ । उससे उसे कालक्रमे वह सिद्ध. बुद्ध और मुक्त होगा। दूसरी कथा १६ युग्म संताने १६ वर्ष के वैवाहिक जीवन मे ही हो बधिक भीम की है जो अपनी स्त्री के गर्भावस्था में हुए गई। इसलिए इस जीवन से उसे घृणा हो गई और वह मास-मदिरा खान-पान के दोहद को पूरा करने के लिए फिर जैन भिक्षुणी बन गई। यथाकाले वह मोक्ष लाभ अनेक जीवों की हत्या करता है। वह स्त्री यथा समय करेगी। पुप्फचुला में उन नारियो के चरित्र है जो पुप्फ- गोट्टासय नाम के एक पुत्र को जन्म देती है और जैसेचूला गुरणी की प्राज्ञाकारी शिष्याएं रही थी और उन्हें जैसे वह बड़ा हाता है मांस-मदिरा का अधिकाधिक शौकीन देवलोक प्राप्त हुआ। उदाहरणार्थ भूता पार्श्वनाथ की ही होता जाता है। यहां से मर कर वह उज्झितक न म से शिष्या थी और उन्होंने उसे भिक्षुणी-दीक्षा दी थी। परन्तु एक सेठ के घर में पुत्र रूप से जन्मता है। परन्तु वह प्रत्येक वस्तु पानी से घोन का भिक्षुणी प्राचार के विरुद्ध कुलागार ही निकलता है। द्यत, वेश्या, मद्य, प्रादि सभी इसका स्वभाव था । परिणामस्वरूप वह देवलोक तक ही व्यसन उसमे है। व्यभिचार दोष के दण्ड स्वरूप राजा पहुँच सकी और अब महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर बह उसे सूली का दण्ड दे देता है। मर कर वह नरकादि अनेक सिद्ध, बुद्ध और मुक्त यथाकाल होगी। वन्हिदसाग्रो मे नीच योनियां भगतता हा सार्थवाह होता है और उस १२ वृष्णि राजकुमारों की कथाएँ है जो कि बलदेव के जीवन मे किये सत्कर्मों और सद्धर्म के प्रभाव से वह स्वर्ग पुत्र थे। गजकमार निषध, नेमिनाथ के शिष्य, ने जो में देव होगा और यथाकाले मोक्ष प्राप्त करेगा। तीसरी उन्नति की उसकी कथा उसके पूर्वभवो की कथाओं के कया निन्नय नाम के एक ऋर अण्डों के व्यापारी की है उल्लेख पूर्वक उसमें कही गई है । जब वीरागद राजकुमार और वह तरह तरह के अण्डे लाता और बेचता है। इस के भव म उसने पूरे ४५ वर्ष तक घोर तपस्या की तो पाप से वह मर कर नरक में जाता है और वहाँ से उसके परिणास स्वरूप पहले वह देवलोक मे देव हुआ निकल कर प्रभग्गसेन रूप से जन्म पाता है। यह प्रभग्ग
और उसके बाद निषध राजकुमार । उत्तरभव मे वह एक सेन एक बड़ा ऋर लुटेरा है। पासपास के सब क्षेत्र भिक्ष होगा और वही से वह देवलोक मे देव । तदनन्तर उसके भय से त्रस्त और दुम्बी होते हैं । राजा महाबल यह वह यथाकाल सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाएगा। जान कर कि अभग्गसेन पर किसी प्रकार का काबू नहीं
विवागसूयम्, जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता पाया जा रहा है. उसे अपने यहाँ भोजन का निमन्त्रण है, में बुरे और भले कर्मों के बुरे एवं भले परिणामों की देता है और उस निमन्त्रण को स्वीकार कर जब वह दृष्टातिक कथाएँ दी गई है। पहले स्कन्ध में बुरे कर्मों भोजन के लिए राजमहल मे पाता है तो राजा सारे नगर के बुरे परिणामों की दस दृष्टातिक कथाएं है। दूसरे द्वार बन्द करवा कर उसको फासी देने की प्राज्ञा निकाल स्कन्ध मे अच्छे कर्मों के अच्छे परिणाम बतानेवाली पूर्ण देता है और वह फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। यह विवरण सहित कथा तो एक ही है और शेष यथावत् प्रभग्ग संसार में भ्रमण करता करता एक बार फिर मनुष्य कही जानेवाली है। इकाई सुबेदार बड़ा ही निर्दय स्व. जीवन प्राप्त करेगा और तब वह दीक्षा लेगा, एवम् यथा भाव का था और वह लोगों पर बहुत बड़े और भारी काले मोक्ष प्राप्त कर लेगा। चौथी कथा धणिय, मांस भारी कर डाल कर खूब ही सताया करता था। इस दुष्प्र. व्यापारी की है जो रोज बहुत से पशु मारा करता और वृत्ति के कारण उसके शरीर में अनेक प्रकार के रोग हो उनके मांस के पकवान बना कर स्वयं खाता और दूसरों
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को भी खाने के लिए बेचता था जीवहिंसा के इस महान् पाप के फल स्वरूप वह नरक में गया और वहाँ से निकलने पर वह भद्रा के घर में सगड़ नाम से पुत्र रूप जम्मा इस भद्रा के जितनी भी संताने होती थी, मर जाती थीं। परन्तु सगड़ नहीं मरा, परन्तु उसके जन्म के बाद परिवार के बुरे दिन भा गये। सगड़ बहुत बड धौर व्यभिचारी हो गया। वह मंत्री की वेश्या सुदर्शना से जा फंसा । फल स्वरूप वह राजा के समक्ष पेश किया गया और राजा ने उसे तप्त लोह नारी-पुतले के पालन कराने का मृत्युदण्ड दे दिया। महावीर ने भविष्यवाणी की कि सगड और सुदर्शना अगले जन्म में भाई-बहन के जोड़े रूप से पैदा होंगे और यथाकाल वे पति-पत्नी की भाँति ही जीवन विताएगे फल स्वरूप वे मर कर दोनों ही नरक में जाएंगे और ससार में खूब ही जन्म-जन्मांतर तक भ्रमण करेंगे । सार्थवाह के जन्म में यह सगड़ भिक्षु बन जाएगा और यथाकाल मोक्ष भी प्राप्त करेगा । पांचवीं कथा राजगुरु महसरदत्त की है जो नरमेध यज्ञ किया करता था। ताकि राजा के वैरियों का नाश हो जाए। इस पाप से वह मर कर नरक मे गया और वहाँ से निकल कर बृहस्पतिदस नामक राजगुरु रूप से फिर जन्म पाया | राजगुरु होने से वह रनिवास में बे रोकटोक जाता था। रानी के साथ व्यवभिचार करने के दोष में पकड़े जाने पर राजा ने उसे सबके देखते सूली पर चढ़ा देने का दण्ड दे दिया । महावीर ने उसका भविष्य कहा कि वह अनेक नीच योनियों मे जन्म लेता हुआ एकदा मनुष्य भव पाएगा और तब वह भिक्षु वैरागी हो जाएगा। यथाकाल वह मुक्त होगा। छठी कथा दुज्जोहन नामक फौजदार की है जो क्रूर था और बन्दियों पर सदा घोर तम जुलुम ढाया करता था। फलतः वह नरक में गया और फिर किसी भव में नन्दिवर्धन नामक राजकुमार हुआ । तब उसमे अपने पिता राजा सिरिदास की हत्या एक नापित द्वारा कराने की चेष्टा की, ' परन्तु पकड़ लिया गया और उसे तत्काल मृत्यु का दण्ड सुना दिया गया । महावीर ने इसका भविष्य कहते हुए कहा कि वह उ यय की तरह भवोभव करते हुए भन्त में मोक्ष लाभ करेगा। सातवी कथा बंध धनवन्तरी की है जो स्वयं
मांसाहारी था और रोगियों को भी मांस भोर मांस से बनी औषधियाँ और पथ्य दिलाया करता था। इस हिंसा पाप के कारण उसका जीव नरक में गया। वहाँ से निकल कर वह उम्बरदत्त नामक धनी सार्थवाह रूप से जन्मा । परन्तु वह अपने कुल का कलंक हुधा धौर रोगों से भरा शरीर लिए नगर में घूमता रहता था। उसके विषय मे महावीर ने भविष्य कहा कि उसके मियापुत्र के समान ही भव-भवन्तर होंगे । प्राठवीं कथा पाचक (रसोइया ) सिरीय की है जो व्याधों, चिड़ीमारों, मछुमों आदि को राज-रसोडे के लिए पशु-पक्षी मत्स्य आदि लाने के लिए नियुक्त करता था । वह स्वयं मांस खाता और दूसरो को भी मांस पकवान खाने के लिए बेचता था । मृत्यु पर वह सोरियदत्त नामक मछुम्रा रूप से जन्मा । तब उसने लोगों को खाने के लिए न केवल खूब मत्स्य ही बेचे, परन्तु स्वयं भी खूब खाए । एकदा मत्स्य का एक कांटा गले में अटक जाने से उसने घोर यंत्रणा पाई और मर गया । महावीर ने उसका भविष्य कहा कि वह भी मियापुत्र के से भवभवान्तर करेगा । नौवी कथा राजा सिंहसेन की है जिसने अपनी ४६६ रानियो एवं उनकी माताओ को इसलिए जीवित जला दिया कि उनने उसकी मनीता रानी सामा की हत्या का षडयंत्र रचा था। इस घोर पाप के कारण वह मर कर नरक में गया और वहाँ से निकल कर उसने परम सुन्दरी कुमारी देवदत्ता रूप से जन्म पाया । उसका विवाह श्री पुष्पनन्दी के साथ हुआ जो कि अपनी माता का बड़ा भक्त था । उसकी देवदत्ता को यह नही रुचा । इसलिए उसने लोह-वालाकाए गरम कर अपनी सास की हत्या कर दी। राजा ने देवदत्ता को इस हत्या के दण्ड मे सूली दिला दी। उसके भव भवान्तर भी मियापुत्र के से ही होंगे । दसवीं कथा गणिका पुढ़विसिरी की है कि जो गरीब-अमीर सभी प्रकार के अनेक लोगों को अपने प्रति प्रासक्त किया करती थी। यह वेश्या-जीवन समाप्त कर नरक में गई जहाँ से निकल कर वह अज्जू नाम सुन्दरी रूप से जन्मी वह राजा की रानी हो गई, परन्तु असा पोनि पीड़ा से वह सदा ही दुखी रही इस रोग का कोई इलाज ही नहीं लगा। महावीर ने इसके भव भवान्तर भी देवदत्ता के से ही बताए हैं। विवायसूयम् के
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
दूमरे स्कन्ध में पुण्यों की कथाएं हैं। पहली कथा धर्मात्मा समूह की है जिसने भिक्षुक सुदत्त को प्रामुक विपुल ग्राहार दिया था और उसके फल स्वरूप उसका भव-भ्रमण बहुत ही घट गया। एक भवान्तर मे वह विपुल धन-वैभववाला सुदा राजकुमार के रूप मे जन्मा। उसने महावीर से व्रत प्रगीकार किए। यथाकाले वह अंगों का अध्ययन करेगा खूब तपस्या के अनन्तर मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग में जाएगा और यथाकाल मुक्ति प्राप्त करेगा। शेष पुण्य कथाए नाम, ठाम फेर के सिवा इस सुबाहु जैसी ही है।
इन कथाओं की उपदेशिक ध्वनि बिल्कुल स्पष्ट है । साधु साध्वियों, श्रावक और श्राविकानों, चारो को धर्माचरण की शिक्षा देना ही इनका लक्ष्य है । पूर्व और उत्तर भवों की कथाए एव जन्म-जन्मातरण के दुखो का चित्र मास्तिकों को धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यदि कभी किसी से भूल हो भी जाए तो भी उसके लिए भविष्य उज्ज्वल है, यही विश्वास रखते हुए महावीर जैसे धर्मोपदेष्टाओं के बताए मार्ग का अनुसरण करते रहना चाहिए । इस भव और उत्तर भवो के सभी दुखों की समोष घोषधि वैराग्य ही है जिन पापों का इन कहा नियों में उल्लेख किया गया है और जिन व्यवसायों की निन्दा की गई है, वे हमारे समक्ष ऐसी संहिता का चित्र प्रस्तुत कर देते हैं कि जिसका जैनधर्म ने सदा ही प्राग्रह किया है।
उत्तराध्ययन के कतिपय भाख्यानों में भी वैराग्य
भावना को जोरदार काव्यमयो भाषा में प्रेरित किया गया है। राजा नेमि [ धध्या० ९] उनकी बढा की परीक्षा करने को भाए ब्राह्मण रूप में इन्द्र के सभी तकों का उचित उत्तर देकर, प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं। हरिकेशी की जीवनी में यज्ञ परम्परा का खण्डन किया गया है घोर संगम एवम् परिषह-सहन का बड़ा ही महात्म्य बताया गया है. [ धध्या ११] चित्र और सम्भूति [ प्रध्या०
११
१३] का संवाद ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सम्बन्धी कथाओं के महान् चक्र का ही एक अंश है और यह जैन, बौद्ध एवं हिन्दू पुराणों में भी समान रूप से पाया जाता है"। राजा ब्रह्मदत्त नरक में जाता है जब कि साधू चित्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इससे भी वैराग्य की महानता ही प्रकट होती है। उयारिजं [इपुकारीय] अध्याय मे भिक्षु जीवन के महत्व का इस दृढता के साथ समर्थन किया गया है कि उसके फल स्वरूप राजा-राणी सहित अन्य अनेक जन भी घर सम्पत्ति त्याग भिक्षु भिक्षुणी हो जाते है [अध्या०] [१४] विवाह भोज के लिए लाए हुए पशुओं की चीत्कार सुन कर अरिष्टनेमि प्रव्रजित हो जाते है । उनके प्रति परम श्रद्धा राजीमति की भी भिक्षुणी बना देती है। फिर रथनेमि की सयम शिथिल-वृत्ति को मर्मभेदी उपदेश से दूर कर वह उसको संयम मे स्थिर करती है एवम् सभी घोर तपश्चर्या के पश्चात् उसी भव में मोक्ष लाभ करते हैं [अध्या० २२] में इस घटना का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया गया है और वह वर्णन वंशम्य का एक चमत्कारी काव्य ही है। सजयइज्ज [ प्रध्या० १८] को अध्याय में प्राचीन जैन वैराग्य वीरों की जीवनियों की पूंजी का कुछ-कुछ प्राभास मिल जाता है। इन प्रख्यात व्यक्तियों में से कुछ के नाम तो हमें अन्य ग्रन्थों द्वारा भी ज्ञात होते हैं। इस सूची में १२ चक्रवर्ती, चार प्रत्येक बुद्ध और उदयन, काशीराज, विजय और महाबल जैसे राजों के नाम भी हैं। मियापुत्र [ मध्या० १६] की जीवनी जैसी जीवनियाँ शास्त्रकारों को उपदेशिक शिक्षा, धार्मिक अनुरोष भौर सिद्धान्त व्याख्या के अनेक अवसर प्रदान कर देती है । (क्रमशः)
११. देखो बार पेटियर का इन्डो १० ४४ आदि और टिप्पण पृ० ३२० प्रादि उनके उत्तराध्ययन ग्रन्थ का उप्पासला, १६२२ ।
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इतिहास के परिप्रेक्ष्य में पवा जी (पावागिरि)
डा० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', एम. ए., पी-एच. डी., शास्त्री
दिनांक १४ अप्रैल से १८ अप्रेल १९७० ई० तक प्राचीन अभिलेखों में इस स्थान का उल्लेख 'पावकबन्देलखण्ड में पवा जी (जिला झांसी) नामक तीर्थ क्षेत्र गढ' नाम से मिलता है। प्रारम्भ में यह तोमर वशीय पर विशेष प्रायोजनों और समारोहों के साथ श्री बाहुबलि शासकों के प्राधीन रहा और १५वी शताब्दी के अन्त मे जिनेन्द्र पंच कल्याणक एवं गजरथ महोत्सव का प्रायोजन इस पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। किया गया है।
यह स्थान सिद्ध क्षेत्र माना जाता है तथा सभी जैन पवा जी उ० प्र० मे झासी जिले की ललितपुर तह- सम्प्रदायो द्वारा इसकी उपासना की जाती है। इसकी मील में एक छोटा सा ग्राम है। यह ललितपुर और झासी प्राचीनता के सम्बन्ध मे कोई पुरातात्त्विक या अभिलेखीय समय में स्थित तालबेहट से उत्तर की ओर नो मील प्राचीन साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। तीसरा स्थान हैहै। यह स्थान ललितपुर से तीस मील तथा झांसी से ३. पावागिरि-निर्वाणकाण्ड की तेरहवी गाथा' मे मनीस मील दूर है। मध्य रेलवे के झांसी, तालबेहट, उल्लेख मिलता है कि पावागिरि नामक स्थान से सुवर्ण नई या ललितपुर में से किसी भी स्टेशन से यहाँ मोटर भद्र प्रादि चार मुनियो ने मुक्ति प्राप्त की। यह स्थान
या अन्य बाहनो द्वारा पहुँचा जा सकता है। बासी चलना नदी के तट पर था। और कडेसरा से भी पवा पहुँचने के लिए साधन मिलते है। इसी सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि-'सस्कृत.
जन जगत् मे 'पावा' नाम से प्रचलित चार स्थान निर्वाण-भक्ति' में न तो चलना नदी का नाम पाया है प्राप्त है। उनमें से पहला है
और न पावागिरि का ही । उसमे केवल उल्लेख है 'नद्यापावापर-बिहार प्रदेश मे गुणावा से तेरह माल स्तटे जितरिपश्च सवर्णभद्रः। दूर स्थित यह स्थान चौबीसवें तीर्थकर भ. महावीर
निर्वाण काण्ड की उक्त गाथा के प्रकाश में, अब भी स्वामी के निर्वाण स्थान के रूप में समादत है। यहाँ
यह निर्णीत नहीं हो सका है कि-वस्तुत: चलना नदी तालाब के मध्य में एक विशाल जिनालय, जिसे 'जल
कोन है ? और उसके तट पर अवस्थित पावागिरि कौन मन्दिर' कहते है, मे भ. महावीर, गौतम स्वामी एवं
सा है ? इस सन्दर्भ में जो कुछ प्रयत्न हुए है, उनके सघर्मा स्वामी के चरण चिन्ह प्रतिष्टित हैं । दिगम्बर और
अनुसार :श्वेताम्बर सभी जैन सम्प्रदाय इसे अत्यन्त श्रद्धा-भावना से
(अ)-वर्तमान मध्य प्रदेश में इन्दौर और बडवानी पूजते हैं। दूसरा है
के निकट मौजूद 'ऊन' नामक स्थान को भी 'पावागिरि' २. पावागढ़-पश्चिम रेलवे के बम्बई-दिल्ली मार्ग नाम से प्रसिद्ध किया गया। यद्यपि वहां बारही शताब्दी पर बडौदा से २३ मील प्रागे चापानेर स्टेशन है। वहाँ का जैन पुरातत्त्व उपलब्ध है, किन्तु किसी भी साक्ष्य से से एक लाइन पानी माइन्स तक जाती है, इस लाइन पर यह स्पष्ट नहीं है कि इस स्थान का नाम कभी 'पावा' चांपानेर रोड से बारह मील पर पावागढ़ स्टेशन है। या 'पावागिरि रहा है। जैन परम्परा में प्रचलित यह पावागढ़ क्षेत्र एक विशाल गिरि-दुर्ग के मध्य अवस्थित /
गारन्दुग क मध्य मवास्थित (ऊन) तीसरा 'पावागिरि है। है। यह पर्वत-शिखर लनभग २५०० फीट ऊंचा है तथा दुर्ग के सात द्वार पार करने के पश्चात् तीर्थ-स्थल पर १. पावागिरि वर सिहरे सुवण्णभद्दाइ मुणिवरा चउरो। पहुँचते है।
चलणा गई तडग्गे णिव्वाणगया णमो तेसि ।।
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इतिहास के परिप्रेक्ष्य में पवा जी (पावागिरि)
(ब)-इस सम्बन्ध में विचार करते समय कुछ काण्ड की पूर्वोक्त गाथा में प्रागत पावागिरि के प्रसग में विद्वानों ने टीकमगढ़ जिले में मौजूद पपौराक्षेत्र से भी ऊन को कल्पित पावागिरि बतलाकर अपने अनेक तों 'पावागिरि' नाम का समीकरण करने की चेष्टा की है। द्वारा पावा (भांसी) को सिद्ध क्षेत्र सिद्ध करने का प्रयत्न पपौरा में तेरहवीं शती से लेकर वर्तमान समय तक की किया है । यद्यपि पुस्तिका के प्रारम्भ और अन्त में प्रकामूर्तियाँ प्राप्त हैं, किन्तु किसी भी साक्ष्य से इसे पावागिरि शित किये गये विभिन्न विद्वानों एवं अन्य सज्जनो के पत्रों नही माना जा सकता।
सम्मतियों आदि में से एकाध को छोड कर, प्रायः किसी (स)-ऊन और पपौरा की अपेक्षाा स्थान-नागसाम्य से भी लेखक के अभीष्ट की पूर्ति नही होती, तथापि तथा अन्य बातें उक्त पवा जी को पावागिरि के अधिक लेखक ने उन्हें अविकल दिया है, यह प्रशंसनीय है। निकट ला बैठाती हैं। अब, जैन परम्परा में यह चौथा श्री सागरमल जी द्वारा लिखित उक्त पुस्तिका से पावागिरि है।
निश्चित ही पवा जी का प्रचार-प्रसार तो बढ़ा ही है, मेरा मत-ग्राम का नाम तो पवा है ही, निकटवर्ती विचार करने के लिए नयी दिशाएँ भी सामने पायी हैं पहाड़ी को भी 'पवा की पहाड़ी' नाम से जाना जाता है। तथा पावागिरि के उपर्युक्त सन्दर्भो में नवीन प्रायाम उदअतः यदि पहाड़ी के वाचक सस्कृत के गिरि शब्द को घाटित हए है। अपना लें तो पवा को पवा गिरि कहा जा सकता है। ऊन पर पावागिरि, का प्रारोपण तो निश्चित ही
पवा ग्राम से लगभग एक किलोमीटर दूर स्थित सन्देहास्पद है, किन्तु पवा जी पर पावागिरित्व और सिद्धभोयरे, सिद्धों की पहाड़ी और उस पर निर्मित मढ़ियो, क्षेत्रत्व प्रतिष्ठित करने के लिए वहां के मभी प्राचीन बावड़ी आदि में विद्यमान पुरातात्विक एवं अभिलेखीय स्थलों-सिद्धों की दोनों मढ़ियो, पहाड़ियो, नायक की साक्ष्यो से यह स्पष्ट है कि पवा बारहवी-तेरहवी शताब्दी गढी बनाम विशाल मन्दिर के ध्वशावशेप, भोयर, मतियों मे जैनधर्म का एक जीवन्त सांस्कृतिक केन्द्र था। इस क्षेत्र तथा उन पर उत्कीर्ण अभिलेख, बावडी और उममे मौजूद पर और इसके पास पास ऋषभनाथ, अजितनाथ, मल्लि- सामग्री एवं निकटवर्ती नाला (जिसे कहीं वेला नाला, नाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की उपासना कहीं वेला ताल, कही बैंकोना और कही वेलना कहा जाता होती थी। यहां की मूर्तियो की कलागत विशेषताओं के है) आदि का विधिवत् सर्वेक्षण, यथा प्रावश्यक उत्खनन, आधार पर बारहवी-१३वी शती को निमितियाँ कहेगे। अनुशीलन एवं अध्ययन अनिवार्य है । सम्भवतः इससे उक्त इसी समय के अभिलेख मी उत्कीर्ण पाये जाते है। दिशा में आवश्यक प्रकाश पड़ेगा।
उपर्युक्त सभी सांस्कृतिक केन्द्रों पर वर्तमान मे उप- पुस्तिका में लेखक ने कुछ अटपटी बाते भी प्रस्तुत की लब्ध पुरातात्त्विक, अभिलेखीय एवं कलागत साक्ष्यों के है। जैसे-(१) पवा जी चौथे कालका तीर्थ है । (७.१०) प्राधार पर विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है (२) वावड़ी से निकली हुई एक मूर्ति पर बि. स.: कि-वे सभी प्रायः समकालीन हैं। पुराणों मे वणित
२६६ प्रकित है । (पृ० १०) उनके स्वरूप के विषय में यहाँ विचार नहीं किया गया
(३) देवगढ़ मे भोयरे का अस्तित्व और उसे-वि. है। अतः निर्वाण काण्ड की उक्त तेरहवीं गाथा के प्रकाश
स० १२० का बताना। (पृ. ६-१०) में, निश्चय पूर्वक यह कह सकना बहुत कठिन है कि
इन तथा ऐसी ही अन्य अपुष्ट बातो पर से सिद्धवास्तविक पावागिरि कौन सा है।
क्षेत्रत्व या क्षेत्र की प्राचीनता स्वीकरणीय नहीं हो मकती। दमी सन्दर्भ में श्री सागर मल जी वैद्य (विदिशा) के इतिहास तथा उपलब्ध साक्ष्य-दोनों ही पवा जी इन प्रयासों का उब्लेख भी प्रासंगिक होगा जो उन्होंने को १२वी-१३वी शती से पूर्व वा सांस्कृतिक तीर्थ नहीं "सत्य की कसौटी पर-पावागिरि सिद्ध क्षेत्र कौन?" सिद्ध करते । देवगढ़ मे कोई भोयरा नही है। नामक पुस्तिका लिखकर किये है। इसमें उन्होने निर्वाण दिगम्बर जैन आम्नाय के तीर्थ क्षेत्रों का परिचय
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१६. वर्ष २३ कि०१
श्री गणपतिदेव हुए थे। इसके बाद यह राजवंश सदा के लिए लुप्त हो गया और बाद में इस क्षेत्र पर मुसल. मानों का अधिकार हो गया ज्ञात होता है।
प्रशस्ति-विवरण : धर्मज्ञ जैसिंह ने उक्त मदिर में एक नागरी लिपि द्वारा संस्कृत भाषा मे उत्कीणित अभिलेख लगवाया था। इस अभिलेख मे ४० पंक्तिया मौर ७० श्लोक है। यह अभिलेख अब ग्वालियर पुरातत्व संग्रहालय मे सुरक्षित है।
इस अभिलेख के सम्बन्ध में मुझे जब यह ज्ञात हुमा कि यह अब तक अप्रकाशित है तो मैंने अपने मनुज डॉ. राजेन्द्रकुमार सिंघई को लिखा। उन्ही के सत् प्रयत्नो से प्रस्तुत प्रभिलेख की शिलाखण्ड से प्रतिलिपि तैयार की गई, जो मुझे प्राप्त हुई। इसके लिए वे बहुत बहुत धन्यवाद के पात्र है।
मैंने सम्पूर्ण प्रशस्ति को (अध्ययन कर उसे) लिपिबद्ध कर बार बार पावश्यक सशोधन किये और उसके उपरान्त उसे अन्तिम रूप दिया है। इस कार्य में त्रुटिया शेष रह जाना संभावित है। अतः विद्वान् पाठको से निवेदन है कि प्रावश्यक सुधार लेखक को प्रेषित कर कृतार्थ करेगे। प्रस्तुत अभिलेख का हिन्दी अनुवाद भी नुझे मावश्यक प्रतीत होता है। अतः भाशा है इस भोर भी विद्वान् ध्यानाकर्षित करने की कृपा करेंगे। मूल प्रति मेरे पास है, जिसे विद्वान् चाहे तो देख सकेंगे। प्रस्तुत पभिलेख का भाषा शास्त्रीय अध्ययन अगले अंक में पढियेगा। मभिलेख निम्न प्रकार है :
भीमपुर अभिलेख
श्री स्वस्ति ॥ भामंडलोय मियत: सवितारमेषा
मासंवितुं दिवस वासव नन्दिनीव (1)। यस्यांशयेल्लसति कुन्तज कान्तलेखा
संश्रेयसे भवतुव:प्रभुरादिदेवः ॥१॥ उद्भासयत्ति यदुपं पुरगेन्द्रचूला १२. ग्वालियर राज्य के अभिलेख : लेखांक-१५६.
१६३, १७४, १७५, १७३। नोट-श्लोक १ वसन्ततिलका छन्द
रत्नप्रदीप कलिकाः किल सप्त संख्या:। तत्वानि सप्त नुदनेकुमतान्धकार (रि)
पाव प्रभुर्भवतु संव वितवायरः ॥२॥ विसं (स्य) समान लवणोदधिमेखलेयः)
माकप मान कुलशेल नितम्ब बिम्बा। यस्मिन्नभूदवनियोषिदि बभुदेवः
धोवीरभ (व)दुरमरावल बालमंस्नात् ॥३॥ यस्याः प्रसाद मधिगम्यजडाशयस्या
प्याभाति सारसविशिष्ट निनाद संम्या । बोशारदीन शिशिरति कौतुदीव (:)
साहन्निश मनास दीव्यतुशारदामे ॥४॥ स्याद्वादविद्यार्णव पार्वणन्दवः
कारुण्यरत्नांकुर रोहणादयः । कोतिप्रभाकेन दिगम्बरश्रियः
भीमलसघे मुनयः पनन्तु वः ।।५।।
इतश्च ॥ यज्वपाल इति सार्थक नामा
संवभूव वसुधा धववंशः। सम्वतः कलित कीतिदुज्ज्वल
छद्दमेकमसृजद्धव नेयः ॥६॥ कुलेकिलस्मिन्न ननिष्टवीर (6)
चूडामणि श्री परमाडिराजः। वारविदाभात्सत तारकश्री:
स्कंदोपि नास्कदति येन साम्य (0)॥७॥ सत्र नाक युवतिमृनस्वली
पत्रवल्लिघनडवरस्पृशि()। चाहः प्रतिनरेन्द्रकाननं
प्लोषदद्रि शिखिमूर्ति उद्ययौ ।। तत्रस्वग्गपुरी पौर, गौरवंशमुपेयुषि ।
नवविरिमाविन्महीजान्निरजायत् ॥ यस्मिन्विलाम कुशलेह दयाधिनाथ
स्थानेक रक्षिपति सागरमेखलेयम् । उत्कंठकानश्रणु कंपवतीव जज्ञे
प्रौढांगनेव नद क्षीरविषणंभावं ॥१०॥ नोट : श्लोक २-४ वसन्ततिलका छन्द । श्लोक ५ इन्द्र
वज्रा। श्लोक ६, रयोद्धता। श्लोक ७ उपजाति। श्लोक ६ अनुष्टुभ । श्लोक १० वसन्ततिलका।
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भीमपुर जैन अभिलेख
मस्मिन्नासेऽपिसूर्य, श्रीसंसर्गमहीभुजे
जैसिंह भमापाल, सतायुवति भूषणं ॥२०॥ नंदत्यासलराजेन्द्र, मीलितारिमुखांबुजः ॥११॥
नानादानं विसरविसरत्कल्पनावारिनिने संग्रामेषु समग्रसाहस रिपु क्षामेभकुंभस्थल
भूयः यंकापवियमनिवद्यशः श्री नमित्वा (?) मुक्तावंतुरिताकृपाण लतिका वाभाति हस्तेभव। भोजेदेव प्रवरनयनं भद्र पीयूष काj. श्रीमन्नासलभूपकिंतु भवतो जेत्रश्रिया प्रेरित:
घौताद्भिस्वन्मगमिषमहापंकितुं मंत्रसिंहः॥२१॥ कंदर्पोत्यवलल एष कदली पूति पविज्ञाक्षरः? ॥१२॥ नाकेशवत्केशवदेवनामा त्वयावषूत भूपाल, गोरक्षेणारियोषिताम
नित्यंसधर्म श्रियहित श्रीः। लोचनेव नपासल्ल, वक्त्रे लक्ष्मीनिरंजना ॥१३॥ यस्याः पितासाकुलधर्महम्में | अस्य प्रतापकनकं रमलयशोभि
वैराजतिश्री दयिता तदोया ॥२॥ मुक्ताफलरखिलभूषणविभ्रमाया।
सासप्त गोत्रे विसप्तविम्बो पावोन लक्ष विषयक्षिति पक्ष्म लाल्या
साक्षाकृतीन्सप्त संतानभूत ()। मास्तेपुरं नलपुरं तिलकायमानम् ॥१४॥
मेहारत्रेश्रोजिनधर्मभानो प्रय॥च
राविभ्रतः सप्त तुरंग पं(भं)गी ॥२३॥ भ्रमरहित विकासः प्रीतसच्चक्रवर्ग:
तेषामुदयसिंहाख्योपरिचितघनपकं नालसत्वदधानः ।
मुख्यसिंह इवैधते। जयति भवन लक्ष्मी विश्वमागारभूमिः
निभिद्य कलिका तेयं कमलवनसनाभिजैसवालान्ववाय ॥१५॥
कान्ति (कोति) मुक्तावली किरन ॥२४॥ एतवंससुधाम्नोषि, सुधादीधिति उद्ययो
अद्यापि कि वहति दूर दखिमयसाददेवः सुधीपूर्वमपूर्वमति बंधवः ॥१६॥
विश्वं वितातिमयिदोस्च्यवनकदोवि। पर्वाक भावं भुविभोरुवर्ग
कि दक्षिणस्वनयाणिरितीव कोपं पन्नामकुर्वन्नपियञ्चकारम् ।
दुर्धर जलीत्युदयसिंह सश्चोण शोधिः ॥२५॥ सधीकुमारः सुकुमारबंधो
त्यश्चर सोमर मन्दिराल गरलं. पीयूषदायेतदपत्यमासीत् ॥१७॥
नित्यं जलात्कोस्तुभ मोमणस्वहन तस्यनन्दन
स्वाहावल्लभमाविहाय भुजयोचन्दन विवयशोभिरुज्ज्वलः।
शिंमुरावेरपि । पूर्वपुरुष वियोगमेदिनी
सेखत्या विशिली मुखालि विषमा मेदिनी शशिमुखी मुपाचरत् ।।
दाम्नोरुहाधिन्यती चेतः श्रिता केतकगर्भगौर.
पावत्योदयसिंह मन्तदुरितं गिरः शरच्चन्द्र सुधांसुधर्माः।
___षामाप्रति श्री ध्र वम् ॥२६ शीलपियामंगलसौषमंग
श्रृंगारसिंहस्वदद्धि होते राजल्लदेवो गहिणीव सूया ॥१६॥
शृंगाररत्नं सु विवेकभाजाम वाकुक्षिरोहणक्षोणि, माणिक्यं धौतवेभुवि
तत्तोऽनु भू राजति राजसिंहः नोट ; श्लोक १४ वसन्ततिलका। श्लोक ११, १३, १६
केलीवयं नसकितेकतानः ॥२७॥ अनुष्टुभ । श्लोक १२ शार्दूलविक्रीडित । श्लोक १५ नोट : श्लोक २०, २४ अनुष्टुभ । श्लोक २१ मंदाक्रांता। मालिनी । श्लोक १७, १८ इन्द्रवजा। श्लो. १८
श्लोक २२, २३, २७ इन्द्रवजा । श्लोक २५ वसन्तरथोता।
तिलका । श्लोक २६ शार्दूलविक्रीडित।
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१८, वर्ष २३ कि. १
अनेकान्त
तस्यानुजन्मासुकृतार्थजन्मा
जन्मानसः खेल्लति वीरसिंहः । यशः पराभूत सुधांशु धामा
तस्यानुजोलक्षणसिंहनामा ॥२८॥ मस्ति विपश्चितारन
रत्नसिंह तदन्तिमः । लधुनयन सिंहास्य
तस्मात् दप्पलघुर्गणः॥२६॥ (भ्रातरि) राजसिंहस्य,
सारिष्टाऽजगुणिबंध चतुरश्चतुराम्भोधि ।
विभुतान्सुथुवेसुतान ॥३०॥ कर्मसिंहः पुराभूषा, देन्द्रसिंहभ्रातानुजः
तृतीय पासिंहाल्यो, धर्मसिंहश्चतुर्यकः ॥३१॥ मायभूभारसिंहस्य माभालेदुमडाभिषि।
प्रेयश्री राजसिंहस्य, पयोपि पत्र प्राकृतिः ॥३२॥ नाम्नाविजयदेवोति वीरसिंहस्य मेदिनी।
पवित्रवरितस्तस्याः, धर्मसिंहश्चतुर्थकः ॥३३॥ मन्यान्यची स्वाक्ष (स्वान्ते),
जनसिवान्तपाविति । बंत्रसिंहः प्रबुद्धामा
[चिन्तयामासिवानिति] ॥३४॥ नित्येक जैनेन्द्रकृत प्रतिष्ठो
चिह्रस्वतोभूवणगेन्द्रणेन्द्रः । साकेतकनाथ कृतप्रसिद्ध
संकटाख्यः पुरुषोतमः प्राक् ॥३५॥ प्रस्मत्कुलालंकृतयेवभूव
रख्योपि धन्या: मवि जंत्रसिंहः । विमृश्य तन्नामनवीचकार
....... कृत जैनसोधः॥३६॥ व्योमोरागाकिमयमर
द्या(द्वी)पिनोवारिपूरः । पृथ्वीपीठे पतति यदि वा
तुंगमीशाद्रिशृंगं ।।
वेलः सैलः किमतधवल
क्षीरसिन्धमिधौतन्नानेयामजिनवरगहं
राजते जंत्रसिंहः ॥३७॥ श्रीपौरपाढान्बय जैनवर्गः
धुरंधरः श्रीधरबन्धु सूनुः प्रखंडधोः खडित चंडरादे
खंडभिये हंसति नागदेवः ॥३८॥ तस्यानुजो चाहडगागदेवो
स्वकीति वाचालित नागदेवः सुतान भावादिम मानदेवः
कर्याकृति सन्लघुसोमदेवः ॥३६॥ थियं माहेन्द्रमण, नागदेवमनीषिणा
प्रतिष्ठा चाकृताधोत्य, निषोनुग्नीन्दुवत्सरे ॥४०॥ गुर्वावि गुर्वगुरुपर्वतवन्पदंडः
श्रीखंड कीतिमहिमामरकोतिदेवः । सौषामृतार्णवविषुश्चवसन्नदेव.
प्रातिष्ठकृत्यविषयेऽगुरुर्बभूव ॥४॥ श्री जसवालान्वय पारिजातं
वाल प्रवालचरितार्थनामा प्रफुल्लयनुल्वण कोतिमलजी:
श्रेष्ठोधनीराजतिमाषराङ्गः ॥४२॥ तत्सूनदेवसिंहाल्य
षीणां लोलानिकेतनं । गुणाकरवम्विन्दुः। ?
श्रद्धावल्लिनवाम्वदः ॥४३॥ वीराख्या गुहणी तस्य....।
प्राकसलक्षणसिहाह्वः कृत्यसिंहसुतः परः ॥४४॥ जसे साधू तनू जन्मा, साघुविजयदेवकः ।
शृंगारदेवी तज्जाया, निर्मायाधर्मकर्मह(सु)॥४५॥ तद्गर्भसंभवौशोभा, वैभवध्वस्तमन्मयो... (या)। संतनयो तनयो जयौभ्रात?,' देवायदेवको (?) ॥४६॥ नोट : श्लोक ३७ मन्दाक्रान्ता। श्लोक ३८, ३६ उपेन्द्र
वजा । श्लोक ४०, ४३ से ४६ अनुष्टुभ । श्लोक ४१ वसन्ततिलका । श्लोक ४२ इन्द्रवज्रा।
नोट:श्लोक २८, ३५, ३६ इन्द्रवज्रा श्लोक २६-३४
अनुष्टुभ ।
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भीमपुर जैन अभिलेख
जनश्रेष्ठीसंतांश्रेष्ठः परवाडकुलाग्रणीः ।
ससव्यसनसप्तावि संतापशमनांबुदौ कलिसन्तापितक्षोणि, चन्दनाकृत कोतिक: ॥४७।।
गंगाकमणि धोरयो साधुमाघ......॥६॥ सहदेवसुमाधुर्य, वाचावर्षः कलापितां
कृतावतति जीमूतः पूतषी (वीरवि) विधः प्रनय कुकृत्यानां मसत्यानामतापदा ||४||
तदननामासुधी: पाद यशसांशिशितेजसा ॥६॥ सव्येतरं प्रवरपाणिसरोजरंध्र
साघुभालू सुतो सत्य शोलोछीहलवीहलो
प्रगति विवधानादौ गंधिण भेषजाविव ॥६॥ नि:सांदमागगनदानजलेन जाने । जंबालभूमनियश: श्रितपंकजाली
पौरपाटकुलविद्यभूधरे धेनाकसाधरनुवईयतेधरित्र्याम् ॥४६॥
भद्रजातिमहिमन्युदोपतो श्लोक ५०....."अपठनीय है।
उद्यश: कुसुम सौरभेदिसा सुवर्ण चरितं येन, कलिकालकार्षापले
__ मर्पयन्नवित योय.....॥६३।।
एतस्मिन्नाहतेवाचं जिनार्यालयकारिणः शुद्धि दधाति साधूनां, चाहड: शेष शेखरः ॥५१॥ श्लोक ५२....."अपठनीय ।
वर्धन्तां गोम्निका: ? पुष्य, वनकंदलनांदः ॥६४।। गम्भीरनादः कृतनीरजाश्चः
चन्द्रांशुमत्कालिमंडितेयं
तारालि मुक्ताफल हारयष्टि: स्वर्येण सन्तुज्जित (चा) रुचल: ।
चकाद्यियावद् गगनस्य लक्ष्मी दानावदातलिराजकल्प
जनालयं नन्दतु ताववित् नु ॥६५॥ स्वल्पंश्रियांत्तश्चनुसाधु वाचे ॥५३॥
अस्योकेशगणारविन्द तरणि: श्रीदेवगुप्तः प्रभुः साधराजः पराभूत
यास्थानक्क्षण तोषितक्षितिपतिः श्वेताराखावुलः । कुतीर्थयक्षसंकृक्षः।
मासीदनसमग्र वाटिकरटि क्षादक पक्षानतंहृदिसधजराक्वापि
सूत्पादागजरान्नदेशमहिमा श्रोवीरचन्द्रः कविः । ६६ धात्रो वेमलानहतम् ॥५४॥
तस्माज्जगमभारतीति जगति, ख्याताभिधानावगुरोमांढचाहनामानो
ऊररेन्दोग्धि (म)गत्य सत्यमहिम, वाजिष्ट सारस्वतम् । गाढरागोजिनाधने ।
संसिद्धावरसिंधुचंदवगिरा शुद्धिः सुधानोरजो गुणकेलकविस्मर
श्रीषः प्रोतपदाप्रप्रशक्तिमकृत श्रीदेवचन्द्रकृति ॥६७।। तानवर्षागमोषमो ॥५५॥
वास्तव्यान्नय कायस्थ, शेखर: शरदात्मजः । शक: सावकदस्य ग्रामणी गुणशालना
प्रशस्तिमाल्लिखद्वेष, विमातोजा समुद्भवः ॥६॥ पण्डित: पंडिताशेष, भिषवीथी कुलाभिषः ॥५६॥ ततः कस्यपगोत्रसो पापेक: सूत्रधारकतमश्छेव विधिच्छेक गाविदार्णसुदर्शनम्
श्चामदेवो सुतस्तस्य प्रशस्तिवोचकारसः ॥६॥ सत्यो नारायणः श्रीमान् भाति माथरवंशजः ॥५७ श्रीमान श्रीजयमलो ववश्रीजलेशं. ...कुलवर: गंध वन्धश्च भृगुनन्दनः।
लोकोपकारकरणे अनुरक्त नन्दिः । सौजन्य वल्लि पर्जन्यं सव्यसाखिल दूषणो॥५॥ शंमाव्वकामण गलोसिषिला कलानां जैणापाल: कृपालुनाम् सद्धर्मासुषाम्बुषिः
साहंसधर्मलख.........."||७०॥
संवत् १३(१६)। प्रङ्गस्ति क्षुधापालनाङ्कः श्रीजनाराधने धनी ॥५६ -
नोट : श्लोक ६० से ६२ तक अनुष्टुभ । श्लोक ६३ रथोनोट : श्लोक ४७,४८ अनुष्टुभ । श्लोक ४६ वसन्ततिलका।
मृता । श्लोक ६४, ६८, ६६ अनुष्टुभ । श्लोक ६५ श्लोक ५१ एवं ५४ से ५६ तक अनुष्टुभ छन्द । इन्द्रवजा। श्लोक ६६, ६७, शार्दूलविक्रीडित । श्लोक ५३ इन्द्रवज्रा।
श्लोक ७० वसन्ततिलका छन्द ।
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चित्तौड़ का दिगंबर जैन कीर्तिस्तंभ
श्री नेमचन्द पन्नूसा जैन
अप्रैल १९६६ के अनेकान्त के अंक में पृष्ट ३६ पर साहु नायक के सुपुत्र साहू जीजा ने यह मानस्तंभ निर्माण रामवल्लभ सोमानी (जयपुर) ने चित्तौड़ के दि. जैन किया । साहु जीजा के जीते जी ही या इस कार्य को कीर्तिस्तंभ के बारे में पूरा और निश्चित प्रकाश डालने आँखों देखनेवाले के जीते जी ही 'अनुमीयते' याने अनुमान वाले तीन शिलालेख प्रकाशित किये हैं । तीनो लेख अपूर्ण करना उचित नही लगता। प्रतः साहु जीजा के सैकड़ों होते हुए भी अपना-अपना वैशिष्ट्य स्वतंत्रतया प्रतिष्ठापित वर्ष बाद यह लेख लिखा गया है, यह कहना उचित ही करते हैं।
होगा। (१) एक लेख के अन्तिम श्लोक में बताया है
(३) तीसरा लेख बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है । 'तेन सुवा (स्तुता) नत जिने (ना) ना, मुनिगणानां च।
इस लेख के प्रारम्भ के २० श्लोक चले गये हैं । तथा स्थानानि निवृत्येः पान्तु, संघ जोजान्वितं सदा ॥
बीच-बीच मे कुछ श्लोक अघरे ही उपलब्ध हो या
असावधानी के कारण मुद्रण से छुट गये हों। ऐसे श्लोक यह श्लोक संस्कृत निर्वाण काड के बाद लिखा है
२८, २९, ३० तथः ४० व ४१ है । इस कारण अगर और इसका अर्थ भी स्पप्ट है कि इस तरह स्तुत अनत
यह लेख गौरव से देखकर वापिस छपाया जाय तो, कम जिन पौर मुनिगण तथा उनकी निर्वाणभूमि साहु जीजा
से कम त्रुटियाँ रह जायगी और लुप्त प्राय इतिहास को संघ के साथ निर्वाण क्षेत्रों की वदना करते-करते
फिर से उजाला पा जायगा । देखिये--"...उसका पुत्र यहाँ आये थे। या वह यात्रा उन्होने यहाँ खतम की
दिनाक हुआ, इनके धर्मपत्नी का नाम वाच्छी था ।:२१।। होगी। उस समय जो वंदना-भक्ति हुई उसका प्रकाशन
इनके नाम या नायक नाम का पुत्र हुआ। वह हमेशा यहां हुअा है । निर्वाण क्षेत्रों का स्तवन जैसा यात्रा का
धर्मकार्य मे नायक (अग्रणी) ही रहता था ॥२२॥ यह दर्शक है वैसा ही सघ की कामना साहु जीजा के अन्य
विशाल कच्छ (देश) का रहने वाला था। वहां उसने अपने जगह से यहाँ ससंघ पधारने का दर्शक हो सकता है।
प्रासाद के साथ-साथ ऐसे श्री जिन मदिर निर्माण किये, इस लेख की खुदाई साहु जीजा के सामने की गयी होगी,
मानो वे छत्रध्वजादि से तथा उत्तुंग शिखरो से नृत्य ही निदान इस लेख का समय जीजा के जीवनकाल है ही।
__करते हों। ये जिनमदिर सम्यक्त्वी जीवों को पाकर्षक(२) दूसरे लेख के अन्तिम श्लोक के उत्तरार्ध मे रमनीय और कमनीय भी थे ॥२३-२४॥ मुमुक्ष जीवो को लिखा है
मानो भगवान ही स्वर्गसोपान का उपदेश दृष्टव्य ............ स्थितिकृते स्वर्गापवर्गात्तयोः ।।
करा रहे है। ऐसे मदिर की सीढ़ियां तथा भव्य सभायः प्रारिनुमीयते स्वीकृतिना 'जीजेन निर्मापितः'
मडप ऐसा लगता था मानो मुक्ति स्त्री को वरने के लिए स्तंभः सै(व) ......॥ शुभा लोकन कैः ख्याने यह विवाह मडप ही है। इसके उत्तुग शिखर तथा 'वघेरवाल जातीय सा 'नायकसुत जीजाकेन' स्तंभ: कारा- ध्वजादि से ऐसा लगता था, मानो सिद्ध देवता प्रभुपद पितः । शुभं भवतु ॥
का जय जयकार करती हुयी नृत्य ही कर रही हो ॥२४॥ इस लेख से ऐसा लगता है कि, यह लेख साहु जीजा इसकी धर्मपत्नी का नाम (शायद) नागश्री था, जो इनके के निदान एक शताब्दी बाद ही लिखा गया है। जव कि हमेशा साथ रहती। कैसा था यह नाम-अशुभप्रवृत्तिरूप प्राज्ञ लोग भी केवल अनुमान ही करके ही रह जाते थे कि इंधन को भग्नि जैसा, तथा विष या संसार संतति को
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चित्तौड़ का दिगम्बर जैन कोतिस्तंभ
छेदने वाला इस कलियुग में मानो साक्षात् धर्ममूर्ति ही पुण्यसिंह हमेशा विशालकीति यति (संवत १२६६था ॥२६॥ इनके-हाल्ल, जीजु, न्योट्टह, असममिघ, ७१) को भजते थे । ये कुंदकुंदाम्नाय और सरस्वती गच्छ श्रीकुमार, स्थिराख्य ऐसे छह पुत्र थे । ये ससी-विजयी के थे । स्याद्वाद विद्यापति (अजमेरगादि के पट्टाधीश) तथा चक्रवर्ती थे। इनमे जीजु नाम के पुत्र का ख्याल और इस धरत्री पर उत्कृष्ट तपोनिधि थे ॥ ४० ॥ वे जीव दया तथा जीर्णोद्धार की तरफ ज्यादा था। ये त्रिवर्ग कवि, उपन्यास के कर्ता परवादिमद को नष्ट करनेवाले, के प्रभ और जैनधर्म के अनुरागी थे ॥२७॥......... प्रचुर प्रेमरस को बहाने वाले थे। इनका श्रुतभंडार चित्रकूट में श्रीचन्द्रप्रभ का उत्तुग शिखरबद्ध प्रासाद विपुल तथा समृद्ध था ।।४१।। ये योगशास्त्र के अभ्यस्त, बनाना. निर्जन प्रदेशों को नष्टकर-सूरिजी के पाश्रम मीमासक-साख्य प्रादि कूवादि सर्पो का दर्प हरण करने में, तलहट्रि भाग में, खोहर, सांचोर, बूढा डोंगर (गढ़), वाले गरुड़ थे, और विद्युत जैसी चंचल तथा दिव्यवाणी सुमिर, जाने (फल) आदि स्थानों में श्री चैत्य विराज
के धारक थे ।।४२।। इनके शिष्य शभकीति थे, जो तपोमान करके, महादिमगल ऐसे इस मानस्तभ को प्रारम्भ
नुष्ठान में निष्ठा रखने वाले, संसार-विकार से भयभीत कर निवृत्त हुए, पुत्र पूर्णसिंह के ऊपर उसकी जिम्मेदारी
स्वभावतः ही गुणारागी थे। प्रारब्ध के अनुसार मृत्यु डालकर यह धर्मानुरागी महात्मा सुमंगल के लिए इद्रिय,
महोत्सव के समय प्रदेह दशा प्राप्ति के हेतु यह निसारदेह जयी होकर समाधिमरण को प्राप्त हुआ ॥३०॥ यह छोडते समय इन्होने पचाक्षरी मत्र का मध्यस्थ भाव से पुण्यसिंह भी धर्मधुरा को अच्छी तरह से बहनेवाला,
ध्यान किया था ॥ ४३ ।। इनके शिष्य धर्मचंद मुनि जयबन्त हो ॥३१॥ जिम्मेदारी पाने पर दिनोदिन
(सवत् १२७१ से १२६६) थे, जो सिद्धान्त सागर के अभ्यास बढ़ता गया, और विषम परिस्थिति मे भी वे
पादगामी, विख्यात तथा शुद्ध चरित्र थे। इनकी यशःकीतिसपन्न बने ॥३८॥ परंपरा से मिले सद्धर्म को बढ़ाते
कीति नारसिंह से भी बढकर थी, और हमीर भूपाल ने समय अनेक आपत्तियो का सामना करना पड़ा और उस
इनका सत्कार किया था ।।४४।। इनके चरण सानिध्य में धर्मथुरा को अद्भुत रीति से चलानेका विक्रम किया॥३३॥
प्रतिष्ठा योग्य मानस्तभ को धनिक श्रीपूर्णसिह प्रगट करते जिसका पुण्य शिरोभागी शोभता है, चक्रमडल में जिसकी
भये ॥ ४५ ॥ वाणी, त्रिजगत्प्रासाद में जिसकी कीति तथा निर्मल कमल
इस तरह तीनो लेख स्पष्ट करते है कि (१) साहू मे जिसकी धर्मलक्ष्मी शोभती है ऐसा-॥३४॥ यह जीजा के पूर्वज मूल चित्तोड के निवावासी न थे । वे घनिक साहकार अपूर्व है, क्योंकि याचको को इच्छित दान
की किसी नगरी के रहने वाले थे और यात्रा देने पर भी अहर्निश यह अपनी सम्पत्ति को बढ़ाता गया। निमित्त साह जीजा का आगमन यहा हुआ था । (२) साहु सत्पुण्य संचय ही श्रेष्ठ है ॥ ३५ ॥ सपद और शान्तिरूप जीजा ने सिर्फ चित्रकूट में ही कार्य नहीं किया था तो यह ही यह अगीकृत कार्य बहता हुआ विग्रह को भेद कर उनका अन्तिम कार्य था। इसके पूर्व मे मूर्तिलेख मे अमरपद को प्राप्त हुआ ॥ ३६ ॥ दानी लोगों में सिंह उद्धत-अष्टोत्तरशतमहोत्तुग शिखरप्रासाद समुघरणधीर. ऐसा यह पुण्यसिंह जयवन्त रहे, जिसकी कीर्ति कामिनी त्रिलक्षश्रीजिनमहाविबोधारक - अष्टोत्तरशत श्रीजिननेत्र मे अंजनि जैसी स्पष्ट झलकती है ।। ३७ ।। ...क्या महा प्रतिष्ठाकारक-अष्टादशस्थाने अष्टादशकोटिमेरु क्या सुवर्ण, क्या हरि, क्या चन्द, जिसके पुण्य प्रताप श्रुतभंडार संस्थापक-सवालक्षबदीमोक्षदायक-पादि के आगे फीके हैं, ऐसा धर्मधुराधर पुण्यसिंह इस कलियुग अनेक विशेष गुणों पर इन शिक्षालेखों से प्रकाश पड़ा है। में जयवन्त हो ॥ ३८ ।। एक-सुमेरु, सुरगुरु, हरिमुरारी, अकोला के सेनगण दि० जैन मदिर मे मूर्तिलेख को प्राप्त रुद्र-समुद्र, चन्द चन्द्रिका, इन सबसे पुण्य मे उन्नत तथा । होने पर मै सोचता था कि, चित्तौड़ के गौरव का उल्लेख बुद्धि से निर्मल है, तथा स-पूर्ण रत्नों के सहित होने से करने वाली सामग्री वहां से सैकड़ों-हजारो मील दूरी पर 'पृथ्वी पर यह पूर्णसिंह नाम से प्रसिद्ध है ॥३६॥ पर प्राप्त हो सकती है, तो क्या उसके इर्द-गिर्द प्राप्त न
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२२, वर्ष २३ कि० १
अनेकान्त
होगी? जरूर होगी। और उसी भावना से मैंने उस चैत्यालयस्याग्ने निजभुजोपार्जितवित्तबलेन श्रीकीतिस्तंभ मूर्तिलेख (स. १५४१) को प्रकाशित किया था। उक्त भारोपक साहु जीजा सुत साहु पुनसिंहस्य 'माम्नाये'... शिलालेखों से नष्ट हुयी सामग्री को अन्य जगह का संशो- आदि स्पष्ट लेख है। 'आम्नाये' इस शब्द को टालकर घन करके तथा भाटो के पास की वंशावली से प्राप्त हो संवत् १५४१ के मूर्तिलेख मे उद्धत सभी घटना को उसी सकती है। वहां के विद्वानों से इसकी उपेक्षा करना कालीन बताया त्यागी तथा सत्यशोधक ऐसे मुनि जी को अनुचित होगा।
कितना उचित है, इसका वे ही विचार करे। 'खण्डहरों तथा लिखते समय समाधान होता है कि जिन का वैभव' किताब में भी ऐसी अनेक बातें उल्लिखित हैं। मूर्तिलेख से मुनि कांतिसागर ने इस कीतिस्तभ को १५- उन सबका वे स्वयं परीक्षण करेंगे और सही घटनामों १६ सदी का ठहराने की कुचेष्टा की उस मूर्तिलेखकों को पर प्रकाश डालेंगे ऐसी मैं उनसे प्रार्थना करूंगा। साथ मुझे देखने का सुअवसर मिला। और उसमे 'श्रीमत् ही साथ साहु जीजा तथा पूर्णसिंह के मूल स्थान, कार्य वृद्धसेनगण घरान्वये' न होकर' श्रीमन वृषभसेनगणाथ रा- गुरु परपरा इसके ऊपर विद्वान अधिक प्रकाश डालेंगे। न्वये'...श्रीमेदपाटदेशे चित्रकूटनगरे श्रीचंदप्रभजिनेन्द्र ऐसी शुभ कामना के साथ मैं इसको समाप्त करता हूँ।
ढूंढाड़ी भाषा की जैन रचनाएँ
डा० गंगाराम गर्ग
राजस्थान की मारवाड़ी, ढुंढाड़ी, मेवाती, हाड़ौती न जा सका। प्रस्तुत निबध में पाच मन्दिर टोंक मे उपआदि विबिध बोलियो में प्रथम दो बोलियाँ ही साहित्यिक लल्घ दो गुटकों में विद्यमान कुछ दूढाड़ी रचनाओं का पद पर प्रतिष्ठित हो सकी हैं। मारवाडी (मरु भाषा) विवरण दिया जा रहा है :मार ढूंढाड़ी को साहित्कि गौरव प्रदान करने में क्रमशः १. नेमनाथ कल्याणक वर्णन :-इसकी रचना पोष श्वेताम्बर वोर दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वानों का बड़ा शुक्ला ११ सदत् १७५४ को ईसरदा ग्राम में हुई। प्रथ के योग है । मारवाड़ी के समान ढढाडी मे भी पिछले चार- रचयिता अनूपचन्द वरवतराम सघी के पुत्र थे । इसमे पांच सौ वर्ष तक की पर्याप्त रचनाएं गद्य और पद्य दोनों ६३ दोहे और सोरठे है। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे तीर्थंकर ही विधाओं में उपलब्ध है किन्तु प्रसिद्ध विद्वान अगरचंद नेमिनाथ जी का गुण गान किया गया हैनाहटा द्वारा संवत् २०१० मे ही इस ओर संकेत दिये तेरे गुन समरन करे, नति प्रति मन वच काय । जाने पर भी ढूढाड़ी के साहित्य की तरफ अधिक ध्यान सोनर सूर सूख भगति के निसचे सिव सुष पाय । १-२. राजस्थानी जैन साहित्य मरुभाषा मे बर्णयो है। पचकल्याणको के वर्णन में जन्म कल्याणका के उत्सव
इसमे श्वेताम्घर सम्प्रदाय के खरतर गच्छीय विद्वानों की झांकी अधिक प्राकर्षक हैद्वारा रचित साहित्य अधिक है। दिगम्बर विद्वानां अठ जोजन ऊंचो करयो, एक कलस को भेव । ढूंढाड़ी भाषा मे भी साहित निर्माण किया है। पीर समूद जल ल्यावहीं, इन्द्रादिक सब देव ।२३ राजस्थानी गद्य साहित्य : उद्भव और विकास, प्रभु के सिर पर ढारिक, करे कल्याणक सार । ५, पृ० १८९।
अपनी बुधि सम बीनवै, मघवा बारंबार ।२४
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ढूंढाड़ी जैन रचनाएँ
पीछे इन्द्राणी सब, प्रभु को रूप निहारि । भणिमय आभूषण सबै, पहराये अतिसार ।।
'नेमनाथ कल्याणक वर्णन' तेरहपथी मन्दिर टोंक में प्राप्त गुटका नं० १०० ब के पृष्ठ ३१-३८ पर संग्रहीत है । २. नेमीसुर जी की वीनती - इसके रचयिता मोहनसागर के शिष्य मनरूप है । कवि ने अपने गुरु को सकल कलानों में प्रवीण कहा है। नेमिनाथ जी के वैराग्य की कथा में राजमती विरह का प्रसंग बड़ा मर्मस्पर्शी हैराणी तो राजत बीनबं थान्हा आदि सनेह | नवभव केरी प्रोतड़ी हो नेम जो, थंजिन छांड़ो नेह । लाग शाहिमी जेम कहै, और वरो भरतार | नवभव हो प्राडो, हा नेमजो, सावलियो सरदार । समझाई समुझे नहीं, राजल राज कुवारि । वोछे जल ज्या मछली, हा नमजी, करती दुष अपार । यह रचना तेरहपंथी मन्दिर टोंक मे विद्यमान ग्रंथांक १०० ब के पृ० १४५ १४६ पर संगृहीत है ।
३. बीनती मलूकदास - मलूकदास की यह विनती उक्त ग्रन्थ के पृ० १४६-१४८ पर प्रकित है । कवि ने प्रारम्भ में शारदा और गुरू की स्तुति करते हुए जिनेन्द्र की महिमा का वर्णन किया है
जिण जी गढ़ गिरनारि सुहावणं, जिण जी जीठ है सध्या नेमकुवार | जिण जी तप कीयो केवललीयो, जिण जी पहुच्यो है मुकति मुझारि ।
जिण जी इन्द्रादिक सेवा करें, जिण जा इन्द्राणो गावं छं गोत, जिण जी मलूकदास की वोनती,
जिणजी रासो चरना पाति ।
४. रिषभ जी को मंगल- उक्त ग्रन्थांक के ही पृ० १०३ - १०५ पर रूपचंद कृत 'रिषभ जी को मंगल' संगृहीत है । ढ़ा० प्रेमसागर जैन ने 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में पृ० १६८-१७४ पर पाण्डे रूपचन्द के कई ग्रन्थों की चर्चा करते हुए उन्हें हिन्दी का समर्थ कवि माना है। 'रिषभ जी को मगल' उन रचनाम्रों के प्रतिरिक्त ढूंढाड़ी में ११ छद ली छोटी सी रचना है। आदि तीर्थकर ऋषभदेव के जन्म से लेकर समवशरण तक
इसमें
का सक्षिप्त वर्णन किया गया है। समवशरण की छवि दृष्टव्य है समोसरण प्रति है वड़ो, दीठड़ो, चउमुख देव । अमर सचर नर सेवक बाजो, नर प्रति बय्या जो 15 हाटकवणो सरीर हौ, उतऱ्या जण भवतीर, गरिवा हो गणधर धारक, चौरासी बण्या जी ॥
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५. सवा सौ सोब : तेरहपंथी मन्दिर, टोंक के ग्रन्थाक ५० ब के पृष्ठ ११६ १२२ पर यह रचना सग्रहीत है । इसके लेखक विजयहर्ष हैं। श्री विजयहषं ने इसमें ३५ छदों मे सवा सौ शिक्षाये लिखी हैंभोजन उपमा न कहै भूडो, अपणी जाति बिचारै ऊडी । जिण सांभलता उपजे लाज, एहों मैं कहै बयण अकाज |
२३
६. कलियुग महिमा - उक्त ग्रन्थांक के पृ० १२६१३० पर १० छद की 'कलियुग महिमा' उपलब्ध है । इसके लेखक करमचद हैं । कवि के अनुसार कलियुग के दोषों ने ही उसे रचना लिखने के लिए प्रेरित किया है। कलियुग की विडम्बनाम्रो के सम्बन्ध में कवि तुलसीदास जैसे विचार ही प्रकट किये गये हैं। नीच तणाइ घरि लिषमी लोला, उत्तम घर उडायौ । निरधन नै घरि बेटा बेटी ।
धनवत एको न पायो रे । ६ संघाते बेटो, घणो मनोरथ जायौ ।
न मिले बाप
हाथ उपाड़े, मान ताड़े, रमणी ने उम्हायो रै ॥७
७. हितोपदेश वैराग्यरूप - उपर्युक्त ग्रन्थाक के पृ० १३८-१३६ पर यह रचना संगृहीत है। इस रचना के लेखक महमंद है - 'महमद कहै वस्तु बौरीय, जे क्यों श्रावे रे साथ । ससार की नश्वरता का बोध कराना ही रचना का उद्देश्य है
भूलौ मन भमरा काई भमो भमौ दिवस नै राति । माया नौ बांध्यो प्राणियों, भमै परमल जाति । २
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२४, वर्ष २३ कि०१
अनेकान्त
को ना छोरू को नांवाछरू को न माय नै वाप। श्री नौकार का परभाव से प्राणा जाय छै एकला, साथे पुन्य नै पाप ॥३ अर कट करम की पासी ॥१०
. बीनती मनोहर-मनोहर कवि द्वारा लिखित ८ १२. जिनवाणी:-तेरहपंथी मन्दिर टोंक के गुटका छंद की 'वीनती' तेरहपथी मन्दिर के ग्रन्थांक ५० ब के नं. ५० ब के पृ० ४४, ४६ पर किसी अज्ञात कवि की पृ० ६७-६८ पर अंकित है। मनोहर ने इसे चाकसू
यह रचना उपलब्ध है। इसमें ससार की नश्वरता बत(चम्पावर्ती) में लिखा। 'वीनती' में कवि ने भगवान्
लाते हुए जिन वाणी को धारण करने का उपदेश दिया शान्तिनाथ के दर्शन की उपलब्धि का वर्णन किया है
गया हैरोग सोग दुष ढंद गया, जिण के देषता रे हां।
लष चौरासी र जीबड़ा तू ज़ोनिनों में जी, रोम रोम आनंद भयो, प्रभू पेषतां,
तु तौ फीरीयो छै बार अनंतो। चरण सफल करि जात, धात करि पाप की।
दुष दुरगति का रै जीवडा ते भोगिया जी, पंनि भरे भंडार सार करि प्रापकी
ते तो जाण्यो नै जीण को महंतो। मंगला कोड़ि कल्याण हुवा जिण गावतां,
१३. जीणबाणी-उक्त गुटके के पृ० ४७-४६ पर मंदिर देषि जिणंदा सुभावन भावता।
६ छद की एक दूसरी 'जीणवाणी' भी है । 'इसमें 'कुमति' ६. 'वधावी-उक्त ग्रन्थाक में उपलब्ध हर्षकीर्ति को प्रतारणा दी गई हैकी इस रचना में भगवान ऋषभदेव के जन्मोत्सव का तेरी संगति कौन भलै री, मीथ्या ममता सषी तेरी। वर्णन किया गया है । इस रचना मे ११ छद है
जा के घट न बैठ न पावै, वाकौं दुरगति लै पहोचाव। श्री बाजा बजिया घरां जहां जनम्या है श्रो
१४. जिन भक्ति-उसी गुटके के पृष्ठ ४२-४४ पर रीषभकुमार।
एक रचना 'जिनभक्ति' है। इसमे जिनभक्ति के द्वारा बाजा बाजिया घरां राजा नाभि वधावरणां घरां,
तरे हए प्राणियो की चर्चा करते हए जिन भक्ति की मरुदेवी कुषि लीयो अवतार ॥२
महिमा गाई गई है--- १०. बीनती चन्द्रप्रभ को-हर्षकीति की 'बघावो' सिंह स्याल सम ह चल, मदगल मद तजि जाय । रचना के के बाद उपलब्ध ८ छदों में यह रचना भोनराज जिनवर नाम प्रभाव स्यौं, सरप माल सम काय। की है। रचना का प्रारम्भ सरस्वती और सद्गुरु की वंदना
१५. सहेल्यो गीत :-उक्त गुटके के पृ० ८२-८४ से करते हुए कवि ने चन्द्रप्रभु के गुणो का गान किया है
पर अकित 'सहेल्यो गीत' सुन्दर कवि की रचना की है। ता को तो ग्यांन अनंत हो भव्य प्राणी,
डा. प्रेमसागर जैन से सुन्दरदास कवि की रचनामों की जी हों पार न को पावै नहीं जी,
चर्चा हिन्दी जन भक्तिकाव्य और कवि मे पृ० १६१-१६४ सुरनर करही विचार हो भव्य प्राणी,
पर की है। उन्हे ७ पद्य की रचना 'धर्मसहेली' वधीचंद जी हो जिनका गुण गावै सही जी।।
मन्दिर जयपुर मे प्राप्त हुई थी। किन्तु 'सहेल्यो गीत' में ११. श्री नोकार :-ग्रन्थांक ५० ब के गुटको मे ही १० छद है। फिर भी दोनों रचनाए एक भी हो सकती पृ० ४६-४७ पर अज्ञात कवि की रचना 'श्री नोकार' है। कवि ने सख्य स्थापित करके मन को प्रबोधन दिया . संगृहीत है। इसमें ११ छंदों में श्री नमस्कार मंत्र से तारे हैगये प्राणियों का नामोल्लेख करते हए उसका चमत्कारी सहेल्यो हे नरक निगोद्या मांहि, प्रभाव कहा है
रुलि आये चीरु काल को जी, हो आगे जी मुकत्या वै गया,
सहैल्यो है जहां कोई अपणो नाहि, अरु और भी वे ही जाइ।
दुष सहै तहां एकलौ जी ॥३
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ब्रह्म साधारण की पहली कृति कोइलपंचमी कहा
डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
कवि ब्रह्मसाधरण अपभ्रंश भाषा के कवि हैं। उनके प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण, नरेन्द्रकीति, विद्यानंदि मौर द्वारा लिखित कोइलपंचमीकहा, मउड सत्तमीकहा, रवि. ब्रह्म साधारण । वयकहा, तियालचउवीसी कहा, कुसुमंजलिकहा, निसि. प्रस्तुत कथासंग्रह की यह प्रति वि० सं० १५०८ की सत्तमीवयकहा, णिज्झरपंचमीकहा और अणुपेहा उपलब्ध (सन् १४३०) की लिपि की हुई है। अतः कवि १५वीं हैं। संभव है, उन्होंने और भी ग्रन्थ निर्मित किए हों। शताब्दी के अन्तिम चरण मौर १६वीं शताब्दी के पूर्वार्ष जैन मन्दिर व शास्त्र भण्डारों को देखने से अन्य ग्रन्थों की का विद्वान हो सकता है। प्राप्ति संभावना बढ़ सकती है। उपलब्ध रचनामों को यहाँ कोइलपंचमीकहा को मूलरूप देने के साथ ही रच कर विराम नहीं ले सकता। निश्चित ही उन्होंने उसका संक्षिप्त हिन्दी भाषान्तर दिया जाता हैअनेक ग्रन्थ लिख कर साहित्यिक क्षेत्र में विशेष योगदान जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रान्तरगत कुरु जंगल देश स्थित दिया होगा।
रायपुर नामक नगर में वीरसेन राजा राज्य करते थे। उसी कवि की उक्त रचनाएं एक ही जगह संग्रहीत है। राज्य मे धनपाल सेठ अपनी धनमति के साथ सुखपूर्वक अभी तक एक ही प्रति उसकी उपलब्ध हुई है, जो कि
रहते थे । उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी। श्रद्धेय पं० परमानन्द जी के पास है। उनकी कृपा से यह
जिनमति कुशलगृहिणी और दान पूजा में अभिरुचि रखने प्रति मुझे सम्पादन के लिए प्राप्त हो सकी। तदर्थ मैं वाली थी, परन्तु उसकी सास धनमति को जैनधर्म से शास्त्री जी का अत्यन्त प्राभारी हूँ। बे संस्कृत, प्राकृत,
हात पान अधिक प्रेम नहीं था। दोनों के बीच यही एक खाई का अपभ्रश, हिन्दी व भारतीय इतिहास के मूर्धन्य विद्वान
कारण था। हैं। पाठादि निर्धारण में उन्होंने यथावश्यक सहयोग
कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ दिया है।
समय बाँद विषण्णवदना धनमति का भी देहावसान हो
गया और पापकर्म के कारण उसने अपने ही घर में कोयल प्रस्तुत कथासंग्रह की प्रति अच्छी है, प्रक्षर सुवाच्य हैं । कुल पत्र वीस हैं । प्रत्येक पत्र १०॥ इच लम्बा और
का जन्म धारण किया। दुर्भाव वशात् वह जिनमति के ४॥ इच चौड़ा है। पत्र में प्रायः १२ पक्तियाँ हैं । हर
शिर मे हमेशा टक्कर मारकर उसे दुःखित करती रही। पंक्ति में प्राय: ३५ अक्षर है। प्रत्येक पत्र के बीच में एक दिन श्री श्रुतसागर नामक मुनिराज वहाँ माये। वृत्ताकार ताडपत्रीय प्रतियों के सदृश कुछ जगह छोड दी वे अवधिज्ञानी थे। घनभद्र व जिनमति ने उन्हें पाहार गई है जो प्रति की सिलाई के निमित्त रही होगी। कहीं- दान देकर कोयल की गतिविधियों के सन्दर्भ में प्रश्न कही छेवा लगाकर प्रति को सुधारा भी गया है। किये । मुनिराज ने बताया वह तुम्हारी जननी है। मुनि ब्रह्म साधारण ने इन कथाओं के प्रादि-अन्त में अपना
के पाहार दान में अन्तराय डालने के कारण वह कोयल
क आहे परिचय नहीं दिया और न रचनाकाल का समय ही दिया हुई। धन व लब्धि प्राप्त करेगी। इसके बाद संसार की है । मात्र उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का निर्देशन अवश्य प्रासारता का वर्णन किया और पांच वर्ष तक मासाद किया है । तदनुसार वे प्राचार्य कुन्दकुन्दान्वयी परम्परा मे १. शास्त्री पं० परमानन्द जी, प्रशस्ति संग्रह भाग २, हुए थे। उनकी गुरु परम्परा इस प्रकार है-रत्नकीति, प्रस्तावना, पृ० १२८ ।
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२६, वर्ष २३ कि० १
अनेकान्त
कृष्ण पक्ष में उपवास करने पर उद्यापन करने को कहा। जिण पुज्जा घणभद्दो जिणमह दाणरया ॥
यह सब सुनकर कोयल मूछित हो गई। जल सिंचन विविह पहावण विरहि पालहि जीवदया। कर उसे सचेत किया गया। पश्चात् वह धर्मोपदेश श्रवण पडहु देखि ण सक्कद दुम्भासहि रज्ज। कर सन्यास पूर्वक दिवगत हुई।
कोहाणल संजुती सुण्हहिं सिरे पडइ । दम्पति ने भी कोकिल पंचमी व्रत विधिपूर्वक पूरा परि वि सतह लोयहं टंकर देइ खणे ॥ किया भोर समाप्त होने पर उसका उद्यापन किया। जिणमइ वह संताविय जाणिय अप्प मणे । कालान्तर में वे भी सलेखना पूर्वक स्वर्गवासी हो गये। तहिं भवसरि सुयसायरु पत्तउ तासु घरे ॥
जीव दया पालन करने का यह फल है। कोकिल प्रवहीसह पडिगाहिउ जिणमइ भत्तिकरि । पंचमी व्रत इसकी प्राप्ति का साधन है।
उच्चासणि पय-खालिय भोयण झत्तिकउ ॥ कोइलपंचमीकहा
मखयदाण भणि मुणिवह पवराणि ठियउ ।
बंदिवि जिणमइ पूंछिउ पखिणि वावरिउ । रिसहपह जिण पविवि सरसइ चित्त परि।
गेह कवाडे लोणी पेक्खइ मणिचरिउ ।। कंदकुंदगणि पह-ससि 'पंकयणंदि' भरि ॥ गुह भायर हरि भूसण णिज्जिय पंचसरे ।
भवहीसरु मणि भासइ पइ सुणहि थिए। गुरु 'परिद कित्ती' सर विमाणवियरे ॥
एह जणि तुवणाह हो षणमइ मुइयचिरु । बंदभि वयंविहि भासमि णिसिणउ भाउकरि ।
अन्तराय मणि दाणहो पाविय दुक्खभरु॥ जंबुदोउ भरहंतरि 'कुरु जंगल' वरिसे ।।
मुणिवरवयणं देहि मपच्छत्तावसरु । सुरसरि बलकल्लोलहि अवलिय रायपुरे।
हाहा माणुस णिग्घिणु सावय मग्गचुउ ॥ 'पोरसेण' णिव पालिय वज्जिय चोरणरे ॥
हिंबह भव सरिणाहे दुक्खन यजुभो। पट्टपरिणि सुहमह मिग-णयणि ।
सामिय तह उवएसह जह मणुयत्तभवे ॥ बणि धणवाल पुरषिणि षणमह ससि-वर्याण ॥
पक्खिणि तुव गिर पाले वि गच्छा लडजवे । तणाहगुणसंपण्णउं षणभद्दो पवरू ।
मणिवर भासह कोइल पंचमि विहि करह। वणिजिण भत्तहो गंदणि जिणमा गहियकर ।
तिमिरपक्खि प्रासादहिं उबवासे चरह। पुज्जमहिम मुणिभोयण साविय दिढ कुसलि ।।
पञ्च परिस कत्तिय तम उज्जवणउ णिसुणि ॥ सुन्हा चरण ण भावइ सासुहि विहिय कलि।
साम वण्ण जिणणाहहो पुज्जाण्हवण मणि । दाणपुज्ज विरयंतहं कलहु जि होइ घरे ।
मल्लरि कलसभिंगारा चामर पचतहिं ।। जिपमह दाण विहणी अच्छइ दुक्खभरे ।
घंटाघय कंसाला जिणचेयालयहि । ता घणवाल वणीसह कालेचत्त तणु ॥
किज्जइ विविह पहावण णच्यणतूरविहि ।। परिवेवण दंपइ किउ जाय विसण्णमणु ।
गीय सद्दभेरी खदंसिय परमदिहि । घणमइ भज्ज अलक्खणि पोसह अप्प तण ॥
जल चंदण कप्पूरहि अक्खयमल्लयहि ।। भत्तारहोण विरोवइ सो सुणकरइ खणु।
चरुदीवालि पूवहि बहुफल युत्तहिं । सुण्हा सामुहि भासिउ पियरह मेलि घम्रो ।
भुति पुराण मुणीसहो वच्छलेण सह ।। कत्तियकिण्ह च उद्दसि भोयण वहुल को।
विमल गणेहि पसाहिय सजय वित्तिजहु । देव पियरजण छडिवि अप्पुणि भुत्तिकया ।
पच भेय पक्वण्णइ पंच सुथाल भरि । णिसि प्रज्जीण करालिय दुहि पाण गया।
कुंभपतिलमाणादिहिं भविय घरे । सावयकुलु छंडेप्पिणु अत्तितिरिक्खि हुआ।
इय मुणि वयण सुणंती कोइल मुच्छ गया ।। गिह अग्गेंदु मडालहि कोइल पाव कया।
अप्प भवतरि जाणेवि कंदती घुलिय ।
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वैबेही सीता
जल पवणहि प्रासासिव चेयणपतपिय॥ प्रवहीसर संवोहिय वय विहिसंगहिय । सण्णासें तणु छंडिवि पक्खिणि सग्ग गया ।। सुयसायर उवएसेविगिरि कंदरह ठिया । वयविहिकरि उज्जवणउ दंपइ परम सिया ।। काराविउ जणमणहरु मंगल विविह किया। वाणु पुज्ज विरयंतह णिर प्रावासठिया । सत्यपुराण सुणंतह सोलालंकरिया । परियणु पुत्तहि मडिय सुहसायरे रमहि ।। जिणवर जतकरावहि भोयण विहि समहि । तामकाल अवसाणे सल्लेहण मुणिवि ।। जिणवरिंदु अंच्चेपिणु पाराहण सुणिवि ।। परम मंतु सायंतहं बंपद अमरपुरे।
संपत्ते सुह पावहि सेविय विधिह सुरे। पवर विलासकर तहं सायर काल गया ।। मेरु जिणालय वंदहि दसण मूलरया । अण्णजि वयविहि पालहि ते अरिद तणु ॥ पुणु रिदकित्ति तणु पालिय जीवगण । मणिवरिंद वय पालि वि पावहि, मुत्तिसिया । पुष्व मुणिदहि भासिय, जह तह एह किया । सरसइ खमउ भडारी सुरणरथुवचरणा,
मह परमत्यपयासउ भवसायरतरणा। विज्जागंदिय सण साहारणभणिया। पंडिय सोहि पयासहु कोइल पचमिया ।। इति श्री नरेंद्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारण कृत कोकिला
पंचमी समाप्तः।
वैदेही सीता
श्री सुबोधकुमार जैन राम ने सीता को स्वयंवर मे पा ही लिया। दोनों दशरथ का माथा राम के कन्धे पर । दशरथ बेहोश । का विवाह हो गया और वापस अयोध्या पहुँचते-पहुँचते राम वैद्यों द्वारा बतलाई प्राथमिक परिचर्या में संलग्न । सचमुच में राम बदल गये । आत्मा-परमात्मा, अध्यात्म, जब वैद्यों ने बताया कि होश पा रहा है तो कुछ कर्मवाद, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की महत्वपूर्ण गोष्ठि- चैन से राम ने मां कौशल्या से पूछा-'मां यह सब कैसे याँ उनके प्रासाद में होने लगीं।
हुया ?' गुरु वशिष्ठ की भकुटी चढ़ी। और जब राम को यह
क्रोधित होते हुए जब कौशल्या ने चुपचाप बैठी सूचना मिली कि राजा दशरथ, मां कैकयी के कोपभवन
कैकयी की ओर देखते हुए कहा-'इससे पूछ।' तो राम में बेहोश पड़े हैं तो वे दौड़ पड़े।
और भी चिन्तित हो गये।
उन्हें इशारा मिल गया कि कोई गोपनीय और गूढ़ दरवाजे पर ही चिन्तित सीता मिली।
बात हुई है। राम ने पूछा-क्या हुआ ?'
गुरू वशिष्ठ और परिवार के व्यक्तियों के अतिरिक्त सीता ने बस इतना ही कहा-'प्रात्मशक्ति और सभी कमरे के बाहर हो गए। त्याग की परीक्षा का समय आ गया है, चूकना मत । दरवाजा बन्द होते होते फुकार मारती हुई केकयी शीघ्रता करो पिता जी की हालत खराब है।'
बोली-'मुझे बात बनानी नहीं पाती। मैं सीधी बात राम को पूरा उत्तर नहीं मिला, वे असमंजस में करना जानती है।' दौड़े।
फिर दशरथ की ओर अंगुली से दिखाते हुए वह
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२८ वर्ष २३० १
प्रनेकान्त
बोलती रही - 'मैंने इनसे कौन सी ऐसी भीख माँगी हैं कि सुनते ही ये बेहोश हो गये। मैंने इनसे इन्हीं के दिये हुए वर की मांग की है। अगर हिम्मत नही थी तो वर क्यों दिया था ? क्या राम ही उनका बेटा है ? भरत उनका बेटा नहीं है ? तुम्हारी मां कहती हैं कि वर वापस ले लो, इनकी दशा देखो, फिर कभी मांग लेना ! परन्तु फिर मांग कर ही क्या होगा, जब कल तुम्हारा राज्याभिषेक हो जाएगा ?"
कुछ सांस लेकर वह बोलती गई— मैं सीपी बात जानती हूँ, तुम्हें १२ वर्षों का वनवास भोर भरत का राज्याभिषेक इस शर्त को मैं वापस करने को किसी दशा में तैयार नहीं है।'
इतना कह उसने गुरु वशिष्ठ की घोर विजयिनी की भांति देखा और फिर दक्षिणी की भांति फेर कर बैठ मूह
रही।
इतनी सारी बातें प्रोर इस प्रकार सुनने को, राम तैयार नहीं थे। एक क्षण उन्होंने सीता की घोर देखा । सीता के मुखमण्डल पर चिंता की एक भी रेखा नहीं थी । उसके गौरवपूर्ण मुख पर एक हल्की सी मुस्कराहट थी । बिना बोले ही सीता ने जो कहना था कह दिया घोर राम हंस पड़े ।
जब तक कि हंसते हुए राम की भोर कैकपी मुड़कर देखे, राम की संपतपूर्ण वाणी ने सब को पाश्चर्य मे डाल दिया। स्वयं केकयी हतप्रभ हो गई। केकयी से राम संपूर्ण विनय पूर्वक बोले- 'मां ! बस इतनी सी बात थी ?" और वे फिर हंस पड़े । 'पिता जी को इतनी सी बात के लिए आपने क्यों कष्ट दिया ? प्रापकी दी हुई आशा, क्या कभी राम अस्वीकार कर सकता है ? मा आप तो मुझ पर कभी कोषित नहीं हुई। अपना कोच छोड़ दें। मुझे आपकी भाजा सहर्ष स्वीकार है।' और इतना कह कर राम इस प्रकार फिर पिता की परिचर्या में लग गये, जैसे कि कुछ हुआ ही नही हो । शीघ्र फिर वशिष्ठ की आशा नहीं चरणों में
गुरु वशिष्ठ ने आवाज दी कि वैद्यों को अन्दर पाने दिया जाए। कौटिल्याने गुरु ओर देखा । जब उधर से किसी सहारे की रही तो उन्हें काठ मार गया। वे दशरथ
के
गिर कर चेतना शून्य हो गईं।
सारा राज प्रसाद चेतना शून्य हो गया था । नगरवासी विक्षिप्त की भांति इस प्रसम्भव समाचार को सुन कर बड़ी संख्या में राजप्रसाद के चारों ओर एकत्रित हो कोलाहल कर रहे थे ।
राम जब सीता के
कक्ष में
पहुँचे तो सीता को देख
सीता एक वनवासिनी के वस्त्र में खड़ी थी। उनकी दासियां सभी रही थीं। मुस्करा कर पूछा - 'यह क्या हो
।
कर वे स्तब्ध हो गए बनवास के लिए तैयार
सुषक सुचक कर रो संयमी राम ने
रहा है ?"
सीता ने राम की बात सुनी अनसुनी करते हुए मुस्कराते हुए कहा - 'प्राप भी शीघ्र राज वस्त्र उतार फेकिए।'
राम ने उसी प्रकार हंसते हुए कहा- 'पोशाक बदलने से क्या होने को है? इसी प्रकार भी तो मैं जा सकता हूँ। अच्छा, इस बात पर फिर गौर करेंगे। परन्तु तुम्हें किसने वनवास दिया है ? क्या मां कैकयी ने तुम्हें भी जाने को कहा है ?
सीता ने गम्भीरता से कहा- मुझे किसी ने बनवास नहीं दिया है, मैने स्वयं यह निश्चय किया है।
राम सोच में पड़ गए ।
तभी तेज चलते हुए और क्रोध से भरे हुए लक्ष्मण म्रा पहुंचे। सीता को देखते ही वे ठिठक कर खड़े हो गए। राम ने लक्ष्मण को देखा और फिर कुछ विचारते हुए आसन पर बैठ गए।
लक्षमण, भाई से लड़ने पाए थे। उनसे की हेलना करने को कहने बाए थे। भरत को ननिहाल से बुला कर उसे युद्ध के लिए चुनौती वे चाहते थे । 1 वे राम से कहने आए थे कि युद्ध से ही फैसला होना चाहिए कि कौन अयोध्या का नृप होगा। पर यहाँ माते ही उन्हों ने जो देखा उससे उन्होंने समझा कि यहाँ तो राम के स्थान पर सीता से लड़ाई करनी पड़ेगी। वे कई बार वैदेही सीता से त्याग और बलिदान के महत्व को सुन चुके थे। सीता के इस विश्वास पर वे शंका प्रकट कर चुके थे कि कर्मकाण्ड मात्मशक्ति से ऊपर नहीं है ।"
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वैदेही सीता
२६
पर सीता की निष्ठा को वे किसी भी प्रकार डिगा नही वैदेही सीता ने उसी सरलता से उत्तर दिया जैसे कि कोई सके थे। वे जानते थे कि वैदेही सीता अपने पिता जनक बिल्कुल महत्वहीन बात हो–'बोली, मैं देह त्याग दूगी।' के विचारों से कितनी मोत-प्रोत है। हा, कभी-कभी स्वय राम और लक्षमण प्राश्चर्य से उठ खडे हए । ग लक्षमण को ऐसा माभास मिलने लगा था कि सीता के ने पूछा-मतलब?' विचारों से वे भी प्रभावित होने लगते है। वे दौड़ कर सीता ने उसी सरलता से उत्तर दिया-'मतलब गरू वशिष्ठ के पास जाने और सीता के विचारों के साफ है, मैं शरीर का त्याग कर दंगी।' प्रभाव को दूर कराने की कोशिस करते, पर गुरू वशिष्ठ राम ने महान् आश्चर्य से पूछा-'क्या प्रात्मघात केवल जनक को जली कटी सुनाते एव कहते कि सीता का करोगी?' इस घराने में पाना शुभलक्षण नहीं है। महाराज दशरथ सीता ने उत्तर दिया-'छि:छि:-क्या किसी अच्छे न जाने कैसे विश्वामित्र को चाल में फंस गए।
व्यक्ति को प्रात्मघात करना चाहिए। मैं तो धर्म पूर्वक तो लक्षमण की हिम्मत सोता से कुछ कहने को नहीं सल्लेखना ले लगी।' हुई। सीता से बहस में वे जीत सकेंगे इसमें उसे शका राम ने पूछा-सल्लेखना? थी। उन्हें याद मा गया, सीत का अनेकान्तवाद, स्याद्वाद. सीता ने कहा-'जी, इस विषय पर मापसे अपने और इन सिद्धान्तों पर सीता का गहरा अध्ययन पोर पूज्य पिता जी के विचारों को कहने का कभी अवसर ही उनकी सम्यकदृष्टि । वे जानते थे कि राम सीता के विचारों नहीं मिला। सल्लेखना धर्म पूर्वक, बिना कषाय भाव के का कितना सादर करते हैं। लक्षमण का क्रोध काफूर हो देह त्याग कर विदेह होने की एक विशेष विधि है।' गया। वे नतमस्तक हो राम के चरणों में बैठ गए।
अब लक्षमण से नहीं रहा गया। उन्होंने अपना मौन राम सम्यकदृष्टि थे। माठ प्रकार के भय उनमें नहीं तोड़ते हुए व्यंगपूर्वक कहा-'वाह ! प्रात्मघात के स्थान थे । सम्यकदृष्टि के पाठो अंग उनमें पूर्ण थे। मोर जो पर सल्लेखना शब्द का प्रयोग कर उसे धर्म की प्रोदनी से ऐसा सम्यकुदृष्टि हो उसे सत्य को जानने में विलम्ब नहीं आप ही ढक सकती हैं। दूसरे में ऐसी शक्ति है यह तो मैं होता । सत्य पालन करने में किसी प्रकार का डर नहीं नहीं जानता।' लगता।
सीता के उत्तर में हल्की फटकार की पुट थी, बोली राम ने उस स्थान की नीरवता भंग की। बोले- -'लक्षमण प्रभी तुम्हे बहुत कुछ जानना बाकी है। अभी "सीते ! क्या तुम वनवास के अपने सारे कष्टों को दिखा तुम बालक हो।' कर मुझे भी दुःखी देखना पसन्द करोगी?'
लक्षमण को निरुत्तर कर वे श्री राम की भोर मुड़ीं, निश्चल मन से सीता ने कहा-'माप जैसे व्यक्ति बोलीं-'अगर सल्लेखना की विधि में भाप को शंका हो की छाया में क्या कभी मैं दुःखी रह सकती है। और जब तो हम पिता जी के पास मिथिला चल कर निवारण मुझे ही किसी बात का कष्ट अनुभव नही होगा तो भाप करा लें।' के दुःखी होने का प्रश्न ही नही उठता।'
राम ने कहा-'इसके लिए हमारे पास समय कहाँ राम ने अन्तिम प्रश्न पूछा-'तो क्या तुम्हारा यह है ? पर क्या तुमने इस पर उनका संपूर्ण विवेचन सुना है। अन्तिम निश्चय है ?'
सीता-'जी, सुना है और समझा है।' सीता ने हल्की मुस्कान लाकर कहा--'बिना आपकी राम-'जब तुमने सुना है और समझा भी है तो आज्ञा के मैं इस विषय पर अन्तिम निश्चय कसे कर शंका करने का कोई कारण भी नही है। चलो अच्छा सकती हूँ ? हाँ, अगर आपने प्राज्ञा नहीं दी तो बाद में हा, यह अमोघ अस्त्र भी अपने काम मे पायेगा । वनमैं क्या करूँगी, उसका निश्चय कर चुकी हूँ।'
वास के रास्ते मे ही तुमसे जान लूंगा।' राम ने भृकुटि सिकोड़ते हुए पूछा-वह क्या?' सीता प्रसन्न हो उठी। राम की आज्ञा उसे मिल गई।
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३०, वर्ष २३ कि.१
भनेकान्त
वे तुरन्त राम के चरणों की धूलि लगा कर उनके वस्त्रों इतना कहते हुए लक्षमण राम से अपने को अलग को उतारने लगी।
करते हुए वहां से चल पड़े । चलते हए उन्होंने अपने सारे अब तक तो लक्षमण किंकर्तव्य विमूढ़ थे, पर, सीता अलंकारों को जहां तहाँ फेंकना शुरू कर दिया और दरद्वारा राम के वस्त्रालंकार का उतारना उनसे नही सहा वाजे तक पहुँचते-पहुँचते उनके शरीर पर सिवा षोती गया।
और चादर के और कुछ नही रहा । वे चीत्कार कर उठे। राम और सीता के बीच में राम और सीता दोनों अवाक हो देखते रहे। माकर सीता को रोकते हुए बोले-'बस अब बहुत हो इतने ही में उन्होंने देखा कि माता कौशल्या दासियों गया इन वस्त्रालंकारों को छुप्रा तो...."।'
का सहारा लिए झुकी हुई चली आ रही है। कुछ सीता पाश्चर्य चकित सी बोलीं-'तो क्या करोगे?' ही घंटों में वृद्धा सी दीखने लगी थी।
राम ने हंसते हुए लक्षमण को अपने बाहुओं में भर राम और सीता के वस्त्रों को देख कर वे प्रचंमित लिया और सीता से बोले-'तो क्या पूछती हो? तो जहां थी वहीं खड़ी हो गई। राम और सीतो तब तक लक्षमण फूट-फूट कर रो उठेगा।'
उनके पास पहुंच चुके थे। और, सचमुच लक्षमण जोर से फूटफूट कर रोने लग कौशल्या का शरीर कांप रहा था, उनके पांव लड़गए। उन्हें हिचकी बंध गई। सीता और राम उन्हें खड़ाने लगे थे। राम ने झट उन्हे सम्हाल लिया सीता बच्चे की तरह पुचकारने और समझाने लग गए। जब पांचल से हवा करने लगी। किसी प्रकार राम, लक्षमण को चुप कराने में समर्थ नही तभी कौशल्या पावेश पूर्वक सभी सहारों को छोड़ती हुए तो उनके नयनों से भी प्रभु धारा वह निकली। हई खड़ी हो गई। उनके पलकों में स्पन्दन हुप्रा और पल
सीता ने स्थिति सम्हाली। उन्होंने लक्षमण को भर में वे संयत पर गम्भीर दीखने लगी। सम्बोधित करते हुए कहा-'तो, अब संभालो अपने प्यारे राम ने पूछा-'पिता जी अब कैसे है ?' कौशल्या नै भैया कों, ये भी तुम्हारे साथ रो रहे है। लक्षमण ने चौंक रूखीसी से राम को देखा पर बोली सीता से । आंखों से कर भैया राम का मुखड़ा देखा तो लगे अपने प्रांचल से
अपन प्राचल से भर भर आंसू बह रहे थे । '-बैटी मैं सब समझ गई। तू उनके नयनों को पोछने और राम लगे लक्षमण के नयनों जनक की पुत्री है। तू देह को, राज्य को परिवार को कुछ को पोंछने ।
महत्व नही देती। मैं क्या समझ इन बड़ी बातों को। सीता खिलखिला कर हंस पड़ीं।
सोचा था, कुछ दिन तुम्हारे साथ रहना होगा तो शायद - लक्षमण ने खोजकर कहा-'मुझे जितना चाहो चिढ़ा मेरे अन्दर का मोह ममत्व भी कम हो जाय । -तू राम लो, पर देखता हूँ मुझे भी भैया के साथ वनवास में जाने के साथ है तो मै निश्चिन्त हूँ' और, कौशल्या प्रचेत हो से कौन रोकता है।'
अनेकान्त के ग्राहक बनें
गई।
'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इस लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें। और इस तरह जन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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सत्य के आदर्श की ओर
परमानन्द जैन शास्त्री
पाखिर चोरी हो ही गई। अर्घ रात्रि का सन्नाटा विचित्र चोर अाज तक भी नहीं देखा ।' यमदण्ड ने अपनी छाया हमा था। कहीं से कोई प्रावाज नहीं पा रही थी। असफलता का कारण चोर का विचित्र होना बतलाया। नगर शान्त और स्तब्ध था। जनता निद्रा देवी की गोद
चोर विचित्र नही है यमदण्ड ! तुम्हारा प्रबन्ध में विलुप्त हो रही होगी। कोई चोर राजमहल में गया विचित्र है। जागत व्यक्ति ही चोर को पकड़ सकता है। पौर वहां से बहुमूल्य हीरे जवाहरात लेकर चम्पत हो महाराज गया । प्रातःकाल राजमहल में चोरी होने की घटना नगर
मेरे प्रबन्ध में कोई त्रुटि नहीं है श्रीमान् ! यमदण्ड में विजली की तरह फैल गई। राजमहल से रत्नों को चोरी :
ने दृढता से उत्तर दिया। की घटना मसाधारण है इससे चारों मोर नगर में प्रातक
महाराज का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। उन्हें यह छा गया। सदस्यगणों और राज्य में निवास करनेवाले बेष्ठिजन इस प्राकस्मिक घटना से तलमला उठे। किसी
विश्वास हो गया था कि नगर रक्षकों की उपेक्षा के को भी विश्वास न होता था कि परिचारिकों और सैनिकों
कारण ही यह दुर्घटना घटी। अन्यथा इतने रक्षकों के से संरक्षित राजमहल से बह मूल्य हीरे चले जायंगे। जो रहत हुए किसका साहस था कि वह राजमहल में प्रविष्ट सुनता वही पाश्चयं करता। महाराज वामरथ भी स्वयं हा सक। राजमहल एक सरक्षित एवं सुरक्षित स्थान इस घटना से चकित हो रहे थे। उनके राज्यकाल में
में वहाँ साधारण जन तक का विना किसी कारण के प्रवेश पा आज तक किसी चोर को चोरी करने का साहस नहीं
सकना अत्यन्त दुष्कर है। वहां बिना किसी पाशा के हमा था। इतने संरक्षकों और परिचारकों के रहते हुए
प्रविष्ट हो जाना प्रति साहस का कार्य है। वह रक्षकों भी चोर का रहस्य प्रज्ञात ही रहा, वह किसी के दृष्टि.
की असावधानता का स्पष्ट द्योतक है यदि रक्षक जागते गोचर नहीं हुमा। पकड़े जाने की तो बात ही दूर थी।
और सावधान रहते तो चोरी का सवाल ही नहीं उठता।
राजमहल मे प्रविष्ट होना तो दूर की बात है । राजमहल रक्षकों की व्यवस्था और उपेक्षा वृत्ति पर महाराज
में रात-दिन का कड़ा पहरा होते हुए भी किसकी मजाल का क्रोध बढ़ता जा रहा था। इस तरह की उपेक्षा वृत्ति और प्रालसी वृत्ति से तो लोग राज्य भी लुटा सकते है।
थी जो अन्दर प्रवेश पा सके । रक्षकों को उपेक्षा ही चोर
के प्रविष्ट होने का प्रबल कारण है। पात्र को माक्रमण का अवसर भी प्रदान कर सकते है। यह नगर रक्षकों का ही सम्पूर्ण दोष है। यह विचार कर जिस नगर का राजा प्रेमपूर्वक प्रजा का पालन करता महाराज ने यमदण्ड नामक नगर रक्षक को उपस्थित होने हो, नगर धन-धान्य से समृद्ध हो, राज्यकमॅचारियों और की प्राज्ञा दी।
नगरवासियों का व्यवहार सरस हो, गरीबी, दरिद्रता और नगर रक्षक उपस्थित हुआ, उसे देख कर महाराज अमीरी का अभिशाप सन्तापजनक न हो। प्रबन्ध में त्रुटि का क्रोध उबल पड़ा। चोर का पता लगा? उसके पाते होना इसका प्रबल प्रमाण है, रक्षा की कमी का सबूत ही महाराज ने प्रश्न किया। "अभी तक नही लगा महा- और क्या हो सकता है ? राज !" नगर रक्षक ने कम्पित स्वर मे उत्तर दिया। मैं तुम्हारा ही अपराध मानता हूँ। तुम्हारी उपेक्षा "तुमने प्रयत्न किया" राजा ने दूसरा प्रश्न किया। चारों के कारण ही राज्य को हानि उठानी पड़ी।' राजा ने दिशामों में चरों को नियुक्त कर दिया है श्रीमान् ! ऐसा निर्णय दिया।
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३२, वर्ष २३ कि.१
अनेकान्त
चोर अवश्य ही मेरे चंगुल में फसेगा महाराज! हो सकता, वह अवश्य ही यही कही छिपा होगा। यह भी यमदण्ड ने प्राशा व्यक्त की।
हो सकता है वह मेरा कोई शत्रु हो और मेरे विरुद्ध ही बस, चुप रहो, निरर्थक दम्भ अच्छा नहीं होता, उसने यह षड्यन्त्र रचा हो । अथवा वह अपना भेष बदल राजा ने उत्तर दिया।
कर किसी दूसरे ही भेष में छिपा हुमा हो । जिसपर मेरी मैं सच कहता हू महाराज, चोर मेरी दृष्टि से छिप दृष्टि न पड़ सकी हो, मैंने नगर के सभी शून्य स्थान भी नही सकता, मेरी शिक्षा असमर्थ नहीं हो सकती।' यम- देख डाले, जिनमे चोरों के ठहरने की संभावनाए हो दण्ड ने महाराज के निर्णय पर अविश्वास प्रकट किया। सकती थी, पर उनमे भी कही किसी चोर का पता नही
"सुनो, मैं तुम्हें सात दिन का अवसर देता है। सात चला । आज का दिन मुझे दुर्भाग्यसूचक जान पड़ता है। दिन में ही चोर उपस्थित किया जाना चाहिए। अन्यथा शत्रु का विचार पाते ही यमदण्ड का उत्साह दुगना चोर के स्थान पर तुम्हे दण्ड का भागी होना पड़ेगा।" हो गया, उसका क्रोध उमड़ पाया और उसने उसी क्षण महाराज ने क्रोध भरे स्वर में आज्ञा दी।
निश्चय किया कि मैं चोर को अवश्य पकडूंगा। उत्साहित यमदण्ड चुप रहा।
यमदण्ड पुनः अपने कार्य मे सलग्न हो गया। सुन लिया न । जानो, महाराज ने दुबारा तीक्ष्ण xxx स्वर में उत्तर दिया। यमदण्ड मस्तक झुकाकर चल एक स्थान पर उसने देखा, एक भिक्षुक फटे-पुराने दिया।
चिथड़ों में लिपटा, क्षुधित, असहाय पड़ा हुआ है। नाग___ यमदण्ड की चिन्ता अधिक बढ़ गई। चोर का पता रिकों ने उसे चारो ओर से घेर रखा है। नागरिकों को नही लगा तो निश्चय ही मुझे दण्ड भोगना पड़ेगा। इसी देखते ही वह दीन स्वर मे भिक्षा के लिए प्रार्थना करता चिन्ता में मग्न यमदण्ड नगर के एक छोर से दूसरे छोर है, गिडगिडाता है, किन्तु भिक्षा मिलने पर उनकी आँख तक भनेक चक्कर काटता रहा। बहुत ही जोर से उसने बचा कर उपेक्षा से एक ओर डाल देता है। चारों तरफ दृष्टि डाली, परन्तु चोर का कही कोई सुराग यमदण्ड भिक्षुक की यह क्रिया बड़ी देर से गौरपूर्वक तक न मिला। चोर मिलना तो दूर की बात है। छह देख रहा था, पर भिक्षुक यमदण्ड को अब तक देख नहीं दिन बीत चुके थे, और आज उसका अन्तिम दिन था। पाया था। उसकी दीन और दुखित अवस्था मे किसी को चोर का पकड़ा जाना असम्भव-सा प्रतीत होता था। यम- संशय नही हो सकता था, पर यमदण्ड ऐसे असमर्थ प्राणी दण्ड युवक था, धीर था, उसने कभी प्रमाद नहीं किया। पर भी सन्देह कर बैठा । बड़ा ही फुर्तीला था, उसकी दृष्टि मे चोर को पहचानने 'चोर यही है' न जाने क्यो उसके मन में विश्वास की कला थी। चोर उससे छिप कर कही जा नही सकता होने लगा। भिक्षक की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक स्वर और था। परन्तु निरपराध दण्ड उसे असह्य था। यह कहना तो
उसके प्रत्येक आचरण में यमदण्ड को सन्देह होने लगा। अनुचित ही होगा कि वह चोर को ढूढने मे सलग्न न रहा उसकी प्रार्त वाणी और दीन पाचरण सब ढोग पोर छल हो, इतना प्रयत्न करने पर भी यदि चोर न पकडा जाय प्रतीत होने लगे। उसे भिक्षुक के कातर चेहरे पर धृष्टता
। सभव है वह राज्य छोड़ कर और धूर्तता के स्पष्ट दर्शन हुए। मन ही मन उसने अन्यत्र भाग गया हो, और यह भी सभव है कि वह कही निश्चय किया और दूसरे ही क्षण भिक्षुक के सम्मुख जा भय के मारे प्रात्महत्या न कर बैठा हो। यमदण्ड यही खडा हमा। भिक्षक ने यमदण्ड को एक बार देखा पोर सोचता-विचारता व्यर्थ ही यहाँ से वहाँ टहल रहा था। फिर सदा की भाति दीन स्वर में याचना करने लगा। चोर के पात्मघात करने या भाग निकलने पर उसे इस बार उसके स्वर में कम्पन था। यमदण्ड से वह छिप विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोचता था कि राजमहल न सका । उसे निश्चय हो गया कि चोर यही है । उसका में चोरी करने का दुःसाहस करनेवाला इतना कायर नही क्रोध उमड़ पड़ा। कठोर पाद प्रहार से वह चिल्लाया ।
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सत्य के प्रादर्श को प्रोर
"धूर्त तूने यहाँ भी मेरा पीछा नही छोडा" अनवग्न के लिए ही अमत्य पर दृढ़ है । वे बोले “हम तुम्हे यथेच्छ प्रहारों से भिक्षुक के शरीर को जर्जरित कर दिया। समय दे गनते है यमदण्ड । इम वेचारे को छोड दो।" निरीह और असहाय भिक्षुक को पिटना हुया देव
भोपवाया देख महाराज | गजमहल में चोरी करके निर्वाष भागने का नागरिकको और भी अधिक भीड़ जमा हो गई। वाला इसके अतिरिक्त अन्य कोई चोर नही हो सकता। भिक्षुक पर नगर रक्षक की निष्ठुरता का प्राभास हो रहा 'यमदण्ड ने दृढतापूर्वक निवेदन किया।' था। नागरिक परस्पर मे कानाफूसी करने लगे। कोई
“पर हमे विश्वास नही होता।" महाराज ने उत्तर कुछ कहता और कोई कुछ।।
दिया । उनमें से एक बोला-यह नगर रक्षक इस दीन एवं "मुझे दो दिन का अवसर दीजिए, मैं इसी के मुख प्रसहाय व्यक्ति को क्यों पीट रहा है, ऐसे व्यक्ति पर इमे से स्वीकृत कराऊँगा।" यमदण्ड ने प्रार्थना की। क्या सन्देह हो गया, इसका कोई कारण ज्ञात नही हपा। “स्वीकृत है" महाराज ने यमदण्ड को अवसर देने यह तो दया का ही पात्र है। दूसरा बोला-नगर रक्षक की स्वीकृत दे दी और जाने की प्राज्ञा दी। बिना किसी सन्देह के कुछ नही कहता, कोई न कोई बात चोर की पोर ज्वाला भरी दृष्टि से देखता हुमा अवश्य होगी। इसका रहस्य बाद में ज्ञात होगा। तीसग यमदण्ड उसे निर्दयतापूर्वक घसीटता हुमा अपने गृह ले बोला-ऐसा भी हो सकता है कि नगर रक्षक इसकी गया। किसी हरकत से नाराज होकर कर रहा है। चौथा इन दो दिनों में यमदण्ड ने सैकडो उपाय किये, कि बोला-ऐसे असमर्थ व्यक्ति पर नगर रक्षक विना कारण भिक्षक अब भी अपना अपगघ स्वीकार कर ले, कशाघात ही सदेह कर बैठा, इस तरह परम्पर वाते हो ही रही से भिक्षुक के शरीर से रक्त बहने लगा। मारने-पीटने से थी, किन्तु किसी ने भी नगर रक्षक के विरुद्ध कुछ भी उमकी हड्डिया टूट गई, पर उमने स्वीकृति-मूचक सिर भी कहने का साहस नही किया। एक वृद्ध मज्जन वोले- नही हिलाया. चुप रहा । जैसे वह मौनधारी हो। नगर रक्षक की परख अनोखी होती है, यह भिक्षुक बना- यमदण्ड का क्रोध क्षण-क्षण बढ़ता गया। उसने वटी भेष मे नजर आता है। हो मकना है कि इसका भिक्षक को अनेक प्रकार में पीडा पहँचाई पर उसका कोई सम्बन्ध राजमहल की चोरी से हो। पर विना किमी मफल परिणाम न निकला, भिक्षक के मुख से स्वीकृति का प्रमाण के कोई विचार संभव नही जंचता।
वह एक शब्द भी नहीं कहला मका । भिक्षुक महाराज के सम्मुख उपस्थित किया गया। “विद्यच्चर | अब तुम मेरे हाथ मे हो, बच नही यमदण्ड ने अनेक प्रकार मे यह प्रयत्न किया कि यह मकने" अन्त में हार कर यमदण्ड ने कहा । अपना अपराध स्वीकार कर ले । पर भिक्षुक उमे बराबर पर जिमे विद्युच्चर कहा गया, उमने इन शब्दो पर अस्वीकृत करता रहा । 'मै दीन है महाराज, मेरी सामर्थ्य कोई ध्यान ही नही दिया। जैसे ये वाक्य उससे नही कहे ऐसी कहाँ', उसने प्रार्थना की।
गये हो, या वह विधुच्चर मे अपरचित है। महाराज और अन्य सामन्तो को उमके चोर होने में निश्चित अवधि के बाद यमदण्ड ने उसे राजसभा में विश्वास नही होता था। उसकी दीन अवस्था देखकर तो उपस्थित किया अवश्य, पर स्थिति में कोई सुधार नही उसपर विश्वास करना किसी तरह भी संभव नही जचता। हा, वह पूर्ववत अपने वक्तव्य पर दृढ था । सब यही सोचते थे, कि यमदण्ड ने अपने प्राणो की रक्षा गजा ने यमदण्ड की ओर उसकी असफलता-सूचक के निमित्त इस बेचारे भिक्षक को पकड लिया है।
यमदण्ड यह चोर नही है, महाराज ने कहा । अवश्य महाराज ! यह स्वीकृति करे या न करे चोर यही है महाराज, चोर यही है, यमदण्ड ने दृढता से उत्तर है। मैने भरसक चेष्टा की, पर इससे स्वीकृति न करा दिया। महाराज ने विचार किया कि यमदण्ड अपनी रक्षा मका । इसकी हड्डियां टूट गई, शरीर से रक्त बहने लगा।
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३४, वर्ष २३ कि..
अनेकान्त
पर इसने स्वीकृत नही किया" यमदण्ड ने हाथ जोडकर सामन्तगण भी दग रह गये, और यमदण्ड प्रसन्नता से निवेदन किया।
फूल गय।। __ "तुम भ्रम मे हो यमदण्ड" महाराज ने मुस्कराकर "तुम विद्य च्चर हो! ख्यात चोर विद्यु च्चर ।" उत्तर दिया, वे भिक्षुक की रक्षा के लिए उसे भी क्षमा राजा ने अविश्वास प्रकट किया। देने को तैयार थे।
"हाँ श्रीमान, कुख्यात चोर विद्य च्चर मै ही हूँ।" 'मुझे चोर परीक्षा मे भ्रम नही हो सकता महाराज! विद्यच्चर न विश्वास प्रकट करना चाहा। चोर यही है, यमदण्ड अपने विचार पर दृढ रहा ।
"तुमने इसके पूर्व अपराध क्यो स्वीकृत नही किया" महाराज विम्मित थे। नगर रक्षक जिसे विश्वास महाराज ने प्रश्न किया । और दृढ़तापूर्वक चोर कहता है : वह व्यक्ति सैकड़ो प्रयत्न "इसका उनर यमदण्ड दे सकता है थीमान्" उसने करने पर भी अपना अपराध स्वीकृत नहीं करता । यमदण्ड उत्तर दिया । इस कला में विशेष दक्ष था अवश्य । पर उससे भी तो महाराज ने यमदण्ड की ओर देखा और यमदण्ड ने भूल हो सकती है ? यह सम्भव है कि वह असफल होने सारी कथा सुना दी। यमदण्ड और विद्य च्चर मे कैसे पर भी निरपराध को ही दंड दिला कर अपनी रक्षा होड लगी। और किस प्रकार से उसने यमदण्ड को पराकरना चाहता हो।
जित करने का प्रयत्न किया। यमदण्ड ने सभी महागज ! अन्त तक किसी भी निर्णय पर नहीं वतान्त सुना दिया। पहुँच सके । हार कर उन्होने चोर की ओर देखा।
"फिर इतना ग्राम क्यो सहा? महाराज ने दूसरा "मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ" उन्होने कहा ।
प्रश्न किया। चोर की अोठो पर हास्य की एक हल्की-सी रेखा 'नरक और निगोद में मैंने इससे भी अधिक त्रास प्रस्फुटित हुई और अपनी व्यंगभरी दृष्टि से यमदण्ड की सहा है महाराज, उसकी तुलना में इसकी क्या गणना पोर देखा।
हो सकती है ? विद्य च्चर ने सरलवाणी मे उत्तर दिया । __ "महागज, यही ख्यात चोर विद्यच्चर है" यमदण्ड महाराज विद्य च्चर के इस उत्तर से गदगद हो गए, ने घबडा कर निवेदन किया ।
विद्य च्चर से उन्हें स्नेह हो गया। महाराजने निश्चय किया, "विद्युच्चर ।" महाराज ने आश्चर्य से उसकी मोर कि उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह-सस्कार कराने और देखा।
अपना राज्य समर्पित कर देने का। विद्यु च्चर से उन्होने वहीं' विकट चोर जिससे पराजित होकर मुझे आप इसके लिए स्वीकृति मागी। के राज्य में प्राश्रय लेना पड़ा था। यमदण्ड ने उत्तर "मुझे राज्य की अभिलाषा नही है महाराज, ! मुझे दिया।
इससे घणा है" विद्य च्चर ने उपेक्षापूर्वक उत्तर दिया। "विधुच्चर ।" महाराज ने भिक्षक की ओर मुख "क्या कहने हो विद्य च्चर !" महाराज को विश्वास फेरा, 'मैं तुम्हे क्षमा करता हूँ, पर तुम सत्य स्वीकार कर न हुआ। लो। राजमहल से रत्न तुम्ही ने चुराये है न ।
"मै सत्य कहता हूँ महाराज, मै भी राजकुमार हूँ, ___ "विद्युच्चर फिर भी चुप रहा।"
मेरे पिता ने मुझे राज्य देना चाहा था, पर मै उसे निर्भय होकर कहो विद्यच्चर ! मै तुम्हे अभय वचन अस्वीकृत कर पाया हूँ" विद्य च्चर ने आगे कहा । दे चुका हूँ। महाराज उसे चुप देख कर बोले ।
__ 'तुम राजकुमार हो' राजकुमार होकर भी घृणित चौर "यमदण्ड सत्य कहता है श्रीमान," विद्यच्चर ने कर्म करते हो । महाराज ने पाश्चर्य प्रकट किया। स्वीकृत किया।
'यमदण्ड को दिए गए वचन की पूर्ति के लिए मैंने महाराज के प्राश्चर्य का ठिकाना न रहा, सभी चोरी की है महाराज! मुझे धन की प्रावश्यकता नहीं,
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सत्य के प्रादर्श को मोर
विभव भी नही चाहता सुख और विलास से में तृप्त हो "यमदण्ड मुझे क्षमा करो" वह यमदण्ड के गले चका । भोग-विलास देखने में सुन्दर प्रतीत होते है, लिपट गया, दोनो की अांखो से अश्रुधारा बहने लगी। पर इनमें कोई सार नही है। मैने भोग विलास मे जीवन
आज दीर्घकाल के अनन्तर दो मित्रो का मिलन यों ही बिता दिया। ये नीरस है, इन्हें जितना भोगा, हमा था। उतनी ही अधिक लालसा बढ़ती है। भोगो को भुजग के
"राजकुमार स्थिर हो, प्रभी तुम्हारी अवस्था अल्प समान उसने वाले बतलाया है । भुजग तो एक बार ही
है, तपस्वी जीवन तुम्हारे योग्य नही" महाराज ने करुणा डसता है, पर इनसे जीव अनन्तबार डसा जाता है। जैसे ईधन से आग की तृप्ति नहीं होती, और नदी जल
भरे स्वर में कहा । से समुद्र की भी, वैसे ही भोगो से भी जीव की
नही महाराज, मैं ससार की बिडम्बना देख चुका । तृप्ति कभी नही हो सकती। मुझे तो अब इससे घृणा
अब मै सत्य की खोज करूगा'। संसार कितना दुख रूप हो गई है। मैं इन सबको त्याग कर प्रात्म-साधना करना।
है, यह ज्ञानियो और विवेकीजनो से छिपा नही है । उसको चाहता है। मैने निश्चय कर लिया है कि बिना तपश्चरण
विषमता और बिडम्बना का प्राभास पद-पद पर होता और ज्ञान के कर्म की निर्जरा नही हो सकती । सयम ही है, उसने हाथ जोडकर प्रार्थना की और चल दिया। जीवन का सर्वग्व है। उससे ही प्रास्रव-भीम से रक्षा हो दूसरे दिन निर्जन पर्वत को एक गुफा में वह दिगम्बर सकती है। जो तपस्वी और सयमी है वे महान है, उन्ही मुद्रा में स्थित प्रात्मध्यान मे मलीन था। वह अन्य कोई के पद चिह्नो पर चलकर मै जीवन को सफल बना नही, राजकुमार विद्य च्चर ही था। उसको ध्यान मुद्रा सकगा। मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।" विद्य चर ने देखने से पता चलता है कि वह प्रात्म-साधना में कितना नम्र होकर प्रार्थना की।
निष्ठ है।
कवि रूपचन्द का एक गीत कवि रूपचन्द का यह प्राध्यात्मिक पद जहाँ मम्बोधक और उपदेशिक है, वहीं घट के अन्तपंट खोलने की प्रेरणा देता है । और मानव जीवन के मापदण्ड को सुधारने या व्यवस्थित करने की प्रोर भी संकेत करता है। कवि का विचार है कि विषय विकार तज कर सद्गुरुपो द्वारा निर्दिष्ट पथ अपनाने से मफलता प्राप्त हो सकती है।
मन मानहि कि न समझायो रे। जब तब प्राजु काल्हि जु मरण दिन, देखत सिर पर पाया रे ॥१ बुधि बल घटत जात दिन दिन, सिथिल होत यह कायो रे । करि कछु लै जुकरउ चाहत है, पुनि रहि है पछितायो रे ॥२ नर भव रतन जतन बहुतनित, करम करम करि पायो रे । विषय विकार काच मणि बदले, सु अहले जनम गवायो रे ॥३ इत उत भ्रम भुल्यौ कित भटकत, करत आपनो आयो रे । रूपचन्द चलहि न तिहि पथ, सद्गुरु प्रकट दिखायो रे ॥४
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धर्म की कहानी : अपनी जवानी
डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर'
वह बाला अपनी छुटकी-सी पत्ते की झोपड़ी से बाहर जीवन मे पली-पुसी नन्दा आज फूस की झोपड़ी में गुजरनिकल गई और सारा दारिद्रय साथ ढोती हुई आगे बसर करनेवाली भिखारिन नन्दा थी। वढ़ती गई।
इधर गाव के बाहर रहनेवाली मा अपनी पाप की सुनन्दा जब से पेट मे आई, अजित का जीवन दुखी गठरी बाँधे निस्तेज पड़ी थी। उभरी हुई जवानी और रहने लगा। एक-एक करके सारी सम्पदा मुंह फेरने फिर सौन्दर्य का तकाजा । सूर्य का क्रोध भी उबलता जा लगी। सम्पदा की यह चंचलता प्रत्यक्ष देखी जा सकती रहा था और मा की पाखो से गर्म ऑसू अविरल रूप से थी। सोना भी भारी हो रहा था । सब कुछ चला गया। झरते जा रहे थे। प्रशान्त वातावरण में उसका मन धधक
__ मात्र रहा परिवार । अजित था कि वह यह जीवन वहन रहा था। यह धधकन क्यों और कैसे ?
न कर सका-अपने सुकुमार कदम इन बीहड़ परिस्थिप्रश्न जटिल नही था, फिर भी मन में बार-बार
तियो के कठोर कदमो से न निकाल सका। और एक माता था, चला जाता था। उत्तर मिल जाता था. पर दिन काली कोठरी के अन्दर चल बसा। रास्ता नही । नदी का पूर पाता था। मां नन्दा किनारे सुनन्दा छोटी थी पर समझदार थी। वह चार-पाँच खड़ी हुई अदृश्य चिन्तन करती रहती थी। कभी प्रात्म
ठिठुराते ठंठ और उबलते ग्रीष्म को अपने शिर से निकाल हत्या करने का विचार प्रा जाता अवश्य पर बह क्षणिक चुकी थी। इसलिए उसे गाँव के वे कटकाकीर्ण मार्ग और रहता।
विषम तथा चुभते हुए नदी-नाले नये नही थे । __ आत्महत्या जैसी घिनौनी और कोई चीज नही। मुंह को देखती दिखाती सुनन्दा गाव पहुंच चुकी। यह अपने उत्तरदायित्वो से पलायनवाद की मनोवृत्ति का वह तब तक भूख-प्यास से बेहद व्याकुल हो चुकी थी। प्रतीक मात्र है। जीवन संघर्षों की कहानी ही तो है। गाव से कुछ कहना चाहती पर सुननेवाला कोई नहीं था। इन संघर्षों से ऊब कर, विना उनसे लड़े, आहति दे देना सभी अनसुनी करते हुए बगल झाँकते निकल जाते । मूर्खता नही तो और क्या हो सकता है। पापो का प्राय- दुनिया इतनी प्रात्म-केन्द्रित हो चुकी कि उसे पड़ोसी श्चित्त तो भोगना ही पडेगा, चाहे मर के भोगो या का भी ध्यान नहीं। जिन्दा रह के।
__ कन्या मुंह पर आत्मनिवेदन लिए वढ़ती गई। एक समझदारी से भरे ये विचार नन्दा को पल-पल पर जगह देखा लोगों की भीढ ली थी। महल मे अच्छीसहारा देते । कठोर और घिनौने वातावरण मे भी उसे खासी दावत हो रही थी और दावत की पत्तले और ऐसी चिन्तनधारा से वल मिल जाता। लिहाजा वह अभी कुल्हड़ नीचे फेके जा रहे थे। शहनाई की आवाज में तक अपनी बेटी सुनन्दा को लिए जीवित थी।
यह फेके जाने की आवाज भैरव सगीत को उत्पन्न कर सभी के दिन सदैव एक से नही रहने । कभी उनमे देती थी। वसन्त पाता है तो कभी पतझड । नन्दा की कहानी हर सुनन्दा ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति का साधन पा प्राणी की कहानी थी। जवानी अवश्य उसकी अपनी थी। लिया । ऊपर से गिरती पत्तले और कुल्हडों की मार को
कहाँ उसका वह राजसी ठाठ और अब कहा यह वह अपने छोटे-से बदन पर भेलती जाती और जठनदारिद्रघ का फटा-टूटा टोकना ! राजमहल के ऐयाशी जाठन से पेट भरती जाती।
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धर्म की कहानी : प्रपनी जवानी
बड़े लोगों की दावत जो थी। कुछ ही पत्तलों मे अब भिक्ष का दूसरा चरण भी प्रारम्भ हो गया। उसे पर्याप्त मिल गया। मां का भी ख्याल था उसे । वह सुनन्दा के साथ वह उसकी मां के पास गया। उसे समअपने चिथड़े कन्धे पर लटकती फटी झोली में थोड़ा-सा झाया-बुझाया। विश्वस्त किया। और भाई बहन का ही रख पाई थी कि अन्य भिखारी पहुंच गये। वे कहाँ सम्बन्ध स्थापित कर मां-बेटी को अपने विहार में ले इसे देख सकते थे।
प्राया । यथाशक्ति उनकी सेवा-सुश्रूषा की। वह उनकी मार खाती गई और मां के लिए भोजन
अब वे सब एक परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे। इकट्ठा करती रही।
सारी जनता भी उन्हे ऐसा ही मानकर चलती थी।
इस बीच सुनन्दा काफी बड़ी हो गई। उसका यौवन उसी रास्ते से जैन श्रमण पाहार लेकर पा रहे थे।
निखरने लगा। ललाट पर घुघुराली लटकती लटें, सिर उनके ललाट पर तेज और मुंह पर शान्ति टपक रही
पर सुन्दर सुपुष्प कबरी बंध, कजरारे मृगनयन, उभरे थी। प्रात्मध्यान का जो फल था।
हुए वक्षस्थल पर पतली-सी गर्दन लिए शशिमुख, कृश प्राचार्य की दृष्टि लड़की पर गई प्रोर व एकायक
कटि पर बलखाती चाल, इन सब ने मिलकर उसे षोड़श ठिठक कर रह गये । शिष्य ने उनका अन्तर भाप लिया।
वर्षीया कोमलांगी नवोढा बना दिना। रूप की रानी पूछा
सुनन्दा शकुन्तला से भी दो कदम आगे हो गई। सखियों फटे-चिथड़ों मे सौन्दर्य और उज्ज्वलता को छिपाये
सहित वसत की बहारे लेती शृगार भरे उद्यानों में मस्त यह लड़की कौन है !
झूलो के साथ क्रीड़ा करती हुई जीबन के उतार-चढ़ाव अन्तर्ज्ञानी मौन रहे । वे कर्म और संसार के स्वरूप
का आनन्द लेने लगी। मैं घूम रहे थे और सुनन्दा के जीवन को उनकी पगडंडियो मे खोजने का प्रयत्न कर रहे थे।
सुनन्दा का संगीत अपने ताव पर था। लगता था शिष्य ने पुनः अपना प्रश्न दुहराया।
जैसे कोई किन्नरी नृत्यगान कर रही हो। नगर का यह प्राचार्य का अन्तर्ध्यान हो चुका था। अपने आप में
बाह्य उद्यान सगीत से सजीव हो चुका था। कुछ खोये से बोले-यह लड़की भाग्यशालिनी है । निकट इसी सगीत से आकृष्ट राजकुमार शिकार से वापिस भविष्य मे महाराजी होगी।
उद्यान की ओर पाया। जीवन उसका प्यासा था। कुछ बात थी, कह दी गई। वे जैन श्रमण थे। इससे । समय तो बाहर से ही सुनता रहा। असहनीय होने पर अधिक उन्हे मतलव भी क्या !
प्यास बुझाने उद्यान के अन्दर कदम रखे। देखते ही रूप पीछे से माते हए बौद्ध श्रमण ने यह सब सुन लिया। को लक्ष्मा पर माहित हो गया। इधर पानी पीने का तपे-तपाये जैन श्रमण की बाते असत्य नही हो सकती निवेदन उघर पानी पिलाने का माराधन । थी। यह उसने अनेक बार अनुभव करके देख लिया था। सुनन्दा कोई वर्तन लाने दौड़ती है पर राजकुमार के
स्थिति से लाभ उठाने वाले बौद्ध श्रमण ने दूरदर्शिता __इस प्राग्रह पर, कि वह हाथ से ही पी लेगा, सुनन्दा
यी। उसने बच्ची से प्रसन्नतापर्वक बात की. म. वापिस पा जाती है और घड़े से राजकुमार के बंधे हाथों लाते हुए उसकी कहानी समझी और साथ ले आया।
मे पानी उड़ेलने लगती है। राजकुमार के बंधे हाथ नीचे बौद्ध धर्म के विस्तार की कहानी बौद्ध श्रमण के पास से खुल जाते है मात्र ऊपर रूप की ओर निहारता हपा थी। उसमे क्रिश्चियन मिशनरी स्प्रिट थी।
वह अपने हाथ मुह मे लगाये है। घड़ा खाली हो गया। सुनन्दा को नहलाया-धुलाया। अपना भोजन कराया। प्यास बुझी अवश्य पर वह और अधिक वेदनादायी हो फलतः पितावत् स्नेह पाकर थोड़े ही समय में वह भिक्षु गई। मे अपनापन देखने लगी।
उद्यान की उस मनोहर भूमिका पर प्रेम का बीजा
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२९, वर्ष २३ कि.१
अनेकान्त
रोपण हो चुका । एक दूसरे एक दूसरे के स्नेह के प्यासे जैन आचार्यों में कोन प्राचार्य चमत्कार प्रदर्शन मे हो गये।
सर्वाधिक बलिष्ठ सिद्ध हो सकता है? राजकुमार के हृदय की पीड़ा किसी को अज्ञात नही वैर कुमार आवाज पाई। रही। एक-एक क्षण उसे भारी-भरकम-सा हो गया।
वैरकुमार प्राचार्य सोमदत्त का पुत्र था। सोमदत्त "उद्यान वाला वह कौन थी ?"
का मामा सुभूति भी विद्वान था। परन्तु ईर्ष्याबश सुभूति "भिक्षु की पुत्री।"
ने सोमदत्त को राजा से नहीं मिलाया। एक दिन सोमदत्त मिक्षु को सम्मानपूर्वक विविध सम्पदा दान से सन्तुष्ट स्वय राजा के पास अपना बुद्ध चातुर्य दिखाने पहुँच किया गया।
गया। उसकी विदग्धता से राजा प्रसन्न हो गया और विवाह की रश्मे पूरी हुई। राजकुमार तेज ने तुरन्त
मत्री पद दे दिया। सुभूति ने सोमदत्त का राजसी वैभव ही पट्टराज्ञी का पद देकर सुनन्दा का सम्मान किया।
देखकर अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया। दम्पत्ति अठखेलियां करते हुए जीवन का रसपान
यज्ञसेना को वर्षाकाल मे आम खाने का दोहद हुआ। करने लगे । रमणीक स्थानो की सैर, उद्यानक्रीड़ा, जल
किमी जैन मुनिराज के प्रताप से उसे असमय में भी क्रीड़ा प्रादि से मनोरजन उनके दैनिक कार्य थे ।
मुन्दर व पके ग्राम प्राप्त हो गए । आम तो भेज दिए सुनन्दा से पूर्ववर्ती पट्टराज्ञी सुपमा यह सब देखकर ईर्ष्या से जल उठती है।
यज्ञसेना के पास और स्वय ससार की नश्वरता का सौत के साथ डाह होना स्वाभाविक है। उपेक्षित अाराधन कर जैन दीक्षा ले ली। पौर निरादर की स्थिति में नारी का जीवन दूभर हो यज्ञसेना रुष्ट हो गई । पुत्रोत्पत्ति होने के कुछ दिनो जाता है । दुर्भरता के इस पास से बचने के लिए उसके बाद वह तपस्वी सोमदत्त के चरणों में अपने उस शिशु पास मात्र एक अध्यात्मिक शरण रह जाती है । को रख पाई।
सुषमा का जीवन धार्मिक परिवेश में व्यतीत होने इस उपसर्ग को एक विद्याधर ने दूर किया । उसने लगा। लक्ष्य बदल गया। मन की गांठ भी कुछ ढीली उस लड़के को स्वय स्वीकार कर लिया और नाम रखा पढ़ने लगी। उसने जैन रथोत्सव कराने का आयोजन वरकुमार । किया।
वैरकुमार बड़ा हो गया । विद्याधर ने उसे अपने इस घोषणा को सुनकर सुनन्दा चौकी। उसका सौत बहनोई के पास अध्ययनार्थ छोड़ दिया। समस्त विद्याओं डाह उसके चक्कर लगाने लगा। ईप्यों और क्रोध के में वह अत्यन्त शीघ्र ही पारगामी हो गया। बीच सुनन्दा जल उठी।
जंगल मे एक दिन एक विद्याधरी विद्या सिद्धि कर मेरा भी बौद्ध रथोत्सव होगा और वह जन रथोत्सव रही थी। काटों से वह छिद चुकी थी। वरकुमार ने उसे से पूर्व होगा। सुनन्दा की कठोर घोषणा हो चुकी । काटो से मुक्त किया । फलत: विद्याधरी को विद्यासिद्धि
ईर्ष्या व क्रोध की सीमा अभी तक व्यक्तिगत ही थी पर हो गई। अब वह साम्प्रदायिक देहली तक पहुंच चुकी। जैन और विद्याधरी से सात दिन के लिए राज्य पाकर वरबौद्ध दोनो सम्प्रदाय अपने-अपने प्रयत्न करने लगे। कुमार ने अपने छोट भाई से राज्य छान कर पिता का
सीधे-साधे धर्म को आज भी कोई जल्दी स्वीकार राज्यासीन कर दिया। नही करता । जब तक उसके अनुयायी जनता के समक्ष वैरकूमार के साथ इसी बीच विद्याधरी का परिणय विशेष चमत्कारात्मक शक्ति का प्रदर्शन न कर दे, जनता हो गया। सन्तुष्ट नहीं होती । चमत्कृति प्रधान इस युग में प्राचार्य पिता को राज्यासीन कराने मे माता को असन्तोष अपने-अपने दांव लगाने लगे।
हुमा । इसका सकेत वरकुमार को मिल भी गया।
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धर्म की कहानी : प्रपनी जबानी
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इस पर वरकुमार को सशय हुप्रा। मेरे माता-पिता पाया। कोन है ? इस प्रश्न का उत्तर उसका मन खोजने लगा। विद्या के प्रताप से अमरावती मे विद्याधरों ने अपने वास्तविकता का पता चलने पर वरकुमार का मन संसार रूप भयकर बना लिये। प्रकाश पर वे सब छा गये । से उदास हो गया और उसने जैन दीक्षा धारण कर लो। बौद्ध रथ उन्होने नष्ट-भ्रष्ट कर दिये और माणिक्यादि
घोर तपस्या की उसने । और अनेक विद्यानो की से सज्जित जैन रथ को सारे नगर में बड़ी घूम-धाम से सिद्धि कर ली।
निकाला। जैनधर्म का प्रभाव अक्षुण्ण बनाये रखने के उद्देश्य सारी जनता प्रसन्न हुई और जैन धर्म की प्रभावना से वैरकुमार मुनि की विद्यामो का स्मरण जनता को हो मे चार चाँद लग गये ।
तमिल व कन्नड़ साहित्य के निर्माण में
जैनाचार्यों का विशेष योगदान
डा० प्रार. वी. के. राव नयी दिल्ली-१७ अप्रैल, महावीर जयन्ती के पावन काव्य" की लेखिका सुश्री हेम भटनागर को उनके शोधपर्व पर श्रमण जैन प्रचारक संघ द्वारा मावलकर हाल में पूर्ण कार्य के लिए एक स्वर्ण पदक और २५०० रुपये मायोजित सास्कृतिक मन्ध्या का उद्घाटन करते हुए तथा एक प्रशस्ति भट का। केन्द्रीय शिक्षामंत्री डा. वी० के० प्रार० वी० राव ने प्रारम्भ मे भाषण करते हुए स्वागताध्यक्ष सेठ कहा कि हमारे देश में प्राचीन काल मे भजन को विशेष मुल्तान सिंह जैन ने कहा कि धर्म प्रचार मे सगीत का महत्व दिया जाता रहा है। भजन करने एवं सूनने से विशेष योगदान है। उन्होने संघ द्वारा किये जा रहे मन को अपार शान्ति व पानन्द की प्राप्ति होती है। कार्यों की प्रशमा करने हुए प्रागा प्रकट की कि साहू जी भजन मन की एकाग्रता के लिए अनुपम साधन है । डा० को मंरक्षता में और उनके मागदर्शन में यह सघ अपने राब ने कहा कि भजन किसी भी धर्म का हो सभी का उद्देश्य की शीघ्रातिशीघ्र प्राप्ति करेगा। उद्देश्य एक ही है और वह है ईश्वर भक्ति। उन्होंने माह शान्तिप्रमाद जैन ने अध्यक्ष पद से भाषण कहा कि जैन धर्म एक अति प्राचीन धर्म है। उन्होंने प्रागे करते हुए कहा कि उपदेश का अधिक प्रभाव भजन और कहा कि कन्नड भाषा मे प्रथम साहित्य जैन धर्म से मगीत के माध्यम से होता है। यही कारण है कि जैन पाया । इसी प्रकार तमिल साहित्य के निर्माण मे जैन धर्म में भजन काव्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। हमारे मुनियों का भारी योग रहा है। डा० राव ने संघ द्वारा मुनियो ने तत्व के
मुनियो ने तत्व की बाते मंगीत और भजन के माध्यम से किये जा रहे प्रयासों की प्रशसा करते हए कहा कि आज
ही कही है। उन्होंने इस बात पर हर्ष प्रगट किया प्रावश्यकता है कि तमिल भाषा और कन्नड भापा मे कि श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ इस ओर प्रयत्नशील पाये जाने वाले साहित्य का और दूसरी भाषामो में अन- है। उन्होने प्रागा प्रगट की कि सारे समाज का सहयोग वाद करके उसे जन-जन तक पहुँचाया जाये ।
इस पुण्य कार्य में मिलेगा।
सुश्री हेम भटनागर ने इस अवसर पर कहा कि श्रमण इस अवसर पर डा० राव ने "शृंगार युग मे संगीत जैन भजन प्रचारक संघ द्वारा दिये गये प्राज के इस पुर
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४० वर्ष २३ कि.१
अनेकान्त
स्कार में, मै पाने वाली पीढी के लिए एक आश्वासन उन्होने पर्याप्त योगदान दिया है। उन्होंने कहा कि मैं देख रही हूँ कि वह जो भी कार्य निस्वार्थ भाव से करेगा यह मानता हूँ कि काव्य संगीत के स्पर्श से आध्यात्मिक उसके कार्य की सराहना चाहे देरी से हो पर होगी तट तक जा पहुँचता है। अवश्य । उन्होंने कहा कि मुझे इतनी अधिक जैन राग- इस अवसर पर संघ की ओर से महावीराष्टक का मालाएं देखने को मिली कि मैं उनका वर्णन अपनी पुस्तक नया रेकार्ड रिलीज किया गया। रेकार्ड की प्रथम प्रति व में किए बिना नही रह सकी। उन्होंने इस बात पर खेद श्री दि. जैन कालिज प्रबन्ध समिति बड़ौत द्वारा प्रकाव्यक्त किया कि हम लोग जैन मन्दिर की भव्यता को शित "भरत और भारत" की प्रथम प्रति संघ की ओर देखने तो जाते हैं पर जैन मन्दिरों के ग्रंथालयों मे अपार से श्री राजेन्द्रकुमार जैन ने डा. राव को भेंट की। साहित्य का भण्डार भरा पडा है पाज उनको प्रकाश मे प्रारम्भ में संघ का परिचय संघ के मन्त्री श्री सतीश चन्द लाने की आवश्यकता है। उन्होने कहा कि हिन्दी राग- जैन ने श्रोताओं के सम्मुख प्रस्तुत किया। मालानों में है। इस श्रेत्र में भारी शोध की प्रावश्यकता
इस अवसर पर आकाशवाणी के कलाकारों द्वारा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राजस्थान के
जैन भजनों का एक सुन्दर कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया । ग्रन्थालयों में जो अमूल्य भण्डार भरे पड़े है उनका उद्घा
सभी श्रोताओं ने कार्यक्रम की मुक्त कठ से प्रशंसा की। टन किया जाना ही चाहिए।
टेलीविजन आदि पर कार्यक्रम की झलक भी ब्राडकास्ट पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष व सुप्रसिद्ध की गयी। समारोह में दिल्ली के अतिरिक्त मेरठ सहारनसाहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार जैन ने कहा कि इस गवे- पुर, देहरादून, रुड़की, शामली तथा मुजफ्फरनगर और षणा से यह सिद्ध हो गया है कि हमारे मुनियों का कार्य ज्वालापुर, जगाधरी आदि अनेक नगरों से प्रतिष्ठित केवल बौद्धिक ही नहीं बल्कि काव्यात्मक क्षेत्र मे भी व्यक्तियों ने भाग लिया।
साहित्य के प्रति उपेक्षा क्यों ?
जैन साहित्य कितना विशाल, गम्भीर और उपयोगी है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। जैन जनेतर विद्वान उसकी महत्ता से परिचित हैं। ग्रंथ भंडारों को देखने से उसको विशालता का सहज हो अनुभव हो जाता है। ऐसी कोई प्रौढ़ भाषा और विषय नहीं जिस पर जैनाचार्यों और विद्वानों ने कलम न चलाई हो। खेद है कि इस विशाल साहित्य की आज भी सुरक्षा नहीं की जा रही है। बहुत कुछ ज्ञान भडार ऐसे हैं जो उपेक्षित दशा में पड़े हैं, न उनकी कोई सूची है और न व्यवस्था । व्यवस्था के प्रभाव में ग्रंथ दीमक व कीटकादि के भक्ष्य हो रहे हैं। दिगम्बर समाज को जिनवाणो के प्रति यह महती उपेक्षा कस कतो है। समाज के नवयुवको! जागो! और अपनी पैतृक सम्पत्ति को विनष्ट होने से बचायो। यदि तुमने जिनवाणी का संरक्षण कर लिया तो जैन संस्कृति का संरक्षण और प्रसार सभी सुलभ हो जायंगे। और वीर शासन का लोक में प्रचार और प्रसार हो सकेगा। आशा है समाज और समाज के नवयुवक पुरातन साहित्य के संरक्षण का दायित्व उठाने का प्रयत्न करेंगे।
-परमानन्द शास्त्री
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'प्रमाण प्रमेय कलिका' के रचयिता नरेन्द्रसेन कौन ?
रायप्पा घरणप्पा टोकण्णवर
अनुवादक :-जी० ए० शेट्टर पंडित दरबारीलाल कोठिया से संपादित, श्रीमाणिक- श्रीमत्स्वामी समन्तभद्रमतुल वन्दे जिनेन्द्रमुदा ।। चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रथमाला मे ४७वं ग्रथ के रूप में
-न्याय वि० वि० प्रतिम प्रशस्ति श्लोक २ प्रकटित-'प्रमाण-प्रमेय-कलिका' नामक संस्कृत न्यायग्रंथ इस प्रशस्ति श्लोक में उल्लिखित विद्यानन्द, अनन्तप्राचार्य नरेन्द्रसेन की कृति है। इसकी प्रस्तावना में प. वीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर, कनकसेन पौर दरबारीलाल कोठिया ने सात नरेन्द्रसेनो का उल्लेख स्वामी समन्तभद्र जैसे प्राचार्यों की श्रेणी मे नरेन्द्रसेन को किया है।
गिनकर उनके निर्दोष नीतिपालन को वादिराज सूरी ने उनमे १ला तथा दूसरा एक ही व्यक्ति; तीसरा एक श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । सपादक ने इनके सिवा दूसरे अलग व्यक्ति; चौथा, पांचवां तथा छठा एक ही व्यक्ति साधनो के प्रभाव में-वादिराज सूरी के-पार्श्वनाथ और सातवा एक अलग व्यक्ति-इस तरह चार नरेन्द्र चरित को अन्तिम प्रशस्ति में उल्लिखित शकवर्ष १४७सेनो को उन्होंने पहचाना है। इन चारो में-अन्तिम- (सन् १०२५)-को वादिराज का समय जानकर-न्याय(सातवां) व्यक्ति ही सभवतया इस प्रमाण प्रमेय कलिका विनिश्चय-विवरण के अन्तिम प्रशस्ति मे उल्लिखित-- का रचनाकार हो सकता है । और रचनाकार का जीवित- नरेन्द्र मेन, वादिराज के समय से पूर्व हुमा होगा; ऐसा काल सन १७३०-३३ तक निर्धारित कर अन्त में यही लिखा है। सातवाँ व्यक्ति---'प्रमाण-प्रमेय कलिका' का रचनाकार यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि वादिराज के होने का निश्चय करते है, पर उनका यह निश्चय निम्न इस प्रशस्ति में पाए हुए सभी मुनिगण, वादिराज से पूर्व कारणों से ठीक नही जॅचता है।
के ही होना आवश्यक नहीं है। हो सकता है कि कुछ ___उनके सपादन के लिए प्राप्त दोनों प्रतियाँ-अर्वा- वादिगज के समकालीन भी रहे हो।। चीन काल में प्रति की गयी है। इन्हीं प्रतियो के आधार वादिराज के गुरु कनकसेन के शिष्य दयापाल के पर उनका निर्णय अवलवित होमे से, (उनका निर्णय) बारे मे शिवमोग्ग जिले के, नगर (होम्बुज) का क्रमांक ऐसा हुया है।
३५वे शिलाशासन में-"राजमल्ल देवरिगे-गुरुगले निसिद कर्नाटक से अन्य प्रान्तीय लोग, मूल के प्रतिलिपि कनकसेन भट्टारक शिष्य शब्दानुशासनक्के-प्रक्रियेयेन्दु रूपकर ले जाने का रूढि-प्राचीन काल से ही है। नरेन्द्रसेन सिद्धियं माडिद दयापाल देवरू"-(कन्नड़)-हिन्दी अनुकी 'प्रमाण प्रमेय कलिका' भी इन्ही प्रतिलिपियों में से वाद :-"कन कसेन के शिष्य, रायमल्ल के गुरू दयापाल एक क्यो न होगी ?
ने शब्दानुशासन की प्रक्रिया की रूपसिद्धि को रचा है।" पहले नरेन्द्रसेन के बारे में संपादक ने प्रस्तावना में ऐसा वर्णन उक्त शासन में है। इस शासन का समय सन् वादिराज सूरी का-न्याय-विनिश्चय-विवरण के अन्तिम १०५० है। शासनाल्लिखित दयापाल तथा वादिराज के प्रशस्ति दूसरे श्लोक का उद्धरण देते हैं
न्याय विनिश्चय विवरण के अन्तिम प्रशस्ति में उल्लिखित विद्यानन्दमनन्तवीर्य सुखद श्री पूज्यपादं दया
दयापाल एक ही व्यक्ति है, ऐसा निर्धार कर सकते है । पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाराध्यमम्यद्यमी।
ऐसे निश्चय से यह स्पष्ट हो जाता है कि दयापाल, वादिराज शृखयनीति नरेंद्रसेनमकलक वादिराज सदा
तथा नरेन्द्रसेन तीनों समकालीन थे।
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४२ वर्ष २३ कि.१
अनेकान्त
__ अब नरेन्द्रसेन के लिए लिखित एक शिलाशासन मार्गशशी सख्ययोलावगमोंदिवतिसुत्तिरे शककाल मुन्नतिय. देखेगे। धारवाड जिला, गदग-तालुक के ग्राम मुलगुद के नन्दनवत्सरदोल"-यहाँ पर गिरी शब्द का संकेतार्थ सन् १०५३ के शिलाशासन मे-नरेन्द्रसेन के शिष्य नय- सात होने से १०३७ शक वर्ष होने पर भी नन्दन सवत्सर सेन के सन्मुख दिये गए दान शामन मे नरेन्द्रसेन को 'व्या- शक वर्ष १०३४ मे पाने से नयसेन द्वारा गिरी का सकेकरण पडित' कह कर वर्णन किया गया। मूलः कन्नड़:- तार्थ (४) चार ग्रहीत हुया है ऐसा समझ पडता है। चंद्रकातंत्र जनेन्द्र शब्दानुशासनं पाणिनीय ।
शक वर्ष १०३४ अर्थात् सन् १११२ ईस्वी नयसेन के संन्द्र नरेन्द्रसेन मुनीन्द्रगे-ऽऽकाक्षर पेरंगिषु मोग्गे॥ धर्मामृत का समाप्तिकाल टहरता है।
हिन्दी अनुवाद :-चन्द्र, कातंत्र, शब्दानुशासनं- इन नयसेन द्वारा अपने धर्मामृत में वर्णित कुछ पाणिनी, इन्द्र आदि व्याकरण ग्रन्थ नरेन्द्रसेन के लिए एक पद्याशों का अवलोकन कीजिए। अक्षर के बराबर है।
कन्नड़ :इसी शासन मे नरेन्द्रसेन के शिष्य नयसेन के बारे गरु विद्याम्धिनरेन्द्रसेन मनिपं- त्रैलोक्य चक्रेश्वरं । में ऐसा वर्णन है। मूल: कन्नड:
परमधीजिन निष्टदेव नमलं श्रीजनयोगीश्वरं ॥ निनगर्नेबेनो शाकटायन, मुनीशं ताने शब्दानु-।
परमार्थ तनगालदरुत्तम विनेयबंधुवर्ग निजासनवोल पाणिनी, पाणिनीयदोल चन्द्र, चान्द्रदोलतज्जिनें। दर दिवेंदोड़े भापु धन्यने दिट वात्सल्यरत्नाकरं ॥५६।। बन जैनेन्द्रदोला कुमारने गंड कौमारवोलान्नवरें।
हिन्दी:-उपरोक्त पद्य मे नयसेन मुनीन्द्र ने अपने तेने पोन्नतन्नयसेन पंडितरोलन्याधिवितोयोल ।।
गुरु नरेन्द्रसेन का गुणगान किया है। साथ ही धर्मामृत के वचन :-इंतु समस्त शब्द शास्त्र पारगन्नंयसेन पडित- २५वे पद्य में नरेन्द्रसेन के साथ 'विद्य नरेन्द्रसेन' वाक्य देवर । हिन्दी मे अनुवाद :-नयसेन उपरोक्त सभी व्या- द्वारा उन्हें विद्य भी मूचित किवा है। यह उनकी उपाधि करण ग्रथों के ज्ञाता तथा निपुण विद्वान थे।
मालूम होती है। हमी शासन मे चालुक्य चक्रवति त्रैलोक्य मल्ल सोमे- कन्नड:-पडेदोडे तपम श्रुतम । श्वर (सन् १०४३-१०६७) के शासनकाल मे उसके सधि
पड़ेयर तच्छ तमनेये पड़ेदोड़े तपमम् ।। विग्रहाधिकारी बेलदेव के प्रार्थनानुसार सिन्द कचरस ने मुल
पड़ेयरदं तवनेरेड म्। गुन्द के जिनमन्दिर को भूदान देने का प्रस्ताव है। उसमें
नोड़बड़े नरेन्द्रसेन मुनिपते धन्य ॥२०॥ मुख्यतः बेलदेव के गुरू नयसेन और नयसेन के गुरू नरेन्द्र
एनितोलवु तर्कशास्त्रम-। सेन का वर्णन भाया है।
वनितुमनतिशयदिनेशये नयसेन मनी-॥ इस शासनोक्त नयसेन ने कन्नड़ भाषा मे "धर्मा
द्र ने बल्लनेन्दु धारिणी। मृत" नामक एक कथा काव्य लिखा है। इसका व्याकरण
मनादरदिदे पोगले कीतियनातम् ॥२१॥ ग्रन्थ भिन्न नही।
नुत सिद्धन्तोकोप्पुवेत्तु जिनसेनाचर्यारं शास्त्रदु-। सस्कृत भाषा में कन्नड व्याकरण ग्रन्थ "भाषा नतियोल भाविसे पूज्यपाद मुनिमों षटतर्कदोल धारिणी।। भूषण" के रचनाकार नागवर्मन अपने भाषा भूषण के स्तुतनागिर्द समंतभद्र मुनियि मिविकर्दनयत्तपः। ७४वे सूत्र में "दी?नयसेनस्य" कहकर नयसेन के मतानु- श्रुतवाराशी नरेन्द्रसेन मुनिप विद्य चक्रेश्वरं ।।२४।। सार संबोधन प्रत्यय का दीर्घात उदाहरण दिया है। इससे पोड़वीशर भुवन कमल्लनुत पादाभोजरत्यजितर । इस नागवर्म का समय सन् ११४५ ईस्वी है।
दृढ़चित्तर गणचन्द्र पडितरिला लोक कपूज्यर मनं ॥ नयसेन मुनीन्द्र ने धर्मामृत में उसका समाप्तिकाल बिड़े विद्यमहाभिधानमनद फूर्तककरि कोहरें। अक्षर संज्ञा से यो प्रकट किया है।-"गिरी शिखी वायु- दोडे विद्य नरेन्द्रसेन मुनियोस् वाग्मीशरार लोकबोल ॥२५
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'प्रमाण प्रमेय कलिका' के रचयिता नरेन्द्र सेन कौन ?
हिन्दी:-उपरोक्त पद्यों में तप एवं श्रुत युक्त अपने बताया है। वादिराज तथा मल्लिषेण के बताए गए समय गुरु नरेन्द्रसेन मुनि ने अपने को (नयसेन को) संपूर्ण तर्क मे २२ वर्ष का अन्तर है। पहले तथा दूसरे नरेन्द्रसेन... शास्त्र पढ़ाकर प्रसिद्ध किया था । इतना ही नहीं, सिद्धांत मभिन्न है, एक ही व्यक्ति है। सम्पादक महोदय के में जिनसेनाचार्य, शास्त्र पांडित्य में पूज्यपाद, षट्तक में ऐसे अभिप्राय से हम सहमत है। अब हम मल्लिषेण के समन्तभद्र मुनि प्रादि से भी पारंगत तथा विद्य चक्रेश्वर समय निर्धारण के लिए आवश्यक सन् १०९४ का एक था, ऐसा नयसेन अपने गुरु के बारे मे कहते हैं।
शिलाशासन नीचे उद्धृत करते है। चालुक्य चक्रवर्ती भुवनकमल दूसरे सोमेश्वर-(१०६८- कलबुर्गी जिला के-इगलिगे-ग्राम के उध्वस्त जिन१०७६) से पूजित-गुणचन्द्र देव ने नरेन्द्रसेन मुनि को मन्दिर में यह शासन प्राप्त हुप्रा है। बड़े प्रेम से विद्य महा अभिदान दिये तथा नरेन्द्रसेन चालुक्य त्रिभुवनमल्ल छठा विक्रमादित्य......(सन् अद्वितीय वागीश है ऐसा नयसेन के उपरोक्त पद्यों में १०७६.११२६)-की रानी जाकल देवी-परल-३०.केलुभ्य शब्द चित्र हैं। नरेन्द्रसेन अनूठा जैन न्यायशास्त्रज्ञ इगुणिग-ग्राम में राज्य भार करती थी। था। सन् १०५३ ईस्वी के इस मुलगुन्द शासन मे प्रथम एक बार एक व्यापारी, ने राजा विक्रमादित्य के दरबार नयसेन का नाम पाया है । इन नयसेन के पूर्व एक बारमे एक जिनबिम्ब दिखाया। राजाने अपनी राणी जाकल पीढ़ी के वर्ष कम कर देखने से (एक पीढी=२५ वर्ष) देवी की ओर देख कर कहा-पा हा कितनी सुन्दर मूर्ति सन् १०२८ ईस्वी होता है। इसलिए यह शासन, नरेन्द्र- है; यह तेरा कुलदेव है; इसे तेरे द्वारा शासित प्रदेश की सेन वादिराज का समकालीन था, इसका प्रमाण है। राजधानी में प्रतिष्ठा करो। तदनुसार रानी ने अपनी संस्कृत में लिखित प्रमाण-प्रमेय कलिका का कर्ता यही काति चिरकाल तक स्थायी रहने योग्य जिनमन्दिर बनवा नरेन्द्रसेन था ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं पाती। कन्नड़ कर मूर्ति प्रतिष्टापन करवायी। और जैन साहित्य तथा शासन साहित्य से अपरचित "माडिसिदप्पेवि जिनगहगल नबीवरी प्रकारदि। प्रमाण-प्रमेय-कलिका के सम्पादक का अभिप्राय ऐसा हो माडिदितिदलते पडिचन्दमिलावलयपकेनलके ना-॥ गया है जो असमर्पक है।
डाडिगलंमप्प परिशोभेगे तायमनेयागे भक्तियि । प्रस्तावना में सम्पादक महोदय ने मल्लिपेण मूरी माडिसिद लिवयत्तकमनोत्तरिपतु जिनेंद्रगहमं ॥ कृत "नागकुमारचरित" की अन्तिम प्रशस्ति से उद्धृत अश,
वचन : अतु माडिसी श्रीमद्दमिलसंधवन वसत समयाँ जो दूसरे नरेन्द्रसेन से सम्बन्धित है वह यो है :
सेनगण, मगणं नायकरु मालनूरान्वय शिर शेखर तस्यानुजश्चारु चरित्र वृत्तिःप्रख्यातकोतिर्भवी पुण्यति. ।
मेनिसिद श्रीमन मल्लिपेण भट्टारकर प्रियाननरेन्द्रसेनी जितवादि सेनो विज्ञानतत्वो जितकामसूत्रः॥४॥
शिष्यरं तन्नन्वयद गुरुगनुमेनिसिद श्री मदीद्रसेन तच्छिष्यो विभुदाग्रणोर्गुणनिषिः श्रीमल्लिषेणाव्हयः ।
भट्टारकर्ग-विनयर्दिकरकमलगल मुगिदुसजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ॥१॥ मल्लिपेण के द्वारा वणित इन पद्यों में नरेन्द्रसेन को
एसे विनग समतु महमाणी जिनेश्वर विवम प्रति-1 जिनसेनके अनुज बताया है । इतना ही नही नरेन्द्रसेन को
ष्ठिसिदे निदनत्यपूर्वमेने तज्जिनगेहमनति इंदे मा.॥ उज्ज्वल चरित्रवान, तत्वज्ञ तथा काम विजयी कहा गया है।
डिसिदेनदक्के तक्क तलवृत्तियुग्मं समकट्टिद-प्रसा। मल्लिषेण ने ५वे श्लोक मे मल्लिषेण अपने को कनकसेन
दिसी मनवोलदु कयको कुषुजित मागिरे। का प्रशिप्य तथा जिनसेन का शिष्य बताने से जिनसेन
=मालपुदितिद ॥ तथा उसके सधर्मा नरेन्द्रसेन दोनों उसके गुरुजन होगे। वचन : एन्दु तन्मुनीद्ररनेगोकिसी कालं कचौंधारापूर्वकं
निपुण मत्रवादी मल्लिपेण अपने महापुराण के अन्त माडी बिट्ट ईकेयुमनी, तोंटमुमनी, केरीयुमनी, में उसका समाप्तिकाल शकवर्ष ६६६ (सन् १०४७) जिनेद्र मंदिरमुमं कंडा
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४४, वर्ष २३ कि०१
भनेकान्त
प्रणुत शिररागी कग्ग-1
यही व्यक्ति प्रमाण-प्रमेय कलिका का लेखक है ऐसा सिद्ध लताणि विनेग जोडी योगदी स्थलदोलका-।।
करने का प्रयास किया गया है। -गिणि गासेगेयदव का
यदि हम नरेन्द्रसेन विद्य के बारे मे स्पष्टीकरण -गिणियोरिन रुड कोक्कुलगलनलिद-॥
नहीं देगे तो हमारा प्रयास अधूरा रह जायेगा। इसलिए वचन : वाग्वधूनन्दन जिनपादाभोज भृ गं
हम पाठकों का ध्यान इस ओर प्राकर्षित करना चाहेगे । नागार्जुन पडित नरेन्द्र मगल माहा श्री॥"
नयसेन के समकालीन साहित्य में उपलब्ध शातिनाथ उपरोक्त शासन मे-त्रिभुवनमल्ल छठा विक्रमादित्य (सन् १०६०) के सुकुमार चरित के प्रथम प्राश्वास के की रानी जाकलदेवी अपने-अन्वय के-(कुलके) गुरु द्रविड़ २८वे पद्य को उद्धृत कर हम अपना स्पष्टीकरण यहां संघ के सेनगण के मालरान्वय के सम्मुख में अपने द्वारा देते है। यह पद्य श्रवण बेलगोल के ११७ वा शासन में निर्मित जिनमदिर को दान देते समय अपने गुरु के पाद- भी है :
कर यर चिरकाल तक चलें-ऐसा कहा गया। विदित व्याकरणद त। इस शासनोक्त मल्लिषण तथा प्रस्तुत लेख में ही
कर्कद सिद्धांतदविशेषदि विद्याअन्यत्र पाए हुए मत्रवादी मल्लिषेण दोनो एक ही व्यक्ति
स्पदरको धरे बणिपुदु-दिवाकर नदिदेव सैद्धांति गल ।। है। मल्लिषेण के शिष्य इन्द्रसेन का जीवित समय मे
इस पद्य मे वणित व्यक्ति को अलग रखकर, विद्य सन् १०६४ का शासन निर्माण हुआ है। सन् १०९४ से
के बारे मे विवेचन करने से विद्य नामक अभिधान की एक पोढी पूर्व मल्लिषेण का जीवित समय होता है। दो पात्रता क्या है यह स्पष्ट रूप से समझ में आता है। पीढ़ी पूर्व जाने से पाने वाला सन् १०५३ का-मुलगुन्द
श्रीवद्य का अर्थ, व्याकरण, तर्क और सिद्धान्त है। इन शासन से किंचित् पीछे सन् १०४४ ईस्वी होता है । इसी
तीनों में पारगत जिनमुनी को ही इस विशेष पदवी से समय नरेन्द्रसेन अपने शिष्य नयसेन के अध्यापक बन
अलकृत किया जाता था। इसी परपरानुसार चालुक्य कर, पाठ-प्रवचन देकर शास्त्रपांडित्य में उसे निपुण बना
चकवर्ती भवनकमल्ल दूसरा सोमेश्वर के समय मे भुवनैकरहा था, ऐसा समझ सकते है। इसी समय गुरु नरेन्द्रसेन
मल्लनुत पादाभोज गुणचन्द्र पडित देव से नरेन्द्रसेन ने को सन्निधि मे, नयसेन तथा मल्लिषेण समवयस्क होकर
विद्य नामक अभिदान पाया था ऐसा नयसेन के धर्मामृत अध्ययन करते थे।
में आये हुए पद्य मे स्पष्ट प्राधार है। इस तरह नरेन्द्रसेन
व्याकरण तर्क सिद्धात इन तीनो शास्त्र मे अद्वितीय इस शासन का-(सन् १०३४)-मूलनून-(ऊर, खेट,
पाडित्यवान होने से इन्ही के द्वारा प्रमाण-प्रमेय-कालिका खेड़ इन तीनों का अर्थ कन्नड़ मे ग्राम होता है)-कोई भी
नामक जैन न्यायग्रथ का निर्माण होना सिद्ध होता है । नगर, नदी या पर्वत प्रदेश के आसपास हो तो उसे खेट
प्रमाण प्रमेय कालिका का प्रारम्भिक मगलाचरण नाम से जाना (पुकारा) जाता है। इस प्रकार मालनूर- को नरेन्दसेन ने विद्यानन्दी प्राचार्यकृत-प्रमाण-परीक्षा से कागिणी-नदी के किनारे बसने से मालखेट या मलखेड गारपस्तत राहातांत विषयानमार दिये गये उद्धरण नाम से यह ग्राम परिचित हुआ है। माल+ऊर
श्लोक स्वामी समतभद्र के प्राप्त मीमासा और युक्त्यनुमालनूर; माल+खेड़-मालखेड़ या मलखेड़ सभी एक ही
शासन से लिये गये है । इससे यह अधिक स्पष्ट हो जाता अर्थ देने से मलखेडान्वय, सेनगण के जन्मस्थान बनकर
है कि प्राचीन कर्नाटक के पूर्वाचार्य स्वामी समतभद्र तथा प्रसिद्ध हुआ है।
विद्यानन्दी जैसे महान आचार्यों के प्रथो के अध्ययन के ऐसा पूर्वेतिहास नरेन्द्रसेन का रहने से "प्रमाण-प्रमेय- बल पर ही नरेन्द्रसेन ने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की है कलिका" का कर्ता यही नरेद्रसेन है ऐसा कह सकते है। ऐसा हम निस्सकोच कह सकते है । इस बारे में पीछे हम काफी विवेचना कर पाये हैं और
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आत्म-विश्वास
पूज्य श्री रणजी वर्णीजी
श्रात्म विश्वास एक विशिष्ट गुण है। जिन मनुष्यो मे आत्मविश्वास नही, वे मनुष्य धर्म के उच्चतम शिखर पर चढने के अधिकारी नहीं । २. जिस को आत्म विश्वास नही वह कभी मनुष्य भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। ३. जो मनुष्य सिंह के बच्चे होकर भी अपने को तुल्य तुच्छ समझते है । जिन्हे अपने अनन्त श्रात्मबल पर विश्वास नहीं, वही दुःख के पात्र होते है। ४. मुझसे क्या हो सकता है? मैं क्या कर सकता हूँ | मैं श्रसमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ। ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म विश्वास के अभाव मे कदापि सफल नही हो सकते है ।
भेड
५. जिस मनुष्य को ग्रात्मविश्वास नही, वह मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी मही ।
६. श्रात्मा के प्रदेश मे अनन्तानन्त कार्मण वर्गनाएँ स्थित है, अतः कर्मबन्ध की भयदूरता और ससार परि भ्रमण रूप दुःख परम्परा को देखकर अज्ञानी मनुष्यो का उत्साह भन्न हो जाता है किसी कार्य मे उनको प्रवृत्ति नही होती निरन्तर रोड ध्यान और पार्तध्यान में काल व्यतीत कर दुर्गति के पात्र बनते रहते है । "हाय इन कार्यों का नाश कैसे कर सकेगे।" यह विचार बड़े-बड़े बलवानो को भी निर्बल और निरुत्साही बना देता है । किन्तु जब वे धर्मशास्त्र के दूसरे विचारों को रखते है तब पूर्व विचार द्वारा जो कमजोरी ग्रात्मा मे स्थान पाई है वह क्षणमात्र में विलीन हो जाती है। वे विचार करते हैं कि जिस कर्म का बन्धन करने वाले हम हैं उसका विनाश करने वाले भी हमी हैं । श्रात्मा की शक्ति अचिन्त्य और अनन्त है। जिस तरह प्रचण्ड सूर्य के समक्ष घटाटोप मेघ भी देखते-देखते विखर जाते हैं, उसी तरह जब यह भ्रात्मा स्वीय विज्ञान धन और निराकुलतारूप सुख का अनुभव करता है तब उसकी शक्ति इतनी प्रबल
T
हो जाती है कि कितने ही बलिष्ठ कर्म क्यो न हो एक अन्तर्मुहूर्त मे भरमशात् हो जाते है। मोह का प्रभाव होते ही यह श्रात्मा ज्ञानाग्नि द्वारा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, और अनन्तवीर्य के प्रति ज्ञानावरणादि कर्मों को ईंधन की तरह क्षण भर में भस्म कर देता है । इस प्रकार जब यह ग्रात्मा अचिन्त्य शक्ति वाला है तब हम लोगों को उचित है कि अनेक प्रकार की विपत्तियो के समागम
होने पर भी श्रात्मविश्वास को न छोड़े ।
७. श्री रामचन्द्र जी को वनवास में दर दर भटकना पडा, अनेक विपत्तियाँ सहनी पडी । समन्तभद्र स्वामी को भी अनेक सकटी ने मेरा परन्तु उन्होंने म विश्वास को नहीं छोडा । श्रकलङ्क स्वामी ने छह मास पर्यन्त द्वारा देवी से विवाद कर इसी आत्मबल के भरोसे धर्म की विजय वैजयन्ती फहराई । कहने का तात्पर्य यह है कि श्रात्मविश्वास के होने से हम कोई भी महत्वपूर्ण काम नही कर सकते । जितने महापुरुष हुए है उन सभी मे आत्मविश्वास एक ऐसा प्रभाविक गुण या जिसकी नीव पर ही वे अपनी महत्ता का ही महल खड़ा कर सके ।
कवि-व्याख्याता, लेखक, छात्र-छात्राएँ विद्वान वैद्य विदुषियों, कर्जदार साहूकार मालिक-मजदूर बंध रोगी, श्रभियुक्त न्यायाधीश, संनिक-सेनापति, युद्धवीर, दानवीर, और धर्मवीर सभी को आत्मविश्वास गुण की आवश्यकता है । अन्य की कथा छोडिए । परम वीतरागी माधुवर्ग भी इस श्रात्मगुण के द्वारा ही आत्म कल्याण करने में समर्थ होते है । सुकमाल मुनि प्रकृति के अत्यन्त कोमल थे, परन्तु इस गुण के प्रभाव से व्याघ्र द्वारा शरीर विदीर्णं किये जाने पर भी श्रात्मध्यान से रंचमात्र भी नहीं डिगे, उपसर्ग को जीत कर सर्वार्थसिद्धि के पात्र हुए और डीपायन मुनि इस गुण के प्रभाव में द्वारका का विध्वस कर स्वय दुःखों के पात्र बने । (शेष पृ० ४६ पर)
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सवौषधि दान
परमानन्द जैन शास्त्री
वह सौषधि के दिव्य फल को प्राप्त हुई। उसने से उसे भी माराम हो गया, इससे रूपवती के मन पर भक्तिवश औषधियों का दान जो दिया था। मुनिराज की गहरा प्रभाव पड़ा। उसे उस जल की महत्ता का भान सेवा की थी। उसी का दिव्य परिणाम था, जो उसके हुमा, वह समझती थी कि वृषभसेना बड़ी पुण्यशालिनी स्नान जल से विविध रोगों का विनाश हो जाता था, है, जिसके शरीर स्पर्शित जल से भयकर रोग दूर हो काया दिव्य बन जाती थी। कोढ जैसे भयंकर रोग भी जाते है। इसके स्नान जल की रोगहारी विशेषता इसके क्षण भर मे चले जाते थे। पुण्य फल से ससार में क्या विशेष पुण्य की द्योतक है। रूपवती अब उस जल से अनेक नहीं प्राप्त होता । जिन पूजा, साधु-सेवा, सयम, भक्ति, रोगियो को अच्छा करने लगी। स्वाध्याय और दान आदि सभी श्रेष्ठ कर्म पुण्य फल के ही एक दिन एक कोढ़ी पाया, कोढ़ से उसका शरीर कारण है। कावेरी नगरमे राजा उग्रसेन राज्य करते थे, जो राज
गल रहा था वह उसकी वेदना से छटपटा रहा था। नीतिके अच्छे विद्वान थे और प्रजा का पुत्रवत् पालन करते
मक्खियाँ उसे बहुत तंग कर रही थी, शरीर से दुर्गन्ध भी थे, उसी नगरमे सेठ धनपतिभी रहते थे और उनकी धर्मपत्नी
पा रही थी। रूपवती ने उस जल को उसके शरीर पर धनश्री थी, उनके एक पुत्री उत्पन्न हुई । वह जन्मकाल से
डाल दिया, इससे उसे शान्ति मिली, उसका रोग चला
गया। इससे लोक में रूपवती का नाम प्रसिद्ध हो गया। ही लावण्यमयी थी, उसकी काया कंचनके समान दीप्यमान थी। वह पुण्यात्मा जो थी। उसका नाम था वृषभसेना ।
रोगी उसके पास आते और वह उन्हे उस जल से रोगवह देखने में जितनी सुन्दर और मनोहर थी, वह उतनी
मुक्त कर देती थी।
उग्रसेन और मेघपिंगल मे पुरानी शत्रुता थी। समय ही सरल और मृदुभाषिणी भी थी । बह किसी देवकुमारी से कम न थी। रूपवती धाय ने वृषभसेना के स्नान जल
पाकर उग्रसेन ने अपने मत्री रणपिंगल को मेघपिंगल पर
चढाई करने की प्राज्ञा दी। रणपिंगल ने उसके नगर को को एक गड्ढे में इकट्ठा कर दिया था और प्रतिदिन का
चारों ओर से घेर लिया। मेपिंगल ने शत्रु को युद्ध में जल वह उसी गड्ढे मे डाल दिया जाता था। एक दिन
परास्त करना असम्भव समझ एक दूसरी युक्ति से काम महारोगी एक कुत्ता तडफता हुआ आया और उस गड्ढे
लिया, उसने योजनानुसार शत्रु की सेना को जिन जिन मे बैठ गया। थोड़ी देर के बाद जब वह उसमे से निकला
कुए बावड़ियों से पेय जल मिलता था उनमे अपने चतुर तब उसका सब रोग शान्त हो गया था। यह दृश्य देख
जासूसों द्वारा विष डलवा दिया। परिणाम स्वरूप रणकर रूपवती ने उस जल की और भी परीक्षा करनी
पिगल की बहुत सी सेना मर गई, जो बची उसे लेकर चाही, जिससे विश्वास में दृढता आ सके; और यह निश्चय
वह स्वयं अपने देश को लौट गया। उस सेना पर विष किया जा सके कि इस पानी मे सचमुच ही रोग नाशक
का असर हुआ था उसे रूपवती ने उसी जल से दूर कर तत्त्व है । एक दिन वह उसके स्नान जल को लेकर अपने
दिया। इससे सेना रोग मुक्त हो गई। घर गई और अपनी मां की आँखो को उस जल से धो ।
xxxx दिया, जिससे उसे शान्ति मिली। मां की आँखे कई वर्ष
राजा उग्रसेन को जब मेपिगल की इस शरारत का से खराब हो रही थी, इलाज करने पर कुछ भी लाभ पता चला, तब उसे उस पर बहुत क्रोध आया। वह स्वयं नजर नहीं आता था, अतएव वह दुखी थी। पर इस जल सेना लेकर गया, बहत सावधानी वर्ती तो भी वह उस
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सर्वोषधि दान
विष जन के प्रभाव से बच नहीं सका और बीमार होकर उसे लौटना पडा । उसका बड़ा अपमान हुआ । रणविगल से उन्होने इलाज की बात पूछी तब उसने रूपवती का जल बतलाया । राजा ने तत्काल ही अपने आदमियों को रूपवती का जल लाने के लिए सेठ के यहाँ भेजा। प्रपनी लड़की के स्नान जल को लेने के लिए राजा के प्रादमियों को प्राया देख घनश्री ने अपने पति से कहा, अपनी वृषभसेना का जल राजा के सिर पर छिड़का जाय यह उचित नही है । सेठ ने कहा तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु इसके लिए अन्य उपाय है ही क्या ? उसमे अपने वश की कोई बात नही है । हम स्वयं तो जानबूझ कर ऐसा कर नहीं रहे है । और न कोई वास्तविक तथ्य ही किसी से छिपा रहे है । तब इसमे अपना कोई अपराध नही हो सकता । यदि राजा साहब पूछेंगे तो सब हाल सच सच बतला देगे । सच है अच्छे पुरुष प्राण जाने पर भी झूठ नही बोलते । दोनो ने विचार कर रूपवती को जल लेकर राजा के महल पर भेज दिया । रूपवती ने उस जल को राजा के शिर पर छिड़क दिया। राजा रोग मुक्त हो गया। इससे राजा को प्रडी प्रसन्नता हुई । रूपवती से उन्होने उस जल का हाल पूछा, रूपवती ने सभी बातें सच सच कह दी । सुनकर राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और उसका आदर-सत्कार किया। वृषभसेना का हाल सुन कर राजा का मन उससे विवाह करने का हो गया और इसीलिए राजा ने अवसर पाकर धनपति से अपनी इच्छा कह सुनाई । धनपति ने उसके उत्तर मे कहा - राज राजेश्वर ! मुझे आपकी भाशा मानने में कोई रुकावट नहीं है पर इसके साथ आपको स्वर्ग-मोक्षदावी चाष्टान्हिक पूजा करनी होगी। जिसे भक्ति वश इन्द्र, घरणेन्द्र चक्रवर्ती, विद्याधर राजा-महाराजा श्रादि करते है। जिन भगवान का अभिषेक भी करना होगा। इसके सिवाय, आपके यहां जो पशु पक्षी पीजरो मे बन्द है उन्हें और अन्य कैदियों को छोडना होगा। यदि आपको हमारी ये शर्तें मजूर हो तो वृषभसेना का विवाह श्रापके साथ हो सकता है। राजा ने अपनी स्वीकृति प्रदान की और वृषभसेना का विवाह राजा उग्रसेन के साथ हो गया ।
वृषभसेना पट्टरानी के पद पर प्रतिष्ठित है, राजा,
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रानी दोनों ही सासारिक सुख मे मग्न है । राजा अब राज कार्य मे कम ही भाग लेते है। किन्तु अधिक समय धनःपुर में ही व्यतीत करते है किन्तु रानी सेना अपने दैनिक कर्तव्यों और जिन पूजा, दान आदि का प्रतिदिन ध्यान रखती है उसे धर्म प्राणो से भी अधिक प्यारा है । उसे दृढ विश्वास है कि मानव जीवन की सफलता का मूल कारण धर्म ही है, धर्म ही जीवन का सहारा है । वही वन्धु है । शत्रु, अग्नि जल, विष, सर्प आदि के विघ्नों से बचाता है। जीव का रक्षक श्रीर दुःखों से बचाने वाला एक धर्म ही है। वही मुझे व अन्य जीवों के लिए शरण है ।
राजा उग्रसेन के यहाँ बनारस का राजा पृथ्वीचद कैद था । यद्यपि वह बहुत दुष्ट था। पर तो भी उप्रसेन का कर्तव्य था कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विवाह के समय उसे भी मुक्त कर देते । पर ऐसा नही किया ।
पृथ्वीचद की रानी का नाम नारायणदत्ता था । उसे श्राशा थी कि राजा उग्रसेन वृषभसेना के विवाह के समय मेरे स्वामी को अवश्य मुक्त कर देंगे। पर उसकी सब धाशा व्यर्थ हुई। उसने अपने स्वामी को छुडाने के लिए मंत्रियों से सलाह कर बनारस में वृषभसेना नाम से अनेक दानशालाएं बनवाई। कोई भी देशी या विदेशी जो भी यात्री श्राये उसे सरस एव स्वादिष्ट भोजन मिलता था, इससे दानशालाओं की प्रसिद्धि हो गई। जो व्यक्ति न दानशालालाओ में एक बार भी भोजन कर लेता वह उसकी प्रशंसा करने से नही चूकता था। दानशालाओं की प्रशसा कोरी ही नही थी। उनमे यात्रियो को सब प्रकार की सुविधा मिलती थी। स्वादिष्ट भोजन पान की ऐसी सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र नही थी । अतः उनकी प्रसिद्धि होना स्वाभाविक था ।
कुछ समय में इन दानशालाश्रो के सम्बन्ध मे रूपवती को आभास मिला कि वृषभसेना ने बनारस में दानशालाए स्थापित की है । यह उसके पास आई और बोली तूने बनारस में अपने नाम से दानशालाएँ स्थापित की हैं । वृषभसेना ने कहा माता जी मैंने तो नही खोली और न उनके सम्बन्ध में मुझे कुछ जानकारी है। संभव है मेरे नाम से किसी अन्य ने व दानशालाएं बोली हो ।
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४८, वर्ष २३ कि०१
अनेकान्त
रूपवती ने गुप्तचरों द्वारा उनका पता लगवाया, तब लिए तत्पर हो गया। महाराजा ने उसका समादर किया। सही हाल विदित हो गया कि पृथ्वीचंद की पत्नी नारा- इस तरह वृषभसेना ने पूर्वोपार्जित पुण्य फल से लोक यणदत्ता ने अपने पति को छुडवाने के वास्ते तेरे नाम से में यश प्राप्त किया और उसने अपने जीवन को सफल ये दानशालाएं स्थापित की थी। वृषभसेना ने राजा से कह बनाने के लिए शुभ कृत्यों द्वारा लोक का कल्याण करते कर पृथ्वीचन्द को छुडवा दिया । पृथ्वीचन्द ने विनयी वन हुए भविष्य में शास्वत उस अक्षय पद को प्राप्त करने का राजा उग्रसेन का प्रादर किया और उनकी आज्ञा मानने के श्रेय भी सम्पन्न किया।
(पृ० ४५ का शेष) ६. सती सीता में वही प्रशस्तगुण (प्रात्मविश्वास) खुल गया । सती कमलथी और मीरावाई के पास भी वही था जिसके प्रभाव से रावण जैसे पराक्रमी का सर्वस्व विपहारी अमोघ मंत्र था जिससे विष शरवत हो गया और स्वाहा हो गया । सती द्रोपदी मे यही वह चिनगारी थी फुकारता हुआ भयंकर सर्प सुगन्धित सुमन हार बन गया। जिसने एक क्षण के लिए ज्वलन्त ज्वाला बन कर चीर १०. बडे-बड़े महत्वपूर्ण कार्य, जिन पर ससार खींचने वाले दुःशासन के दुरभिमान द्रुम (अभिमान रूप आश्चर्य करता है आत्मविश्वास के बिना नहीं हो सकते । विह वृक्ष) को दग्ध करके ही छोडा । सती मैना सुन्दरी में अतः हमें अपने प्रात्मविश्वास को सुदृढ करके ही मोक्षभी वही प्रात्मतेज था जिससे वज्रमयी फाटक फटाक से मार्ग को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
साहित्य-समोक्षा
१ जैन साहित्य का वृहद इतिहास-भाग ५, लेखक टीका टिप्पण कितने लिखे गये है। इन सबकी भी जानअंबालाल शाह, सम्पादक दलसुख मालबणिया, प्रकाशक कारी सहज ही हो जाती है। इस दृष्टि से यह भाग भी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध सस्थान, जैनाश्रम हिन्दू यूनि- अपने पूर्वभागो के समान ही उपयोगी है। वसिटी वागणसी-५ । साइज डिमाई पृ० सख्या ३२० इस ग्रंथ को प्रस्तावना मे 'प्राचीन भारत को विमानमूल्य पन्द्रह रुपया।
विद्या नाम का डा० एस० के० भारद्वाज द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रन्थ जैन साहित्य के वृहद् इतिहास का ५वां एक महत्वपूर्ण लेख दिया गया है, जिससे स्पष्ट हो जाता भाग है । इसमे लाक्षणिक साहित्य (व्याकरण) का परि- है कि पूर्व काल मे भारत में विमान-विद्या थी और उसके चय करते हुए कोश, अलंकार, छन्द, नाट्य छन्द ज्योतिष सस्थापक विद्याघर कहलाते थे। विमान कई तरह के और शकुन साहित्य का भी परिचय कराया गया है। यह होते थे। उनके संचालन का सब भार बे वहन करते थे। सब परिचय दग प्रकरणों में किया गया है। लेखक ने इस लेखक ने अनेक, ग्रंथो, प्रमाणो के आधार पर विमानसम्बन्ध में अच्छा थम किया है। प्रत्येक विषय का परि- विद्या के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है। इससे ग्रथ चय जहाँ अपने में सक्षिात और खलाबद्ध है वहाँ वह की उपयोगिता बढ़ गई है। उस विषय को सामान्य जानकारी भी कराता है। इससे जैन साहित्यके सम्बन्ध में जो ग्रंथ प्रभी तक प्रकाश विद्वानो को यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि व्याकरण में आए है. वे बहत सावधानी से लिखे गये हैं। विद्वानो साहित्य पर अब तक कितने ग्रंथ रचे गये और उन पर और लायबेरियो को प्रथमगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए।
-परमानन्द शास्त्री
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आगामी वर्ष की जनगणना में अपने को 'जैन' लिखवाइये
अखिल भारतीय जनगणना समिति की ओर से प्राप से बार-बार निवेदन किया गया है कि फरवरी सन् १९७१ में होने वाली जनगणना मे सब भाई-बहिन अपने को जैन लिखाएँ। जिससे प्रापकी संख्या का ठीक निर्धारण हो सके। और हम सरकार को यह दिखा सके कि हमारी जनसंख्या बहुत अधिक है। प्राशा है समाज के नवयुवक ग्रागे बढेगे और जपने पास-पास के मुहल्लों मे स्वय जाकर जनगणना कार्य में सहयोग प्रदान कर सामाजिक एकता को स्थिर करने में अपना योगदान देकर अनुगृहोत करेगे ।
व्यवस्थापक वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज
दिल्ली
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट
१५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) ,, कस्तूरचन्द जो प्रानन्दीलाल जी कलकता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) ,पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सगवगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) ,, प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता २५१) श्री शिखरचन्द जी झाझरी, कलकत्ता
१५०) , भागचन्द जो पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता
२५१ श्री अमरचन्द जो जैन (पहाडया), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी
१०१) , मारवाड़ी हि० जैन समाज, ज्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैमर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकना
१०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज विल्ली स्वस्तिक मेटल वक्स, जगाधरी
१०१) , सेठ भंवरीलालं जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
१०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी,
नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्या झूमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१०१) , बाबू नपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , सेठ दानमल हीरालाल जी, निवाई (राज.) २५०) श्री बी० प्रार० सी० जन, कलकत्ता
१००) , बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००), रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १००), जैन रत्न सेठ गलाबचन्द मी टोग्याइन्वीर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/82 (१) पुरातन-नवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार बी जुबलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदास नाम, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) मा त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व प्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२.०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
१-५० (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १२५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-प्रानार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शतानी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
४-०० (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीक सहित
४-०० (१२) प्रनित्यभावना-पा० पद्यनन्दीको महत्वकी रचना, मुस्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तस्वार्थसूत्र-(प्रभाषन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जनतीर्थ। (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १९ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ वैसे, (१७) महावीर पूजा १६ (१८) अध्यात्म रहस्य-पं० पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१९) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय पोर परिशिष्टो सहित । स. प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-भा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० ७-०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ सख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुस्त-मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिवान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... २०.०० (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े पाकार के ३०० पृ. परको जिल्द ६.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित ।
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दै बासिक
जून, १९७०
১ানীকান।
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Sidya
FON
वीर सेवामन्दिर के मंत्री बा० प्रेमचन्द जी वीरशासन जयन्ती के अध्यक्ष
डा. रामचन्द्र पाण्डे को माल्यार्पण कर रहे हैं।
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समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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विषय-पूची
अनेकान्त को सहायता विषय
पृष्ठ २१) रा० ब० मेठ हरवचन्द जी पाण्ड्या रांची के १ नमि-जिन-स्तुति-ममन्तभद्राचार्य
मुपुत्र पदमकुकार और श्री रेखाकुमारी मुपुत्री प्रकाशचन्द २ भारत मे वर्णनात्मक कथा माहित्य
जी मेठी के विवाहोपनक्ष में निकाले हए दान मे से अनेकान्त डा. ए. एन. उपाध्ये
को उक्कीम म्पया सधन्यवाद प्राप्त हुए। ३ देवगढ की जैनकला का मास्कृतिक अध्ययन
२०) वा० ज्ञानचन्द जी लम्बनऊ किराना कम्पनी गोपीलाल अमर
मुभाष माग लखनऊ की सुपत्री ऊपा जैन, और भतीजी ४ गुणकीतिकृत विवेक विलास
म जुल जन तथा मौभाग्यमल जी के विवाहोपलक्ष में डा० विद्याधर जोहगपुरकर
निकाले गये दान में बीस रुपया अनेकान्त की सधन्यवाद ५ तिजारा एक ऐतिहासिक परिचय
प्राप्त हए। परमानन्द जैन शास्त्री
५) प० गोपालाल जी 'अमर' ५८ लक्ष्मीपुरा सागर ६ माली रासो-परमानन्द जैन
से मधन्यवाद प्राप्त हुए। ७ जनों में सतो प्रथा-चम्पालाल सिंघई
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' ८ कथनी और करनी-मुनि कन्हैयालाल
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज ६ गोम्मटसार की पजिका टीका-परमानन्द शास्त्री ७२
दिल्ली। १० अात्म समर्पण (कहानी)-बालचन्द एम. ए. ७६ ११ शृगाल से सिद्ध (कहानी)--सुबोधकुमार जैन ७६ १२ हिन्दी भाषा के कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ
बिलम्ब का कारण पन्नालाल अग्रवाल
अनेकान्न का यह यक बहुत विलम्ब से प्रकाशित हो १३ वीर-शासन जयन्ती-परमानन्द शास्त्री
रहा है । अनेकान्न के कम्पोजिंग एजेसी के मालिक १४ ऊपर गाँव का अप्रकाशित जन लेख
सत्यनारायण का कार्यवश अपने ग्राम चले गये, वे हेतु श्री रामवल्लभ सोमाणी १५ मध्य प्रदेश का जैन पुरातत्व-अगर चन्द नाहटा ८६
महीने के बाद विलम्ब से पाये। अत: पत्र के छपने में १६ वीर-शासन जयन्ती-प्रेमचन्द जैन
असाधारण विलम्ब हो गया, इसके लिए पाठको से क्षमा १७ भगत प्यारेलाल जी का समाधिमरणपूर्वक
चाहता है। प्राग इस बात की सावधानी रखी जायगी,
जिसमे पत्र समय पर प्रकाशित हो सके। व्यवस्थापक स्वर्गवास-बा० नन्दलाल जी
अनेकान्त १८ अखिल भा० जन जनगणना समिति का
प्रावश्यक पत्र-गीतलप्रसाद जैन १६ जन जनगणना समिति की अपील
सम्पादक-मण्डल भगतराम
डा० प्रा० ने० उपाध्ये
डा० प्रेमसागर जेन २० साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री
श्री यशपाल जैन
परमानन्द शास्त्री भनेकान्त मे प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक अनेकन्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक भनेकान्त
एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पेसा
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प्रोम प्रहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधामम् । मकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २३ किरण २
।
वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मंवत् २४६६. वि० सं० २०२७
१९७०
नमि-जिन-स्तुति
नमेमाननमामेन मानमाननमानमामनामोन नुमोनाम नमनो ममनो मन ॥६३
-समन्तभद्राचार्यः
अर्थ-हे नमिनाथ ! पाप अपरिमेय हैं-हमारे जैसे अल्पज्ञानियो के द्वारा प्रापका वास्तविक रूप नही समझा जाता। प्राप सबके स्वामी है। प्राप का ज्ञान सब जीवो को प्रबोध करने वाला है। प्राप किसी से उसकी इच्छा के विरुद्ध नमस्कार नही कराते। चूकि प्राप वीतराग है और मोहरहित हैं, प्रतः पापको सदा नमस्कार करता हूँ-हमेशा पापका ध्यान करता हुमा पापकी स्तुति करता हूँ। प्रभो ! मेरा-मुझ शरणागत का-भी सदा ध्यान रखिए-मैं मापके समान पूर्ण ज्ञानी तथा मोह-रहित होना चाहता है ।।६३
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट्
[गत किरण १ से आगे]
अब पइन्नयो [प्रकीर्णकों का विचार करें कि जिनमें अवस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई और सर्वोच्च पद उसने से कुछ में पार्मिक व्यक्तियों एवं वैराग्य-वीरों की कथाओं प्राप्त कर लिया, तो देवों ने उस पर सुगंध जल की वर्षा के खम ही उल्लेख है"। पोयणपुर मे पुष्फचला नामक की। उस जल से भरा गंधवटी का तालाब पाज भी उस एक प्रार्या थी। उसके धर्मशिक्षा गुरू थे अन्नियाउत्त। स्थान पर है। [म. १६०, म.४३५-३६, संथा० ६५. नौका में गंगा नदी पार करते हुए वे नदी में गिर गये। ६६] । इलापुत्त भी संसार अनासक्ति का एक उत्कृष्ट और उनकी समाधिपूर्वक मृत्यु हुई और उनने सर्वोच्च पद उदाहरण है। [म०४८३] | कुणाला का राजा वेसमणप्राप्त किया। [संथा० ५६-५७] । कयदी के अभयघोष दास के रिट्ट नाम का एक मिथ्यात्वी मंत्री था। उसहसेण ने अपने पुत्र को राज-पाट दे दिया और श्रमण होकर नाम के विद्वान गुरू का एक पढ़ा-लिखा और गुणवान संयम आराधना करते एवं सामयिकादि ग्यारह अगों का सिंहसेण नाम का शिष्य था। शास्त्र-विवाद में पराजित पारगामी होकर उनने सारी पृथ्वी पर विहार किया। होकर बदला लेने की दुष्ट बुद्धि से इस मिथ्यात्वी मंत्री जब वे विहारान्त पाटवी-नगर को लौटे तो चंडवेग ने ग्दुि ने एक रात्रि में उसहसेण को अग्नि में भस्म कर उनके शरीर का घात किया। हाथ-पैर प्रादि अग काटे दिया । जब अग्नि चारों ओर से उन्हें जला रही थी, तो जाते हुए उनकी मृत्यु हो गई। मौर उनने सर्वोच्च पद उनने पूर्ण समाधि मरण कर मोक्ष लाभ किया। [संथा० प्राप्त किया । [संथा० ७६-७८] । उज्जयनी के अवन्ती ८१-८८] । कण्डरीय और पुण्डरीय" जो क्रमशः नीच सुकुमाल ने एक दिन सायकाल नलिनी विमान का वर्णन और उच्च गोत्र में जन्म लेने वाले थे, अपने एक दिन के सुना और तत्क्षण उस स्वर्ग का स्मरण उसे हो पाया ही दृढ निश्चय स्वरूप अणुत्तर-विमान में चले गये। एवम् वह प्रवजित हो गया। श्मशान के बाँसकुज के [म० ६३७] 1 मित्रों में रहते हुए भी, मरण समय शरीर एकान्त स्थान में जाकर उसने ध्यान लगा लिया। इस छोडने वाली जीव-प्रात्मा अकेली ही जाती है जैसे कि ध्यानस्थ मुनि के शरीर को तीन दिन-रात मांसभक्षी कान्ह की मृत्यु समय गई। कान्ह ने क्रोध को क्षमा से शृगाल नोचते, खाते और घसीटते रहे तो भी वह मुनि जीत लिया था। [म. ३७७, ४६६-९७]"। राजा भग्गि ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुमा। शैल जैसा निश्चल का पुत्र भिक्षु कत्तिय शरीर से गदा, परन्तु हृदय का रहकर उसने सब परिषह का सहन किया और इस समाघि महान् था। जब वह रोहिडय नगर में भिक्षा के लिए
चर्या कर रहा था, कुंच ने उसे बल्लम फेंक कर पाहत १२ महत्व के नामों का विचार करते हुए, उन्हें यहाँ वर्ण
कर दिया। उसका कष्ट सहते हुए उसने समाधि पूर्वक क्रम से लिया गया है। संदर्भ निर्देश प्रागमोदय समिति, बबई १९२७ के सस्करण के हैं। यहाँ म से
प्राण त्याग दिया और उच्च पद प्राप्त किया। [संथा. भत्तपरिन्ना, म से मरणसमाही पोर संथा से संथारग
६७-६६, काम्ट्रज ने म० १६० मे इसका उल्लेख देखा . निर्देश किया गया है। इस संबंध में कुर्तवान कैम्पट्ज १३ तुलना करो नायाधम्मकहामो, २० भोर देखो ऊपर का ऊबेर डीए वाम स्टर्बीभास्टन हैण्डलण्डेन पाल्टनं पृ. १६। पाइन्ना डे 'जन-कनन'।
१४ तुलना करो अन्तगडदसामो, ५वीं वर्ग, पैरा १
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
है] । मथुरा के जियसत्तु पुत्र भिक्षु कालवेसिय को उसकी प्राप्त कर और वैरी को पराजित कर, उसने अपना शरीर अस्वस्थावस्था में मोग्गल पर्वत पर शृगाल खा गये थे। रस्म करा दिया [?] | जब वह गौ ठाण में प्रायोपगमन [म. ४६८] 1 गृहस्थ का पुत्र किढ़ी चोरी करना छोड कर रहा था, क्रूर सुबन्धु[सुबुद्धि] ने वहाँ सग्रहीत उपलों कर सुखी हमा था। [म. १०६] । जब माहार नही में भाग लगा दी। परन्तु चाणक्य उस भाग में जलता मिला तो भी किसि ने पूर्ण क्षमा भाव रखा था। [म. हुप्रा भी दृढ रहा और मोक्ष गया। [भ. १६२, म. ३६७] । सार्थवाह कुबेरदत्त भी रागाध होकर वेसियाण ४७८, सथा० ७३-७५] । चिलाइपुत्त एक धर्मनिष्ठ भिक्षु की तरह ही गम्यागम्य का सब विवक खो बैठा था और था और वह पूर्ण वैरागी था। रक्त-गांध पा कर चीटियो इसलिए अपनी पुत्री को हो उसने अपनी स्त्री बना लिया था ने उसे घेर लिया और उसके सिर को खाना प्रारम्भ कर
भ० ११३] । कुम्भारकड नगर मे, खडय और उसके दिया। उनके खान से उसका सारा शरीर चालणी के शिष्य मिला कर ५०० साधू थे जो बड़े तपस्वी मोर समान छिद्र-छिद्र हो गया। ऐसा खाया होने पर भी उसने वैरागी थे। एक के सिवा सब घाणी मे पोल दिए गए, काई दुर्भाव उन चीटियो के प्रति अपने मन मे नही माने पौर सब ने यह सब कष्ट-परिसह समाधि मे रहत हुए दिया। फल स्वरूप उस केवलज्ञान प्राप्त हुमा और वह सहन किया और कुछ भी बुरा चितन नही करते हुए वह
परम पद को पहुँच गया। [भ० ८८, म० ४२७-३०, पूर्ण शाति से मृत्यु को प्राप्त हुए और सर्वोच्च स्थान को सथा० ८६] । राजा जब एक श्लोक का पाद सुन कर पहुंच गए। [म०४४३, ४६५; सथा०५८-६०] । युवक मृत्यु के मुंह से बच गया और इसके बाद वह सफल भिक्षु भिक्षु कुरुदत्त व्रतोपासन के लिए वन मे ध्यान करते हए बन गया । फिर जिन-भाषित मूत्रो के वचनो को सुनने के गजपुर में भस्म कर दिया गया और उसके फल स्वरूप लाभ की बात को तो कहना ही क्या [भ.८७) । परिउसन सर्वोच्च पद प्राप्त किया [म० ४६२, सथा० ८५]| वाजका क भक्त हारवाहन न कचनपुर" निवासी धर्ममासक्ति से मुक्त भोर तपस्या से कृश एक साधु स्त्रियों परायण साहूकार जिनधम्म की पीठ पर पात्र रख कर के सहवास में रहने पर उसी प्रकार पतित हो जाता है किसी तापस को गरमागरम भोजन कराया। पात्र गरम कि जैसे कोश के गृह में रहने वाला साध हो गया था हा जाने से उसके शरीर के मांस का उतना ही प्रश पात्र [भ० १२८] । गंगादत्त, विस्सभूइ और चण्डपिंगल क्रोध के साथ उखड़ कर निकल गया। ससार से विरक्त हो घृणा मोर राग का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कर साहूकार भिक्षु हो गया। उसने अनशन व्रत ले लिया [भ० १३७] । सभवतया दो गजसुकुमाल हुए हों । पहले और प्रत्येक दिशा मे मुख किए वह एक-एक पक्ष तक को तो उनके श्वसुर ने ही श्मशान भूमि" मे ही जला ध्यानस्थ खड़ा रहा । उसके घाव को पक्षियों और कीड़ो कर नष्ट कर दिया था। उनने पग्नि की ज्वाला को ने निरतर कुरेदा और वह यह परीषह शांति के साथ समाधि पूर्वक सहा और ध्यान से रंचमात्र भी बिचलित सहता रहा, यही मानते हुए कि नरक-यत्रणा से तो यह नहीं हुए। [म. ४३१-३२, ४६२] । दूसरे गजसुकुमाल कष्ट बहुत ही कम है और कर्मों का फल तो भुगतने से को नई गीली खाल की भांति सब पोर से खीच कर ही छुटकारा है। दो महीने के घोर परीषह सहन और जमीन पर कीलें ठोक दी गई थी, फिर भी वह विचलित तपस्या के अन्त मे वह जिनों का ध्यान धरता हपा घरानही हुमा पौर समाधिपूर्वक मरा [संथा० ८७] । राजा शायी होकर मृत्यु को प्राप्त हुमा [म. ४१२-४२३] । पहविडिसिया भी मरण काल में दृढ़ सयम में स्थिर रहा भोगोपभोगों की प्रासक्ति और प्राकांक्षा ही पात्मा को उसने सर्वोच्च पद पाया [म. ४४०-४१]। पाटलिपुत्र गिराती है जब कि उनकी उपेक्षा संसार से प्राण प्राप्त में सुप्रसिद्ध चाणक्य हिंसादि मूल पापों से विरत रहा १६ श्री उत्तराध्यननानि, बंबई, १६३७, के पृ० २३९-४० मौर इंगिनी मरण स्वीकार किया। उचित मान-सम्मान में अध्यक्ष १७ गाथा ३७ परकी नेमीचन्द्र की टीका १५ तुलना करो वही, ३रा वर्ग।
में सनत्कुमार का कथानक देखो।
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५२.२३० २
1
कराती है। दो भाई जिनपालिय और जिनरविषय" जिनकी भेंट एक द्वीप मे एक देवी और एक देव से हुई थी, इस तथ्य के उत्कृष्ट उदाहरण है [ भ० १४७ ] । डण्ड बंडा वैरागी और तपस्वी था। जब वह तप करते हुए खड़ा था, कहीं से श्राकर एक तीर ने उसे वीघ दिया । जिनके शब्दों के ध्यान मे ध्यानस्थ होने के कारण उसने अपने शरीर की उपेक्षा की और दर्द सहता रहा । अन्त में उसे परम पद प्राप्त हुआ। [म० ४६५, संथा० ६१६२] जो मियाली है और सन्तो के प्रति घृणा रखता है. उसे तुरुमिणी के दस की भाँति बहुत दुख सहने पड़ते है [०६२ ० ४६११] जिनकी भक्ति से सुख और उच्च कुल में जन्म उसी प्रकार प्राप्त होता है जैसे कि राजगृह के दादुर" को प्राप्त हुए थे जो कि पूर्व भव में मणियार सेट्टी था [ भ० ७५] संत दमदन्त यद्यपि कौरवों द्वारा निदित धोर पाण्डवों द्वारा प्रशसित था, दोनों के प्रति समभावी ही रहा [म० ४४२] देवरई साकेत के राजा ने राज्य धौर राज्यसुख सब ही सो दिया और अपनी ही रानी द्वारा नदी मे फेक दिया गया क्योंकि वह स्वयम् एक लगड़े व्यक्ति पर आसक्त थी [म० १२२] । दो भिक्षु, धन्न श्रौर सालिभद्द, जो घोर तपस्या से महमान्वित थे । नालंदा के निकटस्थ वैभारगिरि के निकट दो पाषाण शिलाओ पर प्रायोपगमन किया; उन्हे अपने शरीर पर जरा भी मोह नही रह गया था और इसलिए वे शीत एवम् उष्ण सहते-सहते मुरझाने लगे और नष्ट हो गए और उन्हें धनुत्तर विमान प्राप्त हुषा देवानुग्रह से उनकी अस्थियों के ढेर बाज भी वहा देखे जा सकते है [म० ४४२-४६ ] । चन्द्रगुप्त के पाटलिपुत्र में एक धम्मसिंह था जो चन्दमिर को छोड़कर कल्लऊर में भिक्षु जीवन बिताने लगा था। उसने गृद्धपृष्ठ" प्रत्याख्यान बड़ी शांति के साथ पालन किया। हजारों कीड़ों से खाये जाने पर भी उसने शरीर की कोई परवाह नहीं की, मौर इसलिए अन्त मे परम पद प्राप्त किया। [ संथा
अनेकान्त
१७ तुलना करो नायाधम्मक हाम्रो, अध्या: ६ १०१८, मायदी कुमारों का कथानक ।
१० नायाको प्या. १३
१६ सत्तरह प्रकार के मरण का यह एक प्रकार है ।
७०-७२] । नंद, परशुराम पाण्डुराय और लोमान क्रोध, मन, माया और लोभ के कारण हो क्रमशः नष्ट
हुए [ भ० १५३ ] । अयलग्गाम नगर के एक परिवार के पांच व्यक्ति, सुरई, सय, देव, समण और सुभद्द ने बड़ी श्रद्धा के साथ खमग नामक भिक्षु की जो कठोर तप से हीन क्षीण हो गया था। सेवा सुश्रुषा को और पुण्य एवम् पाप के विषय मे उस भिक्षु से देशना सुन कर पाँचों ही ने श्रावक के १२ व्रत स्वीकार कर लिए। उनने बाद में वासुपूज्य स्वामी के तीर्थंकाल मे, प्रव्रज्या भी ले ली और धनेक प्रकार की तपस्याये की फल स्वरूप मरने पर वे पाँचों अपराजित विमान में गए वहाँ से चय कर वे भरत देश के राजा पाण्डुके घर में पांच पुत्रके रूप मे उत्पन्न हुए । कृष्ण की मृत्यु के दुखद समाचार सुन कर इन्हें भी वैराग्य हो गया और ये सुट्टिय श्राचार्य के मुनिधर्मी शिष्य हो गए सबसे बड़े ने १४ और शेष तीन ने ११ पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया। वे समस्त ससार मे प्रसिद्ध हुए वे सौराष्ट्र में पाए और वहां भगवान नेमि जिन के निर्वाण को सुन कर उनने भी अनशन कर लिया। भीम ने कठोर तपस्या की और शत्रुंजय पहाड पर उसने प्रायोपगमन स्वीकार कर लिया, और सब प्रकार के परिषह सहते हुए अन्त मे परिनिर्वाण प्राप्त हुआ। फिर शेष भाइयों ने भी उसका अनुगमन किया [म० ण४१-६४ ] |
1
पाण [ याने चाडाल ] तक ने भी देवों की मदद प्राप्त कर ली क्योकि मगरमछ ताल मे गिरने पर उसने केवल एक दिन का श्रहिंसा व्रत पालन किया था [ भ० ६६ ] । अपने पाप्त जनों और सगे-सम्बन्धियों के प्रति भासक्ति या राग एक क्षण के लिए भी नही होना चाहिए; क्योंकि ये हो तो जीव के दुश्मन हो जाते है जैसे कि ब्रह्मद की माता उसके लिए हुई थी। [म० ३७६] मंखलि द्वारा" उसके तप-तेज बल से महावीर के शिष्य भस्म कर दिए गए थे और इस प्रकार भस्म होकर उनने परम पद की प्राप्ति की। [संथा० ८८ ] । राणी मियाबाई ने सिर्फ वन्दना और अन्य धर्मानुष्ठान कर अपने पूर्व जन्मों के कर्म एक क्षण में नष्ट कर दिए थे। [५०५०] परिग्रह या राग भयावह है। सन्त मेयज्ज कोच पक्षी सहित २० तुलना करो, भगवती, शतक १५ ।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
[?], तब भी एक गृहपति द्वारा वहन सताए गए जबकि कोसाम्बी के नीच गोती भिक्ष, मोमदत मादि जब प्रायो. धन उसका पुत्र ही ले गया था। मेयज ने असीम करुणा पगमन किये हए थे, समुद्र मे फेंक दिए गएम. के कारण कोंच पक्षी को कि जिसने दोष किया था, नही ४६४] । शुद्ध सम्यक्त्व याने सम्यकदर्शन के कारण यपि बताया। और जब उनकी प्रॉग्खों मे शलाकाएं घुसा दी वह सम्यकचारित्र के साथ नहीं था, तो भी हरिकुलप्रभ, गई तो भी वह मंदार पर्वत के समान अटल, मचल ही श्रेणिक और अन्य जनों ने तीर्थकर गोत्र का बंधन काही खडे रहे। [भ० १३२, म. ४२५-२६] । उस दुष्ट मेण्ठा लिया। [म.६७] । सोदास को स्वाद याने जिह्वा का ने जिसे चोरी के अपराध में फांसी का दण्ड दिया गया दास होने के कारण और गजा सोमालिया को स्पोंद्रिय था, मरण समय में भगवान को वदन, नमन किया और m m s. फल स्वरूप वह मर कर कमलदल नामक यक्ष उत्पन्न
उपयुक्त सर्वेक्षण प्रांशिक ही है और इसमें पइस्लयों हमा । भि० ७८] । कोसांबी के ललियघडा के ३२ की सभी कहानियाँ समाविष्ट नहीं हुई हैं। कुछ कपालक सदस्यो ने नदी की बाढ़ का वीरता से सामना किया और
तो ननामे ही हैं। [म० ४२४, ५१० मादि] और कुछ स्वयम् प्रायोपगमन कर परम पद प्राप्त किया। [सथा०
नाम वाले तो हैं परन्तु व्योरे रहित हैं। [म ४३२.। ७६-८०, म० ४८०?] | संत वयर ऋषि के ५०० शिष्य
मैं ने गाथानों का उल्लेख करने में बड़ी सावधानी बरती
ही थे। एक शिला पर तप करते हुए धूप मे वैर ऋषि खड़े
है. क्योकि कथानकों से भली प्रकार परिचित हए बिना रहे । कोमल शरीरी जैसे कि वे थे, उनका शरीर उस
हुन गाथाम्रो की व्याख्या करना कठिन होता है। कहींसूर्य के ताप में घी की तरह पिघल गया। जिस स्थान
कहीं तो नाम का पता लगाना भी कठिन ही रहा है।
को पर देवो ने उनकी पूजा उपासना की, उस रहावट्ट गार दिट्टीवाय मे एक कथानक मंक्षिप्त किया गया है। [भ. कहा जाता है और जिस पवत पर उनका अन्यथना ५१२ २०], परन्तु प्रावश्यक नामों का वहाँ ठीक-ठीक ने की वह कुजगवट्ट नाम से प्रसिद्ध हुआ। [म० ४६८-निरी
निर्देश नही किया गया है। भिन्न-भिन्न परिषहों को कि ७३] । एक ही झठ अनेक सत्य शब्दो को दूषित-कलुषित
जिनका विवरण उत्तराध्ययन, अध्याय २ [म० ४८४] में कर देती है। वसु एक बार ही प्रसत्य बोल कर नरक
किया गया है, महने वाले प्राचीन त्यागी वोगें के उदाभोगी हुआ था। [भ० १०१[ । चौथा चक्रवर्ती, सनत्कु
हरणों में कितने ही नाम गिनाए गए हैं, परन्तु शास्त्र में मार सात हजार वर्ष तक १६ प्रकार के रोगों से दुखी
उनका जीवन व्योग बहत कम दिया गया है। [म. रहा था और उसने यह कष्ट शांति और समाधि पूर्वक
४८५-५०३ प्रादि]। सहा था। [म. ४१०-१२] । चार महीने के उपवास के
अर्धमागधी आगमों के वर्णनात्मक विभाग का यह पारणे के दिन जब कि वह अपने व्रत मे सुदृढ़ था और।
विहगावलोकन अवश्य ही कुछ निश्चित मोटी बातों का पर्वत से नीचे उतर रहा या, श्रमण सुकोशल का उसकी
हमे निर्देश कर देता है। एक तो यह कि जीवनिया तीन माता ने ही गला घोट दिया जो कि तब चित्तकूड के
ही तीर्थङ्करों याने नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर से मुग्गिलगिरि मे सिंहनीरूप जन्म पाई हुई थी। मुनि ने
ही मुख्यतया सम्बन्धित हैं। उनमें भी महावीर से सम्बयह सब परिषह समाधि पूर्वक सहा और परम पद को
धित सर्वाधिक और पार्श्वनाथ से सम्बन्धित न्यूनप्राप्त किया। [भ० १६१, म० ४६६-६७, सथा० ६३. तम है। नेमिनाथ सम्बन्धित सभी जीवनियों में कृष्ण६४] । मूर्ख गोपालक लड़के ने भक्ति व श्रद्धा के साथ
वासुदेव ही मुख्य पात्र हैं। ये जीवनियां हरिवंश से नमस्कार मत्र का स्मरण किया और उसके फल स्वरूप
सम्बन्धित है। महावीर युग के क्थानकों में शात्कालिक चंपा मे धनी गृहपति सुदंसण रूप में जन्मा । [भ०८१]। राजवंशों और राजामों के विषय की जानकारी बहत कुछ ५२ बहुत सम्भव है कि एक ही कथानक के ये दो दी गई है। यद्यपि ये कथानक भाव में प्रौपदेधिक ही है, संस्करण है।
पर यह भी बिलकुल स्पष्ट है कि उनसे सम्बन्धित कुछ
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५४, वर्ष २५ कि..
अनेकान्त
व्यक्ति ऐतिहासिक भी हैं । जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया ही हैं कि जो मूल मे पाए विषय-विशेष की ही व्याख्या जा चुका है, कुछ जीवनियां विशेष रूप से जैन हैं तो अन्य नहीं करती है कि जो मूल के साथ अनुयोग-द्वार मादि से जेनधर्म सापेक्षता रंगित भारतीय सामान्य कथा-जीवनियों नियुज्य हैं, अपितु मावश्यक विवरण देकर मूल पाठ के का संस्करण विशेष है
विवरण को सम्पूरित भी करती है। दस प्रागमों पर भागमों में ही कुछ साक्षियां ऐसी मिल जाती हैं कि निज्जुत्तियाँ है। कुछ स्वतत्र निज्जुत्तियां जैसे कि पिण्ड, ये नमूने के कथानक किस प्रकार परम्परागत स्मरण रखे मोध प्रौर माराधना भी है। पहली दो तो दशवकालिक गये थे। अब तो ये सभी कथानक प्रायः गद्य मे ही प्राप्त भौर मावश्यक निज्जुत्तियों की सम्पूरक प्रतीत होती हैं, हैं, परन्तु उनके बीच-बीच में नामो की शृखला पद्य परन्तु अन्तिम का परिचय तो एक उल्लेख" मात्र गाथामो मे दे दी गई हैं। फिर उवासगदसामो म भी कुछ से ही मिलता है । मोर एसा सभव लगता है । गाथाए ऐसी मिलती है कि जिनसे उन गुरुमो को कि कि उसको भगवती माराधना, मरणसमाही" आदि जिन्ह व कहानियां समय पर व्योरेवार सुनानी पड़ती थी, शास्त्रो मे मभिनिविष्ट कर लिया गया होगा। व्याउन्हे स्मरण रखना सहल ही रहे। नायाधम्मकहामा जस च्यान-विशेष की परम्परागत परिस्थितियो का एक से पायमो की टीकामो में ऐसी सारगभित गाथाए दा गई माधक बार उब्लख निज्जुक्तियो में दिया गया है। जैसे है कि जनम कथानको का सक्षप भी किया हुमा हे मार कि उस भाद्रंक जिसका सुयगडाग मे मध्याय है] का उनका उद्देश्य या उपनय भी कह दिया गया है। यह कि जिसका गासाल प्रादि से वाद-विवाद हुमा था जैसा कहना कठिन है कि ये गाथाएँ शास्त्रों के वतमान पाठा कि ऊपर उल्लख किया गया है, व्योरा नियुक्ति ही से के बाद के सक्षप है या कि मूल पाठो मे ही एसी गाथाए प्राप्त होता है। इन निर्यक्तियो मे कई महत्व के सदर्भ पहले से थी। पहला विकल्प यद्यपि प्रविचाय ता नहा मोर उल्लेख है कि जिसके कारण बाद की चूणियो, ही है, फिर भी दूसरे विकल्प का सामान्य नियम रूप स भाष्यो और टीकामों में स्पष्ट और पूर्ण व्याख्या करने के स्वीकार करने की मार ही मरा झुकाव है। समराइच्च- लिए लम्बे-लम्बे कथानक देना भावश्यक हो गया था। कहा का सम्पूर्ण कथानक हरिभद्र द्वारा उन कुछ गाथाम्रो उनके कुछ उदाहरण यहाँ देना उचित होगा । उत्तराध्ययन के आधार पर ही रचा गया था कि जो हम माज भा निर्यक्ति मे धनमित्र, हस्तिमित्र, स्वप्नभद्र प्रादि का मागमों में प्राप्त है। ऐसी गाथाएँ कहानिया का मोखिक उल्लख भिन्न-भिन्न परिषह, जो कि २२ है, वीरता से परम्परा की यद्यपि पूर्व साक्षी देती है, परन्तु व स्वयम्
भाग ११, सं. ४ मोर भाग १२ स०२;चारपेण्टियर ही उन लिखित रचनामों की प्राधारभूत है कि जो हम
उत्तराध्ययन, उप्पासल, १६२२, इन्ट्रो. पृ. ४८-५२; पाज प्राप्य हैं।
चतुरविजयजी: मनकान्त भाग ३, पृ. ६७३-६८४ । (मा) प्रागमोसर और मागमानुकूल स्तर का साहित्य
२३ मूलाचार [माणिकचन्द्र दि० ज० ग्रन्थमाला स० १८, जैन साहित्य का अन्य स्तर जिसका हमे प्रादि कालीन
बंबई स. १९७७ सस्क.] प्रक्ष्या. ५, श्लो. ८२ पृ. वर्णनात्मक साहित्य के सर्वेक्षण में विचार करना चाहिए,
२३३। निज्जत्तियों का है जो कि कुछ-कुछ उन टीकामों जैसी
२४ मरणसमाही की पन्त की गाथाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण २२ नियुक्तियों के सम्बन्ध में निम्नलिखित ग्रन्थों का और मनोरजक हैं । इस प्रन्थ में न केवल भाव ही
अध्ययन किया जाए। लायमनः दशवकालिकसूत्र अपितु गाथा तक प्राचीन माठ ग्रन्थों से ले लिए गए ए नियुक्ति, जैण्डी एमजी, ४६, १०५८१-६६३ । हैं-१. मरण-भित्ति, २. मरणविसोही, ३. मरणमौर उबरशिकठ ऊबर डी मावश्यक लिटरेचर, समाही, ४. संलेहणासूय, ५. भत्तपरिण्णा, ६. पाउरहैम्बर्ग १९३४; घाटगे : दी दशवकालिक, एण्ड पच्चक्खाणं, ७. महापच्चक्खाणं पोर . माराहणा सूमातांग-नियुक्ति, इण्डियन हिस्टारिकल पवारटी पडण्णा ।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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सहने वालों के दृष्टात रूप से किया गया है। ऐसी कथाएँ हरिभद्रीय टीका से कुछ कथानक संग्रह कर पृथक से या दृष्टान्त अन्य सन्दर्भो में भी दिए गए हैं । दशवकालिक पुस्तक रूप में सम्पादित कर दिया है। भागमों में जो नियुक्ति में उदाहरण की [?] व्याख्या करते हुए महत्व कथानक निर्देश किए गए हैं उनका ब्योरा संगतभावे देने के उल्लेख [गाथा ६१ प्रादि मे] किए गए है जो लिखित के अतिरिक्त, हरिभद्र, शीलांक, शास्याचार्य, देवेन्द्र, नहीं तो कम से कम मौखिक कथानकों की परम्परा की मलयगिरि और प्रभयदेव जैसे टीकाकारों ने न केवल पूर्वता का निर्देश करते है। दूसरे संदर्भो [गाथा ७७, प्राचीन टीकामों मे ही सहायता ली है अपितु बाह्य ८१,८७, १६२, २३६ प्रादिमें या तो उचित नाम ही साहित्य मे भी, और इसका परिणाम यह हमारे कि दे दिए गए हैं या प्रमुख शब्द घोष [कैववर्ड स] कि उनकी टीका भिन्न-भिन्न परिणाम की भोर भनेक विषयों जिनका अर्थ तभी समझा जा सकता है जब कि उनके की जैन कथानों का संग्रह या भण्डार ही बन गई है। सम्बन्ध की कथामों का पूरा-पूरा परिचय हो । नन्दी सूत्र इम दष्टि से प्राकृत की ५४० गाथा का ग्रन्थ उपदेशमामा में भी कुछ गाथाएँ हैं, कदाचित रूढ परम्परागत. जिनमे का नाम उल्लेख किया जा सकता है कि जो धर्मदास गणि सेल-घण जैसे दृष्टान्तिक वाक्य, शिष्यों के गुण-दोष रचित है और जिसे महावीर का समकालिक होने को भी व्यक्त करने के लिए, की सूची दी गई है। और इनके कहा जाता है । सूक्ष्मदर्शी विद्वानगण इस ग्रन्थ को उतना कारण जटिल कथानक भी देना आवश्यक हो गया है। प्राचीन समय देने को अभी तक तैयार नहीं हैं। सारइन कथानकों के प्राचीन प्राधारों का अभी तक हमें स्पष्ट गभित और संक्षेप में प्रोपदेशिक वातें कहने के सिवा भी रूप से कोई पता नही है। परन्तु कुछ उल्लेखों से ऐसा यह ग्रन्थ ऐसे जीवन-घटना उल्लेखों की एक प्रसन्न खान मालूम पडता है कि कुछ कथानक तो दृष्टिवाद में जो ही है कि जिनमे से कितनी ही पहन्नयों में पहले से ही कि आज अप्राप्य है, थे। फिर हाथी के जैसे कथानक का मिलती हैं। बहुतों ने इससे अपने अन्यों में उद्धरण दिए विवरण मरणसमाहि पइन्नय [गाथा ५१२-२०] मे भी हैं और जहाँ तक मैं जानता है. हवीं सदी ईसवी से अब दिया हुआ है । मावश्यक नियुक्ति भी एक विशेष महत्व तक इस पर अनेक टीकाएं रची जा चुकी है। यह ग्रंथ का शास्त्र है या सुप्रसिद्ध प्राचार्यों को लिखी विस्तृत संग्रह-ग्रन्थ सा लगता है और पाधारभूत गाथाएं निजुत्ति टीकामों से उसे विशेष महत्व प्राप्त हो गया है। इसके और पइन्नयों के अनुसारी प्राचीन जैन साहित्य के स्तर मूल पाठ में कथाएं प्रवेश करने के लिए अनेक अवसर को भी हो सकती हैं। प्राप्त होते हैं जैसे कि अनुयोगों के नियोजन में, बुद्धियों दिगम्बरों ने अर्घ-मागधी प्रागमों को अधिकारित रूप के दृष्टान्तों में, ताकि मूल पाठ का यथार्थ वाचन सम्भव से अपने लिए स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि प्राचीन हो"। इसीलिए घृणि, भाष्य पोर टीका प्राकृत और प्रागम नष्ट हो चुके, फिर भी दिगम्बर परम्परा ने भागों संस्कृत दोनों ही के कथानकों से भरी हुई हैं, मौर इनकी के विभागों सहित उनकी सूची और विषय प्रवश्य ही सख्या चौका देने जितनी अधिक है"। लायमेन ने दशवं. सुरक्षित रखी है । इसका नन्दीसूत्र में दिए विवरण पौर कालिक-निर्यक्ति के कथानकों को संक्षेप में पहले ही उपलब्ध प्रर्ध-मागधी शास्त्र एवम् उनके वर्गीकरण के प्रकाशित कर दिया है। पौर प्रावश्यक चणि और उसकी साथ तुलना करना मनोरंजक है। नन्दीसूत्र की गिनती
और दिगम्बर ग्रन्थों में प्राप्त वर्गीकरण, दोनों में ही. २५ श्री विशेषावश्यक, गुजराती अनुवाद सहित, भाग १.
उपांग विभाग का नहीं पाया जाना और उनमें कुछ समान २, पागमोदय समिति, बंबई १९२४-२७, पृष्ठ भाग
बातों का होना दिगम्बर परम्परा की यथार्थताको वल्लभी १, ५०६, भाग १, ५१३ प्रादि। २६ बृहत्कल्पसा जिसके कि पांच भाग अब तक प्रकाशित २७ दशवकालिकसूत्र-एण्ड-नियुक्ति जग्गी एमजी,
हो चुके हैं [भावनगर, १९३३-३८], दृष्टान्तिक ४६, लपजिग १८९२; बीए प्रावश्यक पर जहलुंगन, कथामों में बहुत सम्पन्न हैं।
लेपजिग १८९७ ।
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५६ वर्ष २३ कि०२
अनेकान्त
वाचना से पहले की ही प्रमाणित करता है। दिगम्बर का उल्लेख करता है जिन्हें अपने भाव या माध्यात्मिक परम्परा के अनुसार ज्ञाता धर्मकथा या नायाधम्मकहानो स्वभाव में कुछ कलुषता मा जाने के कारण दुःख में अनेक प्रास्थान और उपाख्यान थे, अन्तगड में नीम, भोगना पड़ा था। जैसे कि बाहुबलि की माध्यात्मिक रामपुत्र मादि का वर्णन था, अनुत्तरोपपातिकदसा या उन्नति उसके अभिमान के कारण अटक गई थी हालांकि अनुत्तरदसा में ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, शरीर का मोह उसे सर्वथा हो तब नहीं था। निदान के नन्दन, शालिभद्र, अभय वारिषेण, चिलातपुत्र"मादि- कारण, सन्त मधुपिंग मुनिधर्म स्वीकार नहीं कर सका प्रादि के वर्णन थे। इनमें से कुछ कथानक वर्तमान अधं- और सन्त वशिष्ठ ने दुःख उठाया था। [४४-४६] । 'मागधी भागमों में से कुछ में प्राप्य है। परन्तु प्राचीन बाहु यद्यपि जैन मुनि था फिर भी अपनी प्रान्तरिक घृणा प्रन्थों के प्रभाव में यह कहना असम्भव है कि उनकी के कारण दण्डक नगर को भस्म कर दिया और रौरव नरक दिगम्बर कथाएं कैसी थीं ? प्रागमों के उपलब्ध दिगम्बर को प्राप्त किया। इसी तरह द्वैपायन भी यद्यपि बाहर से ग्रंश ही कदाचित् उन तीन महान् टीकामों की पृष्ठ-भूमि मुनि ही दीखता था परन्तु मुनि के यथार्थ गुण उसमें नहीं है कि जो उनके अन्तिम स्वरूप मे धवला, जयघवला और थे और इसीलिए वह अनन्त संसार भ्रमण करता रहा महाधवला के नाम से प्रख्यात है। अब तक के प्रकाशित [४६-५०] | शिवकुमार, नवकुमारियो से वेष्ठित होने इनके अंश अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं और उनका विषय पर भी, अपने वीर और विशुद्ध मन के कारण संसारबिलकुल विशिष्ट है। इसलिए कथानको का, यदि उनमे चक्र का नाश कर सका था। भव्यसेन भावश्रमण नही हो कुछ कथानक प्राप्त हों तो भी, कोई अनुमान नहीं लगाया सका, हालाकि उसने १२ अग पोर १४ पूर्व ही नहीं, जा सकता है। उनमें कुछ ऐसी दृष्टान्त कथाएं भी है कि अपितु संसार का सारा शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जिनमें शिष्यों का वर्गीकरण और विशष्टिकरण किया पक्षान्तर में शिवभूति ने जिसके कि भाव विशुद्ध थे, तुसगया हो । प्राचीन दिगम्बर साहित्य का दूसरा स्तर कुन्द- मास की माला जपते-जपते ही केवलज्ञान प्राप्त कर कन्द, यतिवषभ, चटकेर और शिवार्य के ग्रन्थ है । कुन्द- लिया [५१-५३]। मत्स्य शालिसिक्थ तक भी भावों की कुन्द के माने जाने वाले ग्रन्थों मे निर्वाणकाण्ड नित्य-पाठ अपवित्रता के कारण नरक मे गया [८६] । यह बताने का स्तोत्र है और इसमें जैन परम्परा के अनेक प्रमुख के लिए कि शील रहित ज्ञान से ही स्वर्गादि ऊध्वं लोकों व्यक्तियों को उनके निर्वाण-स्थलों के नाम के साथ नामा- में जाने का मार्ग प्रशस्त नहीं हो जाता है, शीलपाहुड मे वली दी गई है एवम् उन सब को नमस्कार किया गया है। सुरत्तपुत्त" का दृष्टान्त उद्धृत किया गया है कि जो दस इससे हमें जैन पुराण और जिनमे जैन बड़ी पूज्य दृष्टि पूर्व का ज्ञानी होते हुए भी नरक में गया [३०] । यति रखते हैं ऐसे व्यक्तियों की प्रादि पूंजी का कुछ कुछ वृषभ की तिलोयरण्णत्ति" में ६३ शलाका पुरुषों की माभास मिल जाता है। भावपाहुड उन कुछ व्यक्तियों
या ३० उपाध्ये :प्रवचनसार [बंबई १९३५] इन्ट्रो. पृ. ३३ ।
पास २८ देखो प्राकृत श्रुतभक्ति तत्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद की ३१ संभवतया सम्पादक द्वारा की संस्कृत छाया मे सात्य। सर्वार्थसिडि, १. २०, मोर उसी पर प्रकलंक का कीपुत्र से इस नाम का तुल्यकरण किया गया है।
राजवार्तिक; धवला सहित षट्खण्डागम [अमरावती ३२ इसका वक अंश परख के लिए मैने जैन सिद्धान्त १९३६] भाग १. पृ. ९६ मादि; गोम्मटसार, भवन, मारा के लिए १९४१ में सम्पादन किया था जीवकाण्ड [बंबई १९१६], पृ. १३४ मादि ।
जो पहले जैन सिद्धान्त भास्कर में पोर पीछे पृथक २६ प्रो. हीरालाल ने घवला, भाग २ [भमरावती पुस्तकाकार प्रकाशित हुमा था। अब मैं फिर से
१९४०] के इण्ट्रोडक्शन, पु. ४१-६८ में दिगम्बर इसका सम्पादन कर रहा है और वह छपने दे भी ..... मौर श्वेताम्बर शास्त्रों में उपलब्ध दृष्टिवाद के विव- दिया गया है। मूल पाठ के साथ हिन्दी अनुवाद
रण का तुलनात्मक विचार विशद रीति से किया है। भी है।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
जीवनी की वे प्राधारभूत बातें सभी दी गई हैं कि जिन मूलाचार, निज्जुत्ति जैसे कि मावश्यक, पिण्ड मादि, कम पर उत्तर ग्रन्थों की रचना हुई है। ऐसी ही बाते याव- से कम कुछ अंशो मे, किसी एक समान थोत्र के ही भाभारी श्यक-भाष्य प्रादि में भी हैं । वट्टकेर के मूलाचार मे [२, है कि जो कभी दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों में ही प्रधि८६-७] वर्णन है कि महेन्द्रदत्त ने कनकलता, नागलता, कृत माने जाते रहे होगे।" भाषाई और क्रियामूलक विद्युल्लता और कुन्दलता जैसी स्त्रियों को एवं सागरक, विभेद, पाठों के लिपिबद्ध हो जाने के पश्चात् की पारस्पवल्लभक, कुलदत्त और वर्धमानक जैसे पुरुषों का एक ही रिक आदान-प्रदान की सम्भावना को एक दम अमान्य कर दिन मे मिथिला में वध कर दिया था। इस गाथा पर देता है । वास्तव मे ये विभेद स्पष्ट बताते है कि वही बसुनन्दि टीकाकार ने व्योरेवार कथानक नही दिया है. गाथा कैसे, विषय को प्रभावित किए बिना ही, मौखिक अपितु इतना ही कह दिया है, 'कथानिका चात्र व्याख्यया सक्रमण के समय क्षुद्र परिवर्तन को तो प्राप्त हो ही गई। अागमोपदेशात्'। फिर क्रोध, मान, माया और लोभ द्वारा विषय की तादृश स्थूल रूपरेखा का मरक्षण प्राचीन जैन कुछ मुनियो द्वारा प्राहार प्राप्त किया गया था, उनके परम्परा को प्रामाणिकत
परम्परा की प्रामाणिकता और उसके इस काल तक ज्यों दृष्टान्त के लिए हस्थिकप्प" वेणयड, वाणारसी और की त्यो हस्तान्तरित किए जाने की निष्ठा को हो प्रमारासियाण नगरों से सम्बन्धित कुछ कथायो का उल्लेख णित करता है।
णित करती है। विभेदों के पीछे, जो कि बाद में जटिल है। टीकाकार बमुनन्दि ने यहाँ भी कथाएँ नहीं देकर, हो गए, पक्षपात-शून्य अध्ययन-मनन जैन परम्परा की इतना ही कह दिया है, 'प्रत्र कथा उत्प्रेक्ष्य वाच्या इति । ठोस और समान एक आगे की गाथा [६. ३६] मे यशोधर को प्रादर्श दानपति के लक्ष्य मूलतः दाना म कहा गया है । शिवार्य की "भगवती माराधना" में यद्यपि से ही वैराग्य-वीरों की जयन्तियां या उत्सव मनाते है। मुनि के मरणान्त समय के वैराग्यानुशासन को ही मुख्यता प्राचीन दिगम्बर श्रावकाचारों मे समन्तभद्र का दी गई है फिर भी, कितनी ही जीवनियों का उल्लेख उसमें रत्नकरण्डश्रावकाचार है और उसमें अंजन चोर", मनन्तकिया गया है जिन पर जैसा कि हम पागे देखेगे, हरिषेण मति, उद्यायन, रेवती, जिनेन्द्रभक्त, वारिषेण, विष्णु और प्रभाचन्द्र प्रादि के कथाकोगों में संग्रहीत अनेक कथानक वज्र का उल्लेख सम्यक्त्व
वज्र का उल्लेख सम्यक्त्व के पाठ अंगों का पालन करने विकास पा गए है । मूल ग्रन्थ मे कितने ही प्रमुख व्यक्ति- वालों के दृष्टान्त रूप से किया गया है [१, १९-२०] । यों का उल्लेख है कि जो अपने धर्माचरण, पापाचरण, फिर मातग, घना
फिर मातग, घनदेव, वारिषेण, नीली और जय अणुव्रतों वैराग्य-वीरता, या इह भव और परभव के परिणामों के के यथार्थ पालने वाले सुप्रसिद्ध कहे गये हैं, और धनश्री, प्रति बताई सहनशीलता के लिए स्मरणीय है"। कितने सत्यघोष, तापम, पारक्षक और इमथुनवनीत पांच महाही नाम तो पइन्नयो में मिलने वाले ही है और इनमें से पापों के दृष्टान्त रूप से उल्लेग्व किए गए हैं [३, १८कुछ का उल्लेख प्रायः वैसी की वैसी ही गाथानो मे यहाँ १] । अन्त में श्रीषेण, वृपभसेन और कोण्डेश का नाम भी है।
प्रादर्शदाताओं के लिए दिया गया है (४, २८)। वसुनन्दि श्रामण्य जीवन सम्बन्धी प्रायः तादृश बातों के कारण
ने अपने उवासयभयण" मे सम्यक्त्व के पाठ अंगों के ही, थोड़े शाब्दिक एवम् भाषाई हेरफेर बाली समान गाथा पौर उसी प्रकार की व्याख्या एवम् वाचना के कारण यह
- ३५ यशस्तिलक चम्पू [शक म० ८८१] के ६ठे प्राश्वास परिणाम अनिवार्यतः निकलता है कि "भगवती पाराधना,
में भी ये कथानक दिये हुए हैं। नयसेन का धर्मामृत
किन्नड ई०१११२] भी समक्त्व, व्रत प्रादि संबंधी ३३ जित कल्पभाष्य [अहमदाबाद संस्क. सं. १९६४] में
कथाएं देता है। एक दृष्टान्त हाथीकप्प के स्वमग का दिया गया है
३६ मैंने उम संस्करण का उपयोग किया है जिसमें प्राकृत परन्तु अधिक विवरण नहीं दिया गया है [गाथा मूष और हिन्दी अनुवाद है। उसका मुखपृष्ठ गायब १३६५ आदि।
है। संभवत: वह सूरजभान वकील, देवबन्द, द्वारा १४ ये बातें अधिक व्योरा सहित प्रागे लिखी गई हैं। प्रकाशित किया गया था।
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५८, वर्ष २३ कि०२
अनेकान्त
दृष्टान्त मे समन्तभद्र के दिए नाम ही दिए है, पर कोई भी लेखक या ग्रन्थकार इस प्रकार नामों का उल्लेख जिनेन्द्रभक्त के स्थान मे उसने जिनभक्त नाम दिया है। कभी नही कर सकता है जब तक कि उसे मौखिक परम्परा इसके सिवा उसने इन व्यक्तियों के नगरों के नाम भी दे से या लिखित उल्लेखो से उनकी कथानों का पूरा-पूरा दिए हैं (गाथा ५२-५)। वसुनन्दि ने सात व्यसनों के परिचय प्राप्त न हो। कुछ कथाएं उनके विवरण सहित बुरे परिणामों के छाप पटकने के लिए नीचे लिखी अनेक जो खोज ली गई है, यही बात समर्थन करती है कि इन कथानों की ओर ध्यान प्राकृष्ट किया है : द्यूत के कारण नामों का सम्बन्ध सुप्रख्यात कथानों के साथ बैठाने के राजा युधिष्ठिर ने न केवल राज्य ही खोया अपितु १२ लिए और भी गहन अध्ययन प्रावश्यक है। वर्ष तक वनवास भी भोगा था; उद्यान मे क्रीड़ा करते इ. उत्तरकालीन प्रवृत्तियों और नमूने हुए प्यास लगने पर गन्दी मदिरा पीकर यादव नष्ट ही प्राचीन जैन साहित्य के वर्णात्मक तत्त्वों का सरसरा हो गये थे; एकचक्र का राक्षस बक, मास लोलुपी होने के सर्वेक्षण कर लेने के पश्चात्, इन प्राचीन बीजों से ही कारण ही राज्यभ्रष्ट हुआ और मरने पर नरक में गया अंकुरित और पल्लवित पीछे के जैन कथा-साहित्यों के था; चतुर चारुदत्त वेश्याशक्ति के कारण ही दरिद्र हमा खास-खास नमूनो का विचार करना अब प्रावश्यक है। और विदेशों मे दुःख पाया था; चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त पाखेट प्रत्येक के विवरण के खोज की अपेक्षा, उनकी स्थूल धारा के व्यसन के कारण ही नरक में गया था; श्रीभूति निक्षेप एव नमूनो का विचार करना ही हमारे लिए अधिक का अस्वीकार कर हड़प जाने के कारण ही संसार के उपयोगी होगा। अनेक चक्र करता रहा था; लंकापति रावण, प्रतिवासुदेव वेसठ शलाका पुरुषों की जीवनी की सामग्री [२४ और विद्याधरों का अधिपति होने पर भी, परदारा-हरण तीर्थकर, १२ चक्र कर्ती, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव, और के पाप के कारण नरक में गया और अनेक भवभ्रमण ६ बलदेव ] अंशतः कल्पसूत्र में पाई जाती है और प्राधारकिये थे (गाथा १२५-३३)।
भूत तत्वों मे तिलोयपण्णत्ति एवं विशेषावश्यक-भाष्य में, मूल पाठ इन व्यक्तियों के विषय में स्वतः कुछ भी जैसा कि पहले ही देखा जा चुका है, भी मिलती है। इन नही कहते है, परन्तु टीकाकार ही इनके कथानको की जीवनियो को एक विशिष्ट रूप ही प्राप्त हो गया है पूर्ति करते है। प्रभाचन्द्र ने रत्नकरण्ड के उल्लेखों को
हालांकि ब्यौरे और विवरण प्रत्येक लेखक के एक दूसरे
हालाकि हर स्पष्ट करने के लिए ही कथानक दिये है। कितने ही से कुछ-कुछ भिन्न है। ऐसा मालूम पड़ता है कि कुछ कथानक तो, यह स्पष्ट है कि, धर्मोपदेशिक ही हैं । कुछ प्राचान
प्राचीन ग्रन्थ, जैसे कि कवि परमेश्वर का, हम तक नहीं' कथानक उत्तरकालीन कथाकोषों में ही पाये जाते है और पहुंच पाए। परन्तु जिनसेन, गुणभद्र और हेमचन्द्र के कथानो के नायक-नायिका का भाग्य पाठक के मानस पर सस्
र संस्कृत ग्रंथ, शीलाचार्य और भद्रेश्वर के प्राकृतिक ग्रन्थ, एक स्पष्ट छाप छोड़ देता है। यदि वे अपने दुष्कृत्यों या पु
पुष्पदन्त का अपभ्रंश ग्रंथ, चामुण्डराय का कन्नड ग्रंथ पापों से दुख पाते है तो पाठक को उन दुष्कृत्यों या पापों
और तमिल के किसी अज्ञात लेखक का श्री पुराण में, से बचते ही रहना चाहिए, और यदि वे अपने सुकृत्यों,
पाशाघर, हस्तिमल्ल आदि के छोटे-छोटे ग्रन्थों के साथधर्मकृत्यों से सुख पाते हैं तो पाठक इनकी सार्थकता का
साथ ही, प्राप्त है। इनके विश्वभौगोलिक एवं सैद्धान्तिक पूर्ण विश्वासी हो जाता है।
विवरणों के बीच-बीच मे दी गयी कथानों और धर्म विशाल जैन कथानक या वर्णनात्मक साहित्य का देशनाओं के कारण इन्हें प्रधान पुराणों में पूजनीय स्थान पूर्ण अध्ययन ही हमें कहानियों के पहचानने और प्राचीन प्राप्त हो गया है और ये बड़े प्रामाणिक माने जाते हैं। जैन साहित्य के विशाल क्षेत्र में प्रसंगवश उल्लिखित दूसरे नमूनों मे वैयक्तिक तीर्थकरों की और उनके के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने में बहुत सहा- समय के अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों की जीवनियाँ है । पर यता कर सकता है। यह बिलकुल निश्चित बात है कि हम देख पाए हैं कि निर्वाणकाण्ड में अनेक सुप्रतिष्ठित
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
व्यक्तियो को नमस्कार किया गया है जिनकी कि स्मृति- पाण्डव-कथा के विकास की प्रारम्भिक स्थिति का है कि रक्षा उत्तर साहित्य में की गयी है। तीथंकरों की उपलब्ध जिसका परिवर्षित और साम्प्रदायिक रूप प्राधुनिक महाजीवनियों में से अधिकांश, चाहे वे प्राकृत, संस्कृत, कन्नड भारत में हमें प्राप्त है। भद्रबाहु का तथाकथित वासुदेव और तमिल मादि किसी भी भाषा में क्यों न लिखी गई चरित्र हमे उपलब्ध नही हुमा है। परन्तु वासुदेव के देशहो, मे परम्परानुसार विवरण तो दिया ही गया है, परन्तु विदेश पर्यटन का वर्णन करने वाली और गुणाढ्य की उनकी शैली संस्कृत पार्ष काव्यों के अनुसरण पर अलं- बृहत्कथा के जन प्रतिरूप का सुन्दरतम चित्र प्रस्तुत करने कारिक है। लक्ष्मणगणि" और गुणभद्र रचित सुपार्श्व वाली सघदासगणि की वासुदेव हिण्डी वीर कथा, लोकएवं महावीर के प्राकृत चरित्र, हरिचन्द्र और वीरनदि कथा, जन्म-जन्मान्तर के उन्नायक पाख्यानो एव साम्प्ररचित धर्मनाथ एवं चन्द्रप्रभ के संस्कृत चरित्र, पप, रत्न दायिक व प्रौपदेशिकः प्राख्यानिकानो का एक स्मरणीय एवं होन्न रचित आदिनाथ, अजितनाथ और शातिनाथ सग्रह पथ हमे प्राप्त है । कई पाख्यान जैसे कि चारुदत्त, के कन्नड चरित्र, इनके अच्छे उदाहरण है । जेन परम्परा अगडदत्त पीप्पलाद, सगरकुमार, नारद, पर्वत वसु, राम और कृष्ण को मुनिसुव्रत और नेमिनाथ के सम- सनत्कुमार आदि आदि जिनकी उत्तरकालीन साहित्य मे कालीन मानती है और राम एव कृष्ण की कथा के कितनी
लोकप्रियता मान कर बारबार पुनरावृत्ति की गई है, उस ही प्रकार के जैन सस्करण प्राप्त है। विमल का पउम
वासुदेवहिण्डी मे प्रायः उसी रूप में पहले ही से स्थान चरिय और रविषेण का पद्म चरित्र, जैन दृष्टिकोण और
पाए हुए हैं । कडारपिग की जैसी कहानियां जो कि लपटी पृष्ठभूमि के अनुसार ली गई छूटों का विचार करते हुए
पात्रों में सुप्रसिद्ध है, भी इसी श्रोत में हमे प्राप्त है। भी, रामकथा को मौलिक एवं महत्वपूर्ण वैशिष्ठ्य प्रदान
चाहे कहानी के पात्रों के नाम बदल गये हों, परन्तु लक्ष्य करते है हालाकि ऐसा करते हुए भी, वे यह प्रच्छन्न नही तो वहां का वही
तो वहाँ का वही है। जिनसेन का संस्कृत हरिवश पुराण
जिनमेरा मस्कत गि रख सके है कि उन्हे वाल्मीकि रामायण का परिचय नहीं
और अपभ्रंश का धवल कवि का वासुदेवहिण्डी से बहुतांशमे है। विद्याधरों और उनकी कारस्तानियो के प्रवेश के
मिलता है। यह द्रष्टव्य है कि जिनसेन के ग्रन्थ मे कारण इन ग्रथों को कितने ही स्थानों में परी-कथाओं कितने ही ब्यौरे ऐसे दिए गए है कि जो ६३ शलाकाका सा मनोहर रूप प्राप्त हो गया है । कृष्ण-वासुदेव जैन पुरुषों के चरित्र ग्रन्थ मे शोभा पा सकते हैं। इस नमूने साहित्य में भी पूर्ण प्रमुखता प्राप्त करते है। अर्धमागधी के सैकड़ों ही, गद्य एवं पद्य ग्रन्थ अनेक भारतीय भाषामों शास्त्रों में उनके और उनके गण याने वृष्णिवंश के बाबत के उपलब्ध है । कुछ में तो जीवन्धर, यशोधर करकण्ड, अनेक सूचनाए प्राप्त है। वे अपने गुण के सर्वप्रमुख वीर नागकुमार और श्रीपाल जैसे धर्म-कर्म-वीरव्यक्तियों के ही या नायक है । परन्तु उनके अवतारी पुरुष होने के चिन्ह, जीवन वर्णन है तो दूसरों मे उन धर्मवीर श्रावक एव जो कि महाभारत मे असाधारण और प्रचुर परिमाण मे श्राविकारो की उपदेशप्रद कथाएं है कि जिनने कुछ व्रतों व्यक्त है, जैन उल्लेखो मे एक दम ही नही है । प्राचीन
और धर्म-क्रियाओं के पालन में ही अपना सारा जीवन जैन ग्रन्थों में पाण्डवों को इतना महत्व प्राप्त नही हुआ
उत्सर्ग कर दिया। प्राचीन साहित्य के सुप्रख्यात वैरागी था जितना कि महाभारत में उन्हे प्राप्त है। और कृष्ण
वीरों की सक्षिप्त जीवनियां भी है। इहभव और परभव ने अवतारी पुरुष का नहीं, परन्तु एक साहसी एवं उदात्त
मे अच्छे और बुरे कर्मों के फलो को दृष्टान्त द्वारा हृदयक्षत्रीय का ही रूप उनमें पाया है। कदाचित यह चित्रण
गम कराने वाली परिशोध कथाए भी है। इन कथामों में ३७ लेखक सम्यक्त्व के फल और बारह व्रतों के अतिचारो भावना और सिद्धान्तोपदेश ये दो ही प्रतिपाद्य विषय है।
की दार्टान्तिक अनेक उपकथाएं देता है और उनने कुछ कथानक तो प्राचीन साहित्य से लिए गए हैं तो कथा की प्रमुख धारा या प्रवाह को प्रायः पाच्छा- दूसरे लोकजीवनियो से। कुछ काल्पनिक भी हो सकते है। दित कर दिया है।
परन्तु इन सबको जिस ढांचे में सजाया गया है वह अन
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६०, वर्ष २३ कि० २
अनेकान्त
ऐतिहासिक है। इस वर्ग में सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश पीढ़ियो ने इन्हे किसी भी तरह भुलाया नही है। हम की अनेक कथा, चरित्र और पाख्यान मन्निविष्ट है। देखने है कि नन्दीमूत्र भी प्रभावक युगप्रधानों का इनके लेखक का ध्येय घटना-वर्णन मात्र है और उनकी स्मरण किस श्रद्धा के साथ किया गया है। हरिवश और शैली महाकाव्य की है। गद्यचिन्तामणि, निलकमजरी, कथावलि में भी महावीर के बाद के अनेक प्राचार्यों का यशस्तिलकचम्पू ग्रादि ऐसे द्रष्टव्य उदाहरण है जो उच्च उल्लेख है । ऋपिमंडल जैसे स्रोत में भी महान सतो के काव्य योग्यता और अलकारी भाषा के उत्तम नमूने नाम गिनाए गये है। बाद की सदियों में इन सब तत्वो ने हैं। जैन साधु का यह अनिवार्य गुण कहा और माना मिल कर खुब ही साहित्य रचवाया है। परिशिष्टपर्व, जाता है कि वह अनेक कथाए कह सके। स्वभावतः ही प्रभाक्क चरित्र और प्रबन्धचिन्तामणि ऐसे ही साहित्य के काध्य झकाववाले अनेक जैन मुनियो ने साहित्य की इस उत्तम नमूने है । यह सत्य है कि इतिहासज्ञ को इनकी शाखा को प्रचूर साहित्य प्रदान किया।
अनैतिहासिक परिस्थितियों में से तथ्य खोज निकालना भारतीय साहित्य में एक तीसरे नमूने ने भी मनो- पड़ता है । महान प्राचार्यों की ही भाति जैन पवित्र तीर्थों रंजन पथ अकित किया है। और वह रोमानी शैली की का भी तीर्थकल्प जैसे ग्रथो मे गौरवगान किया गया है।
Hशा है। पादलिप्त का प्राकृत 'तरगलोला' ग्राज सबसे अन्तिम श्रेणी या वर्ग में कथाकोश या कथाअप्राप्य है, परन्तु 'तरगवती नाम से उसका सस्कृत सार
सग्रह है। हमने ऊपर देख ही लिया है कि कुछ पागम,
र यह प्रकट करता है कि मूल ग्रन्थ में अवश्य ही महान् ।
नियुक्ति, पइन्नय, पागधना शास्त्र आदि, औपदेशिक साहित्य गुण रहे होगे। फिर समराइच्च कहा है जो एक
दार्टान्तिक कहानियों का, प्रादर्श जीवनियो और वैरागी सुन्दर गद्य रमन्यास है और जो श्री हरिभद्रमूरि के
कथानो का, किस प्रकार उल्लेख करते है। उपदेशमाला, साहित्य और काव्य गुणो द्वारा रचा गया है। इसमे ऐसे
उपदेशपद आदि जैसे अन्य ग्रंथों ने भी यही परम्परा चालू परम्परागत नामो की हारमाला दी गई है कि जिनने
रखी है। इससे टीकाकारों को उनकी कथानो का पूर्ण निदान द्वारा अपना ससार-भ्रमण अत्यन्त बढ़ा दिया था।
विवरण देने की आवश्यकता हुई। कहीं-कही सस्कृत बहुत चतुराई और सावधानी से गूथा हुग्रा, सिद्धपि का
टीकायो मे पुरातन प्राकृत कथाए भी सुरक्षित कर दी जटिल रूपक, उपमितिभवप्रपचकथा, को भी इसी श्रेणी में
गई है। टीकाकारों ने ही कही-बही प्राचीन सामग्री के रखा जा सकता है। अन्यधर्मों के सिद्धान्तो और पुराण
प्राधार से, गद्य, पद्य या मिश्रित शैली में संस्कृत में ये कथामो का दोष बताने के लिए भी कभी-कभी काल्पनिक
कथाए लिखी है । इसने कतिपय टीका-ग्रथो को कथाओं कथाएं रची गयी है । यह प्रवृत्ति वासुदेवहिण्डी के प्राचीन
का महान संग्रहालय ही बना दिया है । हमे ज्ञात है कि काल तक में भी स्पष्ट दिखलायी पडती है । सीधीसादी
ग्रावश्यक, उत्तराध्ययन आदि की धनेक टीकाए इन रोति हो तब पादिरी गई था। हारभद्र का पूताख्यान कथाओं से पूरी सम्पन्न है । इन कथाम्रो का एक निश्चित और हरिषेण, अमितगति और वृत्तविलास की धर्मपरीक्षा धार्मिक वृत्ति का प्रचार करना ही लक्ष्य है और इसी ने यह बता दिया है कि हिन्दू पुराण की अविश्वस्त लिए उपदेशक और प्रचारक अपने भाषणो, व्याख्यानो, जीवन-कथाओं का किस चतुराई से काल्पनिक कथा द्वारा धर्म-प्रवचनो में स्वतत्र रूप से बिना किसी विशेष प्रसग व्यग चित्र खीचा जा सकता है।
के भी इनका उपयोग कर सकते और करते है। पंचाख्यान अर्ध-ऐतिहासिक प्रबधो की एक चौथी श्रेणी या बर्ग जैसे कहानियो के जन सस्करण भी हुए है कि जो पचतत्र है। भगवान महावीर के बाद युग प्रधान प्राचार्य, अद्भुत जैसे ग्रथ के अग्रदूत थे। इसी प्रवृत्ति ने कथानो के छोटे सत, महान ग्रथकार, प्राश्रयदाता राजा और व्यापारवीर और बड़े सग्रहो को भी जन्म दिया कि जिनका सदर्भ कि जिनने जैन सध की भिन्न-भिन्न परिस्थितियो और ग्रथ की भांति निरन्तर उपयोग किया जा सके। कई सदियो मे अपूर्व सेवा की, हुए है। बाद में आने वाली प्राचार्य तो इन कथानो का अपने ही ढग से, मूल कथा
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
का ढाँचा अस्खलित रखते हुए, कह देते थे। परिणामतः और न भारतीय साहित्य की अन्य शाखामों में ही इतनी जैन भंडारों मे अनेक हस्तलिखित कथाकोश आज उप- बहुलता से पाई जाती है। इनमे पृष्ठ पर पृष्ठ पूर्वभवो के लब्ध है । इनमे से अनेक के लेखको का तो नाम तक वर्णन से, चित्रण से रग दिये गए है। सर्व शक्ति सम्पन्न प्रज्ञात है । बहुत ही थोड़े इस वर्ग के ग्रथो का तुलनात्मक और सजग कर्म सिद्धान्त बड़ी सूक्ष्मता से सुकृतों और सूक्ष्म परीक्षण किया गया है। कुमारपालप्रतिबोध जैसे दुष्कृतो का लेखा रखता है कि जिनके परिणाम से कोई प्रथ विशिष्ट लक्ष्य से तैयार किए गए कथा संग्रह ही तो भी त्राण नही पा सकता है। जहाँ भी अवसर मिलता है है । इन सग्रहों से कथा-विशेष स्दतत्र संकरण मे भी प्राप्त सैद्धान्तिक बारीकियों और प्रौपदेशिक पाख्यानो के साथ है । इन उपदेशी कथापो के सिवा भी कुछ ऐसी कथाए धार्मिक उपदेश प्रस्तुत कर दिए जाते है। कथामो में ही है जिनका सबन्ध व्रतो याने धार्मिक और अनुष्ठानिक कथाएँ प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति इतनी अधिक दीख पडती प्राचारो से है। व्रतो के फल का और उन व्यक्तियों का है कि सावधान पाठक ही कथा के भिन्न-भिन्न तारो का कि जिनने उनमे सफलता प्राप्त की, गौरवगान करने को ध्यान बराबर रख सकता है। दृष्टान्तिक कथाएं यहां वहाँ एक अच्छी कथा रची जा सकती है । उत्तरकाल मे इनमे दे दी जाती है और वे सामान्यतया लोक-कथानों और साहित्यिक-रग बिलकुल ही फीका पड गया था और वे पशु-पक्षियो की कथामो से ही ली जाती है। सभी प्रसंगो मात्र यात्रिक एव निरस ही रह गई और उसी रूप मे वे मे कथाकार मानव-मस्तिष्क की प्रचालना मे सूक्ष्म अन्तसग्रहो मे भी सुरक्षित हो गई है।
दैष्टि रखता हुमा प्रतीत होता है । वैराग्य की भावना उपर्युक्त सभी वर्गों के अन्थो मे सिवा कुछ अध-ऐति- सारे के सारे ग्रन्थ में प्रोत-प्रोत रहती है और प्रत्येक ही हासिकप्रबन्धो की कतिपय धाराएँ हमारा ध्यान विशेष कथा-नायक अगले जन्म में अच्छी स्थिति पाने के लिए रूप से आकर्षित करती है क्योकि वे न तो सामान्य ही है नियमत: संसार त्याग प्रायः करता ही है। (क्रमश:) .
देवगढ की जैन कला का सांस्कृतिक अध्ययन
श्री गोपीलाल अमर
परिचय
जैनकला का सास्कृतिक अध्ययन' शीघ्र प्रकाशित हो रहा दि० ६-२-७० को सागर विश्वविद्यालय ने प्रो० है तथापि, उसका सक्षिप्त परिचय विद्वज्जगत कोटेना भागचन्द्र को 'पीएच० डी०' की उपाधि से अलंकृत आवश्यक है। तीनों परीक्षकों ने इस शोधप्रबन्ध की किया। प्रो० जैन शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अत्यन्त प्रशसा की है, अत: यहा उन्ही के शब्द उद्धत सीहोर (भोपाल म०प्र०) मे संस्कृत विभाग के अध्यक्ष करता हूँ (हिन्दी अनुवाद के रूप में)। है । संस्कृत और संस्कृति में विद्वत्ता के अतिरिक्त समाज- परीक्षकों को सम्मतियां सुधारके लिए भी उनकी प्रसिद्धि है। देवगढ पर शोधप्रबन्ध (१) प्रो० कृष्णदत वाजपेजी, टैगोर प्रोफेसर एवं लिखकर डॉ. जैन ने विद्वानो को प्रबल प्रेरणा दी है कि वे अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, सस्कृति एवं पुरातत्त्व समेत शिखर, गिरनार, शत्रुजय प्रादि जैसे तीर्थों का भी विभाग तथा निर्देशक, उत्खनन एवं अन्वेषण, सागर विश्वऐसा अध्ययन करके उन्हे दुनिया भर के आकर्षण और विद्यालय : उपयोग की वस्तु बनाएं। इसीलिए, यद्यपि 'देवगढ़ की "मैंने शोधप्रबन्ध का परीक्षण किया। प्रत्याशी
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६२, वर्ष २३ कि. २
अनेकान्त
ने देवगढ़ के सभी जन स्मारको और मूर्ति-अवशेषो का बराबर ध्यान रखा है । इस क्षेत्र का प्रागितिहास काल से उसी स्थान पर जाकर अध्ययन किया है । उसने देवगढ़ आधुनिक काल तक का इतिहास सक्षेप में लिखा गया है। के समीपवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है और दश के इस सम्बन्ध मे मन्दिर स्थापत्य के विकास का इतिहास विभिन्न संग्रहालयों में प्राचीन भारतीय कलागृहो का अपने आप आ गया है और उसी पृष्ठभूमि पर जैन मन्दिर अध्ययन किया है। "शोधप्रबन्ध नौ अध्याओं और पाच लिये गये है। इस विद्वान् ने बहत से उलझे हुए विषयों परिशिष्टों में विभाजित है। प्राचीन मन्दिरो की रेखा को स्पष्टता से सुलझाया है। प्रभावपूर्ण जैन केन्द्र मे जति दर्शाने वाला एक नक्शा, और विभिन्न इमारतों तथा हिन्दू मूर्तियों का पाया जाना स्वभावत: जिज्ञासा बढाता जातियों को चित्रित करने के लिए १२० फोटो प्रादि दी है और इस सबन्ध में यह ध्यान देना होगा कि हिन्दू धर्म गयी है। शोधप्रबन्ध के अन्त में सदर्भ ग्रन्थो की एक और जैन धर्म के बीच हमेशा सौहार्दपूर्ण संबन्ध रहे है, विस्तृत सूची भी है।
बौद्ध धर्म और खासकर उसकी महायान शाखा की तरह “यह देवगढ की जैन कला का प्रथम, व्यापक और नही कि जिसमे ऐसी अनेक मतियाँ बनायी गयी जिनमें समीक्षात्मक अध्ययन है। मन्दिरो तथा अन्य अवशेषो का हिन्दू देवों और देवियों को इरादतन हीन स्थिति में दिखाया विवरण सविस्तार है। इन स्मारको पर अाधारित सभी गया है । जैसा कि एक श्रेष्ठ विद्वान् ने उल्लेख किया है. कला सम्बन्धी मुद्दे भलीभांति रखे गये है। जैन पूजा से यही वह सच्चाई है जिसने जैन धर्म को अनेक असगतियों से सम्बद्ध विभिन्न समस्यामो, धार्मिक प्रतीकवाद, भट्टारक के बावजूद उसकी जन्म-भूमि में बने रहने मे मदद की. सस्था का उद्भव और विकास तथा कुछ मूर्तियो के समी- जबकि विरोधी दिशा पकड़ने से बौद्धधर्म को अपने जन्मकरण आदि पर वैज्ञानिक ढग से विचार किया गया है। स्थान से निर्वासित होना पड़ा। इस स्थान (देवगढ़) के साहित्यिक प्रस्तुतीकरण यथोचित है।
धार्मिक जीवन पर लिखा गया अध्याय निस्सन्देह प्रेरणा"यह रचना प्राचीन भारतीय इतिहास और सस्कृति दायक और सूचनापूर्ण बन पड़ा है। संघों के गिर्द केन्द्रित के लिए एक मौलिक योगदान है। श्री भागचन्द्र जैन के सामाजिक जीवन भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। यह स्थान लिए सागर विश्वविद्यालय की पी-एच० डी० की उपाधि इतिहास के स्रोतों से समृद्ध है जिसका महत्त्व मडिकल से समर्पित किये जाने की संस्तुति करते हुए मुझे प्रसन्नता कम किया जा सकता है। का अनुभव होता है।"
__ "लेखक ने विपुल सामग्री एकत्र की है और उसे प्रो. सधाकर चटोपाध्याय, विश्वभारती, शान्ति- वैज्ञानिक ढग से सजोया है। शोधप्रबन्ध पर परिश्रम निकेतन :
और मौलिक चिन्तन की छाप है और उस अध्ययन का ने श्री भागचन्द्र जैन द्वारा सागर विश्वविद्या- प्रमाण है जिसे लेखक ने किया है। लय की पीएच० डी० उपाधि के लिए प्रस्तुत 'दवगढ़ की “यह संस्तुति करने मे मुझे प्रसन्नता है कि श्री जैनकला का सांस्कृतिक अध्ययन' शीर्षक शोधप्रबन्ध का भागचन्द्र जैन को सागर विश्वविद्यालय की पीएच. डी. परीक्षण किया है। यह शोधप्रबन्ध नौ अध्यायो और पाधि सीकत की जा ।" पांच परिशिष्टो में विभाजित है जो उसी स्थान पर जाकर (३) श्री सतीशचन्द्र काला, निर्देशक, इलाहाबाद किए गए अध्ययन पर आधारित है जो (अध्ययन) संकेतो संग्रहालय, इलाहाबाद, उ० प्र० :
और व्याख्यानो से समृद्ध अगणित विवरणो से परिपूर्ण "मैने श्री भागचन्द्र जैन के शोधप्रबन्ध 'देवगढ की जैन है । जिन्होने विभिन्न दृष्टिकोणो से (देवगढ़ का) अध्ययन कला का सास्कृतिक अध्ययन' की परीक्षा की और उसे किया है उन पूर्ववर्ती लेखकों का और अब तक लिखी उच्चकोटि का शोध कार्य पाया। गयी उसी (देवगढ़) सबन्धी उन संक्षिप्त पुस्तकों का जिन्हे "श्री भागचन्द्र जैन डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की अन्य विद्वान् लेखकों ने लिखा, लेखक (भागचन्द्र जैन) ने उपाधि पाने के योग्य व्यक्ति है।"
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देवगढ़ की जन कला का सांस्कृतिक अध्ययन
देवगढ़ को वर्तमान स्थिति
का संक्षिप्त वर्णन है। देवगढ़ उत्तर प्रदेश में, झाँसी जिले की ललितपूर तृतीय अध्याय में मन्दिर वास्तु के उद्भव और तहसील की वेतवा नदी के किनारे स्थित है। मध्य रेलवे विकास तथा देवगढ के मन्दिरों की विशेषताओं को सवि. के दिल्ली-बम्बई मार्ग के ललितपुर स्टेशन से यह दक्षिण- स्तार समीक्षा पश्चिम में ३३ किलोमीटर की पक्की सडक से जुड़ा है। चौथे अध्याय मे तीर्थकरों, यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, प्राचीन देवगढ विन्ध्याचल के पश्चिमी छोर की एक प्रतीकात्मक देव-देवियो प्रादि की मूर्तियों का सूक्ष्म शाखा पर गिरिदुर्ग के मध्य स्थित था, जवकि आज वह वर्णन है।। उसकी पश्चिमी उपत्यका में बमा हुया है। जनसख्या पाचवे अध्याय में विद्याधरों, प्राचार्य-उपाध्यायों, लगभग ३०० है। एक आधुनिक दिगम्बर जैन मन्दिर, साध-साध्वियों, श्रावक-श्राविकानों प्रादि की मूर्तियो, जैन धर्मशाला, शासकीय विश्रामगृह और संग्रहालय है। पाठशाला-दृश्यों, युग्मों, मण्डलियों, पशु-पक्षियों तथा जैन संग्रहालय भी बन रहा है। ग्राम के उत्तर मे प्रसिद्ध अन्य जीव-जन्तुओं, प्रतीको, प्रासनों, मुद्रामों प्रादि का दशावतार मन्दिर और शासकीय संग्रहालय तथा पूर्व में अध्ययन है। पहाड़ी के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर प्राचीन जैन मन्दिर, छठे अध्याय मे देवगढ़ के प्राचीन समाज के धार्मिक मानस्तम्भ प्रादि है। इस पहाडी की अधित्यका को घेरे जीवन का विस्तृत विवेचन है। हुए एक विशाल प्राचीर है जिसके पश्चिम में कुजद्वार सातवें अध्याय मे देवगढ़ के समाज और संस्कृति तथा पूर्व में हाथी दरवाजा के बाहर है। इसके मध्य का सूक्ष्म अध्ययन है। एक प्राचीर और है जिसे 'दूसरा कोट' कहते है । इमी में
पाठवे अध्याय मे वहा के जैन स्मारको पर प्राप्त जैन मन्दिर है। इस कोट में भी एक कोट था जो अब
अभिलेखो का वर्णन है। ध्वस्त हो गया है। इसके बीच एक प्राचीरनुमा दीवार वनायी गयी है जिसके दोनो ओर हजारो खंडित मूर्तियाँ
नवे अध्याय मे इस शोधप्रबन्ध का उपसंहार किया जडी है । पहले प्राचीर के दक्षिण पश्चिम मे वगह मन्दिर
गया है। और दक्षिण में बेतवा के किनारे नाहरघाटी और राज
अन्त मे पाच परिशिष्ट, अभिलेखसूची और उनका घाटी है।
मक्षिप्त विवरण, अभिलेखपाठ, सहायक ग्रन्थसूची, चित्रा
वलि का परिचय तथा चित्रावलि है। शोधप्रबन्ध का सारांश
प्रेरणा प्रारम्भ में सात पृष्ठ की भूमिका है :
यह शोधप्रबन्ध कितना महत्वपूर्ण है, इसका प्रमाण प्रथम अध्याय मे देवगढ़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि परीक्षक महोदयो की सम्मतियां हैं। देवगढ़ क्षेत्र के जैन स्पष्ट करने के पश्चात् उन सभी प्रयत्नो का उल्लेख किया प्रबन्धकर्तायों ने इस ग्रथ के लिखने में बहुत उत्साहवर्धन गया है जो शासकीय और सामाजिक स्तर पर विभिन्न
पर विभिन्न किया जो अन्य तीर्थ क्षेत्रो के प्रबन्धको को अनुकरणीय विद्वानों एव संस्थानों द्वारा देवगढ की कला के अध्ययन
है । नवोदित विद्वानों को भी ऐसे उपयोगी विषय शोधके लिए किये गये है। देवगढ़ की प्राचीन स्थिति और
कार्य को चुनने की प्रेरणा लेनी चाहिए । इस शोधप्रबन्ध नामों लुमच्छगिरि, कीर्तिनगर आदि पर प्रकाश डाला
के निर्देशक प्रो० कृष्णदत्त जी वाजपेयी से तो स्वयं जैन गया है और इतिहास लिखा गया है।
विद्वानो को भी बहुत कुछ सीखना चाहिए, जिनके द्वितीय अध्याय मे देवगढ के प्रत्येक जैन स्मारक का निर्देशन में अनेक विद्वान् जैन विषयो पर भी शोध कर विशद और सूक्ष्म सर्वेक्षण तथा वर्णन है । जैनेतर स्मारकों रहे है।
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गणकीर्ति कृत विवेकविलास
डा० विद्याधर जोहरापुरकर
ईडर के भट्टारक सकलकीति के शिष्य भुवनकोति गोत्र में हुआ था यह भी कवि ने बताया है। आगे हम हुए । इनके गुरुबधु ब्रह्म जिनदास की बहुत सी गुजराती विवेकविलास का प्रारम्भ और अन्तिम भाग दे रहे हैं रचनाएं उपलब्ध है। जिनदास के शिष्य गुणकीति से जिससे ये सब बातें स्पष्ट होती है। गुणकीति की मराठी मराठी में जैन साहित्य निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हुई। रचनाओं का विस्तृत परिचय डा० सुभाषचन्द्र अक्कोले के सन् १४५० से १५०० के बीच गुणकीति ने मराठी में शोधप्रबन्ध 'प्राचीन मराठी जैन साहित्य' (सुविचार प्रकापद्मपुराण, धर्मामृत, द्वादशानुप्रेक्षा, रुक्मिणीहरण, रामचद्र शन मंडल नागपुर-पूना द्वारा सन् १९६८ में प्रकाशित) फाग, नेमिनाथ पालना, नेमिनाथ जिनदीक्षा और घदागीत में उपलब्ध है। ये नौ रचनाएं लिखीं। पमपुराण के अध्यायों की पुष्पि- प्रारम्भकामों से गुणकीति की गुरुपरम्परा गुजरात के ईडर पीठ
पहिल अरिहंतदेव धर्माधर्म देखाइयो भेउ । की है यह मालूम हुअा था तथा रुक्मिणीहरण के अन्तिम भाग में कवि ने अपना जन्म जैसवाल कुल मे हुमा बताया
दूजे प्रणमउ सिद्धसभाउ प्रष्ट करम हणि त्रिभुवन राउ॥ है यह ज्ञात था। हाल ही मे धर्मामृत की शक १५७१ मे अन्तलिखित हस्तलिखित प्रति का बारीकी से अवलोकन करते सरसति गछी गण बलात्कार श्रीभुवनकीरति गुरु अवतार । समय हमे गुणकीति की एक गुजराती कृति प्राप्त हुई। तसु गरबंधव ब्रह्म जिणदास तेहतणे परसावे गणह निवास ।। इसका नाम विवेक विलास है नथा इसमे २१४ पद्य है। पुरिया गोत्र विख्यात विशाल पुरव देश वसे जैसवाल । ससार मे मनुष्य जन्म की दुर्लभता बताकर कवि ने धर्म तिणे कुले गुणकीरति हुवा सूरि परमानदे हियेडेल पूरि॥ की उपादेयता पर बल दिया है तथा व्रतो और सदाचार कही चोपई येह विवेकविलास पढो गुणो भवियण गुणवास । के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया है। रचना बाई धनश्रीय करो प्रकास दिण दिण भणिजो ब्रह्म ज्ञानदास ॥ अत्यन्त सरल भाषा मे है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति से भवियण जण भावे तम्हे भणो नेमिदास विस्तारो घणो। कवि के धार्मिक परिवार का परिचय मिलता है-ज्ञानदाम, सजन वरग मणो येक चित्त विवेकविलासे करो जीवहित ।। नेमिदास, सिवराज धनश्री और राजमती इस ग्रन्थ का हित करो हवे जीवणो सुणो पंडित सिवराज । पठन, और प्रसार करेगे ऐसी प्राशा कवि प्रकट करता पढो बहिनि राजमति जिम सरे तम्ह काज ॥ है । अपना जन्म पूर्व देश के जैसवाल जाति के पुरिया
इति श्रीविवेकविलासरास समाप्त ॥
विवेक
सज्जन और दुर्जन अपने ही सुगुण और दुर्गुणों के कारण होता है। सर्प के दांतों में विष होता है, बिच्छू के डंक में और मक्खो के मुख में विष होता है। किन्तु दुर्जन के सब शरीर में विष रहता है। विषेले जन्तु अन्यों द्वारा पीड़ित होने पर अपने प्रस्त्र का उपयोग करते हैं। किन्तु दुर्जन बिना किसी कारण के उसका प्रहार करते हैं। अतः हमें दुर्जनों से बचने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। और प्रापद पाने पर विवेक को नहीं भूलना चाहिए।
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तिजारा : एक ऐतिहासिक परिचय
परमानन्द जन शास्त्री
वर्तमान तिजारा अलवर जिले के उत्तर-पूर्व में दिल्ली सन् १४१५ (वि० सं० १४७२) में बहलोल लोदी पौर अलवर के मध्य अवस्थित है। यह एक प्राचीन जब दिल्ली का शासक बना, तब उसने मेवात के इलाके मगर रहा है। इसे कब मौर किसने बसाया, इसका क्या में से सात परगने तातारखां को प्रदान किये थे। उसने प्रामाणिक इतिवृत्त है ? यह अभी तक निश्चित नही हो तिजारा को अपना केन्द्र बनाया था। तातारखां का सका। भारक्योलाजिकल सर्वे माग २० में लिखा है कि मकबरा नगर से लगभग १ मील दूर पूर्व दिशा में मौजा महाभारत काल में यादववंश के तेजपाल ने इस नगर को कालिया में अवस्थित है। बसाया। यहां यादवों का बहुत काल तक शासन भी
बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद सिकन्दर लोदी सन् रहा है।
१४८५ (वि० सं० १५३२) में दिल्ली के तख्त पर बैठा । मध्ययुगीन भारतीय इतिहास का अध्ययन करने से उसने तिजारे का इलाका प्रपने छोटे भाई मलाउद्दीन यह स्पष्ट बोध होता है कि हिन्दू राजाभों का सभी धर्मों (पालमखाँ) को दिया । सन् १४९८ में अलाउद्दीन ने को पाश्रय मिलता था। उन राजाओं ने कभी बलपूर्वक अपने नाम पर 'अलावलपुर' नाम का गांव बसाया जिसके, धर्मपरिवर्तन कराने का उपक्रम नहीं किया। किन्तु दक्षिण भग्नावशेष पाज भी तिजारा के उत्तर-पूर्व में उपलब्ध भारत में शवों और वैष्णवों के समय जैनों मौर बौद्धों होते हैं। को अनन्त कष्ट सहने पड़े और अपने धर्म की जो महान् तिजारा के शासक हसनखां मेवाती ने सन् १५२७ में क्षति उठानी पड़ी, तथा धर्मपरिवर्तन करना पड़ा, धर्म- मुगल सम्राट् बाबर के विरुद्ध कनवा के मैदान में राणा परिवर्तन न करने पर अपने जीवन और सम्पत्ति दोनों से सांगा की सहायता की थी। हाथ धोने पड़े, इन दुखान्त घटनामों का विचार माते ही सन् १५३१ में हुमायूं ने अपने छोटे भाई हिन्दाल को रोंगटे खड़े हो जाते है। बौद्धधर्म को तो भारत से मेवात का शासक नियुक्त किया । उसने तिजारा मे रहना निर्वासित होना ही पड़ा, किन्तु जैनधर्म अपनी महान प्रारंभ किया। हिन्दाल कलाप्रिय था। उसने काजी का क्षति उठाकर भी भारत मे बना रहा। कुछ राज्यवंशों बन्ध, लाल मस्जिद, अंधेरी उजाली नाम का एक बंगला के राज्यकाल में सभी धर्मवाले सानन्द रहे है । बनवाया था और उसके पास ही एक बाग लगाया,
उस समय अनेक सम्प्रदायों की तरह तिजारा में भी जिसकी पक्की दीवारें प्राज भी वहां पाई जाती है। जैन धर्मावलम्बी अपने धर्म का अवलम्बन करते हुए सन् १५४० में शेरशाह सूरी ने मुगलों को भारत से जीवन व्यतीत करते थे। उस समय जिन मदिर को देहरा' भगा दिया था। उस समय हिन्दाल को भी तिजारा छोड़ नाम से सम्बोधित किया जाता था। मुस्लिम शासनकाल कर बाहर भागना पड़ा था, जिससे उक्त लाल मस्जिद मे भी तिजारा का विशेष महत्व रहा है। यह उनका का निर्माण अधूरा ही रह गया था। इनने सन् १५३६ से प्रादेशिक शासन केन्द्र रहा है। मुगलों के शासनकाल में १५४५ तक राज्य किया है। तिजारा शाही खानदान के रहने योग्य समझा गया, अत- सं० १५८७ से १५९६ तक शेरशाह ने राज्य किया एव उसे 'हवेली तिजारा' के नाम से उल्लेखित किया है। और सं० १५९७ से १६०२ तक इस्लाम शाह ने गया। उस समय तिजारा एक सूबे का केन्द्र था और शासन चलाया। इसके शासनकाल मे सं० १६०० फाल्गुन उसके प्राधीन १८ परगने थे।
बदी दोइज शुक्रवार के दिन तिजारानिवासी काष्ठासंघ
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६६ पर्व २३ कि.२
अनेकान्त
मदन को दरगाडा दृष्टिगोचर होती
'पू लोनून और इन्द्र
माथुरन्वय पुष्कर गण के भट्टारक मलयकीति गुणभद्र की अकबर के शासनकाल में हजरत गदनशाह भी तिजारा माम्नाय में अग्रवालवंशी गर्गगोत्रीय साहतोला भार्या रानी माये। इनका भी मजार तिजारा के उत्तर में 'टपूकलां' पुत्र जिनदास वली शोभा, उसके पांच पुत्र थे। महादास, सड़क के दाहिनी पोर बना हुमा दृष्टिगोचर होता है। गेल्हा, नुगेराज, जुगराज और साधुसिंह । इनमें मन्तिम पाजी मदन की दरगाह के लिए बादशाह ने १५० बीघा पुत्र साधुसिंह के परिवारवालों ने (साधू लोनून और इन्दु जमीन प्रदान की थी। श्री ने अपने पढ़ने के लिए एवं ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ जय- अकबर राजनीति का अच्छा विद्वान था, उसने अपनी मित्र हल का वर्धमानकाव्य लिखवाया था, जिसकी प्रति सल्तनत को बढ़ाने और उसकी स्थिरता के लिए हिन्दू जैन सिद्धान्त भवन पारा में विद्यमान है।
राजानों से अच्छा सम्पर्क स्थापित किया था। राजपूतों अकबर के शासनकाल में रिवाड़ी निवासी हेमू (शेर- से भी स्नेह बढ़ाया, उन्हें अपने शासन में अच्छे अच्छे शाह सूरी का भतीजा) का अकबर द्वारा बध करा देने मोहदों पर नियुक्त किया। इन सबके सहयोग से प्रकार पर तिजारा में मलानमीर मुहम्मद को भेजा गया। का साम्राज्य एवं विभव जहां वृद्धिंगत हुमा, वहां उसने उसने हेमू की सारी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया, उदारता का भी प्राश्रय लिया । जैनधर्म पर उसकी मौर तिजारा तथा अलावलपुर के सभी पठानों को मरवा गहरी श्रद्धा पड़ी, उसका कारण जैन साधु हीर विजयजी दिया। अकबरने हसनखां मेवाती की भतीजी से शादी की, का सम्बन्ध था, वह उन्हें बहुत मानता था। उनके उपऔर मिर्जा हिन्दाल को पुन. तिजारा का शासक बनाया। देश से उसने अहिंसा पर यकीन किया, प्रौप अपने राज्य१ अथ सवत्सरेस्मिन श्रीनृपविक्रमादित्य राज्ये संव
र काल में उसने कभी मांस ब शराब को प्रेरणा हित नहीं त्सर १६०० तव वर्षेफाल्गुनमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथी
दिया, जीवहिंसा को रोकने का प्रयत्न किया । पौर खास
कर जैन पर्वो पर हिंसा न करने के फर्मान जारी किये। शुक्रवासरे श्री तिजारास्थान वास्तव्यो साहि पालमुराज्य
यह सब कार्य उसने मानवता की रक्षा के लिए किया । प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक
इसी से लोक में उसकी महती प्रशंसा हुई। उसके बाद श्रीमलयकीर्तिदेवाः तत्प? भट्टारक श्रीगुणभद्रदेवाः तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गगंगोत्रे साहुतोल्हा भार्या रानी तस्य
शाहजहां दिल्ली का बादशाह बना। इसने भी अपने पिता
की नीति पर चलने का प्रयास किया। यह भी एक पुत्र: जिनदासः तस्य भार्या शोभा, तत्पुत्राः पञ्च । प्रथम
कलाप्रिय शासक था। इसके शासनकाल में खलीलउल्ला पुत्र साधुः महादास, द्वितीयपुत्रः साधुगेल्हा, तृतीयपुत्र:
खां को तिजारा का हाकिम बनाया गया । इसने गदनशाह साधु नुगराजः, चतुर्थ पुत्रः तेजगुः, तस्य भार्या लाडो, जिनदास द्वितीयपुत्र: गेल्हा तस्य भार्या खीमाही । तस्य
___ की खानगाह का निर्माण कराया। शाहजहां ने सं० १६८५ पुत्रः दोमानु, तस्य भार्या भागो, तस्य पुत्रः नगराजः ।
से १७१५ मक राज्य किया था। तस्य भार्या घणपालही, पुत्राः चत्वारः प्रथमपुत्रो जीबन्दुः
शाहजहां के बाद राज्य का शासनभार जहांगीर को तस्य भार्या भीख्यो द्वितीय पूत्रः प्रमियपालः। ततीयपुत्रः प्राप्त हुपा । इसने भी अपने पिता की धार्मिक नीति का गजः चतुर्थो दरगहमलुः । जिणदासपुत्रः चतुर्थः जगराजः, अनुसरण किया, जो उसकी सहिष्णुता और उदारता पर तस्य भार्या धीनाही, तस्य तृतीय वच्छ: तस्य पार्या
आधारित था। यह भी एक कलाप्रिय शासक था। इसके धोनाही तस्य पुत्रः वुच्छा तस्य भार्या वादिनी, द्वितीयपूत्रः राज्यकाल में जैन संस्कृति पर भनेक कार्य सम्पन्न हए । मसक तृतीय तोतू। जिनदास पंचमपूत्रः साधसिंह तस्य नये ग्रंथ भी बनाए गए । धार्मिक स्वतंत्रता भी रही। ["] भार्या ..... । दूतस्य भार्या लक्ष्मणही तस्य...। किन्तु औरंगजेब के शासन समय मैं सन् १७०७ में चतुर्थ भार्या कपूरी। एतेषां मध्ये साधुसोनून इन्द्रश्री तास चौधरी इकरामखां नामक खानजादा ने तिजारा के मुगल "शानावरणी कर्मक्षयार्थ मात्मपठनाथं च वर्षमानकाव्यं हाकिम के नक्कारा व निशान छीन लिए और उसे वहां
-प्रशस्तिसग्रह, मारा, पृ०१७ से निकाल दिया। मौर सेना ने उसे पकड़ कर उसका वध PPIR.." मग शिर
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तिवारा एक ऐतिहासिक परिचय
कर दिया। इसके राज्यकाल में हिन्दुधों और जैनियों पर किया गया। पोर मन्दिर की प्रथम मंबिल बनवाने पर भनेक अत्याचार किए गए। अनेक हिन्दुओं को मुसलमान उसमें बोलनीय स्थानों में रखी हुई मतियों को विराजमान बनाया गया। नहीं बनने पर उनकी हत्या की मई, मंदिरों कर दिया गया। उनमें एक मूर्ति सं. १५४८ की. का विनाश भोर मूर्तियों की तोड़-फोड़कर जयम्य कार्य जिनचन्द्र और बीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठिर किया गया।
भगवान पाश्र्वनाथ की भी है। तिजारा का जैन मन्दिर भी पौरंगजेब की धर्मान्धता
नमन्दिर प्रतिष्ठा और बोत्सव कारण उसके हाकिम की पाशानुसार विध्वंस कर दिया
सन् १८५३-५५ (सं० १९१०-१२) के मध्य मन्दिर गया। देहरे की भव्य इमारत खंरित कर दी गई। जो
की दूसरी मंजिल बन कर तैयार हो गई। मौर उस पर मूर्तियां उस समय खंडित-प्रखंडित बच गई, उन्हें उसी में
विशाल शिखर का निर्माण किया गया। कहा जाता है दबा दिया गया। देहरे के भग्नावशेष खण्डहर के रूप में
कि इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य सं० १९११ में परिणत हो गये। पोरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल
जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान पं. सदासुखदासजी से सम्पन्न साम्राज्य का पतन हो गया। उसके उत्तराधिकारी प्रयोग्य
करायी गयी थी। विशाल रथ का भी प्रायोजन किया सिट हुए। उस समय भरतपुर का राजा चूड़ामन जाट
गया था। पं. सदासुखदास जी के संतोषजनक वृत्ति पा। उसने तिजारा व पलावलपूर पर माक्रमण किया,
विद्वान थे। यदि उनके द्वारा यह प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न उसमें जन-धन की बहुत क्षति हुई। शान्ति होने पर
हमा, तो एक बड़ी बात है। यद्यपि सदासुखदास जी का अलावलपुर निवासी भी तिजारा में पाकर बस गए। उस समय से अलावलपुर वीरान पड़ा है।
स्वर्गवास सं० १९२४ में हुमा है। इसलिए प्रतिष्ठा का सन् १७९१ में तिजारा में मराठों का शासन कुछ काय उनकता समय के लिए हो गया किन्तु सन् १७९७ में जाटों का
प्राचीन देहरे का समुहरण पुनः अधिकार हो गया।
सन् १९४४ में सूरदास धनपाल जी खेखड़ा निवासी सन् १८०३ में प्रासावाडी की लड़ाई में अंग्रेजों की तिजारा पधारे, वे निमित्त शास्त्र के ज्ञाता थे। देहरे के सहायता करने के परिणामस्वरूप सन् १८०५ में तिजारा सम्बन्ध में पूछने पर उन्होंने बतलाया कि-खण्डहर में मार किशनगढ़ द्वितीय मलवरनरेश राव राजा वखतावर जैन मुतियां दबी हुई हैं, परन्तु उनका इस समय निष्का[सहजा को मिले । और तिजारा राजपूत राजा वखतावर सन कार्य व्यर्थ होगा। हां वर्तमान राज्य परिवर्तन के सिह को राजधानी बना। इससे तिजारा के लोगों को पश्चात स्वयं ऐसे कारण बनेंगे, जिससे खुदाई करने से राहत मिली, समय सुख और शान्ति से व्यतीत होने प्रापको मूर्तियां उपलब्ध हो जावेगी। तदनुसार सं. लगा। उस समय वहां के निवासी जैनियों में भी अपने २०१३ (सन १९२६) में तीन प्राचीन खंडित मूतियाँ धर्म की कुछ जागृति हुई और नगर में जैन मन्दिर के खदाई मे मिलीं । और कुछ समय पश्चात् खुदाई करने निर्माण करने का विचार स्थिर तो हमा किन्तु नगर के पर चन्द्रप्रभ भगवान को एक सातिशय प्रखडित मूात मा के मध्य मे मन्दिर के लिए भूमि मात्र खरीद कर ही रह प्राप्त हुई। जो सं० १५५४ वैशाख शुक्ला तृतिया की गए किन्तु मन्दिर निर्माण करने का साहस नहीं हुआ। प्रतिष्टित है। उसका लेख अभी तक भी ठीक रूप में लाड विलियस वैटिंग के शासन काल में भारत में सब नही पढ़ा जा सका, इसलिए उसे यहां नही दिया गया। जगह शान्ति रही, जनता को कुछ राहत मिली तिजारा आजकल तिजारा एक तीर्थ जैसा स्थल बना हुमा हैं । के शासक बलवंतसिंह जी ने वहां पहाड़ी पर एक तिजारा के पास ही इन्दउर (इन्दौर) नाम का गांव किल का निर्माण किया, और अपने रहने के लिए था, यह ग्राम भी सं० १५०० में अच्छा समृद्ध था। वहां चार माजल का एक महल भी बनवाया। प्रतएव बैठकर भ. यश:कोति ने हरिवंशपुराण की रचना की थी। सन् १८३८ में जैन मन्दिर के निर्माण का शिलान्यास
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माली राम्रो
[ प्रस्तुत रचना एक रूपक खण्ड काव्य है, जिसमें प्रात्मा रूपी माली भव रूपी वृक्ष को सीचता है के उस वृक्ष की चार डालियां है जो चारों गतियों की परिचायक है। उन चारों ही डालियों पर फल लगे हुए हैं। काल माली से कहता है कि रे मानी तू इस वृक्ष को मत सींच, इसके फल ऊपरसे सुन्दर प्रतीत होते हैं, उनमें अन्दर कुछ भी सार नहीं है। यह मिथ्या बीज उगा है, मोह के कारण बंधक है, इसके फलों का स्वाद भी अच्छा नहीं है। चतुर्गति का बंध करानेवाला है । अतः हे माली, तू इसको छोड़, किन्तु माली को फल चखने की भूख थी, भ्रतः वह अपनी कमर को अच्छी तरह बाँध कर उस भवतरु पर चढ़ गया । उसने सुर डाली पर बड़ कर हंस हंस के फल खाये धन्त समय में जब माला कुम्हलाई तो वह उस समय झुर भुर कर मरा । पश्चात् वह नर डाली पर चढ़ा, श्रौर "उसके सुख दुख फलों का उपभोग किया। अन्त मे परिग्रह के वियोग में मैं में करता हुम्रा मृत्यु को प्राप्त हुआ । फिर वह तियंच डाली पर चढ़ा, वहा पर उसने सिर धुन धुन कर फल खाये, क्षणमात्र सुख के कारण सागरोपर्यंत दुःसह दुख सहे । अन्त में कुमरण किया, भोर भयावनी नरक डाली पर चढ़ा, अनन्त दुख सहे तो भी विश्राम नही मिला। इस तरह इस मालीरूपी जीव ने लोभवश चारों गतियों में भ्रमण किया, अनन्ता दुख सहे, किन्तु उनसे छूट कारा नहीं मिला। माली रूपी लोभी मधुकर चारो गतियो के फूलों में रागी रहा । उसी तरह यह जीव भी शुभाशुभ कर्मोंक पुण्य-पाप फल का अर्जन करता है, उनके सुखदुख फलों का चारों गतियों में उपभोग करता हुआ, ससार में परिभ्रमण करता है। श्री गुरु उसे बार बार समझाते है किन्तु उसके अन्तःकरण में जब तक नही लगता तबतक वह दुख का ही पात्र वना रहता है । भतएव सुगुरु उसे समझा कर कहते है कि हे श्रात्मन् ! अब तू इन दुःखों से यदि छूटना चाहता है तो सुदर्शन रूपी बीज को बो, और
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सीचने से वह धर्मकुर उत्पन्न होगा। वैराग कुदाली लेकर चारित भूमिमें कुधा लोद, और उसमें भार्षरूपी रट लगा, व्रत रूपी बैलों के कन्धों पर श्रुत रूपी जुना रखकर समता रूपों कल में अभय रूपी श्रीगण देकर उसे चला, 1 उपशम रूपी नेज लगा कर क्षमामय घटमाल लगा कर उसे सींच, दया रूपी जल काढ़ कर सीच, बीज की यत्न से रक्षा कर, संयम रूपी वाडी लगा शील की सदा रक्षा कर तथा क्रोष रूपी अग्नि से दूर रह । माया वेल पर मत चढ उत्तम क्षमादि दश धर्मों का पालन कर । तब तुझे अक्षयं सुख की प्राप्ति होगी।
इस रूपक काव्य के रचयिता कवि जिनदास हैं, इनकी कई रचनाए है । जोगिरासो भी इन्ही की रचना है । यद्यपि कविता अच्छी है, परन्तु उसमें राजस्थानी श्रीर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट झलकता है । इनका समय १७वी शताब्दी है । जिनदास नाम के कई विद्वान हुए हैं, जिनका परिचय फिर कभी कराया जायगा । - संपादक ]
जिनदासकृत माली रासो
भवन्तर सोच मालिया तर्हि तर चारि डाल चहु डाल्या फल जुन जुम्रा ते फल राखइ काल ॥१ काल कहइ सुण मालिया, सोंचि न याहि गवार । देखन ही को उहहो, भितरि नाहि सुसार ॥२ मिथ्या बीजह ऊगियो मोह-महा जड बंधि । फलम स्वाद जु जुनजुना, चहुंगति केरउ बंध ॥ ३ माली बज्यो ना रहइ, फल चाखण की भूख । बांधि सुगाड़ी गड़गदी कूदि चढ़घो भव रूख ॥४ सुर-डाली चढ़ि मालिया, हंसि हंसि जे फल खाइ । अति सुक्षूरइ कंठिरद्द जब माला कुम्हलाई ||५ पुन नर डाली सो चढ्यो, दुख-सुख फल ले भोग । अन्त समय मैं मैं करं, परिग्रह तणउ वियोग ॥६
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माली रासो
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सिरियच-डालो फल घणा सिर पूणि माली खाइ। गहि वैराग कुवालडो खोदिसु चारित कूप । सुख लव-दुख-सागर-मरपो अंति कुमरण मराइ॥७ भाव रहंट व्रत बैलकर दयाकंघइ भुत जूप ॥१७ नारय-डाल भयावणी फल केवल दुख देइ । ,
समता कल विड़ ढोकियो प्रभय सु ऊगण देई । उपरा उपरी खंडि गइ खिणि विश्राम म होइ ।। ' अनुभव हाथि जुटूपड़ो, सुरति करे कर लेह ॥१९ इय चहुंगति फल भोगवइ, खात न भाजइ भूख । उपशम (लेज-नेज) लगाइयो वांधि क्षमा घटमाल । सुख सुपनइ परतरवरइ बहुडि चढचो भव-रूख
काढ़ि दया-जल निर्मली सोचिय काय कयार ॥२० जिम सु जुवारी जुवा बिना एक घडी न रहाइ । वीज रतन को जतन करि, करि दिढ़ संजम वाड़ि । जिम जिम हारइ पापि यों तिम तिम तहि फडि जाइ॥१० शील सदा रख बालडो चरत मयण मृग ताडि ।।२१ चहुंगति-कन्या कर ग्रह्यो लावो लगन लिखाइ ।
क्रोध दवागिनि वरजियो वरजियो मान तुषार । माली दुखको दोरड़ो जाणि कि भावरि लेइ ? ॥११ माया वेली मति चढो जिनि देप्रो लोभ टपार ॥२२ माली मधुकर लोभियो चहुंगति कुसुमह लोण । जिम सु अंकुरो वरधतो अंतर करइ न कोइ । विषय तणई वसि रुण-रुणई फिरि फिरि दु.खह खोण ॥१२ समय समय जीवमालिया धर्म महातर होई ॥२३ कर्म मृदगी मांदल्यो जहि छडि देसी बधाउ ।
सत्यरु शौच तिहां जडी मद्दउ जाणि कि पान । नाचण हारो बापुडो नहिं छदि देसी पांउ ॥१३
प्रज्जउ साख सुहावणी तप तरुवर परिमाण ।।२४ जो जिह कइ वसि बधियो सो तिहं करचो करेइ । त्यागसु चहु दिसि मोरियो पाकिचन तन मान । कमहं वसिडा जीवडो किमहि न दुःख सहेइ ।।१४ बंभ सुशीतल छांहडी ज्ञान कुसुम महकत ॥२५ जइ दुखी वोहह मालिया ! सुख की साध करेइ । धरम महातर होय थे वह विस्तार लहेय । तो सुणि एक कहाणरी जिम पुण पुण न मरेइ ॥१५ अविनाशी सुखकारणे मोख महाफल देय ॥२६ काया कयारो किन करइ बोज सुदर्शन बोइ ।
भणे जिणदास सुराषि ज्यों दरसण बीज संभाल । सोंचण कारण मालिया धर्म प्रकुरो होइ ।।१६
वछितफल जिह लागसी किसही भउ तवि काल ॥२७
सन् १६७१ की जनगणना के समय धर्मके खाना नं. १ म जैन लिखाकर सही आंकड़े इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें। ,
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जैनों में सती प्रथा चम्पालाल सिंघई, 'पुरलर'
जैनधर्मकी दष्टि से पति के शव के साथ पनि का संवत् से तात्पर्य संवत, पस्विन से माश्विन, प्रयोतक से अग्निदाह मशानजन्य मारम-धात है। परन्तु राजपूतों तथा अग्रवाल, मा...से भार्या, सहगमन से सती होना है। अन्य जातियों के निकट संपर्क में इस प्रथा ने जैन समाज उक्त शिला लेख को पं० फूलचन्दजी के साथ पढ़ में भी प्रवेश प्राप्त कर लिया था। मध्यकाल में अनेक कर लेखक का भ्रम दूर हो गया और अनुमान किया कि जैन महिलाएं सती हुई।
स्तम्भ सती के किसी चबूतरे से जिनेन्द्रमूर्ति देखकर कभी माधुनिक काल में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल किसी ने जैन मन्दिर में गाड़ दिया होगा। सार्ड विलियम बेंटिंग ने सन् १८२६ ई० में ७ दिसम्बर के जैनों में सती होने का यह प्रबल प्रमाण प्राप्त हुमा दिन सतीप्रथा को नियम विरुद्ध घोषित किया। किन्तु किन्तु एक शिलालेख के बल पर तो सती प्रथा के रूढ़िवश कहीं-कहीं सती होने के समाचार मिलते रहते है। मस्तित्व की घोषणा नहीं की जा सकती थी। भाजकल परन्तु जैन समाज में तब से इस प्रथा का लोप हो गया मध्यप्रदेश और राजस्थान में भट्टारकों पर शोधकार्य हाथ और एक भी सती होने का समाचार नहीं मिला। में है । इसी क्रम में लेखक को प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ पौर
इन पंक्तियों के लेखक की जन्मभूमि चंदेरी (वर्तमान इतिहासविद् श्री मगरचन्द्र नाहटा द्वारा सम्पादित बीकामध्यप्रदेश, भू०पू० ग्वालियर राज्य के गुना जिले में) है नेर जैन लेख संग्रह (प्रथमावृत्ति, वीराब्द २४६२) पढ़ने जहां चौबीसी मन्दिर है, जो भारत भर में विख्यात है का अवसर मिला। इस संग्रह में २६१७ भभिलेख बीकाप्रतिवर्ष उत्तर भारत तथा दक्षिण के सैकडों तीर्थयात्री
नेर राज्य के और १७१ मभिलेख जैसलमेर राज्य के दर्शन लाभ लेते हैं।
संग्रहीत हैं। प्रारम्भ में नाहटा जी की भूमिका तथा डॉ.
वासुदेवशरण अग्रवाल का प्राक्कथन है। इस मन्दिर में बचपन से एक स्तम्भ देखते रहे जिस
नाहटा बंधुओं (मगरचंद्र-भवरलाल) ने लिखा है पर एक अभिलेख भी है परन्तु उसे पढ़ने की कभी चेष्टा
(पृ०६४)-"मोसवाल जाति वस्तुतः क्षत्रिय कौम है। नहीं की। स्तम्भ का कुछ भाग भूमिगत है। सबसे ऊपर
उनकी वीर महिलायें देहमूर्छा को त्याग कर शील रक्षा छोटीसी जिनमूर्ति उत्कीर्ण है। जिसके नीचे एक पलंग
के निमित्त पतिदेह के साथ हंसते-हंसते प्राण न्योछावर पर कोई लेटा है। बगल में एक नारी की मूर्ति है, जिसके
कर दें तो प्राश्चर्य ही क्या है।"......"सती स्मारकों में हाथ पलंग पर बैठे हुए नर के चरणों पर हैं। लेखक ने
हमने सबसे बड़ा स्मारक झंझण में देखा है जो बहुत पलंग पर बैठे हुए नर को कभी ध्यान से नही देखा और
विशाल स्थान पर है। हजारों मील से यात्री लोग भाया उसे जिनमाता तथा नारि को देवी अनुमित करता रहा।
करते है । यह राणी सती अग्रवाल जाति की है।" इस वर्ष वाराणसी निवासी पं० फूलचन्द्रजी सिद्धातशास्त्री
"बीकानेर में जितने सती स्मारक प्राप्त हैं, सबमें (जो परवार जाति का इतिहास लिख रहे हैं) को लेकर
घुड़सवार पति और उसके समक्ष हाथ जोड़े स्त्री चंदेरी गया । मन्दिर के मूर्तियों के लेख लिये । उक्त
खड़ी है।" स्तम्भ का लेख लिया जो इस प्रकार है
"युगप्रधान जिनदत्तसरि जी के समय में भी सती "सिद्धि; सवत् १३५० अस्विन सुदि ४ शनौ प्रमा[ग्रो)- प्रथा प्रचलित थी। पद्रावलियों में उल्लेख मिलता है कि तक सा० नागदेव सुत धमो...मणि सहगमनं बभूव..." जब वे झुजणू पधारे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा
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वनों में सती प्रथा
सती होने की तैयारी में थी जिसे गुरुदेव ने उपदेश द्वारा का हठ किया होगा, तो हितैषियों ने उनको पुत्र पालन बचाकर जैन साध्वी बनाई थी।"
का कर्तव्य बताकर सती होने से वजित किया होगा। इसके आगे संवतानुक्रम से ३० लेखों का वर्गीकरण दुर्भाग्य से पुत्र भी मृत्यु को प्राप्त हुमा तो मातामों को दिया है, जिसे विस्तारमय से हम यहां नहीं दे रहे है। जीवन भाररूप प्रतीत होने लगा होगा। उस निराश जिन्हें दे रहे है। सचिवन्तजन उक्त ग्रंथ में देखें। पवस्था में मातृसती की नमीन परम्परा चली होगी। ____एक बात बड़ी विचित्र जान पडी जिसका उल्लेख श्री नाहटाजी को माता-सती का एक लेख माहेश्वरी मावश्यक है; क्योंकि इसके पूर्व किसी इतिहास में पड़ने में (राजस्थान की एक वैष्णव वैश्य) जाति का भी मिला नहीं पायी थी।
है। महामहोपाध्याय पं. गौरीशकर हीराचद्र मोझा ने ___"सं० १५५७ में जेठ सुदी ७ को वैद गोत्रीय माणकदे
बीकानेर के इतिहास में सं० १४२६ माघसुदि ५ का एक ने अपने पुत्र के साथ सहमरण किया। सं० १८६६ मे
लेख दिया है (सा० रूदा के पुत्र सा० कणा की मृत्यु) जेठ सुदी १५ को सुराणागोत्रीय सवलादेवी ने अपने पुत्र
जो उन्हें कोड़ मदे सर पर मिला है। रावजोधा ने अपनी चनरूप के साथ सहमरण किया। जिस प्रकार पतिदेह के
माता कोडमदे को स्मृति मे यह ताल सं० १५१६ में साथ सहमरण में प्रणय की प्रधानता है, उसी प्रकार मातृ
बनवाया था। यह बीकानेर से १५ मील पश्चिम मे है। सती होने में पुत्र वात्सल्य की प्रधानता है।"
इस प्रकार प्रोसवाल, श्रीमाल और अग्रवाल जैनों में ऐसा नाहटाजी ने लिखा है किन्तु लेखक का अनुमान सती प्रथा प्रमाणित होती है। खोज करने से अन्य है कि पति के मृत्यु के समय उक्त महिलामों ने सहगमन जातियों के भी प्रमाण उपलब्ध हो सकते हैं। .
कथनी और करनी
मुनि कन्हैयालाल साधक! अपने अन्तस्तल में डुबकियां लगाकर स्वयं को टटोल । अपनी वाणी से अंसेतु दूसरों को सुन्दर-सुन्दर उपदेश देता है, वैसे वे उपदेश अपने जीवन में व्यवहृत होते हैं या नहीं? कहना जितना सुगम है, उसे जीवन-व्यवहार में लाना उतना ही दुर्गम है। जैसा मन में हो, वैसा बच्चन में और अंसा वचन में हो, पैसा क्रिया में; महापुरुष की यही प्रत्युत्तम कसोटी मानी जाती है।
सत्य, अहिंसा मावि धर्म को अच्छा बताने से, उनका नाम लेने से और केवल कंठान करने से प्रभोष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती। प्रभीष्ट की उपलब्धि तभी हो सकती है, जब वह माचरण में माकेगा। वह पादप मनोदांछित फल भी दे सकता है, जब उसको व्यवहार के क्षेत्र में पल्लवित किया जाये। कोई कितनी भी अच्छी और रोग-नाशक व स्वास्थ्य-पोशक प्रौषधि का नाम लेता रहे और उसके गुणों का बखान कर केवल लेने की कामना करता रहे, उसे उसका लाभ नहीं हो सकता। रोग का उपशम या नाश तभी हो सकता है, जब वह उस प्रविधि का मासेवन करेगा।
___ऊँचे-ऊँचे प्रादों की बातें बनाते हैं, भाषणों में ऋषियों की वाणी पर बल देते हैं और मोटे रंग-रंगीले सुन्दर वर्णों में लिख कर दिवालों पर लटका भी देते हैं, जोर-जोर से उसका घोषकर परा और प्रकाश को एक कर देते हैं, परन्तु वे सब परमार्थ से शून्य होते हैं। ऐसे मनुष्य दुष्प्राप्य नहीं हैं। दुष्प्राप्य वे हैं, जो प्रावों को अपने जीवन व्यवहार में परिणत कर दूसरों को उपदेश देते हैं । उसी समय उनका कथन सार्थक बनता है। अन्तर का विवेक हो कथनी और करनी का भेद बतलाता है। विवेक को सफलता साकार बनकर अवश्य हो तेरा प्रालिंगन करेगी। कथनी और करनी को समानता ही व्यावहारिक क्षेत्र में पावर्शवाद को सच्ची कसौटी है।
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गोम्मटसार को पंजिका टीका
परमानन्द शास्त्री
प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चकवर्ती द्वारा संकलित सार कर्मकाण्ड का जो अंश त्रुटित-सा है। मूल और गोम्मटसार नाम का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । जिसे उन्होंने उत्तर प्रकृतियों के नामादि सम्बन्धित जो गद्यसूत्र छूटे गंगवंशीय राजा राचमल्ल द्वितीय के सेनापति एवं महा- हुए हैं । वे यथा स्थान दिए जा सकते हैं।' मात्य रणरंगमल्ल आदि अनेक विरुद सम्पन्न राजा गोम्मटसार एक सैद्धान्तिक ग्रंथ है, उसमें जीवस्थान चामुण्डराय के लिए बनाया था। यह प्रथ षड्खण्डागम
गुणस्थान प्रादि का, और कर्म बन्ध आदि का सुन्दर मौर धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों का सार लेकर बनाया गया
विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ पर अनेक टीका-टिप्पण है' इस ग्रंथ के दो विभाग है, जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड ।
लिखे गए है। प्राकृत टीका भी अपूर्ण रूप से अजमेर के इस समूचे ग्रंथ का नाम गोम्मटसार है। दोनों ग्रंथों की
शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। अभचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गाथा संख्या दो इजार के लगभग है। इस ग्रथ की पुरानी
की मन्द प्रबोधिका टीका है, एक टीका कनडी मे केशव ताडपत्रीय प्रतियां मूडबिद्री के सिद्धान्त वसिदि के शास्त्र
वर्णी की है । उसका नाम जीवतत्त्व प्रदीपिका है, जिसका भण्डार में अवस्थित है। वर्तमान में प्रकाशित गोम्मटसार
अनुवाद नेमिचन्द्र नाम के विद्वान ने संस्कृत में किया है। की गाथानों का उक्त प्राचीन प्रतियों से मिलान नहीं
अभयचन्द्र की मन्द प्रबोधिका मे गोम्मटसार की 'पंजिका' किया गया है, इसलिए ग्रंथ के कुछ पाठ स्थल शकास्पद
टीका का उल्लेख है। उसकी एक प्रति मेरे पास है। बने हुए हैं। प्रत एक बार मूडबिद्री की प्रतियों से
जो सवत् १५६० की लिखी हुई है। इस पंजिका टीका गोम्मटसार की गाथानों का मिलान कराना आवश्यक
के कर्ता गिरिकोति है। पंजिका की प्रति १८ पत्रात्मक है। उससे जहाँ ग्रंथ का मूल पाठ संशोधित होगा वहाँ
है । प्रादि अन्त पत्र एक ओर लिखा हुआ है । एक पेज उसका संशोधित पाठ भी प्रामाणिक होगा। और गोम्मट
में १६ पक्तियाँ है । और अक्षरों की संख्या ५५-५६ है १. श्रीमदप्रतिहतप्रभावस्याद्वादशासन गुहाभ्यन्तर
ग्रंथा सख्या ५००० श्लोक प्रमाण बतलाई है । इस पंजिका निवासि प्रवादिमदांधसिंधुरसिंहायमान सिंहनंदि में गाथानों का आदि वाक्य सूचित किया है, पूरी गाथा मुनीन्द्राभिनंदित गंगवश ललाम राजसज्ञनेक गण. कही भी नहीं दी। कितनी ही गाथाओं को नामधेय श्रीमद्राचमल्लदेव महीवल्लभ महामात्य पद 'सुगम' लिखकर छोड़ दिया है। उनकी कोई पजिका विराजमान रणरगमल्लासहायपराक्रम गुणरत्नभूषण नही दी। ऐसी गाथाए बहुत कम है जिनका पंजिका में सम्यक्त्वरत्ननिलयादि विविध गुणनाम समासादित अच्छा विवेचन किया गया है। हां, पजिका में लिपि कीतिकान्त श्रीमच्चामुडराय भव्य पुण्डरीक द्रव्या- सम्बन्धि अशुद्धियाँ है, फिर भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । यदि नुयोग प्रश्नानुरूपं महाकर्म प्रकृति प्राभत प्रथम इस ग्रंथ की कोई दूसरी प्रति उपलब्ध हो जाय तो इसके सिद्धान्त जीवस्थानास्य प्रथम खडार्थसग्रह गोम्मट- सशोधन करने मे सहायता मिल सकती है। संभवतः सार नाम धेय पच संग्रह शास्त्र प्रारंभमाण; समस्त २. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ कि० सैद्धान्तिक चूडामणिः श्रीमन्नेमिचन्द्र सद्धान्त चक्रवर्ती ३. अथवा सम्मूर्छन गर्भोपपादानाश्रित्यजन्म भवतीतितद्गोम्मटसार प्रथमावयव भूत । (मद प्रबोधिका गोम्मट पंचिकाकारादीनामभिप्रायः, गो० जी० मन्दटीका उत्थानिका से)
प्रबोधिका टीका गा०५३
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मोम्मटसार की पंजिका टीका
७.
णाम।
इसकी प्रति ईडर के भण्डार मे उपलब्ध हो जाय। पच्चक्खादिणा पमाणेण पडिगेज्जमाणस्स प्रत्यस्स पजिका का प्रकाशन होना प्रत्यन्त प्रावश्यक है। प्राशा देसंतरे कालंतरे च एय सरूवा वहारणाणुववत्तीदो, तस्स है विद्वान लोग इसका सम्पादन कर प्रकाशित करने का रूव परूवयाण मव चयन्त णिच्छयाभावादो इदमेव तम्ब प्रयत्न करेंगे।
मिद ण होदि ति परिच्छेउं ण सक्कमिदि उहय सावलंबी पंजिका की विशेषता
महिप्पायो संसइदमिच्छत्तं गाम । प्रस्तुत पंजिका मे गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड
विचारिज्जमाणमट्टाणमवद्विदत्ता भावादो कथमिद की गाथामों के विशिष्ट शब्दो या विषमपदों का अर्थ
मेवेरिस जेवेत्ति णिच्छिदिति पहिप्पायो अण्णाण मिच्छत्तदिया गया है। भाषा संकृत प्राकृत है। कहीं-कही व्याख्या संक्षिप्त रूप में दी गयी है। सभी गाथाओं पर इस तरह पंजिका में कितने ही शब्दो के लक्षण दिए पंजिका नहीं है। पंजिका का पूरा अध्ययन करने पर हुए है । उदाहरण के लिए कर्मकाण्ड के सभावोहिणामउसकी विशिष्टता का अनुभव तो होगा ही। साथ मे सैद्धा- कारणातर निरपेक्ष वस्तुस्वरूप'-कारणान्तरकी अपेक्षासे न्तिक बालो का जहाँ कही भी स्पष्टीकरण किया गया है। रहित वस्तुस्वरूप को स्वभाव कहते है। उसकी भी जानकारी मिलेगी।
गाथा न० ४८१ मे दर्शन का लक्षण करते हुए जीवकाण्ड पजिका में वस्तुतत्व का विचार करते पजि काकार ने प्राचार्य वीरसेन द्वारा चचित दर्शन विषय हुए उसे पुष्ट करने के लिए प्रथकारो के उल्लेख भी दिये का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है-ऐसो वीरसेणहै, जिससे ग्रंथ की प्रामाणिकता रहे ।
भयवत्ताणस्सयलागमगहियसाराण च बक्खाणकमो परूचारो गणस्थानो के भाव किस अपेक्षा से निरूपित वदो । पुवाइरिय वक्खाणक्कम पुण एसा गाहा परूवेदि । है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि ।
र पत्र (३४) गुणस्थानो मे भाव दर्शनमोह की अपेक्षा से कहे गये है, १. धवला टीका में मिथ्यात्वो के नाम और लक्ष क्योकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नही होता । इसे प्रकार दिए है-जिससे दोनों में बहुत कुछ साम्यता स्पष्ट करते हुए उक्त च रूप से तत्त्वार्थसूत्र के निम्न सूत्र दृष्टिगोचर होनी है। का उल्लेख किया है-वुत्त च 'तच्चट्ठयारेणं मोहक्षयात् मिच्छत्त पचविह-एयतण्णाण-विवरीय-वेणइय-ससइयज्ञान दर्शनावरण मोहान्तरायक्षयाच्च केवलमिदि ।'
मिच्छत्तमिदि । तत्थ अत्थिचेव णत्थिचेव एगमेव __ मिथ्यात्व के भेदो का कथन करते हुए उनके नाम
प्रणेगमे सावयवचेव हिरवयवचेव णिच्चमेव प्रणिऔर लक्षण निम्न प्रकार दिए है-एकान्त मिथ्यात्व,
च्चमेव इच्चाइयो एयताहिणिवेसो एयत मिच्छत्त । विपरीत मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व सशयित मिथ्यात्व
विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण सति और अज्ञान मिथ्यात्व ।
णिच्चाणिच्च वियप्पेहि, तदो सव्वमण्णाणमेव, णाण एयंत मिच्छादि-अत्थिचेव, णस्थिचेव, अणिच्चमेत्र,
णस्थित्ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्त । एयमेव प्रणेयमेव तच्चमिच्चादि सम्बहावहारणरूप?
हिमानियवयणचोज्ज-मेहण-परिग्गह-राग - दोस-मोह
प्रणाणे हि चेव णुिव्वई होइत्ति हिणिवेसो विवरीय अहिप्पायो एयत मिग्छत्तणाम ।
मिच्छत्त । __अहिंसादिलक्खण सद्धम्मफलस्स सग्गापवग्गस्स प्रदहिय-पारत्तियसुहाई सम्वाई पि विणयादोचेव, हिंसादि पावफलतेण परिच्छेदणाहिप्पायो विवरीयमिच्छत्त
ण णाण-दसण-तवोववासकिलेसेहितो ति महिणिवेणाम।
सो वेणइयं मिच्छत्तं । सव्वत्थ सदेहो चेवणिच्छयोसम्मदसणादि हिरवेक्खेण गुरु-पाय-पूजादि लक्खणेण- गस्थित्ति अहिणिवेसो संसय मिच्छत्त । विणए णेव मोक्खोत्ति महिप्पायो वेणइयमिच्छत्तं णाम ।
-(घवला ३, ६, पृ० २०, भा०८)
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७४, वर्ष २३ कि०२
भनेकान्त
पत्र ३३ पर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का त्वख्यापनादिति न चोद्य । सहकारिकारण निरपेक्षस्यवर्णन करते हुए पंजिकाकार ने दोनों की एकता का स्वरूप निमित्तकारणाभ्यां मेवोपजायमानस्येव, परिणति निरूपण करने के लिए भूतवली भट्टारक का उल्लेख विशेषस्य सर्वत्रस्वभावत्वोपपत्तेः। एत्यवि सहकारिकिया है-'प्रदोजेय दोण्हये गत्तस्स वि परूवण भूदबलि- कारण निरवेक्खस्स जीवपोग्गलपरिणदि बिसेसस्स परभट्टारयेहिं दोण्ह एग जे गण सुद्धि गहण कद ।
स्पर णिमित्तस्स सहावसद्दाहिघियत्ते । ण कोत्थि दोसो। पजिका का पूरा अध्ययन करने पर अनेक विशेष तत्तारिस जीवपोग्गलपयडिमिहपरूवे मित्ति वुत्तं होदि । बातो का ज्ञान हो सकता है।
जदि जीव पोग्गलाण परप्पर णिमित्तण विवक्खिद परिसंयमी जीवो का प्रमाण छठे गुणस्थान से लेकर गदि विप्सेसा ससुप्पज्जतितो सच पोग्गलाणं सव्व जीवाण चौदहवें गुण स्थान तक के जीवों का तीन कम नौ करोड़ च तहा पसग इदि ण सकणीय सकसायंत कम्मइय वग्गबतलाया है. उन्हे मै हाथ जोड़ कर नमस्कार करता है। णत्तादिपच्चासत्ति विसेसविसिट्ठाण मेवतहाभवद्भुपगमादो। वे सब गाथाएं नम्बर क्रम के भेद के साथ जीवकाण्ड में कथमप्पण । सकसायत्त परिणत्ति परिणामो, पिडम्मि पायी जाती है।
जहां मलमणादि ससलिट्ठ मुबलभंते तहा जीवम्मि कम्मस्स यह ग्रंथ चकि अप्रकाशित है, और इसकी एक ही
-वित्तिपुव्वपरिणामविसेस णिमित्तेण कम्मभावमुवगदप्पप्रति उपलब्ध है । अतः विद्वानो को ग्रन्थ भडारो मे दूसरी
संवंघि पोग्गलादो। कुदो तस्स वि तहाभावपरिणामो। प्रति का अनुसंधान करना चाहिए। संभव है अन्य किमी सकसायप्परिणदि विसेसादो। जदि एवं नो इदरेदरा भंडार मे वह उपलब्ध हो जाय। उससे प्रथ के सम्पाद- सयत्त । दो, ण एकस्स वि सिद्धित्ति । पाह-प्रणाइ संबंधो नादि में सुविधा हो सकती है।
अनादि सम्बन्धः कयोस्तयोरेव जीव कर्मणः, कथमेतदप्रस्तुत पंजिका में गाथाओं के कुछ कठिन स्थलगत वसीयते वर्तमानसंबंधान्यथानुपपत्तेः। एत्थदिट्टतमाहशब्दों का अर्थ उद्घाटन करने का प्रयत्न किया गया है। कणयो वले मलं वा कणयपरिणामजोग्ग पोग्गलपिंडम्मि
कर्मकाण्ड की मंगलाचरण के बाद की दूसरी गाथा जहामलमणादि ससिलिट्ठमुबलभते, तहा जीवम्मि कम्मका अच्छा विवरण दिया है।
कम्मस्स वित्ति । जीवकम्माणमेवासंभवादो, ण तेसि संबंधपयडी सोलसहावो जीवगाणं प्रणाइसबधो । चितये ति ण वत्तव्वं । तदत्थित्तस्स सयंसिद्धत्तादोत्ति कणयोबले मलंवाताणस्थित सयं सिद्धं ॥ २
आह-ताणत्थित्तं सयं सिद्धमिदि । धर्मात्सुखंपापादुखपंजिका-पयडी सीलसहायो--प्रकृति. शील स्वभाव. मिति सुखदुःख कारणतया शुभाशुभकर्मणोः सुख दुक्खानइत्येकार्थः स्वभावश्च स्वभाववंतमपेक्षते । तदविनाभावि- भावकत्त्वेन सुख्यंह दुःख्यहं मित्यनुपहताहं प्रत्ययेनात्मनश्च स्वात्ततस्य । अतः कस्याय स्वभावः कथ्यत इत्याह जीवंगाण- सद्भावस्य सकलजन सुप्रसिद्धत्वादिति यावत् । एवं समजीवकर्मणोः कहमेत्थमंग सहण कम्मरगहण । कम्मण्णसरी स्थिय जीव परिणादिमस्सिदूण पोग्गलाण कम्मणोकम्म रसस्सेव मंगसण विवक्खित्तादो। कटकम्मकलावस्सेव भावपरिणदि परूवे दुमाह कम्मणसरीरतादो य। अहवा अंगसण कम्माकम्म
रचनाकाल शरीराणं गहणं । कम्मणोकम्मेहि पयोजणत्तादो। जीव- प्रस्तुत टिप्पण कब रचा गया, इस प्रश्न का उठना गाणमिदि किमट्ट वुच्चदे । भावकम्मदव्वकम्मणोकम्माण प्वाभाविक ही हैं। ग्रंथ की प्रशस्ति मे कवि ने अपनी मुरुपडिपस्वट्ठ । सभावोहि नाम, कारणांतर निरपेक्ष वस्तु परम्परा का उल्लेख करते हुए पंजिका का रचनाकाल स्वरूपं, यथाग्नेरुद्धज्वलन वायोस्तिर्यक् पवनमब्भसो निम्न- शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला गमनमित्यादि । न चात्रव विधमुवलभामहे । जीव परि. बतलाया है जैसा कि उसकी निम्नगाथा से स्पष्ट है :णति विशेषापेक्षया पुद्गलस्य तत्परिणत्यपेक्षया च जीव- सोलह सहिय सहस्से गयसककाले पवड्डमाणस्स । स्थोपजायमामाभिनबपरिणति विशेषस्य द्रव्य भावकर्म- भाव समस्त समत्ता कत्तियणंदीसरे एसा॥
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मोम्मटसार की पंजिका टीका
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ग्रन्थ के रचयिता का नाम गिरिकीति है। कर्ता ने प्रादि भाग :अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार की दी है। श्रुतकीति, पणमिय जिणिद चदं गोम्मट संग्गह समग्गसुत्ताणं । मेषचन्द, चंदकीति और गिरिकीति । श्रुतकीति नाम के केसिपि भाणिस्सामो विवरणमण्णेस मासिज्ज ॥ अनेक विद्वान हो गये हैं, उनमे प्रस्तुत श्रुतकीति कौन है ? तत्त्थ ताव तेसि सुत्ताणमादिए मँगलट्ठ भणिस्स यह विचारणीय है।
मण? विसय पइण्णा करण? च कयस्स सिद्ध मिच्छाइ एक श्रुतकीति-मूलसंघ, बलात्कारगण सरस्वती गाहा मुत्तस्सत्थो उच्चयेणट्ट विवरणं कहिस्सामो तमहा गच्छ के कुन्दकुन्दाम्नाय मे हुए है। इनकी आम्नाय मे बोच्छभट्टारक प्रभाचन्द्र ने सं० १.११ वैशाखसुदी ५ को एक । अन्त भाग :जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी, जो भूगर्भ से प्राप्त हुई
जे पुख्वमणस्थ बति विसुहा साहिच्च मागच्चदा, थी, और भोमाव के जैन मन्दिर मे खण्डित अवस्था मे
दिडठ जेहि जयप्पमाणग्रहण जोह ण सम्म मद । विराजमान है।
ते णिवतु युवतु किं मम तदो अण्णारिसा जेहयो, दूसरे श्रुतकीति 'पंचवस्तु' नामक व्याकरण ग्रन्थ के
ते रज्जति जदोह साह सहलो सम्वो पयासो मम ॥ कर्ता है जिनका उल्लेख कन्नड कवि अग्गलदेव ने अपने
कर्मकाण्ड (पजिका) चन्द्रप्रभचरित मे, अपने गुरुरूप से किया है। और उन्हे विद्य चक्रवर्ती की उपाधि से अलकृत किया है। कवि ने
प्रादि भाग :अपना उक्त ग्रन्थ शक सम्वत् १०११ (वि० सं० ११४६)
णमह जिण चलणकमल सुरम उलि मणिप्पहा जलमे समाप्त किया है। मटिम की विलीनी ललमिय। णह किरण केसरत तब्भमत देवी कयब्भमर । 'विच धनकीाख्यो वैयाकरणभास्कर:' रूप से उल्लेख
ग्रह कम्मभेद परुवेमाणो विज्जाए अब्बुच्छित्तिकिया है । इससे ये श्रुतकीति बडे भारी विद्वान जान पडते णिमित्त मिाद कादण म
णिमित्त मिदि कादण मगल जिणिद णयोक्कार करेदिहै । बहुत सभव है यही श्रुतकीति गिरिकीति के गुरु रहे
अन्त भाग :हों । यदि यह विचार ठीक हो तो उनके समय के साथ सो जयउ वासपुञ्जो सिवासु पुज्जासु पुज्ज-पय-पउमो। सगति ठीक बैठ जाती है।
पविमल वसु पुज्जसुदो सुदकित्ति पिये पियं वादि ॥१ तीसरे श्रुतकीति-मूलसंध देशीयगण पुस्तक गच्छ समदिय वि मेघचंदप्पसाद खुद किसियरो । कोण्डकुन्दान्वय के प्रभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य जो सो कित्ति भणिज्जइ परिपुज्जियचंदकित्सिति ॥ २ प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। शिलालेख का समय' शक जेगासेसवसंतिया सरमई ठाणंत रागो हणी । स० १३०४ (वि. सं. १४४१) है। अतएव यह विक्रम जंगाढ परिरूं मिऊण मुहया सोजत मुद्दासई । की १५वीं शताब्दी के विद्वान् हैं।
जस्सापुव्वगणप्पभूदरयणा लंकारसोहग्गिरि [ग्गिणा] ___चौथे श्रुतकीति नन्दिसंघ बलात्कारगण के विद्वान जाता सिरि गिरि कित्ति देव जविणा तेणासि गंथोकमो॥३ म. देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य और भूवनकीति के शिष्य उप्पण्ण पण्णाण मिसी णमंसि पयोजणं मस्थि तहा विहांचे. थे। इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है। इन्होने कज्ज भवे चेविमिणा बहूणं, बालाण मिच्चत्य कयं ममेयं ॥ ४ अपभ्रश भाषा मे अनेक ग्रन्थों की रचना की है । हरिवंश अण्णाणेण पमाददोवगरिमा गंथस्स होदिति बा। पुराण सं० १५५२, धर्मपरीक्षा परमेष्ठी प्रकाशसार प्रालस्सेण व एत्य जंण संबन्धणिज्ज पि मे। (सं० १५५३) और योगसार को रचना संवत् १५५३ तं पुष्वावरसाहसोहण सुही सोहंतु सम्मं सही, में गयासुद्दीन के राज्यकाल में मालवा के जेरहठ नगर में जंहा सव्वपरोवयारकरणे संतोगिही बग्वदा ।। ५ की थी। मेघचंद का समय स्पष्ट है ।
एसो बंधदि बंधणिज्जमिदि मे वेदस्स बंधो इमो। १. देखो, जन लेख. भाष २, . ४१६
एवं बध मिमित्त मस्स समए भेदा इमेसि इमे ,
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७६, वर्ष २३ कि० २
इब्लेड कहि दसकमेण इमिणा बच्चा जदी संग्रह पंचन्ह परिभावग्रो भवभय णिच्चासी मं वच्चये ॥ ६
विमला गुणगुरुई बहुपिया संति किय चमकारा पंजी रंजिय भुवणा चिट्ठउ सुदकिति कित्तिव्व ॥ जाद जत्य मुलद्ध मूलमहिम साहाहि सस्सोहिय । सच्छायं सगुणकि बुद्धि विसय भूदेवमाण सया । धम्मारामुय राहवत्स करिणो तत्थेस गयो को। गामे पुष्वलि ... णांम सहिए कालामए ॥ ८ सोलस सहिय सहस्से गयसगकाले पवढमाणस्स । भाव समस्त समत्ता कत्तिय नदोसरे एसा ! ६ इमिस्से गय संखाण सिलोएहि फडी कय । पण्णासेहि सम वृच्छं दसम दहिंगुणं ।। १० ग्रंथ संख्या ५०००, श्रीपच गुरुभ्यो नमः 1 शुभमस्तु भव्य लोकाय । गोम्मट पंजिका नाम गोम्मटसार टिप्पण समाप्त 11
अनेकान्त
X X X
1
राजा उग्रसेन की लाडली राजुल अपने भावी पति नेमकुमार के चिन्तन में रत थी अपने पति का कल्पित सुन्दर घोर सहृदय चित्र देखकर नारी के मुख पर जो प्रसन्नता होती है, राजुल उसी का अनुभव कर रही थी । नारी सुलभ लज्जा यद्यपि उसके धान्तरिक भावों के प्रदर्शन मे बाधक थी फिर भी उसका अनुराग छलक रहा था अनेक चेष्टाएं करने पर भी वह उसे छिपा न सको घोत्सुक्य, उमंग नवीन अभिलाषाओं की त्रिवेणी में स्नान कर उसका शरीर पुलकित हो रहा था ।
स० १५६० स्वस्ति श्रीमत्स्वसमय परसमय सकल विद्याकोविद वादि वृन्दारक वृन्द बदित पद द्वंद्व श्री मत्कुड कुदाचार्योन्यं श्री सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण देवा: तच्छिष्याचार्य वयं भी निय श्रीविगानकोति देवा: तच्छिया लघुविशालकीति यतय । श्रीमजिनधर्मध्यान धन धान्यादिभिरति सुन्दरे गवार मदिरे हुवड़े वशे श्रावक सर भाइया कीका तस्य भार्या वाऊ तयोः पुत्री माणिक वाई तस्याः पुत्री चगाई । नत्र प्रशस्त सम्यक्त्वधरी दयाकरी समस्त जीवे संकुलात सुन्दरी दानादिषु स्वमतानु कारिणी माणिक्य वर वृत्ति पारिणी तथा सद्भावनापूर्व लोखयित्वेद मुत्तवं श्रीमद गोम्मट सारस्य पंजिका पुस्तकं मुदा दत्त लघु विशालादि कोतिभ्यः कर्मछिलये प्राप्तये संपत्तेः सुखस्याने पुनः स्फुटमिति ।
आत्म-समर्पण
(श्री बालचन्द जी एम. ए.)
दूसरी घोर सहेलियों के बीच ठठोलियां चल रही थी । बेचारी राजुल एक ओर श्रौर शेष मडली दूसरी ओर कोई राजुल के अनुराग की कथा कह कर उसे राने की चेष्टा करती तो कोई नेमिकुमार के शौर्य और पिराक्रम की गाथाएं गाकर राजुल का हृदय नापने का
प्रयत्न करती । भावी पति को गौरव गाथा सुन-सुन राजुल का मन खिल उठता था ।
यह क्रम चल ही रहा था कि अचानक हाफते- हांफते एक दावी ग्राकर चिल्लाई 'राजकुमारी'... शब्द उसके मोठों से निकलते ही न थे, वह विकट रूप से कांप रही यी और मासुमो को धार उसकी दोनों द्वालों से बड़ रही थी ।
"चन्दन !" राजकुमारी ने आश्चर्य से उसकी पोर देखा, क्यों ? क्या बात हुई ? उत्सुकता से उसने प्रश्न किया ।
सहेलियों की मंडली चन्दन को घेर कर खड़ी हो गई सभी स्तम्भ भी प्राश्चर्यचकित थी चन्दन जो दुस्समाचार लाई थी, कहने का उसे साहस ही न होता था। वह अपने को असहाय अनुभव कर रही थी । सहेलियां समा
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प्रात्म-समर्पण
चार सुनने को प्रातुर थी। नाना प्रकार के प्रश्न चन्दन में मिला देने का, मेरी प्राशाम्रो पर पानी फेर देने का' में पूछे जाने लगे पर वह कुछ न बोली । बस फूट-फूट कर राजुल मावेश में बोल रही थी। रो पडी। अरे कुछ कह भी तो गजकुमारी ने उसे 'बेटी नुम भूलती हो तीर्थकर नेमि का जन्म ही लोक ढाढस बघाते हुए कहा।
कल्याण के लिये हुमा है' पिता ने उसे समझाया। नेमिकुमार विरक्त हो गये राजकुमारी, विवाहोत्सव 'पर में इसमें बाधक न होती' राजुल का तर्क था। रुक गया, चन्दन बड़े कप्ट से इतना कह सकी।
"विवाह बन्धन मे फेसकर नेमिकमार लोक-कल्याण में 'बंधन में पड़े पशुमो को देखकर उन्हें कर्म बंधन की।
असमर्थ हो जाते बेटी, पिता ने प्रागे कहा । स्मृति जाग उठी। उन्होंने लोक कल्याण का व्रत ले लिया'
यह उनकी दुर्बलता होती। नारी नर की सभाचन्दन ने उत्तर दिया।
बनायो को जाम करती है उन्हें उत्कठिन करती है । यदि राजकुमारी पर वज्रपात हुमा। इम दुस्समाचार से
इतने पर भी कोई अपनी हानि कर बैठे तो इसमे दोष त्रस्त वह मूछित हो भूमि पर गिरने को ही थी कि
किसका' राजुल का भावावेश प्रभी शान्त न हुमा था। सहेलियो ने सम्हाल लिया। मुझे माज्ञा दीजिये पिता जी, राजकुमारी राजुल ने
'ठीक कहती हो बेटी, पर अब संभव नही' पिता ने महाराज उग्रसेन के चरणो मे गिर कर प्रार्थना की। पराजय होने पर भी जीतने की चेष्टा की।
'तुम उन्हे कहा खोजोगी बेटी, पिता ने दुख भरी 'क्यो नही ! मैं उन्हें अवश्य खोज लूगी, उन्हे मुझे मास छोड़ते हुए कहा।
अपनाना ही पड़ेगा। पशुमो की पुकार सुनने वाला क्या 'वनो में, पर्वतो, कन्दरायो में, जहा कही भी वे होगे' प्रानं विरहिणी की प्रान्तरिक वाणी न मनेगा? मैं उन्हें राजुन ने दृढता से उत्तर दिया।
खोजूगी पिताजी, मुझे आज्ञा दीजिये' राजुल पिता के 'मार्ग दुर्गम है राजुल' पिता ने पुत्री को असमर्थता गले से लिपट गई। की ओर सकेत किया।
'तुम स्वतत्र हो बेटी, मेरा आशीर्वाद ले जायो' पिता 'पर मेरा निश्चय दृढ़ है, राजुल ने उत्तर दिया।' ने पुत्री को प्राशीर्वाद देकर विदा किया।
'इससे लाभ क्या? उन्हें जाने दो बेटी, अनेक परा- सघन वन पौर अगम पर्वत दृढ निश्चय के मागे क्रमी राजकुमार आज भी तुम्हारी अभिलाषा करते है, झुक गए थे, काटे फूल बन गए थे मोर मार्ग उसे उत्सा. पिता ने फुसलाना चाहा।
हित कर रहा या । 'मैं तो अपने पिया को खोजगी' की प्रायं नारी पतिव्रता होती है पिता जी! हृदय ध्वनि वनो मोर पर्वत गुफामो मे पूज रही थी । पवन जिसकी उपासना करता है वही मार्य नारी का पति है। भी उसी लय में 'मैं तो अपने पिया को खोजू गी' का स्वर मैने नेमिकमार के चरणो मे अपना हृदय अर्पित कर दुहराता सा था । विरहिणी का विरह चागे मोर दिया है, प्रब शरीर किसी अन्य को कैसे समर्पित किया जा छा गया। सकता है। वह तो व्यभिचार होगा न? राजुल ने प्राज वह उसे खोज रही थी जिस पर उसने अपने उत्तर दिया।
को अर्पित कर दिया था, प्रतिदान की प्राशा न करते पर नेमिकुमार तो विरक्त हो गए ये तुम्हें स्वी- हए जिसे सर्वस्व भेट कर दिया था, ममता, करुणा, कार करेगे ?' पिता ने आगे कहा। ..
वात्सल्य प्रादि सभी मानवी गुणों को जिस पर सतपित ___'म तो विरक्त नही हुई। दो जीवन के पारस्परिक कर दिया था पर उस निर्मोही ने सब कुछ ठुकरा दिया, सहयोग का नाम ही तो विवाह है पिताबी। मेरी मम्मति नारी के पात्म-समर्पण का उसने कोई मूल्य न पाका, के बिना इस सहयोग की डोर को काट देने वाले से पलभ्य मम्पत्ति पाकर भी वह उसे त्याग कर चला पूछुगी कि तुम्हे क्या अधिकार है मेरे जीवन को धूलि गया।
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७८ वर्ष २३ कि० २
'स्वामिन् में आ पहुंची विरक्त नेमिकुमार के चरणो में गिर कर राजुल ने प्रार्थना की।
'शुभे ! तुम कौन हो ?' शान्त स्वर में नेमिकुमार ने प्रश्न किया।
'वही जिसकी रक्षा का भार श्रापने लिया था, मै राजुल हूँ मेरे देवता' राजुल ने उत्तर दिया।
'राजुल तुम यहां !' आश्चर्य से देखा नेमिकुमार ने । 'तुम्हे खोजते खोजते मा पहुंची मेरे रक्षक, मार्य नारी की शरण उसका पति ही होता है, राजुल ने निवेदन किया ।
तुम भूल रही हो राहुल, में तुम्हारा पति नहीं, मैं किसी का कुछ नही । सासारिक सम्बन्ध श्रसत्य है देवी, मुझे क्षमा करो' नमिकुमार बां
मैने तुम्हे हृदय सौपा था, अब तुम्हे कैसे स्वामी, राजुल ने प्रार्थना की।
पर तुमने नारी को न समझा नाथ ! उसे विलास atra की रानी ही माना, अपनी साधना की बाधा माना । यह तुम्हारा भ्रम था । नारी का श्रात्म समर्पण सुख और दुख, महल और वन, विलास और विराग में सर्वत्र एक सा है देव! तुम मुझसे पूछते तो कि तुम इन सघन वनो 'भूलना होगा भद्रे ! सत्य की खोज करो' नेमिकुमार मे मेरा साथ दे सकोगी ? मैं उत्तर देती श्रवश्य! राजुल ने उत्तर दिया ।
शान्त श्वर में कह रही थी ।
भूलू
मेरे
असंभव है नाथ ! आप पुरुष है, स्वतंत्र है, पर मं स्त्री हूँ, अधूरी हू । मेरे तो आप ही सब कुछ है, मुझे धरण दीजिये राजुल मिकुमार के चरणों में गिर पड़ी। 'तुम्हारा मोह तीव्र है राजुल लौट जाओ ।' नेमिकुमार ने कहा ।
'यह तुम कहते हो, हो तुम कह सकते हो मेरा हृदय तोड़ने वाले पुरुष तुम्हारे ही मुख से ये वचन सभव है पर में तुम्हें नहीं छोड़ सकती' राजुन ने अपना निश्य जता दिया ।
विवाह देषि ने लोक-कल्याण का व्रत लिया है नेमकुमार ने अपनी विवशता बतलाई।
अनेकान्त
'वही व्रत मुझे भी दीजिये' भाचल पसार कर राजुल ने व्रत-दीक्षा की याचना की ।
नेमकुमार ने पाहचर्य से उसकी ओर देखा, क्या तुम सच कह रही हो ? उन्हें विश्वास न हुआ ।
'नारी की क्रियाये दम्भ नहीं होती स्वामिन्! वह सच्चे हृदय से कार्य करती है। विलास में पती नारी संयम और साधना की महत्ता अच्छी तरह समझती है' शत्रुन रो रही थी, तुमने मुझे धोखा दिया, तुम लोक कल्याण का व्रत लेकर स्वार्थी ही रहे । मेरी रक्षा का भार स्वीकार करके भी तुमने मेरी रक्षा से मुख मोड लिया, स्वय तो ससार समुद्र तर ने चल दिये पर मुझे इसी बीच खड़ा रहने दिया, राजुल फूट-फूट कर रोने लगी ।
'भद्रे ! तुम सच्ची हो' नेमिकुमार ने प्रशान्त स्वर में कहा ।
'तुम पन्य हो देवी मेमकुमार बोले ।
'अब तो मैं स्वयं आ पहुची नाथ, आपकी शरण ही ससार मे मुझे अन्यतम वरदान है। आप मुझे स्वीकृत कीजिये, मैं आपकी शिष्या बनूगी, हाथ जोड़ कर राजुल ने प्रार्थना की।
तुम दीक्षा के योग्य हो नेमिकुमार ने हर्ष पूर्वक राजुल को दीक्षित किया ।
'अन्त मे आपको अपनाना ही पडा नाथ' मेरा आत्म समर्पण सफल ही हुधा, राजुल ने मुस्कराते हुए कहा ।
'हा देवी' नेमकुमार ने उत्तर दिया।
उपयुक्त अवसर यही था देव' राजुल ने उनके चरणों में मस्तक झुका दिया ।
गिरनार के शिखर पर दो तपस्वी साधना कर रहे हैं, एक प्रोर दिगम्बर नेमिकुमार और दूसरी ओर एक स्वेत वस्त्र पारिणी धाविका राजुल ।
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पुराणों के ग्राधार पर प्रद्युम्न कुमार की ऐतिहासिक रोचक कथा
शृगाल से सिद्ध
श्री सुबोध कुमार जैन हजारों हजार वर्ष पहले की कहानी है। दो सियार जहाँ अपना जीवन काल बिताने पर वे मृत्यु उपरान्त फिर थे । किसान अपने खेतो की चौकीदारी ऐसा करते थे, सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। जिससे सियारो का पेट नहीं भरता था। एक रात भूख देवायु व्यतीत करके वे कौशल देश में राजा पद्मनाभ की पीड़ा से वे जहाँ तहाँ फिर रहे थे। जब कुछ भी के पुत्र उत्पन्न हुए। पहले का नाम मधु और दूसरे का खाने को नहीं मिला तो खेत के किनारे पड़ी एक रस्सी कैटभ था। बाद में मधु कौशल का राजा हुमा और को ही दोनों चबाने लगे। रस्सी गन्दी और सड़ी होने से कैटभ युवराज । एक बार एक दूसरे देश पर आक्रमण जहरीली हो गई थी।
__ हेतु जाते हुए राजा मधु एक मित्र देश के राजा की रानी अखिर दोनो ही तड़प-तडप कर मर गए।
चन्द्रप्रभा को देख कर आसक्त हो गया। उसने छल-बल सबेरा होने पर उस खेत के किसान ने उनकी चमडी से चन्द्रप्रभा का हरण किया और चन्द्रप्रभा भी उसके उघाड कर उसे काम में लाने के लिए सूखने को डाल मोह पाश में फस गई। उधर रानी चद्रप्रभा का पति, दिया।
पत्नि के वियोग में पागल हो गया। यह देखकर चद्रप्रभा दोनों ही सियार मरने के बाद मगध देश में एक को अत्यन्त दुख हुमा । उसने अपने को धिक्कारा । कारण के घर जन्मे और पढ़ लिख कर बड़े हुए। ये दोनो अत्यन्त पाकर राजा मधु को भी अपने किए पर इतना पश्चाताप घमडी और पाखडी थे। अपने मिथ्या ज्ञान के घमड मे हया कि वह वैरागी होकर मुनि हो गया। युवराज कैटभ एक बार वे एक जैन मुनि से शास्त्रार्थ करने चल पडे। भी मूनि हो गये । अन्ततोगत्वा रानी चन्द्रप्रभा भी रास्ते मे उन जैन मुनि के एक शिष्य ने ही उन्हे शास्त्रार्थ यायिका हो गई। में परास्त कर दिया। क्रोधित होकर वे उस शिष्य की राजा मधु का जीवन तपस्या के प्रभाव से सोलहवें हत्या करने रात मे उनके स्थान पर पहुँचे पर देवतायो स्वर्ग में देव हुआ और तदुपरान्त देव जाति के दिव्य से यह न देखा गया। दोनों भाइयो के तलवार उनके सुख को भोग कर आयु के अन्त में वहाँ से नयकर पूर्व हाथों में ही रह गए और वे वही पत्थर की तरह कीलित पुण्य के प्रभाव से द्वारिका नगनी में यादवों के श्रेष्ठ हो गए।
कुल मे कृष्ण-नारायण की रानी रुक्मिणी के गर्भ में कीलित होने के उपरान्त दोनो भाइयों को वास्त- पाया। विकता का ज्ञान हमा और अपने व्यवहार पर उन्हें बडा उघर रानी चन्द्रप्रभा का प्रभागा पागल पति मरकर पश्चाताप हुआ। उन्होंने थावक का व्रत ले लिया और नीच योनियो मे परिभ्रमण करता हा कर्म योग से समय पाकर सद्ध्यानपूर्वक शरीर त्याग कर मोधर्म स्वर्ग मिथ्यादृष्टि मनुष्य हुपा। फिर वहाँ से प्रायु पूरी कर में इन्द्र और उपेन्द्र हए ।
धूमकेतु नामक असुरों का नायक देव हा । जिस रात को देव लोक की आयु पूरी कर दोनों ही अयोध्या के रुक्मणि के गर्भ से राजा मधु का जीव जन्मा उसी रात समुद्रदत्त श्रेष्ठि के यहां पुत्र उत्पन्न हुए। उनका नाम- वह आकाश मार्ग मे जा रहा था। अपने पूर्व भव के वैरी करण मणिभद्र और पूर्णभद्र हमा। दोनों धर्मकृत्य आदि मधु के जन्म का उसे ज्ञान हुपा । वह उसो समय रुक्मणि में लगे रहते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा अनुपम हुई थी। के बगल से उस नन्हें बच्चे को उठा कर एक पर्वत शिखा
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८०, वर्ष २३ कि० २
पर से पहुंचा और उसकी हत्या करने के उद्देश्य से उसे एक भारी पत्थर के नीचे दबा कर चला गया ।
उधर चन्द्रप्रभा का जीव समय पाकर मेघकूट नगर के विद्यावर राजा काल संबर की पत्नि कनकमाला बनी । ये दोनों उसी ओर से जा रहे ये धौर उस नन्हे बच्चे को पत्थर के नीचे दबा देख कर उन्होंने उसे निकाला मौर बच्चे को विल्कुल स्वस्थ पाकर वे अचम्भित हुए । उन्हें ऐसे वीर बालक को पुत्र मानकर बड़ी प्रसन्नता हुई, यही नन्हा बच्चा लोक मे प्रद्युम्न कुमार के नाम से प्रसिद्ध हुमा । उसकी शिक्षा-दीक्षा उत्तम हुई। वह बालकपन में ही अपने पराक्रम दिखलाने लगा। उसके पराक्रम की कहानियाँ मेघकूट नगर के घर-घर में कही जाने लगी । प्रद्य ुम्न कुमार ने अपने नए पिता राजा कालसवर के लिए बड़ी-बड़ी लडाइया लड़ी। अपने अन्य ज्येष्ठ पुत्रो के रहते हुए भी कालसवर ने उसे युवराज घोषित कर दिया । जिससे उसके सभी भाई उसके दुश्मन हो गए ।
उन्होने उसकी हत्या करने के कई प्रायोजन किए, पर सफल न हो सके। उसके सौन्दर्य की कीर्ति तो अद्भुत रूप से फैलती गई । जब उसके विवाह की बात हुई तो उसकी नई मा को यह बात पसन्द नहीं हुई। उसके मन मे विचित्र अन्तर्द्वद चल रहा था। अपनी अवेडावस्था मे उसकी वासना उम्र हो उठी थी और उसकी परेशानी की सीमा न थी उसे यह भी अनुभव हुआ कि उसकी वासना पुत्र प्रद्य ुम्न कुमार की ओर ही है। जब वह अपने को सभाल न सकी तो धाखिर को उसने प्रद्युम्न कुमार को कपटपूर्ण वार्ता करते हुए बतलाया कि वह उनका वास्तविक पुत्र नही है, और वह किस प्रकार उनका पुत्र वना । सारी बाते जान कर प्रद्य ुम्न कुमार के दुख का ठिकाना न रहा। तभी उसके पूर्व भव की प्रेयसी उसके वर्तमान जीवन की नई मां कनकमाला ने उससे काम वासना की पूर्ति का प्रस्ताव किया तो वह प्रचभित रह गया । अत्यन्त लज्जा और क्रोधपूर्वक ग्राखिर वह उसे धिक्कारता हुआ वहा उसे उठ कर चला गया ।
अपना अपमान हुआ देख कर कनकमाला बहुत क्रोषित हुई और उसने अपने तन बदन को नोच डाला । कपटपूर्वक उसने चीखना चिल्लाना शुरू किया एवं अपने
प्रनेकान्त
पति राजा कालसवर से उसने प्रद्युम्न कुमान के दुष्चरित्र होने का महादोष लगाया ।
माखिर पिता मे युद्ध हुआ पौर पुत्र विजयी हुआ । परन्तु वह् दुःखी था प्रत्यन्त दुःखी था; क्योंकि उसका कोई माता-पिता नही था । श्रौर न संसार में उसका कोई भी अब अपना था ।
तभी नारद मुनि से भेट हुई और वह यह जानकर प्रसन्नता से विभोर हो उठा कि कृष्ण नारायण उसके वास्तविक पिता और रुक्मणि उसकी माता है ।
वह उसी समय चाकाश मार्ग से शीघ्र ही नारदमुनि के साथ द्वारिका पुरी जा पहुँचा । अपने को प्रगट करने के पूर्व उसने कृष्ण नारायण की गविता दूसरी पत्नी सत्यभामा एवं उसके पुत्र के गर्भ को चूर किया एव अपने पराकम दिखलाकर कृष्ण, बलदेव, आदि को भी परास्त किया। तदुपरान्त बड़े नाटकीय ढंग से नारदमुनि ने पिता-पुत्र का मिलाप कराया और प्रद्युम्न कुमार अपने सारे कुटुम्ब वालों से गले लग कर मिला ।
माता रुक्मणि का क्या कहना। उसकी खुशी का क्या ठिकाना | उसकी कोख के पुत्र के लापता होने के उपरान्त उसकी मौत सत्यभामा उसे बराबर लज्जित और अपमानित करती रहती थी। इससे उसका जीवन दुःखमय हो गया था। कृष्ण नारायणण का तो उस पर अगाध प्रेम था और उनके देवर अरिष्टनेमि भी उसका बडा आदर करते थे फिर भी उसका जीवन अत्यन्त विरागी हो गया था ।
अब इतने वर्षों के बाद अपने लापता पुत्र को फिर पाकर उसने अपने महल मे बड़ी-बड़ी खुशिया मनाई ।
अरिष्टनेमि की ओर प्रद्य ुम्न कुमार अत्यन्त आकर्षित हुए और उनकी उदात्त भावनाओं और विचारों से भी बहुत प्रभावित हुए । प्रद्य ुम्न कुमार शूर वीर थे और वाल्यकाल से अबतक युद्ध और योद्धाम्रो के बीच ही उनका समय निकला था । अरिष्टनेमि के दर्शन, ज्ञान और चामित्र की बाते उसके मन मे सहज प्रतिष्ठित हो गई। सच्चरित्रता उनके प्रत्येक कार्य मे दीखने लग गई । समय पाकर उसका विवाह कौरव नरेश दुर्योधन की पुत्री उदधिकुमारी से हुआ ।
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भृगाल से सिद्ध
प्रघुम्न कुमार का बड़ा प्रताप था। सभी यदुवशी होकर सन्निकट के गिरनार पर्वत पर चले गए और उनका लोहा मानते थे। राजे-महाराजे उनकी सेवा करते दिगम्बर मुनि हो गए। उनकी मगेतर राजुल भी पायिका ये। भोग-सुख इच्छानुसार भोगते हुए प्रद्युम्न कुमार अपने हो गई। पुण्य प्रताप से तीनो लोक के सारभूत मुख को पाते रहे। प्रम म्न कुमार भी बहुत दिनों तक त्याग के इस
पापियो का क्या ! कोई दु.ख ऐसा नही कि जो प्रभाव से अपने को अलग न रख सके और एक दिन वे उन्हें भोगने न पड़ते । अपना पेट भरने के लिए रात-दिन भी घर-बार छोड़ कर दिगम्बर मुनि की दीक्षा लेने चिन्तित रहना, वस्त्र भोजन के बिना पृथ्वी पर पड़े रहना, नेमिनाथ के समवशरण मे पहुंच गए। दूसर की नौकरी-चाकरी करना, रूप-लावण्य रहित होना, इसी समय नेमिनाथ ने भविष्यवाणी की कि यादवों दीन-हीन, बिना बान्धवों वाला होना, भाई-बन्धुप्रो द्वारा पर मद्यपान के प्रति प्राप्सक्ति के कारण बड़ी-बड़ी विपदा निन्दिन और जगह-जगह तिरस्कृत होना, यह सभी तो पाएगी। कृष्ण की मृत्यु बाण लगने पर होगी भोर पाप के फल है।
द्वारिकापुरी द्वीपायन मुनि के क्रोध के कारण भस्मीभूत जगमव कृष्ण द्वारा मारा जा चुका था। कृष्ण को हो जायगी। इस समाचार से सारी द्वारिका पुरी मे सुदर्शनचक्र प्राप्त हो चुका था। महाभारत समाप्त हो बेचैनी फैल गई। लोग द्वारिकापुरी छोड़-छाड कर यत्रचुवा था । कौरवो का क्षय हो चुका था। अरिष्टनेमि तत्र जाने लगे। कृष्ण द्वारा राज्य भर मे मद्यपान निषेध पर इस महायुद्ध का बड़ा प्रभाव पहा था और दिन-दिन की माला प्रचारित की गई। उनके वेगग्यभाव बढ़ते जा रहे थे। उनके साथ प्रधम्न परन्तु हुमा वही जो होना था। यादव कुमारों के कुमार भी विराग की ओर पाकृष्ट हो रहे थे तभी एक मद्यपान के कारण दीपायन मुनि ने द्वारिकापूरी को अभुतपूर्व घटना हुई।
भस्मीभूत कर दिया। कृष्ण जगल मे मारे-मारे फिरे और अरिष्टनेमि के असमान्य बल के कारण कृष्ण कुछ एक बाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुए। चिन्तित रहा करने थे। एक बार राज्य सभा में ही इधर गिरनार पर्वत पर अरिष्टनेमि तप और त्याग 'कोन अधिक बलवान है' इस पर बात बहन अधिक बढ़ द्वारा तीर्थकर नेमिनाथ हुए। बाद में उन्हें और प्रनम्न गई। अरिष्टनेमि ने अपने पावो को पृथ्वी पर जमा दिया कुमार एव कई अन्य त्यागियों को निर्वाण की प्राप्ति हुई। और उनके पावो को हिला न सकने के कारण कृष्ण आदि आज भी गिरनार पर्वत लाखो भक्तों द्वारा पूजित मभी मामन्तो को सभा मे लज्जित होना पड़ा । कुछ समय है। उमकी तीन उंची चोटियो पर प्रम म्न कुमार आदि उपगन्त एक दिन कुछ कारणवश उत्तजित हो अरिष्टनेमि यादव कुमारी ने मोक्ष प्राप्त कर उसे पवित्र किया। कृष्ण की प्रायुधशाला में चले गए और शेपनाग पर सवार तीर्थकर नेमिनाथ एव इन तीनो महापुरुषों की चरणहोकर मुदर्शनचक्र को ऐसा नचाया एवं नाको की फक से पादुकाए हजागे वपों से इस पवित्र पर्वत पर विराजमान ही ऐसा शखनाद किया कि नगर मे शोर मच गया। है और बन्दना करने वालो का ताता युगो से चला पा कृष्ण आदि ने उन्हें किसी-न-किसी तरह शान्त किया। रहा है।
यह सब था पर अरिष्टनेमि तो अद्भुत सम्यग्दृष्टि करोडो की सम्पदा भक्तो ने इस पहाड को सुशोभित थे। उन्हें अहकार क्षोभ आदि छू तक नही गए थे। करने में लगा दी, और लगा रहे है । संगमरमर के जैसे समय देखकर उनकी इच्छा के विरुद्ध कृष्ण ने उनके शानदार और दर्शनीय मन्दिर इस पर्वत पर है शायद ही विवाह का प्रायोजन ऐसे कपटपूर्ण ढग से किया कि भारत में कही हो। अरिष्टनेमि की विगग भावना बिल्कुल जागृत हो जाए धन्य है प्रनम्न कुमार | कहा कई भव पहले उनका और वे राज्य छोड़कर सन्यासी हो जाय । उनकी योजना जीव शृगाल पशु था और कहां अन्त में सिद्ध परमात्मा सफल हई और परिष्टनेमि भी बीच बारात से ही विरागी होकर रहा। *
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हिन्दी-भाषा के कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ
पन्नालाल अग्रवाल दि. जैन शास्त्र भडारों मे हिन्दी भाषा का विशाल पुरा दिल्ली के शास्त्रभडार की है। और प्रकाशन के साहित्य अभी तक अप्रकाशित पड़ा है अनेक गुच्छक ग्रथों योग्य है। में अनेक सुन्दर रचनाए प्रचुर परिमाण में मिलती है। २ वर्षमान पुराण--भ० सकलकोति, पद्यानुवादकर्ता उनके प्रकाशित होने पर हिन्दी साहित्य के इतिहास पर ५० बैजनाथजी माथुर है। रचना विक्रम की १६ वीं विशद प्रकाश पडेगा । जैन कवियो ने प्राकृत संस्कृत शताब्दी की है। मूल ग्रथ अभी तक अप्रकाशित है, और साहित्य के साथ अपभ्रश और हिन्दी भाषा में जो अनूठी उसका पद्यानुवाद भी। इसका प्रकाशन शीघ्र होना रचनाएं लिखी हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण है। अब से चाहिए। कोई ३०-४० वर्ष पहले पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बई और ३ उत्तर पुराण-मूलपथ, प्राचार्य गुणभद्र प्रणीत बाब ज्ञानचन्द्रजी लाहौर ने अनेक ग्रथ प्रकाशित किये है। है। पद्यानुवादकर्ता प० खुशालचन्द है । ग्रन्थ में कवि ने
दिल्ली के शास्त्र भंडारों में भी हिन्दी भाषा की गद्य- दोहा, सवैया, अंडिल, चौपाई आदि विविध छन्दो का पद्य अनेक रचनाएं अभी तक अप्रकाशित पडी है । समाज प्रयोग किया है। जिसे पढ़ने से मन सन्तुष्ट होता है । का लक्ष्य पुराने साहित्य के प्रकाशन की ओर नहीं है। रचना सामान्य है। यह ग्रंथ अनेक भण्डारों में संगृहीत
और न उसके समुद्धार की भावना ही है। यदि भावना है। परिचय वाली प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली की होती तो भडारो की सभी सुन्दर रचनाएं कभी की है। खशालचन्द्र काला ने अनेक ग्रन्थो के पद्यानुवाद किये प्रकाशित हो गई होतीं। मेरा विचार बहुत अर्से से इन है। वे प्रायः सभी ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। इस ग्रंथ सभी ग्रथों के प्रकाशन की भावना एव प्रेरणा करने मे का प्रकाशित होना आवश्यक है। लगा रहा है, पर मुझे उसमे कोई सफलता नहीं मिली। ४ शान्तिनाथ पुराण-मूल ग्रन्थ के रचयिता भ०
माज इस छोटे से लेख द्वारा समाज से प्रकाशन की सकलकीति है। मूल ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद के साथ कलकत्ता प्रेरणा करता हुआ प्रकाशन योग्य कुछ ग्रंथों का परिचय से छप चुका है । पद्यानुवाद के कर्ता कवि सेवाराम है । प्रस्तुत कर रहा है । माशा है, साहित्य प्रेमी जन इस ओर इनकी अन्य कई रचनाए हैं। चौबीस तीर्थकर पूजा अपना ध्यान देंगे। और जिनवाणी की महत्वपूर्ण सेवा इन्होने स०१८२४ मे बनाई है। करेंगे।
५ हरिवंश पुराण-(पद्यानुवाद) इस प्रथ का १ पाण्डव पुराण-मूल लेखक भट्टारक शुभचन्द्र है पद्यानुवाद कवि खुशाल ने सं० १७८० मे किया था। यह मूल प्रथ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत प्रति दि० जैन है। किन्तु इस का पद्यानुवाद ५० बुलाकीदास (बूलचन्द्र) नया मन्दिर धर्मपुरा की है। अग्रवालकृत है, अभी तक अप्रकाशित है और प्रकाशन ६ मुनिसुव्रतनाथ पुराण-इस ग्रन्थ का पद्यानुवाद की बाट जोह रहा है। पद्यानुवादकर्ता ने अपने सामान्य व्र० इन्द्रजीत द्वारा स. १६४५ मे सम्पन्न हुआ था । यह परिचयादि के साथ उसको प्रशस्ति लिखी है। जिससे प्रति भी उक्त भडार मे अवस्थित है। रचना सामान्य है। उसका रचनाकाल संवत १७५४ बतलाया गया है । पद्य श्रेणिक चरित-के पद्यानुवादकर्ता भ. विजयविविध छन्दों मे दिए हए हैं। प्रति नया मन्दिर धर्म- कीति है। जा अजमेर गद्दी के पट्टधर थे। इसका रचना
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वीरशासन जयन्ती
काल म० १८२७ है यह ग्रन्थ भी उक्त भडार में अब स्थित है । कवि की बनाई हुई अन्य अनेक रचनाएं प्रजमेर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है।
धन्यकुमार चरित्र इस ग्रन्थ का पद्यानुवाद भी खुशालचन्द्र काला ने किया है । कवि खडेलवाल जाति मे उत्पन्न हुआ था । यह ब्रह्मनेमिदत्त के संस्कृत धन्यकुमार चरित्र का पद्यानुवाद है । नया मन्दिर धर्मपुरा में प्रवस्थित है।
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६ महीपाल चरित्र - इस ग्रथ के रचयिता रत्ननन्दि के शिष्य चरित्रभूषण है । इस ग्रंथ के टीकाकार नथमल विलाला है । ग्रंथ की रचना सं० १९९८ में हुई है । रचना साधारण है ।
१० यशोधर चरित्र - यह भट्टारक देवेन्द्रकीति को रचना है, इसके पद्यानुवादकर्ता भी यही सुशान काला हैं, जिनका ऊपर उल्लेख किया है। ग्रंथ का रचनाकाल स० १७८१ है ।
वीरशासन जयन्ती
परमानन्द शास्त्री
भारतीय इतिहास में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा एक अनि प्राचीन ऐतिहासिक तिथि है। इसी तिथि से भारत वर्ष मे नये वर्ष का प्रारम्भ हुआ करता था । नये वर्ष की खनिया मनाई जाती थीं और वर्ष भर के लिये शुभकाम नाए की जाती थीं प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोग पण्णत्ती और घवला जैसी प्राचीन टीकाओ में - 'वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुल पडिवाए तथा वासस्स पदम मासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । पाडिवद पुव्व दिवसे' जैसे वाक्यों द्वारा इस तिथि को वर्ष के प्रथम माम का प्रथम पक्ष और पहला दिन सूचित किया है। देश में सावनी - प्राषाढ़ी के विभाग रूप जो फसली साल प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन प्रथा का सूचक जान पडता है जिसकी संख्या प्राजकल गलत रूप मे प्रचलित हो रही है । कहीं-कही विक्रम संवत का प्रारम्भ भी श्रावण कृष्णा एकम से माना जाता है जैसा कि विश्वेश्वर
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११ नेमिपुराण नेमिदत्त, पञ्चानुवादकर्ता व्र० वखतावरमल रतनलाल, रचना समय १६०६, प्रस्तुत ग्रंथ का मूल संस्कृत पद्यों में है। वह अभी तक प्रकाशित नही हुआ है किन्तु इसका हिन्दी अनुवाद सूरत से प्रकाशित हो चुका है। पद्यानुवाद अभी अप्रकाशित है, प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा की है । कविता साधारण है ।
१२ श्रीपाल चरित्र - के कर्ता पंडित प्रतिसुख हैं । ग्रंथ का रचनाकाल सं० १६१८ है । कविता साधारण है । ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है ।
१३ सीताचरित - इसके रचयिता कवि रायचन्द्र हैं, ग्रन्थ का रचनाकाल सं० १७१३ है । कविता कहीं-कहीं चुभतो सी है, उसमे प्रवाह है, परन्तु वह सामान्य दर्ज की है ।
इसी तरह धन्य अनेक ग्रंथ प्रत्यभहारो मे पड़े है। कोई महानुभाव इन ग्रन्थों का प्रकाशन कर पुण्य का न करें।
नाथ रेउ के 'राजा भोज' नामक ग्रन्थ से निम्न वाक्य से प्रकट है - 'राजपूताना के उदयपुर राज्य मे विक्रम संवत का प्रारम्भ श्रावण कृष्ण एकम से माना जाता है । इसी प्रकार मारवाड के बेठ साहूकार भी वर्ष का प्रारम्भ इसी दिन से मानते है।'
इससे यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उदयपुर राज्य और मारवाड में पहले से वर्ष का प्रारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से ही होता था। विक्रम संवत् को अपनाते हुए यहा के निवासियों ने अपनी वर्षारम्भ की तिथि को भी छोड दिया, और अनुरूप विक्रम संवत को भी परिवर्तित कर दिया ।
युग का प्रारम्भ और सुमसुमादि के विभाग रूप कालचक्र का - उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालों का प्रारम्भ
१. राजा भोज पृ० ५४
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हिन्दी-भाषा के कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ
पन्नालाल अग्रवाल
दि. जैन शास्त्र भंडारों मे हिन्दी भाषा का विशाल पुरा दिल्ली के शास्त्रभडार की है। और प्रकाशन के साहित्य अभी तक अप्रकाशित पड़ा है अनेक गुच्छक ग्रंथों योग्य है। में अनेक सुन्दर रचनाएं प्रचुर परिमाण में मिलती है। २ वर्षमान पुराण-भ. सकलकीति, पद्यानुवादकर्ता उनके प्रकाशित होने पर हिन्दी साहित्य के इतिहास पर पं. बंजनाथजी माथुर है। रचना विक्रम की १६ वीं विशद प्रकाश पड़ेगा। जैन कवियों ने प्राकृत संस्कृत शताब्दी की है। मूल ग्रथ अभी तक अप्रकाशित है, और साहित्य के साथ अपभ्रश और हिन्दी भाषा मे जो अनूठी उसका पद्यानुवाद भी। इसका प्रकाशन शीघ्र होना रचनाएं लिखी हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण है। अब से चाहिए। कोई ३०-४० वर्ष पहले पं. नाथू रामजी प्रेमी बम्बई और ३ उत्तर पुराण-मूलग्रथ, प्राचार्य गुणभद्र प्रणीत बाबू ज्ञानचन्द्रजी लाहौर ने अनेक ग्रथ प्रकाशित किये है। है। पद्यानुवादकर्ता १० खुशालचन्द है । ग्रन्थ मे कवि ने
दिल्ली के शास्त्र भंडारो मे भी हिन्दी भाषा की गद्य- दोहा, सवैया, अंडिल, चौपाई आदि विविध छन्दो का पद्य अनेक रचनाएं अभी तक अप्रकाशित पड़ी है । समाज प्रयोग किया है। जिसे पढने से मन सन्तुष्ट होता है । का लक्ष्य पुराने साहित्य के प्रकाशन की ओर नहीं है। रचना सामान्य है । यह ग्रथ अनेक भण्डारों मे सगृहीत और न उसके समुद्धार की भावना ही है। यदि भावना है। परिचय वाली प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली की होती तो भडारों की सभी सुन्दर रचनाएं कभी की है। खशालचन्द्र काला ने अनेक ग्रन्थो के पद्यानुवाद किये प्रकाशित हो गई होती। मेरा विचार बहुत अर्से से इन है। वे प्रायः सभी ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। इस ग्रंथ सभी प्रथों के प्रकाशन की भावना एवं प्रेरणा करने में का प्रकाशित होना आवश्यक है। लगा रहा है, पर मुझे उसमें कोई सफलता नहीं मिली। ४ शान्तिनाथ पुराण-मूल ग्रन्थ के रचयिता भ.
माज इस छोटे से लेख द्वारा समाज से प्रकाशन की सकलकीति हैं । मूल ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद के साथ कलकत्ता प्रेरणा करता हुमा प्रकाशन योग्य कुछ ग्रथों का परिचय से छप चुका है। पद्यानुवाद के कर्ता कवि सेवाराम है। प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्राशा है, साहित्य प्रेमी जन इस ओर इनकी अन्य कई रचनाए हैं। चौबीस तीर्थकर पूजा अपना ध्यान देंगे। और जिनवाणी की महत्वपूर्ण सेवा इन्होंने स०१८२४ मे बनाई है। करेंगे।
५ हरिवंश पुराण-(पद्यानुवाद) इस प्रथ का १पाण्डव पुराण-मूल लेखक भट्टारक शुभचन्द्र है पद्यानुवाद कवि खुशाल ने सं० १७८० में किया था । यह मूल अथ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत प्रति दि. जैन है। किन्तु इस का पद्यानुवाद पं० बुलाकीदास (बूलचन्द्र) नया मन्दिर धर्मपुरा की है। अग्रवालकृत है, अभी तक अप्रकाशित है और प्रकाशन ६ मुनिसुव्रतनाथ पुराण-इस ग्रन्थ का पद्यानुवाद की बाट जोह रहा है। पद्यानुवादकर्ता ने अपने सामान्य व्र. इन्द्रजोत द्वारा स. १६४५ मे सम्पन्न हुआ था। यह परिचयादि के साथ उसको प्रशस्ति लिखी है। जिससे प्रति भी उक्त भडार मे अवस्थित है। रचना सामान्य है। उसका रचनाकाल संवत १७५४ बतलाया गया है। पद्य ७ श्रेणिक चरित-के पद्यानुवादकर्ता भ० विजयविविध छन्दों में दिए हए है। प्रति नया मन्दिर धर्म- कीति है। जा अजमेर गद्दी के पट्टघर थे। इसका रचना
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काल स० १८२७ है यह ग्रन्थ भी उक्त भंडार में अब ११ नेमिपुराण-० नेमिदत्त, पद्यानुवादकर्ता स्थित है । कवि की बनाई हुई अन्य अनेक रचनाएं अजमेर वखतावरमल रतनलाल, रचना समय १९०६, प्रस्तुत के शास्त्र भंडार में सुरक्षित हैं।
ग्रथ का मूल संस्कृत पद्यों में है। वह अभी तक प्रकाशित ८ धन्यकुमार चरित्र-इस ग्रन्थ का पद्यानुवाद भी नही हुआ है किन्तु इसका हिन्दी अनुवाद सूरत से खुशालचन्द्र काला ने किया है । कवि खंडेलवाल जाति में प्रकाशित हो चुका है। पद्यानुवाद अभी अप्रकाशित है, उत्पन्न हुआ था। यह ब्रह्मनेमिदत्त के संस्कृत धन्यकुमार प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा की है । कविता साधारण है। चरित्र का पद्यानुवाद है। नया मन्दिर धर्मपुरा में अव- १२ श्रीपालचरित्र-के कर्ता पंडित अतिसुख है। स्थित है।
ग्रथ का रचनाकाल सं० १६१८ है। कविता साधारण महीपाल चरित्र-इस ग्रंथ के रचयिता रत्ननन्दि है। ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। के शिष्य चरित्रभूषण हैं। इस ग्रंथ के टीकाकार नथमल १३ सीताचरित-इसके रचयिता कवि रायचन्द्र है, विलाला है । ग्रंथ की रचना सं० १६१८ मे हुई है। ग्रन्थ का रचनाकाल सं० १७१३ है। कविता कहीं-कहीं रचना माधारण है।
चुभती सी है, उसमें प्रवाह है, परन्तु वह सामान्य दर्जे १० यशोधर चरित्र-यह भट्टारक देवेन्द्रकीति को की है। रचना है, इसके पद्यानुवादकर्ता भी वही खुशाल काला इसी तरह अन्य अनेक ग्रंथ ग्रन्थभडारों में पड़े हैं । है, जिनका ऊपर उल्लेख किया है। प्रथ का रचनाकाल कोई महानुभाव इन ग्रन्थों का प्रकाशन कर पुण्य का स०१७८१ है।
अर्जन करें।
वीरशासन-जयन्ती
परमानन्द शास्त्री
भारतीय इतिहास मे श्रावण कृष्णा प्रतिपदा एक नाथ रेउ के 'राजा भोज' नामक ग्रन्थ से निम्न वाक्य से अनि प्राचीन ऐतिहासिक तिथि है। इसी तिथि से भारत प्रकट है-'राजपूताना के उदयपुर राज्य में विक्रम संवत वर्ष मे नये वर्ष का प्रारम्भ हुआ करता था। नये वर्ष की का प्रारम्भ श्रावण कृष्ण एकम से माना जाता है । इसी खशिया मनाई जाती थीं और वर्ष भर के लिये शुभकाम- प्रकार मारवाड के सेठ-साहूकार भी वर्ष का प्रारम्भ इसी नाए की जाती थी। प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोण दिन से मानते हैं। पणती और धवला जैसी प्राचीन टीकानों में-'वासस्स
___ इससे यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उदयपुर पढममासे सावणणामम्मि बहुल पडिवाए तथा वासस्स
राज्य और मारवाड़ में पहले से वर्ष का प्रारम्भ श्रावण पढम मासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पाडिवद पुम्ब
कृष्णा प्रतिपदा से ही होता था। विक्रम संवत् को अपनाते दिवसे' जैसे वाक्यों द्वारा इस तिथि को वर्ष के प्रथम
हुए यहा के निवासियों ने अपनी वर्षारम्भ की तिथि को मास का प्रथम पक्ष और पहला दिन सूचित किया है। भी छोड दिया, और अनुरूप विक्रम संवत को भी परिदेश में सावनी-पाषाढी के विभाग रूप जो फसली साल वर्तित कर दिया। प्रचलित है वह भी उसी प्राचीन प्रथा का सूचक जान
युग का प्रारम्भ और सुषम-सुषमादि के विभाष रूप पड़ता है जिसकी संख्या आजकल गलत रूप में प्रचलित
कालचक्र का-उत्सपिणी अवसपिणी कालों का-प्रारम्भ हो रही है। कहीं-कही विक्रम संवत का प्रारम्भ भी श्रावण कृष्णा एकम से माना जाता है जैसा कि विश्वेश्वर १. राजा भोज पृ० ५४
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२४ वर्ष २३ कि. २
अनेकान्त
भी इसी तिथि से हुआ है। ऐसा पुरातन ग्रंथों में उल्लेख के समय अभिजित नक्षत्र में भगवान महावीर के शासन है। साथ ही यह भी लिखा है कि युग की समाप्ति प्राषाढ की उत्पत्ति विपुलगिरि पर हुई । उनकी प्रथम दिव्यवाणी की पौर्णमाणी को होती है। और पौर्णमासी की रात्रि खिरी । और उसके द्वारा उनका धर्मचक्र प्रवर्तित हुआ। के अनन्तर ही प्रातःकाल श्रावण कृष्णा प्रतिप्रदा को अभि- यह उनके सर्वोदय तीर्थ का पहला दिन था। इसी दिन जित नक्षत्र, बालवकरण और रुद्र मुहूर्त मे युग का विलविलाट करते हुए पशु कुल की रक्षा हुई, उन्हे प्रारम्भ हुग्रा करता है। इन सब उल्लेखो से इस तिथि याज्ञिक हिसा से त्राण मिला। उनके भय और दुख मे की महत्ता का स्पष्ट भान हो जाता है।
कमी आई। महावीर के अहिंसा डिमडिम नाद से जगत इमी थावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रातःकाल सूर्योदय
में क्रान्ति पाई और जनमाधारण में अहिंसा की लहर
दौड़ गई। १. एएउ मुसमसुसमादयोग्रद्धा विसेसाजुगादिणासह उनकी दिव्य देशनाओं से संसारके सभी जीवोके प्रति पवत्तति जुगतण सह समप्पंति । पादलिप्ताचार्य प्रेमभाव प्रकट हुग्रा-कल्याण का मार्ग मिला। याज्ञिक
ज्यो. क० टी० हिसा का प्रतिरोध हा, पशुप्रो को अभयदान मिला । २. प्राषाढ पौणिमास्या तु युगनिष्पत्तिश्च धावणे । संबस्त और प्रपीडित जनता को अभूतपूर्व अवलम्बन प्रारम्भ; प्रतिपच्चन्द्र योगाभिजिदि कृष्णके ।।
मिला, जिससे वे मुखपूर्वक जीवन यापन कर सके । रूढि
लोकविभाग ७,३६ वाद और धर्मान्धता के प्राग्रह में शिथिलता पाई। ३. प्रासाढ पुण्णमीएजुगणिप्पत्ती दु सावणे किण्हे ।
अहिंसा का नाद सब जगह प्रतिध्वनित होने लगा। उनके अभिजिम्हिचंदजोगे पाडिवदिवसम्हि पारभो॥
मर्वोदय तीर्थ मे जन प्रवाह उमडा हुअा चला पाया, उनकी
त्रिलोकसार ४२१ शरण मे सभी जीव सुख पाते, लोग ऐसे पहिसा के महामावण बहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्ते। रथी भगवान की जय बोले बिना नही रहते । उन्होने सम्वत्थ पढमसमये जुगस्स प्राइवियाणाहि ॥ जनता की भलाई के लिए ही स्वय सुखपूर्वक जियो और
ज्योतिषकरण्डक ५५ दूसरों को जीने दो की दुहाई दी।
वीर शासन की विशेषताएँ
भगवान महावीर का यह शासन सर्वोदय तीर्थ के नाम जब प्रात्मा अहिसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लेता से प्रसिद्ध है, क्योंकि उसमे संसार के समस्त जीवों के है-परमब्रह्म परमात्मा बन जाता है, तब उसमे कोई अभ्युदय -कल्याण - की बातो का समावेश है। इसमे वैर विरोध नहीं रहता। जैसा कि पतजलि ऋषि के निम्न जाति या धर्म सम्बन्धित संकीर्ण मनोवृत्तियों का सर्वथा मूत्र से प्रकट है-'अहिसा प्रतिष्ठायातत्सन्निधौ वैरत्यागः' अभाव है। इस शासन मे आकर सभी जीव अपना (योग सूत्र)। इसीलिए उनको सभा में बैठने वाले पशुओं आत्महित करने में समर्थ हो सकते है । उनको सभा मे मे जाति-विरोध भी समाप्त हो गया था । सभी जीव देव, मनुष्य, असुर, पशु, पक्षी आदि सभी जीवो ने बैठ स्वाभाविक प्रणय या मैत्रीभाव को प्राप्त हो जाते है। कर धर्मामृत का पान किया था। इसमे किसी को कोई इसी करण उनका तीर्थ सर्वोदय के नाम से प्रसिद्ध है। विरोध नही है कि जाति-विरोधी जीव भी वहां (समवस- सर्वोदय का अर्थ सब का उदय है, जिसे पाकर सभी रण सभा मे) बैठ कर समभाव से रहते थे। उसका जीव अपना अभ्युदय, कल्याण या विकास सिद्ध कर सके, कारण भगवान महावीर को पूर्ण अहिंसा की प्रतिष्ठा थी। वही सर्वोदय है। तीर्थ का अर्थ तिरने-पार होने- का उन्होंने अहिंसा को पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लिया था। उपाय या साधन है । जिसे पाकर जीव अपना हित
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वीर शासन की विशेषतायें
माधन कर सकें वही सर्वोदय तीर्थ है । सर्वोदय का बचाना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है। अतः उन पर दयासम्बन्ध किमी साम्प्रदाय विशेष से नही है । संकीर्ण मनो- भाव रखना ही श्रेयस्कर है। वृत्तियाँ ही विरोध को उत्पन्न करती है। क्योकि उनका ३. विरोध का कारण मानमिक दौर्बल्य है, अथवा दृष्टिकोण सर्वथा एकान्त रूप होता है। और एकान्त ही आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक विषमता है। विरोध मिथ्या दर्शन है। उनका उसमे प्रभाव है। इसी से सर्वो- से शत्रुता बढ़ती है। अनक्यता और विद्वष को प्रोत्तेजन दय तीर्थ कहा जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र ने इसे मिलता है। यही प्रशान्ति के कारण है। इनसे बचने हेतु युक्त्यनुशासन में सर्वोदय तीर्थ बतलाया है।
उपाय करना वुद्धिमत्ता है। अनेकान्त दृष्टि से दोषो का सर्वान्तवत्त गुण-मख्य-कल्पं, सन्तिशून्य च मियोऽनपेक्षम्। शमन भले प्रकार हो जाता है, मन से दुर्भाव निकल जाते सर्वापदामन्तकरंनिरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिद तर्दव ॥ है। प्रत. अनेकान्त दृष्टि का जीवन में उपयोग करना महावीर का सर्वोदय तीर्य सामान्य विशेषादि अशेष ।
जरूरी है।
४. जितने अर्थ से अपना प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, घों को लिए हुए है। और मुख्य-गाण की व्यवस्था से
उतना ही रखना, शेप का सब के हितार्थ त्याग कर देना युक्त है। सर्वान्त शून्य है, सब धर्मों से शून्य है, उसमें किसी एक धर्म का अस्तित्व नहीं बन सकता। परस्पर
बुद्धिमत्ता है । वीर शासन में परिग्रह को पाप बतलाया
है। उससे बचने के लिए उसका परिमाण कर लेना, निरपेक्ष नयों का निरसन करने वाला है। सब मापदायो।
उससे अधिक की लालसा न करना परिग्रह परिमाण व्रत का अन्त करने वाला है। इसका आश्रय लेने वाले जीवो के मब दु.म्व मिट जाते है और वे अपना प्रभ्युदय एवं
कहलाता है । परिग्रह ही विषमता का प्रबल कारण है,
इसके कारण मानव जघन्य से जघन्य पाप करने में नहीं उत्कर्ष सिद्ध करने में समर्थ हो जाते है।
हिचकिचाता। महावीर ने इस गुरुतर पाप से छूटने का भगवान महावीर ने जीवों के दुःखो की परम्परा
सहज उपाय उसका परिमाण करना या उसका सर्वथा मिटाने, दूपित एव सकीर्ण मनोवृत्तियो को औदार्य भावो
त्याग कर देना बतलाया है। से सरस बनाने का उपक्रम किया है। और सभी जीवों
५. कायरता घोर पाप है । कायर मनुष्य प्रात्म-घाती है। में मंत्रीभाव (दुःखेष्वनुत्पत्ति अभिलाप: मैत्री) रखने का
मानव की प्रान्तरिक कमजोरी ही कायरता मे सहायक निर्देश किया।
है इसी कारण वह हिंसक है। जिन्होने इसका परित्याग २. शासनो मे होने वाले पारस्परिक विरोधो को दूर
किया और प्रात्म-साधना की वे सुखी हुए। जिसने कायरता करने, दोषो को पचाने, विनष्ट करने और गुणो मे अनु
को छोडकर वीरता को अपनाया वह निर्भय बना । वही राग रखने का सकेत किया है । यदि किसी जीव का
अमिक कहलाया। सम्यग्दृष्टि चूकि निर्भय होता है अतः किसी से विरोध हो जाता है और शत्रुभाव उत्पन्न हो वह हिसक है। महावीर ने स्वय आत्म-साधना कर जो जाता है तो उस विरोध को दूर करने के लिए अनेकान्त उच्चादर्श प्राप्त किया है वह हमारे द्वारा प्राराध्य है। दृष्टि द्वार। दूर करने का प्रयत्न किया जाय । अनेकान्त जीव स्वय अपने अच्छे बुरे कर्मो का फल स्वय अकेला दृष्टि केवल विरोध को ही नही मिटाती । प्रत्युत उनमें ही भोक्ता है। दूसरा कोई उसका सगा साथी नही होता। सोहार्द और अभिनव मंत्री का सचार भी करती है। व मत्रा का संचार भी करता है।
इस तरह महावीर का शासन अनेक मोलिक विशेष२. भगवान महावीर ने बतलाया कि संसार के सभी तामों से भरा हुमा है। यदि हम उनके हिसा, सत्य, जीव ममान है और सुख चाहते है तथा दुख से डरते हैं। श्रचौर्य, ब्रह्मचर्य मोर अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों का अनेर जैसे तुम्हे अपने प्राण प्यारे हैं उसी तरह सब जीवो को कान्त दृष्टि से पालन करे तो हमारा जोवन भी महावीर भी अपने प्राण प्यारे है। अत: उनके प्रति सम भाव रखते जैसा बन सकता है। और विश्व मे शान्ति और सभाहुए उन पर दयाभाव रखना, उन्हे दुःख और सक्लेश से वना का विकास हो सकता है।
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(वि० सं० १४६१)
ऊपर गांव का अप्रकाशित जैन लेख
श्री रामवल्लभ सोमानी
ऊपर गांव हुगरपुर से ३ मील दूर है। यहां एक विद्वानों ने शीलादित्य को ही बाप्पा माना है किन्तु इस भग्न दिगम्बर जिनालय में वि० स० १४६१ का अप्रका- प्रशस्ति में बाप्पा के पुत्र का नाम स्पष्ट रूप से खुम्माण शित जैन लेख है। इसमे ३६ पक्तियों का एक विस्तृत दिया हुआ है अतएव अोझाजी की मान्यता की इससे शिलालेख है। यह प्रशस्ति डूगरपुर राज्य के इतिहास पुष्टि होती है। के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है । अब तक वहा के इतिहास श्लोक सं० १२ में बहुत ही महत्वपूर्ण सूचना दी के लिए ज्ञात प्रशस्तियों में यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण गई है। इसमे बागड़ (इंगरपुर) के वर्तमान शासकों के है। प्रारम्भ की ८ पक्तियों मे तीर्थङ्करों की स्तुतिया है। पूर्वज सीहड़ के सम्बन्ध में सूचना दी गई है कि यह पंक्ति सं०८ में श्लोक स०६ "राजपद्धति" नामक अश मेवाड के महारावल जैनसिंह का पुत्र था। सीहड़ के शुरू होता है । इसमें राजवश का विस्तार से उल्लेख है। सबध मे विद्वानों में बड़ा मतभेद है। अोझाजी की मान्यता श्लोक स. १० में बाप्पारावल का उल्लेख है । इसे गुहिल है कि यह सामत सिंह का वशज था जिसका बागड वश में उत्पन्न वणित किया है। मेवाड़ के मध्यकालीन में कुछ समय तक अधिकार रहा था । डा० दशरथ शर्मा शिलालेखो मे बाप्पारावल के सम्बन्ध में विभिन्न-विभिन्न की भी यही मान्यता थी। इसके विपरीत श्रीराय चौधरी मत दिये है । वि० सं०१०२८ के नरवाहन' के शिलालेख इसे मेवाड़ का शासक जैसिंह का पुत्र बतलाते है। में "अस्मिन्नभव गहिलगोत्रनरेन्द्रचन्द्रः श्रीवप्पक: क्षिति- वस्तुतः सामन्तसिंह का बागड पर अधिकार केवल कुछ पति: क्षितिपीठरत्नम्" पाठ दिया है किन्तु वि० स० वर्षों तक (वि० स० १२३६ के आसपास) ही रहा था । १०३४ के पाघाटपुर के शक्तिकुमार के लेख मे वशावली' उसे गुजरात के राजा को चैन से नहीं बैठने दिया । एव मे बाप्पागवल का नाम ही नही दिया है। चित्तौड मेवाड की तरह उसे बागड़ से भी निष्कासित कर दिया। निवासी ब्राह्मण प्रियपटु के पुत्र वेदशर्मा ने महारावल इसकी पुष्टि वि० स० १२४२ के अमृतपाल" के ताम्रपत्र समरसिंह के शासन काल में बनाई,' वि० स० १३३१ से होती है। वि. स. १२५१ के बडौदा के हनुमान की चित्तौड को प्रशस्ति एव वि० स० १३४२ की पाबू मूर्ति के लेख वि० स० १२६१ के रामा के शिवमंदिर के की प्रशस्ति' मे बाप्पारावल को गुहिल का पिता लिख लेख मे अमृतपाल का शासक के रूप मे उल्लेख है । प्राट दिया है । जो गलत है। इसके विपरीत इस ऊपर गाव के शिवालय के वि०स० १२६५ के एक लेख में अमतपाल की प्रशस्ति मे स्पष्ट रूप से बाप्पा को गुहिलवशी लिखा के वंशज विजयपाल का शासक के रूप में उल्लेख है। ये है। बाप्पा के पुत्र का नाम इस प्रशस्ति मे खुम्माण दिया लोग भतृपट्टवंशी शासक थे। डूगरपुर के शिलालेखों में गया है जो महत्वपूर्ण है। स्वर्गीय पं० प्रोझाजी ने भी सीहड के पिता का नाम जयतसिंह ही दिया गया है। वान भोज को बाप्पा मानकर इसके पुत्र का नाम खम्माण' वि०स० १३०६ के जगत की अम्बिका देवी के मन्दिर के दिया है। कुंभलगढ़ के वि० सं० १५१७ के शिलालेख मैं एक शिलालेख मे इसका स्पष्टतः उल्लेख है किन्तु बाद के शीलादित्य (वि० सं० ७०३) को बाप्पा' वणित किया लेखों में वंशावलियो मे मतभेद है । वि० सं० १६१७ की है और इसको आधार मानकर डी० सी० सरकार प्रभृति महारावल प्राशकरण" की प्रशस्ति एवं वि० सं० १६७४
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की गोवर्द्धन नाथ मंदिर की प्रशस्ति में सीहड़ के पिता जयसिंह को उक्त सामंतसिंह का पुत्र बतलाया गया है।" वस्तुत सामंतसिंह का राज्य केवल वि०सं० १२३६ के आसपास ही था । उसके बाद मेवाड़ मे उसका छोटा भाई कुमारसिंह राजा बना था एवं वागढ़ मे अमृतपाल आदि । श्रतएव सामन्तसिंह के उत्तराधिकारियों के बागड में शासक होने के सम्बन्ध मे कोई निश्चित सूचना नही है । ऊपर गांव का यह लेख सबने प्रथम ज्ञात लेख है जिसमें स्पष्ट रूप से सीहड़ को मेवाड के शासक जंग सिंह का वंशज लिखा गया है ।" कुभलगढ प्रशस्ति से भी स्पष्ट है कि सिंह का अधिकार बागड पर था। वस्तुतः गुजरात के शासक भीमदेव चालुक्य II को मेवाड़ और बाग से निष्कासित करने में इसने महत्वपूर्ण योग दान दिया था । श्रोझाजी द्वारा दी गई वशावली मे ऊपर की उक्त सूचना के आधार पर वशावली मे निम्नाकित संशोधन किया जाना आवश्यक है :
सीहड (१२७७ से १२९१ वि०)
ऊपर गांव का अप्रकाशित जंन लेख
जयसिह (मेवाड़ का दासकवि०स० १२७० से १२०० वि०)
तेजसिह (१३०७ से १३२४)
पृथ्वीदेव (लमनोर का विसं० १२०७ का शिलालेख)
इस ऊपर गाँव के लेस में सीहड़ के उत्तराधिकारी का नाम जैसल दिया गया है। श्रोभाजी के दूगरपुर राज्य के इतिहास में इस राजा का नाम "विजयसिह" माना है। इनका लिखना है कि यद्यपि झाड़ोल के लेख में राजा का नाम जयसिंह ही पढ़ा जाता है किन्तु मन्दिर का नाम "विजयनाथ"। अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि राजा के नाम के साथ "वि" अक्षर छूट गया है किन्तु यह केवल कल्पना ही है । मुझे मूल शिलालेख की छाप देखने को भी मिली यो जिसमे "वयजनाथ" शब्द पढ़ा जाता है जिसका अर्थ वैद्यनाथ होता है। वि० सं० १३०८ के भाटोल के लेख मे भी राजा का नाम "जयसिंह" दिया गया है। ऊपर गांव की प्रस्तुत" प्रशस्ति में इसे
है
ही जैसल लिखा है अतएव यह नाम ही सही प्रतीत होता इसकी पुष्टि चीरवा गांव की वि० सं० १३३० की प्रशस्ति से भी होती है। इस लेख मे उल्लेखित है कि समारक्ष मदन ने घणा के युद्ध में जंसल के लिए जंगमल्ल से युद्ध किया। उस समय घावागढ के शासक जैसल के अधिकार में ही था । श्रोभाजी ने इस लेख के जंसल को मेवाड के राजा जंत्रसिंह से सम्बन्धित माना है जो पूर्णरूप से गलत है। इस प्रकार ऊपर गाव की प्रशस्ति की यह सूचना महत्वपूर्ण है ।
श्लोक स० १६ और १७ मे बागड़ पर प्रबल शत्रुओं के आक्रमण का उल्लेख है । यह काल डूंगर सिंह और कर्म सिंह नामक राजाओ से सम्बन्धित है। इन राजाओं के शासन काल का शिलालेख नही मिला है । केवल वि० सं० १४५३ का एक शिलालेख अजमेर संग्रहालय मे है जो "हंसा" गांव की बावड़ी का है जिसमे वर्णित है है कि गुहलोत वंशी राजा भुचंड के पौत्र और डूंगर सिंह के पुत्र रावल कर्मसिंह की भार्या माणिकदे ने उक्त बावड़ी बनवाई। इससे प्रतीत नहीं होता है कि उक्त सवत तक कर्मसिंह जीवित था या नहीं। यह भीषण आक्रमण संभवतः अलाउद्दीन खिलजी अथवा गुजरात या मालये के स्थानीय मुस्लिम शासकों का हो सकता है। विविध तीर्थं कल्प के सत्यपुर कल्प" मे लिखा है कि गुजरात आक्रमण के समय उसकी सेनाएं बागढ़ प्रदेश मे होकर के गई थी। जयानन्द नामक" एक जैन साधु ने वि० सं० १४२७ मे " बागड़ प्रवास गीतिका " नामक एक रचना रची थी। उसमें डूंगरपुर नगरमे ५ जन मंदिर १०० पर जैनियो के होना लिखा है। इसी प्रकार बड़ौद जो वहाँ की प्राचीन राजधानी थी कम पर होना लिखा है इससे प्रतीत होता है कि उस समय तक राजपानी बदली जा चुकी थी। राजधानी परिवर्तन का कारण भी कोई बाहरी आक्रमण हो रहा प्रतीत होता है । कर्मसिंह का उत्तराधिकारी महीपाल हुआ। इस राजा के बारे मे केवल मात्र उल्लेख महारावल पाता की ऊपर गाव की इस प्रशस्ति मे ही है। ओझाजी ने कर्मसिंह के बाद कन्हडदेव को ही शासक माना है। किन्तु ऊपर गाँव के इस शिलालेख के अनुसार" इसके एक पुत्र महीपाल
י.
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८८, वर्ष २३ कि०२
अनेकान्त
मौर था। (तत्पुत्रो निज नाम पालि [लि]त मही- फुटनोट :पाल:...") "डेसा" गाँव की बाबड़ी के वि० स० १५२० १. जरनल बम्बई ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी के लेख में कर्मसिंह के पुत्र जयसल का उल्लेख है । इस भाग XXII पृ० १६६ प्रकार वंशावली इस प्रकार होना चाहिए :
२. इडियन एंटिक्वेरी vol ३६ पृ० १६१ कर्मसिह
३. पीटरसन्--भावनगर इन्स्क्रि० पृ०७४ से ७७ ४. इंडियन एंटिक्वेरी vol XVI पृ० ३४७-५१ ५. प्रोझा-उदयपुर राज्य का इतिहास पृ० १०२-१०४
६. कुंभलगढ़ प्रशस्ति श्लोक सं० १३६ महीपाल जयमल कन्हडदे
७. डी०सी०सरकार-गुहिलोत्स आफ किष्किन्धा पृ.४८ तेजा- मुक्तादे पाता (१४५६ ८. अोझा डूगरपुर राज्य का इतिहास
| से १४६८
६. डा० दशरथ शर्मा-राजस्थान थ दी एजज
वि०) बीका (१५२० वि.) गपाल (१४८६
१०. अरली हिस्ट्री प्राफ मेवाड पृ०--
से १४०४ वि.) ११. इन लेखोके लिए "बागडमे गुहिल राज्यको स्थापना" इसके बाद श्लोक सं० २१ से काष्ठा सघ के नन्दि
नामक मेरा लेख जो वरदा म एव ऐतिहासिक शोवतटगच्छ के प्राचार्यों का उल्लेख है। गोपसेन नामक एक
सग्रह नामक पुस्तक मे प्रकाशित हुआ है दृष्टव्य है। प्राचार्य से वंशावली दी गई है। इममे दिये गये साधनों १२. ..."गुहिलवशे रा० जयसिह । पुत्र सीहड पौत्र के नाम इस प्रकार है -गर्गसन, नागसेन गोपसेन. जयतस्येव देवेन..." (अप्रकाशित लेख) रामसेन, यश.कीर्ति, कनकसेन, शभङ्करसेन, अनन्तकीति, १३. "वशावली मे" सामंतसी रा० जीतसी रा० सीहड मारसेन, केशवसेन, देवकीर्ति, नयकीति, राजकीति, पद्म- दे" दिया गया है। सेन, भाव सेन एव रत्नकीर्ति। यह वर्णन इलोक मं० २८ १४. साममिहास्य विविजोन्ये (जे) १५३) सजि (जी) तक चलता है। एक श्लोक स०६६ मे श्रेष्ठिवश का
तासिंह तनयं प्रपेदे य एव लोक सकल वियज्ञ "तस्य वर्णन दिया गया है। यह नरसिंहपुग जाति का था।
सिंहल देवोभूत ..." शाति विशाला विमला प्रसिद्धा सप्ताधिके विशंतिभिश्च
१५. जैसिहो जिगायेला सीहडेनाखिलामही । गोत्रः। श्रीनारसिंहोजिनधर्म निष्ठापुण्योगरिष्टा विहिता
राजन्वती वभूवाल सालङ्काराङ्गनेव या ।।१२।।
(ऊपर गाँव का लेख) प्रतिष्ठा" प्रादि वणित है। यह वर्णन श्लोक स० ३८
१६. उपरोक्त श्लोक स०१३ तक चलता है। जो श्रृष्टि भाहड वश का वर्णन है।
१७. यः श्रीजैसलकार्यभवदुत्थूणकरणागणे प्रहरन् । सवत इस प्रकार है "सवत् १४६१ वर्षे पैशाख सुदि
पचलगुडिकन सम प्रकटवलो जैत्रमल्लेन ॥२८॥ ५ पचभ्याम् शुक्रवारे राउल प्रतापसिंह विजयगज्ये ऊपर
(चीरवे का लेख) गाम नाम्नि ग्रामे श्रीकाष्ठासघे नंदीतट गच्छे श्री रत्न- १८. "ग्रह तेरसयछप्पन्नविक्कमवरिसे अल्लावदीण सुरकीतिस्थादेशान् नारसिंह जातोय खरनहरगोत्रे..."अादि । ताणस्स कणिट्ठो भाया खलू खान नामधिज्जो दिल्ली
महारावल गपाल के समय जैनधर्म की अभूतपूर्व पुगयो मंतिमाहब पेरिवो गुज्ज रघर पट्ठियो ।-तो उन्नति हुई। कई प्रथ लिखे गये थे। उस समय यहाँ
हमीरजुब राम्रो बग्गडदुस मुहडासयाई नयराणि य हुबडवशी थेष्ठियो ने विष्णु की मूर्तियाँ भी बनवाई थी
भजिप प्रासावल्लीए पत्ती"(विविधतीर्थकल्प) पृ.६५ जो धार्मिक सहिष्णुता की प्रतीक है। इनके शिलालेख मै १६. महारावल लक्ष्मणसिंह के गजत्वकाल के रजतजयती अलग से प्रकाशित कर रहा हूँ। इस प्रकार यह प्रशस्ति प्रक मे श्री अगरचन्द नाहटा का लेख । महत्वपूर्ण है।
२०. ऊपर गाँव की प्रशस्ति श्लोक सख्मा १८
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मध्य प्रदेश का जैन पुरातत्व
अगरचन्द नाहटा
जैन पुरातत्व भारत के कोने मे कोने में बिखरा पड़ा कर दी। मुसलमानों के प्राक्रमण के भय से स्वयं जैन है। क्योंकि जैनधर्म का प्रचार भारत के प्रायः सभी समाज ने भी बहुत सी मूर्तियों को भूमिस्थ कर दिया था प्रदेशों में न्यूनाधिक रूप में होता रहा है। प्रारम्भ में मन्दिरों के गर्भ गृह में (गुम्भारे) मे इस तरह छिपा कर इसका प्रचार बंगाल, बिहार की ओर अधिक था, फिर रख दी, जिससे मुसलमान उन्हें नष्ट नहीं कर सके। कई महान दुभिक्ष और राजनैतिक उथल-पुथल के कारण जैन ग्राम नगर उजाड से हो गये, पुराने मदिर व मकान दव श्रमणों ने इघर मथुरा और उधर दक्षिण भारत को धर्म गये उनके ऊपर लि आदि इतने परिमाण मे छा गयी प्रचार का केन्द्र बनाया। क्रमश: राजस्थान और गुजरात कि वे टीले से बन गए। इस तरह प्राचीन जैन पुरातत्व में तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रचार बड़ा और उत्तर मुसलमानी साम्राज्य के समय और उससे पहले प्राकृतिक प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दक्षिण की ओर दिग- कारणों से टीलों के नीचे काफी दब गया या नष्ट-भ्रष्ट म्बर सम्प्रदाय का अधिक प्रभाव दिखायी देने लगता है। हा गया ।
अग्रेजी शासन के समय भारत की प्राचीन संस्कृति, जैन धर्म को पहले तो राजानो ने भी अपनाया था।
साहित्य, इतिहास, कला की खोज प्रारम्भ हुई। उन्होंने जैन साधु-साध्वि पैदल विहार करते हुए तीर्थ यात्रा और
बहुत से प्राचीन स्थानों की खुदाई की व करवाई जिससे धर्म प्रचार के लिए भारत के सभी प्रदेशो मे विचरने लगे
प्राचीनतम सभ्यता और कला के अवशेष प्रकाश में पाये उनके उपदेशों से वैश्य समाज विशेष प्रभावित हुआ।
और यह क्रम आज भी भारत सरकार की ओर से चालू व्यापारी समाज अपनी आजीविका और व्यापारादि प्रसंगों
है। भारत के पुरातत्व विभाग ने अनेक स्थानों की खुदाई से भारत के सभी प्रदेशों में फैला हुआ है जिसमे जैन
की है और इधर-उधर बिखरे हुए पुरातत्व को म्यूजियम समाज का भी प्राधान्य रहा है। जैन व्यापारी जहाँ-जहाँ
__ या संग्रहालय में संग्रह किया है। अनेक स्थानों के पुरागये अपनी मिलन सारिता, सद्व्यवहार, नीति-निपुणता
तत्व की खोज करके उनने बहुत सी रिपोर्ट प्रकाशित पौर श्रमशीलता के कारण अधिक सफल हुए और उन्होने
की है। बहुत वर्ष पहले ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने जो प्रचुर धनोपार्जन किया उसका एक प्रश जैन मुनियों
ऐसी रिपोर्टों के प्राधार से अलग-अलग प्रान्तों के जैन के उपदेशों से प्रभावित होकर मन्दिरों एव मूर्तियों प्रादि
पुरातत्व या स्मारकों सम्बन्धी ग्रन्थ हिन्दी में लिखकर के निर्माण एवं प्रतिष्ठादि में खर्च किया। फलतः जैन
प्रकाशित करवाये थे पर उसके बाद जैन पुरातत्व का मन्दिर और मूर्तियां भारत के प्रायः सभी प्रदेशों मे पायी
ऐसा सर्वेक्षण प्राय: नही हुमा, जिसकी बहुत ही मावश्यजाती है।
कता है । जैन समाज चाहे तो भारत के पुरातत्व विभाग मुसलमानी-साम्राज्य के समय अन्य हिन्दू मन्दिर में विटानों से
के विद्वानों से एक-एक प्रदेश के जैन पुरातत्व सम्बन्धी और मूर्तियों की तरह जैन मन्दिर और मूर्तियों को भी निबन्ध लिखवा कर उन्हें एक ग्रंथ के रूप में प्रकाशित काफी नुकसान पहुंचा, बहुत से मन्दिर नष्ट-भ्रष्ट कर करवा सकता है । अपनी प्राचीन कला और इतिहास की दिये गए और मूर्तियाँ तोड़ दी गयीं । कई जैन मंदिरों को जानकारी के लिए यह कार्य किसी जैन संस्था को शीघ्र मस्जिद का रूप दे दिया गया और कई जनेतरों ने हथिया एवं अवश्य हाथ में लेना चाहिए। कर उनमें शिवलिंग एवं विष्णु मादि की मूर्तियां स्थापित अभी-अभी मध्य प्रदेश शासन ने 'पुरातत्व सप्ताह
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१०, वर्ष २३ कि०२
अनेकान्त मनाया है, इस प्रसंग पर ग्वालियर से प्रकाशित मध्य दिखाई देती हैं। प्रदेश संदेश का 'पुरातत्व अंक' प्रकाशित हुआ है जिसमे (४) तिराहो-जैन चौमुखी की सुन्दर मूर्ति दृष्टिमध्य प्रदेश के अनेक स्थानों के जैन पुरातत्व का भी गोचर होती है। यह वास्तुकला का अनूठा नमूना है। संक्षिप्त उल्लेख हुआ है। पुरातत्व अक में करीब पैतीस (५) इन्दार-महा-जैन तीर्थंकरों की प्राचीन (३५) स्थानों का विवरण छपा है जिनमें से 'सोनागिर' मूर्तियाँ प्रतिष्ठित है इन मूर्तियो का शिल्प. दर्शक को दिगम्बर जैनतीर्थ का विवरण श्री हरिमोहन लाल मत्र-मुग्ध कर देता है। श्रीवास्तव ने दिया है। वह तो जंन पत्रों में ज्यों का (६) चन्देरी-अनेक जैन मूर्तियां यहाँ तथा बढी त्यों प्रकाशित किया जा सकता है। अन्य स्थानो के चन्देरी मे ध्वस्तावस्था में है। विवरण में प्रसंगवश जैन मन्दिर व मूर्तियो का उल्लेख (७) खजुराहो-घट ई मन्दिर-यह खजुराहो के हना है जिनका आवश्यक अंश इस लेख में प्रकाशित कर दक्षिण में बना हगा है। यद्यपि यह मन्दिर भग्नावस्था रहा है जिससे जैन समाज को मध्य प्रदेश में फैले हुए मे है, तो भी शिल्पकारों की कला प्रवीणता की गौरवमयी जैन पुरातत्व की कुछ जानकारी मिल सके और विद्वद्गण कहानी को धीरे-धीरे कहता हा लगता है। इसके प्रवेश विशेष खोज के लिए प्रेरणा प्राप्त करे।
द्वार पर पाठ भुजाओं वाली जैन देवी की मूर्ति गरुड पर प्रस्तुत पुरातत्व अंक मे कुछ जैन मन्दिर और मूर्तियो विराजमान होकर द्वार की शोभा को द्विगुणित कर रही के चित्र भी छपे है। गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल तक के है। मदिर के तोरण के ऊपरी भाग मे जैन प्रवर्तक जैन मन्दिर भोर मूर्तियों का जो विवरण इस अंक में छपा तीर्थकर महावीर की माता के सोलह स्वप्नो का सजीव है उसमें कुछ स्थान तो प्रसिद्ध है पर कुछ ऐसे भी है प्रकन हो रहा है। जिनके सम्बन्ध में जैन समाज को प्रायः जानकारी नही पार्श्वनाथ मन्दिर-खजुराहो का विशाल तथा हैं। उज्जैन में जो जैन संग्रहालय श्री सत्यधर सेठी प्रादि सन्दरतम मन्दिर है। इसके भीतरी भाग मे बना सुन्दर के प्रयत्न से जैन मन्दिर से संलग्न रूप में स्थापित है सिंहासन है। इसके अगले भाग मे वृषभ की प्रतिमा का उसकी भी जैन मूर्तियों आदि का विवरण इस 'पुरातत्व अकन किया गया है। इसमे पार्श्वनाथ की प्राधुनिक प्रक' में प्रकाशित किया जाता तो अच्छा होता । अब इस प्रतिमा की स्थापना १८६० में की गयी थी। इस मन्दिर प्रक की जैन सम्बन्धी जानकारी नीचे दी जा रही है- के गर्भ-गृह के बाहरी दीवारों पर शिल्प कला के द्वारा
(१) ग्वालियर-उरवाई द्वार के दोनो ओर ढाल बालक बालिका शृंगारित सुन्दरी आदि के अनोखे रूपांपर अनेक छोटी-बडी जैन मूर्तियां बनी हुई है। इसी कन हैं। प्रादिनाथ मन्दिर, पार्श्वनाथ मन्दिर के पास ही प्रकार किले की चट्टानों पर कई मूर्तियाँ जहाँ तहाँ उत्कीर्ण उत्तर में छोटी सी प्राकृति मे विनिर्मित है। हैं । पत्थर की ये जैन तीर्थंकरों की मूर्तिया उत्तर भारत (6) बड़ोह पठारी-जैन मन्दिर-एक अहाते में लगकी विशालतम मूर्तियो में से हैं । लक्ष्मण द्वार से उतरे भग २५ जैन मूर्तियां विराजमान हैं, मध्य में एक ऊंची वेदी हुए ढाल पर बायी ओर बनी सबसे बड़ी मूर्ति तो १७ है। कुछ मूर्तियां शिखरो से सुशोभित है, कुछ गुम्बदों से मीटर ऊची है।
प्रलंकृत है और कुछ के ऊपर समतल छत है। (२) सुहानिया-अनेक जैन मूर्तियों के अतिरिक्त वडोह के भव्य जैन मन्दिर और वहाँ की एक प्राचीन प्रासपास के क्षेत्र में प्राप्त अनेक अवशेष (चैतनाथ) यहीं जैन प्रतिमा का ब्लाक 'मध्यप्रदेश संदेश' के ता० २० के मन्दिर में एकत्रित हैं।
जून के अंक में अभी छपा है। (३) पढावली-ग्राम के पश्चिम मे जैन मन्दिर के (B) ग्यारसपुर-वचमठ-यह छोटा-सा अनुपम अवशेष हैं। जिनकी मूर्तियों का शिल्प उच्चकोटि का मन्दिर है जिसमें तीन छोटे-छोटे मन्दिर एक ही बरामदे है । ग्राम के पास-पास के क्षेत्र में भी जैन मूर्तियां पड़ी में हैं। आज इनमें जैन मूर्तियां है जिसकी स्थापना बाद
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मध्य प्रवेश का जैन पुरातत्व
में की गई स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है।
(१६) मारङ्ग-जिला रायपुर में पारङ्ग में स्थिति दि० २० जन के प्रक में लिखा है कि विदिशा जिले भग्न जैन मन्दिर जिसे भाण्ड देवल कहा जाता है, मृमिज के ग्यारसपर ग्राम मे स्थित माला देवी मन्दिर प्रतिहार शैली के मध्यप्रदेश में विद्यमान भनेक उदाहरण है। स्थापत्य कला का सबसे परिपक्व दृष्टान्त है। इसमे गर्भ- अभी सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग में गृह, अन्तराल मण्डप तथा अर्थ मण्डप है । गर्भ-गृह के अधिकारी विद्वान श्रीकृष्णदत्त जी वाजपेयी हैं जो पहले चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ है। इसका शिखर पंचरथ है मथुरा म्यूजियम के क्यूरिटर थे जहा कंकाली टीले से तथा उसके चारो मोर पाठ अन्य लघु शिखर है । मण्डप प्राप्त जैन पुरातत्व से उन्हें बड़ा प्रेम रहा है। उन्होंने तथा गर्भ-गृह दोनो के बीच मे पचशाखाये है । गर्भ-गृह जैन पुरातत्व सम्बन्धी अनेकों लेख लिखे है अतः उनसे द्वार का ललाट (lintel) स्थानक जैन प्रतिमाओ से उत्तर और मध्य प्रदेश की जैन पुरातत्व सम्बन्धी एक अलकृत है । मण्डप द्वार के ललाट पर प्रदर्शित गरुडारुढा सचित्र ग्रन्थ तैयार करवा के प्रकाशित किया जाना यक्षी चक्रेश्वरी इसके जैन मन्दिर होने की सूचना देती आवश्यक है। है। यह मन्दिर पाशिक रूप से सरचनात्मक तथा प्राशिक मध्यप्रदेश के श्री नीरज जैन आदि कई बन्धुनों का रूप से शिला मे काटा हुआ है।
भी पुरातत्व से गहरा प्रेम और अच्छा अध्ययन है । (१०) उदयगिरि गुफायें-इन मे जैन मूर्तिया भी है। उनसे भी एक ग्रन्थ लिखवाया जाय, भगवान महावीर की
(११) भोजपुर-जन मन्दिर तथा गाँव से तीन २५वी जयन्ती की चर्चा काफी चल रही है पर इन ठोस मील दूर विद्यमान जैन तीर्थकर शान्तिनाथ की मति के कार्यों की प्रोर किसी का अभी तक ध्यान नही गया मैने लिए भी प्रसिद्ध है। शिव मन्दिर के पूर्व में जो जन भारत जैन महामण्डल के सुयोग्य कार्यकर्ता श्री ऋषभदास मन्दिर है वह भोज के समय का ही है ऐसा राज मन्दिर जी राका को अनेकों बार लिखा कि २५ सौवी जयन्ती के के शिलालेख से प्रतीत होता है। शान्तिनाथ की मूर्ति उपलक्ष में जो साहित्य प्रकाशनार्थ तैयार हो रहा है उसमे पाशापुरी नामक गाँव मे है।
एक ग्रन्थ 'जैन कला' के सम्बन्ध में भी अवश्य प्रकाशित (१२) ऊन-जैन मन्दिरो मे सबसे प्रसिद्ध चौबारा- हो। जैन मन्दिर, मूर्ति चित्रकला आदि के कला पूर्ण डेरा नाम का दूसरा मन्दिर है। इसको कला लगभग चित्रों का एक एलबम भी अवश्य प्रकाशित किया जाय । वैसी ही है जैसी इस नाम के पहले मन्दिर की है। सड़क वास्तव मे जैन कला बहुत उच्च स्तर की रही है। भारके पार और निकट ही दूसरा मन्दिर है जिसका नाम है तीय कला में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे पूर्वजों ग्वालेश्वर मन्दिर ।
__ ने लाखों करोड़ों रुपये उन कलानों के उन्ननयन में खर्च (१३) मुक्तागिरि-के मन्दिर-बैतूल जिले मे किया है। सर्वाधिक लोगों को आकर्षित करने का माध्यम मुक्तागिरि स्थान जैन सम्प्रदाय के लोगों के लिए मुख्य कला ही है। बालक से लेकर वृद्ध तक सभी सुन्दर है। यहाँ ५२ मन्दिर है जिनमे से अधिकाश आधुनिक मन्दिर, मूर्ति और चित्रों को देख कर आकर्षित होते हैं। जैन स्थापत्य-कला के नमूने है। एक मन्दिर चट्टान मे है जैन कला की भव्यता का दर्शन करके जनसाधारण और जो एक वन-घाटी मे चट्टानों पर बने हैं । यहाँ एक सुन्दर बड़े-बड़े विदेशी विद्वान जैनधर्म के प्रति प्राकर्षित हुए हैं। प्रपात ऊँचाई से गिरता है।
जैन पुरातत्व से जैनधर्म की प्रचीनता सिद्ध होने के (१४) मरवर-अनेक जैन मूर्तियाँ टूटी पड़ी है साथ-साथ जैन साहित्य का महत्व भी विद्वानों के समक्ष जिन पर चौदहर्वी शताब्दी के अनेक वर्ष खुदे हुए पड़े हैं। प्राया है । जैन इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण बातें जैन
(१५) प्रजयगढ़-सड़क के ठीक दूसरी ओर पुरातत्व से ही प्रकाश मे पा सकीं। अत: उसकी खोज तलाब के समीप ही जैन तीर्थंकर की तीन विशाल मूर्तियां सग्रह एवं प्रकाशन का कार्य जोरों से किया जाना प्रावहैं जो कला का अनुपम उदाहरण है।
श्यक है।
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वीर - शासन जयन्ती
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा दिनांक १६ जुलाई १९७० वीरसेवामन्दिर २१ दरियागंज के तत्वावधान मे श्री दि० जैन लाल मन्दिर चांदनी चौक दिल्ली मे वीर शासन जयन्ती समारोह का आयोजन किया गया। उत्सव की अध्यक्षता दिल्ली विश्व विद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग के अध्यक्ष डा० रामचन्द्र पाण्डे ने की ।
सभा का प्रारम्भ जैन वाल आश्रम के छात्रों तथा जैन महिलाथम की छात्राओं के धार्मिक भजनों तथा गायनों से हुआ ।
सर्व प्रथम पं० परमानन्द शास्त्री ने वीर शासन जयन्ती के महत्त्व और उसके इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सर्व प्रथम धाचार्य जुगल किशोर जी मुस्तार ने वीरशासन जयन्ती मनाने की ओर लोगों का ध्यान प्राकृष्ट किया । तिलोय पण्णत्ती और घवला मे इस वात के सन्दर्भ मिलते है कि सावन कृष्णा प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय अभिजित नक्षत्र में प्रथम वाणी खिरी थीमहावीर के सर्वोदय तीर्थ का प्रवर्तन हुआ था ।
वीर सेवा मन्दिर के मंत्री श्री प्रेमचन्द्र जैन ने कहा कि वीर सेवा मन्दिर के लिए यह हर्ष और गौरव की बात है कि उसके संस्थापक प्राचार्य जुगल किशोर सुख्तार ने वीरशासनजयन्ती की शुरूआत की, जिसे हम प्रति वर्ष मनाते आ रहे हैं। इस वर्ष यह महोत्सव सर्व साधारण के हितार्थ दि० जैन लाल मन्दिर मे मनाया गया, उपस्थिति सन्तोष जनक थी।
प०
० ० हुकमचन्द जी सलावा ने भगवान महावीर के सिद्धान्तो का विवेचन करते हुए कहा कि आज के युग में उनकी नितान्त प्रावश्यकता है। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्य कार श्री यशपाल जैन ने आज के युग के सन्दर्भ में
महावीर के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए बतलाया कि हम सब नेक और एक बने ।
भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने तीर्थ, तीर्थकर और शासन की व्याख्या करते हुए बतलाया कि वीर शासन जयन्ती की उपयोगिता तभी है जब हम भगवान महावीर के उपदेशो को अमल में लाये । प० बाबू लाल जी कलकत्ता, प० प्रकाश हितैषी भारिल्ल, तथा ला० प्रेमचन्द जैनावाच वालों ने भगवान महावीर के सिद्धान्त अहिसा अनेकान्त तथा अपरिग्रह को अमल में लाने पर बल दिया ।
डा० गोकुल चन्द जैन ने अपने भाषण मे बतलाया कि भगवान महावीर के चिन्तन और सिद्धान्तो की व्याख्या धर्म और दर्शन के दायरे से हटकर विश्व चिन्तन के सन्दर्भ में प्रानी चाहिए, अब तक प्रायः उनके सिद्धान्तो की व्याख्या धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोणों से की गई है आवश्यकता इस बात की है कि आज के युग के परिवेश मे उनके उपदेशों का मूल्यांकन समाज शास्त्र और लोक-कल्याण की दृष्टि से किया जाय । अध्यक्ष पद से बोलते हुए डा० रामचन्द पाण्डे ने कहा कि भगवान महावीर और उनके सिद्धान्तों के बारे मे विद्वानों ने जो कुछ कहा है वह निश्चय ही तथ्यपूर्ण है। इसलिए हमें उन्हे अपने जीवन मे उतारने का यत्न करना चाहिए ।
अन्त में वीरसेवामन्दिर के उपाध्यक्ष ला० श्याम साल जैन ने अध्यक्ष, विद्वानों एवं उपस्थित समस्त श्रोताओं को धन्यवाद दिया और महावीर की जय के साथ महोत्सव समाप्त किया ।
प्रेमचन्द जैन मंत्री वीर सेवा मन्दिर
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भगत प्यारेलाल जी का समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास
पूज्य बाल ब्रह्मचारी भगत प्यारेलाल जी महाराज का समाधिमरण ज्येष्ठ सुदी ७ से चाल हमा ५ तोला गर्म जल से। ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रवार को दिन के एक बजकर पचास मिनट पर बड़े होशहवास में मरण हया । अन्त में जयपूर संस्कृत कालेज के प्रिसिपल पं० गुलाबचन्द जी पहुंच गये थे। उन्होंने खूब धर्म सुनाया तथा अग्नि संस्कार भी कराया। उनके पानेसे समाधि शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुई।
भगतजी को दिन तक १००/१३५ दस्त होते रहे। आपकी सेवा के लिए ईसरी से ब्र० प्रात्मारामजी भा आये थे। तथा बा. रूपचन्द जी तथा ब्र० चमेलोवाई जी ने बहुत ही सेवा की। भगत जी को तीव्र वेदना थी: किन्त उन्होंने परवाह न की। उनका समाधिमरण बड़े प्रानन्द से हमा। प्रतिदिन पड़े-पड़े सामायिक पाठ सुनते थे । शक्ति क्षीण हो गई थी पर उत्साह पूर्ण था। आपका त्याग प्रशंसनीय था, धैर्यशक्ति भी थी। उफ नही करते थे।
भगत जी का जन्म राजा खेडा के पास दिप्पी गांव में श्री नाथूराम जी जैन के घर मगशिर सदी ४ सम्वत १९४१ में हया था। पाप ईस्वी सन् १९४१ में आज से ५६ वर्ष पहले कलकत्ता पाये थे। पाठशाला में तो नही पढ़े थे। पर उस समय पं० गजाधरलालजी आदि से कुछ पढ़ लिया करते थे। इस तरह सस्कृत और प्राकृत भाषा का अर्थ करना सीख गये थे। गोम्मटसार की अङ्क संदष्टि प्राप चार-पांच जनों को १६३९ में पढाया करते थे। मुनि श्रुतसागर जी महाराज ब्र० सुरेन्द्रनाथ जी आदि सब उनसे पढ़े हैं।
जब आप कलकत्ता पाये तो स्व० बाबू छोटेलाल जी के बड़ भाई स्व० दीनानाथ जी तथा सेठ बलदेवदास जो से पूजन करते समय परिचय हुआ। स्वभाव से सादा जीवन तथा स्वाध्याय प्रेमी होने से दीनानाथ जी अापका भगतजी महाराज कहते थे। शुरू में १६१७ तक तीन वर्ष अापने कपडे को फेरी की थी। वह छडा दी गई और पाप सामाजिक, पूजन तथा स्वाध्याय में समय बिताने लगे। स्व० दीनानाथ जो का परिवार ग्रापको देवता की तरह मानता था । बड़े बूढे, स्त्री, बच्चे सभी पर प्रापका प्रभाव था। सेठ दयाचन्द जी, सेठ विरधीचन्द जी, सेठ बैजनाथ जा, सेठ हुकुमचन्द्र जी इन्दौर, सेठ भागचन्द जो इन्दौर, सेठ रतनलाल जी रांची, जगन्नाथ जी कोठरिया तथा हजारोबाग, गया, गिरीडीह, जियागज, प्रासाम, राजस्थान आदि के भाइयों पर आपका बड़ा प्रभाव था। चारित्र के आप ज्यादा पक्षपाती थे।
आप उदासोन पाश्रम इन्दौर तथा ईसरी के अधिष्ठाता थे, पीछे पद त्याग कर दिये थे। फिर भी दोनों पाश्रमों में आपकी सम्मति मानी जाती थी। अापने अपने खच के लिए किसी से पैसा नहीं लिया। अापने ४५ वर्ष पहले राजाखेड़ा में एक साधारण पाठशाला खोलो था। वह अाज एक विद्यालय के रूप में है। उसमें ३०० बालक और १०० कन्याएं पढ़ती हैं। पं० नन्हेलाल जी वर्षों से प्रधानाध्यापक के रूप में उसका संचालन करते हैं। भगतजी पं० जी को बहुत मानते थे और बड़ा स्नह करते थे। वर्तमान में विद्यालय का फण्ड २६००००) है और डेढ लाख के मकानात हैं। इसकी ट्रष्ट कमेटी के संरक्षक भगतजी थे । सभापति घमचन्द जी हैं, शान्तिलाल मंत्री हैं, और सदस्य नन्दलालजी, जगमन्दिरदास जी, रूपचन्दजी, श्यामलाल जी, हमकचन्द जी तथा सावित्रीबाई जी हैं।
नन्दलाल सरावगी
कलकत्ता
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अखिल भारतीय जैन जनगणना समिति
आवश्यक-पत्र मान्यवर, सादर जयजिनेन्द्र !
३-४ अक्तूबर १९९० शनिवार, रविवार को दिल्ली जैसा कि प्रापको विदित ही है कि देश की जनगणना में प्र० भा० जैन जनगणना समिति के अन्तर्गत जैन फरवरी १९७१ में हो रही है। भारत में जैनियों की सम्मेलन का प्रायोजन किया जा रहा है, जिसमें प्रत्येक संख्या एक करोड़ से कम नहीं है, किन्तु पिछली जनगणना प्रान्तों से जैन जनगणना समिति के प्रतिनिधियों एवं सभी में केवल २० लाख प्रायी है। इस सम्बन्ध में प्रापको सम्प्रदायों के कार्यकर्ताओं को प्रामत्रित किया जायेगा। सेवा में पत्र प्रादि भेजे गये हैं, जिससे आपको अखिल जिसमें केन्द्रीय समिति का पूर्ण गठन तथा जनगणना के भारतीय जैन जनगणना समिति" की गतिविधियो की कार्य को व्यापक रूप से चलाने के लिए योजनाओं पर जानकारी मिली होगी।
विचार-विमर्श होगा। आप समाज के एक स्तम्भ हैं। माप जानते ही है कि यह एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य प्रापका सहयोग समाज के प्रत्येक कार्य में मिलता रहा है। माज जिस समाज को शक्ति सगठित है उसकी बात है। हमें प्राशा है कि प्रापने इस महान कार्य में भी अपना का महत्व है । जैन समाज में प्रनको जाति, गोत्र, सम्प्र- योगदान दिया होगा जिसके लिए समिति प्रापको प्राभारी वाय है। जिन्हें हम अधिकतर अपने नाम के साथ लिखते है। यदि किसी कारणवश आप अपने बहुमूल्य व्यस्त हैं। जनगणना में उपजाति लिखाने के कारण समाज को जीवन में से इस महान कार्य के लिए समय न भी निकाल बहुत नुकसान उठाना पड़ा है।
सके हों तो आपसे निवेदन है कि आप अपने क्षेत्र व अन्य प्रागामी होने वाली जनगणना मे जैन समाज को क्षेत्रों में जहां-जहां प्रापका योग अनिवार्य हो वहां समय भूल सुधार कर अपन साथ जंन बताना एक धम के कालम अवश्य दे। क्षेत्रीय समितियों का गठन कराये तथा महिला न०१० में जैन लिखाना मावश्यक है। तभी इस महान समाज, स्वयसेवक एवं अन्य कार्यकर्तामो को तैयार करें कार्य मे सफलता प्राप्त हो सकती है। आप यह भी जानत कि वह अग्रसर होकर इस सन्देश को अपने हाथों में लेकर हैं कि यह काय किसी एक सम्प्रदाय या सस्था का नही, घर-घर, गांव-गांव पहुंचे। इस सम्बन्ध में जो-जो कार्य प्रत्येक जन का है । जैन समाज भारत क कोने-कोन म करने हैं उसका विवरण निम्नलिखित है, इसके अतिरिक्त रहती है और हमे उपरोक्त जानकारी प्रत्येक घर-घर मे जानकारीमा उपरोक्त पते पर प्राप्त कर सकते पहचाना है।
हैं। ३-४ अक्तूबर को होने वाले सम्मेलन में सम्मिलित इस कार्य हेतु देशव्यापी प्रचार हो रहा है, प्रान्तीय सोने के लिए अन्य कार्यों से बचा कर रख । व क्षेत्रीय समितियो का गठन कर इसके व्यापक प्रसार का प्रयास प्रारम्भ है। कई प्रान्तो व क्षेत्रों की समितियों
१-प्रप्येक जैन अपने को केवल "जैन" ही लिखाये का गठन हो चुका है। जिनका काय सुचारु रूप से
अन्य कोई जाति, गोत्र, सम्प्रदाय न लिखायें। चलना प्रारम्भ हो गया है। अन्य स्थानों पर भी समि- २-जनगणना के लिए सरकार द्वारा भेजे गये प्रषितियां गठित हो रही हैं जो अपना कार्य सुचारु रूप से कारी धर्म के कालम में केवल "जन लिखें अन्य प्रारम्भ करेंगी। जनगणना समिति के अधिकारी देश का किसी प्रकार का कोई सम्प्रदाय, गोत्र, जाति प्रावि भ्रमण कर समितियों के गठन कराने के प्रयास में लगे
चिन्हों को नहीं लिखें इसका घर-घर, गांव-गांव में व्यापक प्रचार करना।
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अखिल भारतवर्षीय जैन जनगणना समिति
६५ ३-जनगणना के समय गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले के लगाकर उपरोक्त जानकारी देना।
कार्यकर्ता सरकारी कर्मचारियो के साथ जाकर ७-स्वयंसेवक संस्थाएँ, नवयुवक-वर्ग तथा महिला ठीक-ठोक लिखाने का प्रयत्न करना।
समाज से सक्रिय सहयोग का अनुरोध करना। ४-प्रत्येक उत्सवों, सभात्रों तथा मेलों प्रादि र वसरों -जैन पत्रों में व्यापक प्रचार करना। पर इसके लिए व्यापक प्रचार करना ।
-जंन पत्रों के सम्पावकों, विद्वानों से अनुरोध करना ५-प्राचार्य, मनिगण साधु-साध्वी, महाराजानों से
कि वह अपने लेखों, भाषणो द्वारा इसका व्यापक
प्रचार करें। अनुरोध करना है कि वे अपने प्रवचनों एवं उनके दर्शनार्थ आये श्रावकों को प्रेरणा देवे कि प्रत्येक १०-अन्य संस्थानों से इस कार्य में सहयोग लेने का जैन, इस महान कार्य में योग दे तथा केवल जैन प्रयत्न करना। हो लिखायें।
प्रार्थी :६-प्रत्येक मन्दिर, उपाश्रय एवं अन्य स्थान जहां शीतलप्रसाद जैन,
सुकुमारचन्द जैन बहिन-भाई पाते है, उन स्थानों पर बड़े-बड़े पोस्टर
अध्यक्ष
महामन्त्री प्रत्येक स्थान की जैन समाज से अपील प्र० भा० जन जनगणना समिति पिछले एक वर्ष से लिखाना है। अन्य कुछ नहीं। साथ में यह भी निवेदन जनगणना के समय जैन जगत के बच्चे-बच्चे को क्या करते हैं कि आपके यहां बनी जैन जनगणना समिति को करना है इसके व्यापक प्रचार में लगी हुई है। कई बार हर प्रकार का योग देवें। जिन-जिन स्थानों पर समितियाँ हजारों स्थानों पर बड़े-बड़े पोस्टर भेज कर, समस्त जैन गठित नहीं हुई है वहाँ समितियों का गठन कराकर कार्य पत्रों में लगातार प्रचार सामग्री प्रकाशित कराकर, बड़े- प्रारम्भ करायें और केन्द्रीय समिति के कार्यालय २०४ बड़े महोत्सवों पर प्रचार सामग्री एवं अपने कार्यकर्ताओं दरीबा कलां, दिल्ली को सूचित करें जिससे कि केन्द्रीय के द्वारा प्रचार कराकर समिति के पदाधिकारी स्थान- कार्यालय उन्हें प्रचार सामग्री प्रादि भेजता रहे। स्थान पर भ्रमण कर समितियों का गठन कर इस कार्य १५ जलाई से चौमासा प्रारम्भ हो रहा है। हमारी में जुटे हुए है। यही कारण है कि प्राज समाज का बच्चा
समस्त जैन समाज के प्राचार्य, मुनिगण तथा अन्य त्यागी अपने कर्तव्य के प्रति सजग है कि आगामी जैन जनगणना
महाराज चार महीने एक ही नगर में रहेंगे। यह एक के समय हमें क्या करना है। इस कार्य की सर्वत्र व्यापक
बड़ा सुन्दर अवसर है कि प्रत्येक स्थानीय समाज जिन रूप से चर्चा है। समिति को जैन समाज की सभी सम्प्र
स्थानों पर प्राचार्य, मुनिराज व त्यागियों के चौमासे हो दायों तया संस्थानों का पूरा सहयोग प्राप्त है।
रहे हैं, प्रत्येक प्रवचन के अवसर पर, विशेष कार्यक्रमों जेसा कि समिति बराबर कह रही है कि यह कार्य पर इस सम्बन्ध में व्यापक प्रचार करें एव प्राचार्य मह.. महान है हमें यह सन्देश गांव-गांव, घर-घर, बच्चे-बच्चे राजो, मनिराजों तथा त्यागो महाराजों से भी इस महान तक पहुँचाना है। इसमें समाज को तभी सफलता मिलेगी कार्य के लिए समाज को अपने कर्तव्य-बोध के प्रति जागअब समस्त स्थानीय समाजें अपना उत्तरदायित्व समझकर रूक करायें। इस कार्य में जुट जावेगी व अपने प्रासपास के प्रत्येक
प्रार्थीगांव में बसने वाली जैन समाज तक यह सन्देश पहुंचाना
भगतराम जैन है कि हमें जनगणना में अपने को केवल "जैन" हो
मन्त्री, म. भा० जन जनगणना समिति
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साहित्य-समीक्षा
१.जन शोष और समीक्षा-डा. प्रेमसागर जैन विशेष जानकारी नहीं मिल सकी है। मलग्रथ संस्कृत के एम. ए. पी.एच. डी. बड़ौत, प्रकाशक ज्ञानचन्द बिन्दूका, २५२ पद्यों में समाप्त हुआ है। क्षुल्लक जी ने अनुवाद मंत्री श्री दि० प्रतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, जयपुर। अच्छा किया है। इस प्रथ की प्रस्तावना के लेखक डा. पृ० २३६, मूल्य सजिल्द प्रति का १०) रुपया। कस्तूरचन्द जी कासलीवाल है इस तरह यह प्रथ बहुत
प्रस्तुत पुस्तक मे १० निबन्ध दिये गये है। जो । उपयोगी बन गया है । इसके लिए क्षल्लक जी धन्यवाद विभिन्न समयों में लिखे गये है। उनके नाम इस प्रकार के पात्र है । उनको साहित्यिक लगन श्रेष्ठ है और मौजहैं-१. भगवान महावीर और उनके समकालीन साधक, मावाद जैन समाज की ग्रन्थ प्रकाशन योजना भी उपयोगी २. जैन समाधि और समाधिमरण, ३. जैन भक्ति काव्य, और अनुकरणीय है। स्वाध्यायप्रेमियों को इसे मगा कर ४. जैन अपभ्रश का हिन्दी के निर्गण भक्ति काव्य पर पढ़ना चाहिए। प्रभाव। ५. हिन्दी के आदिकाल में जैन भक्ति परक ३. जिन सहस्रनाम-प्रदीप - सम्पादक प्रकाशक कृतियाँ, ६. जैन परिप्रेक्ष्य में मध्ययुगीन हिन्दी काव्य । अशोक भाई, मत्री श्रमण संस्कृत प्रचारक समिति, देहली। ७. कविवर बनारसीदास की भक्ति साधना, ८. मध्य- इस पुस्तक मे दो सहस्रनामो का संकलन हिन्दी कालीन जैन हिन्दी कवियो की शिक्षा-दीक्षा, ६. मध्यका- अर्थ और मूल के साथ किया गया है। प० आशाधर जी लीन जैन हिन्दी कवियो की प्रेम साधना, १०. मध्यका- के सहस्रनाम का अर्थ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कालीन जैन हिन्दी काव्य मे शान्ता भक्ति ।
सहस्र नाम से दिया जान पड़ता है। जिनसेनाचार्य के इनका विषय नाम से स्पष्ट है। ये मब निबन्ध प्रायः सहस्र नाम का अर्थ सामान्य रूप में दिया गया है हा, पत्रों प्रादि में प्रकाशित हो चुके है । उनमे जिस-जिस विषय दोनो के मत्रो का उल्लेख अवश्य है, पुस्तक स्वाध्याय की चर्चा की गई है उस पर लेखक ने अच्छी तरह विचार प्रेमियो के लिए उपयोगी है । प्राशा है प्रेमीजन उसे मंगा किया है । लेख अच्छे और प्रभावक है। महावीर तीर्थ- कर अवश्य पढ़ेंगे। क्षेत्र कमेटी ने इन निबन्धों को पुस्तकाकार प्रकाशित कर ४. महावीर जयन्ती स्मारिका-इसके प्रधान सपासराहनीय कार्य किया है, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र दक भवरलाल पोल्या का है और प्रकाशन राजस्थान जैन हैं। प्रकाशन सुन्दर है मंगाकर पढना चाहिए। सभा, जयपुर, मूल्य २) रुपया।
२. आराधना समुच्चय-कर्ता रविचन्द्र मुनि, संपा. प्रस्तुत स्मारिका महावीर जयन्ती पर प्रकाशित होती दक और टीकाकार क्ष. सिद्धसागर जी, प्रकाशक दि० है। स्मारिका में अच्छे लेखो का चयन किया गया है। जैन समाज, मौजमाबाद (जयपुर, राजस्थान) मूल्य १) सभा के संचालक मोर सम्पादक मण्डल इसकी उपयोगिता रुपया।
के लिए प्रयत्नशील है। आशा है भविष्य मे पत्रिका प्रस्तुत ग्रंथ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । ग्रंथ और भी समुन्नत हो सकेगी। इस उपयोगी प्रकाशन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप के लिए सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद इन चार आराधनामों के स्वरूप पर विचार करते हए के पात्र है। माराधना का उपाय और उसके फल का निर्देश किया है। ५. अणुव्रत (साधना विशेषांक)-सम्पादक रिषभमलग्रन्थ के कर्ता मुनि रविचन्द हैं। उनके सम्बन्ध में कोई दास रांका। प्रकाशक बालचन्द जी म. भा. अणुव्रत
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ममिति छतरपुर गेड महगेली, नई दिल्ली। विशेषाक का यद्यपि जहा-नहा विज्ञापनों की भरमार है, फिर भी पत्र मूल्य ३ रु. ५०प० ।
अपने उद्देश्य में अवश्य सफल हुआ है । सन्तों की माधना प्रस्तुत माधना विशेपाक अणुव्रत पाक्षिक काही का मागप्रशस्त है। यह मवमाधारण जानत है। छपाई विशेष रूप है । इस प्रक में माधना के सम्बन्ध मे उप- मफाई उत्तम है। अक पठनाय है। इस मब के लिए योगी सामग्री का चयन किया गया है। अनेक लग्य उच्च मम्पादक प्रकाशक धन्यवाद के पात्र है। कोटि के विद्वानों द्वारा लिखे गये है । जो माधना के स्व
-परमानन्द शास्त्री रूप और उसके फल पर अच्छा प्रकाश डालते है । अक में
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट,
१५०) श्री जगमोहन जी सरावगी कलकत्ता श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कस्तूरचन्द जो प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , पं० बाबुलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नयमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पाड्या, कलकत्ता २११) श्री शिखरचन्द जी झाझरी, कलकत्ता
१५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, राची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५. श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाय जो नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी
१०१) , मारवाड़ी वि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता
१०१) , मेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
१०१) ,, सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
१०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी,
नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या झूमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , सेठ दानमल होरालाल जी, निवाई (राज.) २५०) श्री बी. पार० सी० जैन, कलकत्ता.
१००) , बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जो, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोग्या इन्दौर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62
पर्युषण पर्व के उपलक्ष में पौने मूल्य में (१) पृरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे
उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेपणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम.ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित।
... २-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि मे अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-महित १.५० (६) युक्त्यनुशामन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था। मुख्तार थी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १२५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विपयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना मे युक्त, सजिल्द । .. ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह. उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विपयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित (१२) अनित्यभावना-प्रा. पचनन्दीकी महत्वको रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्ध सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
स्या स युक्त। ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ ।
१-२५ (१५। महावीर का सर्वोदय तीर्थ ·१६ मे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १९ पैसे, (१७) महावीर पूजा १६ (१८) अध्यात्म रहस्य-प. पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित ।
१.०० (१९) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह। पचपन
____ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मंख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-सघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
.... ... २००० (२३) Reality मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े भाकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
४-००
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@ मासिक
प्रगस्त, १९७०
3ণবান
दिल्ली दरवाजे की कलापूर्ण धातु मूर्तियां
HD
[ला० पन्नालाल अग्रवाल के सौजन्य से]
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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पृष्ठ
| देगे।
११०
विषय-सूची
अनेकान्त को सहायता विषय १. जिनवर स्तवनम्-मुनि पद्मनन्दि
२१) श्री जगमोहनलाल जी जैन कलकना ने इक्कीस २. पावा कहां गंगा के दक्षिण में या उत्तर मे - रूपया अनेकान्त को सहायतार्थ सधन्वाद प्रदान किया मुनि महेन्द्रकुमार जी प्रथम
है, प्राशा है अन्य दानी महानुभाव इस ओर ध्यान ३. भारत मे वर्णनात्मक कथा सहित्य
डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् ६ नलपुर का जैन शिलालेख-पं. रतनलाल
व्यवस्थापक 'अनेकान्त कटारिया
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज ५. जैन विद्वानों द्वारा रचित सस्कृत के शब्दकोश
दिल्ली। -अगरचन्द नाहटा
११५ ६. ढूंढाणी कवि ब्रह्म नाथू की रचनाएडा. गगाराम गर्ग
११६ ७. उद्बोधक पद-मंगतराम चिलकाना वासी १२१ ८. सम्राट् का अधूरा सपना -
अनेकान्त के प्रकाशन में बिलम्ब का श्री बाबू सुबोधकुमार
१२२ ६. दिल्ली पट्ट के मूल सघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र
कारण -परमानन्द जैन शास्त्री
१२६
अनेकान्त के इस प्रक का सितम्बर के अन्त में १०. मथुरा के सेठ मनीराम-परमानन्द शास्त्री १३१.
प्रकाशित करने की योजना थी। और मेटः भी प्रेस को दे ११. राजस्थानी लोककथानों मे अभिप्राय और कथानक
दिया था किन्तु मम्पादक के अत्यधिक बीमार हो जा, रूढियो की सीमा रेखाए-श्री रमेश जैन १३३
से वैमा न हो मका । सम्पादक ने तो बुखार । १२. १३वी शताब्दी के विद्वान हरिभद्र :
कमी होते ही पागे का मैटर भी तैयार कर के दिय' एक अध्ययन-परमानन्द शास्त्री
किन्तु पुन' बुखार ने जोर पकड़ा, और बंद्यो के इलार जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और उनका
से कोई लाभ नहीं हुआ, तब वृष्णनगर के प्रसिद्ध ड साहित्य-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
अरोडा का इलाज किया, उसके परिणाम स्वरूप बुम एम. ए. पी. एच. डी.
नो चला गया परन्तु कमजोरी अत्यधिक हो गई है। १४. ब्रह्म यशोधर-परमानन्द शास्त्री
धीरे-धीरे पूरी होगी। १५. चतुर्माम मध्य विहार : प्राचार्य श्री तुलमी
व्यवस्थापक -मोहनलाल बाठिया
'अनेकान्त'
वीर सेवामन्दिर २१. दरिसम्पावक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये
दिल्ली। डा० प्रेमसागर जैन
श्री यशपाल जैन
परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया
भनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम् एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पंसा | मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त
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प्रोम् अहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६६, वि० म० २०२७
- अगस्त
ने
१९७०
जिनवर-स्तवनम्
दि तमम्मि जिरणवर समयामयसायरे गहीरम्मि । रायाइदोसकलुसे देवेको मण्णए सयारणो ॥१४ दि तमम्मि जिरणवर मोक्खो अइदुल्लहो वि संपडइ । मिच्छत्तमलकलंको मरणो रग जइ होइ पुरिसस्सा ॥१५
-मुनि पद्मनन्दि
मर्थ-हे जिनेन्द्र ! सिमान्तरूप अमन के समद्र एवं गम्भीर ऐसे अापका दर्शन होने पर कौन-सा बतिन मनुष्य रागादि-दोपो से मलिनता को प्राप्त हए देवो को मानता है ? अर्थात्-कोई भी वद्धिमान रुप जाडे नही मानता है ?
हे जिनेन्द्र । यदि पुरुष का मन मिथ्यात्वरूप मल से मलिन नहीं होता है तो आपका दर्शन होने पर न दुर्लभ मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है ॥१४-१५ ।।
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पावा कहाँ ? गंगा के दक्षिण में या उत्तर में ?
मुनि श्री महेन्द्रकुमार जो 'प्रथम'
इतिहास और परम्परा जब एक-दूसरे को साथ लेकर निकटवर्ती पावा उस समय मागधो के अधीन थी। मामध! चलते है, बहुत सारे तथ्य प्रामाणिक हो जाते है और और गणराजापो के बीच ज्वलत शत्रुता थी। शत्रु प्रदेश उन्हे सुगमता से मान्यता मिल जाती है। किन्तु परम्परा में उनका जाना कतई मम्भव नही हो सकता। गगा के जब इतिहास का साथ छोड़ देती है, वह श्रद्धा युग में उत्तरी अचल मे गणराज्य थे। वे अपनी राज्य मीमा में चली जाती है और उसकी सर्व मान्यता सदिग्ध हो जातो भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव में सम्मिलित हुए है, यही है। इतिहास परम्परा को साथ लेकर पुष्ट होता है, पर यथार्थना के अधिक निकट है। उसके साथ न रहने पर भी उसके अस्तित्व को कोई भगवान् महावीर ने अन्तिम वर्षावास से पूर्व का वर्षाचुनौती नहीं दे सकता। किन्तु कई बार इमका उल्टा भी वास गजगृह मे किया। प्रतिम समय तक उनका शरीर होता है । परम्परा इतिहास को इतना धुधना कर देनी है नीगंग था और उन पर वाक्य का भी कोई विशेष अमर कि यथार्थता बिलकुल मोझल हो जाती है। ऐसा ही नही था। गजगिर मे वर्तमान पावा की दूरी केवल सातउत्तर प्रदेश के 'पण्डुर' गाव के साथ हुआ है। परम्परा पाट मीन है। प्रश्न होता है, पाठ पहीनो की अवधि मे ने उसके इतिहास को अनगिन परतो के नीचे दबा दिया क्या उन्होने इतना ही विहार किया होगा? मम्भव है, है । आवश्यकता है, उस इतिहास को पुनः उभारा जाये। उन्होने लम्बा बिहार किया है और गगा के दक्षिण अचन
'पपहर' वर्तमान में देवरिया जिले में है। आज से में वे उत्तरी प्रचल में पाये है। ढाई हजार वर्ष पूर्व यह 'अपापापुरी', 'पावा' आदि नामो दीघनिकाय अट्ठकथा (सुमगल विलासिनी) मे बताया से भी ख्यिात था । इतना ही नहीं, राजा हस्तिपाल की गया है, 'पावा नगर तो तीणि गाबुतानि कुमिनाग नगर' राजधानी होने का भी गौरव इसे प्राप्त था। भगवान् पावा से कसिनारा की दूरी तीन गव्यूत (तीन कोस) है। महावीर ने अपना अन्तिम वर्षावास भी यही किया इससे भी स्पष्ट ध्वनित होता है कि पावा एक ही नही था और यही से कार्तिक अमावश्या को ये निर्वाण प्राप्त दो है । एका गगा के उत्तर में तथा दूसरा दक्षिण में । हुए थे । परम्परा ने इस गाव को इतना पीछे धकेल दिया उत्तरी पावा क्रमश. परम्परा की निगाह से ग्रोभल होती है कि विद्वानो के अतिरिक्त सामान्य जनता इस तथ्य को गई और दक्षिण पावा को मान्यता मिलती गई । इतिहास स्वीकार करने को भी तैयार नही है।
ने पुनः करवट ली है। अणुव्रत परामर्शक मुनिश्री नगगज भगवान् महावीर का निर्वाण-स्थल परम्परा के अन- जी डी लिट०, महापडित राहुल साकृत्यायन आदि विद्वानों सार पटना जिले में गगा के दक्षिण प्रदेश मे राजगिर की ने अपनी गोध के आधार पर उपेक्षित उत्तरी पावा की समीपवर्ती पावा को बतलाया जा रहा है। वहा के भव्य पोर पुन' जन सामान्य का ध्यान प्राकर्षित किया है। मन्दिरो ने उसे एक जैन तीर्थ बना दिया है, पर इतिहास चार वर्ष के बाद भगवान महावीर की २५ सौवी इसे स्वीकार नही कर सकता। इसके कुछ मुख्य कारण निर्वाण शताब्दी के अवसर पर उत्तर प्रदेश का उपेक्षित हैं । इतिहास के अनुसार यह सर्वसम्मत मान्यता है कि ग्राम 'पपहर' पुन' अपनी ऐतिहासिक महत्ता को प्राप्त भगवान् महावीर के निर्वाण के समय नौ मल्लकी तथा नौ कर सकेगा; ऐमी सम्भावनाए अब प्राकार लेने लिच्छवी; अठारह गणराजा उपस्थित थे। राजगिर की लगी है। *
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. पी. एच. डी.
[गत किरण २ से प्रागे] कथात्मक रचनात्रों का सर्वेक्षण
वर्डस]' से ही उल्लेख किया गया है। कही-कही एक ही कितने ही भण्डारो मे ऐसे अनेक हस्तलिखित प्रथ दृष्टान्त की एक से अधिक कथाए दी गई है । उदाहरणार्थ हमे मिलते है जो कथानको के संग्रह है और उनके नाम चौथी गाथा में यह कहा गया है कि पूजा-प्रणिधान में भी हमे वृहटिप्पणिका,' जैनग्रन्थावली और जिनरत्न- प्रात्मा स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है जैसे कि जिनदत्त, सूरकोग' मी मूचियो में मिलते है। मन्तिम मूची एकदम सेना, श्रीमाली और गरनारी ने प्राप्त किया था। प्रथम दिनाप्त और परिपूर्ण है और इसके मकलनकार है प्राचार्य की १७ गाथानो मे, जिनका अध्ययन ही मैने किया है, ह. द. वेलनकर। यह सूची बडे ही परिश्रम से तैयार मब कथाए-जिन पूजा और साधू-दान पर ही है। इन की गई है। इमे निघट राज [कैट लोगस कट लोगोरम् गाथानो की सम्कृत टीका में दष्टान्त कथाएं प्राकृत में दी कहना ही उपयुक्त होगा। जो सर्वेक्षण यहां प्रस्तुत किया गई है और गद्य-पद्य दोनो ही का मिश्र प्रयोग उनमें किया जा रहा है. वह प्रधानतया इमी निघण्ट राज पर ही गया है। प्राचार्य जिनवियजजी ने मुझे सूचना दी है कि वर्षमाधारित है जिसके कि अग्रिम फरमो का उपयोग संक- मानमूरि के शिष्य श्री जिनेश्वरमूरि ने ही ये गाथाएं और लमकार एवम् प्रकाशक दोनों ही के सौजन्य से, करने का उनकी कथा की रचना इस वर्तमान रूप मे की है हालाकि सुयोग मुझे प्राप्त हो गया था। हस्तप्रतियो के सूक्ष्म परी- यह भी असम्भव नही है कि उन्होने प्राचीन सामग्री भी क्षण बिना एक कथाकोश का दूसरे से विभेद करना दुरुह इसमे सम्मिलित कर दी हो।' कथाकार ने भागमांश और काम है। इसलिए मैने इस सर्वेक्षण मे उन्ही ग्रन्थो का
४. एक कथाकोश हरिभद्र का भी कहा जाता है। देखो, विचार किया है कि जो विभेद किये जा सकते थे और
जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० १६८। परन्तु अभी जिनके विषय मे कुछ विशेष सूचना भी प्राप्त हो सकती
तक न तो कही यह उपलब्ध ही हुआ है और न इक
का पता ही लगा है। १. कथाकोश [कथानककोश या कथाकोश-प्रकरणम्]
"] ५. पेटर्सन [प्रनिवेदना 6, पृ. ४४] कहता है : 'माशा-हटिप्पणिका के अनुसार यह २३६ गाथाओं का एक
पल्ली में सं. १०६२ मे रचित एक लीलावती कया प्राकृत ग्रन्थ है। इसकी प्रारम्भिक गाथा ही मे लेखक
और डिण्डियानक ग्राम में एक कथानककोश है । देसाई ने घोषणा कर दी है कि वह कुछ ऐसे नायस, दृष्टान्त
के मतानुमार [जैन माहित्यनो इतिहास, पृ०२०८], बा प्रादर्श कथाएँ कहेगा कि जिनसे मुक्ति प्राप्त हो
उसने स. १०८२-१०६५ के बीच एक कथाकोश की सकती है। गाथाओं में कथानों का 'शब्दघोष [कैच
रचना की थी। वृहट्टिप्पणक मे स. ११०८ दिया है। १. जनसाहित्य सशोधक, भाग २ खन्ड २।
इसलिए इस कथाकोश को ११वी सदी के द्वितीयपार्ट २.जैन श्वेताम्बर कान्फस, बम्बई द्वारा स. १९६५ में का समय दिया जा सकता है। विण्टरनिटज [भासाइ. प्रकाशित ।
पृ. ५४३] ने ई० १०६२ का समय दिया है । ऐगा ३ भाण्डारकर मोरियंटल रिसर्च इस्टीटयूट, पूना द्वारा लगता है कि उसने संवत् को सन् भूल से मान बीघ्र ही प्रकाशित किया जा रहा है।
लिया है।
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१००, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशम कुछ श्लोकभी उद्धृत किये है। कर सकता है । मुश्रावक होने के लिए व्यक्ति मे सामान्य
२. कथाकोश-यह २७ कथानको का एक संग्रह है। पौर विशेष दोनों ही गुण होना चाहिए। सुश्रावक के घनद की कहानी से यह प्रारम्भ होकर नल की कहानी में सामान्य गुण है तैतीस [३३] जिनमें सम्यक-दृष्टि और समाप्त होता है। ये कहानिया, पूजा और अन्य पुण्ण कार्यो उसके आठ अतिचार, धर्म में श्रद्धा, देव-मदिर और साथ एवम् घामिक व्रतो के फल, चार कपायो के प्रभाव एवं को सस्था की, प्रास्था पूर्वक सहायता करना और करुणा वैरागी जीवन के परिणाम सबन्धी है । टानी के मूल्यां• दया, आदि मानवी वृत्तियों का पोषण करना समाविष्ट कनानुसार, ये कहानियां भारतीय लोकवार्ताओं को यथार्थ है। विशेषगुण १७ है जिनमे पाँच अणुव्रत, सात शिक्षावत अंश ही है, परन्तु उन्हें किसी जैनाचार्य ने अपने धर्म के और सवरण एव त्याग महित कुछ अनावश्यक समाविष्ट अनुयायियों के गौरवगान का रूप देकर अपने ढंग से फिर है। इन गुणो के अनुरूप ही दान्तिक कथाएं इस कथा. से सम्पादन कर दिया है। वर्तमान रूप मे तो ये कम से कोश में प्राकृत की यहा वहां सस्कृत के श्लोकों वाली दी कम जैनाचार एव सिद्धान्त का दाष्टान्तिक चित्रण ही गई है । यह कथाकोडा बहुताश पद्य मे ही लिखा गया है, करती है । यह अथ संस्कृत में है परन्तु बीच-बीच में इसमे यद्यपि कहीं-कही कुछ प्रश गद्य में भी दिए गए है। प्राकृत गाथाए भी मिली हुई है। इसके लेखक का नाम धार्मिक और प्रौपदेशिक शिक्षा कथामो द्वारा देना ही नही दिया गया है और इसकी रचना का निश्चित ममय इसका प्रधान लक्ष्य है। इनसे प्रभावित होकर व्यक्ति निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसमें तीन गजानो का मुविनीत गृहस्थ वनेगा यही पाशा रखी गयी है। नाम, यथाकर्क, अरिकेसरिन और मम्मण पाया है और ४. शभशील का कथाकोश, [भरतेश्वर-बाहुबलिइनका ईस्वी १०वी-११वी शती को कर्णाटक की राज- वृत्ति]-तेरह गाथा की यह प्राकृत रचना 'भरहेसर वशावली मे पता मिलता है। इन उल्लेखो से डा० सले. बाहबलि' वाक्यावली से ही प्रारम्भ होती है। यह कदाटोर ने यह मत दिया है कि 'इस ग्रथ की रचना ११वीं चित् नित्य-स्मरण की ही एक स्तुति है। इसमे १०० सदी ईसवी के चतुर्थ-पाद पश्चात् ही हुई होगी, यह परि- महान व्यक्तियो के नाम स्मरण किए गए है। इनमे ५३ णाम निकालना अनुचित नहीं कहा जा सकता है।" पुरुष [पहला भरत और अन्तिम मेघकुमार] और ४७
३. कथाकोश [कथारत्नकोश] - इमकी रचना स्त्रियां [पहली मुलसा और अन्तिम रेणा] है कि जो भडोंच में वि० स० ११५८, ई० ११०१ मे हुई और इसके धार्मिक-वैरागिक साधनामो के लिए जनो मे सुप्रख्यात है। रचयिता थे प्रसन्नचद्र के शिष्य, देवभद्र । जैन तीर्थकरो अधिकांश तो इनमे प्राचीन जैन साहित्य में उल्लिखित के सिद्धान्तानुसार, मुक्ति का मार्ग उन्ही अच्छे माधुप्रो एवम् वणित दान्तिक कथानों, कथाम्रो उपवाथानो के और प्रच्छे श्रावकों को प्राप्त होता है कि जो अपने-अपने ही पात्र है । इनका उल्लेख सुयगडॉग, भगवई, नायाधम्मव्रतों में निष्णात हैं । और अच्छा श्रावक हुए बिना एक कहानो, अन्तगड, उत्तराध्ययन, पइन्नय, आवस्सयव-दशअच्छा साधू नही हुमा जा सकता है। जो अणुवतो का वैकालिक-निज्जुत्ति और टीकानों में है। मूल प्राकृत भली प्रकार पालन कर सका हो, वही महाव्रतों का पालन गाथानो मे तो इन नामो की शृखला मात्र दी गई है। ६. यह ग्रन्थ इस समय मुद्रघमाण है और मै श्री जिन- प्रादि मे जैन साहित्य के विशाल श्रेत्र से पूर्ण परिचितों विजयजी का आभारी है कि मुझे उनने इसके १३ में ये व्यक्तियों बिलकुल परिचित ही होंगी। परन्तु बाद फारम अग्रिम भेज दिए।
मे मूल पर परिपूर्ण टीका एवं कथानों के पूर्ण वितरण की ७. इस कथाकोश का अंगरेजी में अनुवाद सी. एच.
आवश्यकता प्रतीत होने लगी होगी। इसीलिए तपागच्छ टानी का किया मोरियटल दासलेशन फंड, सिरीज नई २, लदन १८६५ में प्रकाशित हुमा है।
६. श्री जिनविजयजी का प्राभारी है कि जिनने कृपा ८.जैन एण्टीक्वेरी, पाग १६३८, भाग ४. स. ३, पृ. कर ६० पत्रों के छपे फारम मुझे अग्रिम भेज दिए । ७७-८० ।
ग्रन्थ मुद्रघमाण है।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
मुनिसुन्दरगणि के शिष्य शुभशीलगणि ने इसकी मम्कृत मूल-श्रोत, साहित्यक आधार, या अन्य कथाकोशों से टीका लिखी और उसी मे गद्य-पद्य मिश्रित कथाए कितना और कैमा सम्बन्ध है ? मैने कुछ का सरसरी भी दी कि जिनमें यहां-वहां प्राकत के उद्धरण भी है। गति मे उनकी स्थिति आदि जानने के लिए निरीक्षण वृत्ति मे सब कथाए ही कथाए है और इसीलिए इसे किया है और उसके परिणाम स्वरूप उनके कुछ तथ्य यहाँ कथाकोश का नाम भी दिया गया है। यह वि० स० देना हूँ : (१) १८८४.८७ की स. १२६६ । पत्र ४७ । १५०६ की रचना है।" शुभशील में वर्णनात्मक रचना अपूर्ण । चन्द्रप्रभ की स्तुति से यह प्रारम्भ होता है और करने की विशेष प्रवणता प्रतीत होती है। उमने अनेक इसमे संस्कृत में पारामतनय, हरिषेण, श्रीषेण, जीमूतग्रन्थों के अतिरिक्त, पचास्तिप्रबोधसम्बन्ध" भी लिखा है वाहन प्रादि-ग्रादि की कथाएं दी हुई है। (२) १८८४. जिसमे लगभग ६०० कथा, पाख्यायिका, सिद्धो की ८७ की सं. १२६७ । इसमे सम्यक्त्व-कौमुदी-कथा नाम से जीवनी, नीतिकथा, काल्पनिक कथा प्रादि-आदि है और सामान्यतया परिचित कथाए दी गई हैं । प्रारम्भ का गद्य उनमें से कुछ नन्द, सातवाहन, भर्तृहरि, भोज, कुमारपाल, कुछ दूसरी तरह का है और वह इस प्रकार का है-- हेमसूरि प्रादि प्रादि ऐतिहासिक व्यक्तियो, गजो, गोडदेशे पाडलीपुग्नगरे आर्यसुहस्तिसूरीश्वगः। त्रिषण्डग्रथकारो, प्राचीन एवं अर्वाचीन, को परिलक्षित करती भरताधिपसप्रतिगज्ञोऽग्रे धर्मदेशना चकुरेव, भो भो भव्या
आदि-पादि। इसमें सबसे अन्त की कथा है पात्रदान५. श्रुतसागरका संस्कृत कयाकोश [वतकथाकोष] दार्टान्तिक धनपति की। यद्यपि यह सस्कृन का ग्रन्थ है -इसमे बत, धार्मिक क्रियाएं और नियम जिनमे प्राकाश- परन्तु यहा वहा प्राकृत गायाए भी उसमे दी हुई है। पचमी, मुक्तासप्तमी, चन्दनषष्टि, आष्टाह्निक प्रादि-आदि (३) १८८४-८७ का स. १२६८ । इसमें प्राकृत मे कथाए अनुष्ठान व तप की कथाए है। लेखक मूलसघ, सरस्वती दी गई है और वे गध-पूजा [शभनि ग्रादि द्वाग], घपगच्छ, बलात्कार सघ[गण]का है और उसके गुरु थे विद्या- पूजा [विनयधर आदि द्वाग] आदि-आदि पर दृष्टात प नन्दी। उसने अपना समय यद्यपि नही बताया है, फिर भी है। प्रशस्ति और कुछ प्रश सस्कृत में है। यह हरिसिंघअनेक बाह्य साक्षियों द्वारा उसे १६वी सदी विक्रमी का समय गणि द्वारा मारगपुर मे रचा गया था। (४) १८८४दिया जा सकता है। इसने कुन्दकुन्द के पाहुडों पर को ८७ का स. १२६६ । प्रनि बहुत बिगड़ो और बड़ी बुरी अपनी संस्कृत वृत्ति मे भी कुछ कथाएं दी है।
तरह लिखी गई है। इसमे अमरचन्द्र [भावना विषयक ], ६. कथाकोश"-पूना के भण्डारकर प्राच्य मन्दिर विक्रमादित्य [पारमार्थिक मंत्री विषयक], धादि के कथाके सरकारी सग्रह विभाग में कुछ हस्तप्रतियाँ उपलब्ध है नक दिए है। वैतालपचवीसी भी पृ० १९ मे उद्धृत है, जिन्हे 'कथाकोश' कहा गया है। उनके रचयितामो के और अपभ्रंश एवम् प्राचीन गुजराती मे भी छोटी-छोटी विषय मे कुछ भी सूचना प्राप्त नहीं है और न वर्तमान कुछ कथाए है। इसकी समाप्ति सम्भवतया पचतत्र की स्थिति मे यही कहा जा सकता है कि इन कथाकोशो का एक पशुकथा में होती है। (५) १८८४-८६ का स.५८२ ।
इसमे सस्कृत श्लोको के बाद ही दान्तिक कथाएं दी १०. देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार माला सं. ७७ और
गई हैं। उनमे कुछ जिनप्रभसूरि, जगसिह, सातवाहन ८७, बबई से १९३२ और १९३७ मे यह प्रकाशित हो गया है।
जगडुशाह आदि-आदि के प्रबध भी हैं। (६) १८८४.८६ ११. मे पेटरसन की प्रतिवेदनाए, ३ पृ. ७१, विण्टरनिट्ज
का स. ५८३ । यह ग्रन्थ दोनों ओर से ही भुसा हुआ है। भासाइ भाग २ पृ० ५४४ मादि ।
यह सस्कृत में है और इसमे सस्कृत, प्राकृत दोनो ही प्रकार १२. प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४०६-११।।
के उद्धरण है। इसमे भी सम्यक्त्व-कौमुदी की ही कथाए १३. कई माराधना कथाकोशों का विचार प्रागे किया कदाचित् है । (७) १८६१-६५ का स. १३२४ । यह भी जाएगा।
मुसा हुआ और अपूर्ण ग्रन्थ है । इसमे प्रसन्नचन्द्र, सुलसा,
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१०२, वर्ष २३ कि०३.
अनेकान्त
चिलातिपुत्र प्रादि की कथाएं सस्कृत गद्य में है। कही- है"। इसमे १४० प्राकृत गाथाए है। इसमे ग्रन्थ का नाम कहीं श्लोक भी है। (क) १८९१-९५ का स. १३२३ । धम्मक्खाणय-कोस दिया है। पाटण की हस्त प्रति जिसमें संस्कृत गद्य, प्राकृत-संस्कृत श्लोक-गाथामो के मेल वाले सस्कृत व्याख्या भी है, की तिथी वि. सं. ११६६ है। इस कथाकोश मे देवपाल की [देवपूजा के सम्बन्ध में], ८. कथा मणि-कोश [भाल्यानमणि-कोश -यह बाहुबलि की [मान के संबंध मे], अशोकदत्त की [माया देवेन्द्रगणि उर्फ नेमिचन्द्र की एक प्राकृत गाथाबद्ध रचना के संबंध में), मदनावली [वंदन पूजा के संबंध मे], की है जिसने सुखबोघा टीका, जो उत्तराध्ययन की प्राकृत" पादि-आदि कथाए है। कोई-कोई कथा प्राकृत गाथा से कथानो के लिए सुख्यात है, वि. स. ११२६ मे समाप्त की ही प्रारम्भ होती है । १८८७-६१ की स. १२६७ को प्रति थी। देवेन्द्र अपनी बोधगम्य शैली के लिए सुप्रसिद्ध है भी इसी प्रकार प्रारम्भ होती है और उसमे की कुछ और इसलिए ४१ अध्यायों के इस बृहद् ग्रन्थ की हस्तप्रति कथाए भी उसी के समान है। उपदेशमाला की गाथा को दस पक्षा की TERTAI . २४० याने 'वसही मादि' इसकी कुछ गाथो का माधार है। संस्कृत टीका जिनचन्द्र के शिष्य अमरदेव ने वि. स. (६) १८६१-६५ का स. १३२२ । मदनरेखा, सनत्कुमार ११६० मे, याने ग्रंथ प्रणयन के ठीक ६० वर्ष बाद" प्रादि की कथाए सस्कृत में दी गई है और बीच-बीच मे लिखी है। प्राकृत एवम् अपभ्रंश की गाथा भी उनमे है। (१०) ६.कथा महोदधि-हरि या हरिषेण का कर्पूरप्रकर" १९८४-८६ का स.४७८ । इसके पहले तीन पत्रों मे हरि- मा मुक्तावली १७९ इलोको का एक उपदेशो काव्य है । पेण का कथाकोश है, उसके बाद अपभ्रश को कथानो का इममे जैन धार्मिक और नैतिक सिद्धान्तो का विवेचन ग्रन्थ है जिसमे लगभग ५३ कथाए है। सुगन्धदशमी, किया गया है जो ग्रन्थकार के अनुसार ८७ है। यह षोडशकरण, रलावली [सस्कृत मे], निर्दोष सप्तमी वास्तव में कभी-कभी ही होता है कि एक व्यक्ति धार्मिक पादि-आदि वतों की कथाए है। इनके अतिरिक्त और भी बातावरण में जन्म ले, आवश्यक शिक्षा सस्कार पाये और कथाकोश है जिनके लेखक वर्षमान, चन्द्रकीति, सिंहमूरि, जैनाचार पर, प्रान्तर एवम् बाह्य सव अनुरोध को दवा चयतिलक, सकलकीर्ति, पद्मनन्दी, रामचन्द्र"पादि-मादि कर, जीवन यापन करे मोर अन्त में मुक्त ही हो जाए। है। परन्तु उनकी हस्तप्रतियां मुझे प्राप्त नहीं हो सकी इस उपदेशी काव्य का प्रत्येक पद बडी सुन्दरता से प्रस्तुब थीं। ७. कथानक कोश :--इसका रचयिता विनयचन्द्र
१५. पाटण की हस्तप्रतियों की सूची, भाग १ [गायकवाड़ १४. दिल्ली के नए दिगम्बर मन्दिर मे एक सस्कृत का
प्रो. ग्रंथमाल। सं.७६] पृ० ४२।। पुण्यात्रव-कथाकोश है। ऐसा ही एक ग्रन्थ कन्नड मे
१६. इनमे से कुछ का सम्पादन याकोबी ने अपने अन्य
लेपज़िग से १८८६ मे किया था और उनका अनुवाद नागराज का ई. १४३१ का लिखा हुआ है। सब
'हिन्द्र टेल्स' शीर्षक से मायर का किया हुमा लदन से मिला कर ५२ कथा है जिनमें पूजा प्रादि धर्म कार्यों
१९०९ में प्रकाशित हुमा है; देखो 'प्राकृत कथासग्रह' के दृष्टान्त रूप भरत, करकट, यम, चारुदत्त, सुकु- जिनविजयजी सम्पादित, अहमदाबाद से प्रकाशित मार, सीता प्रादि की जीवनियां दी गई है और उन्हें
भी है। बारह अधिकारों में विभाजित किया गया है। यह १७. देखो चाटियर सम्पादित उत्तराध्ययन में उसका चम्पू शैली में लिखा है और लेखक कहता है कि यह लिखा इट्रोडक्शन, पृ० ५६ आदि; पैटरसन प्रतिवेदसंस्कृत मंच पर प्राधारित है [कविचारते भाग १, नाए ४, पृ० ५६ [लेखक अनुक्रमणिका]; प्रतिवेः ३ पृ. ४०६-१२] 1 इस कन्नड ग्रन्थ का अनुवाद पृ० ७. प्रादि । मराठी मोवियों मे जिनसेन ने शक स. १७४३ याने १८. ग्रन्थ का प्रारम्भ ही 'कपूर प्रकर वाक्य से होता है. ई. १८२१ मे किया था।
मत यह नाम है।
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किया गया है और प्रसगानुकूल दृष्टान्तो द्वारा वह मम- १०. कथारत्नसागर-इसमे १५ तरग हैं और अंतिम झाया गया है। उदाहरणार्थ यह कहा गया कि नेमिनाथ कथा है अगडदत्त की । इमका रचयिता है तरचन्द्रसूरि", ने जीवदया का पालन किया इसलिए उन्हें प्राध्यात्मिक देवभद्रमूरि का शिष्य । पाटण को इसकी प्रति स. १३६१ लाभ पहुँचा, और रावण को पराई स्त्री की प्रासक्ति के को है। कारण ही दुःख भोगना पड़ा। प्रत्येक इलोक मे एक या ११. कधारत्नाकर-तपागच्छ के कल्याणविजयगणि अधिक दृष्टान्त रूप जीवनियां दी गई है। ग्रंथ की के शिष्य हेमविजयगणि ने म० १६५७ मे इसकी रचना समाप्ति तक पहुँचते-पहुंचते जीवन-दृष्टान्तो की अपेक्षा की है। जैसा कि प्रथकार ने कहा है, इसकी कुछ कथाएँ उसमे उपदेश अधिक से अधिकतर हो जाता है। अन्यकार परम्परा से कही सुनी जाती रही हैं, कुछ काल्पनिक है, हरिषेण वच सेण का शिष्य था, परन्तु इस ग्रन्थ की रचना कुछ की रचना अन्य प्राधारो से की गई है, तो कछ तिथी अभी तक भी निश्चित नही की जा सकी है। शास्त्रों में से ली गई है। दस तरंगो मे कुल २५८ कथाएं
इन कथामों का पूर्ण विवरण देने का काम टीकाकारों है। अनेक सरल सस्कृत गद्य मे लिखी हैं। बहुत थोड़ी ही पर ही छोड़ दिया गया था और छोटी-लबी सब मिला गभीर शैली मे है । इनी-गिनी संस्कृत पद्यो मे हैं। प्रत्येक कर इसकी १५० कथाए है"। रत्नशेखर के शिष्य, सोम- कथा का प्रारम्भ एक या दो उपदेशी गाथा या श्लोक से चन्द्र दाग वि. स. १५०४ के रचित 'कथामहोदधि' मे ये होता है । सारे ही ग्रन्थ मे संस्कृत, महाराष्ट्री, अपभ्रश, सब कथाए दी गई है। खरतरगच्छ के श्री वर्धनसरि के पुरानी हिन्दी पोर पुरानी गुजराती के उद्धरण प्रचुर परि. शिष्य श्री जिनसागर ने 'कर्पूर-प्रकर टीका' लिखी है। माण में पाए जाते है । महाभारत, रामायण प्रादि महाइसका समय सं. १४९२ से १५२० तक का कहा जाता
काव्य, भर्तृहरि के शतक, पंचतत्र, प्रादि-आदि से सुपरिहै। इस प्रकार यह लेखक सोमचन्द्र का समकालिक ही चित कुछ उद्धरण भा ह । ग्रथ का जन दृष्टिकोण उसके प्रतीत होता है। यह पहले तो गाथा की व्याख्या करता
प्रारम्भ के श्लोक, भाव और कथामोरे ही स्पष्ट हो है और फिर दृष्टान्तिक कथा सामान्यतया संस्कृत श्लोको
जाता है। इसमे शृगार से लेकर वैराग्य तक के विचारों मे ही देता है। कथा का प्रवेश पागमो या उपदेशमाला
और भावो का ममावेश है। विण्टरनिटज का कहना है जैसे ग्रन्थों के प्राकृत उद्धरणों, गद्य-पद्य दोनो में, देकर कि बहुत सी कथाए तो पंचनत्र और ऐसी ही कहानियों करता है। मैने 'कथामहोदषि' की कथानों का इसकी को अन्य पुस्तकों जैसी ही है, याने स्त्री-छल की कथाएं. कयामो से मिलान नही किया है। परन्तु दोनो कथाम्रो गुण्डो-बदमाशो की कथाएं, मूखों की कथाए, पशनों की के शीर्षक और क्रम समान हैं। दृष्टान्त मे शलाका-पुरुष कथाए, सभी प्रकार के विवरणो की माख्यायिकाएं जिनमें जैसे कि नेमिनाथ, सनत्कुमार प्रादि । ऐतिहासिक-प्रघं- कुछ ब्राह्मण एवम् अन्य मतावलबी की निदा या व्यंग की ऐतिहासिक व्यक्ति जैसे कि सत्यकी, चेल्लणा, कमारपाल भी है । पचतत्र के जैसे ही कथानो के बीच-बीच मे बुद्धिपादि भिक्षुरत्न जैसे कि अतिमुक्तक, गजसुकमाल मादि। मानी की कहावतें या उक्तिया भी है। कथामों की रचना पौर जैन परम्परा के अन्य धर्मभीरु नर-नारियों के दिए ढीली-ढाली है । वे सुदृढ ढाचे मे सजाई हुई मी नही है। गये हैं।
अधिकॉशत: ग्रन्थ दृष्टिकोण में यथाई रूपेण भारतीय ही
है। जैन ग्रन्थों में सामान्य रूप से माने वाले नामों के १६. इन कथामो की सूची के लिए देखो पेटरसन प्रतिवेदनाएं ३, पृ० ३१६-१६।
अतिरिक्त उसमे भोज, विक्रम, कालिदास, श्रेणिक प्रादि२०.जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से सन् १९१६ मे
आदि की माख्यायिकाएं भी है। कुछ भौगोलिक उल्लेख
भी उसमे बिलकुल आधुनिक हैं और दिल्ली चापानेर भोर प्रकाशित; एच. डी. वेलनकर का बनाई रा. ए. सो. बबई शाखा की सूची भाग ३-४ में सं. १७०५ और
महमदाबाद जैसे नगरों से सम्बन्धित कहानियां भी हैं । १७६८ देखो।
२१. पाटण की हस्तप्रतियों का कंटलोग भाग १, पृ. १४॥
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१०४ वर्ष २३ कि.३
अनेकान्त
सक्षेप में इसका विषय शिक्षादायक और मनोरजक दोनो तीसरे अंश की प्रारम्भ की गाथा १५४-१६०, को पप
मन्दिर ने परकृत याने बाद की बनी कहा है। १२. कथा रत्नाकर-यह ग्रन्थ संस्कृत मे है और १४. कथावली-यह भद्रेशवर का लिखा हुमा प्राकृत उत्तमर्षि इसका रचयिता है। उपलब्ध हस्तप्रति अपूर्ण है मे एक भारी गद्य-ग्रंथ है। इसकी अब तक एक ही प्रति और वह दूसरे खण्ड पर समाप्त हो जाती है। इसमें साधू पाटण मे पाई गई है। उस प्रति का संवत् १३६ [मस्तिम निंदा" का परिणाम दिखाने के लिए रुक्मिणी की कथा अक झड या टूट गया है। डा. याकोबी के अनुसार है, सम्मिलित है।
परन्तु दलाल के अनुसार वह सं. १४६७ की है। दलाल १३. कथार्णव-धर्मघोषमूरि [लगभग १३वी सदी भद्रेश्वर को कर्ण के गज्यकाल [१०६४-६४ ई.] का ई.] का इसिमण्डल या ऋषिमण्डल स्तोत्र २०० से २१८ समय देता है । जब कि याकोबी इस ग्रन्थकार को, बहुत गाया की रचना है जिसमे शलाका पुरुपो और उनके धर्म
का रचना ह जिमम शलाका पुरुषा भार उनक धम- करके वही भद्रेश्वर मानता है कि जो १२वी सदी विक्रमी पगयण समकालिको, प्रत्येक बुद्धों, जिनपालित जैसे काल्प- दितीया में उमा था। कछ भी हो, इस ग्रन्थ को निक वीगे, मेतार्य जैसे क्षमाशील मुनियो और महावीर के चन्द्राचार्य के परिशिष्टपर्व से प्राचीनतम तो मानना ही
का जिनम कुछ क जावन प्रसग भा होगा। इसमे ६३ शलाका पुरुपो का वृन है और कालको कुछ-कुछ दिए है मादि को पाद्वान-नमस्कार किया गया।
लेकर हरिभद्रमूरि तक के प्राचार्यों की भी जीवनिया दी है। इसमें से अधिकाश भागमो, नियुक्तियो और प्रकीण
हुई है । जहा तक इम द्वितीय विभाग की बात है, हेमचन्द्र की में भी पाए जाते है। जो प्रौपदशिक कथानो, गौरवा.
तो वज्रस्वामी की कथा लिख कर ही परिमिष्टपर्व समाप्त वित कथामो और वर्णनात्मक दृष्टान्तो में अनंतिहासिक
कर देने है, जबकि भद्रेश्वर श्रीहरिभरि तक अपनी कथा पात्र से प्रतीत होते है, मब यहा वैराग्य-वीर या जन
को ले पाता है। याकोबी कहत है५ 'सामग्री का संग्रह सघ की सुप्रसिद्ध व्यक्ति मानी गई है। टीकाकारा क लिए
युगप्रधानों के सम्पूर्ण इतिहास के लिए सबसे पहले कदाइन बावापो की व्याख्या में स्तोत्र में उल्लिखित व्यक्तियों
चित् भद्रश्वर द्वारा ही किया गया था। और इसकी की पूर्ण जीवनी देना इसलिए परमावश्यक था। प्राधे दजन
कथा मामान्यतया चूर्णिया और टीकामो में मिल रहे से अधिक वृत्तिवा इस स्तोत्र पर उपलब्ध है। प्राचीनतम
कथानको की अधिक माजित सस्करण ही है ।' भद्रेश्वर प्रति सं. १३८० को भौर नवीनतम स. १६७० की है।
और हेमचन्द्र की रचनामो के कुछ भेदो का विचार करने इमकी प्राकृत मे वृहद्वृत्ति पाटण के समूह मे है । खरतर- बाद. याकोबी कहते है, 'भद्रेश्वर को रचा मे साहिगच्छ के पनमन्दिर की वृत्ति 'कथार्णव' कहलाती है और त्यिक गुण कम है। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इतिहास वह वि. सं. १५५३ याने १४६६ ई० की है। उसमे की असम्बद्ध मामग्री का संग्रह मात्र है कि जो चणि और गावानो की व्याख्या भोर मारी कथाए सस्कृत अनुष्टप टीका के प्रचुर साहित्य से छांट ली गई है। कथावली छन्द में दी हुई है"। मूल स्तोत्र की कुछ गाथा जैसे कि हेमचन्द्र की स्थविगवली चरित्र से तुलना मे नीचा है २२. हीरालाल मराज, जामनगर वाले दारा मन , क्योकि स्थविगवनी चरित्र में जम्ब से वजन तक
मे प्रकाभित; हर्टल द्वाग सन् १९२० में जरमन भण्डारो को हस्तप्रतियो का मूचीपत्र पृ. १४, स. भाषा मे अनूदित; देखो विण्टरनिट ज : भासाइ भाग १२६, बड़ोदा १९२३; पाटण हस्त. की सूची, भान २०५४५।
१,१.११९ आदि। ०३. पेटरसन की प्रतिवेदनाए ४, पृ.८० ।
२५. याकोबी सम्पादित, बिबलोथिका इण्डिका, कलकत्ता २४. देखो श्री ऋषिमण्डल-प्रकरणम् प्रात्मवल्लभ पन्थ- से १९३२ मे प्रकाशित द्वितीय सस्करण, स्थविराबनी
माला सं. १३, वलाइ १९३६, उसका इण्ट्रोडक्शन चरित्र को देखो। पाटण हस्त. की सूची भाग १, पृ. विशेष हासे, जैन ग्रन्थावली. प. १७ण; जैसलमेर ५६, २४४ ।
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युगप्रधानों और प्राचार्यों का सलग इतिहास प्रसन्न संस्कृत या सदाचार या समझदारी से काम लेने का उपदेश दिया बलोकों और प्रोजस्वी काव्यशैली में देती है। कोई प्राश्चर्य जाता है। तदनन्तर गाथोक्त भावों के स्पष्टीकरण में नहीं कि स्थविरावली ने इस प्राचीन कथावली को बहुत दृष्टान्त रूप से कथा कही गई है। कई स्थलों पर तो वीली काल से इतना भुला दिया था कि यह नष्ट हुई ही समझ प्राकार और विषय पचतंत्र का ही स्मरण करा देती है। मी गई थी जब तक कि उसकी एक मात्र प्रति फिर से इस ग्रन्थ की रचना मे रचयिता के दृष्टिकोण दो रहे उपलब्ध हो कर प्रकाश में नहीं पाई।
मालूम पड़ते हैं। लगभग ८६ कथाएं तो धार्मिक और १५. कथा समास [उपदेशमाला]-यह तो पहले ही नैतिक शिक्षा की ही हैं और शेष १४ का वाग्विदग्धता कहा जा चुका है कि उवएसमाला मे धार्मिक व्यक्तियो के पोर परिहास द्वारा मनोरजन का लक्ष्य है। ग्रन्थ से ही भनेक उल्लेख है कि जिनकी पूर्ण कथाए जिनभद्र रचित यह विभाग दीख पड़ता है, परन्तु विवेचन मे परस्पर इस प्राकृत ग्रन्थ में दी गई है। इस जिनभद्र का समय पृथक्-करण नहीं है। दार्टान्तिक कथाओ में सांसारिक और पहचान पाज भी पूरी तरह से नहीं हो पाई है। चतुराई के सभी विषय हैं और उनमे से कुछ पर जैनधर्म कथाओं के संस्कृत में और भी चयनिकाए है। एक तो और प्राचार की छाप स्पष्ट ही दीख पडती है। यद्यपि सर्वनन्दी की है और दूसरी किसी अज्ञात लेखक की"। दूसरो ने भी इन विषयों पर कथाएं कहो है। फिर भी यह टीकाकारों ने न केवल कहानिया ही दी हैं, परन्तु मूल- बहुत सन
बहुत संभव है कि अधिकाश कथाए काल्पनिक और फरग्रन्थ मे उल्लिखित दृष्टान्तों की कथाओं के स्वतंत्र संग्रह
माइशानुसार घड़ी गई सी प्रतीत होती हैं । कुछ तो भारकरना भी एक सामान्य प्रथा हो गई थी जैसा कि जिन
तीय कथापो के जनप्रिय संग्रह में से चयन की हुई है तो भद्र ने उवएसमाला की कथानों का यह संग्रह तैयार
दूसरी जैसे कि रोहक की, जैन टीका साहित्य में से ली किया है। उत्तराध्ययन, शीलोपदेशमाला, भगवती पारा
गई है कि जिसका बीज चूणियों और भाष्यों में प्राप्त है। धना आदि ग्रन्थों के दृष्टातों की कथाएं भी पृथक रूप में
इसके विकल्प-शीर्षक 'अन्तरकथा' का कदाचित यह अभिसकलित और सग्रहीत की गई है।
प्राय है कि ये कथाए बड़ी कथापो की उपकथा रूप से १६. कयास ग्रह [अन्तर-कथासंग्रह या कथाकोश]- बारम्बार उपयुक्त होती रही हैं"। इसका लेखक है हर्षपुरीय गच्छ के तिलकसरि का शिष्य इनके अतिरिक्त और भी कितने ही कथासंग्रहों का राजशेखर जिसको १४वीं सदी के मध्य का समय दिया उल्लेख जिनरत्नकोशमें है, परन्तु वे या तो अनामी हैं या हमें जा सकता है। इसका प्रबंधकोश सं.१४०५ का रचित है। उनके लेखकोंका विशेष परिचय नही है। उनकी सूची मात्र कथाएं सब सरल संस्कृत गद्य में लिखी है। उनकी शैली यहा दी जाती है:-१. हेमाचार्य का कथासंग्रह, २. प्रानन्द बिलकुल बातचीत की है। शब्द-विन्यास प्रणाली देशज सुन्दर का कथासंग्रह, ३. मलघारीगच्छ के गुणसुन्दरसूरि शब्दों से बहुत कुछ रंगित है। संस्कृत, महाराष्ट्री और के पट्टधर सर्वसुन्दर [सं. १५१०] का कथासग्रह, ४. अपभ्रश गाथाएं बहुलता से ग्रन्थ भर में उद्धत हैं। अनेक १८८४.८७ की प्रतिवेदना की सं. १२७२ के कथासंग्रह कथाएं तो सिद्धान्त की गाथा कह कर ही कही गई है। [जिस पर सं. १५२४ लिखा है] में जीव दया आदि कई ऐसी गाथा में किसी व्रत का गौरव गान किया जाता है, विषयो पर सस्कृत
विषयो पर सस्कृत मे कई उपदेशात्मक छोटी-छोटी कथाएं
है । कथासंग्रहों का यह एक अच्छा नमूना है जिनका उप२६. पाटण हस्त. सूची भाग १, पृ.६०। २७. देखो हस्तप्रति सं. १२७१ [भण्डारकर ५] और
योग साधू लोग अपने प्रवचनों में दृष्टान्तों के लिए करते १३२५, १८६१-६५ की।
२९. श्रीकथाकोश सूर्यपुर १६३७, उद्धरणों प्रादि की वर्ण२८ वेलनकर कृत राएसो, बंबई शाखा की हस्तप्रतियों की क्रमानुसारी सूची सहित; भण्डारकर प्रा. शोम. में
सूची [बबई १९३०] सं. १४१७, १७०३, १६६५; १८८७-६१ की सं. १२९८ की हस्तप्रति में मुद्रित मोर देखो पाराधना कथाकोश प्रन्थ निर्बन्ध प्रागे। सन् प्रति से भिन्न ही प्रारम्भ मिलता है।
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१०६, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
थे। ५. सन् १८६१-६५ की प्रतिवेदना की स. १३२६ भी रचनात्मक सूचनाए उनमे मिलती हैं। जैन साहित्य के कथासग्रह मे और १८८७-६१ की सं. १२६७ में बहुत की विभिन्न शाखाओं का सूक्ष्म अध्ययन अभी तक शैश. कुछ समानता है। इसमे धनदत्त, नागदत्त, मदनावली वास्था मे ही है हालाकि क्षेत्र की सम्पन्नता का अग्रचिंतन प्रादि की कथाएं भिन्न-भिन्न प्रकार की पूजा प्रादि के श्री व्हूलर ने वर्षों पहले ही यह लिखकर कर लिया था फलो की प्राप्ति के दृष्टान्त रूप दी हुई है। ६. सन् कि जैन लेखकों ने इतने महत्व की सिद्धी व्याकरण, ज्यो१८६१-६५ को प्रतिवेदना की संख्या १३२५ के कथाकोश तिष और साहित्य की कतिपय अन्य शाखाओं में प्राप्त मे सस्कृत गद्य मे पाठ कथाएं, कुरुचन्द्र, पद्माकर प्रादि कर ली है कि उन्हे अपन विरोधियों से भी सम्मान प्राप्त की, साधुप्रो को निवास, शैयातर, पाहार पानी, औषधि, हुए बिना नही रह सका और उनकी कुछ कृतिया तो वस्त्र और पात्रादि देने के फल की कथाए है । इनका आज भी युरोपीय विज्ञान के लिए महत्व की है। दक्षिण उल्लेख उपदेशमाला को २४०वी गाथा 'वसही-सयणासण भारत मे, जहा कि जनो ने द्रविड कबीलों में काम किया मादि' में है। ८. सन् १८७१-७२ को प्रतिवेदना की स. था, वहा भी उनने उनकी भाषानो के विकास को प्रगति दी ३३५ के कथासंग्रह मे पहली कथा विक्रमादित्य की ही थी। कन्नड़ साहित्य की भाषा और तमिल एवम् तेलगू भी है। इसके अतिरिक्त श्रीपाल आदि की अन्य कहानिया है जैन साधुनो की लगाई नीव पर ही खडी है । इस प्रवृत्ति जिनमें जैन व्रतों और ग्राचारों के फलो का प्रभाव परि- ने उन्हे अपने उचित लक्ष्य-बिन्दु से यद्यपि बहुत भटका लक्षित किया गया है। इसकी सब व थाएं संस्कृत मे है, दिया था, परन्तु उसने साहित्य और सस्कृति के इतिहास परन्तु उनमें मराठी और अपभ्र श के उद्धरण भी है। मे एक महत्वपूर्ण स्थान भी उनके लिए बना दिया । यदि सिर्फ एक कथा ही इस सग्रह मे प्राकृत मे है।
कार्यकर्ता अध्ययन की सूक्ष्म एवम् तुलनात्मक शैलीका अनुजिनरत्नकोश के अनुसार और भी कथासग्रह है जैसे सरण करते रहेगे तो उनके अनुसंधान का फल अवश्य ही कि कथाकल्लोलिनी, कथाग्रन्थ, कथाद्वात्रिशिका (परमा- भारतीय-विद्याध्ययन के क्षेत्रो को समृद्ध ही करेगा। जैन नन्द की] कथाप्रबध, कथाशतक, कथासमुच्चय. कथा- वर्णनात्मक साहित्य के सम्बन्ध में विण्टरनिट्ज' कहता है, संचय प्रादि । परन्तु जब तक हस्तप्रतियों की सूक्ष्म परी- "बौद्ध भिक्षुषो की तरह ही जैन साधू भी अपने प्रवचनों क्षाएं नहीं की जाती है तब तक उपयुक्त कथाकोशो स वे को कथा कह कर सजाने में, ऐहिक कथानो को सतो की कहा तक मिलते या नही मिलते है न तो यही कहा जा जीवनियो में परिवर्तन करने में, जैन सिद्धातों को दृष्टात सकता है और न उनकी कथायो आदि के विषय मे ही द्वारा व्याख्या करने में, सदा ही प्रसन्न रहते थे, और इस कुछ कहा जा सकता है।
प्रकार रूपक कथानो के नैसगिक भारतीय प्रम को अपने त्मिक साहित्य पर प्राच्यविद्याविदा क विचार: धर्मानुयायी बढ़ाने एवम् जहा तक बने स्थिर रखने मे प्राच्यविद्याविदों ने जैन साहित्य का अध्ययन बहुत पुरी तरह लाभप्रद उपयोग करते थे।" जैसे कि बौद्ध देर से प्रारम्भ किया था। फिर भी अनेक प्रमुख पण्डितों जातकों मे हुया है, जैन टीकाग्रन्थो में भली प्रकार जमाए ने प्रमुख जन वर्णनात्मक ग्रन्थों पर काम किया है और हुए इस वर्णनात्मक साहित्य में जनोपयोगी कितने ही उससे भारतीय विद्या अध्ययन की अनेक शाखाओं को नई विषय हैं जिनमे कुछ ऐसे भी है कि जो अन्य भारतीय नई सामग्री प्राप्त हुई है। कुछ ने तो भारतीय साहित्य एवम् प्रभारतीय साहित्य में भी मिलते है और यह सार्वऔर जीवन ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की मुख्य- भौमी साहित्य की सामान्य निधि का ही एक भाग है।" मुख्य धाराओं के समझने के लिए उसके अध्ययन परी
झन क लिए उसक अध्ययन पर १. प्रान दी इण्डियन सेक्ट माफ दी जैनाज, लंदन, पर्याप्त बल भी दे दिया है। उनके विचार जैन वर्णनात्मक
१६०३, पृ. २२ ।
१९०३, साहित्य के मूल्यांकन के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु २. ए हिस्ट्री प्राफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ. ४८४, इस क्षेत्र में भावी काम करने वालो की रहनुमाई के लिए ५४५ प्रादि ।
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
विण्टरनिट्ज के वैराग्य काव्य मत का विचार तो पहले तीय भाषाओं के इतिहास के लिए ही नहीं, अपितु भारही किया जा चुका है, परन्तु वे उस सम्बन्ध में फिर भी तीय साहित्य के इतिहास के लिए भी मूलभूत महत्व का कहते है कि "वे लोग जनप्रिय कथानों, परी-कक्षामों, सिद्ध हो सकता है।' उनने इन दोनों समस्यामों पर खूब रूपकों और दृष्टान्तो से अपना मसाला तयार करते है। ही ऊहापोह किया है और इन ग्रन्थों की भाषाई दृष्टि के जैनों को लोक-काव्य और उसमें भी लोक-कथाएँ सदा ही अध्ययन से निकाले गए उनके निष्कर्ष बहुत सूक्ष्म और विशेष प्रिय रही है। जैन साहित्य, प्रागमिक और उससे विचारोत्तेजक भी है। ऐसा कहते हुए उनने मध्य और अधिक प्रागमबाह्य, जनप्रिय कथानों, काल्पनिक किस्सों उत्तरमध्यकालिक गुजरात के श्वेताम्बर प्राचार्यों के लिखे और प्रत्येक प्रकार की वर्णनात्मक कविताओं का सत्य ही संस्कृत वर्णनात्मक ग्रन्थो की ओर विशेष रूप से दृष्टि खजाना है।" उनके विस्तार और ध्वनि-यथार्थता पर वह रखी है। परन्तु मोटामोटी उनका यह मत अन्य जैन वर्णकहता है, "जैनों में वर्णकों की राशि और वर्णक ग्रन्थ नात्मक साहित्य को भी समान रूप से लाग्न होता है और निःसदेह व्यापक और प्रचुर है। काल्पनिक-कथा साहित्य इसलिए उसका सावधानी से अध्ययन अपेक्षित है। यह तो के तुलनात्मक अध्ययन के लिए ही वे अतिशय महत्व के ऊपर पहले ही कहा जा चुका है कि कर्म-सिद्धान्त ही नही है, अपितु इसलिए भी कि अन्य साहित्य शाखो से अनेक कथानो की रीढ़ बना हुआ है और इस सम्बन्ध में अधिक वे हमे जन साधारण के यथार्थ जीवन की झाँकिया श्री हरटल कहते हैं, 'कोई भी उस पवित्र प्रभाव को देखने का अवसर देते है। इन वर्णक साहित्यों की भापा अस्वीकृत नहीं कर सकता कि जो जैनसघ के श्रद्धावान मे जिस प्रकार लोगों की देशज भाषा से मेल खाने वाले सदस्यो पर न केवल अपने साधर्मी भाइयों अपितु पशुबहत स्थल मिलते है, उसी प्रकार उनका चर्चित विषय पक्षियो तक के प्रति किए जाने वाले व्यवहार मे इस कर्मभी न केवल राजो और साधू-सन्यासियों के ही अपितु सिद्धान्त का अवश्य ही पड़ता है। एक जैन के लिए पशुभिन्न-भिन्न स्तरों के व्यक्तियो के यथार्थ जीवन का चित्र प्राणी भी उतना माननीय है जितना कि एक मनुष्य ।' भी ऐसा प्रस्तुत करते है कि जैसा अन्य किसी भी भार- उनने जैन प्रौपदेशिक वर्णनात्मक ग्रन्थो की प्रमुख धाराओं तीय साहित्यिक ग्रन्थो मे, और विशेषकर ब्राह्मण ग्रन्थो में से कुछ का सिंहावलोकन इन शब्दो में किया है :मे कही भी नही मिलता है।" ।
'इन ग्रन्थों [याने प्रौपदेशिक ग्रन्थो] में और सिद्धांत डा० हरटल' ने कि जिनका पचतत्र का अध्ययन सर्व
के टीका ग्रन्थों मे, जैनों का प्रत्यन्त मूल्यवान वर्णनात्मक विदित है, मध्यकालिक वर्णनात्मक जैन ग्रंथों में से अनेक
साहित्य भरा हुमा है जिनमें हर प्रकार की कथाए है : रमका अध्ययन किया है। उनकी सम्मति में "जनों का वर्ण
न्यास, उपन्यास, दृष्टान्त-कथा भौर पशु-रूपककथा, सिद्ध नात्मक साहित्य कितनी ही समस्याग्रो से सम्बन्धित है
पुरुषों की जीवनिया, काल्पनिक कथा और हर प्रकार की जिनमें से प्रमुख समस्याएं इस प्रकार है-(१)
कौतुक एवम् अद्भुत कथा। श्वेताम्बर साधुओं ने इन कथाओं के देशान्तर गमन की समस्या । यह "साहित्यिक
कथाओं को अपने सिद्धान्तों के देशवासियो मे प्रचार और सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र की है। इसका निरा
करने का महत्वपूर्ण साधन बना लिया था और संस्कृत, करण भारतवर्ष के लिए ही नहीं, अपितु अन्य देशों के
प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी प्रादि सभी लिए भी समान महत्व का है।" (२) विशुद्ध भाषाई
भाषामों मे, गद्य और पद्य मे, काव्य मे और दैनिक प्रयोग समस्या, जिसका हल भी 'ऐसे परिणामों पर पहुँचाए
की सीधी-सादी शैली में वर्णन करने की यथार्थ कला का बिना नही रह सकता है कि जो सस्कृत एवम् अन्य भार
भी विकास किया था। अकेली कथा ही नहीं अपितु ऐसी ३. इण्डियन कलचर, भाग १, २, पृ. १४७ । रचनाएं उनकी हैं कि जिनमें अनेक कहानियां कहानी के ४. मान दी लिटरेचर प्राफ दी श्वेताम्बराज माफ गुज- चौखट में ऐसी जड़ दी गई है कि जैसे पचतत्र में जड़ी हैं
रात, लपजिग १९२२, पृ.११ प्रादि, ३, ६ प्रादि। और निम्स बन्धुनों की पारिवारिक कहानियों के संग्रह
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१०८, वर्ष २३ कि.३
भनेकान्त
की सी स्वतत्र कहानी-सग्रहों में हैं।
को शोभनीय ऐसा उसका काम या अभिनय भी उसमें "प्रवचन के प्रारम्भ मे, प्रवचनकार जैन साधू, कुछ होना आवश्यक है। इसका दुखद परिणाम यह होता है शब्दो या इलोको मे, अपनी धर्मदेशना का प्रसग बता कि वह जातक एक नीरस कहानी मात्र रह जाता है और देता है और फिर एक लम्बी सी मनोरजक कहानी कहने उसका मौलिक रस सब गायब हो जाता है। यही नहीं लगता है कि जिसमे अनेक रोमाचक घटनाए होती है और उसका विकास भी बहुधा मनोवैज्ञानिकता के सिद्धान्तों अनेक बार तो एक कथा मे से दूसरी कथाए निकलती या सम्भावनामो से विमुख पड़ जाता है। बुद्ध अपने जाती है । कथा के अन्त मे वह सदा ही केवली का प्रध्या- सिद्धान्तों का उपदेश सीधी प्रत्यक्ष रीति से देते है और हार याने प्रवेश कराता है कि जो उस नगर के उद्यान मे बोधिसत्व का दृष्टांत देकर यह बताते है कि कैसे किसी जहां के लोगो को कथा कही जा रही है, अकस्मात् विहार जीव को बुद्ध के धर्म-सिद्धान्तो के अनुसार जीवन यापन करते-करते आ जाते हैं, और इन केवली का धर्मोपदेश करना चाहिए। यदि चुनी हुई जन-कथा जातक रूप में सुनकर लोग पूछते है कि इतने उतार-चढ़ाव और भव- परिवर्तन की जाने की धर्म-प्रवृित्ति वाली नही है तो उसको भवान्तर जो देखे गए, वे सब किस कारण से हए? तदनुरूप बदलना ही चाहिए। बुद्ध के लिए अर्थशास्त्र याने केवली तब उन्हें पूर्व भवों की अच्छी और बुरी सब घट- राजनीति का अध्ययन करना पाप है। परन्तु अनेक उत्कृष्ट नामों का विवरण देकर उनका समाधान देकर देते है।" भारतीय कहानिया इसी शास्त्र से विकसित हुई हैं।
"इन जैन प्रवचनों का साहित्यिक रूप बौद्ध जातकों बौद्ध भिक्षुगण अपने कथा संग्रहो मे अनेक ऐसी नीति कथाएँ अंसा ही यद्यपि होता है, परन्तु वह उनसे कही अधिक यद्यपि सम्मिलित करते तो है, परन्तु अपन सिद्धान्तो के उन्नत है। जातक का प्रारम्भ एक कथा से होता है जो कि अनुसार उन्हें उन कथायो की वे बाते ही मौर इसलिए अधिकाशतः अपने में महत्वहीन ही होती है। ऐसा ऐसा उनकी अनिवार्य दृष्टियाँ भी, उन्हें बदल देना होती है और ऐसे ऐसे भिक्षु को हुना था, बस यही कथा होती है । परन्तु ऐसा करते हुए उन्हें उन कथापो को ही अनिवार्यतः नष्ट अन्त मे बुद्ध का आगमन उसमे होता है। दूसरे भिक्ष कर देना पड़ता है।" यह कोई अकस्मात् ही नही है कि उनसे वर्तमान अवस्था के विषय में प्रश्न करते है, और पंचतंत्र के अनेक संस्करणो मे बौद्घ सस्करण एक भी नहीं बुद्ध तब उन्हे उस भिक्षु के पूर्व भव की कथा कह कर है जब कि जैनों के सस्करण, जो कि पंचाख्यान या पचावर्तमान अवस्था की व्याख्या कर देते है। पूर्व भव की ख्यानक कहलाते हैं, न इस प्राचीनतम नीति-ग्रन्थ को सारे कथा ही जातक की मुख्य कथा है। पक्षान्तर मे जैन भारतवर्ष में ही लोक प्रिय नही बना दिया है अपितु इन्डोप्रवचनो मे यह कथा उसका परिणाम होती है। बोधिसत्व चायना और इन्डोनेशिया मे भी। पचाख्यान, सस्कृत का या भावी बुद्ध स्वयम् ही इसमें एक अभिनेता होते है और और अन्य देशी भाषाओं का यथार्थ मे ही इतना जन प्रिय इसलिए वह अभिनय उनके योग्य भी होना ही चाहिए। इन सब देशों में हुआ कि उसका मूलतः जैनकति होना संक्षेप में सारी कहानी उपदेशी या उन्नायक होनी भी स्वयम् जैनो द्वारा ही बिलकुल भुला दिया गया। मावश्यक है । जातक यद्यपि मनोरंजक है परन्तु बुद्धों की
"बौद्ध कथक, फिर, लोगों की चमत्कारिक, नुशंस रचना तो वे नहीं हैं। वे सारे भारत व्यापी कहानी के
है
और
और रौद्र कथाओं को तीव्र वासना का लाभ उठाने का महान् संग्रह से ही चुनी हुई हैं। इन जैन-कहानियों में से ५. लेखक के लेख जर्मन भाषा के देखो-'Dic Eraahअनेक कहानियां निष्कपट, कौतूहलक, या मनोरंजक किसी lungsliteratur der Jaina' (Geist des Osन किसी रूप में होती ही है, परन्तु प्रोपदेशिक तो वे नही tens I, 178ff) and Ein altindisches Narही होती हैं । इसीलिए बौद्ध भिक्षु जिस कहानी का प्रयोग renbuch' (Ber. d. Kgl. Sachs. Gesedschaft करते हैं उसे अपने कार्यानुसार परिवर्तन कर लेते हैं; der Wissenschaften, Ph.-h. KL.64 (1912), क्योंकि जातक उपदेशी होना ही चाहिए और बोधिसत्व Heft.-1).
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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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प्रयत्न सदा ही करते रहे हैं । इसीलिए वे बार-बार उन्हीं कहानी से दिया जाता है वह इन घटनाओं में निबद्ध या भावों को वैसी ही कहानियों में दोहगते भी रहते है और निहित नही है कि जिस तरह कहानी कही गई है अपितु उन्हें कार्य-कारण सम्बन्ध एवम् प्रेरणा की मनोवैज्ञानिकता उस व्याख्या मे है कि जो कथा के अन्त में केवली स्पष्ट का कोई भी विचार नहीं है। उनकी कहानियाँ बौद्ध करते हैं। यह केवली ही बताता है कि जो कुछ दुर्भाग्य विशिष्ट-गुणी होती है न कि भारतीय विशिष्ट-गुणी। इस कथा के विभिन्न पात्रों का हा, वह उनके बुरे कर्मों
भारतीय वर्णनात्मक कला की लाक्षणिक है जैन के कारण था और इसी तरह जो उनका सौभाग्य हुआ, कहानियां या कथाएं। उनमे भारतीय जनता के सभी वह उनके अच्छे कर्मों के कारण था कि जो उनने पूर्व भवों वर्गों के जीवन और रीति-रिवाजों का वर्णन ही नही है मे किए और कराये थे। इससे स्पष्ट है कि धर्म और अपितु वह यथार्थता के बिलकुल अनुरूप भी है। इसीलिए नीति सिखाने की यह शैली या रीति प्रत्येक कहानी में बैन साहित्य, भारतीय साहित्य के महान् पुज मे, न केवल लागू हो सकती है फिर वह चाहे जैसी ही हो, क्योकि लोक-साहित्य का ही (उसके अत्यन्त व्यापक अर्थ में भी) प्रत्येक मनोरंजक कहानी मे वे जीव जिनकी घटनाएं अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास मे भी अत्यन्त मूल्य- उममे वर्णन की जाती है, अवश्य ही अनेक उतार-चढ़ाव वान है।
से गुजरना चाहिए। इस तथ्य का फन यह होता है कि __कहानी कहने की जनों की शैली बौद्धो की शैली से कोई भी कथक जैन साधु को किसी भी कहानी मे जैसी अति अनिवार्य कितनी ही बातों मे भिन्न है। उनकी कि परम्परा से वह प्राप्त हुई है, कोई भी फर-बदल करने मुख्य कथा पूर्व भव की कथा नहीं अपितु वर्तमान भव की की कभी आवश्यकता ही नहीं होती और इसीलिए जैन ही होती है। वे अपने धर्म-सिद्धान्त का प्रत्यक्ष रूप मे नही कथाए, बौद्ध ग्रन्थो में चली बातो कयासों की अपेक्षा अपितु परोक्ष रूप में ही उपदेश दे। है । उनकी कथानो लोक-कथानों की अधिकतम प्रामाणिक प्राधार है। मे भावी जिन या तीर्थकर को अभिनेता या पात्र नहीं जैन साधु, सिर्फ कहानी दोहरा देने वाने ही नहीं बनाया जाता है।
थे, परन्तु कथापो के उत्पादक भी थे। उनने नई-मई यह स्पष्ट है कि ऐसी दशा मे जैन कथाकार पूर्ण कहानिया, पाख्यान, उपाख्यान अपनी उपदेशी पुस्तकों स्वतंत्र रह पाते है। चूकि उनका प्राशय अपनी कथानों के लिए रचे या आविष्कार किये है। मच तो यह है कि के पात्रों को धर्मानुसार आचरण कराने का सम्भवतया साहित्यिक कहानिया कहना उन्हे विशेष रूप से सिखाया नहीं रहता है इसलिए वे पुरानी कथाएं कहने में भी स्व. जाता था। इसलिए यह प्रावश्यक है कि संस्कृत, प्राकृत, मंत्र रहते हैं क्योंकि ये कथाएं साहित्यिक या जन-प्रवादी अपभ्रंश और उत्तर-अपभ्र श काल के हमारी माधुनिक परम्परा से उन्हें विरसे मे मिली हुई होती हैं। उनकी भारतीय प्रार्य भाषाओं के वर्णनात्मक जैन ग्रन्थों की सूक्ष्म कथाओं के पात्रो की प्रवृत्तियां धामिक है या अधार्मिक, परीक्षा, अध्ययन और सम्पादन, भारतीय जीवन, साहित्य उनके पात्र दुखी रहते हैं या सुखी, इससे इन कथको का और संस्कृति के हमारे ज्ञान को सुसम्पन्न करने के लिए कोई भी सरोकार नहीं है। क्योंकि जो धर्मोपदेश उस किया जाए।
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सन् १६७१ की जनगणना के समय धर्मके |
खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आंकड़े |इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें।
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नलपुर का जैन शिलालेख
श्री रतनलाल कटारिया
यह शिलालेख भीमपुर में पाया गया था इस वक्त राल मे श्री कस्तूरचन्द जी 'सुमन' जैन ने "भीमपुर का ग्वालियर म्युजियम मे है । इसमें कुल पक्तिया ४० और जैन अभिलेख" शीर्षक से इस सम्पूर्ण शिलालेख को कुल सस्कृत श्लोक ७० है जिनमे छन्दों का प्रयोग इस 'अनेकान्त' अप्रेल ७० के प्रक मे प्रकाशित करवा दिया प्रकार हुपा है :
किन्तु इसमे एक भी इलोक शुद्ध नही दिया गया है । वसततिलका १०, इन्द्रवशा १, स्वागता २ उप- कस्तूरचन्द जी सा० शिलालेख को शुद्ध पढ ही नहीं पाये जाति १२, रथोद्धता ३, अनुष्टुप् ३२, शार्दूल-विक्रीडित है। फिर भी उन्होने अपने उक्त लेख मे यह आकाक्षा की ४, मालिनी १, मंदाकाता २, शालिनी १, इन्द्रवज्रा २= है कि कोई विद्वान् इसका हिन्दी अनुवाद कर दे । लेकिन ७०।
महा अशुद्ध श्लोको का कोई विद्वान् क्या हिन्दी अनुवाद यह शिलालेख नलपुर (नरवर) का है, 'देखो इलोक करेगा । आपने इस शिलालेख का अगले अक में भाषा १४। इसका लेखन काल वि० स० १३१६ का है 'देखो शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करने की भी सूचना की है। श्लोक ४०'। यह नरवरगढ़, शिवपुरी (ग्वालियर-मध्य किन्तु जब एक भी श्लोक शुद्ध नही है जिससे कोई अर्थ प्रदेश) के पास है । "कादबिनी" दिसबर ६६ मे एक लेख ही नहीं बैठता ऐसी हालत में कोई क्या हिन्दी अनुवाद कुन्दनलाल जी जैन, दिल्ली ने "बुदेला सरदार ऊदल की और क्या भाषा शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करेगा ? ससुराल नरवरगढ़" शीर्षक से प्रकाशित करवाया है। क्या कीचड से धोने पर कभी शुद्धता पा सकती है ? इस लेख में बताया है कि-स० १२६५ में गजरथ मैं उनके प्रयत्न और भावना की पालोचना नही करता प्रतिष्ठा भट्टारक विष्णुसेन के द्वारा नलपुर मे हुई। यहा किन्तु वस्तुस्थिति की समीक्षा कर रहा हूँ-उनकी अपेक्षा जैन पुरातत्व की विपुल सामग्री विखरी पड़ी है-अनेक तो पं० परमानन्द जी शास्त्री ने शिलालेख को काफी ध्वस्त जैन मन्दिर है।
शुद्ध पढ़ा है अगर वे अपनी प्रतिलिपि को ही अनेकान्त ___ "राजस्थान के जैनसत" पृ० १७२ मे लिखा है :- मे प्रकाशित करते तो श्रेष्ठ रहता किन्तु वह प्रतिलिपि "स. १८४१ में भट्टारक जगत्कीर्ति द्वारा नरवर में प्रति- हमारे पास होने से शायद वे ऐसा नही कर सके। ष्ठा महोत्सव हमा।" इन सब से जाना जाता है कि नल- शास्त्री जी की प्रतिलिपि को ही मलाधार से परिपूर सैकड़ों वर्षों से बराबर जैन संस्कृति का एक भव्य शुद्ध कर मय हिन्दी अनुवाद के हम प्रागे प्रस्तुत कर रहे क्षेत्र रहा है। नलपुर को नलगिरि, नलपुरगिरि भी कहीं- है। जिससे विज्ञ पाठक कस्तूरचन्द जी सा० के प्रस्तुत कही लिखा गया है नलपुरगिरि का ही अपभ्रंश नरवर- किये पाठ को और इस पाठ को परस्पर मिलान कर गढ़ है।
शुद्धता की परीक्षा कर सकेंगे। श्री पं० परमानन्द जी शास्त्री ने इस शिलालेख की इलोको के छंद निर्णय मे भी कस्तूरचन्द जी सा० ने हूबहू छाप तथा उसको पढ़कर उतारी गई हस्तलिखित कुछ गलतियों की है जो इस प्रकार हैंप्रति दोनों ४-५ महीने पूर्व हमारे पास सम्पादनार्थ और श्लोक ५ इन्द्रवजा की बजाय इन्द्रवंशा होना चाहिए हिन्दी अनुवाद करने के लिए भिजवाई थी किन्तु समया- श्लोक ६ रथोद्धता की बजाय स्वागता होना चाहिए। भाव से हमारी भोर से इसमें विलंब हो गया। इसी अंत- श्लोक १७, १८, (१९), २७, २८, ३६, ४२ और ६५
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मलपुर कान शिलालेख
को।"
इन्द्रवजा की बजाय उपजाति होना चाहिए।
कर विद्वान् देवचन्द्र ने यह प्रशस्ति बनाई थी। वास्तव्य श्लोक ५०, ५२ को अपठनीय लिखा है इनका छद ।। गोत्री कायस्थ जाति के शरद् के पुत्र सोमा से उत्पन्न नाम क्रमशः स्वागता, शालिनी है।
शेखर ने यह प्रशस्ति वेदी पर लिखी। काश्यपगोत्री पायक श्लोक ३८, ३६ उपेन्द्रबचा लिखा है किन्तु उपजाति सूत्रधार (शिल्पी) के पुत्र वामदेव ने यह प्रशस्ति उत्कीर्ण होना चाहिए।
मापने अपने लेख मे 'कच्छपघात वशी' राजापो का यह सब वर्णन प्रत्यन प्रांजल सुन्दर सरस मनोहर उल्लेख किया है मो पाठको की जानकारी के लिए मै प्रसाद गुण युक्त काव्य में किया गया है। काव्य शैली यह बताना चाहता हूँ कि-कच्छपघात को बोल-चाल बडी ही लाजवाब है इसी से प्राकृष्ट होकर मैंने इस पर मे "कछवाहा" कहते है।
परिश्रम किया है पाठक भी इसका समुचित रसास्वादन लेख मे-"नरवर्मदेव के पास शत्रु भी प्रसन्न चित्त ले सके इम लिए इसे हिन्दी अर्थ के साथ भागे प्रकट रहते थे।" ऐसा जो श्लोक नं० के साथ लिखा है सो किया जा रहा है। अब तक जितने शिलालेख प्रकट हुए किमी भी श्लोक में ऐमा कथन नही है यह कथन गलत है उन मब में काव्य दृष्टि से यह सर्वोपरि ज्ञात होता है। प्रतीत होता है। इसके मिवा कस्तूरचन्द जी सा० ने इस शिलालेख का
श्री मान् प० वर्य दीपचन्द जी पाण्डया ने इस नाम-"भीमपुर का शिलालेख" दिया है किन्तु यह
साहित्यिक कार्य में मुझे सब प्रकार का पूर्ण सहयोग दिया
है इसके लिए मै उनका अतीव प्राभारी हूँ। शिलालेख नलपुर का है, क्योकि इममे नलपुर का ही वर्णन
अगर इस महान कार्य में किसी भी प्रकार की कोई है। भीमपुर का कही कोई नामोल्लेख तक नही है। भीमपुर मे पाने से या आज ग्वालियर म्युजियम मे होने
गलती विशेषज्ञ विद्वानो को दृष्टिगत हो तो मुझे सूचित
करने का अनुग्रह करे मै उनका प्राभारी होऊंगा। से शिलालेख वहा का नहीं हो जाता । अगर शिलालेख में
|| श्री ॥ स्थान का समूचन न हो तो फिर भी चाहे जो नाम दिया जा सकता है किन्तु जब शिलालेख में स्पष्ट नलपुर का
नलपुर का जैन शिलालेख उल्लेख है तो उसका अपलाप कर भीमपुर का नाम देना
(हिन्दी अनुवाद युक्त)
॥ स्वस्ति ।। उचित नही, उल्टी इमसे भ्राति होती है। हमने इसीलिए
(वसंत तिलका छंद) इस अभिलेख का नाम "नलपुर का शिलालेख ' दिया है ।
भामडलीयमिषतः सवितारमेषा इस शिलालेख में निम्न प्रकार वर्णन है :-देवशास्त्र समेवितु दिवसवासवनदिनीव । गुरू का मगलाचरण, यज्वपाल राजवश इसमे परमाद्रि- यस्यांसयोलसति कुंतल कात लेखा राज-चाहड नुवर्मा राजा हुए उनके बाद प्रासन नरेन्द्र स श्रेयसे भवतु व. प्रभुरादिदेव. ॥१॥ हुए। इनके राज्य में नलपुर नगर था जहाँ जमवाल वश अर्थ .-वे प्रादिनाथ भगवान् तुम्हारे कल्याण के उस वश में जसिह उमके पूर्वज तथा पुत्र पौत्रादि का लिा हो जिनके दोनो कंधो पर लहराती हई केशगशि उल्लेख, जैसिंह ने नलपुर में सगमरमर के नवीन भामडल के बहाने ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सूर्य जिनालय का निर्माण करापा, पौरपाट जाति के नागदेव की सेवा के लिए यमुना नदी ही हो । ने महेन्द्र बन कर १३१६ सं० मे इसकी प्रतिष्ठा कराई, (विशेष :-दिवसवासवनदिनी-दिन का इन्द्र-सर्य प्रतिष्ठा गुरू अमरकीति देव और वसन्तदेव थे, जैसवाल उमकी पुत्री-यमुना दी। यहा भामडल को सूर्य की काति के अन्य अनेक श्रेष्ठीगण, परवार और पोरवाड़ उपमा दी है क्योकि दोनो पीले है और केशराशि को जाति के साहू (शाह) एव माथुरवंशी श्रावक मादि सब यमुना नदी की क्योकि दोनो काली है।)
- जिनालय निर्माण में सहयोगी थे, केश गण के देव- उद्भासयंति यनुपर्युरगेन्द्रचूलार स्वामी के शिष्य कविवर वीरचन्द्र से ज्ञान प्राप्त रत्नप्रदीपकलिकाः किल सप्त संख्याः।
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११२, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
दाप
स्वानि सप्त भुवने कुमाषकारे
कारुण्यरत्नांकुररोहणायः पाश्वं प्रभुर्भवतु संष विभूतये वः ॥२॥
कोतिन्छटाधौत दिगंबरश्रियः अर्थ :-वे पाश्र्व प्रभु तुम्हारी विभूति के लिए हों श्रीमूलसंघे मनय: पुनन्तु वः ॥५॥ जिनके मस्तक पर नागराज के सात फण रूपी रत्न दीप अर्थ :- स्याद्वाद विद्या रूपी सागर के लिए जो मिथ्या मत रूपी अधकार से व्याप्त इस ससार में सात पूर्णिमा के चाँद है और दयारूपी रत्नांकुरों के जो उदयातत्त्वों को प्रकाशित कर रहे है।
चल है तथा पवित्र कीति वाली दिगम्बर लक्ष्मी से युक्त (विशेष-सुपार्श्वनाथ के १. ५ ६ फण होते हैं तथा है ऐसे मूलसंधी मुनि तुम्हें पवित्र करें। पार्श्वनाथ के ३, ७, ११ फण होते है, यहाँ पार्श्वनाथ के विशेष :-विचार-प्राचार और व्यवहार की दृष्टि ७ फणों का वर्णन है।)
से मूलसघी मुनियो को क्रमश; भनेकान्ती, अहिंसक और विस्र समान-लवणोदधि-मेखलेय
नग्न दिगबर द्योतित किया है।) माकम्पमान कुल शैल नितब बिम्बा।
(स्वागता छंद) यस्मिन्नभूदवनियोषिदिद मुदे वः
इतश्चश्रीवीर भर्तुरमराचल चालनं स्तात् ।।३।।
यज्वपाल इति सार्थक नामा अर्थ :-महावीर भगवान् का वह मेरु कम्पन तुम्हारी संबभूव वसुधा षववंशः। प्रसन्नता के लिए हो, जिसके होने पर यह पृथ्वी रूपी सव्वत: कालतकोतिदुकूलस्त्री लवण समुद्र कपी ढीली करधनी वाली हुई तथा इछत्रमेकमसृजद् भुवने यः ॥६॥ कम्पित कुलाचल रूपी मटकते नितबो वाली हुई।
अर्थ :- (यज्वपाल) (पूजा प्रतिष्ठा कराने वालों (विशेष-गहाँ 'इय' अवनियोपिद के लिए और 'इदं' का रक्षक) इस प्रकार के सार्थक नाम वाला राजवंश अमराचल चालन के लिए प्रयुक्त है।)
हुधा जिसने सर्वत्र अपना कीर्तिवस्त्र फैला कर इस संसार यस्याः प्रसादमधिगम्य जड़ाशयस्या
पर अपना एक छत्र तान दिया था। प्याभाति सारसविशिष्टनिनाद संग्या ।
(उपजाति छद) श्रीः शारदीन शिशिरवयति कौमुदीव
कुले किलास्मिन्नजनिष्ट वीरसाऽहन्निशं मनसि दोव्यतु शारदा मे ॥४॥
चूड़ामणिः श्री परमाडिराजः । अर्थ :-वह सरस्वती गत-दिन मेरे मन में स्फुराय
शूरच्छिदा भत्सित तारक श्री: मान रहे जिसके प्रसाद से मूर्ख की प्रतिभा भी सार और
स्कंदोऽपि नास्कंदति येन साम्यम् ।।७।। विशिष्ट भाषा युक्त हो शोभा को प्राप्त होती है जिस अर्थ :-इस वंश में वीर चूडामणि श्री परमाद्रिराज तरह शरदकालीन चाँदनी मे सरोवर की शोभा भी सो उत्पन्न हुए । तारकासुर का वध करने वाले स्वामी कातिके मधुर कलरव से गुजायमान होकर बढ़ जाती है।
केय भी जिनकी शत्रु हनन में समता नहीं करते । (विशेष :-साहित्य मे 'ड' और 'ल' एक माने गये (विशेष :-अद्रि का अर्थ सूर्य भी होता है सूर्य के हैं तदनुसार यहाँ जडाशय (मूर्ख) और जलाशय (सरोवर) उगते ही जैसे तारों की शोभा विलीन हो जाती है वैसे दोनो का ग्रहण किया गया है। 'शिशिरदयति' का अर्थ ही परमाद्रिगज के पैदा होते ही शत्रु समाप्त हो गये।) चन्द्रमा है ।) सारस का अर्थ कमल भी होता है उस पक्ष नोट :--'इतश्च' का मतलब है यहाँ से प्रशस्ति प्रारम्भ में-"सरोवर की शोभा भ्रमरों से गंजायमान कमलों से होती है। इससे पूर्व ५ श्लोकों में मंगलाचरण है। सुशोभित हो रही थी" ऐमा करना चाहिए ।
१ से ३ मे क्रमश: ऋषभ, पार्श्व और महावीर जिन (इन्द्रवंशा-छंद)
देव, ४ में शास्त्र और ५ में गुरू इस तरह देवशास्त्र स्यावावविदयार्णव पार्वणेन्दवः
गुरू का स्वस्ति पाट किया है।)
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मलपुरका जन शिलालेख
(रथोद्धता छंद)
मुलाकात हो जाने पर अर्थात् स्वर्गवासी हो जाने पर, तत्र नाकयुवति स्तन स्थली,
कुंद कर दिया है शत्रुषों के मुख कमलों को जिसने ऐसे पत्रवल्लिघनबरस्पृशि ।
प्रमानन्दक प्रासलराज चन्द्र हुए। चाहडः प्रतिनरेन्द्रकानन,
(विशेष :-भासलराज को जो चन्द्रमा बताया है पयोषवावशिखिमूतिरुद्ययौ ॥८॥
सो उचित है। क्योंकि चन्द्रमा भी “मीलितारि मुखांबुजः" अर्थ :-उन परमाडिराज के अप्सरामों के चित्रांकित है अर्थात् अरि-अलि-भौरें हैं मुख मे जिनके ऐसे कमलों को स्तनों का मालिगन कर लेने पर अर्थात् उन परमाद्रिराज संकुचित करने वाला है (रात में कमल संकुचित हो जाते के स्वर्गवासी होने पर 'चाहड' राजा हुए जो शत्रु है और सूर्योदय पर खिलते हैं।) राजामों रूपी वन को जलाने मे दावानल थे।
(शार्दूल विक्रीडित छंद) (विशेष :-स्तन-स्थली पत्रवल्लिघनडबर' का अर्थ
संग्रामेषु समग्रसाहसरिपुषण्णभकंभस्थलहै स्तनों पर बेल-बूटे आदि का चित्रांकन था।)
मुक्तावंतुरिता कृपाणलतिका बाभातिहस्ते तव । (अनुष्टुप् छद)
धीमन्नासल भूप किन्तु भवते जैत्रधिया प्रेषित: तत्र स्वर्गपुरी पौर, गौरवंशमुपेयषि ।
कन्दर्पोत्सवलेख एष कदलीपत्रे पवित्राक्षरः ॥१२॥ नवा वैरिमर्माविन्, महीजानि रजायत ॥६॥
अर्थ :- युद्धो मे सम्पूर्ण साहसी शत्रुनो को रौंदने अर्थ :-उन गजा चाहड के भी स्वर्गपुरी के पुर
वाले ऐसे हाथियो के कुभस्थलो की गजमुक्ता में व्याप्त वासी अर्थात् देव उनका जो गौरवश (देवगण गौर वर्ण
लपलपाती तलवार, हे श्रीमन् प्रासल नरेन्द्र ! आपके होते है) उसे प्राप्त होने पर अर्थात् स्वर्गवासी होने पर
हाथ मे ऐसी सुशोभित होती है मानों विजय लक्ष्मी ने शत्रुहंता नवा नाम के राजा उत्पन्न हुए।
प्रापके लिए केले के पत्ते पर पवित्र अक्षर लिख कर (विशेष :-महीजानि-मही पृथ्वी ही है जानि-स्त्री
वसंतोत्सव (होली) का लेख ही भेजा हो। जिसके अर्थात् पृथ्वीपति राजा ।) (वसततिलका)
(अनुष्टप्) यस्मिन् विलासकुशले हृदयाधिनाथ
त्वयाऽवधूत भूपाल, गोरक्षणारियोषिताम् । स्थाने करं क्षिपति सागरमेखलेयम् ।
लोचनेषु नपासल्ल, चक्रे लक्ष्मीनिरंजना ॥१३॥ उत्कंटका न, पृथुकम्पवती न जज्ञे
अर्थ : हे आसल्ल नरेन्द्र ! पराजित राजाओं की प्रौढांगनेव न बभार विवर्णभावं ॥१०॥
पृथ्वी की रक्षा करने वाले अापने शत्र-नारियों की अर्थ :--जिन सुखदायी नृवर्मा शासक के द्वारा प्रांखो की शोभा को काजल रहित कर दिया (आपके यथोचित टेक्स लगाने पर यह पृथ्वी उपद्रवियो से रहित द्वारा शत्रों के राज्य छीन लिए जाने पर उनकी स्त्रियो हो गई तथा अस्थिर स्वामित्व और दुःख सकट से दूर हो ने जो रुदन किया उससे उनकी आंखों की शोभारूप काजल गई अर्थात प्रजा ने अमन-चैन का अनुभव किया। जिस धुल गया।) तरह विलासप्रिय पति के द्वारा काम-स्थान पे हाथ लगाने
(वसत तिलका) पर प्रौढ स्त्री न तो रोमाचित होती है न चौकती है और प्रस्य प्रतापकनक रमलयंशोभि न म्लान होती है।
मुक्ताफलेरखिलभूषण विभ्रमायां । (अनुष्टुप्)
पादोनलक्ष विषय क्षिति पक्मलाक्ष्याअस्मिन्नाषेदुषि स्वर्ग-श्री संसर्ग महीभुजि ।
मास्ते पुरं 'नलपुर' तिलकायमानं ॥१४॥ नंदत्यासल राजेन्दुर्मीलितारिमुखांबुजः ॥११॥
प्रर्थ ;-इन प्रासल नरेन्द्र के प्रतापरूपी सुवर्ण मौर अर्थ :-इन (नवर्मा राजा) के भी स्वर्ग लक्ष्मी से निर्मल यशरूपी मोतियो के सम्पूर्ण प्राभूषणों से अलंकृत
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११४, वर्ष २३, कि०३
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ऐसी पौनलखदेश की भूमि रूपी स्त्री (के भाल) पर स श्रीकुमारः सुकुमारभाषा पीयूषवर्षी तवपत्यमासीत् ॥१७ विलक स्वरूप नलपुर नाम का नगर है।
अर्थ :-उन (साढदेव) की मृदुवाणी से अमृत की विशेष-पक्ष्मलम्होरेदार-शराबी-मत्त, प्रक्षिप्रांखों वर्षा करने वाला श्री कुमार नाम का पुत्र था जो लोक में वाली, प्रमदा-स्त्री। प्राशाधर जी ने मनगार धर्मामृत की भप-भीतों का बंधू होते हुए भी स्वयं प्रभीक भाव (निर्मप्रशस्ति में 'सपादलक्ष विषय' का उल्लेख किया है (श्री यता) को प्राप्त था। मानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरी भूषणः) सवालखदेश (विशेष-पीयूषवर्षी का मर्थ चन्द्रमा भी होता है। -जोधपुर नागौर इलाका (साभर भी पहिले इसी में उसके साथ ये सब विशेषण इस प्रकार लागू होंगेचा)। इसी तरह यहाँ 'पादोनलक्ष विषय' पौनलख देश सुकुमार-कोमल ठंडी भाषा-किरण से अमृतवर्षा करने समझना चाहिए इसमे सवा की बजाय पौन भाग ही है)। वाला। श्री कुमार शोभा चांदनी वाला। भीरुबंधु-डर(मालिनी छद)
पोकों का बधु अधेरा भय उत्पन्न करने वाला है, चंद्रोदय
होते ही अघकार का भय समाप्त हो जाता है। अभीकप्रमरहित विकासः, प्रोतसच्चक्रवर्गः ।
भावं-कामभाव का करने वाला (कामियों को चांद परिचित घनपंक, नालसत्वं दधानः ।
चादनी बड़ी प्रिय होती है।) जयति भुवन लक्ष्मी विभ्रमागारभूमिः
(रथोद्धता) कमल वन सनाभिसवालाऽन्ववायः ॥१५॥
नागणस्तदन तस्यनन्दनश्चन्वनरिव यशोभिरुज्ज्वलः ।
पूर्व पूरुष वियोगवेविनी मेदिनी शशिमुखी मुपाचरन ।।१५ अर्थ :-इसके बाद, असदिग्ध उन्नतिशील (सब । तरह से बढ़ा-चढा) सज्जनो का पानदकारी, प्रचुर-प्रगाढ़ अर्थ :-उन (श्री कुमार) के नागण नाम का पुत्र पाप और पालस्य को नही धारण करने वाला (पुण्यशाली था जिसने चन्दन के समान उज्ज्वल (श्वेत) यश से, पूर्व और उत्साही) सांसारिक लक्ष्मी को विलास-लीला का पुरुषों के वियोग से प्राकुलित पृथ्वी (प्रजा) को चन्द्रमुखी स्थान, कमलों का सहोदर (कमलकुल सदृश) जैसवाल -पाल्हादित कर दिया था। वंश जयवंत रहे।
(उपचाति) कमल के पक्ष में इस प्रकार प्रर्थ होगा
चेत: श्रिया केतकगर्भगोरं, गिरः शरच्चन्द्र सुधासधर्माः । भ्रमरो के हित मे है विकास जिसका, चकवा पक्षी शीलश्रिया मगल सौषमगं, राजलदेवी गृहिणी तबीया ।।१९ का प्रिय, सचित प्रगाढ़ कीचयुक्त, नालरूपी प्राण को
अर्थ :-जिस प्रकार केवड़े का अंतरग भाग श्वेतधारण करने वाला, संसार लक्ष्मी की लीला भूमि ।
होता है उसी तरह हृदय से निर्मल, शरत्कालीन चांदनी (अनुष्टुप्)
के समान अमृतवर्षी वाणी वाली, शील से मगल महल एतदश सुषाम्भोधि सुषादीषितिरुचयो।
ऐसे अग वाली राजल्लदेवी उन (नागण) की धर्मपत्नी साढवेकः सुषोः पूर्वमपूर्वमतिवैभवः ॥१६॥
थी। अर्थ :-पहिले इस (जैसवाल) वंश रूपी क्षीर
(अनुष्टुप्) समुद्र से अपूर्व बुद्धि सम्पन्न, विवेकी साढदेव रूपी चन्द्र तत्कुक्षिरोहण क्षोणी माणिक्यं द्योतते भुवि । उत्पन्न हुँप्रा ।
जैसिंह, क्षमापाल-सभा युवति भूषणम् ॥२०॥ (विशेष:-सुधाम्मोधि-क्षीरसागर। सुघादीधिति= अर्थ :-उन (राजल्ल देवी) की कुख से निकला चन्द्र ।)
पृथ्वी रत्न तथा राजसभा रूपी युवति का भूषण ऐसा (उपजाति)
जैत्रसिह संसार में प्रकाशमान (प्रसिद्ध) हुमा। मभीकभावं भुविभीषुर्यनाम कुर्वन्नपि यश्चकार ।
(क्रमशः)
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जैन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत के शब्दकोश
श्री अगरचन्द नाहटा
मानव की कुछ विशेषताएं तो प्रकृति प्रदत्त है और शब्दकोशों में एकाक्षरात्मक शब्दों का संग्रह होता है। कुछ स्वयं उपाजित । जगत के प्राणियों में मानव को सर्व. संस्कृत भाषा में शब्दों का मुख्य प्रर्थ है स्वर, यद्यपि सामान्य श्रेष्ठ माना गया है। मन की मुख्यता होने से मानव रूप से व्यजन और स्वर दोनों प्रकार के वर्णों को अक्षर चिन्तन-शील होता है। प्रकृति प्रदत्त साधनों के अतिरिक्त कहा जाता है, परन्तु स्वर के सहयोग के बिना अकेले व्यंवह स्वयं प्राविष्कार भी करता है।
जन में किसी प्रकार के अर्थ को व्यक्त करने की पाक्ति नहीं जीवन व्यवहार में भाषा की उपयोगिता निर्विवाद है और न ही किसी ध्वनि विशेष का उससे विस्फुट है। वैसे पशु-पक्षी भी ध्वनियों के उच्चारण द्वारा अपने होता है। एकाक्षरी शब्द का अर्थ है एक स्वर वाला भावों को व्यक्त करते है। पर मनुष्य ने अपने भावों को शब्द । इसी तरह द्वयक्षरी यावत् छ: प्रक्षरो वाले शब्दो व्यक्त करने के लिए जिस तरह भाषा का विकास किया का संग्रहात्मक कोश होते है । वैसा अन्य प्राणी नहीं कर पाए। वस्तुए असख्य है। संस्कृत भाषा की जैन विद्वानों ने बहुत बडी सेवा की उनको पृथक-पृथक रूप में जानने एव दूसरों को समझाने है। संस्कृत के व्याकरण के सम्बन्ध में जिस तरह जनों के लिए उनके अलग अलग नाम रखे गये है। इससे के अनेक ग्रथ है उसी तरह शब्दकोश सम्बन्धी भी बहुत असंख्य नाम व शब्दो का विकाप हो गया। तब भाषा सी रचनाएं प्राप्त है। जिनका सक्षिप्त परिचय इस लेख को व्यवस्थित करने के लिए व्याकरण के नियम भी बनाए में दिया जा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई ऐसे अन्य गये । इस तरह शब्दशास्त्र के दो मुख्य अग हो गये। है जिनमे शब्दों का संग्रह काफी परिमाण मे मिलता है। व्याकरण और कोष। व्याकरण शब्द की उत्पत्ति और प्राचीनतम जैन साहित्य प्राकृत भाषा मे है। भगवान उसके अर्थ द्योतक विविध स्वरूपो का विवेचन करता है की जन माता राना में उनके प्रवचनों को पौर कोश मुख्यतः शब्दों का अर्थ सूचित करता है। कोन ।
पय सूचित करता है। कान समझ सके, इसलिए (उनका विशेष विचरण मगध प्रदेश शब्द किस लिंग में व्यवहृत है, इसका भी सूचन कोश में
के पास-पास हुप्रा प्रतः) अर्द्ध-मागधी भाषा मे उपदेश किया जाता है। शब्दकोश का प्राचीन नाम 'निघंटु' और भया। करी.. वर्षों तक जैनाचार्यों ने भी प्राकत परवर्ती नाम-नाममाला' भी पाया जाता है ।
को ही अपनाये रखा पर इसके बाद संस्कृत के बढ़ते हुए __ मुनि जिनविजय जी ने शब्दकोशो को तीन भागो में प्रभाव से प्रभावित होकर इस भाषा में भी वे रचनाएं विभक्त किया है-१. एकार्थक वाचक शब्दकोश, करने लगे। प्राचार्य उमास्वाति का तागर्थ सूत्र शायद २. अनेकार्थक वाचक शब्दकोश, ३. एकाक्षर सग्राहक जैनों की पहली सस्कृत रचना है। प्राकृत ग्रन्थों में जनशब्दकोश । एकार्थक वाचक शब्दकोश मे मुख्यतया उन प्रचलित शब्दो का बहुत बड़ा संग्रह है। एक-एक वान्द के शब्दों का संग्रह है जो एक ही अर्थ अथवा पदार्थ के अनेक पर्याय नामो का भी महत्वपूर्ण संग्रह मिलता है। वाचक है । अर्थात् समान अर्थ को प्रदर्शित करने वाले है। जिससे उस समय की शब्द समृद्धि का भली भांति परिचय भनेकार्थक वाचक शब्दकोषो में वे शब्द संगृहीत होते है- मिल जाता है। संस्कृत में रचना तो जैन विद्वानों ने जो एक से अधिक अर्थ अथवा पदार्थ व्यक्त करते है। दूसरी तीसरी शताब्दी से ही प्रारम्भ कर दी और च।। ये नानार्थक वाचक भी कहे जाते है। एकाक्षर सग्राहक पांचवीं शताब्दी मे तो प्राचार्य समंतभद्र और सिद्धनसे
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अनेकान्त
मादि की प्रौढ़ एव दार्शनिक चर्चा प्रधान रचनाएं मिलने कोश भी प्राप्त एवं प्रकाशित है। मूल नाममाला, गुजराती लगती हैं । जैनाचार्यों में बहुत से मूलत: ब्राह्मण थे, इस- अनुवाद के साथ पं० त्रिभुवनदास अमरचन्द ने पालीलिए सस्कृत के विद्वान तो वे प्रारम्भ से थे ही। फलतः ताणा से सं० १९८३ में द्वितीयावृत्ति प्रकाशित की, उनमें उन्हे प्रौढ़ संस्कृत रचनाए करने में कोई कठिनाई नही २०५ श्लोक हैं । यद्यपि २०४ वें श्लोक मे इस नाममाला हई। पर व्याकरण और कोष जो जैनेतर विद्वानों के का परिमाण २०० श्लोक का बताया है। अमरकीति के रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ थे. उन्ही से काम चलाया जाता रहा। भाष्य सहित इसका सुन्दर सस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से इसलिए ११वीं शताब्दी से पहले' श्वे. जैनों के रचित सं० २००७ में प्रकाशित हुमा । इसके अन्त मे धनंजय की कोई संस्कृत व्याकरण भोर कोश ग्रन्थ उपलब्ध नही हैं। नाममाला भी टीका सहित प्रकाशित है। प्रस्तावना में हवीं शताब्दी के विद्वान जिनेश्वर सूरि मौर बुद्धिसागर धनंजय का समय ईशा के पाठवी का उत्तरार्ध और हवीं सूरि दोनों भ्राता ब्राह्मण थे। श्वे. बुद्धिसागर सूरि जी का पूर्वाद बतलाया गया है जो विचारणीय है। धनजय ने सर्वप्रथम स्वतंत्र व्याकरण बनाया जो बुद्धिसागर व्या- दिगंबर सम्प्रदायानुयायी गृहस्थ थे उनके रचित द्विसंधान करण के नाम से प्रसिद्ध है। उसका मूल नाम 'पंचग्रन्थो'- काव्य और विषापहार स्तोत्र भी प्रसिद्ध है। शब्द-लक्ष्मलक्षण है ७ हजार श्लोक परिमित इस व्याकरण श्वेतांबर विद्वानो में प्राचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत शब्द की रचना स. १०८० में जावालपुर (जालोर) मे हुई। कोश संबंधी कई रचनाए की। जिनमे से "अभिधान दिगंबर सम्प्रदाय के प्राचार्यों ने तो इससे पहले भी सस्कृत चिन्तामणि" बहुत ही प्रसिद्ध है। इस नाममाला मे रूड, व्याकरणादि सम्बन्धी ग्रंथ बनाये थे। पर कोश ग्रन्थ तो यौगिक, यानि व्युत्पत्ति से सिद्ध और मिश्र शब्दों को उनके भी अधिक पुराने नही मिलते । शायद सबसे पहले अमर कोश की तरह भिन्न-भिन्न कांडों मे पर्याय वाचक विसघान-राघव पाहवीय (काव्य के रचयिता) कवि धनंजय शब्दों सहित दिया गया है। इसमें ६ काड है-१. देवाने 'नाममाला' नामक सस्कृत शब्दकोश की रचना की। घिदेव, २. देव, ३. मर्त्य, ४. त्रियक, ५. नरक, ६. सामावनंजय का समय १०-११वी शताब्दी के प्रास-पास का न्य है। इन काण्डों की श्लोक संख्या क्रमशः ८६, २५०, माना जाता है। इसके बाद तो कई महत्वपूर्ण शब्दकोश ५६७, ४२३, ७ ओर १७८ तथा कुल १५४१ श्लोक हैं। तैयार हुए। जिनमे प्राचार्य हेमचन्द्र के कोश ग्रन्थ तो बहुत इस नाममाला पर पाचार्य श्री की तत्वाभिधायिनी नामक ही महत्वपूर्ण हैं।
८५०० श्लोकों की परिमित टीका उपलब्ध है। इस पर धनंजय नाममाला के २ संस्करणों में २०३ मोर अन्य भी कई टीकाए प्राप्त है। अभिधान चितामणि के २०५ पद्य प्रकाशित हुए हैं। धनजय ने एक शब्द पर से दो संस्करण उल्लेखनीय है । पहला गंवरण देवचद लालशब्दांतर बनाने के लिए विशेष पद्धति का उपयोग किया। भाई पुस्तकोद्धार फड, सूरत से प्रकाशित हुअा है। दूसरा से पृथ्वी के नामो के प्रागे घर शब्द जोड देने से, पवंत संस्करण गुजराती शब्दार्थ के साथ गिरधरलाल शाह,
नाम, मनुष्य के नामों के प्रागे पति शब्द जोड देने से अहमदाबाद ने प्रकाशित किया है। राजा के नाम, वृक्ष के नामो के मागे चर शब्द जोड़ देने प्राचार्य हेमचन्द्र का दूसरा कोश 'अनेकार्थ सग्रह मै बन्दरों के नामों का बन जाना । धनंजय की नाममाला नामकोश' भी महत्वपूर्ण है। यह भी ६ काडो में है। पर प्रमरकीर्ति का भाष्य अनेकार्थ नाममाला श्वे. शब्द चौखम्बा सस्कृत सीरीज से सं० १९८५ में यह प्रकाशित १. दि० विद्वानों के रचित जैनेन्द्र व्याकरण आदि अन्य
हो चुका है। भूमिका में इसे २००० श्लोक परिमित इससे पहले बने हैं। वे अनुपलब्ध हैं।
बतलाया गया है। १, २, ३, ४, ५, ६ स्वरों वाले अनेधनंजय का समय प्राचार्य वीरसेन की धवला टीका कार्थ शब्दो को इसमे ६ कांडों में विभक्त किया है। अन्त से पूर्व का है। क्योकि उसमे नाममालां का एक पद्य
मे अव्यय वर्ग भी संग्रहीत हो गया है। गणना करने से
म अव्यय वग भा सग्रहात हा गया है। गणना । उद्धृत है।
-सम्पादक समस्त श्लोकों की संख्या १९३१ होती है। प्रकाशित
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जन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत के शब्दकोश
संस्करण के अन्त में शब्दों को प्रकारादिक्रम से दे दिया ने "सुन्दर प्रकाश", जिसके अन्य नाम 'पदार्थ चितामणि गया है।
भोर 'शब्दार्णव' भी है, ५ प्रकरणों में २६६ श्लोकों का 'अभिधान चितामणि' मे जो शब्द नही मा पाए उनका संस्कृत का कोश बनाया। जिसकी एक हस्त लिखित प्रति संग्रह 'शेष नाममाला' के नाम से २०४ श्लोको का प्राचार्य स. १६१६ को लिखी हुई मिली है। जो प्रायः रचना हेमचन्द्र ने एक और कोश बनाया। उनका चौथा महत्व- समय के प्रासपास की ही है। यह कोश अभी तक अप्रपूर्ण कोश “निघटुशेष" है। इसके अतिरिक्त देशी नाम- काशित है। माला जिसका प्रपर नाम "रयणमाला" भी है। इसमे सम्राट अकबर को प्रत्येक रविवार के दिन 'सूर्य देशी शब्दों का बहुत ही महत्वपूर्ण सग्रह है। इसके भी सहस्र नाम' का पाठ करके मुनाने वाले उपाध्याय भानुदरो सस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
चन्द्र गणि ने भी एक कोश बनाया। जिसका नाम नामधष्ठि देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथाक १२ सग्रह, नाम माला संग्रह पोर 'विविक्त नाम संग्रह' मिलता में अभिधान चितामणि कोवा का प्रकाशन हमा है। उसमें है। स० १६६० में लिखी प्रति प्राप्त होने से यह रचना उक्त कोश के इलोक १५४२ के बाद शेष नाममाला' इससे पहले ही रची जा चुकी सिद्ध होती है। श्लोक १५४३ से १७५० तक में दी गई है । फिर जिनदेव
इसी समय के नागपुरी तपोगच्छ के विद्वान हर्षकीर्ति मुनीश्वर रचित 'शिलोच्छ' उसकी पूर्ति या परिशिष्ट के सूरि ने 'शारदीया नाम माला' की रचना की। यह तीन रूप मे श्लोक १७५१ से १८८९ तक मे छपा है। इस काण्डों मे विभक्त है। इसका अपरनाम 'मनोरमा नामकोश की रचना सं० १३८३ मे हुई है। तत्पश्चात् माचार्य माला' भी पाया जाता है। इसमे देव, व्योम, घरा, अंग, हेमचन्द्र का 'निघण्टुशेष' श्लोक १८६० से २२८५ तक संभोगादि, सगीत पण्तिादि, ब्रह्म, राज, वैश्य, शूद्र और मे दिया गया है । इसमें श्लोक १८६१ से १६०५ तक का सकीर्ण शब्दों का संग्रह है। जामनगर के ५० हीरालाल पाठ उपलब्ध नहीं हुआ और १९०६वें श्लोक की भी हंसराज ने स० १९७१ में इसे प्रकाशित किया था। प्रथम पक्ति त्रुटित है। श्लोक २२०१ की भी मन्तिम सम्राट अकबर की सभा में वादविजय करने वाले पंक्ति त्रुटित है। इससे मालूम होता है कि इस संस्करण खरतरगच्छीय उपाध्याय साधुकीति के शिष्य वाचनाचार्य के सम्पादक को 'निघंटुशेष' की प्रति वृटित रूप मे ही साधुमुन्दर गणि ने 'शब्द रत्नाकर' नामक कोश की रचना प्राप्त हुई। इस कोश मे भी ६ कांड है-१. वृक्षकांड, की। यह भी ६ कांडो में विभक्त है। सुप्रसिद्ध जैन २. गुल्म काड, ३. लता कांड, ४. शास्त्रकांड, ५. तृण, ६. विद्वान पं० हरगोविन्द दास और पं० बेचरदास द्वारा घन्य कांड । अन्त में इस संस्करण में पाए हुए कोशो की संपादिन यह कोश यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से सं० शब्दानुक्रमणिका ४४० पृष्ठों में दी गई है। पर्गिशष्ट मे १९६६ में प्रकाशित हुआ है। इस सस्करण मे 'शब्द रलाहेमचन्द्र का लिगानुशासन तथा अन्य रचित एकाक्षर कोश, कर' मे पाए हुए शब्दो की नामानुक्रमणिका १०७ पृष्ठों पुरुषोत्तम देव रचित शब्द भेद प्रकाश और सुधाकर मुनि मे छपी है। इसी से इसका महत्व विदित हो जाता है। प्रणीत एकाक्षर नाममाला भी दे दी गई है। इस तरह १७वी शताब्दी के ही खरतरगच्छीय उपाध्याय सहज यह संस्करण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। करीब ८०० पृष्ठो के कीति ने "सिद्ध शब्दार्णव" कोश बनाया। यह भी छः इस ग्रन्थ का मूल्य ४ रुपया बहुत ही सस्ता है। काडो में विभक्त है। इसकी एक पूरी हस्तलिखित प्रति
१ वी शताब्दी भारत का स्वर्ण युग था। साहित्य हमे जिन हरि सागर मूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट से प्राप्त निर्माण की दृष्टि से भी वह शताब्दी बहुत उल्लेखनीय हुई । वैसे एक अपूर्ण प्राप्त प्रति के आधार से इसका एक रही है। जैन विद्वानों के रचे हुए सस्कृत के कई कोश संस्करण श्री मुरलीधर पानसे द्वारा सम्पादित होकर और पूर्व रचित कोश ग्रन्थों की टीकाए इस समय की डेक्कन कालेज, पूना से सन् १९६५ मे प्रकाशित हो चुका प्राप्त हैं । सम्राट अकबर के मान्य जैन विद्वान पद्म सुन्दर है । इसमे बीच मे भी कहीं-कही पाठ त्रुटित रह गया है।
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मन्तिम भाग तो उन्हें प्राप्त ही नहीं हुमा था। पर उन्हें लिए करवा ली है। इनके अतिरिक्त अपवर्ग नाममाला, प्राप्त प्रति में जो राजस्थानी शब्द, टिप्पण रूप में मिले निघण्ट संग्रह, बीजनिषण्ट और पौषधि नाममाला मादि थे वे विशेष महत्व के हैं। अन्त में "सिद्ध शब्दार्णव' में कोश ग्रंथों का उल्लेख प्रो. हीरालाल कापड़िया ने अपने पाए हुए संस्कृत शब्दों का अंग्रेजी मे अर्थ भी सम्पादक ने "जैन संस्कृत साहित्य के इतिहास" नामक ग्रन्थ में की है। विशेष श्रम करके दे दिया है । इसलिए अंग्रेजी जानने वाले एकाक्षरी नाममाला में जैन विद्वानों के रचित प्रमरविद्वानों के लिए भी यह संस्करण बहुत उपयोगी हो गया चन्द्र, सुधाकलश प्रादि को नाममालाएं उल्लेखनीय हैं। है। प्रारम्भ मे ३६ पृष्ठोंकी अग्रेजी भूमिका भी उल्लेखनीय अमरचन्द १३वी, १४वीं शताब्दी के विद्वान हैं। इनकी है। लोहावट से प्राप्त पूर्ण एवं शुद्ध प्रति हमने श्रीमुरली- एकाक्षर नाममाला २१ श्लोकों की है। और सुधाकलस घर पानसे को भेज दी है । प्राशा है इसका अगला सस्करण हर्षपुरीयगच्छ के राजशेखर सूरि के शिष्य थे। अतः इनका अधिक शुद्ध और अच्छे रूप में निकलेगा।
समय भी १४वी शताब्दी का ही है। इनके रचित संगीतोउपरोक्त 'शब्द रलाकर' के रचयिता साधुसुन्दर के पनिषद सारोद्धार नामक संगीत विषयक ग्रन्थ प्राप्त है गुरू साधुकीति रचित 'शेष नाममाला' या 'शेष सग्रह जो कि बडौदा प्रोरियंटल सीरीज से प्रकाशित भी हो नाममाला' नामक कोष भी प्राप्त है जो अभी तक अप्र- चुका है। इनकी एकाक्षर नाममाला ५० श्लोकों में है। काशित है। लौका गच्छीय ऋ० गुणचद्र रचित मनोरमा अमरचन्द और सुधाकलश को नाममालाएं अन्य अनेक नाममाला की प्रति मुझे कलकत्ते के जैन भवन में प्राप्त ऐसी ही नाममालाप्रो के साथ "एकाक्षर नाम कोश संग्रह" हुई है जो सं० १८१ की रचना है।
नामक ग्रथ मे राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर आशिक शब्दकोश के रूप में 'अपवर्ग नाममाला' से पन्यास मुनि रमणीक विजय जी द्वारा सम्पादित होकर नामक १३वी शताब्दी का एक शब्दकोश प्राप्त हुआ है। प्रकाशित हो चुकी है । इसमे अन्तिम ग्रन्थ वाचनाचार्य श्री जिसका दूसरा नाम पचवर्ग परिहार नाममाला भी रखा वल्लभ रचित 'विद्वत् प्रबोध' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। गया है। यह अभी तक अप्रकाशित है। इसके रचयिता प्रो० हीरालाल कापडिया ने कई सदिग्ध रचनाओ जिनभद्र सूरि को प्रो० हीरालाल कापड़िया ने १५वीं का उल्लेख भी अपने ग्रन्थ में किया है और कई ऐसे शताब्दी के प्रसिद्ध जैसलमेर मादि ज्ञान भण्डारो के स्था- अन्य कोश भी मिलते है जिनमे रचयिता का नाम नहीं पक जिनभद्र सूरि मानलिया है पर वह ठीक नहीं है । ग्रथ । दिया गया है। ऐसी रचनामो का उल्लेख करना यहाँ कार ने अपना परिचय देते हुए जिनवल्लभ सूरि का शिष्य प्रावश्यक नही समझा। पौर जिनदत्त सूरि का भक्त बतलाया है। इससे ये १६वीं २०वी शताब्दी मे १० जैन मुक्ति विजय जी ने एक शताब्दी के सिद्ध होते है। इनके सम्बन्ध मे डा० दशरथ बहुत महत्वपूर्ण सस्कृत शब्दों का एक कोश तैयार किया शर्मा का भी एक लेख छप चुका है।
जो गुजगती अर्थों के साथ दो भागो मे अहमदाबाद से १६वीं के प्रारम्भ में ही तपागच्छीय शुभशील
प्रकाशित हो चुका है। इसका नाम "शब्द रत्न महोदधि" गणी अच्छे विद्वान हो गये है। इन्होने पचवर्ग संग्रह नाम रखा गया है। स.१६९३ में इसका प्रथम भाग ९५४ माला की रचना की। इसमे ६ काण्ड है । उन्ही के रचित
पृष्ठो का प्रकाशित हुअा, फिर स. १९९७ मे द्वितीय पचवर्ग परिहार धातु सग्रह नामक एक और रचना भी
भाग छपा है। कुल पृष्ठो की संख्या दोनो भागों की प्राप्त है। इन दोनो रचनामो की सग्रह प्रति भडारकर
२१५३ है। श्री विजय जीति सूरि वाचनालय गाधी रोड, मोरियटल रिसर्च इन्स्टीटयूट पूना से प्राप्त कर हमने
अहमदाबाद से यह ग्रन्थ प्रकाशित हुप्रा है। मूल्य क्रमशः दोनों ग्रन्थों की प्रतिलिपि अपने अभय जैन ग्रन्थालय के
८ रुपये और १० रु. है। यह कोश १२ वर्षों के श्रम का
र १. लेखक ने रचनाकाल सं. १८ लिखा है, जो भ्रामक सुफल है । मूल्य भी प्रचारार्थ बहुत कम ही रखा गया है। है, हो सकता है कि वह सं० १८०० हो।
जैन ग्रन्थो में बहुत से ऐसे शब्दों का प्रयोग भी
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ढूंढाड़ी कवि ब्रह्म नाथू की रचनाएँ
डा. गंगाराम गर्ग
अनेक जैन विद्वानों के साधना-स्थल राजस्थान के पूर्वी नेमिनाथ के विवाह के लिए राजमती को मंगनी हेतु एक भाग ढूढाढ़ प्रदेशको भाषा ढूंढाडी अपनी कोमलता, मधुरता दूत उसके पिता के पास भेजते है। उग्रसेन अपने को और बोध गम्यता के कारण गद्य साहित्य के अतिरिक्त गीत गौरवान्वित समझते हुए इस सम्बन्ध को विनम्रतापूर्वक काव्य की भी भाषा रही है । अज्ञात कवि 'नाथू' दूढाड़ी स्वीकार कर लेते है :भाषाके प्रज्ञात गीतकारो मे से एक है। अपने नाम के साथ इक देइ बेटी पाय लागो, भरज सुणिज्यो म्हाह री। 'पाण्डे' और 'ब्रह्म' शब्दों का प्रयोग करने से 'नाथू' ब्रह्म- हूँ गरीब ये साहिब म्हांका, मैं बोट पकरी थाह रो। चारी प्रतीत होते है। इनका प्रमुख साधना-स्थल वर्तमान इक बार बारहकरों होनती, औरो कछु जाणों नहीं। टोक जिले में स्थित 'नगर' का प्रमुख जैन मन्दिर था जहाँ भूला चूकां समझा लोज्यो इह बात जाणो सही। श्रावक भाव सहित पूजा व दानादि करते थे। नाथू ब्रह्म
समुद्रविजय की नगरी में अब नेमिनाथ को दूलह वेष की निम्नलिखित रचनाएं मिली हैं :
में सजाया जाता है। उनके पारीर पर हल्दी का उबटन नेमीश्वर राजमतीको व्याहुला:-इस ग्रन्थ का करके सिर पर सेहरा बांधा जाता है। फिर उनकी आँखों
प्राण मटी ६. सवत १७२८ मे हुई । इसमें 'तलदी, में काजल लगा कर चबाने के लिए पान का बीडा दिया निकामी सिंदरी' विद्रावनी' की ढालों में नेमिनाथ मोर जाता है। गाना, वाद्य-ध्वनि और लोकाचार सभी से राजमती के समस्त विवाह-प्रसंग का वर्णन किया गया है। उत्सव की शोभा बढ़ गई हैग्रन्थ की कथा के अनुसार राजा समुद्रविजय अपने पुत्र
भुवा कुंता गाव छ मंगलचार तो, मिलता है जिनका संग्रह संस्कृत के कोश ग्रंथों में नहीं लुंण उतार बंन्हड़ी जी। पाया जाता। प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रबन्ध कोश और पुरा- कोड़ि छपन जादु सब ज्यां को नारि तो, तन प्रबन्ध संग्रह ये तीनों ग्रन्थ सिंघी जैन ग्रन्थमाला से गाव गीत सुहावंण जी। मुनि जिन विजयजी द्वारा सम्पादित प्रकाशित हो चुके है। बाजा बाजे साढ़ी बारा कोडितो, इनमे पाए हुए शब्दों का एक महत्वपूर्ण संग्रह डा० भोगी
गाय बमामा दुड़वड़ो जी। लाल साडेसरा और जे०पी० ठाकर ने किया है। यह ग्रन्थ
भेरि नफोरी बाजे छ ताल ती, लेक्सिको ग्राफिबल स्टडीज इन जैन सस्कृति (Lexico
मावल बाजे बमवमौ जो ॥३॥ graphical Studies in Jain Sanskriti) are gife.
गजा समुद्रविजय पुत्र को व्याहने के लिए ज्यो ही यन्टल इस्टीट्यूट, बड़ौदा से प्रकाशित हो चुका है।
बारात लेकर चलने लगे, त्यों ही मार्ग मे अनेक प्रकार के जैन साहित्य बृहद् इतिहास भा. ५ में इनके अतिरिक्त
शकुन होने लगे। कवि ने उनकी बारात के वैभव में श्रीधरसेन रचित विश्वलोचन कोश, असग के ननार्थकोश
हाथी, विमान, रथों की चर्चा करते हुए घोड़ों का अधिक शब्दचद्रिका प्रादि का उल्लेख है।
वर्णन किया है१. नगर नगीन सोभिती जी, चौबीसी ब्राजमान ।
घोटक अंत न पार , राको सिरबार । श्रावग पूजे भाव स्यों जी, सकत सहित दे दान ।।
बगतर पहरयो हो भार, नप सप सबबन्या हो। -प्रशस्ति, "श्री नेमीश्वर राजमती को व्याहुलो" मारखी चल्या प्रसमानर,
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१२० वर्ष २३, कि०३
अनेकान्त
गगन न बोस भान,
महीने तक हुई राजुल की मार्मिक विरहावस्था का चित्रण सुर ताला को हो तान,
है। श्रावण माह में प्राकृतिक उपादान मौर तीज का चमकं बीजरी हो।
त्योहार विरहणी को अधिक दुखदायी हुमा है :दूलह नेमिनाथ का स्वागत करने के लिए उग्रसेन के सषि सांवणडो प्रब प्रायो, दरवाजे पर सोना, चांदी, पीतल, ताबा मादि के कलश बो सब पुरष त्रिया मन चायोबे। सिर पर धारण किये गाती हुई स्त्रियां खड़ी हैं। किन्तु बरस मेघ चमकं बोजोबे, द्वार पर पाने से पूर्व ही पशुओं की क्रन्दन-ध्वनि सुनकर __ सषिया सब मिलि बेल्हें तीजो में। और उसके मर्म को जानकर नेमिनाथ विरक्त हो गए । हं कैसे षेल्ह हारी वे, हलधर आदि का समझाना भी उन्हें गिरिनारि जाने से नेम जाइ चढ्यो गिरनारी वे। न रोक सका
झूठो दोस पसुन सिर दीयो के। हलधर केसौ बीनउ जी, ठाढ़ा जोड़पा हाथ ।
वा तो अपनी जाण्यौ कीयो । छपन कोटि जादुमण, फिर चालो जगनाथ ।
माह मास का शीत तो वह अकेली सह ही नहीं नेम नगीनो बोलियो जी, थे घर जावो.भ्रात ।
पाती:म्हे ससार स्यो दुरिछा जी, भव-भव मेरो भ्रात ।।
सषी महा मास की राते बे, नेमिनाथ के विरक्त होने का समाचार सखियों से
___एकलड़ी रही न जाते थे। सुनकर राजमतो विलखी अवश्य, किन्तु माता-पिता के
सी लागे कोमल अंगो बे, समझाने पर भी दूसरा विवाह करने को तैयार नहीं हुई।
___ नहीं भाजे दूजो संगो बे। नेमिनाथ की एकनिष्ठ अनुरागिणी राजमती भी उन्ही की
३. जिन गीत :-८ चरण के इस मार्मिक गीत में अनुगामिनी बनी
राजमती ने सखियो को नेमिनाथ को बुला लाने को कहा माय कहै सुणिहो राजमती, कहो हमारी मानि ।
है। उसे पश्चाताप है कि नेमिनाथ ने पहले विवाह की नेम गयो तो जांण दे जी, और बिहाव प्रानि ।
सोचकर फिर वैराग्य क्यो लिया? राजल मास्यों इम कहै जी, थे क्यों बोलौ पाप । इ भव तो बर नेम छ जी, और म्हारं माइ बाप ।
सषी री नेम जो नै ल्याहो,
अरिहां प्रभु जी नै ल्याहो कनककन मोती तज्या जी, तोड्या नवसर हार । पाछ्यो लागी नेमके जी, जाइ चढ़ी गिरनारि ।
नेम जी ने ल्याव ने सषी री,
___ काहे कुं व्याहु न चल्या हो नेम, संसार की स्वार्थपरता और असारता जानकर
क्यों सिर बांध्यो मोड़, राजमती ने सयम लेना ही उचित समझा :मात पिता सुत सुंदरी जी, को कोइ को नाहि ।
__ क्यों छोड़ी मृगलोचनी हो, स्वारथ प्रापण सबै कर जी, विपति पड़े जब माहि ।
सरस मिली थांकी जोड़। मुणि राजमति चितवं जी, यो संसार असार ।
कर का चोली मुबड़ा री सखी, अजिका पासि बड़ी भई जी, लोयो सजम मार।
सिर का द्योली चीर । तपस्वी नेमिनाथ को केवलज्ञान उदित होने पर ४. डोरी को गीत:-इसमे अनेक योनियो में भटअष्टविधि से पूजा और समवशरण की रचना हई। कने वाले जीव को उसके कप्टो का वर्णन करते हुएतदनन्तर नेमिनाथ मोक्षगामी हुए।
"डोरी थे लगावो हो नेम जी का नाव स्यो" की शिक्षा २. नेम जी की लहरि :-यह १८ छन्दो की विरह- दी गई है। कवि ने देवगति को भी बन्धन का कारण रचना है । इस रचना में सावन के महीने से भाषाढ़ के मानकर शोकप्रद ही कहा है
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ढूंढाड़ी कवि ब्रह्म नाथ की रचनाएं
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देवतणो गति जीवड़ा तू गयौ,
६. राग मलार :-इस गीत में राजमती द्वारा दूसरे हँसि हंसि कीया है। भोग सुग्यानी जीव । विवाह की मना करके संयम धारण कर लेने की चर्चा है । करम धणाधण जीवड़ा बांधीया.
७. राग सोरठ :-इस गीत में रावण, पाण्डवों, अंति सा कोयो सोग सुग्यानी जीव ।। नेमिनाथ, यादवों और भविष्यदत्त के जीवन की घटनाओं ५. दाई गीत :.--इस गीत में मनुष्य के जन्म लेते के संकेत से भवितव्यता को प्रबलता प्रमाणित की है। हा बचपन, योवन और वृद्धापन की अवस्थानो मे दुखः ८. राग सोरठ:--'राग सोरठ' के नाम से इस भोगते हुए मोहग्रसित हो जाने की चर्चा की है तथा गर्भ- दुसरे गीत मे अष्ट द्रव्य से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने वास में जिनेन्द्र को स्मरण करने की प्रतिज्ञा को भूल के लिए प्रेरणा दी है। जाने पर प्रतारणा भी दी है। विविध विषयों में ग्रस्त
विध विषयों मे ग्रस्त . राग धनाश्री :- इस गीत में सुदर्शन, प्रजन जीव को कवि पुण्य, पूज। और दान करने की ओर प्रेरित ।
चोर, मानतुग, वादिराज, मेढक, श्रीपाल प्रादि जिन-नाम करता है .
से तरे प्राणियों के उदाहरण देते हुए नाम-स्मरण की हो जीनां जोबनवतो होइ । परनारी तकी बे हो।
महत्ता प्रतिष्ठित की है। कवि ने स्वयं अपना उद्धार भी हो जो गनी गलोय ते हि, करी प्रपणी थकी बे हां। चाहा हैहो जोवां विषय तणां फल पाइ, अमृत फल छोड़िया बे हां। या नै सुषि दे और भी भविजन उतरे पार । हो जोवा वृष धतूरा वाय, कंचन वष तोडियो बेहां। ब्रह्म नाथ की बीनती हो, कोज्यो मो निस्तार । हो जीवा मोह तणे बसि होइ, मेरी मेरी करतो बे हां। ६. राग मारू :-'सर्व सुप पाइए हो सेया श्री जिनहो जीवा भ्रम्यो परदे ना रोय, घरि चिन्ता पीबहा। राज' की प्रतिपादना ही इस गीत का लक्ष्य है। हो जोवां सुक्रित पूजा दान, कबहु नां किया बे हो । उक्त सभी रचनाएं बीस पथी मंदिर, पुरानी टोक मे हो जीवा मन मै राषौ मान, योबन यो गयो बे हां।२॥ प्राप्त दो गुटको मे सगृहीत है। ★
उद्बोधक पद
अरे 3ड़ चला हंस सैलानी ! मानसरोवर सूना छोड़ा, छोड़ा दाना पानी ॥ टेक ।। जिनको अपनी मान रहा था, सब हो चले बिगानी । राज पाट को तज गए राजा, कछू न ले गई रानी ॥ बैरी जीते गये अकेले, रह गई लिखी कहानी। पंचेन्द्री गज संना मारी, जोवन सा सेनानी ।। काल लुटेरे ने सब लूटी, काया की रजधानी। पतझड़ हुई फूल कुम्लाये, फल की नाहि निसानी ।। सगरे पछी भए उडंछी, दे गये प्राना कानी । मां अरु बाप सुत सुत रोवे, नारि न मानी।। जग के नाते रह गए जग में, कर्म एक अगवानी । जिसने बोया उसने काटा, रमे ये तिनको हानी ।। चिड़िया चग गई खेत प्यारे, क्यों पछतावे प्रानी। 'मंगत' जाग भूल निद्रा में, सोता चादर तानी । अब सुन ले फिर कौन सुनाव, ये दुर्लभ जिन-वानी ।।
मंगतराम चिलकाना वासी
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'राणों के आधार पर एक ऐतिहासिक कथा :
सम्राट का अधूरा सपना
श्री बाबू सुबोधकुमार श्रेणिक के जीव ने कुणिक के जीव का, किसी एक वैशाली गणतंत्र के अधिनायक राजा चेटक को बीचबचाव पूर्वजन्म मे, वध किया था।
करने के लिए कहे परन्तु उसकी हिम्मत नही हुई ।। वह उसके कई जनम-मरण के बाद यह कथा तब प्रारभ
जानती थी कि उन्होने अभी तक चेलना का अपहरण होती है जब कि श्रेणिक बिम्बसार मगध का सम्राट था
करने वाले श्रेणिक को क्षमा नहीं किया है । और उसकी राजधानी राजगृह मे थी। वैशाली के राजा
कुणिक बहुत ही शौर्यवान और प्रतापी नरेश सिद्ध चेटक की पुत्री चेलना मगधको साम्राज्ञी थी । गर्भवती थो।
हुा । अनेको दुर्जय शत्रुयो को उसने जीता । क्रमश. वह कुणिक का जन्म हुआ। श्रेणिक और चेलना की।
अजातशत्रु यानि "जिमका शत्रु जन्मा ही नहीं" के नाम प्रसन्नता की सीमा नही थी। देव वशात् बालक की
से सुप्रसिद्ध हुअा। उमने तीन विवाह किये, जिनमें एक अगली मे भयकर घाव हा। राजवैद्य थक गये । बालक मोहाल नरेश पसेनजित की कन्या थी। श्रणिक-चलन। को शान्ति नहीं मिली । एक रात वह मारे कष्ट के चीख से अजातशत्र कणिक के दो और सगे भाई थे-हल्ल रहा था। किसी उपचार से वह चुप नही हो रहा था । और विहल्ल । इसके अतिरिक्त दूसरी माँ से कालीकुमार श्रेणिक ने पुत्र के दुःख-शमन के लिए मोहवश, घाव से आदि दस अन्य भ्राता थे । सडी दुर्गन्धपूर्ण अगुली को अपने मुंह मे रख लिया। इससे राजा श्रेणिक के पास राज्य के अतिरिक्त दो और बालक को शान्ति मिली और वह चुप होकर सो गया। अमूल्य निधियों थी। मेचनक हाथी और दूसरा अठारह
यह घटना नगर मे लोगो की जुबान पर फैल गयी। सरा देवतायो द्वारा दिया गया हार । कहा जाता था कि बालक के घाव और इस घटना के कारण ही बालक का इन दोनो निधियोका मूल्य मगधके पूरे राज्यके बराबर था। नाम कुणिक (अगुली का घाव) प्रचलित हो गया। श्रेणिक राजा श्रेणिक ने प्रेमवश हाथी को तो अपने पुत्र हल्ल और कुणिक शब्दो में साहित्यिक सौन्दर्य होने से राज- को दे दिया था और देवप्रदत्त हारको दूसरे पुत्र विहल्ल को। घराने में भी यह नाम स्वीकृत हो गया।
सम्राट कुणिक ने राजगृह के पचपहाड़ी दुर्ग के अन्दर कुणिक के रूप मे मगध साम्राज्य का एक राजप्रासाद मे पिता श्रेणिक को कैद मे रखा था; स्वय बुद्धिमान और शौर्यवान राजकुमार अवतरित हुअा। अपने लिए उन्होने दर्ग के बाहर प्राकृतिक उष्ण जलउसका प्रभाव दिन-दिन बढता गया और उसकी सम्राट घारापो के समीप एक विशाल गजप्रासाद निमित कगया। होने की प्राकाँक्षा भी बलवती होती गई। पूर्वजन्म के जिस दिन सम्राट अजातशत्र-कूणिक के घर पुत्र नं बैर-भाव ने उसे पिता श्रेणिक की हत्या करने के लिए जन्म लिया. उस दिन राजगृह मे खुशियो का ठिकाना प्रेरित किया होगा। परन्तु उसकी प्रावश्यकता नहीं पड़ी। नही था। राजघराने में पुत्र का उदय हुपा इसलिए उनका उसने मौके से अपने पिता सम्राट श्रेणिक बिम्बसार को नामकरण 'उदायी' किया गया । राजगृह मे ही उनके राजप्रासाद में कैद कर लिया और एक दिवस की घटना है। अजातशत्रु भोजन कर स्वय मगध का सम्राट बन गया । इस विषय मे अपनी मा रहे थे । माँ चेलना पौत्र को गोद में लिए हुए पखा झल चेलना के विरोध की उसने तनिक भी परवाह नही की। रही थी । यकायक बालक ने पेशाब किया जिसके छोटे चेलना ने चाहा कि इस विपत्ति में वह अपने पिता, सम्राट अजातशत्रु की थाली मे पड़े। परन्तु इसके पूर्व कि
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सम्राट का अधुरा सपना
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थाली बदली जाय, अजातशत्रु कुणिक हंस कर रह गया दिनों सौन्दर्य और शोभा से सम्पन्न थी। तीर्थकर व मु. और जान बूझ कर उसी थाली म भोजन करता रहा। पूज्य का निर्वाणस्थल होने के कारण मन्दारगिरि से चा चेलनाको यह बात पसन्द नही पाई और उसने जब अापत्ति तक श्रमणों का संगम सदैव हुमा करता था। चेलन। ने की तो अजातशत्र कुणिक हंस कर बोला--मा ! मैं अपने कुणिक को प्रेरित किया और सम्राट कुणिक ने च पापुत्र को कितना प्यार करता है, इसी बात से देखो। नगरी को मगध की नयी राजधानी घोषित कर दिया ।
परन्तु इस बात पर जब चेलना रोने लगी तो उसे चम्पानगरी मे आकर कुणिक ने कालीकुमार प्रादि बडा पाश्चर्य हया। पूछा-'माँ'! तुम इस बात पर रोने अपने दसो भाइयों को बुलाया। राज्य सेना, धन प्रादि क्यों लगी?"
को ११ हिस्सो मे बाट कर उन्हे दिया और प्रानन्द दूर्बक तभी माँ चेलना ने उसे कुणिक के बचपन की वह वहां राज्य करने लगा। उसके दोनो सगे भाइयों विहल्ल घटना कह सुनाई जबकि उसके घाव द्वारा सडी हुई और हल्ल को दो अमूल्य निधियाँ-सेचनक हस्ती और दर्गन्धयुक्त अगुली को उसके पिता सम्राट बिम्बमार श्रेणिक देवप्रदत्त हार श्रेणिक से मिल ही चुकी थी इमलिए उन्ह ने अपने मह में रख लिया था । अन्त में वे बोली- राज्य में हिस्सा न देकर अपने साथ प्रेम और प्रादर के
'बेटे तुम्हारे गिना भी तुम्हें अत्यन्त प्यार करते थे, साथ कुणिक ने रखा। वरना क्या वे तुम्हारी उम दुर्गन्धपूर्ण दूपित अगुला का प्रतिदिन विहल्ल कुमार सेचनक हाथी पर सवार केवल तुम्हे शान्ति दने के लिए अपने मह में रख लेते ? रोग
हो अपनी रानी के साथ विहार और जलक्रीडा के लिए आज उसी बात की याद मा गयी और साथ माथ यह
गगा तट पर जाता। उसके प्रानन्द और भोग देख कर भी कि उन्ही पिता को तुमने कैद में बेडिया से जकड कर मार
कर नगरी मे चर्चा उठी-' राज्यश्री का उपभोग तो वास्तव रख छोड़ा है।'
मे विहल्ल कुमार कर रहा है । कुणिक नही।" इतना मनना था कि कुणिक थाली छोड कर उठ
यह चर्चा धीरे-धीरे कुणिक की रानियो तक पहंची। वहा हया । बोला--"परन्तु यह कथा तो मुझे अाज
उसकी एक रानी पद्मावती ने सोचा यदि से निक तक किसी ने बतायी नहीं। हाय, मैं कितना पापा हूँ कि हाथी मेरे पास नही. देवप्रदत्त हार मेरे पास नही तो इ। ऐसे प्रिय पिता के साथ मैने ऐमा दुर्व्यवहार किया- मैं राज्य वैभव से मुझे क्या ? अभी उनको मुक्त करूगा।"
कुणिक से उमने यह बात कही। परन्तु उसने हम इतना कर वह अपने रथ पर सवार होकर पिता के कर इस बात को टाल दिया, कहा-'वह तो भाइयो को पास दोडा गया। उसके पिता श्रेणिक ने जब कुणिक को पिताजी ने दिया है हमारा नहीं है।' अपनी पोर दोडे हुए आते देखा तो उन्हे विश्वाम हो गया परन्तु अनेकों बार कहे जाने पर अन्त मे वह अपनी कि अवश्य कुणिक उनकी हत्या करने के लिए पा रहा है। पत्नी के वश होकर हार और हाथी मांगने के लिए विवश उनके हाथो-पावों में बेडिया लगी हई थी। उन्होने हो गया। भगवान महावीर को स्मरण किया और उठ खडे होने के उसने विहल्ल और हल्ल कुमार को बुलाकर बड़े प्रेम यत्न मे गिर पड़े। लोहे की कील पर उनका माथा जा पूर्वक उनसे उन वस्तुप्रो को दे देने के लिए कहा । उस लगा। उनका वही प्राणान्त हो गया।
समय तो वे चिन्तायुक्त चले गये परन्तु कई बार फिर वही कुणिक के शोक का ठिकाना न था। राजगृह मे सूचना आने पर उन्होंने अपनी वस्तुओं को देने से इन्कार अब एक क्षण भी रहना उसके लिए दुश्वार हो गया। कर दिया । उसने निश्चय कर लिया कि वह अपनी राजधानी और कुणिक इससे रुष्ट हो गया। कही ले जाएगा।
हल्ल और विहल्ल कुमार को प्राती हुई विपत्ति का चम्पानगरी (माजकल के भागलपुर के निकट) उन प्राभास मिल गया और वे एक रात्रि को चुपचाप सपरिवार
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१२४. वर्ष २३ कि० ३
अनेकान्त
अपनी निधियों के साथ लिए हुए चम्पानगरी से चल काशी-कौशल के अधिनायकों की शक्ति और सहयोग का पड़े। अपनी सुनिश्चित प्रायोजना के अनुसार वे अपने उन्हें पूर्ण भरोसा था। तीर्थकर मुनि सुव्रतनाथ, पारसन थ नाना वैशाली के अधिनायक राजा चेटक की शरण मे एव वर्द्धमान महावीर के सम्यक् उपासक होने के कारण पहुँच गये।
वे निर्भय थे। उन्हे जल्दी क्रोध नही पाता था। परन्तु कुणिक को यह पता चला तो वह इस अपमान से कुणिक के दूत के दुर्व्यवहार से वे क्रोध किये बिना नही अत्यन्त क्रोधित हुआ।
रह सके। उसने अपना दूत राजा चेटक के पास भेजा और उन्होंने गरज कर कहा- 'मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ। हल्ल और विहल्ल के साथ हाथी और हार लौटा देने को कुणिक को शीघ्र भेजो, मैं प्रतीक्षा करूगा।' चेटक के कहा। चेटक ने कहा-'हार और हाथी हल्ल और राज्य से कुणिक के दूत को धक्के देकर बाहर निकाल विहल्ल के है । वे मेरी शरण मे आ गये है, मैं उन्हे वापस दिया गया। इस प्रकार तिरस्कृत और अपमानित नही लौटाता। यदि 'श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना का दूत कुणिक के पास वापस पहुंचा। प्रात्मज और मेरा नप्तक (नाती) कुणिक', हल्ल और इधर राजा चेटक ने काशी, कौशल के १८ नरेशा विहल्ल को मगध साम्राज्य का आधा हिस्सा दे दे तो मै को निमंत्रित कर उनसे परामर्श मांगा-णिक हार और हाथी दिलवा सकता है।
राजा की चेलना गनी का पुत्र, मेग नप्तक (नाती, सम्राट अजातशत्र-कुणिक ने फिर दूत भेज कर सन्देश दोहिता) कणिक हार और हाथी के लिए युद्ध करने पा दिया-'हल्ल और विहल्ल बिना मेरी प्राज्ञा लिए हार रहा है। हम सब लोगो को मिल कर युद्ध करना है कि और हाथी ले गये है। वे दोनों वस्तुएं मेरे राज्य मगव उसके सामने समर्पित होना है?' की है, इसलिए उन्हे शीघ्र लौटा देना ही योग्य है।
सभी राजानो ने कहाचेटक ने पुनः उसकी मांग अस्वीकार कर दी और
'युद्ध करना है, समर्पित नही होना है।' दूत को खाली हाथ वापस कर दिया।
इस निर्णय के उपरान्त सभी गजा अपने अपने राज्य दूत द्वारा समाचार मिलने पर कुणिक की उत्तेजना वापस गये और युद्ध की तैयारियो मे लग गए। बहुत बढ़ गयी। वह आवेश में आ गया और लाल-लाल कुणिक ने शीघ्र से शीघ्र अपने दसो भाइयो को बुला प्रॉखों, एवं फड़कते हुए होठो से उसने दूत को पुनः पत्र कर एव अपने दो महामात्यो सुनिधि एवं वस्सकार, से द्वारा यह सम्वाद लिख कर प्रेषित किया
मत्रणा की। ___ 'हार हाथी वापस करो या युद्ध के लिए तैयार हो वस्सकार का कथन था कि निच्छवियो से युद्ध करने जानो।'
के पूर्व गगा के इम किनारे एक सुरक्षित नगर की स्थापना उसने दूत को यह भी प्राज्ञा दी
होनी चाहिए। सुनिधि ने भी कहा कि इसप्रकार हम लिच्छ'तुम चेटक की राजसभा में जाकर उसके सिंहासन वियो से अपनी सेना को सुरक्षित रख सकते है, और उन्हे पर लात का प्रहार करो। तदुपरान्त भाले की नोक पर गंगा के इस पार अपनी ओर आने से रोक सकते है। युद्ध रख कर मेरा यह पत्र उसके हाथों मे देना।'
सामग्री भी गगा के उस पार युद्धस्थलो मे भेजना हमारे महावली अजातशत्रु एव मगध के महान सम्राट के लिए सरल हो जायगा। दूत का गर्व भी कम नहीं था। उसने ठीक वैसा ही किया सम्राट अजातशत्र-कुणिक इन सभी बातो से सहमत जैसा कि उसके सम्राट ने आदेश दिया था।
था-'परन्तु नगर की योजना पूर्ण करने में तो वर्षों लग चेटक वृद्ध और दूरदर्शी राजनयिक थे। अपने शौर्य जाएंगे'-'जब उसने ऐसा उतावलेपन से कहा तो सभी मौर सुबुद्धि के द्वारा उन्होने वैशाली गणतन्त्र की स्थापना समझ गए कि सम्राट शीघ्रता चाहता है। की थी। अपने मित्रों-नवमल्लकी, नवलिच्छवी-इन १८ दसों भाइयो मे अग्रणी कालीकुमार ने राय दी कि
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सम्राट का प्रपुरा सपना
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पर्द्धमान महावीर और गौतम बुद्ध जैसे मनीषि जब इस तलवारों आदि से युद्ध चल रहा था एव पैदल सेना भी पृथ्वी पर है और वे इस समय इन्हीं प्रदेशों में बिहार कर लाखों की संख्या मे लड़ रही थी। सेनापति काली कुमार रहे है तो क्यो न उनसे भी मिलकर इस विरोध को दूर बहादुरी से लडे परन्तु राजा चेटक का अमोघ एक वाण कराने का प्रयत्न किया जाए।
छटा, उसने काली कुमार को धराशायी कर दिया। मगध इस पर महामात्य वस्सकार (वर्षकार) ने हँसकर की सेना भाग चली। कहा-'वर्द्धमान महावीर और चेटक का पारिवारिक इसी समय भगवान महावीर का समवशरण चम्पा सम्बन्ध तो है ही, चेटक महावीर के अनुयायी भी है। नगरी मे आया हुआ था। कालीकुमार की पत्नी उनसे उसे श्रमणों का प्राशीर्वाद प्राप्त है । भला इस दशा मे हम पूछ रही थी। लाभ की प्राशा कैसे रख सकते है ? रही गौतम बुद्ध की 'भगवन्, इस युद्ध मे क्या मगध विजयी होगा ?' बात । तो क्या यह सर्वविदित नही है कि गौतम को भगवान की दिव्य ध्वनि हुई–'नहीं' । लिच्छवी अत्यन्त प्रिय है।
फिर उसने प्रश्न किया-क्या मेरे पति लौट कर काली कुमार ने सयत रहते हुए उत्तर दिया- आवेगे ?' दिव्य ध्वनि हई-'नहीं'। महामात्य ! आपने इन महापुरुषों को गलत समझा है। परन्तु आश्चर्य यह कि इस विपत्ति की सूचना मिलने फिर आप क्या यह नही जानते कि लिच्छवी गणतत्र है, पर भी कालीकुमार की राजपत्नी न रोई न उसने होश उनके यहां जमी एकता है हममे नही है. क्या उन्हे परास्त खोया । वह सयत रही। केवल एक दीर्घ नि.श्वास उसके करना सरल है ?
मुह से निकला। फिर उसने सयत वाणी से उच्चारण __ महामात्य और काली कुमार की चर्चा में आक्रोश कियाका पुट प्रा गया था। सम्राट अजातशत्रु ने उन दोनो की
'अरहते शरण पव्वज्जामि, बातो को रखते हुए कहा-'बुद्ध और महावीर, दोनो 'सिद्ध शरणं पध्वज्जामि,' मनीषियो के प्रति हम सभी की श्रद्धा है परन्तु हिसा के 'साहू शरणं पव्वज्जामि' क्षेत्र मे इनकी राय लेना अनुचित होगा।'
'केवलि पण्णत धम्मं शरणं पव्वज्जामि ।' सम्राट की आज्ञा से गगा के इस ओर नई महानगरी
वह वही दीक्षित होकर साध्वी हो गई। की योजना पर कार्य प्रारभ कर दिया गया परन्तु युद्ध में
एक-एक कर दस युद्धो मे सम्राट कुणिक दम बार विलम्ब करने की अमात्य की राय नही मानी गई।
पराजित हुआ और उसके दसों भाई युद्ध में खेत पाए। दोनों मोर की सेनाएं सग्राम क्षेत्र में इकट्ठी होने वह हताश हो गया। तभी महामात्य वस्सकार की लगी।
मन्त्रणा से उसने मन्त्र सिद्धि का योग करना प्रारभ किया। प्रथम युद्ध मे अजातशत्रु कुणिक की अोर से काली वस्सकार अपनी योजना के अनुसार गगा के इस पार कुमार के सेनापतित्व में मगध की सेना डट कर खडी हो पाटलिपुत्र की सुरक्षित नगरी का निर्माण शीघ्रता पूर्वक
करा रहा था। राजा चेटक वर्द्धमान महावीर के समक्ष श्रावक के एक दिवस गौतम बुद्ध का सघ पाटलिपुत्र (पटना) १२ व्रत ले चुके थे । एक विशेष व्रत भी लिया था कि "मै पहुँचा। राजाज्ञा के अनुसार महामात्य वस्स कार ने उनका एक दिन मे एक वाण से अधिक युद्ध मे नही चलाऊगा।" स्वागत सम्मान किया और उन्हे भोजन कराया।
परन्तु सर्वविदित था कि उनका वह एक वाण अमोघ तदुपरान्त बुद्ध ने इस नगरी के ३ अन्तराय बतलाए। हुआ करता था। दोनों ही अोर व्यूह रचनाए की गई थी 'पाग, पानी और आपसी मतभेद सर्वदा इस नगरी वा और दोनों पक्ष जमकर भयंकर युद्ध करने लग गए। अन्तराय करेगे।' यानी इस नगरी को सदा प्राग पानी और
हाथियों, घोड़ों और रथों पर तीर कमान, बरछो प्रापसी मतभेदके कारण विघ्न का सामना करना पड़ेगा।
.
.
.
.
गई।
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१२६, वर्ष २३ कि० ३
जब कुणिक को वस्सकार ने यह सूचना दी तो वह चिन्तित हुआ और उसने वस्सकार को शीघ्र गौतम बुद्ध के पास जाकर मगध- वैशाली के विषय पर गोष्ठी करने का आदेश दिया ।
अनेकान्त
बुद्ध राजग्रह पहुँच चुके थे। वे गृद्धकूट पर्वत पर विराज रहे थे । वस्सकार वही पहुँचा और उनसे वैशाली गणतन्त्र की शक्ति का कारण पूछा ।
भगवान बुद्ध ने उसे वज्जियो ( वैशाली वालों) के सात अपरिहानीय नियम बतलाए जिनके द्वारा उनकी शक्ति की अभिवृद्धि होती रहती है।
२. जी एक मत से परिषद् मे बैठते है, एक मत से उठते है, एक ही करणीय कर्म करते है वे भापति की भेरी सुनते ही खाते हुए आभूषण पहनते हुए, या वस्त्र पहनते हुए भी ज्यों के त्यो एकत्रित हो जाते हैं। ३. स्त्री अवैधानिक कार्य नहीं करते। विधान का
,
उच्छेद नहीं करते।
४. वज्जी वृद्धो का सत्कार करते हैं, उन्हें मानते है, पूजते है।
५. बज्जी, कुलस्त्रियों और कुलकुमारियों के साथ बलात् विवाह नहीं करते।
१. सन्निपात बहुल है, अर्थात् उनके अधिवेशन में पूर्ण सम्राट ! वज्जि (लिडवी)
उपस्थिति रहती है।
६. वज्जी अपने नगर के बाहर और भीतर के चेत्यो, मन्दिरो का श्रादर करते है। उनकी मर्यादाओ का उलघन नहीं करते ।
७. बज्जी तो की धार्मिक सुरक्षा रखने है इसलिए कि भविष्य में उनके यहाँ बर्हतु भाते रहे और सुख से विहार करते रहे।
बुद्ध ने कहा कि जब तक ये मात अपरिहार्यं नियम उनमे चलते रहेगे लिच्छवियों ( वज्जियों) की अभिवृद्धि होती रहेगी, अभिहानि नहीं होगी।'
तक गम्भीर मन्त्रणा की भोर प्रपनी गुप्त योजना का श्राकार प्रकार निश्चित कर लिया ।
दूसरे दिन राजदरबार में सभी सवार हो गए जब सम्राट और महामात्य वस्सकार के बीच नीचे की भाँति कटु वार्तालाप हुआ ।
महामात्य वस्सकार चतुर और बुद्धिमान मन्त्री था । उसने बुद्ध की बातो के आधार पर अपनी अगली चाल पर विचार करना प्रारम्भ कर दिया। जब वह वापस अजातशत्रु के पास पहुँचा उस समय तक उसकी सारी योजना बन चुकी थी। उसने और प्रजातशत्रु ने अर्धरात्रि
सम्राट ने महामात्य से प्रश्न किया'अन्ततोगत्वा क्या हमारे महामात्य बिल्कुल परास्त ही हो जाएगे या बजियो को परास्त करने की कोई योजना बनाई जा रही है ?"
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महामात्य वस्सकार ने उच्छृंखलता पूर्वक उत्तर दिया आपस मे सभी एक मत है उनके यहाँ धर्म का आदर है। हम लोगों का उनको जीतना दुष्कर कार्य है ।'
सम्राट क्रोध पूर्वक बोले
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'मै महामात्य से इस प्रकार के उत्तर की प्राशा नही रखता था । अब तो मुझे यह भी लगता है कि राज्य के गुप्तचर विभाग ने जो सूचना मुझे दी है वह सच्ची है।'
इसके उपरान्त अपने स्वर को और ऊचा कर एव किचित क्रोध में सम्राट ने पूछा - 'क्या यह सच है कि आपने लिच्छवियो को भेंट स्वरूप गुप्त रूप से कुछ वस्तुएं मंत्री है।'
वस्सकार ने अपना सर नीचा कर लिया। उनके इस व्यवहार से सारी सभा सन्नाटे मे आ गई । किसी के अनु मान मे भी यह बात नहीं थी कि महामात्य वस्सकार मगध राज्य के साथ धोखा करेंगे । अब सभी उत्सुक होकर सम्राट की ओर देखने लगे ।
सम्राट तीक्ष्ण दृष्टि से वस्सकार की ओर देख रहे थे। उनकी श्योरी चढी हुई थी एकाएक उन्होंने गंभीर शब्दो मे कहा - ' वस्सकार तुम महामात्य रहने लायक अब कदापि नही रहे । श्रब मैं समझ गया कि पिछले दस युद्धों मे हमारी हार क्यों हुई है। मैं तुम्हें ऐसी सजा दूंगा कि मगध राज्य में यह भी एक उदाहरण स्वरूप रहे ।'
यकायक उन्होने कहा - 'हमारी आज्ञा है कि वस्सकार का सर मुंडन कराकर नगर से निकाल दिया जाय मगध साम्राज्य की कोई भी प्रजा वस्सकार को स्थान एवं भोजन न दें ।'
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सम्राट का अधूरा सपना
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इतना कहने हुए सम्राट कुणिक उठ खडे हुए। सारी वे कहतेसभा खड़ी हो गई । जैसे ही सम्राट प्रोझन हुए, सभाग्रह 'हमारे ऊपर तुम्हें विश्वास नहीं है. तुम सही बात मे कोनाहल मच गया और तभी वस्सकार चिल्ला उठा- नही बता रहे हो।' 'मगधवामी मून लो, कान खोन कर सुन लो, मै तुम्हारी इतना कह, सदा के लिए वे उसके दुश्मन बन जाते। नगरी क सभी दुर्बल स्थानों को जानता हूँ। मैने ही कभी किसी लिच्छवी से वस्सकार कहता 'तुम्हारे तुम्हारे दुर्गों के आकार-प्रकार आदि बनवाए है। मैं तुम्हारा
। मैं तम्हारा यहाँ क्या शाक भाजी बनी है? और वही बात दिर वहाँ नाश कर दूंगा।'
होती। संन्यदल वस्सकार को बेडियों में कसकर खीचे तो किसी एक लिच्छवी को एकान्त में ले जाकर कहता. जा रहा था। कुछ लोग सहमे हुए उसकी बात के ऊहा- "तुम बड गरीब हो।" पोह मे खडे थे । युवक उसे भुजा हिला-हिला कर मार किसी को कहता-'तुम बडे कायर हो।' डालने की धर्माकयाँ देते हुए गालियां दे रहे थे ।
वे पूछते-'किसने कहा है ?' चतुर अमात्य वस्सकार की कूटनीति सफल हुई। तो वह उत्तर में किन्ही दूसरे लिच्छवी का नाम उसके बताए हुए तरीके पर सम्राट ने सभा मे सफल बता देता। नाटक किया। कोई नही समझ सका कि लिच्छवियो को इस प्रकार की कूटनीति से उसने कुछ दिनो मे धोखा देने के लिए यह जाल बिछाया गया है।
लिच्छवियो मे परस्पर अविश्वास और मनोमालिन्य फैला बस्मकार तिरस्कृत और अपमानित क्या हया कि दिया। अब वैशाली में आपसी कलह और मतभेद एक लिच्छवियो ने उसे अपने यहाँ प्राथय दिया एवं शीघ्र ही साधारण सी बात हो गई। एक राज्य का मन्त्री अगर उसे लिच्छवि गणतन्त्र का प्रामात्य बना दिया गया। स्वार्थी और घोखेबाज हो जाए तो सारे राज्य और प्रजा लोगो को वहाँ भरोसा हो गया कि मगध का भूतपूर्व महा- के चरित्र को वह कितना गिरा सकता है इसे वस्सकार मात्य अब उन्हे मगध का विनाश कराने मे अत्यन्त सफ- ने अपने २-३ वर्ष के मन्त्रित्व काल में ही वैशाली में रह लता पर्वक मत्रणा देगा।
कर दिखला दिया। थोडे ही दिनो मे वस्सकार ने वैशाली में अपना इस प्रकार कपट पूर्वक उसने जब पैशाली के जन जन प्रभाव डालना प्रारम्भ कर दिया। उसने बुद्ध की बातों में कलह और घृणा का बीज बो दिया तो इस चतुर से समझ लिया था कि लिच्छवियो मे बिना फट का बीज अमात्य के सकेत पर सम्राट अजातशत्र कुणिक तीन वर्ष के बोए उनको हराया नही जा सकता, और वह अपने पद उपरान्त अपनी सारी शक्ति के साथ वैशाली पर टूट पड़ा। का सपूर्ण लाभ उठा कर उनको प्रापस में लडवाने के पूरे नियमानुसार वैशाली में सकट की भेरी बजवाई प्रयत्न मे लग गया।
जब कभी बहुत सारे लिच्छवि एकत्र होते, वह उनमे ___-'सभी नागरिक चलं, शत्रुओं को गगा के पार न से किसी एक को एकान्त मे ले जाता और पूछता- होने दे।' -खेत जोतते हो?
परन्तु कोई प्राया? कोई नही पाया । -हाँ जोतते है।
मगध की सेना ने गगा पार कर ली। -'दो बैल से ?'
दूसरी बार सकट की भेरी फिर बजी। -हाँ, दो बेल से ।
-'शत्रुओं को नगर में नहीं घुसने दो। द्वार बन्द दूसरे लिच्छवि उससे पूछते कि महामात्य ने क्या कर अन्दर रहो।' कहा । जब वह सारी बात बताता, तो उन्हे विश्वास नही परन्तु कुछ प्राये, जो नही पाए वे कहते सुने गएहोता कि महामात्य ने ऐसी साधारण बात कही होगी। -'हम तो गरीब हैं, हम क्यो लड़ेगे।'
गई।
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१२८, वर्ष २३, कि० ३
अनेकान्त
-'हम तो कायर है हम क्या लडेगे ?'
कहते है देव उसे वापस ले गए। -जो श्रीमन्त है शूरवीर हैं वे लड़ें।'
सम्राट अजातशत्रु की विजय पताका वैशाली पर फह-इस प्रकार वैशाली के लाखों मनुष्यों का संहार राने लगी। फिर तो मागधी सेना द्वारा इतना अत्याचार हमा । एक विशेष प्रकार का मन्त्र चानित रथ बिना और अनाचार हा कि मागघी सेना के ही जो समझदार किमी सारथी के वैशाली--सेना के बीच निर्द्वन्द मूसल की व्यक्ति थे काँप उठे। सम्राट तो स्वय ग्रामोद प्रमोद मार करता हा एव लोगों को कुचलता हुआ घूम रहा और उत्सवो मे व्यस्त थे, उन्होने भी इसे रोकने का कोई वा उमके द्वारा ही एक दिन मे वैशाली सेना के लाखो प्रयत्न नही किया। स्वय राजपुत्र उदायीभद्र ने सम्राट से मनुष्य कुचन दिए गए।
इस विषय में निवेदन किया परन्तु वह भी निरर्थक हुआ। चेटक और नवमल्नवी, नवलिच्छवी ऐसे १८ काशी, राजपुत्र उदायीभद्र को सम्राट और उसकी सेना से कौशल के गणराजानों की बहुत बड़ी ऐतिहासिक पराजय घृणा हो गयी। वह संनिको की एक टुकड़ी लेकर सम्राट
के वापस जाने के पूर्व ही मगध की अोर लोट पड़ा। सम्राट अजातशत्रु-कुणिक विजयी हुअा।
कुणिक के गर्व का ठिकाना नही था । वह अपने को पराजित चेटक अपने कोट मे चला गया। प्राकार
चक्रवर्ती समझने लगा था और विश्व-विजय की धुन के द्वार बन्द कर लिए गए। कुणिक प्राकार को घेरे बहुत
उसके सिर पर सवार हो गई। दिनों तक पड़ा रहा।
राजधानी वापस पाकर वह भगवान महावीर के __ अमात्य वस्मकार ने दूसरी चाल चली । मगध की
समवशरण मे पहुँचा । विनय आदि क्रियानो के उपरान्त नगरवध, मागधिका वेश्या की उसने सहायता ली।
उसने प्रश्न किया। वैशाली के नागरिको में यह बात फैलाई गयी कि वैशाली
'भगवान क्या मै चक्रवर्ती हूँ? मे स्थित तीर्थकर मुनि मुव्रतनाथ के मानस्तम्भ के टूट जाने
भगवान की दिव्य ध्वनि हुईपर वैशाली बच सकेगी। फिर क्या था। लोगो ने मानस्तम्भ को तोडना
--'क्या मै चक्रवर्ती हो सकूगा' ? प्रारम्भ कर दिया। कायरो को पता नहीं था कि इस
- 'इस काल मे बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं । तेरहवां मानस्तम्भ के अतिशय से वैशाली अजेय बनी हुई थी चक्रवर्ती नही होने का।'-दिव्य ध्वनि फिर हुई। और महाबनी अजातशत्रु की सारी शक्ति वैशाली पर
- 'पदासीन चक्रवर्ती मरने के बाद कहाँ जाता है ? पूर्ण विजय करने में समर्थ नही हो सकती थी।
-'सप्तम नरक मे।' जैसे ही मानस्तम्भ टूट कर गिरा, मगध की सेना
--'मैं मर कर कहाँ जाऊंगा' ? वस्स कार का सकेत पाकर पूरी शक्ति से टूट पड़ी।
--'तुम छठवे नरक मे जानोगे'। वैशाली का सर्वनाश हो गया।
परन्तु उसे इन सारी बातों पर विश्वास कहाँ था ? हल्ल और विहल्ल हार और हाथी शत्रु से बचाने
उसे तो चक्रवर्ती बनने की धुन थी। तीव्र मान के कारण के लिए भाग खड़े हुए।
वह अन्धा हो गया था। प्राकार की खाई में भीषण अाग लगी हुई थी।
वह दिग्विजय के लिए निकल पड़ा। तिमिस्र की सेचनक हाथी इसे अपने विभङ्ग ज्ञान से जान चुका था।
गुफा मे उसे किसी ने रोका। कोई कहते हैं वह देवता उसे बलात् बढ़ाया गया तो उसने उन दोनो को सूंड से
था। कोई कहते है राजपुत्र उदायीभद्र था। परन्तु उसी पकड़ कर नीचे उतार दिया। अपने स्वामियों को अग्नि
अन्धेरी गुफा में गर्वीले अजातशत्रु कुणिक की हत्या हो मे जल मरने से उसने बचाया और स्वयं अग्नि में प्रवेश कर गई। गया। देवप्रदत्त हार का क्या हपा, किसी को पता नहीं। सम्राट का सपना अधूरा रह गया। .
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दिल्लो पट्ट के मूलसंघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र
परमानन्द जैन शास्त्री
प्रभाचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गए है । एक नाम तहि भव्वहि सुभहोच्छव विहियउ, के अनेक विद्वानों का होना कोई आश्चर्य की बात नही है। सिरि रयणर्णाकत्ति पट्टणिहियउ । जैन माहित्य और इतिहास को देखने से इस बात का महमंद साहि मणुरंजियउ, स्पष्ट पता चल जाता है कि एक नाम के अनेक प्राचार्य विज्जहि वाइयमणुभजियउ ॥ विद्वान और भट्टारक हो गए है। यहाँ दिल्ली पट्ट के
-बाहुबलि चरित प्रशस्ति मुलसघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध में विचार करना उस समय दिल्ली के भव्यजनो ने एक उत्सव किया इम लेग्व का प्रमुख विषय है।
था और भ० रत्नकीति के पट्ट पर प्रभाचन्द्र को प्रतिष्ठित पट्टे श्री रत्नकीर्तेग्नपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्र.
किया था। मुहम्मद बिन तुगलक ने सन् १३२५ (वि० व्याख्या विख्यातकीति गणगणनिधिपः सत्क्रियाचाराचंचः।।
स० १३८२) से सन् १३५१ (वि० स० १४०८) तक श्रीमानानन्द धामा प्रति वुधनुतमामान संदायि वादो।
राज्य किया है। यह बादशाह बहुभाषा-विज्ञ, न्यायी, मीयादाचन्द्रतारं नरपति विदितः श्रीप्रभाचन्द्र देव ॥
विद्वानों का समादर करने वाला और अत्यन्त कगर (जैन सि० भा०, भा० १ किरण ४)
शासक था। अतः प्रभाचन्द्र इसके राज्य में स० १३८५ के
लगभग पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए हो। इस कथन से पट्टापट्टावली के इस पद्य मे प्रकट है कि भट्टारक प्रभा
वलियों का वह समय कुछ प्रानुमानिक सा जान पडता है । चन्द्र रत्नकीनि भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्टित हुए थे।
वह इतिहास की कसौटी पर टीक नही बैठता। अन्य रत्नकीति अजमेर पट्ट के भट्टारक थे। दूसरी पट्टावली में किसी प्रमाण से भी उसकी पुष्टि नहीं होती। दिल्ली पट्ट पर भ० प्रभाचन्द्र के प्रतिष्ठिन होने का समय
प्रभाचन्द्र अपने अनेक शिष्यो के साथ पट्टण, खंभात. स. १३१० बतलाया है। और पट्टकाल स० १३१० से
धारानगर और देवगिरि होते हुए जोइणिपुर (दिल्ली) १३८५ तक दिया है, जो ७५ वर्ष के लगभग बंटता है। पधारे थे। जैसा कि उनके शिष्य वनपाल के निम्न उल्लेख दूसरी पट्टावली मे सं० १३१० पौष सुदी १५ प्रभाचन्द्र जी
° १३१० पाप सुदा १५ प्रभाचन्द्र जी से स्पष्ट है :गृहस्थ वर्ष १२ दीक्षा वर्ष १२ पट्ट वर्ष ७४ मास ११ पट्टणे खंभायच्चे धारणयरि देवगिरि । दिवस १५ अन्तर दिवस ८ सर्व वर्ष ६८ मास ११ दिवस मिच्छामयविहणंतु गणिपत्तउ जोपणपुरि । २३ । (भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ६१)।
-बाहुबलि चरिउ प्र. भट्टारक प्रभाचन्द्र जब भ० रत्न कीति के पट्ट पर
आराधना पजिका के सं० १४१६ के उल्लेख से स्पष्ट प्रतिष्ठित हुए उस समय दिल्ली में किसका राज्य था, है कि वे भ० रत्नकीर्ति के पट्ट को सजीव बना रहे थे। इसका उक्त पट्टावलियो मे कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु १. सं० १४१६ चैत्र सुदि पचम्यां सोमवासरे सकलराज भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य धनपाल के तथा दूसरे शिष्य ब्रह्म शिरोमुकुट माणिक्य मरीचि पिंजरीकृत चरणकमल नाथूराम के सं० १४५४ और १४१६ के उल्लेखो से ज्ञात पादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः मकल साम्राज्य धुरीबिभ्राहोता है कि प्रभाचन्द्र ने मुहम्मद बिन तुगलक के मन को णस्य समये श्री दिल्या श्रीकुदकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती अनुरंजित किया था और वादी जनों को बाद मे परास्त गच्छे बलात्कारगणे भ० श्रीरत्नकीर्तिदेव पट्टोदयाद्रि किया था - जैसे उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है :
तरुणतरणित्वमुर्वीकुर्वाणं भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देव
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१२०, वर्ष २२, ०३
इतना ही नही, किन्तु जहाँ वे अच्छे विद्वान, टीकाकार, व्याख्याता मौर मत्र-तत्र वादी थे, वहाँ वे प्रभावक व्यवितत्व के धारक भी थे। उनके अनेक शिष्य थे । उन्होंने फीरोजशाह तुगलक के अनुरोध पर रक्ताम्बर वस्त्र धारण कर अन्तःपुर में दर्शन दिये थे। उस समय दिल्ली के लोगों ने वह प्रतिज्ञा की थी कि हम आपको सवस्य जती मानेंगे। इस घटना का उल्लेख बखतावर शाह ने अपने बुद्धिविलास के निम्न पद्य मे किया है :दिल्ली के पातिसारि भये पेरोजसाहि जब
चांदा साह प्रधान भट्टारक प्रभाचन्द्र तब, आये दिल्ली मांसि वाद जीते विद्यावर,
अनेकान्त
पुर
साहि रोकि के कही कर दरसन सिंह समं संगोट सिवाय पुनि चांद बिनती उच्चरी । मानि हैं जती जुत वस्त्र हम सब श्रावक सौगद करी ।। ६१६
यह पटना फीरोजशाहके राज्यकाल की है, फीरोजशाह का राज्य सं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटना को विद्वज्जन बोधक मे स० १३०५ की बतलाई है जो एक स्थूल भूल का पfणाम जान पड़ता है क्योकि उस समय तो फीरोजशाह तुगलक का राज्य ही नही था फिर उसकी संगति कैसे बैठ सकती है। कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्द्र ने वस्त्र धारण करके बाद मे प्रायश्चित लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करने की परम्परा चालू हो गई ।
इसी तरह अनेक घटना क्रमो मे समयादि की गडबड़ी तथा उन्हे बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का रिवाज भी हो
गया था ।
दिल्ली में पलाउद्दीन खिलजी के समय राघो चेतन के समय घटने वाली घटना को ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किये बिना ही उसे फीरोजशाह तुगलक के समय की
सत्शिष्याणा ब्रह्म नाथूराम इत्याराधना पंजिकायां ग्रन्थ म्रात्म पठनायें लिखापितम
दूसरी प्रशस्ति सं० १४१६ भादवा सुदी १३ जैन साहित्य और इतिहास गुरुवार के दिन की लिखी हुई द्रव्यसंग्रह की है जो जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार मे सुरक्षित है। ग्रंथ सूची
भा० ३,
ܐ ܘܟܐ •
घटित बतला दिया गया है। (देखो बुद्धिविलास पृ० ७६; घोर महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १९६२ का क पृ० १२८ ) 1
राघव चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति है और पलाउद्दीन खिलजी के समय हुए है। यह व्यास जाति के विद्वान मंत्र, तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्म पर इनकी कोई आस्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि महासेन से हुआ था उसमे यह पराजित हुए थे।
ऐसी ही घटना जिनप्रसूरि नामक इ० विद्वान के सम्बन्ध में कही जाती है- एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक की सेवा मे काशी से चतुर्दशविद्या निपुण मंत्र तंत्रज्ञ राघव चेतन नामक विद्वान आया। उसने अपनी चातुरी से सम्राट् को रजित कर लिया। सम्राट् पर जैनाचार्य श्री जिनप्रभ सूरि का प्रभाव उसे बहुत अखरता था । श्रत. उन्हे दोषी ठहरा कर उनका प्रभाव कम करने के लिए सम्राट की मुद्रिका का अपहरण कर सूजी के रजोहरण मे प्रच्छन्न रूप से डाल दी। (देखो जिनप्रभ सूरि चरित पृ० १२) । जब कि यह घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय की होनी चाहिए। इसी तरह कुछ मिलती-जुलती घटना भ० प्रभाचन्द्र के साथ भी जोड दी गई है। विद्वानो को इन घटनाचक्रों पर खूब सावधानी से विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिए।'
टीका- ग्रन्थ
पट्टावली के उक्त पद्य पर से जिसमे यह लिखा गया है कि पूज्यपाद के शास्त्रों की व्याख्या से उन्हे लोक में अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपाद के समाधितत्र पर तो ० प्रभाचन्द्र की टीका उपलब्ध है । टीका केवल शब्दार्थ मात्र को व्यक्त करती है उसमे कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिससे उनकी प्रसिद्धि को बल मिल सके। हो सकता है कि वह टोका इन्ही प्रभाचन्द्र की हो, आत्मानुशासन की टीका भी इन्ही प्रभाचन्द्र की कृति जान पडती है, उसमे भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नही होती ।
रही रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका की बात, सो उस टीका का उल्लेख पं० भाशावरजी ने धनगरमृत की टीका में किया है।
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दिल्ली पट्ट के मूलसंघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र
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"यथाहस्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादारत्नकरण्डटीका
समय-विचार यां चतुरावतंत्रितय इत्यादि मूत्र द्विनिषद्यरत्यम्यव्याख्याने- प्रभाचन्द्र का पट्टावलियों में जो समय दिया गया है, देववन्दनां कुर्वताहि प्रारम्भ समाप्तीचोपविश्य प्रणाम: वह अवश्य विचारणीय है। उसमे रत्न कीर्ति के पट्ट पर कर्तव्य इति ।'
बैठने का समय स० १३१० तो चिन्तनीय है ही। स० इन टीकानो पर विचार करने से यह बात तो सहज १४८१ के देवगढवाले शिलालेख मे भी रत्नकीति के पट्ट ही ज्ञात होती है कि इन टीकामो का प्रादि-अन्त, मगल पर बैठने का उल्लेख है, पर उसके सही समय का उल्लेख और टीका की प्रारभिकसरणी मे बहुत कुछ समानता नही है । प्रभाचन्द्र के गुरु रत्नकीत्ति का पट्टकाल पट्टावली दष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकाओं का कर्ता कोई में १२६६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नही जचता, एक ही प्रभाचन्द्र ोना चाहिये । हो सकता है कि टीका. सभव है वे १४ वर्ष पट्टकाल मे रहे हों। किन्तु वे अजमेर कार की पहली कृति रत्नकरण्डकटीका ही हो । प्रौर शेष पट्ट पर स्थित हुए और वही उनका स्वर्गवास हुआ । ऐसी टीकाए बाद में बनी हों। पर इन टीकाग्रो का कर्ता प्रभा- स्थिति में समय सीमा को कुछ बढा कर विचार करना चन्द्र प० प्रभाचन्द्र ही है, प्रमेयकमलमार्तण्ड के कर्ता प्रभा- चाहिए, यदि वह प्रमाणों प्रादि के प्राधार से मान्य किया चन्द्र इनके कर्ता नही हो सकते । क्योकि इन टीकामो मे जाय तो उसमे १०.२५ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, विषय का चयन और भाषा का वैसा मामजस्य अथवा जिससे समय की सगति ठीक बैठ सके। आगे पीछे का उसकी वह प्रौढता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड सभी समय र्याद पुष्कल प्रमाणोकी रोशनी मे चचित होगा, पौर न्यायकुमुदचन्द्र मे दिग्वाई देती है। यह प्रायः सुनि- वह प्रायः प्रामाणिक होगा। आशा है विद्वान् लोग भट्टाश्चित-सा है कि वे धारावामी प्रभाचन्द्राच यं जो माणि- रकीय पट्टावलियो में दिये हुए समय पर विचार करेंगे, क्यनन्दि के शिष्य थे उक्त टीकाप्रो के कर्ता नहीं हो अन्य कोई विशेष जानकारी उपलब्ध हो तो उससे भी मझे सकते ।
सूचित करेगे।
मथुरा के सेठ मनीराम
परमानन्द शास्त्री जयपुर राज्यान्तर्गत मालपुरा ग्राम के निवासी थे। वास होने पर उनके कुटुम्बियों भाई-भतीजों ने अपने अधि. उनकी जाति खडेलवाल और धर्म जैन था। वे आर्थिक कार के लिए मनीराम और लक्ष्मीचन्द्र के विरुद्ध मुकदमा परिस्थिति वश अपने जन्म स्थान को छोडकर ग्वालियर प्रा दायर किया था। वह मुकदमा कई वर्ष तक चला, परन्तु गये थे । और वहाँ पारिख जी की सेवा में रहने लगे थे। अन्त मे उसका निर्णय मनीराम लक्ष्मीचद्र के ही पक्ष मे वे अपनी योग्यता और कार्य दक्षता से पारिख जी की हुआ था।
' मनीराम जी ने पारिख जी की विपुल सम्पत्ति को उन्नति के साथ-साथ मनीराम की भी उन्नति होती रही।
धार्मिक कार्यों में लगाने के साथ ही साय उसे कारोबार जब पारिखजी ने ग्वालियर से ब्रज में निवास किया, तब वे ।
व मे भी लगाया। और मनीराम लक्ष्मीचन्द्र के नाम से एक भी उनके साथ थे । मनीराम के तीन पुत्र थे । लक्ष्मीचन्द्र, .
। प्रतिष्ठान की स्थापना की। उसके द्वारा उन्होंने लेन-देन राधाकृष्ण और गोबिन्द दास ।
का व्यवहार प्रारम्भ किया। जिससे सम्पत्ति में खूब वृद्धि पारिख जी ने अपनी मृत्यु से पहले ही लक्ष्मी चन्द्र हुई। पुण्य का उदय जो था। उनके प्रतिष्ठान को साख को अपना उत्राधिकारी बना दिया था। और अपनी सारी लोक में प्रसिद्ध हो गई। और वे व्रज क्षेत्र के सबसे अधिक सम्पत्ति मनीराम जी को सोंप दी। पारीख जी के स्वर्ग- घनिक माने जाने लगे । उनकी उदार परिणति और जन
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१३२, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
धारण का सेवा कार्य भी उनकी प्रसिद्धि में चार चांद ले पाए। सेठजी ने उनकी सेवा सुश्रुषा की, परन्तु पं० लगा रहा था । वे जैसे सभ्रान्त कुल मे जन्मे थे उसी के जी बडे विवेकी निष्ठावान और निस्पृह वृत्ति के अनुभवी अनुसार उनका स्वभाव भी नरम और सौहार्दता को विद्वान थे, उन्हें सेठ जी के वैभव में रहना इष्ट नही था, लिए हुए था। मनीराम जी स्वय धर्मात्मा और एक वे चाहते थे कि मै यहाँ से कब निकल पाऊँ । उनका मन
माणिक व्यक्ति थे । उनकी प्रामाणिकता ही उनके कार्य एक घडी भी शान्त न रह सका। यद्यपि सेठजी की ओर को साधिका और व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा की ससूचक थी। से सब प्रकार की सुख-सुविधा उन्हें उपलब्ध थी और सेठजी उनकी यह सब बाते लक्ष्मीचन्द जी को विरासत में मिली स्वयं उन्हे बार-बार पूछते और आदर करते थे, परन्तु ही। वे बहुत ही योग्य विचारक, सहृदयवान, दयालु और प० जी का अन्तःकरण उस वैभव की चकाचौध से घब परोपकारी थे ।
राता था, वे शान्त और एकान्त वातावरण में रहना पसन्द ग्वालियर नरेश दौलतराम जी सिन्धिया के देहावसान करते थे। वे उदरपूर्ति के लिए मादा भोजन उपयुक्त के बाद रानी वायजावाई ने सेठ मनीराम को ग्वालियर मानते थे। और गरिष्ठ एवं स्वादिष्ट सरख व्यजनो से राज्य का खजानची नियुक्त किया था । वहाँ के सरकारी अपने को सरक्षित रखना चाहते थे । मखमली गद्दो पर कागजों के अवलोकन से उक्त बात का पता चलता है कि बैठना उन्हें असह्य था, वे उन्हें अनन्त जीवो का पिण्ड उस समय ग्वालियर राज्य में उनका बड़ा प्रभाव था। समझते थे। इसी से उन मखमली गद्दो पर चिटाई बिछावे दानी और परोपकारी होने के साथ धार्मिक कार्यों में कर बैठते सामायिक करते और सोते थे । परन्तु अन्तःकरण पैसा लगाना अपना परम कर्तव्य मानते थे । परिणाम- से वे अपने को एक कैदी के अनुरूप मानते थे, ववहा से स्वरूप चौरासी का दि० जैन मन्दिर उनकी जैन धर्म- शीघ्रही लौटना चाहते थे, परन्तु सेट जी का अत्यधिक प्राग्रह प्रियता का अच्छा निदर्शक है। उसमें पहले इन्होंने भगवान उसमें बाधक था। जब वे सेठजी से अपने वापिस जाने चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रतिष्ठित की थी, और बाद मे अजित- की बात कहते तभी सेठजी उन्हे अनेक तरह से सान्त्वना नाथ की विराजकान की गई।
देकर रोक देते थे। और यह भी निवेदन करते थे कि पडित मनीराम जी विद्वानो के भक्त थे। उनका वे उचित जी प्रापको जिस वस्तु की पावश्यकता हो लीजिए, और आदर सत्कार करते थे। १० चम्पालाल जी तो प्रायः सेवा में लाकर प्रशफियो के ढेर लगा देते, पर प० जी उनके गहाँ ही रहते थे और वे उनका आदर करते थे। इतने निरीह व्यक्ति थे कि उनका स्पर्श भी उन्होने एक दिन सेठ मनीराम जी पं० चम्पालाल जी को साथ नही किया। वे अपने स्वाभिमान के पक्के धनी थे । लेकर हाथरस गए। वहां उन्हे १० दौलतरामजी, जो छींटे
___ इस तरह जब ५-६ दिन बीत गए, और वापिस छापने का कार्य करते हुए भी प्रतिदिन ५० श्लोक कण्ठ नही जा सके. तब सामायिक के समय प्रात.काल करना अपना कर्तव्य मानते थे। जब सेठ सा० पहुँचे तब यह विचार किया कि अब यहाँ में चला जाना चाहिए पण्डित दौलतराय जी गोम्मटसार को स्वाध्याय कर रहे और सामायिक के वाद वे सेठजी से बिना कहे ही ग्वालिथे। सेठजी और चम्पालाल जी भी वही बैठ गए । और यर अपने पुत्रों के पास चले गए। उसके बाद वे फिर परस्पर तत्त्व चर्चा करने लगे। प० दोलतराम जी तत्त्व कभी सेठजी के यहाँ नही गये, सेठजी को उनके बिना कहे चर्चा करने मे बड़े दक्ष थे। सेठ जी उनकी सरल धार्मिक चले जाने से बडा खेद हुअा, वे बहुत पछताए। तत्त्वचर्चा से अत्यन्त प्रभावित हुए, सेठजी पर जहाँ उनकी सेठ मनीरामजी एक धार्मिक श्रावक थे। लगन के पार्मिक चर्चा का और निश्छल प्रवृत्ति का ऐसा प्रभाव अकित पक्के और कार्य करने में अत्यन्त चतुर थे। मनीराम जी हुप्रा कि वे पण्डित जी को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। की मृत्यु सं० १८९३ में हुई थी। मनीराम और गोकुलकिन्तु पं० जी को वे अपने साथ मे ले जाना चाहते थे। दास पारीख की सुन्दर छतरियां मथुरा के जमुना वाग प्रेरणा के बाद पं० जी ने स्वीकृति दे दी। और वे उन्हें मथुरा में बनी हुई है।
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राजस्थानी लोककथाओं में अभिप्राय और
कथानक रूढ़ियों की सीमा रेखाएं
श्री रमेश जैन अभिप्राय, मनुष्य की प्रादिम काल से अब तक की जिसके पेट मे मात माह का बच्चा था। उसने भूत को ऐतिहासिक जीवन यात्रा में जीवन को जीने व रक्षित झासा दिया। कि वह इन सूनी हवेलियो मे अपने व्याहे करने के निमित्त प्रकृति से स्थापित सामंजस्य, अपनी मूल सात भाइयों को बसाने के लिए उन्हें बुलाने पीहर जाना वृत्तियों भय, त्राण, हर्ष विषाद मुख-दुख मे जिए अब तक चाहती है। भूत ने उसे इजाजत दे दी। भूतों मे शक्ति के मूल्य और उसकी परम्पग के प्रति मोह में निहित है। तो बहुत होती है पर उनमे प्रकल का प्रश भी नही होता।
अभिप्राय जीवन मूल्यो व विश्वासो की वह परम्परा विधवा बहू पीहर जाकर नहीं लौटी। है जिसे खुले आकाश के तले खडे मानव ने जीवन की उसको एक बेटा हमा। जो बारह साल की उम्र मे बारहखडी से प्रारम्भ करके, अब तक के ममद्ध व सम्पन्न ही बहुत शैतान हो गया था : गांव मे शरारत करता जीवन को इस सूदीर्घ अवधि में पाया है। इन मूल्यों व फिरता था। एक दिन नाई के लडके को झुरनी खेलत विश्वास के निर्माण मे वह सभी शामिल है जो उमने इस समय पटक दिया तो वह ताना मारता हुमा बाला एसा सुदीर्घ जीवन मे मीखा, जोडा और छोडा है। इम जोडने बहादुर बनता है तो अपने घर वाला का बदला चुका,
र पार बाहर की सभा शक्तियो जिन्हे भतो ने खा लिया है। बान मीधी लडके के कलेजे ने क्रियात्मक भाग लिया है। लोक जीवन में घुले इन जाकर लगी। मा से बोला-मा मच्ची बात बता । मैं अभिप्रायो को दीर्घ यात्रा कैसी रही, आदिम मूल्यों से
भून, प्रेत, राक्षस, जिन्द, खवीस कोई हो, घर वालो का लोक रूप तक का लेखा जोखा' प्रस्तुत निबन्ध का प्रयो
बदला लेकर छोड़ गा। मेरी बुद्धि पर भरोसा रख । मा जन नहीं है।
ने पहले टालमटूली की फिर अन्न मे सब बात बता दी। अभिप्राय स्पष्ट रूप से कथ्य अथवा कथानक
मंह में मागलिक गुड देकर उसने अपने बेटे को घरवालो (theme) और रूढि (type) से भिन्न है। थीम कथा का बदला लेने के लिए विदा कर ही दिया। का कथ्य या प्रयोजन होता है। कथ्य के प्रस्तुतीकरण में
उस गाव के लोगो के समझाने व रोकने के बावजूद, बुने कथा जाल मे अभिप्राय स्वतः ग्रहीत है। इस विचारणा
उसने हवेली मे डेरा जमाया । उस समय भूत अपने मित्र को स्पष्ट करन के लिए राजस्थानी की एक लोक कथा
से मिलने गया था। घमते-घूमते वह रसोई घर में 'उमर का परवाना ले ले । सक्षा में कथा यो है -
पत्वा । वहाँ उमने प्राटा, घी, गुड की सामग्री का ढेर ____एक बनिए के मात बेटे थे। बनिए ने सातो बेटो के
देख कर अनुमान किया कि भूत स्वय पाकी है। लौटने लिए अलग-अलग हलिया दुकाने व बाड़े बनवा दिये थे।
पर भखा होगा उम तयार रसोई उपलब्ध करा कर प्रसन्न पर होनहार को नमस्कार ! उसके मामने किसी का वश
करने का मुअवसर है। भूत को लौटने पर हलुए और नही चलता। उसी वस्ती में एक भूत का बसंग था।
मनुष्य को गन्ध प्राई। वह लडके पर झपटता है पर वह अपनी भूख और इच्छानुसार बारी-बारी सब को
लड़के के निश्चित भाव से हंसने पर पूछता है कि मै तुझे गटकता गया। अन्त मे छोटे बेटे की विधवा बहू बची
स्वाने वाला हूँ और तू हसता है। मुझे इसका कारण १. देखे लेखक के निबन्ध : मानव की ऐतिहासिक यात्रा, बता । लडका निशंक होकर बोला-मैने सारे दिन मेह
मूल वृत्तियों से सम्बद्ध अभिप्रायो का लोकीकरण। नत करके अपने मामा के लिए इतनी सफाई से रसोई २. बाता री फुड़वाड़ी भाग १: स.विजयदान देथा। बनाई, जिसका मुझे यह फल मिल रहा है। पिछले जन्म
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१३४ वर्ष २३, कि० ३
अनेकान्त
में खोटे कर्म किए जभी तो भूत योनि भुगत रहे हो। भूत को बाबा न कह कर 'मामा' जैसे ममत्वपूर्ण सम्बन्ध भूत पश्चाताप करता हुमा बोला-मुझसे भूल हो गई। जोडकर, उमके निरापद हो जाने के लोक विश्वास का फिर उसने पेट भर हलुपा खाया।
निरूपण है। उसके अनुसार यदि 'बाबा' प्रकट हुए तो उस लडके ने भूत को प्रसन्न कर लिया और फिर झट मामा कह बैठेगे । फिर 'बाबा' भाजे पर हाथ छोड़ने उसके मारने का अवसर ढूढने लगा। भूत बना बनाया का साहस थोड़ा ही करेंगे ?' इसी तरह यह विश्वास भी खाना खाकर घमने निकल जाते । लड़के ने अकेलेपन की रूढिगत हो चुका था कि 'बदले को प्रेरित करने के लिए बात कह घर लौटने की बात कही। भूत इस बात से चुनौती देना' जिससे कथा नायक कुटुम्बियों की मृत्यु का परेशान हुमा उसने घर पर ही रहने का वचन दिया। बदला लेने का दृढ़ सकल्प करता है। यह रूढि कथायो मे पर उस दिन अमावश्या थी भत शाम को खाना खाकर बहत प्रचलित है। लोक महाकाव्य माल्टा मे प्राल्दा चलने लगा तो लडके ने उसके वचन को याद कराया। और ऊदल को इसी तरह उनके मामा 'माहिल' ने 'करिया' उसने कहा सिर्फ एक रात बाहर रहूंगा। "प्रमावश की द्वारा मारे गये पिता के बदले के लिए चुनौती दी थी। रात हम सारे भूत, पलीत, जिन्द, खवास, राक्षस, दत्य इससे यह स्पष्ट ही है कि 'अभिप्राय' कथा रूढ़ि पोर कथायमराज और विधाता सब इकट्ठे होकर सलाह करने
प्रयोजन से एकदम भिन्न है । मनष्य योनि मे किसके मरने की बारी है, सभा करते हैं।" कथा रूढिया कथानक रूढि से अभिप्राय को अलग इस पर लड़के ने अपनी और अपने मृत परिवार के लोगों
समझा जाना चाहिए। जीवन के इतने बड़े 'फेज' मे की प्राय के सम्बन्ध में पुछवाया। भूत ने विधाता से मानव ने असंख्य अनुभव किये, उसमे सशोधन और परिपछकर बताया कि उसकी प्रायु अस्सी वर्ष तथा परिवार वर्घन भी हए। उदाहरण के तौर पर-प्रादिम मानव ने के लोग पुनर्जीवित होगे। लड़के ने भूत से उसके जीवन जीवन की रक्षा के लिए पहले पत्थर के औजारों का की चिन्ता प्रकट करके उसके जीवन का रहस्य पूछ लिया। प्रयोग किया और फिर घात से परिचित होने पर भत ने बताया कि उसके कपाल मे अमृत का कटोरा है। कुल्हाडे का। जीवन रक्षा के लिए जब से मानव ने वह जब तक अन्दर रहेगा तब तक वह जीवित रहेगा। कुल्हाड़े को सशक्त माध्यम पाया तब से उसने कुल्हाड़े के
लडके ने अपनी प्रायु व उसकी मृत्यु के रहस्य को 'फल' को अपने गले में पहनना प्रारम्भ कर दिया और जानने के पश्चात् रसोईघर की भट्टी में मिर्च डाल दी। कुल्हाड़ा का फल जीवन रक्षा के साधन के रूप में रूढ़ हो और रसोई घर का दरवाजा बन्द कर दिया। मिर्गों के गया जो प्राज भी हजारो वर्षों बाद का मानव अपने गले धुएं से भूत की सारी शक्ति क्षीण हो गई। लड़के ने में धारण करता है, मेरा तात्पर्य कुल्हाड़े के 'फल' के उसका सिर काट कर अमृत का कटोरा निकाल लिया प्राकार के सोने अथवा चादी के ताबीज से है। यहाँ पर और मरे हुए कुटुम्बियो की हड्डी पर छिडक कर उन्हे यह निर्दिष्ट करना प्रावश्यक होगा कि रूढ़िगत विश्वासों पुनर्जीवित किया।
और अभिप्राय दोनो की सम्बद्धता यद्यपि जीवन से ही है, 'कुटम्बियो का बदला इस कथा की थीम है । इसमे पर अभिप्राय मे परिवर्तन नही होते जबकि रूढ़ियो में चतुराई से जीवन रक्षा करना मूल अभिप्राय है। भूत के काल व सन्दर्भ के अनुसार सशोधन परिवर्धन होते रहे प्राणों का उसके कपाल में रखे अमृत कटोरे में होना सह हैं। रूढ़ियों के वाक सवाद स्वतंत्र अस्तित्व की पृष्ठ भूमि अभिप्राय है। इसी तरह मामा का भानजे को हानि न मे जीवन सन्दर्भ, संस्कृति धर्म, पुराख्यान और विश्वासों पहुँचाने का विश्वास कथानों में रूढ़िगत है। समाज के की परम्परा है। 'अभिप्राय' जीवन मे जिए व स्थापित विकसित सम्बन्धों मे बहिन रक्षणीय हुई और उसका पुत्र मूल्य हैं। एक दूसरे से सन्दभित होते हुए भी अलग हैं। भी। इस प्रसंग मे पं० राहुल सांकृत्यायन की मेरी जीवन श्री पी० सी० गोस्वामी के शब्दों मे 'अभिप्राय की महायात्रा में वणित उस प्रश से है जिसमें बालक लेखक द्वारा नाभि से निकलकर जो जीवन्त सन्दर्भ अपना निजी कक्ष
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राजस्थानी लोककथानों में अभिप्राय और कथानक रूढ़ियों की सीमा रेखाएं
बना लेते है वे किसी उपग्रह की तरह, सौर्यमण्डल (अभि- मूलवृत्ति की सहज घटित घटनाएँ हैं जिन्हे मात्र माज के प्राप) के प्रश होने पर भी अपनी सत्ता विज्ञापित करते नैतिक चश्मेको पहिन कर देखना, समझना उचित न होगा। रहते है।'
___ काल, सन्दर्भ, सम्बन्धो की विभिन्नता पर दुहरायी प्रभप्राय पर कार्य करने वाले पाश्चात्य और प्रायः
जाने वाली घटनाओं ने इस कामेच्छा के मूल अभिप्राय सभी भारतीय विद्वानों ने अभिप्राय को 'टाइप' समझ कर
को रूढ कर दिया और फिर ये भारतीय कथामों की वर्गीकृत किया है। उन्होने अभिप्राय और रूढ मे कोई
स्थायी रूढ़ियाँ बन गयी। जिनके प्रस्तुतीकरण मे कथाभेद नही किया है । फे जर द्वारा किये वर्गीकरण के कुछ
कार ने शिल्प का सहारा अवश्य लिया है । कामेच्छा का अभिप्राय दृष्टव्य है
यह अभिप्राय अपने मूल रूप मे सुरक्षित रहा है। (१) किसी स्त्री के पास उसके पति का रूप धारण
श्री फ्रेजर, ब्ल मफील्ड के 'टाइप' के प्राधार पर करके जाना। (२) कुतिया और मिर्च मिला हुप्रा मांस खण्ड ।
अभिप्राय वर्गीकरण और उनके सामने दोनो की भेदक (३) किसी स्त्री को प्राप्त करने की इच्छा रखने
रेखा का स्पष्ट न होने से, मुझे उनकी समझ के सम्बन्ध वाले प्रेमियो की उस स्त्री द्वारा दुर्गति ।
मे कोई सन्देह नहीं है। इसके लिए यह कहा जा सकता (४) कुलटा स्त्रिया ।
है कि उनकी दृष्टि के मूल मे स्वदेश का लोकजीवन, फेजर ने उपरोक्त 'कामेच्छा' या 'कामवेग' अभि
साहित्य व संस्कृति रही है। उस आधार पर विशाल प्राय का वर्गीकरण कथा मे पाई घटना साम्य (रूढ़ियो)
भारतीय लोक जीवन की व्याख्या करना उनके लिए के 'टाइप' के प्राधार पर किया है इसी तरह 'टाइप' के
असम्भव तो नहीं पर दुष्कर अवश्य रहा है। लोकजीवन प्राधार पर ब्लूमफील्ड ने 'जोसेफ एण्ड पोरिफरस वाइफ
साधारणतः पत्नी का पति के पैर दाब कर, उससे पिट इन हिन्दू तिक्सन'। एव अन्य (१) इको वर्ड मोटिफ,
कर उसमे सुख पाना और पति प्रेम की उपलब्धि मानना, (२) शिवि मोटिफ, (३) प्रोग्रेसिव मोटिफ, (४) माइनर
यह पाश्चात्य विज्ञों के लिए 'नानसेन्स' या 'फिने टिक' ही मोटिफ, (५) प्रोग्रेसिव माइनर मोटिफ आदि उपलब्ध
लगेगा। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उन्होने एक ही ग्राधार की कथा प्रयुक्त रूढ़ियो के आधार पर
भारतीय मूर्तिकला अथवा चित्र के माध्यम से इन्हें समवर्गीकरण किया है।
झने का प्रयत्न किया हो। और एक ही 'टाइप' के अंकन कामकारका मनस्य की प्रादिम बत्ति को देखकर (घटना पाने के समान) उन्हे विभिन्न अभिचाहे वह मानव प्राक् ऐतिहासिक रहा हो, प्रस्तरकालीन प्राय मान लिया अथवा-बडोदा म्यूजियम में दो मूतियो अथवा ताम्रकालीन या अब तक सभ्य होने तक का। का सदर्भ है । एक मूति मे स्त्री के कूल्हे पर बालक खड़ा यमी का अपने सहोदर यम से रमण करने के लिए याचना है और वह अपनी मा का कान खीच रहा है।' दसरी करना, वृहस्पति पूत्र कच मे शक्राचार्य पुत्री देवयानी का मूर्ति मे बालक कमर मे बैठा अपनी मा के स्तन छ रहा प्रणय निवेदन, पाराशर मुनि का सत्यवती पर कामविमो- है।' इस पर चर्चा करते हुए लेखको ने इसे 'कान खीचने हित होकर रमण करना, इन्द्र का गौतम पत्नी अहिल्या वाला बालक' और 'मा का स्तन छुने वाला बालक' से रमण करना, प्रापस्तम्भ धर्म सूत्र में गुरुपत्नी से बला. अभिप्राय है जो ५वी ६ठी शती में प्रचलित थे जब कि त्कार का दण्ड विधान अथवा किस्सा 'रूपबसन्त' की दोनो मूर्तियो मे अप्रिाय वात्सल्य का अंकन है। दोनो के सौतेली मां का बेटे को रमण प्रामन्त्रण देना इत्यादि उस १. Journal of the Indian Socteey of Orientai १. ब्लूमफीर ने कथानक रूढियों अथवा अभिप्रायो का Art : Editor : U. P. Shah and Kalyan K. मध्ययन करते हुए कई निबन्ध लिखे है।'
Gangal (Special number "Western Indian -माध्यमयुगीन साहित्य हिन्दी का लोकतात्विक अध्ययन Art") Page 29.
-डा० सत्येन्द्र पृष्ठ ४८६ २. वही पृष्ठ ७८ ।
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१३६, वर्ष २३, कि.३
अनेकान्त
पंकन में मनशिश का मातृस्नेह है। अथवा माता का पूछ ली थी। बाजार मे सेठ को देखते ही पहिचान लिया। वात्सल्य ।
सेठ के पूछने पर गाड़ी का दाम दो मुट्ठी भर पैसा बतला उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कथा रूढियो पोर दिया। मेठ ने सोचा कि यह कल वाले बाबे से ज्यादा कला रूढ़ियों से उनके अभिप्राय निश्चयन भिन्न है। भोला है। अतः शीघ्र ही हवेली में ले जाकर कहा
प्रसंगतः रुति और कथ्य के भेद को स्पष्ट कर लेना बोहनी के समय पहले दाम पल्ल मे बान्ध ले फिर गाड़ी उचित होगा। जीवन में अनुभवों की रूढस्थितियो, वर्ज- खोलना और जल्दी भीतर जाकर दोनो मूट्रियो मे एकनाएं जिन्हें जीवन हित में स्वीकार किया है। वे समाज एक पैसा बन्द करके ले पाए। चौधरी के बेटे के पास
विकास क्रम में निश्चित हुई है। समाज में ऐसे लोगो पाकर बोले-ले, ये दाम हाथ मे भेल । सेठ दाम देने की उपस्थिति जो अपनी पूर्तता व चालाकी से, अन्य सीधे मुट्ठी खोलने वाले ही थे कि चौधरी के बेटे ने झट लपक एव निष्कपट व्यक्तियो को ठग लेते है। उनके लिए उन्ही कर उनके हाथ पकड़ लिए। कमर में खोंसा तीखा हँसिया के ढग से पेश माने वाला व्यक्ति ही उन्हे सबक देता है। बाहर निकाल कर बोला-सेठ पैसे मुट्टियो से नीचे मत
नरका जीवनानुभव रूविगत रूप में लोक कथाम्रो गिराइए। ये तो साथ रहेगे। लकडियो के साथ बैल व में पाया जाता है। इन कथामो में अक्सर परिवार गाड़ी बिकते है तो पैसो के साथ मुट्रियां कटेगी। तब सेठ
सदस्य पिता, पुत्र, भाई ठगाये जाते है। और बहुत रोया गाया और उसने पहले ली गाडी बैल के अतिबाद में उसी परिवार का कोई चतुर सदस्य उस ठग को रिक्त पाच सौ रुपये दण्ड के देकर पिड छडाया।
ही चालाकी से ठग कर सबक देकर, न केवल पूर्व ठगी उपरोक्त कथा की थीम 'जैसे को तैसा' है तथा इसमे सम्पत्ति को लौटाता है वरन कुछ नया भी ले पाता है। यह कथानक रूढ़ि है बुरे का फल कभी न कभी अवश्य पानी की एक कथा द्रष्टव्य है'-'बनिये का गुरू': मिलता है। 'पत्ताभर दल भत्ता' एव अन्य लोक कथाओं के
रीवाबा, अपने गाव से लकडियो की गाडी भर कथ्य व मढिया इसी प्रकार की है। पास के नगर में बेचने गया। एक सेठ लकड़ियाँ इसी प्रकार की एक और कथानक रूढि है जिसका खरीदने प्राया। पूछा-बाबा, गाडी का क्या मोल? सम्बन्ध मनुष्य की दमिन इच्छामो के अभिप्राय से है चोधरी ने कहा-एक ही बात बता दू, पाच रुपये लूगा। किसी न किमी माध्यम से प्रगट होती है। पर जीवन ने कमी-बेसी करना मत । सेठ ने राजी होते हुए कहा गाड़ी मानव को सिखाया कि उसे अपनी सामर्थ्य और उनकी
लीले चल । जब चौधरी लकडी खाली कर अपनी सीमानो का ख्याल रहना चाहिए। 'जितनी चादर उतना साल लेकर चलने लगा तो सेठ ने धमका कर कहा पैर फैलाने वाला मुहावरा भी यही कहता है। कि मैंने गाडी का मोल किया था। उस समय गाडी मे लोक कथाएँ जीवन की ही सहज अभिव्यक्ति है। बैल भी जूते घे लकडिया भी थी। चौधरी ने बहुत कहा, इसलिए इनमे से अभिप्रायो, रूढ़ियो से कथा के कथ्य पर सेठ अड़ा रहा । अन्त में चौधरी पाच रुपये में गाड़ी, (जो जीवन की इन अभिव्यक्ति का ही निमित्त है) को बल और लकडियां छोड कर घर पा गया । घर पर अलग करने में प्रायः चूक हो जाती है। जैसा कि विचार उसके पूत्रों ने पूछा । उसने सारी स्थिति बतलायी। तीन कर चुके हैं कि रूढि हुई सभी वर्जनामों का अर्थ भी ताकतवर लड़के सेठ को मारने चले तो चौथे लड़के ने जीवन से ही है । सामर्थ्य व सीमा को याद दिलाने वाली
भनेक लोक कथाएं राजस्थानी में है। उन्हें रोक दिया और कहा मैं ही काफी है।
इस कथा में अपनी स्थिति के अनुसार रहने के जीवचौधरी के लड़के ने एक गाड़ी में लकड़ी लादी और
नानुभव को रूढि का प्रयोग है। थीम 'महत्वाकांक्षा' है। उसी नगर चला। उसने सेठ की हवेली व सेठ की हुलिया
थीम तो अभिप्राय और रूढियों को प्रगट करने के लिए १. विजयदान देथा द्वारा सम्पादित बाता री फुलवाड़ी बने कथा जाल का संवाहक या निमित्त मात्र होता है। माग से।
[राजस्थानी भारती से सामार]
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१३वीं शताब्दी के विद्वान हरिभद्र : एक अध्ययन
परमानन्द शास्त्री
हरिभद्र-नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं । प्रस्तुत हरिभद्र किया है। मानसरोवर पर अश्वसेन एक किन्नरी को उनसे भिन्न विद्वान है जिनका परिचय नीचे दिया जाता है- मधुग्कंठ से कुमार का गुणगान करते हुए सुनता है, उसी
यह श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के विद्वान थे । जो से उसे सनत्कुमार का इतिवृत्त ज्ञात होता है। इस बीच बड गच्छीय जिनचन्द्रमूरि के प्रशिष्य और श्रीचन्द कुमार का अनेक रमणियो से विवाह हो जाता है। मदमूरि के शिष्य थे । प्राकृत सस्कृत और अपभ्र श के अच्छे नोत्सव पर वह जिस युवती पर मुग्ध हुए थे उसे कोई विद्वान थे। कवि की दो कृतिया प्राकृत भाषा मे उप- एक यक्ष हर ले गया था। उन दोनो का यहां मेल हो लब्ध है, मल्लिणाहचरिउ और चदप्पहचरिउ। इन जाता है और दोनो विवाह बन्धन मे बध जाते हैं । कुमार दोनो चरित ग्रथो मे जैनियो के आठवे और १९वे तीर्थ- के इन भोगमय जीवन के बाद उनके अनेक वीर और हुगे का चरित दिया हुआ है। पाटण के भडार में पराक्रम कार्यों का वर्णन किया है। इसी वीच मुनि प्रचिचदप्पह चरिउ की सं० १२२३ की लिग्यो हुई एक ताड- माली कुमार के पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनाते हैं। पत्रीय प्रति विद्यमान है : कवि की तीसरी कृति णेमि- इसके बाद कुमार के अनेक विवाहो का वर्णन है। णाह चरिउ है, जिसका एक अश सनत्कुमार चरित के इतने में कुमार का बाल्य सखा महेन्द्र वहाँ पहुँचता है। नाम से प्रकाशित हो चुका है । अर्थात् नेमिनाथ चरित के और उससे अपने मात-पिता की दुर्दशा का समाचार सुन ४४३ पद्य से ७८५ पद्य तक ३४३ र इडा छन्दों में सनत्- कर दोनो गजपुर लोट पड़ते है। कुमार चम्ति मिलता है-जिसमें बतलाया गया है कि कुमार का पिता अश्वसेन उसे राज्य देकर देह-भोगों सनत्कुमार गजपुर के राजा अश्वसेन और उनकी रानी से विरक्त हो जाता है। कुमार समस्त पृथ्वी को वश सहदेवी के पुत्र थे। वे धीरे-धीरे शिक्षा प्राप्त कर युवा- करता हा चक्रवर्ती पद पाता है। उसके अमित तेज वस्था को प्राप्त हुए। एक दिन मदनोत्सव के अवसर पर और सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। अन्त मे सनत्कुमार उद्यान में एक स्त्री को देख कर मोहित हो गये । युवती अपने रूप को अस्थायी समझ ससार से विरक्त हो घोर भी उनके सौन्दर्य को देखकर आकृष्ट हो गई। दोनों का तप करते हैं और परिणाम स्वरूप स्वर्ग प्राप्त करते है। जब मदनायतन मे मिलाप होता है तब दोनों परस्पर मे सनत्कुमार चक्रवर्ती का यह चरित्र सून्दर एवं पावन अपनी-अपनी प्रेम भावना प्रकट करते है। बीच मे भोज- है। कवि के कथानक मे बहुत कुछ स्वाभाविकता है और राज पुत्र, जलधि कल्लोल नामक एक प्रसिद्ध घोड़ा वह वह वीर और शृगार वर्णनो से युक्त है । कवि का काव्यसनत्कुमार को भेट करता है । एक दिन कुमार उस घोड़े ___ मय वर्णन विशेष प्राकर्षक है। पर सवार होते है, तब वह घोड़ा उन्हे लेकर पवन समान नेमिनाथ चरित मे जैनियों के बाइसवे तीर्थकर नेमिगति से दूर देश ले जाता है। इधर राजधानी मे कोलाहल नाथ का जीवन-परिचय प्रकित किया गया है। ग्रन्थ के और हाहाकार मच जाता है। सनत्कुमार का मित्र अश्व- प्रथम भाग में नेमिनाथ और राजमति के नौ भवों का सैन उसकी खोज में निकलता है। और ढूढ़ता भटकता सविस्तार वर्णन दिया हुआ है । और दूसरे भाग में उक्त हा वह मान सरोवर जा पहुँचता है, बीच मार्ग मे अनेक तीर्थर चरित के पूर्व उनके चचेरे भाई श्री कृष्ण पौर भीषण वन पाते है, अनेक ऋतुए अपनी मोहकता के पाण्डवों का चरित प्रकित् किया गया है। पूरा ग्रन्थ लिए उसके प्रागे पाती है जिनका कवि ने सरस वर्णन ८०३२ श्लोकों में पूर्ण हुआ है। हरिभद्र ने अपने इस
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१३८, वर्ष २३ कि. ३
अनेकान्त
प्रन्थ की रचना चालुक्यवंशीय राजा सिद्धराज के उत्तरा- के प्रमात्य पृथ्वीपाल का परिचय कराया है।' पृथ्वीपाल धिकारी राजा कुमारपाल के राज्य में प्रणहिलपुर पाटन' प्राग्वाट जाति के भूषण थे। सरस्वती द्वारा उन्हे वर नामक नगर में संवत् १२१६ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी प्राप्त था। उन्होंने प्रबुंदाचल (पाबू) मे मंत्री बिमलशाह सोमवार के दिन अश्विनी नक्षत्र में सम्पन्न की है। द्वारा बनवाये हुए मन्दिर के सामने 'मडप' बनवाया था।
प्रनहिलवाड़-भिन्नमाल के पतन के बाद सदियों और अणहिल्ल पाटन मे वीरनाथ और अरहनाथ के पूर्व वि० सं०८०२ (सन् ७४६) ईस्वी मे चावड़ा वश मन्दिर में भी मंडप' बनवाया, एवं त्रिजग तिलक नामक के वनराज द्वारा उत्तर गुजरात की सरस्वती नदी के तट शान्तिनाथ जिन भवन का निर्माण भी कराया था। और पर स्थित लाखाराम नामक प्राचीन गांव में प्रनहिलवाड़ चदप्पह चरिउ, नेमिनाह चरिउ का भी निर्माण कराया बसाया गया था। इसका कोई प्राचीन अभिलेख या और उनकी प्रतियां भी लिखवाई। इस तरह पृथ्वीपाल सिक्का उपलब्ध नहीं है। प्रबन्ध चिन्तामणि में इन्हें लुटेरा ने राज्य कार्य करते हए भी अनेक धार्मिक कार्यों का घोषित किया गया है। सन् ९४२ ईस्वी में अनहिलवाड़े निर्माण कर जीवन को सफल बनाने का यत्न किया था। के पास-पास इनका राज्य समाप्त हो गया था । और कवि परिचय-प्राचार्य हरिभद्र विक्रम की १३ वी मूलराज, चावडा शासक सामन्त सिंह के भागिनेय ने अपने शताब्दी के विद्वान थे। वे बड गच्छीय जिनचन्द्र सूरि के मामा को मारकर राज्य हस्तगत किया था। उस समय प्रशिप्य प्रौर श्री चन्द्रसरि के शिष्य थे। कर्ता ने अपनी वह छोटा-सा राज्य था; किन्तु मूलराज दीर्घदर्शी सेनानी
रचनामों में गुरु का प्रादर के साथ उल्लेख किया है। था, उसने चावडों से प्राप्त इस छोटी-सी रियासत को गुज
कहा जाता है कि कवि ने चतविशति तीर्थंकरो के चरित रात राज्य का रूप दे दिया था, उसीने और अनेक राजानों लिखे थे किन्तु वर्तमान में तीन ही चरित उपलब्ध है। को जीत कर उसे समृद्ध बनाया था और बारहवी शताब्दी
चन्द्रप्पह चरिउ की पाटण के भडार मे सवत् १२२३ की में तो मनहिलवाड सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र बन
लिखित प्रति विद्यमान है। अतएव उसका समय उसके गया था। सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल के समय
मासपास का हो सकता है और नेमिनाह चरिउ स० वह अपनी उन्नति की चरम सीमा को पहुँच गया था।
१२१३ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी सोमवार के दिन उस समय वह विशाल गुर्जर राज्य का केन्द्र बन गया
अश्विनी नक्षत्र मे बनाकर समाप्त किया था। इन दोनो था जिसे कुमारपाल ने और भी उच्च शिखर पर पहुँचाने
चरित ग्रन्थो की श्लोक सख्या ५०३२ श्लोक प्रमाण बतका यत्न किया था, उसका विस्तार दक्षिण मे कोकण,
लाई गई है। मल्लिणाह चरित कब रचा, यह कुछ ज्ञात उत्तर में राजपूताना, पश्चिम मे कच्छ और सौराष्ट्र,
नहीं हो सका। कवि का समय विक्रम की १३वी शताब्दी पश्चिमोत्तर में सिंघ, एवं पूर्व मे मालवा तक हो गया था। श्वेताम्बर समाज का तो यह गढ़ था ही। वहाँ अनेक कवि की अपनी सभी रचनाए सुन्दर और मनमोहक जिन मन्दिरों का निर्माण, विशाल शास्त्र भण्डार और है। पाठकों को उनका अध्ययन करना चाहिए । भारतीय हेमचन्द्रादि प्राचार्यों के साहित्य निर्माण का केन्द्र स्थल था। विविध साहित्य के अध्ययन से बुद्धि परिष्कृत और तुल
ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति महत्वपूर्ण है । इसमें अनेक नात्मक साहित्य के निर्माण में सहायक होती है। ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करते हुए राजा कुमारपाल
१. जयसीह एव सिरि कुमरवाल एवा णिदं तिलयाणं । १. कुमर वालहनिवहरज्जम्मि अणहिल्लवाडइ। नयरि
सिरि पुहइवालमंती अवितह नामो इमो विहिम्रो । मनणु सुयण बुहमणह संगमि ॥ सोलुत्तर बारसई १२१६ कत्तियम्मितेरसि समागमि । प्रस्सिणि रिक्खि- निरुवम सरस्सइवर पहाव उवलद्ध वंछियत्थस्स ।
सोमदिणि सुप्पवित्ति लग्गम्मि। भने वर्ष १७ पवितह अभिहाणस्स सिरि पुहई वाल सचिवस्स ।। कि०५, पृ० २३२ ।
-केटे लोग पाटन भडार, पृ० २५३, २५७ ।
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जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और उसका साहित्य
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी. एच. डी.
राजस्थानी भाषा राजस्थान की अपनी भाषा है। (सूर्यमल्ल) जैसी महत्वपूर्ण कृतियो का निर्माण हुमा जिन उसका अपना स्वरूप एव अपना ही विशाल भण्डार हैं। पर कोई भी देशवासी गर्व कर सकता है। इस साहित्य के अपभ्रश के पश्चात् देश मे जिन भाषाओं का विकाश हुमा निर्माण में सैकडों राजस्थानी विद्वानों ने अपने जीवन का उनमें राजस्थानी भाषा का नाम विशेषतः उल्लेखनीय अमूल्य समय समर्पण किया। काव्य के जितने अंगों पर है। १५ वी शताब्दी तक यद्यपि राजस्थानी एवं गुजराती राजस्थानी साहित्य लिखा गया किसी भी प्रादेशिक भाषा भाषाएं एक मां की दो पुत्रियों के समान एक ही घर में में नही लिखा जा सका। काव्य, चरित, रास प्रादि के विकसित होती रही लेकिन युवा होने पर एक ने राजस्थान अतिरिक्त फागु, वेलि, ढाल, चौढाल्या, चौपाई, दोहा, एव दूसरी ने गुजरात को अपना घर बनाया। इस प्रकार सतसई प्रादि के रूप में खूब साहित्य लिखा गया। वास्तव राजस्थानी भाषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रारम्भ में साहित्य के विभिन्न प्रगों और उपांगों को पल्लवित हा। लेकिन इसके बाद भी दो बहिनों के समान एक एव विकसित करने का श्रेय राजस्थानी भाषा के कवियों दूसरे से मिलती रही और अपना प्रभाव स्थापित करती को दिया जाना चाहिए। रही। राजस्थानी भाषा ने अपने प्रदेश के सास्कृतिक, लेकिन राजस्थानी भाषा का विशाल साहित्य होते साहित्यिक एव नैतिक धरातल को विकसित करने में हुए भी अभी तक इस साहित्य की जन साधारण को जानअपना महत्वपूर्ण योग दिया और इस कार्य मे जन साधा. कारी नही मिलना राजस्थानियों के लिए तो कम से कम रण का उसे अपूर्व सहयोग मिला। जनता ने उसका गौरव की बात नहीं है। विश्वविद्यालयों स्तर तक पढ़ने स्वागत किया और जन कवियो ने उसे अपने काव्य रचना ।
वाले प्रत्येक विद्यार्थी को राजस्थानी भाषा की प्रमुख का माध्यम बनाया। राजस्थानी भाषा वीर रस प्रधान रचनामों का परिज्ञान होना ही चाहिए, चाहे वह विद्यार्थी रचनामों के लिए श्रेष्ठ भाषा मानी जाने लगी। साथ ही किसी भी फैकल्टी में शिक्षा क्यों नहीं ले रहा हो। राजअध्यात्म परक साहित्य भी उसमे खूब लिखा गया। स्थानी भाषा की सैकड़ों रचनायें राजस्थान के जैन भडारों बृज, अवधी, मालवी एव मेवाती जैसी भाषामों को उसने
में सुरक्षित हैं। यद्यपि गत २० वर्षों से राजस्थानी साहिप्रभावित किया और अपनी लोकप्रियता एवं विशालता की
त्य को प्रकाश में लाने का किंचित प्रयास किया गया है इन पर गहन छाप छोडी। वैष्णव एवं जैन दोनो ही
लेकिन इस साहित्य की विशालता को देखते हुए उसे कवियों ने उसमे अपना विशाल साहित्य लिखा । और प
भार पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। उसके विकास में अपना पूर्ण योग दिया।
जैन साहित्य के समान जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय राजस्थानी भाषा को राज्य भाषा होने का गौरव भी एवं उसका साहित्य भी जनसाधारण के परिचय के बाहर मिला। राजामों द्वारा इसे अभूतपूर्व राज्याश्रय मिला। था। विष्णोई सम्प्रदाय में सैकड़ों कवि होने पर भी यह राजस्थानी भाषा के कवियों को राज दरबार मे पूर्ण साहित्य अभी तक उपेक्षित रहा और राजस्थानी साहित्य सम्मान मिला और उसे लोकप्रिय बनाने में सहयोग प्रदान के इतिहास मे उसे उचित स्थान भी प्राप्त नही हो सका। किया गया। इस भाषा में राम सीता रास (ब्र.जिनदास) अभी डा. हीरालाल माहेश्वरी प्राध्यापक राजस्थान ढोला मारू ग दोहा (कुशल लाल) कृष्ण रुक्मणी बेलि विश्वविद्यालय जयपुर ने "जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय (पृथ्वीराज) कान्हडदे प्रबन्ध (पद्मनाभ) वीर सतसई एवं साहित्य" इस नाम से शोध ग्रंथ का प्रकाशन कराया
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है। यह शोध ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित हुआ है और ४०८ सन्दर्भ ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। दूसरे इसके लेखन के उपलक्ष में डा. माहेश्वरी जी को डी.लिट. अध्याय में जाम्भोजी साहित्य पर अब तक किये गये कार्य की सर्वोच्च साहित्यिक उपाधि प्राप्त हुई है। अपने इस की समीक्षा की गई है। तीसरे अध्याय मे जाम्भोजी शोध प्रबन्ध के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे साहित्य को के समय विक्रम की १६वी शताब्दी तक मरू प्रदेश की प्रकाश में लाने का भागीरथ प्रयास किया है जो अभी तक राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियो का परिअप्रकाशित था। प्राज महाकवि तुलसीदास, सूरदास, चय दिया गया है। चौथे अध्याय मे कालक्रमानुसार कबीरदास एवं मीरा पर कितने ही शोध प्रबन्ध लिखे जाम्भोजी का जीवन वृत्त दिया गया है। यह प्रथम प्रवजा रहे हैं और घुमा फिरा कर उन्हीं तथ्यों को तोडा- सर है जब राजस्थान के इस सत पर इतना प्रामाणिक मरोडा जाता है लेकिन किसी विलुप्त, अज्ञात एवं अप्र- एव विस्तृत परिचय लिखा गया है। जाम्भोजी के समय काशित साहित्य को प्रकाश में लाना एक विशेष महत्व । में ही उनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय से अन्य धर्म वाले भी रखता है और डा० माहेश्वरी जी का इसी दृष्टि से यह प्रभावित होने लगे थे इनमे मुहम्मदखा नागौरी, बादशाह प्रयास अत्यधिक प्रशंसनीय है।
सिकन्दर लोदी, कर्नाटक के नवाब शेख सद्दी, सुल्तान का राजस्थान में होने वाले महात्मानों में जाम्भोजी का सघारी मुल्ला, जैसलमेर का रावल जैतसी, मूला पुरोहित नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। वे विश्नोई सम्प्रदाय के के नाम उल्लेखनीय है। पांचवे अध्याय मे जाम्भोजी के प्रवर्तक थे। इनके द्वारा प्रवतित यह सम्प्रदाय प्राज भी दर्शन और अध्यात्म पर प्रकाश डाला गया है । जाम्भोजी राजस्थान का विशिष्ट एवं जागरूक सम्प्रदाय है। न केवल एक विष्णोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक ही थे किन्तु जाम्भोजी का जन्म सवत् १५०८ में पीपासर : नागोर : अपने समय के उच्च दार्शनिक भी थे। छठे अध्याय में के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में हरा था। वे आजन्म चुनी हुई सात हस्तलिखित प्रतियो के आधार पर लेखक ब्रह्मचारी रहे। संवत् १५४२ मे इन्होंने सम्भारथल नामक न जाम्भवाणी का पाठ सम्पादन किया है। सन्त साहित्य एक रेत के टीले पर बैठ कर विष्णोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन के प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान श्री पुरुषराम चतुर्वेदी के किया और सं० १५९३ में ५५ वर्ष की प्राय में वहीं पर शब्दों मे शोध ग्रन्थ का यह अध्याय सबसे महत्वपूर्ण है । स्वर्गवासी हए । जाम्भोजी का राजस्थान ही प्रमुख कार्य- सप्तम अध्याय में विष्णोई सम्प्रदाय का विस्तृत रूप में क्षेत्र रहा। वे अपना प्रवचन ठेठ मरूभाषा : मारवाडी : परिचय प्रस्तुत किया गया है। में देते थे। इनकी वाणी को जम्भवाणी कहा जाता है
आठवे अध्याय में विष्णोई सम्प्रदाय के कवियों एव जिसका दूसरा नाम सबदवाणी भी है। इनका कहना था उनके साहित्य का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । कि जिस प्रकार तिल के भीतर तेल रहता है तथा फूलों इसम १२९ अज्ञात कावया एव उनक में सुगन्ध समाती रहती है उसी प्रकार पाच तत्वो के का परिचय देकर डा० माहेश्वरी ने हिन्दी जगत को सहज अन्तर्गत प्रात्मा का प्रकाश हा करता है। जैसी खेती की ही में महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करा दी है। ऐसे विद्वानो जाती है वैसी ही फसल पैदा होती है। उन्होने बहत ही में उदोजी नैण : सवत् १५०५-६४ : मेहोजी गोदरा: स्पष्ट शब्दों में कहा है कि पहिले स्वयं करके दिखलाना १६३०।१७३६ : सुरजनराय पूनिया : १६४०।१७४८ : चाहिए और फिर दूसरों से उसके लिए कहना चाहिए। प्रादि के नाम उल्लेखनीय है । पुस्तक के अन्तिम अध्याय कोरे प्रादों की प्रशसा में लीन रहना और उन्हें अपने में विष्णोई साहित्य के महत्व एव उसकी भारतीय साहित्य आप व्यवहार में न लाना कोरा ढोंग है।
की देन पर प्रकाश डाला गया है। डा. माहेश्वरी जी ने 'जाम्भोजी विश्णोई सम्प्रदाय इस प्रकार डा० माहेश्वरी ने 'जाम्भोजी विष्णोई और साहित्य' शोध ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभाजित सम्प्रदाय और उसके साहित्य' पर जो खोजपूर्ण प्रकाश किया है जिसमें नौ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय मे कुल
[शेष पृ. ४२ पर]
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ब्रह्म यशोधर परमानन्द जैन शास्त्री
ब्रह्म यशोधर-भट्टारक यश:कीर्ति के शिष्य और गए । दोनो ने साधु से प्रार्थना की, दीन वचन कहे । विजयसेन के शिष्य थे, जो गममेनान्वय मे प्रसिद्ध काप्ठा- चरणो मे लगे और क्षमा करने की प्रार्थना की किन्तु सघ और नन्दि नट गच्छ के विद्वान थे। पापकी एक सब व्यर्थ क्योकि मुनि का क्रो। चरम सीमा को पहुँच मात्र कृति बलभद्रगस उपलब्ध है जिसे कवि ने स० चुका था। भवितव्य को कौन टाल सकता है ? उनके १५८५ मे स्कन्द नगर में बनाकर समाप्त किया था। तेज से द्वारका भस्म होने लगी, केशव और हलधर ने ग्रन्थ मे १८६ पद्यों में कवि ने बलभद्र का जीवन-परिचय माता पिता प्रौर कुटुम्बियो को बचाने का प्रयत्न किया अंकित किया है । रचना मे गुजराती भाषा का प्रभाव किन्तु वे किसी को भी नही बचा सके। अन्त मे प्रयत्न स्पष्ट है । कृति अप्रकाशित है और वह पंचायती मन्दिर कर समुद्र का पानी लाये तब उसने भी अग्नि मे तेल दिल्ली के वृहत्काय गटके में लिखा हुआ है जिसमे सं० का कार्य किया। द्वारिका भस्म होते ही वह मुनि भी १६१६ से १६६० तक की रचनाएँ लिपि बद्ध है। भस्म हो गया। केवल कृष्ण और बलदेव बचे। कवि ने बलदेव और कृष्ण का जीवन परिचय प्रकित
कृष्ण और बलदेव वहां से जगल में जा रहे थे। । करते हुए द्वीपायन द्वारा द्वारिका के विनाश का चित्रण
किन्तु रास्ते में कृष्ण को प्याम ने सताया और बलदेव से किया है । २२वे तीर्थडुर नेमिनाथ द्वारा जब कृष्ण और
पानी लाने के लिये कहा, बलदेव पानी लेने गये । इतने द्वीपायन को यह जान दया कि १२ वर्ष में द्वीपायन द्वाग
मे उस वन मे जगत्कुमार आये और कृष्ण को पीताम्बर द्वारिका का विनाश होगा और कृष्ण बलभद्र शेष बचेगे।
प्रोढे पडामा देखकर वनचर जीव समझ बाण मारा इसे सुनकर द्वीपायन दूर देश में तपस्या करने चला गया।
जो कृष्ण के पैर मे लगा । जब ज कुमार पास में पाये और वहाँ तपश्चरण करते हुए उन्हे लौड माम (अधिक
और कृष्ण को वेदना रो विकल देख कर बड़ा दुःख प्रकट माम) महीने का ध्यान नही रहा । और यह समझ कर कि
किया । तब कृष्ण ने कहा रे मूढ गमार, तूने पाप किया है बारह वर्ष का समय बीत चुका है. द्वारावती के पास वन
हे वत्स अब तू खंद मत कर, जब तक बलदेव नही पावे मे पागए। यदुवंशी कुमार वहा क्रीडा करने गये हुए थे,
उससे पहले ही तू यहा में चला जा तब जरत्कुमार दक्षिण उन्होने मद्यपान किया और मुनी देखकर उनके प्रति प्रशिष्ट
मथुरा चले गए। जब बलभद्र पानी लेकर पाये, तब कृष्ण वचनो का प्रयोग किया । जिसस साधु का मन क्षुभित हो
से कहा उठो पानी पीलो, परन्तु वहा कृष्ण कहा, वे तो गया । कुमारी ने उक्त घटना केशव से कहीं। तब कंगव
परलोक पहुंच चुके थे। उन्हें देख बडा विलाप किया और पौर हलधर दोनो मुनी से क्षमा कराने के लिये बन में
उनके शव को सिर पर रख कर धमते रहे, अन्त मे एक १. सवत पनर पच्यासीर, स्कन्ध नगर मझारि। मुनि ने ससार की प्रसारता का भान कराया तब उन्हे
भवणि प्रजित जिनवर तणी, ए गुण गाया सारि ॥१.८ भी बराग्य हो गया और अन्त में तपस्या करते हुए २. पाप कर्म त कहीकुमारा, पहुँचा द्वारिका नगर मझार। निर्वाण प्रप्त किया। उन का क्रिया कर्म किया। इस
केशव मागे कही तणो बात, द्वापायन अम्हे ताहिउ तात ॥ तरह यह कृति सुन्दर है, भाषा पर गुजराती का प्रभाव दूहा-कुमर जवाणी माभली, केशव परि प्रणाहि। है।
प्रवहउ प्रक्षर जे लखा, ते किम पाछा थाग ।। कवि की दूसरी कृति 'नेमिनाथ गीत' है जो नणवा
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(राजस्थान) के कोटो (वघेरवालों) के शास्त्र भडार के रेहंस गमणीय मृगनयणीय स्तवण झाल झवृकती। गुच्छक न० १०४ मे १४४ पत्रात्मक है और सं० १६४४ तप तपिय तिलक ललाट, सु.दर वेणीय वासुडा लटकती। का लिखा हुआ है। इसमें भगवान नेमिनाथ का जीवन- ललिकय चूड़ीय मुखि बारीण नयन कज्जल सारती। परिचय दिया गया है। जो २८६ पद्यों म समाप्त होता मालतीय मेगलमास पासो इम बोली राजमती ॥३ है। गीत की रचना सवत् १५८१ मे वसवालपुर (वास- .
पास कवि की तीसरी रचना भी नेमिनाथ गीत है। गीत केवल वाडा) मे हुई है। जैसाकि उसके निम्न पद्य से प्रकट है।
५ पद्यो मे रचा गया है। गीत मे राजुल नेमिनाथ को संवत् पनर एकासीह जी बंसबालपुर सार।
बुलाती हुई उनकी वाट जोह रही है। नेमजी प्राव ने गुण गाया श्री नेमिनाथ जी,
घरे घरे। बाटडीया जोइ सिवयामा डली रे। नव निधि श्री संघवार हो स्वामी ।
कवि की चौथी रचना भी नेमिनाथ गीत है, यह सब गीत में राजुल की सुन्दरता का कथन करते हुए उसे गीतों में बड़ी रचना है, ओ ६० पद्यो मे समाप्त होती है। मगनयनी और हंसगामनी बतलाया है। जैसा कि उसके इस में नेमिनाथ के विवाह की घटना का सुन्दर सजीव निम्न पद्य से प्रकट है -
वर्णन है।
[ शेष पृ० ४० का ] डाला है उसके लिए उन्हे हार्दिक बधाई है। अपने शोध जावेगा ऐसी मुझे पूर्ण प्राशा है। इस पुस्तक मे राजग्रन्थ से लेखक ने विभिन्न सम्प्रदायों के कवियो राजस्थानी स्थानी भाषा और उसके साहित्य के प्रति हमारी जो भाषा की जो अविस्मरणीय सेवाए की हैं उन्हे प्रकाश में उदासीनता है वह अवश्य दूर होगी तथा जनता और लाने का मार्ग खोल दिया है ।
सरकारी क्षेत्रों में वह पुनः समाद्रत होगी, ऐसा मेरा शोध-प्रबन्ध की भाषा एवं वर्णन शैली दोनो ही विश्वास है। डा. माहेश्वरी ने अपने शोध ग्रन्थ को दो प्राज्जल हैं । पुस्तक की प्रस्तावना प्राचार्य परषुराम चतु- भागो में प्रकाशित कराया है जिसकी पृष्ठ संख्या १२०० है बंदी ने लिखी है । पुस्तक का सभी ओर से स्वागत किया और उसका मूल्य १०० रु० है । इसमे ११५ चित्र है। .
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'अनेकान्त' पुराना स्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इस लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के हक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त
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चतुर्मास मध्य विहार : आचार्य श्री तुलसी की पृष्ठभूमि
मोहनलाल बांठिया
अणुव्रत अनुशास्ता प्राचार्य श्री तुलसी का इस वर्ष ने शहर की शान्ति कायम रखने के लिए प्रयत्न किए। का रायपुर चतुर्मास इतिहास में अनेक नये पृष्ठों का इसके लिए वे सफल नही हो सके। सबने मिलकर एक निर्माण करने वाला कहा जा सकता है। प्राचार्य श्री के मसविदा तैयार किया इसके प्राचार साम्प्रदायिक तनाव मानिध्य में प्रायः मध्यान्ह और रात्रि कालीन कार्यक्रम एवं हिंसात्मक उपद्रव रोकने की बात थी। ऐसा ज्ञात नियमित चल रहे थे। जनता किसी भेदभाव के लाभ ले हुआ कि प्रतिपक्ष ने वह स्वीकार कर लिया था। वह रही थी। रायपूर की भावक जनता के अनरोष पर प्राचार्य मसविदा पद्यपि प्राचार्य श्री के लिए पूरी तौर से अनकल श्री ने रामायण के सन्दर्भ में रविवासरीय प्रवचन प्रारम्भ नही था फिर भी शान्ति स्थापना मे यदि सफलता मिलती किये।
है तो आपने उसके लिए भी अपनी स्वीकृति दे दी, किन्तु दिनांक १६ अगस्त १९७० को अपने प्रवचन में प्राप प्रतिपक्ष ने बाद में उसे भी अस्वीकार कर दिया। ने सीता के परित्याग की चर्चा की। यह चर्चा "अग्नि अन्तिम विकल्प के रूप मे एक अन्य मसविदा पुनः परीक्षा" के माध्यम से की गई । "अग्नि परीक्षा" प्राचार्य तैयार किया गया। प्राचार्य श्री के समक्ष जब प्रस्तुत श्री का एक 'गीत काव्य' है। रामायण के उत्तरवर्ती कथा किया गया तो लगा कि यह सैद्धांतिक दृष्टि से भी प्रतिप्रसंग का उममें विशद विवेचन है। "अग्नि परीक्षा" की कूल है । प्राचार्य श्री ने कहा- "सैद्धातिक दष्टि से प्रतिसजना जैन रामायणों के प्राचार पर की गई है। प्राचार्य कूल होने के कारण मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ? प्रीमोला
मै नही समझ सकता कि जब पहला मसविदा मैने स्वीकार फैले हुए जनापवाद का चित्रण किया। कुछ असामाजिक करा
__कर लिया था तब दूमरे मसविदे की क्यो प्रावश्तकता एवं अराजक तत्वों ने इस पहल को अपना शस्त्र और
हुई ? नित नये मसविदों का क्या अर्थ होता है ? मैं बनाया और जनता में यह भ्रान्ति प्रसारित की कि
अहिंसा, समन्वय और शान्ति मे िश्वास रखता है। वैसी प्राचार्य श्री तुलसी ने सीता के चरित्र पर प्रारोप मौर
स्थिति मे मेरे साथ यह मसविदों की राजनीति क्यो खेली असम्मानजनक शब्दो का प्रयोग किया है । यद्यपि प्राचार्य
जाती है ? मेरी प्रात्मा साक्षी नही देती कि मैने जानश्री ने इसका सष्टीकरण भी दिया कि वे भयवान राम ।
बूझकर कोई भूल की है। वसी स्थिति मे मुझे बाध्य और महासती सीता को परम वदनीय मानते है, किन्तु
__ क्यों किया जाता है ?" इससे विरोध शान्ति नही हमा। विरोधी पक्ष ने जनता इस प्रकरण के साथ मसविदे के प्रयत्नों का अध्याय मे साम्प्रदायिक भावना उभारने का तीव्र प्रयत्न किया। पूरा हो गया। शहर की स्थिति खतरनाक मोड ले रही स्थान-स्थान पर जन सभाए प्रायोजित की गई । भद्दे थी। कुछ नहीं कहा जा सकता था कि किस समय और और अपशब्दों का खुल कर प्रयोग व प्रदर्शन हुमा। कहाँ पर हिंसा भड़क उठे। साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति क्रमशः यहाँ तक बढ़ी कि दिनांक २७ सितम्बर को प्रतिपक्ष की ओर से एक स्थिति किस समय हिंसात्मक उपद्रव का रूप ले ले। जुलस का आयोजन किया गया था । यद्यपि जिलाधीश इसके लिए कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। प्रशासना- के समक्ष प्रतिपक्ष ने यह स्तीकार कर लिया था कि वे धिकारियो, जन नेतामो एवं शहर के वरिष्ठ नागरिकों जुलूस नहीं निकालेंगे किन्तु कुछ अराजक तत्व शहर की
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शान्ति में विघ्न डालने का प्रयत्न कर रहे थे। उन्होंने कहा-अब हमारे लिए कहने की कोई बात ही नहीं जलस निकालने का निर्णय कायम रखा। जुलस प्रारम्भ रही। इससे अधिक और ग्राप क्या कर सकते है ? हमा । प्रायोजकों ने अधिकारियो के पूछने पर यह भी प्राचार्य श्री की घोषणा की मर्वत्र गहरी प्रतिक्रिया नही बतलाया कि वह किस मार्ग से जायेगा। प्रतः गहर हई। केवल गयपूर में ही नही अपितु सारे देश में इसका की शान्ति को खतरा उत्पन्न होते देखकर जिलाघाश ने असर हमा। रायपूर की भावक जनता की प्राखो से धारा १४४ की घोषणा कर दी। लोगो ने उसका उल्लं.
अविरल प्रासुमो की धारा बह चली। कई तो अपना घन करने का प्रयत्न किया। इसके फलस्वरूप ८८ व्यक्ति
खान-पान और होश-हवास तक भूल बैठे। बुद्धिजीवी वर्ग गिरफ्तार हुए।
को भी इस निर्णय ने झकझोर दिया। शहर के वरिष्ठ रात्रि में शहर के सभ्रात नागरिको का एक शिष्ट- नागरिकों के समूह प्रतिदिन प्राचार्य श्री के पास पाकर मण्डल प्राचार्य श्री के सानिध्य मे उपस्थित हुा । उन्होने निवेदन करने लगे कि प्राप चले जाएगे तो रायपुर के ही कहा-प्राचार्य श्री। शहर में हिसा भड़क उठी है। नही अपितु सारे मध्यप्रदेश के मुह पर कलंक लग जाएगा। चिनगारी दावानल का रूप ले रही है। अब इसके शमन मिकी
सिंघी, गुजराती, पजाबी, सतनामी, आदि विभिन्न वर्गों का उपाय न हमारे हाथ में है और न प्रशासन के हाथ
के लोग बडी संख्या मे पाते । उनका द्रवित हृदय देखकर मे ही। अतः पाप ही इसके समाधान का कोई मार्ग
दूसरे भी द्रवित हो जाते । सबको एक ही आवाज थी कि प्रस्तुत करे।
आप रायपुर से प्रस्थान करने की घोषणा को वापस ले पाचार्य श्री ने इस अवसर पर कहा-मैं आपका लें। जैन समाज के लोग भी अनेक बार पाए। उन्होंने सद्भावना से प्रसन्न हूँ। मेर लिए प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा
श्री सघ की ओर से कहा कि संघ निर्णय तो पापको का प्रश्न मुख्य नहीं है। यदि शान्ति स्थापना के लिए
मानना ही होगा। इस सारे प्रकरणो मे प्राचार्य श्री का मेरा शरीर भी चला जाए तो मै उस ज्यादा नही
___ एक ही उत्तर होता कि मुझे अपने निर्णय की अब भी मानता । मुझे निमित्त बनाकर हिंसा का वातावरण उभर
वैसी ही उपयोगिता महसूस होती है। जितनी की पहले रहा है, इसका मुझे दुख है। मेरे रहने से यदि रायपुर
थी। जब मै अपने निर्णय की उपयोगिता महसूस करता का वातावरण प्रशान्त होता है तो में यहाँ से विदा हो
हूँ तब उसमे परिवर्तन के लिए कैसे सोच सकता हूँ। जाना चाहता हूँ। यह निणय में किसी प्रावश, दबाव,
देश के वरिष्ठ व्यक्तियो ने भी प्राग्रह पूर्वक अनुरोध भय या प्राग्रह के कारण नहीं कर रहा है। किन्तु शहर
९ किया कि आप अपना चतुर्मास गयपुर मे ही सम्पन्न करें। की शान्ति के लिए कर रहा हूँ। यद्यपि हमारा विधि है उनका प्राशय था कि इस प्रकार चले जाने से साम्प्रदायिक कि हम चतुर्मास मे बिहार नही करते किन्तु विग्रह और में
और अराजक तत्वो को खुल कर खेलने का प्रोत्साहन प्रातक की विशेष परिस्थिति में वैसा किया भी जा मिलेगा
या भी जा मिलेगा। अतः यही रह कर उनके दामन का उपाय किया सकता है । मैं यहा से विदा हगा। हमारे धर्म शासन मे
जाए । अनुरोध करने वालो मे गुजरात के राज्यपाल श्री शताब्दी मे यह पहली घटना होगी। मे जानता हूँ कि ।
श्रीमन्नारायण, राजस्थान के मुख्यमत्री श्री मोहनलाल जी श्रद्धालुओं के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न हो
सुखाडिया, मध्यप्रदेश के मुख्यमत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल सकता है किन्तु शहर की शान्ति के लिए अत्यन्त प्रसन्न प्रमुख थे। भारत की प्रधान मत्री श्रीमती इदिरा गाँधी मन से मैने यहा से विदा होने का निर्णय लिया है। को दिल्ली में जब मुनि श्री नगराज जी मोर मुनि श्री
शहर के बढ़ते हुए हिंसात्मक वतावरण को शान्त सुशील कुमार जी से सारी स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए अहिंसा के अतिरिक्त कोई साधन नही था। हई तो उन्होने इसमें हस्तक्षेप किया और प्राचार्य श्री से प्राचार्य श्री की घोषणा ने सचमुच अहिसा की शक्ति का रायपुर मे ही चतुर्मास बिताने का निर्णय लेने को कहा। चामत्कारिक परिचय दिया। उपस्थित सभी व्यक्तियों ने प्रधान मंत्री ने रायपुर के जिलाधीश को भी इस सम्बन्ध
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में आवश्यक निर्देश देने की बात कही। पुरी के शकरा- है कि स्थिति मे बहत परिवर्तन आ गया है। लोगों की चार्य और स्वामी करपात्री जी ने भी रायपुर में ही रहने भावना से मै गद्गद् हैं। मुझे उसका आदर करना का अनुरोध किया। प्राचार्य श्री की घोषणा से वातावरण चाहिए। इसी प्राधार पर मै अपने निर्णय को स्थगित शान्त होने लगा। स्थिति बदलने लगी। और चार करता है। मुझे आशा है कि शहर के सभी नागरिक दिनो में उसने अप्रत्याशित मोड लिया। जन नायको ने मिलजुल कर शान्ति एवं सद्भावना का वातावरण तैयार पुनः निवेदन किया कि स्थितियाँ अनुकूल है। अत. हमारा करेंगे। अनुरोध स्वीकार करना ही चाहिए। जनमानस की भावना, श्रद्धा और अनुरोध का देखते हुए १ अक्तूबर को
जनता ने तुमुल हर्पध्वनि से प्राचार्य श्री की घोषणा
जनता न तुमुल ह" प्राचार्य श्री ने एक महती जन सभा में कहा, मैं सोचता का स्वागत किया।
वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) थो चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट
१५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता
१५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५०) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता
१५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता २५१) श्री शिखरचन्द जी झांझरी, कलकत्ता
१५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता
२५१ श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १५०) ,, सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , मारवाड़ी दि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन,
१०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता
१०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन
१०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली __स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी
१०१) ,, सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद
१०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी,
नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता
१०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या झमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता
१०१) ,, सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , सेठ दानमल हीरालाल जी, निवाई (राज.) २५०) श्री बी० आर० सी० जैन, कलकत्ता
१००) , बद्रीप्रसाद जो आत्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता
| १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्र कुमार जी, कलकत्ता | १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इन्दोर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पर्युषण पर्व के उपलक्ष में पौने मूल्य में
(१) पुरातन जैनवाक्य सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल ग्रन्थो की पापमभी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों मे उत दूसरे पथ की भी अनुकमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्यों की सूची संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction ) मे भूपिन है, शोध-योज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी बडा साइज, मजिद १५.०० ( २ ) प्राप्त परीक्षा -- श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक प्रपूर्व कृति प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर विषयव
८.००
सुन्दर विवेचन को लिए हुए. न्यायाचार्य व दग्वारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । (३) स्वयम्भू स्तोत्र – समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२-००
(४) स्तुतिविया स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, गटीक, सानुवाद और श्री जुगल
१-५०
किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द- सहित ! (५) अध्यात्मकमलमातं पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी अनुवाद सहित १-५० (५) मुक्यनुशासन तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की साधारण कृति जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
1
१२५ '७५
हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र मानायें विद्यानन्द रचित महत्व की स्तुति हिन्दी अनुवादादि सहित (८) शासनचतुस्त्रिशिका - (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोति की १२वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद सहित ७५ (e) समीचीन धर्मशास्त्र – स्वामी समन्तभद्र का गृहस्था चार विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोर
R. N. 10591/62
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द ।
३-०० (१०) जैनग्रन्थ- प्रशस्ति संग्रह भा० १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
४-००
(११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४-००
(१२) प्रनिश्वभावना पा० पद्मनन्दीको महत्वकी रचना, मुस्तार थी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ मुख्तार भी के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । धन्य जनतीर्थ |
*२५
१-२५ १६
(१३) तत्वार्थ ( प्रभाचन्द्रीय ) (१४) घवणबेलगोल और दक्षिण के (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १६ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार- दीपिका १६ पैसे, (१७) महावीर पूजा (१८) ग्रध्यात्म रहस्य - पं० आशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१६) जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंग के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमान्द शास्त्री । मजिल्द १२-०० (२०) न्याय दीपिका - प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० (२१) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द ( वीर शासन-संघ प्रकाशन ५-०० (२२) सायपात्त मूलग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
१-०० पचपन
...
-
...
00-61
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण पूर्णिसूत्र लिखे सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज श्रौर कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०-००
( २३ ) Reality भा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६-००
प्रकाशक प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित ।
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मासिक
अक्टूबर, १९७०
খ্রীকান
समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र
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पृष्ठ
१४५
१४६
१४८
विषय-सूची विषय १. प्रादिजिन-स्तवनम् २. खंभात के इवे० भण्डार में प्राप्त तीन दि० ताडपत्रीय प्रतियां : श्री अगरचन्द नाहटा ३. हिन्दी की अज्ञात जैन रचनाएँ
: डा. गंगाराम गर्ग ४. जैन कीर्तिस्तम्भ का निर्माता शाह जीजा
: श्री रामवल्लभ सोमाणी ५. विलासवईकहा, एक परिचयात्मक अध्ययन
: डा. ए. एन. उपाध्ये ६. जयपुर के प्रमुख दि० जैन मन्दिर
: डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ७. मृणमूर्ति कला में नेगमेष
: डा० सकटाप्रसाद शुक्ल ८. नलपुर का जैन शिलालेख
: श्री रतनलाल कटारिया ६. षड्दर्शन समुच्चय का नया सस्करण
: प० दल मुख मालवणिया
१५१ १५३ १६६
सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन
श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री
स्वास्थ्य-कामना अनेकान्त के सम्पादक पं० परमानन्दजी शास्त्री पिछले लगभग तीन माह से लगातार अस्वस्थ चल रहे हैं । वीर सेवा मन्दिर तथा अनेकान्त के लिए उनकी सेवाएं सर्वविदित हैं। वीर सेवा मन्दिर तथा अनेकान्त परिवार की ओर से हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं कि पंडित जी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करें और पुनः अपना दायित्व संभाले।
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज
दिल्ली।
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पेसा
अनेकान्त मे प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक | मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त
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प्रोभ ग्रहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनय विलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २३ किरण ४
। ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६७, वि० स० २०२७
। अक्टूबर
आदिजिन-स्तवनम्
समन्तभद्राचार्य
विश्वमेको रुच.माऽऽको व्यापो येनार्य! वर्तते ।
शश्वल्लोकोऽपि चाऽलोको द्वीपो ज्ञानार्णवस्य ते॥॥ अर्थ-हे आर्य ! यह समस्त लोक और प्रलोक अापके केवलज्ञान का ही ज्ञेय है-प्रापका वेवल ज्ञान लोकवनि समस्त पदार्थों और अलोकाकाश को जानता है-अतः वह अापके ज्ञानरूप समुद्र का एक द्वीप है।
भावार्थ-जिस प्रकार विस्तृत समुद्र के भीतर द्वीप होता है उसी प्रकार प्रापके ज्ञान के भीतर लोकपालोक है। द्वीप की अपेक्षा समुद्र का विस्तार जैसे बहुत बड़ा होता है वैसे ही लोक-प्रलोक की अपेक्षा प्रापके ज्ञान का विस्तार बहुत अधिक है । पदार्थ अनन्त अवश्य है; परन्तु वे आपके अनन्त ज्ञान की अपेक्षा बल्प हैं अनन्त के भी अनन्त भेद होते है।
श्रितः श्रेयोऽप्युदासीनो यत्त्वप्येवाऽश्नुते परः ।
क्षतं भूयो महाहाने तत्त्वमेवाचितेश्वरः ॥६॥ अर्थ-हे प्रभो ! यद्यपि प्राप उदासीन है-राग द्वेश से रहित है-तथापि प्रापकी सेवा करने वालेविशुद्ध चित्तसे आपका ध्यान करने वाले पुरुष कल्याण को ही प्राप्त होते है और अहंकार से पूर्ण अथवा रागद्वेष से पूर्ण अन्य कुदेवादिक की सेवा करने वाले पुरुष अकल्याण को प्राप्त होते है । अतः पाप ही पूज्य ईश्वर हैं।
भावार्थ-जो निर्मल भावों से प्रापकी स्तुति करता है उसे शुभ कर्मों का पाश्रव होने के कारण अनेक मंगल प्राप्त होते है और जो कलुषित भावों से प्रापकी निन्दा कर अन्य देव या राजा-महाराजा की सेवा करता है उसे अशुभास्रव होने के कारण भनेक ममंगल प्राप्त होते है । जब कि पाप स्तुति और निन्दा करने वाले दोनों पर ही एक समान दृष्टि रखते हैं ।
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खंभात के श्वे० भण्डार में प्राप्त तीन दि० अप्राप्त
ताडपत्रीय प्रतियां
श्री प्रगरचन्द नाहटा जैन ज्ञान भण्डार अपनी बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण किया जा रहा है, जिनकी पांडपत्रीय प्राचीन प्रतियाँ खंभात सामग्री के लिए विश्वविख्यात है। जैसलमेर, पाटण, के श्वे. शान्तिनाथ भंडार में सुरक्षित है। खभात और बडौदा के श्वेताम्बर ज्ञान भण्डार मे ताड़. प्रागम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी सम्पादित पत्रीय प्रतियो का महत्वपूर्ण संग्रह है। दक्षिण भारत मे खंभात शान्तिनाथ भंडार की ताडपत्रीय प्रतियो की विव. मूडबद्री, श्रवण बेलगोना आदि अनेक दिगम्बर ताइपत्रीय रणात्मक सूची' दो भागो मे ओरियन्टल इन्स्डीट्यूट भण्डार हैं। जब भारत मे कागज का विशेष प्रचार नही बडौदा से सन १९६५-६६ मे प्रकाशित हुआ है। उनमे था, तब ताडपत्रों पर ही ग्रन्थ लिखे जाते थे।
से दूसरे भाग में चार दिगम्बर ग्रथो की ताडपत्रीय प्रतियों जैसलमेर के विख्यात जिनभद्र सूरि भण्डार मे विशेषा- का विवरण छपा है। जिसमे प्रति नम्बर २६५ म समय वश्यक भाष्य की त उपत्रीय प्रति दशवीं शताब्दी की सार प्रात्मख्याति ब्याख्या सहित तेरहवी शताब्दी का है। इसके बाद बारहवी शताब्दी से पन्द्रहवी शताब्दी तक लिखी ?ई १८६ पत्रो की प्रति है। यद्यपि समयसार ओर की एक हजार से अधिक ताडपत्रीय प्रतिया उपरोक्त चार उसकी यह टीका बहुत ही प्रसिद्ध है। पर मेरे स्याल स्थानों में हैं। कागज की भी तेरहवी शताब्दी से प्रतियाँ दिग. भडागे में भी इस ग्रंथ और टीका की तेरहवी मिलने लगती है। जैसलमेर के भण्डार मे तेरहवी की शताब्दी की लिखी हुई प्रति प्राप्त नहीं है । अतः समयसार कागज की कई प्रतियां है। अन्यत्र चौदहवीं से मिलने
या ह। अन्यत्र चादहवा से मिलने और प्रात्मख्याति टीका के नये संस्करण सम्पादन में इस लगती है।
प्रति का उपयोग किया जाना अवाछनीय है। जैन ज्ञान भण्डरो मे केवल जैन ग्रंथ ही नही है, खभात भडार की अन्य तीन दिग. रचनामो की बौद्धों और वैदिक सम्प्रदायों के तथा सर्वजनोपयोगी विषयों ताडपत्रीय प्रतियां तो इसलिए विशेष उल्लेखनीय है कि के सैकड़ो जैनेतर ग्रथ प्रात है। उनमे कई तो ऐसे भी है ये रचनाएं अभी तक अज्ञात-सी हैं। इनमे से एक रचना जो अन्यत्र कही नहीं मिलते मोर कईयों की प्राचीनतम तो छोटी-सी है। और शुद्ध प्रनियां जैन भण्डारो मे ही मिलती हैं।
प्रति नम्बर १३४ में अन्य रचनाओं के साथ इन्द्र दिग० भण्डारी में श्वेताम्बर ग्रथ और श्वेताम्बर नन्दी रचित 'पाश्वनाथ स्तव' नव इलोकों का है । इन्द्र भंडारों में दिगम्बर ग्रथ भी अच्छे परिमाण मे प्राप्त हैं। नन्दी नाम के (8) कई विद्वानो का विवरण स्वर्गीय दिगम्बर भडरों में कई ऐसे श्वेताम्बर ग्रन्थ है जो श्वेता- जुगलकिशोर जी मुख्तार ने दिया है। उनमे से ज्वालाम्बर भंडारों में भी नहीं मिलते। इसी तरह श्वेताम्बर मासिनी कल्प के रचयिता इन्द्रनन्दी ही इस 'पार्श्वनाथ भंडारों में भी कई ऐसे दिग० प्रथ हैं जो दिग० भंडारों में स्तव' के कर्ता मालूम होते है। कहीं भी नहीं मिलते और कई दिग० ग्रन्थों की प्राचीन- दूसरा भाग बहुत ही महत्वपूर्ण है। जो प्रति नम्बर तम प्रतियां श्वे. भंडारों में ही सुरक्षित हैं। उनकी जान- १३६ में तेरहवीं शताब्दी का लिखा हुमा है इस ग्रन्थ का कारी दिग० विद्वानों को नहीं है। इसलिए प्रस्तुत लेख नाम पंचसग्रह दीपक' है इसके रचयिता (इन्द्र) वामदेव मे तीन ऐसी प्रशात दिग० रचनाओं का विवरण प्रकाशित है। पुन्नाटवंश के श्री नेमिदेव के लिए यह ग्रंथ रचा गया
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खभात के श्वे. भण्डार में प्राप्त तीन दि० प्रप्राप्त तारपत्रीय प्रतियां
है। अन्तिम प्रशस्ति के कुछ श्लोक त्रुटित रूप में प्राप्त नत्वा ग्रंथं प्रवक्ष्यामि 'पंचसंग्रहदीपकम् ।। हैं । प्रारम्भिक श्लोकों से यह स्पष्ट है कि नेमिचन्द्र मुनि 'नेमिचंद्रमुनीन्द्रेण यः कृत: 'पंच संग्रहः । के पंचसंग्रह का यह श्लोकबद्ध संस्करण है।
स एव श्लोकबंधन प्रव्यक्तीक्रियते मया ।। तीसरी रचना 'नागकुमार चरित्र' प्रति नम्बर २४६ बधको बध्यमानं च बंधभेदास्तथेसता। मे चौदहवी शताब्दी का लिखा हुआ है। पत्र संख्या १४
हेतवश्चेति पंचानां संग्रहोऽत्र प्रकाश्यते ।३। हैं । इसमें पंचमी महात्म्य के रूप में नागकुमार की कथा
यस्तत्र बंधको जीव: सदसत्कर्मणां स्वयम्। पांच सगों में रत्न योगेन्द्र रचित है । वैसे नागकुकार कथा
तत्स्वरूपप्रकाशाय विंशतिः स्युः प्ररूपणा ।४। सम्बन्धी अन्य लेखकों के कई ग्रंथ प्राप्त है पर 'रत्न
गुणजीवाश्च पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च मार्गणाः । योगेन्द्र' का ग्रंथ शायद अन्यत्र अप्राप्य हो। कम से कम इन
उपयोगसमायुक्ता भवत्येता प्ररूपणाः ।। रचनामों की इतनी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों का दि०
मागणा-गुणभेदाभ्यां भवतो द्वे प्ररूपणे । शास्त्र भंडारों में होना ज्ञात नहीं है।
मार्गणांतर्गताः शेषाः जोवमुख्याः प्ररूपणाः ।। खभात के श्व० शांतिनाथ जैन भडार की ताडपत्रीय
पत्र ६५प्रतियों में से यहाँ ५ दि० ग्रंथों की प्रतियों का विवरण
यदग्रपणि वेणी ललितपदगतिप्रोल्लसदभूरिभावदिया गया है इसी तरह अन्य दिग० भंडारो मे भी अन्य
प्रव्यक्ता पे सार्थ प्रकटितसहजस्फारसार...। दिग. ग्रंथों की प्रतियां प्राचीनतम मिलेगी तथा उनमे
तं वंदे योगिवंद्यं जिनपतिवदनाम्भोजनिर्यद्रहस्य, कुछ ग्रंथ ऐसे भी होंगे जिनकी प्रतियाँ दिग० भडारो मे भी
सस्थं त्रलोक्य कोत्ति पुणमणिकिचय येन विज्ञायि।। नहीं हों, इसलिए दि० एव श्वे. दोनों संप्रदायो के भडारो
श्रीमानसौ जगति नंदतु भव्यवधुर्ने मि: कलाका एक दूसरे को ध्यान से अवलोकन करना चाहिए।
निषिरूप्तएधभाणक यत्कीत्ति निर्मलाकलाव . २ वर्ष पूर्व अहमदाबाद के श्वे० भडार मे यथा ।
क: साकौ बभूव भुवनेखिति सुप्रसिद्धम ॥२५॥छः।। स्मरण अमृतचन्द्र सूरि का एक अन्यत्र प्राप्त एव सर्वथा
इति 'श्रीद्रवामि देव' विरचते 'पुरवाट' वंश अज्ञात प्रथ मुनि पुण्य विजय जी को मिला था जिसकी
विशेषक श्री 'नेमिदेव' स्य यश.प्रकाशके 'पंचसंग्रहसूचना डा. A. N. उपाध्ये के देने पर वे बहुत ही
दीपके' बंधकस्वरूप प्र (रूपणो नाम) प्रथमो प्रसन्न हुए थे एवं इसकी सूचना दिग० पत्रों में भी प्रका
अधिकार ॥छ। शित हुई थी।
अब खंभात भंडार की दिग० ग्रंथों की ताडपत्रीय शुभ भवतु चतुविध सघस्य ॥छ।। प्रतियों का विवरण दिया जा रहा है।
पत्र ७७ (१) पचसंग्रह दीपक क्षणोक वंष
इत्युक्तं बध्यमानस्य कर्माष्टकस्य लक्षणम् No. 139 Panchasangraha Dipaka Slokar मूलोत्तरप्रभेदेन यथोक्त पूर्वसूरिभिः ॥१४०॥ bandha. पंचसंग्रह दीपक श्लोक बंध ।
यः 'कर्मप्रकृतिस्थितिव्यतिकर' व्याख्यान दीक्षा गुरुFolios 104
Extent-Granthas 11:5 यश्चारित्रमाहाण्णवावधिगतो रत्नत्रयालंकृतः । Language-Sanskrit Size-9.7x25 Inches. दानं यस्य मनोरथावधि यशो नि:शेषलोकावधि Author-Bamideva Condition--good #faragrafer aftofarararaatarala: 11 Age M. S.--First paly of 13th exet U.S.
भक्ति: श्रीगुरुपादपकनिजाहंकारसारावधिः । General Remarks-Folios 102-8 Missina.
नेमि जोमणनंदनो विजयतामाकल्पकल्पावधिः ।। मादि :
इति 'श्रींद्रवामदेव' विरचिते पुरवाट वंश विशे॥ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥६॥
षक 'श्री नेमि'देवस्य यश: प्रकाशके पंचसंग्रह सिद्ध शुद्धं जिनाधीशं नेमीशं गुणभूषणम् । दीपके।
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१४८, वर्ष २३, कि०४
अनेकान्त
पत्र १०४
नागकुमार चरित्र-पंचमी माहात्म्य पद्य पंचतस्मादजायत जिनेन्द्र पदाब्जभगः 'श्री जोमण- सर्गात्मक स्तदनुजोभुवि लाहिदेवः ।
Folios--14
Extent--Granthas 500 .......कलाविलास राज्ञां मनांसि महतामपि । Language--Sanskrit Size--15.7X2.5 inche रंजितानि ॥छः ।।२२०॥
Author-Ratnayogindra-Digambara. तत्र श्री...'जोमणस्य' दुहिता जाता गुणाग्रेसरा । Agc of MS. c. 14tn cent. v.s. धर्मारामतरोः प्रवर्द्धनसुधाक(क?)ल्पक पुण्योहका। Condition-- Fair श्री सर्वज्ञपदाविदनिरता सहानचितामणि, आदि :श्चारित्र व्रतदेवतासविदिता श्री वाइदे...॥२२१॥
॥ॐ नम: सिद्धेभ्यः ।। ताभ्यामिदुमुखो विचारवसति: सौजन्य पुण्याहलि, श्रीमान व्यवहितारोऽपि वृति धर्मरथस्य यः ।
नानाशास्त्र विनोदमेदुरमना...............। चक्र चातेविनाक्रांतस्तं नेमीनं नमाम्यहम् ।। ....... कर्णरसायनैर्गणगणौविस्मापितक्ष्मातल:, अथ दिग्वसना भोजमंडनेन मनोमुदम् । क्षोणी पीठ सुरद्रुमः स्थिरयशा: श्रोनेमि (देवा प्रतन्वता प्रसादेन सहसा लब्धजन्मना ।।
सुधी:)... ||२२२॥ द्यसददुभिनादेन नभस्तलविसर्पिणा । प्रातः श्री जिन पूजनने विधिना मध्याह्नकालेअप्ययं, दिव्यगंधभरेणेव मंडपस्थाना(न)वायुना ।। दाननादभ कोत्तिनो मुनि जनाशीवदि.."| Santinatha Sain Bhondara Cambay .....स्य स्वयं
अत:नित्यं पुण्यदिन: सनंदतु चिरं श्री 'नेमिदेवः' ततोऽसौ श्रेणिकः श्रीमान् नत्वा त्रैलोक्यपूजितम्।
सुधीः ।।२२३॥छ।। देव श्रीवर्द्धमानाख्यमगमत् स्वास्पदं मुदा ।। तेना...........
.................। श्री पंचम्युपवासस्य फलोदाहरणात्कम् । ............णेंनाहं वशीकृत मनोरथा ॥छ।।२२४॥ एवं नागकुमारस्य समाप्ति चरितं ययौ ॥छ।। ततो व्यावत्त्य नि:शेष व्यापा........... ........। इति 'श्री रत्नयोगीद्रणोपसंदत्य कीतितम् ।
..............॥२२५॥ सहस्त्रार्द्धमित ग्रन्थयेतच्चरितमुच्चकैः ॥ ततस्तस्य प्रसादेन वीचित। भरादहम्
इति नागकुमारचरिते श्रीपंचमीमहोपवासफलोजिनेश्वरपदद्वंद्व स्मरणक्षालिता...........॥२२६॥ दाहरणे पंचमः सर्गः ।। मंगलं महाश्री: ।। ................."दरो नाना शास्त्र विचारकोविदमति: 'श्री वामदेव'
7 Parsvastava (७) पाश्वस्तव
कृत्ती । Folios-174 to 176 Extent-Kavyas 9 चक्रे शास्त्रमिदं विनष्ट...........................
Language-Sanskrit Size - 13 X 8.7 inches ........... ... 'विक्षमातलम् ।।२२७॥ Author---Indranandi Condition-Fair यो नित्यं पठित स्वयं गुरुजनाह ज्ञात्वा परान् पाठयेत् Age of Ms.-C. First of half of 14th cent.
V. S. (त्रुटिताक्षर) अन्तः
झंकारं रांतयुक्तं शिविपवनपुरः स्थापितं नामगर्भ, No. 236 Nagakumara Charltra-Pancha• पश्यंतं यत्प्रभावाद्विजहति पुरुषं योगिनीमुद्रया द्राक। mihatmaya Padaa of Five Sargas.
रों हाँ ग्राँ हूँ फुटग्नाक्षरजपितजवस्ताडितं शास्वगंधं(2)
यो
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हिन्दी की अज्ञात जैन रचनाएं
डा० गंगाराम गर्ग
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश आदि भाषाप्रो के अति- छंद भी लिखे हैं। रिक्त जैन कवियों ने हिन्दी मे भी अनेक रचनाए लिखी यद्यपि कवि के गांव राहोली और उसके मित्र भवानीहैं । पिछले दस वर्षों में हिन्दी के जैन काव्य के अनुसधान चंद के गांव गुनसी मे अधिक दूरी नहीं है किन्तु यातायात के काफी प्रयत्न विद्वानो द्वारा हुए है, फिर भी बहुत सा की सुविधा के प्रभाव मे मिलना नही हो पाता, प्रतः कवि अविदित साहित्य अनेक जिनालयों में छिपा है। प्रस्तुत को मित्र के मिलन अथवा पत्र पाने की तीव्र उत्कण्ठा निबन्ध मे ढढाड प्रदेश के ऐतिहासिक नगर चाकसू और बनी रहती हैनिवाई के जैन मन्दिरों में प्राप्त कुछ अज्ञात साहित्यिक तुम अंकन को वाट मन, जोबत पाठू जांम । रचनामों का परिचय दिया जा रहा है ।
जब तुम कर दल जोयहै, तब पहौं विश्राम 1८,६। १. स्नेह पत्रावलि- इस रचना के लेखक डालूराम, ज्यौ धन चातक मोर मन, जल विछुर्यो ज्यौ मीन । माणिकचन्द लुहाडिया के पुत्र थे। डाल गम नामक एक त्यो मो मन तब मिलन, लागी लगनि नवीन ।।८,१० अन्य कवि सवाई माधोपुर में भी हुए है। 'स्नेह पत्राबनि' मित्र की पत्रिका पाने पर कवि के 'हर्ष' की कल्पना कवि की सबत् १८६० से १८६४ तक के मध्य लिख गये ही नही की जा सकतीकवि के विभिन्न पत्रो का संग्रह है। पत्रात्मक शैली की सो सुख कह्यो न जाय, नहीं उर ग्रानन्द मावै। दष्टि से महत्वपुर्ण रचना 'स्नेह पत्रावलि' सवैया, चोपाई, ज्यौ जल विछरयौ मोन, फेरि गगा जल पावें। भुजग प्रयात दोहा, छप्पय, सुन्दरी, त्रोटक मादि विभिन्न
कवि ने मित्र-धर्म के नाते अपने मित्र को कुछ लोकछदों में लिखी गई है। रचना में कही-कही संस्कृत के व्यवहार के सदेश भी भेजे हैशाकिन्यः श्रीन्द्रनन्दिः प्रथितगतिरसौ पातु मां
विन उदिम मन रहे न थिर, पाश्वनाथः ।। छ ।
कोटि जतन कोउ करो । पार्श्वनाथस्तवः समाप्तः ।। छ॥
तातै विधि लषि धीर धरि, "पुगतन जैन वाक्य सूची की प्रस्तावना पृ० १०६
उदिम को उदिम करो। ६:६ । ७ में इन्द्रनन्दी नामक ६ दि० ग्रन्थकारो का विवरण दिया निच काज्या रातिदिन जतन मान के भ्रात । है इनमे से 'ज्वाला मालिनी कल्प' के कर्ता इद्रनन्दी तीरथ जग मै जानिए गुरु बघू पित मात । ६:६ । प्रस्तुत पाश्र्वनाथ स्तोत्र के रचयिता होना सभव है। क्योकि
२. नव मगल-प्रस्तुत रचना प्रसिद्ध कवि विनोदी प्रस्तुत स्तोत्र मै भी मत्राक्षरो का समावेश है। मुख्तार लाल की है। डॉ. प्रेमसागर जैन ने विनोदीलाल का सा० ने इनका समय वि० स० ६६६ बतलाया है। जीवन-परिचय लिखते हुए उनके 'नेमि-राजुल बारहमासा'
चौथी प्रति समयसार की प्रात्मख्याति टीका की है। 'नेमि व्याह' राजुल पच्चीसी रेरवता मादि कई रचनाम्रो इसमें १८६ पत्र है प्र० ख० १४७७४२ इंच के हैं। का परिचय दिया है। 'नव मंगल' की दो प्रतियां हमें प्रति अच्छी स्थिति में है। इसे वि०१३वी के उत्तराद्धं अभी कोट मन्दिर चाकसू मे उपलब्ध हुई हैं। विनोदीलाल की बतलाई गई है। ग्रन्थ प्रसिद्ध होने से प्रादि अन्त के का प्रिय छद सर्वया उनकी अधिकांश रचनामों में प्रयुक्त उद्धरण यहाँ नही दिये जा रहे है ।
हुपा है । 'नव मंगल' एक प्रबन्ध गीत है। इसकी रचना
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१५०, वर्ष २३ कि०४
अनेकान्त
श्रावण सुदि ६ संवत् १७४२ को सहिजार पुर में हुई। बत्तीस ढाला में कवि ने अपनी भत्ति-भावना भी प्रकट
प्रथम व द्वितीय मंगल में नेमिनाथ को विवाह के की हैलिए राजी करने के लिए कृष्णा का प्रयत्न, द्वितीय मगल जिनवर तुम अघमन के त्यारो, उग्रसेन का विवाह-प्रस्ताव मुन कर समुद्रविजय का हर्षित
मेरो कारज भी जु सुधारो। होना, चौथे व पांचवें मंगल में समुद्रविजय के घर पर मैं तो नाथ दीन ससारी, विवाह की तैयारी व उत्सव वणित है। 'नव मगल' के
भटक जगत पायो दुख भारी। छठवें मंगल मे नेमिनाथ की बारात मथुरा मा जाती है । पान पनि बुधि प्रैस कीज्ये, सातवे मंगल में नेमिनाथ पशुओं की करुण ध्वनि सुनते
विषेस दै अरु बुधि न छीजै । हुए उन्हे छुड़वा देते हैं। आठवें मंगल में वह दीक्षा धारण
राह चलत भछन नहि करनौ, करते हुए तप करते है। नवें भंगल में मात्र कवि
चौपथ बैठि षान परहरनौ । परिचय है।
४. चौसठ रिद्धि पूजा-प्रस्तुत रचना तेरहपथी विनोदीलाल की अन्य रचनायो की तरह 'नव मगल'
मन्दिर चाकमू मे विद्यमान है। इसके रचयिता ५० भी सरस और भावपूर्ण है । नेमिनाय का दुलह-वेष कितना
स्वरूपचद है । 'चौसठ रिद्धिपूजा' संवत् १९१० मे लिखी मनमोहक है
गई । इसमे कवि का भक्तिभाव दृष्टिगोचर होता है। अरे जादौपति का नवन करावै रे हां।
मनुष्य-योनि की तीनों अवस्थाप्रो के दुखो को प्रस्तुत कर अरे कसि कंकन हाथ बंधावी रे हां।
कवि ने जिन पाराधना के लिए मुनि बनने की प्रेरणा अरे बाजूबंद ऊपर छाजे रे हा। दी है
अरे पहुंचो कर सरस बिराजै रे हा। बालकपणां माही जी कछु ज्ञान जु नाही जी, पहंची विराजै पास ककन मुदरी मजुरी बनी। पाई तरुणाई विषय चिन्ता घणी जी। सोस गुथा जराउ चोटी, घुघराणा कटनो कनी। बहु इष्ट वियोगा जी, भए असुभ सयोगा जी, साकरी ते हार धुकधुकी, दस कीरत तम हरो। तातै दुःख भुगत्या खिण समता नहीं जी। रतन कुंडल कण सोहै, गैर सोहै पचलरी। २४ तीजो पण पायो जो, बहु रोग सतायो जी,
विवाह के अवसर पर होने वाले लोकाचार मे भी ई विधि दुःख पायो मानुस भव में सही जी। कवि ने बड़ी रुचि ली है
सुर पदवी नाही जी, माला मुरझाई जी, चित्र विचित्र संवारि मंडप, गीत मंगल गावहीं। चिन्ता दुःखपाई भोगी मरण की जी। प्रानवार वदन छवि पर, हरद तेल चढ़ावहीं। ई विध संसारा जी, ताको नहीं पारा जी, अरगजा फुलेल मिलाय उपट गौ, नेमि अग लगावहीं। यह जाणिर त्यागिर रु सारा मुनि भया जी। सतभामा रुकर्माण जामबन्ती, नेम कवर ननहावहीं। ५. चौबीस तीर्थंकरों की पूजा-तेरहपथी मन्दिर
३. बत्तीस ढाला-यह रचन। तेरहपथी मन्दिर चाकसू चाकसू मे प्राप्त यह रचना रामचन्द्र चौधरी की है । डॉ० के एक गुट मे उपलब्ध है। ६३ छद की इस रचना के प्रेमसागर द्वारा 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' मे लेखक टेकचन्द हैं जो विभिन्न पूजामों के लेखक टेकचंद उल्लिखित कवि रामचंद्र खरतरगच्छ के प्रथान जिनसिंह से भिन्न प्रतीत होते हैं । बत्तीस ढाला में प्रयुक्त छप्पय, सूरि की शिष्य परम्परा मे होने के कारण श्वेताम्बरी है सोरठा, चोपई, वेशरी, अडिल्ल, पद्धड़ी, चाल, गीता, किन्तु रामचन्द्र चौधरी दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। 'राम' भुजंगी, गाथा सवैया, कुण्डलियां मादि विविध छद कवि अथवा 'रामचन्द्र' के नाम से बड़ौत और जयपुर के की काव्य-प्रतिभा के सूचक हैं। रचना में व्यवहारिक जैन मन्दिरों में उपलब्ध पदों के रचयिता रामचन्द्र बातों का उल्लेख है। इसकी शैली उपदेश प्रधान है। चौधरी के ही होने की संभावना अधिक है।
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हिन्दी की अज्ञात जंन रचनाएँ
'चौबीस तीर्थंकरों की पूजा' प्रडिल्ल, पढडी, दोहा प्रोर घत्ता छदो मे लिखी गई है। पूजा के विधि-विधान के अतिरिक्त कवि ने अपना भक्ति भाव भी प्रकट किया
है
पुष्पदत
आतंक विदार्यो, शीतल जगत समाधि उधार्यो । श्रय श्रेय सिव के दातारं,
वासुपूज्य विद्रुम दुति सारं । विमल सकल गुन बान उचारे,
लोक अलोक अनंत निहारे । धर्म सुधातम गर्भ बनायो,
शान्ति जगतहित बांध सुनायो । ६ सिरवर विलास - तेरहपथी मन्दिर चाकसू मे प्राप्त यह रचना मनसुखसागर की है। प्रस्तुत रचना का आधार लोहाचार्य विरचित 'तीर्थ महात्म्य है। इसमे दोहा, चौपई, डिल्ल, सवैया, मोतीदाम, चाल, सोरठा, कुसुमलता चामर, कुण्डलिया आदि विविध छदों का प्रयोग हुआ है। भरत क्षेत्र में स्थित तीर्थकरो की मुक्ति के स्थल विभिन्न कूटों को कवि ने सरल और रोचक शैली मे समभाया है ।
७. मन गुण तीसी - २६ छद की यह रचना पद्मसूरि के शिष्य गुणसागर ने लिखी। मन की चंचलता की चर्चा करते हुए कवि ने मन को एकाग्र करने पर बल दिया है—
मन संकाची राष्यो ग्रांपणो, चक्रवर्ती सत कुमार ।
१५१
सहु परिवारै बलि बलि विनठ्यो, नाठ् नेह लगार । ८. श्री स्तोत्र - चारित्र सागर के शिष्य कल्याण इस रचना के लेखक है -
चितौड़ के दिगम्बर जैन कीर्तिस्तम्भ से सम्बन्धित अप्रकाशित शिलालेख मैने अनेकान्त के अप्रैल १६६६ मे प्रकाशित कराये थे । इन लेखों का टिप्पणी सहित हिन्दी अनुवाद श्री नेमचंद धन्नूसा जंन ने अनेकान्त के अप्रैल सन् १९७० के अंक में प्रकाशित कराया गया है। विद्वान
बहु महीमा श्री पार्श्वनाह शासन सूरि सेवक जन साधारणी । बुध चारित्र सागर शिष्य, कल्याण नै जं कारणी । ग्रन्थ रचना का प्रारम्भ गणेश वन्दना से हुआ है । कवि ने लक्ष्मी को गोरी, गगा, गायत्री प्रादि मानते हुए उसे अपना सर्वस्व कहा हैविस हथ। मुझ बीनती तु इष्ट प्रनोपम, सदा सहोपम, तु ही पिता तु मात । ६. स्तवन तीर्थमाला - ५५ छदो की इस रचना के लेखक पद्मविजय है। इसमें अन्य तीर्थों की स्तुति के अपेक्षा कवि ने सुमेरु पर्वत के वर्णन में अधिक रुचि ली है
मांनो मोरी मात ।
गजदंति जिणवर तणां ए, बीस प्रसाद अभंगतो । तिहां जिन बिव नमु नौबीस ऐ नमस्यु ग्राणी रंगतो ।
१०. कड़बी -- यह छोटी सी रचना किसी मुसलमान कवि महमूद खा की है। इस महत्वपूर्ण रचना में महमूद खा ने तीर्थकर नेमिनाथ की महिमा का गान करते हुए शरणागति चाही है
छपन कोडी ज्यादुं श्री मुगटमणी,
तिहुं काल तेरा करत सेवा । पाँन महमुद कर जोड़ि विनति करें, रापि सीर नाथ देवाधिदेवा ।
जैन कीर्तिस्तम्भ का निर्माता शाह जीजा
श्री रामवल्लभ सोमाणी
लेखक की मान्यता है कि शाह जीजा के पूर्वज चित्तौड़ के निवासी नही थे और वे कच्छ देश के किसी भूभाग के रहने वाले थे। मैं समझता हूँ कि लेख के इस अंश का अथं वे ठीक नहीं कर पाये है। शाह जीजा के पुत्र पुण्यसिंह के लेख के श्लोक सं० १३ मे केवल कच्छ शब्द का
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प्रयोग हुपा है वह मन्दिर के साथ है यथा 'विशालकच्छ प्राक्रमण के समय यहाँ से दक्षिणी भारत को चला गया के तुच्छायाछल ध्वजवजैः निज प्रसाद सोयाग्रनृत्य तुग था। स्मरण रहे कि प्रशाधर भी इसी प्रकार मेवाड़ के कररिव" यहा कच्छ शब्द का प्रर्य देश के रूप में नहीं माडलगढ से मालबा गये थे। होता है । बल्कि कच्छ से प्रक्रित ध्वज समर्थ लेना इसमे सदेह नहीं है कि चित्तोड मे कुछ यात्रियों ने चाहिए। इस शिलालेख के प्रारम्भ के २० श्लोक वाले भी निर्माण कार्य मदिर प्रादि बनवाये है किन्तु कीति अंश की शिला मिली नही है। इसलिए निश्चित रूप से स्तम्भ जैसी वृति सघ यात्रा करते हुए बनवाना असगत इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । चित्तोड़ लगता है। इसके अतिरिक्त चित्तौड तलहटी खोहर पादि से शाह जीजा से सम्बन्धित ३ खडित लेख पौर १ लेख स्थानों मे जैन मन्दिर बनवाये गये है। इसलिए इस परिपुण्यासह से सम्बन्धित मिना है। इन लेखो के उपलब्ध वार का दीर्घकाल तक चिसोड में निवास रइना अधिक प्रगो मे कही भी यह वणित नही है कि ये चित्तौड़ से युक्ति संगत लगता है। कालान्तर में यह परिवार दक्षिण बाहर के रहने वाले थे।
की ओर चला गया था जहाँ से मूर्ति लेख भी मिला है। पूण्यसिंह वाले लेख के श्लोक सं०२८ मोर इसमे उक्त लेख में भी जीना के निर्माण कार्यों में 'कीर्तिचित्तौड़ दुर्ग के अतिरिक्त चित्तौड़ तलहटी, खोहर मादि स्तम्भ" ही मुख्य रूप से उल्लेखित है। स्थानों पर मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । ये सब स्थान पृण्यसिंह के लेख मे नारसिंह और हमीर के मेवाड वा इसके आसपास के थे। चित्तौड़ तलहटी के जैन उल्लेख विचारणीय है। नारसिंह कहाँ का शासक था? मन्दिरों का उल्लेख वि० स० १३२४ के शिलालेख में है ज्ञात नहीं हो सका है । हमीर नाम के कई शासक हुए यथा
है । मेवाड का राजा हमीर वि० सं० १३६३ में चित्तौड़ सवत १३२४ वर्षे इहश्री चित्रकूट महादुर्गे तलहाट्टकायाँ" का गासक बना था। जो कीर्ति स्तम्भ निर्माण के बहुत खोहर सज्जनपूर मादि स्थाना की मडपिकामा स हान बाद की घटना है । अतएव यह कोई अन्य शासक हा वाली प्राय का अंश वहाँ के जैन मन्दिरो का देने का सकता है । सम्भवत: यह किसी सुल्तान का प्रतीक हो प्रादेश भी वि० सं० १३३५ के शिलालेख के एक प्रशम क्योकि सस्कृत मे "अमीर" शब्द के लिए हमीर प्रयुक्त है जो इस प्रकार हैं :
हुग्रा है। ____ "अन्यच्चाय दानानि" श्री चित्रकूट मडपिकायां च० चित्तौड़ दुर्ग निसदेह दीर्घ काल तक जैन धर्म का उ० द्रम्मा २४ तथा उत्तरायने घृत कर्ष ४ तथा तेल कर्ष केन्द्र स्थल रहा है। दिगम्बर जैन साधु यहा बड़ी संख्या ६ प्राधार मंडपिकायां द्रमा ३६, खोहर मडपिकाया द्रम्मा में पाते थे । दक्षिण भारत से कई जैन साघु यहाँ निरन्तर ३२ सज्जनपुर मडपिकाया व्र. ३३ अमून्य य दानानि पाते रहे हैं। एलाचार्य वीरसेन प्रादि प्रसिद्ध प्राचार्य दत्तानि"
यहाँ से सम्बन्धित रहे हैं दक्षिणी भारत के बालगाम्बे में ____ इस प्रकार इन स्थानों पर मन्दिरों की विद्यमान्यता कन्नड के एक शिलालेख में 'चित्रकूटाम्नाय" के एक सिद्ध होती है । शाह जीजा मोर उसके पुत्र पुण्यसिंह द्वारा साधु के यहां वहां निधन का उल्लेख है (एपिप्राफिया जो निर्माण कार्य करवाया गया है वह चित्तौड़ के पास• कर्नाटिका भाग iii पृ० १३४) इनका विस्तार से उल्लेख पास के क्षेत्र में ही अधिक है । कीर्ति स्तम्भ के निर्माण मैंने अपनी पुस्तक "वीर भूमि चित्तौड़" में किया है। में कई वर्ष लगे होंगे। यह पुण्यसिंह के समय तक भी प्रतएव श्रेष्ठि जीजा के कार्य क्षेत्र मोर चित्तौड़ में चलता रहा है । अतएव इस परिवार का चित्तौड़ के दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता को देखते हुए श्रेष्ठि भासपास या चित्तौड़ दुर्ग के ही निवासी होना उपयुक्त जीजा को इसी क्षेत्र के प्रासपास का निवासी मानना लगता है । परम्परा से भी यही विश्वास किया जाता चाहिये । कच्छ का निवासी मानने के लिए मोर सामग्री रहा है कि जीजा का परिवार अलाउद्दीन खिलजी के भौर शोध की आवश्यकता है।
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कवि साधारणकृत
विलासवईकहा, एक परिचयात्मक अध्ययन
डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट्
१. प्रथम परिचय " विलासवई कहा " से मेरा प्रथम परिचय मेरे विद्यार्थी जीवन से सम्बन्ध रखता है, जबकि सन १९२८ में सांगली में मेरे प्राध्यापक गुरु डा० पी. एल. वैद्य ने एक चित्र प्रति इस कथा की मुझे दिखाई थी। यह प्रति उन्होने जुलाई १९२७ में संस्कृत लाइब्रेरी कोठी, बड़ौदा से प्राप्त की थी।
इसके पश्चात् सन् १६४२ से १६४६ तक जब में लीलावई का सम्पादन कर रहा था, मैंने जैसलमेर भंडार की हस्ततिति प्रतियों के सूचीपत्र पत्र को कई बार देखा । श्री प्रो. एस. नं० १२ बड़ौदा १९२३ के सूचीपत्र मे विलासवई कहा की दो हस्तलिखित प्रतियाँ जैसलमेर भण्डार में होने का उल्लेख था । प्रथम पृष्ठ १४-५ पर बड़े शास्त्र भंडार में क्रम १३१ पर एक ताड़पत्र पर लिखित प्रति का उल्लेख है। इसमें १३३२३ श्राकार के २०६ पृष्ठों का उल्लेख है। प्रारम्भिक भाग उद्धृत किया गया है। अन्त में २०६ वें पृष्ठ पर टिप्पणी (सूचना) है कि रचयिता की प्रशस्ति अधूरी है। प्रति का उल्लेख पृ० १८-६ नं० १६६ पर है। इसमें २०X२ इन्च आकार के २०६ पृष्ठ हैं । अन्तिम भाग मे रचयिता की प्रशस्ति उद्धृत की गई है एवं कोष्ठकों में कुछ अशुद्धियाँ सुधारी गई है। इसके साथ ही भूमिका के पृष्ठ ४५ पर सम्पादक श्री एलः बी. गांधी ने ( रचबिता) एवं उसकी कृति के सम्बन्ध में अपने कुछ विचार संस्कृत में उपस्थित किये हैं।
दूसरी
जिनरत्नकोप (एम. डी वेलंकर, पूना १९४४) में पृष्ठ ३५६ पर निम्न उल्लेख प्राप्त होता है"१बिलासवती कथा ग्यारह अध्याययुक्त सं० ११९३ (१) मे कवि साधारण द्वारा रचित, जो बाद में सिद्धसेनसूरी के नाम से विख्यात हुए। यह प्रपत्र शभाषा में है।
बड़ौदा हस्तलिखित प्रतियों का क्रम ६६५, १३१६६० जैसलमेर भण्डार हस्तलिखित प्रतियों का क्रम (जी. श्री. एस. १९१३), पृष्ठ १४, १६ ( भूमिका पृष्ठ ४५) जैसल - मेर क्रम ६८०, ७२१, १६१० (तीनों ही ताड़पत्र लिखित प्रति हैं ) ; कुण्डी नं० १७३, ३२२ (ये भी जैसलमेर भंडार से ही उपलब्ध है। द्वितीय- लक्ष्मीवर महर्षि द्वारा रचित विलासवती कथा, कुण्डी नं० ३२२ ।"
जब श्री मुनि जिनविजयजी ने मुझे जैसलमेर के भंडार से हस्तलिखित कुवलयमाला की चित्र प्रति दी तो उसके अन्त में विलासवई कहा के चार पृष्ठ (११३ से ११६) एक तरफ लिखे हुए, पृष्ठ नम्बर न लिखे हुए, जुड़े हुए 1 ये पृष्ठ लगभग सन्धि ७ के २१ से २७ तक कड़वक को अपने में समावेशित करते थे। इसको लम्बाई और चौड़ाई पर दृष्टिपात करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये पृष्ठ जैसलमेर बड़े भण्डार की हस्तलिखित प्रति १३१ से सम्बधित है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है ।
सन् १९४७ मे भारतीय विद्यापत्रिका बम्बई की जिल्द नं० ५, नं० ४-६ दिसम्बर १९४६ तथा जनवरीफरवरी १९४७ में श्री पंडित बेचरदास जी दोशी ने
"विलासवई कहा की वस्तु" शीर्षक लेख प्रकाशित कराया । उन्होंने कृपा करके इसकी एक प्रति मुझे भी भेजी। इस । लेख ने " इस कविता" के प्रति मेरी रुचि को अत्यधिक प्रोत्साहित किया।
सन् १९५५ में श्री पंडित चरदास जी ने जिन्हें मैं अपना प्रादरणीय मित्र मानता हूँ, विलासवई कहा की एक प्रतिलिपि, जो उन्होंने जैसलमेर भण्डर की ताड़पत्र प्रति से प्रतिलिपि की थी और जिसका उल्लेख उन्होंने प्रपने पूर्वलिखित लेख में किया था, मुझे भेजी ।
इसके पश्चात् रायपुर से डा० देवेन्द्र ने हिन्दी भाषा
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में टाइप की हई अपने प्रबन्ध की प्रति भारतीय ज्ञानपीठ भाले के चिह्न "बहु वयण" से प्रारम्भ होती है और वाराणसी को प्रकाशनार्थ भेजी। सर्व सामान्य सम्पादक "खाण" शब्द से समाप्त होती है। के नाते मैंने उसे पड़ा । मैने देखा कि उन्होने अपने महा
इति सम्पूर्णम् ॥ निबन्ध विलासवई के सम्बन्ध मे कुछ पृष्ठ लिखे है, परतु।
हस्तलिखित प्रति को विशेषता तथा पुस्तक गठनमैने देखा कि उनका वर्णन भिन्न प्रकार का । उनका दीना हो हस्त लिपियों के अक्षर म-स, स्थु-द्ध, क-व, ध्यान विशेषतः साहित्यिक समालोचना पर केन्द्रित है। उ-यो, ए-प, व-य इत्यादि परस्पर प्राकार सम्भ्रान्ति उनके विचार अहमदाबाद से प्राप्त हस्तलिखित प्रति पर उत्पन्न करते है और प्रायः प्रशुद्ध रूप से प्रतिलिपि किये अाधारित हैं । यह प्रति मुझे तब उपलब्ध हुई जब मै इस
गये है। प्रादर्श में पडिमात्रा प्रायः प्रशुद्ध रूप से समझी विसमा अध्ययन को प्रायः पर्ण कर गई एव अशुद्ध ही अकित की गई है। अनेक स्थलों पर
असावधानता वश लेखन की भूलें पाई जाती है । स्वीकृति चुका था।
पद्धति के अनुसार दोनो प्रतियो मे पर सवर्ण के लिए वर्तमान अध्ययन की प्राधार सामग्री-मेरे वर्तमान
अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। परन्तु अनेक स्थलों विलासवाई कहा के अध्ययन प्राधार निम्नलिखित हस्त
पर "न्त" का प्रयोग देखा जाता है। कही-कहीं अनुनालिखित प्रतियाँ है
सिक उ का प्रयोग है तो कही यह भी रूप से समाप्त जे०-यह एक चित्र प्रति ग्रहीत प्रति है। ७६-७६
होता है। अनुस्वार के प्रयोग स्थान में कही भी समता अ पृष्ठो सहित और इसका प्राकार १६४८.५ सैण्टी
नहीं है। य श्रुति के लेखन एवं प्रयोग मे भी दोनों प्रतियों मीटर है। यह प्रति श्री पं० बैचरदास जी अहमदाबाद
मे समानता नही है । यद्यपि जे० प्रति इस विषय मे कुछ के कथनानुसार १०.५४ ०.७५ इन्च प्राकारयुक्त ताड़पत्र
विशेष सावधान है। तीत और तीए दोनों को समान पर अकित जैसलमेर वाली कृति को प्रामाणिक प्रतिलिपि
मानकर प्रयोग किया है। सम्भवतः बाद मे ई स्वर ए है। भाले के चित्र के पश्चात् इसका प्रारम्भ इस तरह
का या य का स्थानापन्न मान लिया गया है । न और न्न होता है
को दोनों प्रतियो में समान मानकर प्रयोग किया गया ___ नमो वीतरागाय ॥ बहु रमण इत्यादि । सम्भवतः
है यद्यपि जे० प्रति मे ण और एण का बाहुल्य है। यह यह जैसलमेर नं० १६७ को प्रति, जिसका उल्लेख ऊपर
निश्चित है कि जे. और बी० प्रतियां एक या दूसरे को किया गया है, की प्रतिलिपि है। प्रतिलिपिकार अपने
प्रतिलिपि नहीं है। विषय में इस प्रकार लिखता है--
___ सम्पादन रीति के विषय में यह ज्ञातव्य है कि वर्णलिखित लेखक पुरोहित जयगोपाल शर्मा ।। रेवासी
विन्यास में कुछ समानता रखी गई है। न तथान्न में मु० नागोर मारवाड़। हाल लिखित जैसलमेर राज
समानता है परन्तु बाद में ण और ण्ण का प्रयोग परिलपूताना ॥ संवत् १६६ रा मिति मिगसिर सुदी १४
क्षित होता है। यदि कही संस्कृत भाग में भी ण है तो सोमवार ।
भी ण्ण का प्रयोग है । देसी शब्द ण का प्रारम्भिक प्रयोग बी:-यह चित्रप्रतिग्रहीत प्रति ८६४२ शीट्स
है। परन्तु नम् पौर नावई णम् और णावइ रूप में प्रयुक्त २७४११.५ सैण्टीमीटर और हस्तलिखित प्रति न० है। उद्धत स्वत के स्थान पर य श्रुति का प्रयोग है। ६६६५ संण्टीमीटर लायब्रेरी डिपार्टमैट बड़ौदा से उप- और पासमानार्थक से दो ! लब्ध प्रति से चित्रग्रहीत है। श्री डा० पी० एल० वैद्य, परन्तु अनुस्वार दोनों प्रतियों मे समान रूप से प्रयुक्त हैं। पूना से मुझे यह प्रति प्राप्त हुई है और उन्होंने इसे ए और प्रो की ध्वन्यात्मकता मिली-जुली-सी हो १९२७ में तैयार किया था। पृष्ठ ५१ से ५४ तक इस गई है, विशेषतः दोनों प्रति के अपभ्रंश रूपों में इसकी प्रति में अप्राप्य हैं और यह भाग ८वीं सघि के ४ से २० बहुलता है । ए और प्रो की ध्वनि कुछ दीर्घता लिये हुए कड़वक को समावेशित करता है । हस्त लिखित प्रति होती है यदि उसके बाद व्यंजन समूह का प्रयोग हो परत
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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
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उच्चारण में उनकी ध्वनि लघु है । इसीलिए उनकी जगह शिष्य श्री सिद्धसेन सूरी थे, जो विलासवई कहाके कर्ता है। कहीं-कहीं इ और उ का प्रयोग परिलक्षित होता है। जिन्होंने विनयवश स्वय को प्रति प्रतिभाहीन वणित किया पेम्म इ-पिम्मइ, पणमेप्पिणु-पणमिप्पिणु, जोग्गयाइ-जुग्गयाइ, है। वे साधुदीक्षा से पूर्व श्रावकाश्रम में साधारण नाम से होन्ति-हुन्ति इत्यादि प्रयोग दृष्टिगोचर होते है। कुछ सबोधित थे अत. पश्चात् भी वे जनता में इस नामसे प्रख्यात
से ही दकल्पिक प्रयाग दृष्टव्य है-जैसे रहे। उन्होने बहुत से मत्र एव प्रार्थनाए रची, जो कि कि चिन्तेवि-चिन्तिव, जे.जि, जे-जिन, देउलेही-दिउल. देश के विभिन्न भागों में बोली जाती है। उन्होंने यह लिही, दुहियहे दुहियहि, घरे-घरि, महुमाही महुमासु कथा साह लक्ष्मीधर के प्राग्रह से रची। लक्ष्मीधर ग्वाइत्यादि । जब ऐसे वैकल्पिक रूप प्राप्त होते है तो यह लियर दुर्ग के (गोपगिरिशिखर) के निवासी थे और स्पष्ट है कि ई और ऊ वास्तव में ए पोर पो है और इ अपने श्री भिल्लमाल कूल में चन्द्रमा के समान थ । प्रस्तुत और उ भी उनका प्रतिनिधित्व करते। हिन्दी मे लघु ए विलासवई जहा सुन्दर भावाभिव्यक्ति एवं सुन्दर सन्धियो और प्रो के लिखने के सकेत चिह्न है ही नहा। केवल (कथाविभाग) के गठन पूर्वक रची गई है और इसकी छन्द के नियमाधार से ही उनकी ह्रस्वता या दीर्घता का कथावस्त समराइच्चकहा से ग्रहण की गई है । इस रचना परिज्ञान होता है। जैसे कि जैन अनुनासिक है परन्तु की समाप्ति घन्धुवकाय नगरी मे सोमवार, संवत् ११२३ जि अनुवर है।
(सन् १०६६) की पौष मास चतुर्दशी को हुई। कता न, श्रीहेमचन्द्र (iv ४१०-१) ने परिज्ञात किया था कि
मूलकथा में पाठकों के हित की दृष्टि से जो अल्प परिवर्तन ई और ऊ अपभ्रश में प्रायः ह्रस्व रूप में प्रयुक्त होते किया है. उसके लिए क्षमाप्रार्थना की है। कृ है। इसी तरह उ, हिं, हं, हु सभी अनुनासिक समझे जाने रचना परिणाम लगभग ३६२० अनुष्टुप छन्द है । अन्त चाहिए जबकि वे किसी छन्द के चरण के अन्त में प्रयुक्त मे उन्होंने सरस्वती की विजय की कामना की है और हो। इन पठन-विकल्पों को कम करने के लिए और ई सरस्वती की कीतिगाथाए स्वर्ग की अप्सराएं भी गाती है, और ऊ का उच्चारण सुविधा एव मूल्यांकन कुछ विशेष इस तरह सरस्वती की प्रश्नसा की है। सरस्वती कमल के रीतियों की आवश्यकता है। निश्चय ही अपभ्रश पाठ्य सिंहासन पर विराजित है, जो वाणी की देवता है और पुस्तको के पाठकों ने इसके लिए कुछ प्रयत्न किए भी
मानन्द की जननी है। ऊपर वर्णन निम्न कथन पर पाषाहै। मैने भी प्रथम संधि का सार उपस्थित करते समय
रित है :निश्चित सकेतो के प्रभाव मे शुद्ध उच्चारण की सुविधा के लिए प्रचलित सकेतों का प्रयोग किया है।
वाणिज्जे मलकुले कोडियगण-विउल-वइर-साहाए । ४. प्रन्थकर्ता-कथाकृति के कर्ता साधारण ने कति विमम्मिय चम्बकुले सम्मि य कव्व-कलाण संताणे ।। की अन्त की प्रशस्ति में प्राकृत गाथानों में कुछ अपना रायसहा-सेहर-सिरिवप्पट्टिसरिस्स । जीवन परिचय दिया है। उसका प्राचीन वंशानुक्रम प्रति जसभद्दसूरि-गच्छ महरा-देसे सिरोहाए । प्राचीन कोई व्यापारियो का कुल है-वणिज्ज जिसे प्रासि सिरिसंतिसूरी तस्स पये प्रासि सूरि-जसदेवो । थनिज्जे भी पढ़ा जा सकता है। उसका गण कोटिक है, सिरि सिद्धसेणसूरी तस्सवि सोसो जडमई सो॥ उसकी शाखा वज़ है, उसका वंश चन्द्रकुल है, जिसमे साहारणो त्ति नामं सुपसिद्धो प्रत्थि पुचनामेणं । काव्य एवं कला की निपुणता परम्परागत निधि है। युइयोत्था बहु-भेया जस्स पढिज्जन्ति देसेसु ॥ बप्पभट्टसूरी एक राज्य दरबार के सर्वप्रधान पूज्य गुरु थे। सिरिभिल्लमाल कुलगयण-चन्द-गोवगिरि-सिहरनिलयस्स । व यशोभद्रसूरि गच्छ से सम्बन्धित थे। उसी गच्छ मे बयण साह लच्छीहरस्स रइया कहा तेण ॥ श्री शान्तिसूरी जी मथुरा प्रदेश के मुख्य प्राचार्य (सरोहा समराइच्चकहाम्रो उद्धरिया सुख-संधि-बंधेण । थे। उनके पाट पर यशोदेवसूरि विराजित हुए । उन्ही के कोऊहलेण एसा पसण्णवयणा विलासबई ॥
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१५६, वर्ष २३, कि० ४ |
अनेकान्त
एक्कारस सहि गएहि तेवीस-बरिस-अहिएहि ।
१०. जणय-समागमो नाम....."संधी (२७) पोस-चउद्दसि सोमे सिद्धा बंक्यपुरम्मि ।
११. [सणंकुमार-विलासवई-निव्वाण-गमणो नाम एसा य गणिज्जन्ती, पायेणाणुठ्ठभेण छंदेण ।
..."संधी] (३६) सं पुण्णई जाया छत्तीस-सयाई वोसाई।
६. हरिभद्र और साधारण-समराइच्चकहा एवं जंचरियानो अहियं कि पि इहं कप्पियं मए रइयं । उसके रचयिता श्री हरिभद्रसूरि के प्रति कृतज्ञताज्ञापन पडिबोह-कारणेणं खमियव्वं मम सुयणेहि ॥ करते समय साधारण ने उनकी प्रशस्ति में दो गाथाएं जयह तिसिंद-सुंदरि-वंदिय-पय-पकयाकयारूढा ।
प्रस्तुत की हैं। बयणविविन्नवाणी सरस्सई सयलसुहखाणी॥ समराइच्च कहाम्रो उद्धरिया सुद्ध संधि-बन्षेण ।
इस तरह से साधारण, जो साघु पर्याय में सिद्धसेन- कोऊहलेण एसा पसण्ण-वयणा विलासवई॥ मूरि कहलाये, इस विलासवईकहा के रचयिता हैं । उन्होंने जंचरियानो पहियं कि पि इहं कप्पिगं मएरइयं । यह कथा हरिभद्र सूरि विरचित समराइच्चकहा से ग्रहण पडियोह कारणणं खमियव्यं मजा सुयणेहि ॥ को है पोर यत्र तत्र कुछ परिवर्तन एव संवर्धन किया है।
उपर्युक्त गाथानोंसे स्पष्ट प्रमाणित है कि साधारण ने उन्होंने यह कथा ग्वालियर निवासी साहू लक्ष्मीधर मिश्र यह कथा-"समराइच्चकहा" से ग्रहण की है (सम्पादक को वीनती को मान देकर रची है और सन् १०६६ मे हर्मन जेकोबी बी. आई. कलकत्ता १९२६ तथा समरादित्य घंधुका नगरी में यह रचना पूर्ण हुई है। यह जानना सक्षेप में अहमदाबाद १९०६)। बाद में साधारण ने आह्लादकारक है कि धधुका नगरी श्री हेमचन्द्राचार्य की कथा में स्वयं कुछ परिवर्द्धन किया है (पहियं कप्पियम्)। जन्मभूमि है । साधारण ने श्री हेमचन्द्र के जन्म से बाईस उसने अपने को क्षमितव्यरूप में उपस्थित किया है, क्योंकि वर्ष पूर्व यह रचना पूर्ण की। श्री हेमचन्द्र का काल सन् उसने यह परिवर्द्धन पाठकों के प्रानन्दवर्धन के लिए किया १०८८-११७२ है।
है। श्री हरिभद्र (७वी शताब्दी ईस्वी) ने अपनी रचना ५. सग्घिया और उनके शीर्षक-विलासवईकहा को भावो में विभक्त किया है और गद्य, पद्य मिश्रित ग्यारह सन्धियों में विभक्त है। प्रथम और ग्यारहवीं प्राकृत में लिखी है। जबकि साधारण ने अपभ्रंश भाषा मन्धि का कोई विशेष शीर्षक (नाम) नहीं है। श्री पं० का आश्रय ग्रहण किया और उसकी कृति सन्धियों में बैचरदास जी ने संस्कृत में नाम प्रस्तावित किये थे, वे ही विभक्त है। श्री हरिभद्र द्वारा वणित सनत्कुमार की प्राकृत रूपान्तरण कोष्ठकों में नामरूप से कल्पित किये
कथा एक वृहद्कथा समराइच्चकहा का पंचमभाव है तथा गये हैं। प्रत्येक सन्धि के कड़वक के नम्बर कोष्ठक में
सनत्कुमार की कथावर्णन द्वारा यह दिखाया गया है कि निर्देशित हैं :
निदान करने का (किसी तप प्रादि के बदले संसारसुख १. [सणंकुमार विलासवई-समागमो नाम 'संथी] की कोई निश्चित कामना कर लेना) क्या फल होता है।
".(२७) जबकि साधारण की कथा एक स्वतंत्र कथा है और इस २. विणयंघर-संघी......(२२)
रचना का प्रयोजन यह प्रदर्शित करना है कि जरा सा भी ३. भिन्न-वहण-संघी....... (२३)
प्रमाद करने का अगले जन्म में क्या फल प्राप्त होता है। ४. विज्जाहरी-संधी......(२४)
"येवो विकीरह जो पमाउ, ४. विवाह-वियोय-संधी..(३२)
सो परभवे होउ महा विवाउ।" ६. विज्जा-सिद्धि-संधी (३३)
इह भांति से हरिभद्र तथा साधारण ने क्रमशः निदान ७. दुम्मुह-वहो नाम 'सघी (२६)
एवं प्रमाद के परिणामों को प्रदर्शित किया है। ८. भणंगरइ-विजय-रज्जाइसेय-संधी (३८)
निस्सन्देह साधारण ने सामग्रीरूप से समराहच्चकहा १. विणयंघर-संजोगो नाम....."संधी (३४) के पंचमभाव को अपने समक्ष रखा है। परन्तु तुलनात्मक
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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
गम्भीर अध्ययन करने पर कई भावपूर्ण तथ्य प्रत्यक्ष संयोजना है और इसका प्रयोजन भी स्पष्ट है। समराइच्च उपस्थित होते हैं। यद्यपि साधारण अपभ्रंश भाषा में कहा मे, इस प्रसंग मे इसका प्रभाव है। एकादश सन्धि अपनी रचना कर रहे हैं परन्तु वे समराइच्च कहा के मे मधुबिन्दु के दृष्टान्त को साधारण ने विस्तृतरूप में शब्द एवं कथन ज्यों के त्यों कई स्थानों पर ग्रहण कर उपस्थित किया है, जबकि हरिभद्र ने केवल इसका संक्षिप्त रहे हैं । कई स्थानों पर शब्द तादात्म्य इतना अधिक है सकेत दिया है, क्योकि समराइच्चकहा मे इसका विस्तार कि प्राकृत-पाठ्य कई नवीन तथ्यों का पता देती है। यहाँ कही अन्य स्थल पर किया गया है। धार्मिक उपदेश, तक कि अपभ्रंश रचना की प्रशद्धियां सुधारने में भी शिक्षा एवं रूढ़िगत भावनानी का साधारण ने विस्तृत प्राकृत पाठ्य की सहायता प्राप्त होती है। कई स्थानों वर्णन किया है। ये संवर्धन एवं परिवर्धन विलासवईकहा पर वर्ननक्रम की भी सदृशता है। हारभद्र की कई पंक्तियों को अपभ्रंश भाषा की स्वतत्र कथा-रचना एवं अध्ययनाई (पृ. ३७२) साधारण ने ज्यों की त्यों उद्धृत कर दी हैं प्रमाणित करते हैं। (सन्धि ६३२)।
७. छन्द एवं शैली इत्यादि-यह ज्ञात होता है कि इतना होने पर भी कुछ निश्चित बातें है जो मन को विलासवईकहा एकादश सन्धियों में विभक्त है और प्रत्येक विशेषरूप से आकर्षित करती हैं और साधारण की काव्य- सन्धि कड़वक मे विभक्त है, जिनकी संख्या २२ से ३६ प्रतिभा का निदर्शन उपस्थित करती है। साधारण एक तक है। रचना के प्रारम्भ में टो पनि III स्वतंत्र कथा की रचना कर रहे है और इसके लिए उन्होंने
प्रत्येक पंक्ति में १०+६+१३३१ मात्राएँ है। प्रथम दो अपना पृथक् मगलाचरण किया है। उन्होने अपनी रचना चरण तुकान्तयुक्त है । प्रत्येक कडवक की पंक्तियाँ विभिन्न का नैतिक शिक्षा-प्रयोजन भी स्पष्टतः पृथक् निर्देशित छन्द गठन शैली से युक्त हैं। प्रथमसधि के विश्लेषण से किया है। श्री हरिभद्र का घटना क्रम का वर्णन त्वरित- यह परिज्ञात होता है कि प्रत्येक कडवक गाथा से समाप्त गतिवाला है जबकि श्री साधारण ने अनेक स्थानों पर होता है। किन्तु छन्दगठनविधि वही है जैसी पहले कही विश्रमित गति का प्राश्रय लेकर घटनाक्रमों को विस्तृत गई है । सप्तम कड़वक की पक्तियां सकुलक पंक्तियां हैं बनाया है। विशेषतः साहित्यप्रथागत तथा वर्णनात्मक (६, ४, ४, २) । क्रम ८ और २३ की पक्तियां मदनाकथन उनके पर्याप्त विस्तृत हैं । हरिभद्र के कथन संक्षिप्त वतार की पंक्तियाँ है। (५+४), तथा शेष पद्धतीय है, इसके विपरीत साधारण के कथन प्रति विस्तृत एवं पंक्तियां हैं (४४४)। सम्पूर्ण कृति का सम्पादन होने परिवधित हैं । विभिन्न अपभ्रश बोलियों के प्रयोग तुकान्त पर ही रचना का छन्द विषयक पूर्ण विश्लेषण हो सकता एवं ध्वनिसमरसता में सहायक होकर साधारण की काव्य- है। रचना मे प्रवीणता एवं प्रेरणा के कारण बन गये हैं। यद्यपि साधारण ने कथा सामग्री हरिभद्र कृत समइन प्रयोगों के मूलरूप अन्य अपभ्रंश रचनामों में देखे जा राइच्चकहा से ग्रहण की है परन्तु प्रत्येक उचित घटना सकते हैं । कतिपय भाव और रस जो हरिभद्र द्वारा केवल को अपनी काव्य प्रतिभा से शब्द चित्रात्मकता प्रदान सकेतित है, साधारण ने उनका पर्याप्त विस्तार किया है। करने का, रसात्मकता या भावात्मकता, विस्तारयुक्तता साधारण यत्र तत्र काव्य-वर्णनानुकूलता के प्रतिपादनार्थ प्रदान करने का अवसर चुके नहीं हैं। रचना में सर्वत्र का प्रकरण में परिवर्तन तथा परिवर्धन कर लेते हैं। काव्य-रसात्मकता एवं विशिष्टता विद्यमान हैं । वसन्तादि साधारण अपनी स्वतंत्र रचना की सिद्धि के लिए कथानक ऋतुवर्णन, नारी सौन्दर्य का वर्णन, वन मादि का प्रकृति में यत्किञ्चित् परिवर्तन एवं परिवर्षन को उचित मानते चित्रण, समुद्रतट, दिव्यदृश्यों का तथा विद्याधरों का वर्णन, हैं : विशेषतः अपनी रचना के अन्तिम प्रसंगों में उन्होंने युद्ध, विमान, राजधानियों का वर्णन, मन्दिर महल, राजऐसा परिवर्तन भषिक किया है। नवम सन्धि का कथा- प्रासाद, शोभायात्रा मादि का मनोहारी एवं विस्तृत वर्णन विषय चन्द्रलेखा की उपकथा साधारण की अपनी नवीन साधारण के काव्य-कौशल को प्रगट कर रहे हैं। अनेक
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१५८, वर्ष २३, कि० ४
अनेकान्त
स्थानो पर धार्मिक उपदेश, करुणापूर्ण वर्णन तथा अनेक स्वीकार न को। [श्लोक पृ० ३०२४.३०३२] एक दिन सुभाषित कृति को मलकृत कर रहे है।
वसन्त ऋतु मे अपने कुछ मित्रो के साथ वह मदनमहोत्सव ६. विषय-विश्लेषण-प्रस्तुत विषय-विश्लेषण दोनों में भाग लेने के लिये मनगनन्दन नामक उद्यान मे गया। हस्तलिखित प्रतियो के अध्ययन के पश्चात उपस्थित किया (६-७) ज्यो ही वह राजमार्ग के पास से होकर जा रहा जा रहा है। यह तो स्पष्ट है कि विषय कडवक मे विभा- था राजा ईशानचन्द्र की पुत्री राजकुमारी विलासवती जित किया गया है और ये विभाग निश्चित विषय-वर्णन ने उसे ऊपर राजमहल की खिडकी से देख लिया। वह के आधार पर स्थित हैं। प्रत्येक सन्धि का विषय यहाँ उसे कामदेव के समान सुन्दर प्रतीत हुमा और उसने अपने इसलिए प्रस्तुत किया जा रहा है कि मेधावी छात्र या हाथों से गूथा हुमा बकुल-पुष्पो का हार उसके ऊपर डाल जिज्ञासु समराइच्चकहा पोर विलासवईकहा का तुलना- दिया और वह हार उसके गले में जा गिरा। जब उसने त्मक अध्ययन कर सके । योग्यसन्दर्भ में तुलनात्मक सकेत पर देखा तो यह राजकुमारी के सुन्दर रूप से मोहित हो भी कर दिए है । जहाँ स्पष्टविधान नहीं है, वहाँ तारां- गया। उसका मित्र वसुभूति उनके पारस्परिक प्रेम को कित चिह्नों प्रादि से निर्देशित कर दिया गया है।
पहचान गया। (5) राजकुमार ने मदनमहोत्सव की संधि प्रथम-रचनाकर प्रथम चौबीस तीर्थंकरो को क्रीडायो मे भाग तो लिया परन्तु उसका हृदय विलासवती क्रमश: नाम लेकर नमस्कार करता है। (१) अहिंसा, के रूप के प्रति ही प्रासक्त था । उस दिन की रात उसे कर्मपरवशता, प्रमाद का बुरा परिणाम प्रादि का प्रति वियोग के कारण प्रति दीर्घ प्रतीत हुई। (९-१०) दूसरे पादन कर दृष्टान्त रूप मे विलासवईकहा का प्रस्तुतीकरण दिन प्रातःकाल उसे उसके मित्र वसूभूति ने संभाला मोर करता है। (२)....."(ताराकित)। भारत मे सेयाविया अनुभव किया कि उसके प्रत्येक क्रियाकलाप मे अन्तर मा (स्वेतावी) नामक एक नगरी है। राजा यशोवर्मन उस गया है और वह कामदेव के वश में हो गया है । वसुभूति नगरी पर शासन करते थे। उसकी पटरानी का नाम ने उसे विश्वास दिलाया कि विलासवती भी तुम्हारे प्रेमकोतिमती था । वह बहुगुणमती थी। उनका सनत्कुमार पाश मे माबद्ध है, वकुल पुष्पों की माला गैरना इसी नामक सुपुत्र था। उसके जन्म के समय ही ज्योतिषियो ने को ज्ञापकता का प्रमाण है कि वह भी तुम्हारे प्रति भविष्यवाणी की थी कि यह विद्याधरो का स्वामी होगा। प्रेमाकुल है। (११) मै तुम्हारे सयोग का कुछ उपाय (३) एक बार सनत्कुमार प्रश्वारोहण के मानन्द के करूगा, यह विश्वास दिलाकर वसुभूति उसके पास से पश्चात् अपन भवन को लौट रहा था तो उसने देखा कि चला गया। उसने विलासवती की सेविका की पुत्री कुछ डाकू फॉसी देने के लिए ले जाये जा रहे हैं । डाकुओं अनंगसुन्दरी से अपना परिचय बढागा। राजकुमार बडा ने पश्चाताप करते हुए कुमार से अपनी रक्षा की प्रार्थना व्याकूल एव सन्तापित था। (१२) वसुभूति राजकुमार की और कुमार ने उन्हें मुक्त कर दिया, इस घटना ने के पास आया और राजकुमार से घेयं एवं साहस धारण उन नागरिको को क्रुद्ध कर दिया जिनके द्वारा अभियोग करने को कहा । उसने अनगसुन्दरी से परिचय प्राप्त करने करने पर राजा ने उन्हें गुप्तरूप में प्राणदण्ड दिया था। की मब बात राजकुमारी को बतलाई और कहा कि राजकुमार ने इसे अपना अपमान समझा और उस नगरी अनगसुन्दरी भी तुम्हारे दुख से उदास मोर दुखी थी। को छोड़कर कही अन्यत्र चला गया। (४) अनुचरों द्वारा (१३) वसुभुति ने बतलाया कि अनगसुन्दरी राजकुमारी मनाया जाने पर भी वह न माना और अपने कुछ के प्रति निकट सम्पर्क में है और राजकुमारी भी तुम्हारी विश्वस्त साथियों के साथ ताम्रलिप्ति नगरी में पहुँच ही तरह प्रेम से व्याकुल एव सन्तापित है। एक अज्ञात गया । वहाँ के राजा ईशानचन्द्र ने उसका हार्दिक स्वागत युवक के गले मे हार डालकर अपने हृदय को लुटा बैटी किया और भोजन तथा निवास की समुचित सुविधा है। पनगसुन्दरी ने उसे सान्त्वना देकर समझाया है कि प्रदान की। (५) वहाँ जीविकानिर्वाहार्थ उसने कोई वृत्ति वह उस युवक को खोजकर शीघ्र ही मिलन करायेगी।
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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
१५६
(१४-१५) विलासवती की प्रेम-पीडा बडती ही चली के उपहार सनत्कुमार को भेज और बदले में उसने भी गई, यहाँ तक कि वह मूच्छित हो गई। वसुभति से यह अनेक उपहार भेजे। इस प्रकार कुछ दिन कुशलक्षेमपूर्वक सब जानकर राजकुमार ने राजकमारी की प्राणरक्षा के व्यतीत हुए। (२६-२७) [श्लोक पृ० ३०३.२-३१५. निमित्त उसके पास जाना चाहा। (१६) वसृभूति ने राजकुमार को बतलाया कि किस प्रकार राजकुमारी की सन्धि द्वितीय-एक दिन रानी अनगवती ने अपनी सखी ने उसे समझाया और धीरज बधाया है। जब वह मेविका के द्वारा सनत्कुमार को अपने कमरे मे प्रामत्रित मूर्छा से मुक्त हुई तो उसने एक युवक के प्रेम-पास में किया। माता के समान अादर करता हुआ वह उसके ग्रावद्ध होने की बात सखियो के समक्ष प्रगट कर दी। समीप गया । वहाँ रानी ने अपना प्रेमभाव प्रकट किया। अन गसुन्दरी ने उसे विश्वास-पूर्ण समाचार देकर इनाम और कहा कि वह उसको पहली बार देखने के बाद कैसे प्राप्त किया। (१७) उसी समय विलासवती की माता वियोग की पीडा सह रही है। सनत्कुमार उसकी इस (रानी) वहाँ आई और कहा कि राजा विलासवती का तुच्छ भावना से बड़ा दुखित हुप्रा । (१.२) राजकुमार वीणावादन देखना चाहते है। विलासवती ने अपनी माता ने रानी को समझाया कि उसकी यह भावना अति पापका स्वागत किया और उसके साथ चली गई। नंगसुन्दरी पूर्ण है । इस तरह सनत्कुमार अपने चरित्र पर दढ रहा । पूर्ण हताश एवं किंकर्तव्य विमूढ थी। बसूति ने उसे (३) रानी ने सनत्कुमार की भावना की प्रशसा की और चिन्ता न करने के लिये समझाया और कहा कि उस कहा कि मेरी प्रेम की भावना कौतुकरूप से थी, इसे नवयवक राजकमार से मेरी घनिष्टता है और वह भी गम्भीरता से न ग्रहण करना। इस तरह वह राजकमार प्रेम से व्याकुल है। दोनो ने उन दोनों के मिलन के के पास से चली गई। राजकुमार भी रानी को प्रणाम अनेक उपाय सोचे । राजप्रासाद के उपवन में दोनो को करके घर लौट पाया और बमुभूति के साथ प्रसन्नता के मिलाने का विचार किया। यह जानकर राजकुमार ने
पार किया। यह जानकर राजकमार ने साथ समय बिताने लगा। (४) लोक पाठ ३१६.१वसुभूति को इनाम दिया । (१८-२०) वे राजप्रासाद के ३१८.३] उद्यान मे गये । वहाँ सब ऋतुग्रो की शोभा इसके पश्चात विनयंघर, राजा का मित्र और नगरउपस्थित थी। कवि ने इसका बहुत मुन्दरता से रक्षक सनत्कुमार के पास प्राया मोर एकान्त मे बोला पत्रण किया है । (२१) अनगसुन्दरी ने कि "तुम्हारे पिता के राज्य मे स्वस्तिमती नगरी मे एक नन्दन वक्ष के नीचे ग्रासन ग्रहण करने की वीनती की। महान उदारोशय और पराक्रमी वीरसेन नामक एक वीर विलासवती के अनुपम सौन्दर्य को राजकुमार एवं वसु- व्यक्ति रहता था। एक बार वह अपनी पत्नी और बडे भति ने देखा । कवि ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। पुत्र के साथ अपने पिता के निवास-स्थल-जयस्थल को राजकमारी के सौन्दर्य से राजकुमार पाश्चर्यचकित हो तरफ जा रहा था। मार्ग में स्वेतावी नगरी के बाहर गया और राजकुमारी ने उसे प्रेम का प्रतीक ताम्बूल उसने डेरा डाला। यहाँ एक चोर की प्राणरक्षा की अर्पण किया। जब वे दोनों इकट्ठे बैठे थे, उसी समय प्रार्थना पर उसने ध्यान देकर अपने डेरे पर ठहरा लिया। मित्रभूति के द्वारा राजा ने विलासवती को वीणावादनी के राजा के सिपाहियों ने उस चोर को खोजते हुए वीरसेन लिए बलाया, क्योंकि गतदिवस भूल से वीणावादनका कार्य- डेरे को घेर लिया और वीरसेन से चोर के अपराध का क्रम न हो सका था। वह प्रेमपूर्ण दृष्टि से राजकुमार को वर्णन किया। (५-८) वीरसेन ने चोर को लौटाने से देखती हई चली गई। राजकुमार और उसका मित्र भी इंकार कर दिया। तब राजा यशोवर्मन ने वीरसेन से यद्ध अपने घर चले गए। रानी अनंगवती राजकुमार को देख करने की आज्ञा दी। युद्ध मे सनत्कुमार ने वीरसेन की कर कछ मोहित सी हो गई । (२२-२५) रानी भी काम- सहायता की। (६-१०) वीरसेन जयस्थल चला गया
Aasता को प्राप्त हई। विलासवती ने कई प्रेममोर श्वसुरालय में ठहरा। नगररक्षक ने कहा कि जय.
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१६० वर्ष २३, कि० ४
अनेकान्त
स्थल मे ही मेरा जन्म हुमा था। इसलिए हे सनत्कुमार! नगरी से वहाँ व्यापाराथ पाया था। सनत्कुमार एवं तुम्हारे पिता मेरे पिता के निकटवर्ती और उपकारक हैं। वसुभूति उसी के प्रातिथ्य में रहे। (३) सनत्कुमार ने इस समय मेरे माने का प्रयोजन यह है कि माज राजा अपने पिता से पृथक् होने का कारण उसे बताया पौर जब अश्वारोहण मनोरंजन के कक्ष में गये और देखा कि कहा कि अब मैं अपने मामा से मिलने लंका जाऊंगा। रानी ने अपना मुख नाखून भादि से नौच कर कुरूप बना उसके मित्र के प्रातिथ्य के कारण पर्याप्त विलम्ब हो लिया है । भूमि पर लेटी हुई मांसू बहा रही है । उसको गया था। (१) चलत र
गया था। (४) चलते समय उसे एक नयनमोहन कम्बल सनत्कुमार ने मुझसे प्रेम प्रस्ताव किया था। भेंट दिया गया, जिसे प्रोढ़ने से उसे कोई न देख सकेगा। मैंने अपने शील की रक्षा की। उसी रक्षा-प्रयल में [तारांकित पृ० ३१७.१३-३२६.७]. उसके मित्र ने कहा मेरी यह दुर्दशा हुई है । राजा ने तुम्हे चुपचाप मारने की कि मंत्रशक्ति के द्वारा सिद्धसेन ने एक देवता को बुलाया माशा दी है मोर मैं चाहता कि तुम न मारे जानो। उसी यक्षगिरि देव ने यह कम्बल प्रदान किया है । (५-६) (१२-१३) मैं इस दुविधा में हूँ कि तुम्हें मारा जाय या सनत्कुमार ने कम्बल सधन्यवाद स्वीकार किया। समुद्रराजा की माज्ञा भग की जाय । मैं तुम्हारी निर्दोषिता के तट पर ईश्वरदत्त का सुन्दर जहाज तैयार था। ईश्वरदत्त लक्षण स्पष्ट देख रहा हूँ। तुम्ही बतानो कि मैं क्या ने मनोहरदत्त से कुशलक्षेम पूछा । (१०) राजकुमार करूं? [श्लोक पृ० ३१८.३-३२३.१२]. राजकुमार तथा वसुभूति उसी जहाज पर चढ़ कर लंका की प्रोर उस दुष्ट स्त्री के व्यवहार से बहुत उदास हुमा । (१५). प्रस्थान कर गये । (श्लोक पृ० ३२६.८-३३१.१३). एक दुष्ट व्यक्ति कुछ भी करने का साहस कर सकता है। प्रस्थान से तेरहवें दिन समुद्र में भारी तूफान पाया। (१६). यह राजा की कमजोरी है कि उसने रानी के मल्लाहों ने महान् प्रयत्न किया परन्तु कर्मवश कोई उपाय वचनों का विश्वास किया। यदि सत्यता प्रगट हो गई तो सफल न हुमा । एक काठ का फलक पर तैर कर सनत्कुराजा रानी को मार डालेगा। क्योंकि सभी तरफ से मार तीन दिन बाद किनारे पर पहुंचा। (११-१२) वह राजकुमार की निर्दोषता सिद्ध हो रही है। (१७-१८) कमा का
कर्मों की लीला पर विचार करने लगा। अपने प्रिय से विनयधर सब रहस्य राजा पर प्रगट करने को सन्नद्ध
वियोग मादि सभी बाते मन में विचरण करने लगीं। था। परन्तु राजकुमार ने कहा "यह सब मेरे कर्मों का
(१३-१४) वह जंगल में घूमते हुए एक प्राम्रवृक्ष के फल है।" (१९-२०) राजकुमार ने राजा के प्रादेश को
नीचे बैठा । उस वृक्ष पर एक सारस पक्षी का जोड़ा बैठा पालने के लिए विनयंधर से कहा। परन्तु विनयंधर ने
था उसकी मधुर ध्वनि सुनकर राजकुमार को विलासवती अपने और राजकुमार के लिए सुरक्षित मार्ग अपनाना
की स्मृति प्रा गई। उसका वियोग उसे प्रति व्यथित कर चाहा । राजकुमार उस स्थान से चले जाने के लिए सह
रहा था। (१५) विलासवती की स्मृति के विचारों में मत हो गया । वह पोताध्यक्ष समुद्रगुप्त के जलयान द्वारा डूबा हुआ सनत्कुमार ए
डूबा हुमा सनत्कुमार एक शिला पर पत्तों का बिस्तर वसुभूतिके साथ सुवर्णद्वीप जानेको प्रस्तुत हुमा । विनयंघर
__ बना कर सो गया। प्रातःकाल पक्षियों के कलरव से वह ने क्षमा चाहते हुए उन्हें विदा दी। (२०) [श्लोक पृ०
जागा । एक नदी के किनारे चलते हुए उसने रेत में किसी ३२३.१३-३७२.१२].
स्त्री के पदचिह्नों को देखा। उस चिन्हों का अनुसरण सन्धि तृतीय-जलयान समुद्र में सतरण करते हुए करता हुमा वह भागे बढ़ा। (१६-१७) एकान्त प्रदेश में दो मास में सूवर्णभूमि में पहुँच गये । मार्ग मे सनत्कुमार उसने एक तापस-बाला को देखा। उसके सुन्दर अगों का ने रानी का पाखण्ड और अपने कार्य की कहानी सबसे कवि ने विस्तार से वर्णन किया है। वह पुष्पगुच्छ से कह सुनाई और रानी का भेद वहाँ प्रकट न करने का शोभित थी। झाड़ी के पीछे छिपकर राजकुमार ने उसे मौचित्य सिद्ध किया। (१-२) वहाँ से श्रीपुर गये। वहाँ माकर्षित दृष्टि से देखा। (१८) उसके तापस वेष के उनका एक मित्र मनोहरदत्त मिला। वह भी सेयाविया अतिरिक्त उसे सर्व प्रकार वह रूप विलासवती का प्रतीत
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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
हुआ। उसका सोया प्रेमभाव जाग उठा । अपने भाव को मेरे पति सहमा स्वर्ण सिंहासन से गिरकर मृत्यु को प्राप्त छिपाकर हाथ जोड़कर उसने उसे प्रणाम किया। अपना हा। मै शोक में डूब गई। शीघ्र ही मुझे प्रतीत हमा परिचय देकर परिभ्रमण का कारण बताकर उससे अपना कि मेरी नभ गामिनी शक्ति का भी नाश हो गया है। नाम, पाश्रम का नाम और तपस्या का कारण पूछा। (ण). निःसहाय होकर मै अपने भाग्य पर दुःखी हुई। उस बाला ने ससन्भ्रम से उसे देखा और नीचा मुह कर मैने दृश्य,अदृश्य सभी शक्तियो से सहायतार्थ प्रार्थना की। लिया । (१९). बिना कुछ उत्तर दिये वह वहां से चली तब मेरे पिता का मित्र एक तापस विद्याधर देवनन्दी वहाँ गई [श्लोक पृष्ठ ३३१.१४-३३५.११] राजकुमार ने आया। (५). उसने मुझे सान्त्वना प्रदान की और उपाय किसी अन्य व्यक्ति से उम बाला का परिचय प्राप्त करने हानि पर शोक न करने को समझाया । (६). मनुष्य का विचार किया। उसे उसने पुनः पाश्रम मे लौटते हुए जन्म को सफल बनाने के लिए मैंने उसमे तपस्वी का व्रत देखा । उसने अनुभव किया कि वह प्रेम से प्रासक्त है। घारण किया । (७). विदित हुअा कि सिद्धकूट पर्वत को उसने अधिक उत्सुक होना अयोग्य समझा । (२०). वह पार करते हुए मेरा हार गिर पड़ा था, उसी के परिणामनदी के किनारे पर पुनः वापिस लौट आया परन्तु वहाँ स्वरूप मेरी नभगामिनी विद्या की भी समाप्ति हो गई किसी व्यक्ति को न देखा। उसी रात को प्रातःकाल उसने थी । मेर पिता की प्राज्ञा से देवनन्दि मुझे स्वेतद्वीप मे स्वप्न में उस बाला द्वारा उसके गले में पवित्र पुष्पों का ले आया और अपनी तपस्वी शृखला मे समाविष्ट कर हार डालने का दृश्य देखा । सारसों की मधुर ध्वनि ने मुझे कुछ कार्य में नियुक्त कर दिया । एकदिन पुष्प और उसे प्रात:काल जगाया । स्वप्न एवं अन्य शुभ लक्षणो से समिधा की खोज मे मैं समुद्र की तरगप्रवाह के समीप राजकुमार जान गया कि किसी कन्या से उसका मिलाप पहुँच गई। (८). समुद्रतट पर तरगप्रवाह में सन्तरित होने वाला है । वह तापसबाला जिसका रूपसाम्य विलास एक काष्ठ फलक के पास मूच्छित पड़ी एक सुन्दर स्त्री वती से है, कहीं विलासवती ही तो नही है । जगल मे को देखा। (8). मैने कमण्डल का पानी छिड़का तो वह ढूढते हुए उसने कुछ दिन बड़े कष्ट से बिताए, परन्तु सब प्रबुद्ध हई । मैंने उसे धीरज बघाया । पाश्रम में साथ प्रयत्न निष्फल हुआ। (२१-२३). श्लोक [३३५.१२- लाकर कुलपति को सौंप दी। (१०). पूछे जाने पर ३३७-१२].
उसने कहा कि मैं ताम्रलिप्ति से पाई है, इससे अधिक मैं चतुर्थ सन्धि-माधवीलता से वेष्ठित एक प्राम्रतरु कुछ नही कहूँगी (क्योंकि सम्भवतः वह किसी उच्च कुल के नीचे सनत्कुमार विनासवती की स्मृति मे तल्लीन था, से आई है)। मैंने कुलपति से खबर प्राप्त की (११). तभी एक प्रौढ़ वय की तापसी वहाँ पाई । कवि ने तापसी [इलोक पृ० ३३८.८ ३४१-१२] कुलपति ने अपने देवीय (तपस्विनी) का अच्छा वर्णन किया है। राजकुमार ने ज्ञान से परिज्ञान कर कहा कि यह राजकुमारी विलास उसे प्रणाम किया, तापसी ने उसे प्राशीर्वाद दिया और वती है, यह राजकुमार सनत्कुमार के प्रति प्रेमासक्त है कार्यसिद्धयर्थ उसके सिर पर कमण्डल का पानी छिडका। विवाह से पूर्व ही दोनो प्रेमामक्त थे । इसे मालम हुमा (१) [श्लोक पृ० ३३७.१३-३३८.८-७]. तपस्विनी ने कि निर्दोष मनकुमार राजा की प्राज्ञा से मार दिया गया राजकुमार को अपने समीप बिठाया और उसकी बात है। (१२) राजा की प्राज्ञा से उसे अर्धरात्रि के समय सुनने को कहा। तापसी बोली-मैं वैताढ्य पर्वत पर राजमहल छोड़ना पड़ा और वह सनत्कुमार के शव को गन्धसमृद्ध प्रदेश के स्वामी सहस्रबल की रानी सुप्रभा की ढंढने निकल पड़ी। जिससे कि एकबार उसके दर्शन करके कुक्षि से जन्म लेने वाली मदनमंजरी नाम की पुत्री हूँ। फिर स्वय मृत्यु को वरण करले । परन्तु मार्ग में वह मैं पवनगति नामक विद्याघर से विवाहित हुई थी और डाकुओं द्वारा पकड़ी गई उन्होने उसकी सब सम्पत्ति पर्याप्त काल सानन्द व्यतीत हुआ। (२-३) एक बार छीन ली और अचल नामक एक व्यापारी को बेच दी, हेम प्रकाश मार्ग से मनोरंजनार्थ नन्दनवन को गये । तब जो बरबराकूना जा रहा था समुद्र में जहाज टूट गया
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परन्तु वह एक लकड़ी के तख्ते के सहारे तैरती हुई तीन क्षमा मांगी। मैंने उसे समझाया कि कुलपति के कथनानुदिन मे किनारे पहुँच गई । वह शीघ्र ही अपने प्रेमी से सार तुम्हारा प्रेमी जीवित है वह यही कही है, उसे लेकर मिलेगी और उसका जीवन सफल होगा। (१३). उसका मै अाश्रम में लौट आई। तुम्हे खोजने के लिए कुछ प्रेमी निश्चित रूप से मारा नही गया है। दूसरे दिन तपस्वी बालक इधर-उधर भेजे गये । अन्त में मै स्वयं शाम को मैंने यह सब कुछ उसे बता दिया है । संसार की तुम्हें ढूंढने निकली। तुम यहाँ मिले हो, अब कृपा करके दशा का वर्णन कर समझाया है कि इसमें प्रासक्त होने पाश्रम मे चलो और उस बाला के प्राण बचानो। (२२) वालो की क्या दशा होती है। (१४). तब मैने कोई [श्लोक पृ० ३४५.३-३४७.१७] । दीक्षा प्रादिक ग्रहण न करने के लिए उसे समझाया। पचम सन्धि-वह राजकुमार तपस्विनी का अनु. क्योंकि उसका पति अभी जीवित है, जैसा कि कुलपति गमन करते हुए विनय पूर्वक पाश्रम में पहुँचा। विलासके कथन से सिद्ध है । वह उसे शीघ्र ही मिलेगा इस वती यह जानकर कि उसका प्रेमी प्राश्रम द्वार पर तरह मैने उसे घंयं दिया। (१५). कुछ दिन उसने तापस उपस्थित है, कुछ शरमा कर, बिस्तर से उठ कर कुटी के बा जैसे वस्त्र धारण किये। एक बार वह कुछ फूल अन्दर चली गई। (१) तापसी ने योग्य सत्कार करके और समिधा लेने के लिये गई, परन्तु वापस पाने के बाद विलासववती को संकेत दिया, तदनुसार विलासवती ने उसकी दशा कुछ परिवर्तित और प्रतिदिन अधिक दु:खी सनत्कुमार के चरण प्रक्षालित किए। वन में प्राप्त अन्न होते हुए दिखाई दी (१६). कुलपति के पाने की प्रतीक्षा और फलो द्वारा भोजन तैयार किया गया। तदनन्तर है। उसके कार्य एव लक्षण स्पष्ट प्रकट करते है कि वह विधिपूर्वक विलासवती का परिणय सनत्कुमार से सम्पन्न कामदेव से ग्रस्त है। (१७) [श्लोक पृ० ३४१.१३. हा । वे दोनों सुन्दर बन नामक उद्यान में चले गये । ३४५.२] दूसरे दिन मैंने उसकी कामासक्त दशा का (२-३) वह उद्यान अनेक फल वृक्षो एव पुष्पित लतामो अनुभव किया। वह मजपा लेकर पुष्प स ग्रहाथं एक स्थल से सुमज्जित था। (४) उद्यान के दृश्य प्रति मनोहारी पर गई । मै भी चुपचाप उसके पीछे-पीछे गई । वह केले थे। (५) वहाँ उन दोनों ने प्रथमरात्रि सानन्द समाप्त के बन ममूह के पीछे वैठकर अपने भाग्य को धिक्कारने की । (६) [श्लोक पृ० ३४७.१८-३४६.१२] ।
और रान लगा। (१८) हाथ जाडकर ग्रासू बहाती तदनुसार कुछ दिन उन्होंने आश्रम के भव्य वाताहुई वह वन देवता को पुकारने लगी। यही तो वह स्थान वरण मे व्यतीत किए । एक बार जब वे पुष्प और समिधा है जहा मुझे मेरा प्रेमी मिला था, उसने अपना पता संचय के लिए गए थे, विलासवती को पुष्पचयन मे व्यस्त बताया था, परन्तु लज्जा ने मेरा मुख बन्द कर दिया था देखकर, उसके प्रेम की परीक्षा लेने के लिए एवं कुछ और मैंने उसके प्रश्न का कोई उत्तर न दिया था। (१६) मनोविनोद करने के लिए मनत्कुमार ने पूर्वोक्त चमत्कारी वह जंगल मे दृष्टि से परे हो गया। मुझे आश्चर्य है कि कम्बल प्रोढ़ लिया शोर अदृश्य हो गया। उसे वहा न मेरा केवल भ्रम था या वह कोई विद्याधर था और कोई पाकर विलासवती डर गई और मूच्छित होकर पृथ्वी पर उस प्रेमी का भेष बनाकर मुझे ठगने आया था। इस गिर पडी। सनत्कुमार ने प्रकट होकर धैर्य बंधाया और वियोग को मैं प्रब और अधिक सहन नही कर सकती।" कम्बल विषयक समस्त रहस्य उस पर प्रकट कर दिया। तब एक वृक्ष से फांसी लगाकर मरने को तैयार हुई चोर (७-६) वह कम्बल उसे सुरक्षित रखने के लिए सौंप वन देवता से प्रार्थना करने लगी कि मेरा सब वृत्तान्त दिया। [श्लोक पृ० ३४६.१३-३५०.१५] । उन दोनो मेरे प्रेमी को सुना देना। (२०) मैं ठीक समय पर उसे ने स्वदेश लौटने की सलाह की । समुद्रतट पर खडित बचाने पहुंच गई। उसे धर्माचरण विरुद्ध कार्य न करने के जलयान का संकेतक एक झण्डा लगाया गया। यह सकेत लिए समझाया। (२१) माता के समान मुझमे विश्वास पट पोताध्यक्ष सानुदेव के जलयान ने देखा जो महाकटाह न रखने के लिए डाटा तब उसने अनुचित कार्य के लिए स्थान से मलयदेश की तरफ जाने वाला था। सानुदेव
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ने मल्लाहों द्वारा उन्हें प्रामंत्रित कर जहाज पर उचित सरण कर राजकुमार वहाँ पहुँचा । परन्तु विलासवती को स्थान दिया। उन दोनों ने प्राश्रमवासियों से विदा प्राप्त न पाकर मूच्छित हो गया। (२४-२५) मूर्छा दूर होने की। (१०-११) विदा होते समय विलासवती ने पाश्रम पर वह अजगर के पास इस हेतु गया कि उसे भी निगल निवासियों से वियुक्त होने के दुख को बहुत अनुभव ले और अजगर के उदर में वह विलासवती से मिल सके। किया। (१२) एक दिन पूर्व प्रातःकाल मे सार्थवाह पुत्र अजगर अपराधी की तरह कांप गया। राजकूमार ने (सम्भवतः सानुदेव स्वयं) ने धक्का देकर सनत्कुमार को क्रोधपूर्वक उसके सिर पर यष्टिका प्रहार किया। वह समुद्र में गिरा दिया। एक काष्ठफलक के सहारे तैरता प्राघात से उलटा हुआ तो कम्बल उसके उदर से बाहर हुआ वह पांच दिन में मलय पहुँच गया । वह विलासवती पा गया । (२६) उसने कम्बल अपने वक्षस्थल पर रख के प्रति विषयासक्त था और विलासवती के शुद्ध चरित्र और अर्जुनवृक्ष की शाखा मे फन्दा लगाकर मरना चाहा। से अनभिज्ञ था। विलासवती मेरे वियोग मे जीवित नही (श्लोक पृ० ३३६.१५-३५८.१३)। राजकुमार मरा रहेगी, इसलिए सनत्कुमार एक नीम के वृक्ष में फन्दा नहीं, केवल एक निद्रा सी आ गई। स्वप्न मे एक ऋषि डाल कर एकात में फासी लगा कर मरना चाहता था। ने पुण्य करने का उपदेश दिया। (२७-२९) जिससे कि (१४) उसी समय एक हंस पक्षी दृष्टिगत हुआ। उसने वह अगले जन्म मे विलासवती को प्राप्त कर सके । उसे विलासवती के पुनर्मिलन की भविष्यवाणी कर मरने से मलय पर्वत श्रृंखला में स्थित मनोरथपूर्ण गिरि शिखर
रोका। (इस वर्णन प्रसंग मे हंस पक्षी का अति सुन्दर पर जाने को और शिखर से गिरकर मर जाने को कहा। वर्णन किया गया है) । (१५.१८) [श्लोक पृ० ३५०.१६ क्योकि इस प्रकार की मृत्यु निश्चित ही अगले जन्म में
-३५४.१२] । इन्ही विचारो मे व्यस्त सनत्कुमार अभीष्ट फलदायक होती है। वह ऋषि के द्वारा सकेतित समुद्रतट के समीप पहुँचे । उसने देखा कि एक काष्ठ- दिशा को प्रस्थान कर गया। (३०-३१) [श्लोक १० फलक तैरता हुआ पा रहा है और विलासवती उस पर ३५८.१४-३६०.१०] । तैरती हुई दृष्टिगोचर हुई । विलासवती ने सनत्कुमार को षष्ठ सन्धि-तीसरे दिन वह वृक्षो और जंगली विगत घटना बताई कि सार्यवाह बाद में कितना पछताया पशुमो से परिपूर्ण मलय पर्वत पर पहुँच गया। शिशर से और स्वय समुद्र मे डबने का विचार किया। रात्रि को अग्रिम जन्म में अपनी प्रेमिका से मिल सक, ऐसा निदान जहाज मध्य भंवर मे फंस गया। भाग्य से मैं काष्टफलक करके वह पर्वत से कूद पड़ा, परन्तु मध्य में ही एक के सहारे जीवित रही । सत्य है "जो जाको खोदे कुना विद्याधर ने ग्रहीत कर उसे बचा लिया। विद्याधर ने वाका कूप तैयार ।” परन्तु सब कर्म की बलिहारी है, उससे सर्व वृत्तान्त पूछ।। (१-२) राजकुमार ने सर्व दूसरो को दोष देना व्यर्थ है। (१६-२१) बिलासवती वृत्तान्त विस्तार से कहा और जीवित रहने पर अपने बहुत प्यासी थी। सनत्कुमार उसे पाश्ववर्ती झील के को प्रभाग्यशाली माना। (३) विद्याधर ने ऐसे स्नह समीप परन्तु वह बहुत थका हुआ था अतः वह अधिक (मोह) को सब दुःखों का कारण बतलाया। (४) उसने चल न सका । तब वह अर्जुन वृक्ष के नीचे विश्राम कर कहा-दान, शील, तप प्रादि से ही ऐसे मनोरथ सफल पत्रपुट में पानी लेने गया तथा विलासवती को चमत्कृत हो सकते है । (५) उसने दृष्टान्तरूप में एक प्रार्थना कथा कम्बल मोढ़ा गया। [श्लोक ३५३.१३-३५६.१४] । सुनाई। [श्लोक ३६०.११-३,२.४१)। इस मलय. वह पानी और कुछ सन्तरे लेकर वापिस लोटा । सनत्कु- मण्डल प्रदेश मे एक सिंहा नाम की कुरूपा स्त्री रहती थी, मार ने इससे प्रकट होने एवं पानी पीने को कहा। (२२- वह अपने पति से बहुत प्रेम करती थी परन्तु वह उसे २३) उसने देखा कि वह वहां उपस्थित नही थी। एक नहीं चाहता था । पति उससे कभी न मिलने के इरादे से अजगर कम्बल सहित उसे निगल गया था। अजगर के इस शिखर से कूदा भोर मरा। प्रतः पर्वत शिखर, पैर के निशान रेत पर पड़े हुए थे। उन चिह्नों का अनु- मागामी भव में पति से पनः मिलने के लिए कदापी
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१६४, वर्ष २३, कि०४
अनेकान्त
(६) परन्तु दोनों का ही अभीष्ट सिद्ध नहीं हुमा। [पृ० होगा, यह भी कहा था। यही कारण है कि मैं तपस्वी ३६२.५-३६२.१६] ।
भेष में तुम्हारे सामने उपस्थित है। (२:) [चोक पृ० विद्याधर ने राज कुमार से वह समय पूछा जब विलास- ३६६ १४-३६६:२] । सनत्कुमार ने यह मास तक वती को अजगर ने निगला था। विगत तीन दिवस पूर्व विद्यासाधन की प्रारम्भिक तयारी की। उसने विलासवती समय जानकर उसने कहा-हिलासवती अभी जीवित है। को साहसी और धैर्यवती होने की शिक्षा दी। जब मंत्र क्योकि विद्याघरों का राजा चक्रसेन यहाँ से दस योजन का एक लाख जाप हमा, प्रकृति में हलचल सी मच गई। दूर अप्रतिहतचक्रविद्या की सिद्धि एक वर्ष से कर रहा है।
ज्यों ज्यों पाप की मात्रा (संख्या) बढी, सनत्कुमार के सात दिवस से अडतालीस योजन तक विद्याधर का आदेश
समक्ष प्रेतनियाँ, पिशाचनियाँ हाथी के वेष मे, सिंह के भेष है कि कोई भी किसी जीव को नही मार सकता। इसी
मे, साँप के रूप, राक्षसी के रूप मे प्रगट हुई । (इस दृश्य कारण तुम भी बचे थे और विलासवती भी अवश्य जीवित का कवि ने पर्याप्तरूप से वर्णन किया है)। विलासवती है। शीघ्र ही उसकी खबर तुम प्राप्त करोगे। (७-१०) और सनकमार के धैर्य की यह परीक्षा थी। (२२.३०) वह रात्रि व्यतीत हुई। कठिन साधन द्वारा चक्रसेन को अन्त मे भव्य-वातावरण के मध्य विद्या. सनत्कुमार के विद्या सिद्ध हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल राजकुमार पास प्राई और उसके घेर्य की प्रशंसा की। (३१) वहाँ विद्याधर के साथ चक्रसेन को बधाई देने गये। विद्याधर अति प्रसन्न मुद्रा में विद्याधरो का समूह आया और उसकी ने राजकमार का वृत्तान्त चक्र सेन से कहा। इतने में ही विद्यासिद्धि पर बधाई दी। (३२) सनत्कुमार ने विद्यादो युवक विद्याधर पाए और उन्होने कहा कि हमने धरो का स्वामी बनना सीकार किया यदि से विलासअपने प्रिय से वियुक्त एक स्त्री को अजगर के निगलने से वती और वसुभति के साथ रहने दिया जाये। [श्लोक बचाया है। (११-१३) निर्देशानुसार स्थान पर गजकुमार प० ३६६.३-३७२.१५] । गया, प्रति व्यथित राजकुमारी के मिलाप में दोनो प्रमृदित सप्तम सन्धि-जिस गुफा में सनत्कुमार विद्यासिद्ध हए। (१४) गजकुमार अति प्रसन्न था। चक्रसेन ने कर रहा था, उसके द्वार पर से न वसुभूति का स्वर उमे अजितबल नामक अति उपयोगी साधना के साधन सुनाई दिया, न उस गफा में विलासवती दिखाई दी। का उपाय बतलाया। (१५) [लोक पृ. ३६२.१७- विद्याधरो की सहायता से उसने समस्त मलय के जगल में ३६६.१३] । राजकुमार ने प्रतिबल साधन का निश्चय उन दोनो की खोज की। एक वृक्ष-समूह के मध्य में किया परन्तु उसे कुछ सहायता की आवश्यकता थी। उसे उन्होने वसुभूति को देखा। वसुभूति ने समझा कि यह अपने पूर्वमित्र वसुभूति का स्मरण किया। उसी समय वही विद्याधरो का समूह है, जो विलासवती को हरण तापसभेष में एक व्यक्ति प्राया । पहचानने पर ज्ञात हा कर ले गया है और जिसके शोक मे वह रो रहा था। कि वही वसुभूति है। इतने दिनों के मकट के पश्चात् उसने विद्याधरो से युद्ध करना प्रारम्भ किया। परन्तु दोनो मिलकर बडे प्रसन्न हुए। (१६) कुशलक्षेम के पूछने शीघ्र ही एक दूसरे को पहचान गये । बसुभूति ने विद्यातथा किञ्चित् विश्राम के बाद वियुक्त काल के सब धरो के एक दल द्वारा वसुमती का हरण, स्वय द्वारा समाचार पूछे। वसुमति ने जहाज के ध्वस्त होने और विमान का अनुसरण करने एव उसमे प्राप्त प्रसफलता का काष्ठफलक के सहारे पांच दिवस में मलय के समुद्रतट पर सर्व वृत्तान्त सुना दिया। राजकुमार ने प्रतिबल विद्या पहुँचने की बात सुनाई। वहाँ एक तपस्वी मिला और के द्वारा विलासवती की प्राप्ति के प्रति उसे विश्वस्त मुझे धर्माचरण की शिक्षा दी एवं संसार के क्षणभगुर किया। (१-३) विद्या वहाँ पाई और उन्हें वहीं ठहरने स्वभाव का वर्णन किया । (१७-१६) परन्तु तपस्वी के की आज्ञा देकर पवनगति को विलासवती की खोज के समझाने पर भी मैं दीक्षा लेने को तैयार न हुप्रा । (२०) लिए भेजा। तीन दिन बाद पवनगति ने उसका पता तपस्वी ने गजकुमार और विलासवती से तुम्हारा मिलना लगाया और कहा कि वह रथनूपुर चक्रवाल नगर में है ।
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बिलासवईरहा एक परिचयात्मक अध्ययन
यह नगरी वैताढ्य पर्वत पर है। वहाँ का दुष्ट राजा वैतादयपर्वत पर पहुंचे। पर्वत की तलहटी में सेना ने अनंगरति उसे ले गया है और उससे बलान विवाह करना शिविर स्थापित किया। (२२) राजकुमार ने समस्त चाहता है । यह सुनकर सनत्कुमार कुद्ध होकर उससे युद्ध विद्यामो और विद्याधरो को स्मृति किया। अनंगरति के करने को उद्यत हुमा परन्तु पवनगति ने उसे धैर्य दिया। प्रति सेना में जोश भरा हुआ था। प्रनगरति ने दुमस पवनगति ने यह भी बताया कि तभी से उस नगर्ग पर नामक सेनापति के सरक्षण में अपनी सेना युद्धार्थ भेजी। महान संकट पा रहे हैं। महाकाली देवी ने उस राजा को गजकुमार की सेना भी युद्धार्थ सन्नद्ध थी। (२३) दूत चेतावनी दी है कि यदि इस पवित्र नगरी का सतीत्व द्वारा समाचार प्राप्त हया कि दुर्मुख की सेना पा रही हरण करोगे तो तुम्हाग सर्वथा विनाश हो जावेगा। है, राजकुमार सेनापति चण्डसिंह उसकी ललकार का बिलासवती इस समय सख्त पहरे में एक उद्यान में स्थित सामना करने को तैयार था। दोनो की सेना एक दूसरे के है। [श्लोक पृ० ३७२, १६-३७६-२] । अनंगरति को आमने सामने खड़ी हो गई। (२५) सब व्यूहो पर युद्ध समझाने के लिए दाम, दण्ड, भेद की उपेक्षा कर एक दूत होने लगा। (२६) उस भयकर युद्ध मे दुर्मुख की सेना भेजकर साम का ही पाश्रय लिया। (४-६), उसे सदेश ने चण्ड सिंह की सेना का विनाश कर दिया। (२७) भेजा कि शीघ्र ही विलासवती को वापिस करे और अपने चण्डसिह और दुमुख मे तुमुल संग्राम हमा। चण्डसिंह के अयोग्य कार्य का पश्चाताप करे (१०.१३) पवनति ने द्वारा दुर्मुख का वध देखकर शत्रु की सेना भाग खडी हुई। वह सन्देश अनंगरति को दिया। अनगरति ने कहा-मै गजकुमार को विजय से देवताप्रो को बड़ी प्रसन्नता हुई। किसी पार्थिव प्राणी (पृथ्वी के मानव) का अन्तिमेथम (२८-२९) [इलोक पृ० ३७८-८-३८०.६)। स्वीकार नही करता। न मै विलासवनी का लोटाऊगः ।
अष्टम सन्धि--गजकुमार विद्याधरो सहित वताढ्यवह प्रजानवश मुझे युद्ध के लिए ललक रहा है । पवन
पर्वत पर चढा, रथनूपुर के दृश्यो का अवलोकन किया गति ने उसे समझाया कि तेरे राज्य पर विपत्ति ग्राने
और अनगति को सन्देश भेजा कि या तो वह राज्य वाली है, तेग हाल रावण जैसा होगा। प्रनगरति पवन
छोडकर अन्यत्र चला जावे या युद्ध के लिए तैयार हो गति पर आघात करना चाहता था और पवनगति भी
जाये । कवि ने नगर एव पर्वतप्रदेश अति भव्य वर्णन प्रत्याक्रमण के लिए तैयार था। परन्तु बडों ने उसे दूत किया है। दो विद्याधर राजकुमार का सन्देश ले गये थे। के प्रति नम्र होने के लिए कहा। पवनगनि ने पिम मनके लौटने पर मालम हया कि प्रनगरति ने राजकुमार पाकर राजकुमार से शीघ्र प्रतिरोध करने के लिए कहा। मनश को बोई मान नहीं दिया और अपनों सेना को (१४१७), यह सुनकर सभी विद्याधर अति कोपिनए या कटव्यूह के रूप में अवस्थित होने की माजा दी (१८), राजकुमार से अकेले ही युद्ध करने का प्र.ताव ।
है। गुद्ध के वादित्र बज उठे। (१.२) इस युद्ध घोषणा किया। विद्याधरो ने ऐसा न करके समस्त सेना सहित शत्रु से युद्ध करने को कहा। [श्लोक पृ० ३७६-६- राजा के चारित्र-विरुद्ध कार्य को बडी घृणा की दृष्टि से ३७८-७] उसकी समस्त सेना एकत्रित हुई। अजितबल देखा। प्रजा राजा को धिक्कारने लगी। उभयपक्ष की देवता ने राजकुमार को एक विमान दिया। वमुभूति सेनाएं तैयार हो गई। (३) विविध वीरता के भावो सहित वह विमान पर प्रारूढ हुमा । कवि ने इसका वर्णन तथा शस्त्रों मे युक्त दोनो सेनाएं तैयार थी। (४५) विस्तार से किया है। (२०) युद्ध के ढोल और शखों की राजा अनंगरति युद्धार्थ चला तो उसे प्रति अशुभ शकुन ध्वनि से प्राकाश परिपूरित हो गया । (२१) शुभ शकुनों हए । इधर राजकुमार की सेना भी युद्धार्थ सन्नद्ध हो गई। के साथ भव्य वातावरण मे विमान प्राकाश मार्ग से चला। अति भव्य दृश्य उपस्थित करती हुई वह सेना पद्मव्यूह के युद्ध के नारे लगाती हुई सेना मागे बढ़ी। वे सेना सहित रूप मे खड़ी हुई । (९) [श्लोक पृ० ३८०-९-३८२ १६] मार्ग मे ग्राम, नगर, झील मादि को पार करते हुए चण्डसिंह और समरसेन दोनों सेनापंक्तियो की रक्षा कर
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१६६, वर्ष २३, कि०४
अनेकान्त
रहे थे। मनंगरति प्राकमण करता हूआ सेना के मध्य व्यतीत हुआ । यहाँ कवि ने स्वागत एवं मन्दिर के दृश्यों भाव में पाया । (१०) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध का अच्छा वर्णन किया है। (३२-३४) सनत्कुमार रथनूप्रारम्भ हो गया। सैनिक परस्पर जूझ पड़े। युद्ध का पुर चक्रवालपुर के राजा घोषित किये गये और विलासरचनाकार ने विस्तृत वर्णन किया है । (११-१३) वती गनी घोषित की गई, वसुभूति मन्त्री घोषित हुआ। चण्डसिंह ने कंचनदष्ट्र के विमान को नष्ट कर दिया। राजकुमार के चक्रवर्ती बनने पर प्रजा बहुत प्रसन्न हुई। (१४) परन्तु मल्लयुद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ। (३६) [श्लोक पृ० ६८२-१६-३८६-१०] । (१५) सनत्कुमार ने अपनी सेना मे वीररस का सचार नवम सन्धि-सनत्कुमार को सफलतापूर्वक राज्य किया, व्यूह के समक्ष स्वयं उपस्थित हुमा, आकाश को करते हए पर्याप्त दिवस सानन्द व्यतीत हुए। एक दिन अपनी वाण वर्षा मे परिपूरित कर दिया। (१६) कुमार जब वह अपने मित्रों एव अनुचरों से परिवेष्ठित अपने के भयकर पराक्रम स युद्ध स्थल मे भगदड़ मच गई। तब अन्त.पुर मे उपस्थित था तो विद्याधर के भेष में एक युवक प्रनगरति प्रौर कुमार का भयंकर युद्ध हुमा। दवता इस किन्नरगीत प्रदेश स वज्रवाह का पुत्र अनिलवेग पाया दश्य को देखने के लिए आकाश में उपस्थित हा गये । और सनत्कुमार से निवेदन किया कि विद्याछरण न जैसी (१८-१६) अजितबल दवता के प्रभाव से प्रनगरति के भविष्यवाणी की थ। (३) तथा विशदरूप से धर्मोपदेश वाण व्यर्थ हो गये। (२०) विविध प्रायुधा द्वारा युद्ध दिया था (४-८) उसकी बहन चन्द्रलखा तुम्हारी पत्नी होने के पश्चात् दोनो का मल्लयुद्ध हुआ। अनगरति न बनेगी, जब कि वह अनगरति को जीतकर राज्य प्राप्त हार मान ली और उसने राज्य त्याग करना स्वीकार करेगा। (६) उसी समय दृष्ट विद्याधर चित्रवेग चन्द्रकिया । राजकुमार ने यह बात प्रभी अप्रगट ही रखी कि लेखा द्वारा अनादृत होने पर उसे हर कर ले गया। युद्ध वह केवल विना सवती को चाहता है। राजकुमार ने मे अनिलवेग घायल होने पर एक औषधि से एक तापस सबको शरण प्रदान की, घायल सैनिको का उपचार द्वारा क्षतरहित कर दिया गया। उस औषधि का विस्तृत कराया, इस तरह राजकुमार वहाँ तीन दिन ठहरा और वर्णन है। (१२) राजा ईशानचन्द्र ने मुझे तुम्हारी (सनसभी की प्रसन्नता का कारण गना । (२४) उसने अपने स्कूमार) की खोज के लिए भेजा था, मै खोज में असफल सहायको सहित नगर मे प्रवेश किया, नागरिको द्वारा होने पर अग्नि मे प्रवेश कर रहा था, तभी वनदेवता ने हार्दिक स्वागत तथा विविध भटे प्रदान की गई । (२७) मुझे मलयपर्वत पर के समीप प्रदेश से सजीवनी बूटी ले राजकमार के स्वागत मे नगर विविध भांति से सजाया जाने के लिए तथा उसके द्वारा समुद्रतट पर राजकुमार गया, स्वागत एव उपहार अनेक भांति से प्राप्त हुए। को जीवित करने के लिए कहा और कहा कि वह तुम्हारी नगर की नारियो ने विविध प्रकार मंगलाचार किये। सहायता करेगा। मैं तापस बनकर तभी से तुम्हारी (२६) स्त्रियां नव-नव शृंगार सजाकर उसके दर्शनार्थ प्रतीक्षा कर रहा हूँ। (१३) मैंने उस प्रदेश में रोती हुई आई। (३०) स्त्रियों ने राजकुमार के रूप प्रादि को राजकुमारी को देखा, उसने कहा-मेरा वाग्दान सनप्रशसा की एव उसके सहायको के विषय मे वार्ताएं की। त्कुमार से हुआ था तथा उसने अपना समस्त विस्तृत इसके बाद राजकुमार राम के मन्दिर में गये । तदनन्तर परिचय दिया। मैंने उसे अपेक्षित सर्व कार्य करने का राजमहल में प्रवश किया, वहाँ सभी व्यक्ति उदास से खड़े विश्वास दिलाया और आज तुमसे यहाँ मिलना हुआ है थे। राजकुमार राजा के उपवन मे गया, वहाँ विलास- (१५) अनिलवेग तापस से चन्द्रलेखा को सान्त्वना प्रदान वती से मिला, दोनों अति प्रसन्न हुए। विद्याधरों ने करने के लिए कहा और स्वयं चित्रवेग से युद्ध करने विलासवती को नमस्कार किया, उसका आशीर्वाद प्राप्त गया एव उसे मार डाला । वह चन्द्रलेखा को विमान पर किया। राजकमार एवं विलासवती दोनों दैनिक कार्यों से बिठा कर अपने नगर मे ले गया और समस्त प्रजा के निवत्तहए, समस्त दिन उत्तम खान-पान एवं मानन्द में हर्ष का कारण बना। अनिलवेग बिनयंधर के साथ प्राप
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विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
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से मिलने पाया है। सनकुमार ने विनयधर का प्रादर योग्य विधि-विधान सहित वह विवाह सम्पादित हुमा । सत्कार कर सर्व वृत्तान्त पूछे। (१८) विनयधर ने सर्व (१-५). इस अवसर पर ईशानचन्द्र महा प्रसन्न था। वृत्तान्त बतलाये कि "तुम्हारे मारे जाने के समाचार से उसने विनयंघर को उसके साहसिक कार्यों के उपलक्ष मे सारी प्रजा दुखी थी। (२२) सभी मनुष्य कानाफूसी बहूमूल्य उपहार दिया। राजकुमार से क्षमा याचना की। करते थे कि रानी ने राजा को असत्य वचनों से भ्रमित गजकुमार ने कहा-यह सब कर्मों के कारण था। (६कर दिया है । (२३) नगर की नारियाँ कुमार के अशुभ ८). प्रनगवती ने भी अपने अयोग्य कार्य के लिए क्षमा भाग्य पर और अनंगवती के दुगचरण पर शोक मना प्रार्थना की एवं खेद प्रकट किया। (6). राजकुमार ने रही थी। (२४) जब राजा को मालम हम' कि गज- सहर्ष क्षमा करते हुए कहा कि कर्मों के फल को कोई नही कुमारी विलासवती अपहृत हो गई है तो राजा मूच्छित रोक मकता । माता-पिता के लिए पुत्र मिलाप का अवसर हो गया। उद्बुद्ध होने पर उसने राजकुमारी को त अति हर्षप्रद था। राज्य भर में यह दिवस पर्व के समान लाने की आज्ञा दी। (२५-२६) अन्तःपुर में महान शोक मनाया गया (१०-१२). ये सब समाचार सेयाविया नगरी था। राजा तुम्हारे वध की प्राज्ञा देकर बहुत पछता रहा में भी पहुँचे । राजकुमार को बुलाने के लिए विशेष दूत था। (२७-२६) वह रानी सहित अग्नि प्रवेशार्थ उद्यत ताम्रलिप्ति भेजे गए। (१३). वहां उनका विशेष स्वागत था कि किसी निमित्तज्ञ ने सिद्धादेश दिया कि सनत्कुमार हुआ, माता-पिता
हुमा, माता-पिता के कुशल समाचार पूछे । मालूम हुआ प्रभी जीवित है। विलासवती उसकी गनी बनेगी मोर ।
कि सनत्कुमार के चले जाने पर माता-पिता ने बहुत खोज तुम सब की सनत्कुमार से कालान्तर मे किसी प्रकार की थी, परन्तु कोई फल न हमा। (१४). उस खबर ने होगी । तब मैने (विनयधर ने) सब सन्य शत प्रगट कर
मबको उदाम बना दिया था। (१५-१६). तब ज्योतिदी और गजा ने मुझे तुम्हारी खोज करने की प्राज्ञा दी।
पियो ने भविष्यवाणी की थी कि राजकुमार जीवित है (३०) मैने कहा कि मैं एक वर्ष में सनत्कुमार का पता
और यह भविष्यवाणी झूठी नही हो सकती। (१७). लगा दूगा अन्यथा अग्नि में प्रवेश करूंगा। मेरा प्रयत्न
विलासवती ने राजकुमार से माता-पिता के दर्शनार्थ चलने व्यर्थ होने पर मै अग्नि प्रवेश कर गया। (३१-३२)
को कहा और वह अनुचरों सहित प्रस्थानित हुआ। (१८). परन्तु मैने अनुभव किया कि यग्नि ज्वालाम विलामवती ने बड़े दुख भरे हृदय से अपने माता-पिता से कमल सिंहासन पर बैठा था और एक देवी मुझे सबाधित
विदा ली । (१९). मे यावी मे राजा यशोवर्मन ने उनका कर रही थी। (३३) देवी ने मुझे सजीवनी दी, जिसमें मैं
म्वागत किया। राज कुमार को माता ने हृदय से लगा राजकुमार को जीवित कर सक और कहा कि तदनन्तर
लिया। विलासवती और चन्द्रलेखा का पति स्वागत सभी अभिलाषाएं पूर्ण होगी। (३४) इस सब्धि के सदर्भ
हया। नगर में हर्षपूर्ण उत्सव मनाया जा रहा था। नगर में श्लोक संख्या उल्लिखित नही है।
के मध्य में से होकर राजप्रासाद के द्वार तक उनका वशमसंषि-सनत्कुमार ने विनयधर के साहमित प्रस्थान प्रति हर्षजनक था। (२०-२१) [लोक go कृत्यों की बडी सराहना की। विलासवती ने उनके प्रयलो ३८८.५]. एक दिन राजा ने सनत्कुमार को राज्य सिहाकी सफलता चाही । प्रत्येक दशा मे माता-पिता का प्रादर सन सभालने के लिए कहा। राजकुमार ने कहा- मेरे तो होना ही चाहिए । सनत्कुमार का समस्त दल माता- पास तो ग्थनूपुर चक्रवालपुर का राज है । जहाँ उसे शीघ्र पिता के दर्शनार्थ ताम्रलिप्ति और स्वेनावी नगरी जाने वापिस जाना है। माता-पिता को प्रब पुत्र का वियोग को तैयार हो गए। अनिलवेग ने भाग्रह किया कि सर्व प्रमह्य था पत: माता-पिता को भी राजकुमार ने अपने प्रथम चन्द्रलेखा का विवाह सनत्कुमार से हो जाना साथ चलने को कहा । माता-पिता की सेवा से राजकुमार चाहिए। इसलिए वह समस्त दल सनत्कुमार के नेतृत्व में का जीवन सफल हो सकेगा। लधुभ्राता कातिवमन राज्य किग्न रपुर गए। बजबाहु ने अनुपम स्वागत किया एव सिंहासन पर बिठाया गया और माता-पिता राजकुमार
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के साथ चले गए । (२२-२३). विनयंत्रर एवं अन्य सहायकों को योग्य पदो पर नियुक्त किया गया। सनत्कुमार अपनी रानियों सहित मधुरालापों एवं वनविहारों में अपना समय सुख से यापन कर रहा था [ श्लोक संख्या उल्लिखित नही है ]. काल पाकर रानी विलासवती ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसका नाम प्रजितवाल रखा गया । [ श्लोक ३८६.१८-३८७.१२) अन्य रानियों ने भी पुत्ररत्नों को जन्म दिया। सनत्कुमार उस विद्याधर राज्य मे हर्षपूर्वक होकर समय यापन करता था । (२४-२७).
एकादश सधि - एक प्रति ज्ञानवान साधु श्री चित्रागद रथनूपुर चक्रवाल के उद्यान मे पधारे। सनत्कुमार अपने समस्त परिवार सहित उनके दर्शनार्थ गया । (१) साधुमहाराज का व्यक्तित्व अनुपम था । सनत्कुमार ने घर्मलाभ प्राप्त किया । (२) साधुमहाराज ने ससार की अस्थिरता का, धर्म की आवश्यकता का मनुष्यभव की दुर्लभता का सुख के दुर्लभत्व का धर्मोपदेश दिया । इसके समर्थन मे मधुबिन्दु की कथा का दृष्टान्त दिया । (३-१०) गुरु महाराज ने मविस्तार वर्णन किया। (११-१२). इसी अवसर पर सनत्कुमार ने साधु महाराज से पूछा, हे मुनि राज ! मैंने पूर्वजन्म में क्या कर्म किए थे जो विभिन्न दशाओं मे मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़े ? [लोक १० ३८६.३ - २८६.१५] । साधु महाराज न फरमायाभागीरथी के तट पर कामित्य नामक नगर मे चन्द्रगुप्त राजा के घर रानी कुवलयश्री के पुत्र तुम रामगुप्त नाम से प्रसिद्ध थे और विलासवती पूर्वजन्म में तापीढ़ राजा की पुत्री हरिप्रभा दी। तुम दोनों विवाहित होकर सानन्द समय यापन करते थे । एक दिन वसन्तऋतु में विहार करते हुए तुम हंसो के जोड़े को केसर के रंग से लाल ( पीत) रंग में रंग दिया था । ( १३-१४) वे हस रंग परिवर्तन के कारण परस्पर एक दूसरे को न पहचानते परन्तु रंग के कारण पुनः वियुक्त हो जाते। वे दोनों मरने के लिए गंगा में डूबने चले । वहाँ उन दोनों का रंग घुल गया, वे एक दूसरे को देख कर प्रसन्न हुए । इसी पाप के कारण तुम्हे भी इस जन्म में वियोग के सन्ताप से सन्तापित होना पड़ा है । अन्तरायकर्म के कारण तुम्हें वियोग का दुख सहना पड़ा है । ( १५-१६ ) ] श्लोक
प्रशान्त
३८९.१६-३१०.१७] । सन्ताप एवं कष्ट के पश्चात् तुम्हें इतना उच्च पद प्राप्त हुआ। इसका कारण यह है कि एक धार्मिक श्रावक चन्दन धर्मगुरु धर्मघोष जी के पास ले गया और तुम्हे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । (१५) तुम्हें धर्म का स्वरूप विस्तार से समझाया गया । ( १८-२१ ) तुमने साघु धर्म, श्रावकधर्म का यथेष्ट पालन किया । उसी पुण्य से आज तुम अनेक कष्टों को पार करते हुए श्रेष्ठ सुख के अधिकारी बने हो (२२-२५) गुरु मुख से यह सब सुनकर उन दोनों को पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। विलासवती को कर्मों की लीला पर बड़ा प्राचर्य हुम्रा और उसकी इच्छा संयोग-वियोग, दुख-शोक से रहित स्थान को (मोक्ष को) प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हुई । गुरु महाराजने मोक्षका स्वरूप भली भांति समझाया। सनकुमार के पिता ने दीक्षा लेना यगीकार किया। (२६-२१) सनत्कुमार भी पिता के साथ दीक्षित होना चाहता था । उसने अजितबल को विद्याधर राज्य का स्वामी बनाया । अन्य प्रदेश अन्य पुत्रों को सौप दिए। उसने विलासवती से प्रतिघोर तपश्चर्या न करने को कहा । प्रातःकाल उसने पचपरमेष्ठी का ध्यान किया। ( ३१ ) पचपरमेष्ठी के गुणो का एव स्वरूप का ध्यान किया । ( ३२ ) इस तरह वह अपनी पत्नी सहित प्रातः उठा और मनुचरो को प्राज्ञा दी कि व्रत ग्रहण करने की पूर्व तैयारी करे। उन्होने स्नान किया, व स्नानालकार धारण किए और समस्त प्रजा को कष्ट में डुबा कर नगरी का त्याग कर गए। ( ३३ ) सब मनुष्यों को प्राश्चर्य था कि वे ससार का त्याग क्यों कर रहे है ? (३४) कुछ ने सन्देह किया कुछ ने अभि नन्दन किया। अपने परिजनों सहित उसने दीक्षा धारण की। उसने अनेक शास्त्रों का अभ्यास किया और विविध तपश्चर्या की (३६) इस तरह उन्हें दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुई, अनेक प्रदेशों मे धर्मप्रचार करते हुए वे सौराष्ट्र में शत्रुंजय पर्वत पर पधारे। उनकी श्रात्मभावना ( ध्यान ) क्षपकश्रेणी तक पहुँच गई। ( ३८ ) सनत्कुमार ने सभी कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद प्राप्त किया । अन्य सभी ने विभिन्न स्वर्ग के पद प्राप्त किये। रचयिता ने अपने जीवन के विषय में भी कुछ परिचय तथ्य दिये हैं। (वे अन्यत्र उद्धृत किये गये है ।) रामकुमार जैन एम. 'स्नातक'
अनुवादक
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साहित्यिक एवं सामाजिक गतिविधियों के केन्द्र :
जयपुर के प्रमुख दि० जैन मन्दिर
डा० कस्तूरचन्य कासलीवाल एम. ए., पी.एच. डी.
जयपुर नगर की स्थापना संवत् १७८४ मे हुई थी । उम समय देहली पर मुगलो का शासन था। लेकिन वह इतना शक्तिशाली नहीं था कि महाराजा सवाई जयसिंह जैसे वीर, पराक्रमी एव राजभक्त शासक को नवीन नगर बसाने से मना करता । इसलिए महाराजा सवाई जयसिंह ने बडे उत्साह एव शास्त्र विधि से नवीन नगर की नीव रखी। नगर का मानचित्र पहिले ही तत्कालीन इजीनियरों के परामर्श से तैयार कर लिया गया था। नगर का पूरा निर्माण योजनाबद्ध रीति से हुआ इसलिए कुछ मम पश्चात् ही नगर की कीर्ति चारों प्रोर फैल गयी । विद्याधर नामक नगर शास्त्री ने इस नगर के बसाने मे सबसे अधिक योग दिया था। विद्याधर के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मत है कि वह जैन था और कुछ उसे वैष्णव मानते है । राजस्थान इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् कर्मठ जेम्स टॉड ने विद्याधर को जंन माना है ।
जैन कवि बखतराम साह ने अपने बुद्धि विलास (२० १०२७) मे जयपुर नगर के बसावट का पूरा वर्णन दिया है। उनके वर्णन से ऐसा मालूम पड़ता है कि नगर का निर्माण कार्य स्वय कवि ने अपनी आँखो से देखा था । जयपुर नगर का इस तरह का वर्णन बहुत कम विद्वानों ने किया है। श्रामेर और सांगानेर के मध्य मे बसा हुआ यह नगर देश के ही नहीं किन्तु विश्व के सुन्दरतम नगरों में गिना जाता है। कविवर बखतराम के द्वारा वर्णित ६ पक्तिया निम्न प्रकार हैंनगर बसायो यक नयौ, जयस्यध सवाई ।
जाकी सोभा जगत में, दसही दिसि छाई । सोहै अंबावती की दक्षिण दिसि सागानेरि,
दोऊ बीचि सहर धनोपम बसायो है। नांम ताकौ धरयो है सवाई जयपुर
मानौ सुरनि मिलि सुरपुर सौ रचायो है ॥ नगर निर्माण के साथ ही यहा तेजी से जैन मन्दिरो का निर्माण होने लगा। जैनो के लिए दो चौकडिया निश्चित की गयी । एक मोदीखाना दूसरा घाट दरवाजा । इसलिए सबसे अधिक मन्दिरों की संख्या इन्हीं चौकडियों मे मिलती है । यद्यपि यह कहना कठिन है कि कौन-सा मन्दिर प्रथम बना और कौन-सा बाद मे लेकिन उपलब्ध तथ्यो के अनुसार चौकड़ी मोदीखाना मे पाटोदी का मन्दिर, लश्कर का मन्दिर, संघीजी का मन्दिर, तथा चौकडी घाट दरवाजा में तेरहपथी बड़ा मन्दिर, गोधो का मन्दिर, बधीचन्द जी का मन्दिर, नगर के उन प्राचीन मन्दिरों मे से है जिनका निर्माण नगर स्थापना के १०-१५ वर्षों में ही हो गया था। ये सभी मन्दिर गत २-२ ॥ शताब्दियों से समस्त जैन समाज की गतिविधियो के केन्द्र बने हुए है।
है
जयपुर विशाल मन्दिरो का नगर है । मन्दिरो एव चैत्यालयो को संख्या यहाँ १५० से भी अधिक हैं । इनमे ५० जैन मन्दिर तो ऐसे है जो विशाल होने के साथ-साथ कलापूर्ण भी है। जैन धावको ने इनके निर्माण में जिस श्रद्धा एव उदारता के साथ अपने द्रव्य का सदुपयोग किया है वह आज के समाज के लिए तो आश्चर्य की बात उन्होंने इन मन्दिरों को सभी दृष्टियों से आकर्षक एव प्रभावक बनाने का प्रयास किया तथा समय समय पर उनमें उत्सवादि करके उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं होने दो। यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि एक ही नगर में दिगम्बर जैन मन्दिरों की जितनी सख्या जयपुर में है उतनी सख्या देश के किसी नगर मे भी नही है । हो सकता है कि देहली जैसे नगर मे दिगम्बर जैन समाज की अधिक सख्या हो लेकिन मन्दिरों की संख्या की दृष्टि से जयपुर नगर का प्रथम स्थान है । और इसी
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१७०, वर्ष २३ कि.४
अनेकान्त
लिए जयपर को देश के इतर प्रदेशो मे जैनपुरी कहते है। थी। उनके प्रमुख श्रोतामों में प्रजवराय जी, तिलोकउनके कहने में सचाई भी है क्योंकि जयपुर नगर में होने चन्द जी पाटनी, महाराम जी पोसवाल, त्रिलोकचन्द जी वाले विद्वानो ने प्रत्येक क्षेत्र में सारे देश की जैन समाज सोगानी, मोती राम जी पाटनी, हरिचन्द जी, चोखचन्द का नेतृत्व किया और साहित्य, संस्कृति एवं समाज सुधार जी, नेमचन्द जी पाटनी के नाम उल्लेखनीय है। में उनका पथ प्रदर्शन किया।
पंडितजी के कारण जयपुर नगर के श्रावकों में एक जयपर के ये जैन मन्दिर माहित्य एवं साहित्यकारो अद्भुत जोश फैन गया था और वे अपने धर्म एवं साहित्य के लिए वरदान सिद्ध हए। वे इनमें बैठकर अपनी ज्ञान के लिए सब कुछ करने को तैयार थे। उनके युग मे एक पिपामा को ही शान्त नही किया करते थे किन्तु वहाँ बार इन विशाल जैन मन्दिरों को राज्य सरकार की भोर नये-नये प्रथो की रचना करके विलुप्त, अज्ञात तथा से नष्ट करने की योजना ही नही बनी किन्तु अनेक जैन महत्वपूर्ण अन्थों को नष्ट होने से बचा लिया। वह युग मन्दिरों को नष्ट भी कर दिया गया। इस जघन्य कल्य में भाषा टीका का युग था इसलिए जयपुर के इन विद्वानों तत्कालीन राजगुरु श्याम तिवारी का प्रमुख हाथ था। बुद्धि ने पचासों ग्रन्थों की भाषा टीका करके देश में स्वाध्याय विलास में इस घटना का सक्षिप्त वर्णन किया गया
प्रति पर्व जाग्रति पैदा कर दी थी। इस जाग्रति की है। लेकिन दो वर्ष पश्चात ही जब महाराजा को वास्तहवा मारे देश में अत्यधिक शीघ्रता से फैली और समाज विक तथ्य का पता लगा तो राजगुरु को ही देश निकाला सभी वर्गों में अध्ययन एवं अध्यापन का प्रचार बढता दे दिया गया और जैन मन्दिरो का राज्य सरकार के बयानगर के विद्वानो की प्रशसा सारे देश में फैल खर्चे से निर्माण करवाया गया। गयी और देश के विभिन्न भागों से लोग इनके दर्शनार्थ फुनि मत वरप ड्यौड मैं थप्पो, पाने लगे।
मिलि सबही फिरि अरहंत जप्पौ। नगर के प्रथम विद्वान पं० दौलतराम जी कासलीवाल लिये देहरा फेरि चिनाय, का किसी विशिष्ट मन्दिर का संपर्क नहीं रहा । उन्होने दै अकोड प्रतिमा पधराय ॥१३०१ अपनी किसी भी रचना में वहां के किसी एक मन्दिर का नाचन कूदन फिर बहु लगे, नामोल्लेख नहीं किया । इनके पदमपुराण मे केवल इतना धर्म मांझि फिरि अधिके पगे। ही उल्लेख मिलता है कि नगर मे स्थान-स्थान पर मन्दिर पूजत फुनि हाथी सुखपाल, बने हुए है और उनमे प्रतिदिन सैकडो श्रावक पूजा पाठ प्रभु चढाय रथ नचत विसाल ॥१३०२ करते रहते है।
-बुद्धि विलास ठौर ठौर जिन मन्दिर बनें।
लूणकरण जी पांडया का मन्दिर पाडे लणकरण जी पूर्जे तिनक भविजन घने ।
का प्रमुख मन्दिर था। ये जन सन्त थे तथा साहित्य सेवा वैसे तेरहपंथी का बड़ा मन्दिर इनका प्रमुख मन्दिर में अत्यधिक रुचि रखते थे। इन्होंने अपने मन्दिर में होना चाहिए । महापंडित टोडरमल्ल की साहित्यिक एव शास्त्र भण्डार की स्थापना की थी जिसमें ५०० से अधिक सामाजिक गतिविधियो के प्रमुख मन्दिर थे वधीचन्द जी हस्तलिखित ग्रंथों का अच्छा संग्रह है। प्रायवेद ज्योतिष का मन्दिर एव नेरहपंथी बडा मन्दिर । मोक्षमार्ग प्रकाशक एव मत्र शास्त्र के ग्रंथो का भी यहाँ उल्लेखनीय की रचना वधीचन्दजी के मन्दिर मे बैठ कर की गयी थी। है । इसी तरह लश्कर का मन्दिर भी विद्वानों का लेकिन ये शास्त्र प्रवचन करते थे बडे मन्दिर में । इसी रहा है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बखतराम साह ने अपने तेरहपंथी मन्दिर में सामाजिक क्रान्ति की योजनाए बनती बुद्धिविलास की रचना इसी मन्दिर में बैठ कर की थी। थी तथा भाई रायमल्ल एव तत्कालीन विद्वानो से एवं कवि ने लश्कर के मन्दिर का निम्न प्रकार वर्णन किया हैदीवान रतनचन्द्र जी से इसी मन्दिर मे तत्वचर्चा होती
अब सुनिये भविजन बात ऐक,
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जयपुर के दि० जैन मन्दिर
देउरे बने पुर मैं अनेक । रको का इस मन्दिर से सीधा सम्पर्क रहा। बखतराम सोहत सुन्दर शिव विष्नु जैन ।
साह ने बद्धि विलास में निम्न दो भट्टारकों का उल्लेख तिनकी उपमा कहते न बने ।
किया है--- परमत के नर नारी प्रवोन ।
पट्ट दोय पाये मुनिराय, नगर सवाई जयपुर प्राय । निज धर्म माहि निति रहै लोन । इक खेमेन्द्रकीति गुनपाल, अटारहमे पन्द्रह के साल । तिन मांहि देहुरा इक विसाल । तिनकै पटिराज बुधिवान, सुरेन्द्रकीति तम हर भान। तह राजत नेम मन्नू दयाल ।
साल अठारह से तेईस, भये भट्टारक महामुनीस ॥ लसकरो नाम कहियत महान ।
पाटोदी के मन्दिर मे इन भट्टारको द्वारा सस्थापित मनु रच्यो विरंचि जू करि समांन । एक अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रथ सग्रहालय है। इसमें ढाई मधि चौरी प्रभु को प्रमांन ।
हजार से भी अधिक हस्तलिखित ग्रन्थो का संग्रह है। यहाँ अति बनी फटिक सम लखि पखांन । के ग्रन्थो की पूरी सूची एव विवरण राजस्थान के शास्त्र ता मांहि जटित है स्याम संग। भण्डारो की पथ सूची चतुर्थ भाग में प्रकाशित हो चुका मनु लसत नील मनि अति मुरंग। है। हिन्दी की प्रादि कालिक रचना जिणदत्त चरित की चित्राम बन्यौ तामैं अनूप ।
पाडुलिपि इसी भण्डार म लेखक को उपलब्ध हुई थी इन लखि भविजन पावत निज सरूप। भण्डारो की सैकड़ों कृतिया अत्यधिक महत्वपूर्ण है जिनका पंडित तहं राजत है कल्यान ।
प्रकाशित होना आवश्यक है । बहु तरक न्याय बांचत पुरान । ___ इसी तरह छोटे दीवान का मन्दिर ५० जयचन्द जी निज धर्म कर्म मैं सावधान ।
छावडा एव उनके पुत्र नन्दलाल छावड़ा की साहित्यिक विन धर्म बात जिनके न आन। गतिविधियों का केन्द्र रहा। उस समय के विद्वानो मे गुन कीरति इक मुनिवर महांन । नवलराम, डाल राम, मन्नालाल सांगाना के नाम उल्लेख
तप करत अधिक जिनमत पुरान । नीय है । मन्दिर की प्रतिष्ठा सवत् १८६१ मे हुई थी। यह तो केवल एक मन्दिर का वर्णन है इसी तरह जिसका वर्णन स्वय जयचन्द छावडा ने अपनी सर्वार्थसिद्धि और भी मन्दिरो का वर्णन मिलता है। पाटोदी का वचनिका में निम्न प्रकार किया है। मन्दिर भट्टारको का प्रमुख मन्दिर रहा है। इसका निर्माण करी प्रतिष्ठा मन्दिर नयौ, चन्द्रप्रभ जिन थापन थयौ। जोधराज पाटोदी ने करवाया था। इसलिए धीरे-धीरे ताकरि पुण्य बढौ यश भयो, यह केवल पाटोदी के मन्दिर के नाम से ही जाना जाने
सब जैननि को मन हरखधौ । लगा। वैसे प्रारम्भ मे इसका नाम प्रादिनाथ चैत्यालय ५० जयचन्द जी छावड़ा के पुत्र नन्दलाल छावडा था। आमेर से भट्टारक गादी का जब जयपुर में स्थाना- भी विद्वान् थे। अमरचन्द दीवान उनकी विद्वत्ता से न्तरण हुआ तो उन्होने इसी मन्दिर को अपना केन्द्र काफी प्रभावित थे इन्ही की प्रेरणा पाकर नन्दलाल जी बनाया। उनके आने के पश्चात् दिगम्बर समाज की वीस ने मूलाचार की भाषा टीका की थी। स्वयं प० जयचन्द पथ पाम्नाय की गतिविधियो का यह मन्दिर प्रमुख केन्द्र जी को साहित्यिक क्षेत्र में प्रविष्ट कराने का श्रेय इन्ही बन गया। वैसे यह एक पचायती मन्दिर भी है। यहाँ को है जिसका साभार उल्लेख पडित जी ने इस प्रकार भट्टारक गादी पाने के पश्चात् क्षमेन्द्रकीति (स० १८१५) किया है :सुरेन्द्रकीति (सवत् १८२३), सुखेन्द्रकीर्ति (स० १८९३) नंदलाल प्ररो सूत गुनी, बालपने ते विद्या सूनी। तथा नरेन्द्रकीति स० १६७६) का भट्टारक गादी पर पंडित भयौ बडौ परवीन, ताहू नै यह प्रेरणा दीन । पट्टाभिषेक हुआ। इस प्रकार करीब १०० वर्ष तक भट्टा- पिता द्वारा अपने पुत्र की विद्वत्ता की प्रशंसा करना
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१७२, वर्ष २३ कि. ४
अनेकान्त
यह बतलाता है कि नन्दलाल छावडा अपने पिता से भी अन्य भक्ति परक पदों का तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं। अधिक विद्वान् थे।
मन्दिरो को केन्द्र बनाकर जिन विद्वानों ने साहित्य निगोत्यों का मन्दिर चौकडी घाट दरवाजा मे स्थित की महती सेवा की थी उस कडी के अन्तिम विद्वान् थे है । इस मन्दिर का निर्माण एक विद्वान् श्रावक पं० सदासुख जी कासलीवाल । ये जैन ग्रन्थों के अपार ऋषभदास निगोत्या द्वारा कराया गया था, जो ज्ञाता थे तथा साहित्य निर्माता भी थे। तत्त्वार्थसूत्र की प्राकृत, सस्कृत एव हिन्दी के अच्छे विद्वान् थे । अर्थप्रकाशिका टीका एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार की भाषा मूलाचार की भाषा टीका इन्होंने इसी मन्दिर मे बैठ टीका इनको प्रमुख रचनायों में से है। साहित्य निर्माता कर समाप्त की थी। इनके तीन पुत्र थे मानजीराम जी, के साथ-साथ ये वक्ता भी अच्छे थे। इनके प्रवचनो को दौलतराम जी एव पारसदास जी। ये तीनो ही भजना- सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड लगती, इसलिए नन्दी थे। पारसदास विशेष पडित थे। तथा इनकी इन्हे प्रात: और साय तीन मन्दिरो मे शास्त्र प्रवचन तत्कालीन विद्वानो मे अच्छी धाक थी। इन्होंने अपने करना पड़ता था। पंडित जी ने जो अपना परिचय दिया पिता के अतिरिक्त ५० सदासुख जी कासलीवाल से भी है वह निम्न प्रकार हैअध्ययन किया था। तेरहपंथी बडा मन्दिर मे ये प्रतिदिन डेडराज के वंश मांहि इक किञ्चित ज्ञाता। शास्त्र पढा करते थे। पारसदास जी ने ज्ञानसूर्योदय नाटक दुलोचन्द का पुत्र कासलीवाल विख्याता । की भाषा के अतिरिक्त कितने ही पदो की भी रचना की नाम सदासुख कहै, आत्म सुख का बह इच्छक । थी। पारस विलास मे इनकी लघु रचनाओ एव पदो का सो सुख वानि प्रसाद विषय ते भय निरिच्छक ।। सग्रह है। सार चौबीसी इनकी एक वृहद् रचना है। इसी तरह नगर के और भी मन्दिर है जो विद्वानों जिसका रचनाकाल संवत् १६१८ है। बड़ी प्रसन्नता की एब परितो के केन्द्र रहे---- इनमे होबियो का मन्दिर, जो बात है कि हमारे परम मित्र डा. गगागम गर्ग पारस- वनेट का मन्दिर, पार्श्वनाथ का मन्दिर आदि के नाम दास के पदों को लेकर डी. लिट् उपाधि के लिए हिन्दी के उल्लेखनीय है ।
मृणमूर्ति-कला में नैगमेष डा० संकटा प्रसाद शुक्ल, एम. ए., पो-एच. डी.
अभिलेख में उन्हें भगवा नै कहा गया है।
नेगमेष शिश-जन्म से संबधित देवता माने जाते हैं। एक श्वेताम्बर जैन कथा के अनुसार इन्द्र की प्राज्ञा से नगमेष ने ब्राह्मणी देवनन्दा के गर्भ से भगवान महावीर को हटाकर क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थापना भी की थी। इस कथानक का चित्रण एक कुपाण कालीन मथुरा से उपलब्ध पापाण पट्ट पर प्राप्त है जिसमे अजमुखी नैगमेष एक आसन पर बैठे है । साथ ही प्रकित १. स्मिथ, वी० ए० दि० जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टी
क्वेटीज प्राफ मथुरा पृ० २५, न प्ले०१८ ।
नगमेप की उपासना का प्रचलन भारत में प्राचीन काल से है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद' के खिल भाग में पाया है। यह स्थलीपाक प्रादि से विधिपूर्वक पूजित होने पर शिशुओं के प्रति दयालु हो जाते है । नगमेप शब्द ('नेज' का अर्थ स्नान कराना तथा मेष का मेढा से है) का अर्थ उस मेप से लिया जाता है जिस पर शिशु
२. ऋग्वेद, ३०.१ ।
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मृण्मृति-कला में नंगमेष
१७३
को बिठलाकर स्नान करायी जाती है। प्राज भी कर्ण- उनकी अनेक मूत्तिया उपलब्ध है। प्रायः प्रक मे शिशु वेध-संस्कार के अवसर कुछ स्थानों पर ऐसी हो प्रथा बंठा ये दिखलाया गया है। मनायी जाती हैं।
प्राचीन मृण्मूर्ति कला में नेगमेष की अपेक्षा नंगमेपी _गृह्यसूत्रों में नैगमेप-पूजा का विशेष विवरण की प्राकृतियों का बाहुल्य है। उत्तरी भारत के कई उपलब्ध है । प्राश्वलायन गृह्यसूत्र के अनुसार सीमान्तो- प्राचीन स्थानो से इनकी मृणमूनिया पायी गई है। न्नयन संस्कार के चतुर्थ माम नेजमेष की पूजा अन्य अहिच्या से प्राप्त नैगमेप के नेत्र बकरी जैसे है और देवतामों के साथ की जानी चाहिए । नेजमेष अथवा उनका मुख छोटा है तथा पर मेहराब की प्राकृति जैसे नंग मेष देवता स्कन्द का ही रूप है जिन्हें शिव-पार्वती का है। 'गज्य-संग्रहालय, लखनऊ के सग्रह में नंगमेषी की पुत्र माना जाता है । महाभारत मे स्कन्द का संबन्ध दुष्ट
कई मृण्मूर्तिया सगृहीत है। इनमे से कुछ की प्राकृति ग्रहों के साथ मिलता है जो शिशुमो के प्रति अनुकूल नही
स्त्री के मुख से बहुत कुछ समानता रखती है किन्तु कान होते है । एक प्रसंग में स्कन्द द्वारा मात देवियो को १६
अत्यधिक लम्बे दिखलाये गये हैं। मथुरा से प्राप्त एक वर्ष तक की आयु के बच्चो के हरण (विनाश) की अनु
उदाहरण मे नगमेषी की प्राकृति बकरी जैसी ही है।"
डॉ० अग्रवाल" ने इन स्त्री प्राकृतियो की पहिचान षष्ठी मति प्रदान करने का उल्लेख है । सुश्रुत सहिता मे भी नंगमेष का बालग्रहों तथा स्कन्द, अपस्मार और विशाख
देवी से की है। षष्ठी देवी को स्कन्द की पत्नी माना
जाता है और नेगमेष, जैसा कि हम ऊपर कह चुके है, के माथ उल्लेख है। प्राचीन काल में नैगमेष देवता की
स्कन्द का ही एक रूप है। पर्याप्त लोकप्रियता थी। महामयूरी मे तो नैगमेष को
उत्तरी भारत के अनेक स्थानों यथा-मथुग, पाचाल-राज्य की राजधानी अहिच्छत्रा का यक्ष माना
अहिच्छवा, भीटा और राजघाट इत्यादि स्थानों से गया है।
नंगमेष । नेगमेपी की मृण्मूर्तियों की उपलब्धि इस देवता नंगमेष-उपासना का शनैः शनैः विकास हुआ। सर्व
की लोकप्रियता की परिचायक है । अहिच्छत्रा के उत्खननों प्रथम शिशु के स्नान के संबंध में, फिर नगमेप अथवा
से इस प्रकार की मृण्मूर्तियो की तिथि प्रायः ४५०-६५० नंगमेग अर्थात वणिजों के देवता के रूप मे और अन्ततः ।
ईसवी निर्धारित की गई है किन्तु कुमराहर (पटना) हरिणगमेपी अथवा इन्द्र देव के प्रमुख सहायक के रूप में
के पुरातात्विक स्तरीकरण के आधार पर यह कहा जा मान्यता मिली।
मकता है कि नेगमेष/नगमेपी की ममूर्तियों का निर्माण प्राचीन काल में नंगमेष देवता की प्राकृतियां बकरी
ईसा की प्रारम्भिक शतियों से प्रारंभ हो गया था क्योंकि के सिर से युक्त मिलती है । मथुरा की कुषाण-कला मे बानी
बहाँ मे १०० ---३०० ईनवी के स्तर से वह पर्याप्त मात्रा ३. अग्रवाल, पृ० कु०, स्कन्द-कार्तिकेय, वाराणसी में पायी गई है। १० ५२।
१०. अग्रवाल, वा०२० मथुरा म्यूजियम कैटलाग भाग २, ४. पाश्व गृ०, (मे० आनन्द शास्त्री,) कलकत्ता,
पृ० ३२ तथा प्रागे । १.१४.३, पृ० ६३.६४ ।
११. गज्य-संग्रहालय, लखनऊ, स० ४२.२ । ५. महाभारत, पादि०६६.२४; प्रारण्य० २३७.१३ । १२. उपयुक्त, स० ४६८, ०.३२० । ६. वही, पारण्य० २२७.१३ ।
१३. उपर्युक्त, मं० ०.३२१ ! ७. सुश्रुत सहिता (स० नारायण राम प्राचार्य) बबई, १४. शेन्ट इडिया मं० ४,१९४८, पृ० १३५॥ १९४५, अ० २७.४.५, पृ० ८२२ ।
१५. वही, पृ० १३४ । ८. दृष्टव्यः कुमारस्वामी, यक्षाज पृ० १२ ।
१६. पल्टेकर तथा अन्य, रिपोर्ट प्रान कुमराहर एक्स६. अग्रवाल पृ० १ कु०, स्कन्द कार्तिकेय, पृ० ५२ । के वशम १९५१-५५, पटना, १६५६, पृ० ११०।
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गतांक मे २० श्लोक तक का हिन्दी अनुवाद दिया गया है शेष ५० श्लोको का हिन्दी अनुवाद नीचे प्रस्तुत है :
:
नलपुर का जैन शिलालेख
श्री रतनलाल कटारिया
१
६
(उपजाति)
गतांक में मुद्रण की कुछ गलतिया हो गई है जिन्हे नाकेशव केशवदेवनामा, नित्यं सुधर्मायवधितश्रीः । पाठक इस प्रकार संशोधित कर ले :यस्याः पिता सा कुलधर्म हम्यं विराजति श्रीदयिता तबीया ।। २२ ।। श्लोक नं०
अर्थ देवतुल्य धौर सदा सधर्म (वा सुधर्मा
-
दवसभा) के प्राश्रय से बढी है शोभा जिनकी ऐसे केशव देव नाम के जिसके पिता है ऐसी कुलधर्म की महल श्री = लक्ष्मी देवी उन जैस की धर्मपत्नी है। सा सप्तगोत्रस्थिति सप्तभौमा साप्याकृती सप्तामृत । महारये भीजिनधर्मभानोराविभ्रतः सप्ततुरंगभंगी ।। २३ ।।
८
१२
अशुद्ध
ससेविवितु
सव्वतः
पयोष
किन्तु
शुद्ध
संसेवितु
सर्व्वतः
प्लोष
किन्तु
सकल्प करते थे यह पद्धति "कल्पना वारिभिः" से व्यक्त की गई है ।)
(मदाक्रांता छद) नानादानावसर विसरत्कल्पनावारिभिस्ते भूयः पंकां यदियमवनं त्वदद्यशः श्रीभ्रंमित्वा । भेजे देवप्रवरभवन चन्द्रपीयूष कुण्डे पीताहि सन्मृगमियमहापंकि मंत्रसिह ॥२१॥ है की यह कीति-लक्ष्मी आपके अनेक दानो के अवसर पर फॅनने वाले सकल्प के कारण अत्यधिक कीचड से युक्त इस पृथ्वी पर भ्रमण कर चन्द्रमा रूपी अमृत कुण्ड में पैर धोकर जिन मन्दिर को प्राप्त हुई इससे वह चन्द्रकुण्ड विद्यमान मृग के बहाने बहुत भारी कीचड से युक्त है । (विशेष की कीर्ति पृथ्वी से गगन मंडल तक दिग्दिगंत मे फैलकर फिर जिन मन्दिर में आकर स्थिर हुई। जिन मन्दिर मे बिना पैर पोये प्रदेश नहीं किया जाता, अतः यशः श्री ने चन्द्र रूपी अमृत कुण्ड मे पैर धोये इससे पैर की कीचड़ कुण्ड में रह गई । चन्द्रमा मे जो मृग-चिह्न (कालिमा) है वह मानो वही कीचड़ है । अमृत कुण्ड में पैर धोने से यशोलक्ष्मी का अमरत्व भी द्योतित किया गया है।
पहिले दानी, जल की धारा छोड़ते हुए दान का
अर्थ - सातवंशो की स्थिति के लिए सात भूमिका का रूप उस लक्ष्मी देवी ने सुरूपवान् सात पुत्रों को जन्म दिया जो मानों श्री जिनधर्म रूपी सूर्य के महान् रथ मे जुते हुए सात भग रूपी सात तुरग-घोडे ही है ।
(अनुष्टुप्) तेषामुदयसिहाल्यो मुख्यः सिंह इवपते। निभिदन कलिकाले कीर्तिमतावली: किरन ।। २४ ।।
अर्थ: उनमे सबसे बडा उदयसिह है जो निकाल रूपी हाथी को चीरकर कीति रूपी मज मुक्ताया को बिखेरने वाला उदयत सिंह ही है।
( वसततिलका) श्रद्यापि किं दहति दूरवरिद्रमुद्रा,
विश्वं विभाति मयि दौस्थ्य वनेकदावे ! किं दक्षिणस्तुवनपाणिरितीव,
कोपायलटसह सोशोषिः ।। २५ ।। अर्थ :- दरिद्रता रूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल स्वरूप मेरे विराजमान रहते हुए क्या श्रत्र भी अत्यन्त दाखि मुद्रा संसार को जा रही है? तो
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नलपुर का जैन शिलालेख
१७५ उदार स्वभाव (दान वीरता) से क्या ! इस प्रकार वह खिलता है 'यह भी भावभित है") ते नस्पी उदयसिंह (दान का सका करने के लिए) जल
(अनुष्टप्) हाथ में लिए हुए मानो क्रोध से तमतमा रहा है।
प्रास्ते विपश्चितां रत्नं, रत्नसिंहस्तदान्तिमः । (विशष:-विभाति सति, सप्तम्यन्त प्रयोगः। लधर्नयामहाल्यन
लघुर्नयनसिंहाख्यस्तस्मादप्यलघुर्गुणः ॥२६॥ संशोणशोचि: लाल प्रभा से युक्त अर्थात् तेजस्वी । दक्षिणः
अर्थ :-तदन्तिम - उसके बाद (छट्ठा पुत्र) विद्वद्उदार स्वभाव;-देखो ‘पदय चन्द्र कोप')
रत्न रत्नसिह हुमा और (मानवा पुत्र) नयनसिंह हा जो (शार्दूलविक्रीडित)
सबसे छोटा हाते हुए भी गुणो से बडा था। त्यक्त्वा सागरमिन्दुभालगरल नित्य ज्वलत्कौस्तुभ
साधोरुदयसिंहस्य, सारिष्टाब्जगणिवधूः ? स्वाहावल्लभमाविहाय भुजयोर्मध्यं मुरारेरपि ।
चतुरश्चतुरम्भोधिविश्रुतान्सुषुवे सुतान् ॥३०॥ शश्वदधाति शिलीमुखालि विषमादम्भोरुहादबिभ्यतो
अर्थ-साहू उदयसिह की पत्नी ने चारसागर विख्यात धावात्यौदसिंहमस्तदुरित धाम प्रति श्रीधंवम् ॥२६॥ चार पत्रो को जन्म दिया।
अर्थ :-समुद्र मे कालकूट बिष होने के कारण और कमसिंहः पुरस्तेषां देहसिंहस्ततोऽनुजः। विष्ण का वक्षःस्थल कौस्तुभमणि रूपी अग्नि से नित्य ततीयः पटमिटायो धर्मfisaar ॥29 प्रज्वलित रहने के कारण तथा कमल भ्रमर समूह से छेड़े अर्थ :-उनमे पहला कर्मसिह दूसरा देहसिंह तीसरा जाने के कारण इन तीनों को छोडकर वास्तव में लक्ष्मी पदमसिंह और चौथा धर्मसिह था। सब अापत्तियों से रहित ऐसे उदयसिंह के घर की ओर
भायें श्रृंगारसिंहस्य शोभालदुप्रडाभिधे । ही दोड रही है।
प्रेयसी राजसिंहस्य पदमा पदमालयाकृतिः ॥३२॥ (विशेष :-लक्ष्मी का निवास, समुद्र, विष्णु का
अर्थ :-शृंगार सिंह के शोभाल और दुमडा नाम वक्षःस्थल और कमल इन तीन मे प्रसिद्ध है। इन्दुभाल
की दो पलिया थी और राजसिंह के लक्ष्मी स्वरूपा पदमा शिव । पौराणिक कथा है कि-शिवजी ने सागर-मथन
नाम की पत्नी थी। से निकले काल कूट विष को पिया था)। (उपजाति)
नाम्ना विजयदेवोति वीरसिंहस्य गहिनी।
पवित्रचरितस्तस्याः क्षेमसिंहस्तनूरुहः ॥३३॥ शृगारसिंहस्तदनज्जिहीते, शृंगाररस्नं सुविवेकभाजां।
अथ :-वीरसिंह के विजयदेवी नाम की गृहिणी थी ततोऽनुभूराजित राजसिंहः, कलानिधानं सुकृतकतानः ॥२७
जिसके क्षेमसिंह नाम का मदाचारी पुत्र था। अर्थ :-उदयसिंह के बाद (दूसरा पुत्र) शृगार सिंह
अन्यदा धन्यघीः स्वान्ते जैनसिद्धांतपारिते। हा जो विद्वद् शिरोमणि था उसके बाद पृथ्वी की शोभा
जैत्रसिंहः प्रबुद्धात्मा चिन्तयामासिवानिति ॥३४।। स्वरूप राजसिह (तीसरा पुत्र) हुया जो कलानो मे पार
अर्थ :--किसी दिन धन्य बुद्धि-प्रबुद्धात्मा जैत्रसिंह ने गत और सत्कार्य में सदा लवलीन रहने वाला था।
जैन सिद्धान्त मे पारगत अपने हृदय में इस प्रकार विचार तस्यानुजन्मा सुकृतार्थजन्मा, सन्मानसः खिल्लति वीरसिंहः।
किया। यशः पराभूतसुधांशुधामा, तस्यानजो लक्षणसिंह नामा ॥२८
(इन्द्रवज्रा) अर्थ :- उसके बाद कृतकृत्य जन्मवाला और निर्मम ।
नित्येक जैनेन्द्रकृत प्रतिष्ठो, विल्सस्ततोऽभूवणगोगुणशः। हृदय वाला वीरसिंह (चौथा पुत्र) हा । यश से पराजित
साकंभरी नाथकृत प्रसिद्ध, क्षेमंकराख्यः पुरुषोत्तमःप्राक ॥३५ कर दिया है चन्द्रमडल को भी जिसने अर्थात् धवलकोति
(उपजाति) वाला लक्षण (लक्खा) सिह नाम का (पाचवा पुत्र)
अस्मत्कुलालंकृतये बभूवुरन्येऽपि धन्या इति जैनसिंहः । हुमा।
(विशेष :-सन्मानसः सुमनः पुष्प, खिल्लति= विमृश्य तन्नाम नवीचकार पलासकुंड कृतजनसौषः ॥३६॥
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१७६, वर्ष २३, कि०४
अनेकान्त
मर्थ :-नित्य ही एक जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा और उससे छोटा सुदर प्राकृति वाला सोमदेव । कराने वाले विल्ह हुए उनके बाद गुणज्ञ अणग हुए तथा
(अनुष्टप) साभर के नपति से प्रसिद्धि को प्राप्त (अथवा साभर-राज धितमाहेन्द्र मुद्रण, नागदेवमनीषिणा। को प्रसिद्ध करने वाले) नरपुंगव क्षेमकर हुए। हमारे प्रतिष्ठात्र कृता चैत्ये, निधीन्द्वग्नीन्दुवत्सरे ॥४०॥ कुल को सुशोभित करने वाले पहिल और भी बहुत से अर्थ :- महेन्द्र बनकर विद्वान् नागदेव ने १३१६ धन्य पुरुष हए । इस प्रकार बार-बार विचार कर जैसिंह सवत् मे इस चैत्यालय मे प्रतिष्ठा की। ने पलास कुन्ड के पास जैन मन्दिर बना कर उक्त पूर्वजो (विशेष :-निधि का अर्थ | इन्दु का १ अग्नि का के नाम को उजागर किया।
३ और इन्दु का १ है। 'अकाना वामतो गतिः" इस (मदाक्राता छंद)
नियम से १३१६ सवत् होता है) व्योमाभोगाकिमयमरोपिनीवारिपूरः
(वसततिलका) पृथ्वीपीठे पतति यदि वा तुंगमीशाद्रिभृगं ।
दुर्वादिगुर्व गुरुपर्वतवज्रदण्डः । वेलार्शल: किमुत धवलःलीरसिमि धौतम
श्रीखडकीतिमहिमामरकोतिदेवः । नो न श्रीमज्जिनवरगृहं राजते जंत्रसिहं ॥३७॥
बोधामृतार्णवविधुश्च वसंतदेवः । अर्थ :-प्राकाश मार्ग से क्या यह सुरगंगा का जल- प्रातिष्ठ कृत्य विषयेऽत्र गुरुर्बभूव ॥४१॥ प्रवाह ही पृथ्वी पर गिर रहा है अथवा समुन्नत हिमालय पर्थ :-कुवादि रूपी छोटे-बड़े सभी पर्वतो के लिए कशाल का शिखर ही है या-क्षीरसागर की कल्लोलो वज्रदण्ड रूप, धवल कीति वाले, महिमाशाली अमर कीर्ति से धोया हुमा घवल वेलाचल ही है ? नहीं, नही यह तो देव तथा ज्ञानामत रूपी सागर के लिए चन्द्रस्वरूप वसत जैत्रसिंह के द्वारा बनाया हुआ श्री जिनमन्दिर सुशोभित देव इस प्रतिष्ठा विषयक कार्य मे गुरु बने । हो रहा है।
(उपजाति) (विशेष :-चतुर्थ चरण मे नो और न दोनो अव्यय श्री जैसवालान्वयपारिजात-बाल प्रवालश्चरितार्थनामा । है जिनका अर्थ "नहीं" है। न+ऊन नौन-कम नही प्रफुल्लयन्नुल्वणकोतिवल्ली., श्रेष्ठोधनी राजति माधवाह्वः, अर्थात् विशिष्ट इस अर्थ मे श्रीमान् का भी विशेषण हो अर्थ -जैसवाल वश रूपी कल्पवृक्ष की छोटी सी सकता है।
कोपल, यथा नाम तथा गुण, उच्चकीर्तिवल को विकसित (उपजाति)
करने वाले, घनीसेठ माधवराज हुए। श्रीपौरपाटान्वयजनवर्गधुरंधरः श्रीघरबघुसूनुः ।
(अनुष्टुप्) अखडधी: पंडितपुंडरीकखडश्रिये हसति नागदेवः ॥३८॥ तत्सूनुदवसिंहाख्यः, श्रीणां लीलानिकेतनम् ।
अर्थ :-पोरवाट जाति के जैनो के नेता, श्रीधर के गुणकरवपर्वेन्दुः, श्रद्धावल्लिनवाम्बुदः ॥४३।। भाई के पुत्र, अखंड बुद्धि, पडित रूपी कमल समुदाय की अर्थ :-उनका पुत्र देवसिंह हुआ जो लक्ष्मी शोभा शोभा के लिए हंस के समान नागदेव हुए।
की लीला-भूमि था एव गुण रूपी समुद्र के लिए पूर्णिमा (विशेष :-खडसमूह । हसति-हस इव पाचरति का चाद था तथा श्रद्धा रूपी वेल के लिए नवीन मेघ (नामधातु)।
था। तस्यानुजौ चाहडगांगदेवो, स्वकीर्तिवाचालितनागदेवौ। धीराख्या गहिणी तस्य, धीरौ तत्तनयावभौ। सुतावभावादिम पाम्रदेवः, कम्राकृतिस्तल्लघु सोमदेवः ॥३६ प्राक सलक्षणसिहाह्वः, कृत्यसिहस्ततः परः ॥४४।।
अर्थ :-उनके दो छोटे भाई थे-चाहड और गाग- अर्थ :-उन देव-सिंह के धैर्यशालिनी वीरा नाम की देव जिन्होने अपनी कीति से नागदेव को भी वाचालित पत्नी थी, उनके दो पुत्र थे पहला सलक्षणसिंह दूसरा कर दिया था। नागदेव के दो पुत्र थे पहिला पाम्रदेव कृत्यसिंह ।
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नलपुर का जैन शिलालेख
१७७
जसे सातनूजन्मा, साविजयदेवकः ।
जबकि ये ग्राहड़ साहू शिर पर भाल पर शकर यानी श्रृंगारदेवी तज्जाया, निर्माया धर्मकर्मसु ॥४५॥ चन्दन को धारण करने वाले थे। अथवा शिर पर शकर
अर्थ-जस्सा साहू का पुत्र विजय देव साहू था यानी जिनेन्द्र को धारण करने वाले थे। हिमालय निर्मल जिसकी पत्नी शृगार देवी थी जो धर्म-क.मं में छल-प्रपच मानसरोवर से पवित्र है जबकि पाहड़ साहू निर्मल मानसरहित थी।
हृदय से पवित्र थे फिर भी आश्चर्य है कि-हिमालय तो तदगर्भसंभवी शोभावभवध्वस्तमन्यथौ।
कूट-शिखर समेत है किन्तु पाहड साहू कूट-कुटिलता सनायौ तनयो भातः सहदेवाम्रदेवको ॥४६॥
युक्त नहीं थे। अर्थ-उन शृगारदेवी के गर्भ से उत्पन्न सहदेव और
(अनुष्टुप्) पाम्रदेव दो पुत्र थे जो युगल थे (साथ-साथ पैदा हुए थे) सुवर्ण चरित यस्य कलिकालकषोपले।
और जिन्होने अपने शोभावैभव से कामदेव को भी तिर- शद्धि दधाति साधूनां चाहडः संष शेखरः ॥५१॥ स्कृत कर दिया था।
अर्थ-कलिकाल रूपी कसौटी पर जिनका चरित्र जाजे श्रेष्ठी सतां श्रेष्ठ., परवाटकुलाग्रणीः ।
सुवर्ण की तरह निर्दोष खरा उतरता है ऐसे वे साहुओं के कलिसंतापितक्षोणी चन्दनीकृतकोतिक्रः ॥४७॥
मुकुट चाहड़ थे। अर्थ-परवाड वंश के नेता, सज्जनोत्तम जाजे नाम
(शालिनी) के सेठ थे जिन्होंने कलिकाल से सतप्त पृथ्वी को सुशात ....."मानि ज्वालावीचिसापुः कर कीति पाई थी।
सर्वज्ञांहि स्मेरस्वम्भोजभूगः । सहदेव: समाषर्य-वाचावर्षः कलाविदा ।
दानी मानी कीर्तिकान्त्या हिमानी मनध्यायः कुकृत्यानामसत्यानामनास्पदम् ॥४८॥
जेता नेता धीमतां धोतचेताः ॥५२॥ अर्थ-सहदेव कलावंतों के लिए मधुर वाणी की वर्षा- अर्थ-वीचि साह थे जो मानियों के लिए ज्वाला करने वाले थे। दुराचार का जिन्होंने कभी पाठ ही नही स्वरूप थे तथा सर्वज्ञ के चरण रूपी विकसित सुन्दर कमलों पढा था और झूठ से जो कोसों दूर रहते थे।
के मानों भ्रमर थे। एव दानी, स्वाभिमानी और कीर्ति (वसंततिलका)
की कांति से हिम श्रेणी थे, विजेता और विद्वानों के नेता सव्येतरप्रवरपाणिसरोजबंध
एव पवित्र चित्त थे। निस्पंदमानधनदानजलेन जामे
(इन्द्रवजा) जंबालभूमनि यशःसितपंकजाली
गंभीरतापः कृतनीरनाथः स्थर्येण संतजितसानुचूल: । मेनाकसाघुरनुवर्षयते धरित्र्याम् ॥४६॥ दानावादानबंलिराजकल्पस्तल्पश्रिया नंदति माधुवीचि ॥५३
अर्थ--बाये तथा दायें दोनो हस्त कमलों के बन्ध अर्थ-गभीरता से तिरस्कृत कर दिया है समुद्र को अर्थान अजलि से चूने वाले विपुल दान जल के द्वारा भी जिन्होने तथा स्थिरता से पराजित कर दिया है पर्वत उत्पन्न बहुत भारी कीचड मे मैनाक साहू के यशरूपी को भी जिन्होने एव दान कार्यों में राजा बलि के तुल्य मफेद कमलो की पक्ति पृथ्वी पर ज्यों-ज्यो मैनाक सा ऐसे वीचि साहू सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों से पान दित थे । बढने लगे त्यो-त्यों वह भी बढ़ने लगी।
(अनुष्टुप्) (स्वागता)
साघुराभः पराभूतकुतीर्थपथसंकथः । पाहतः स्फटिकर्शल इवास्ते, शकरं शिरसि धारयमाणः। हृदि सर्वज्ञरयतेऽपि पत्ते वमत्यमद्भुतम् ॥५४॥ मानसेन विमलेन पवित्रश्चित्रमेष न तु कुटसमेतः ॥५०॥ अर्थ-पाभ नाम के साह थे जिन्होंने कुधर्म मार्गों ___अर्थ-पाहड़ साहू हिमालय पर्वत के समान थे, की चर्चा को समाप्त कर दिया था और जिनका हृदय हिमालय शकर यानी शिवजी को धारण करने वाला है सर्वज्ञ में रक्त-लवलीन रहने पर भी अद्भुत विमलता
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१७८, वर्ष २३ कि. ४
अनेकान्त
को धारण करता था अर्थात् रक्त लाल (मला) नही सप्तव्यसनसप्ताचिः संतापशमनाम्बुदो। हना था।
धर्मकर्मणि धौरेयो, साध, माधव राशलः ॥६॥ माढचाहडनामानौ, गाढरक्तौ जिनाध्वनि।
अर्थ-सात व्यसन रूपी प्राग के संताप को शात गुणकेतकविस्मेरभाववर्षागमोपमौ ॥५५॥
करने के लिए मेघ स्वरूप, धर्म कर्म मे अग्रणी माधब पौर अर्थ-माढ और चाहड नाम के साहू थे जो जिन- राशल नाम के दो साहू थे। मार्ग में प्रगाढ भक्ति रखते थे। और जो गुणरूपी केतकी कृपावततिजीमतः प्रतधीः साप...विधः । के विकसित करने मे (खिलाने मे) वर्षाऋतु के समान थे। तेज नामा सुधीः पात्रं यशसां शशितेजसा ॥६॥
(विशेष –विस्मेर भाव-विस्मेरता (भावे क्तः) विका- अर्थ-कृपा रूपो बेल के लिए मेघ स्वरूप, पवित्र शिता।)
बुद्धि, तेज नाम के विद्वान् साहू थे जो चन्द्रतेज के समान शक्रः श्रावकचक्रस्य, ग्रामणीः गुणशालिनां ।
(श्वेत) यश के पात्र थे। पंडितः खंडिताशेषविषयः श्रीहलाभिधः ॥५६॥
(विशेष-व्रततिबेल ।) अर्थ-श्री हुल नाम के साहू थे जो श्रावकसंघ के साघुमालसुतो सत्यशोलो छोहलवीहुली। इन्द्र थे और गुणियों के नायक थे तथा पडित थे जिन्होंने प्रणीत विबुधानंदी, गीर्वाणभिषजाविव ॥६२॥ सम्पूर्ण कुमागों को खंडित कर दिया था।
अर्थ-साहू मालू के पुत्र सत्यवादी छीहुल और बीहुल तमश्च्छेदविधिच्छेकमाबिभ्राणः सुदर्शनम् ।
थे जो विद्वानों को ग्रानंद पहुँचाने वाले एव अश्विनीसत्यो नारायणः श्रीमान भाति माथुरवंशजः ॥५७॥
कुमारों के तुल्य थे। अर्थ-श्रीमान् माथुरवशी सत्यनारायण थे जो मिथ्या
विशेष-अश्विनीकुमारी के साथ "प्रणीत विबुधाघकार को छेदन करने की विधि में कुशल ऐसे सम्यक
१ नदो" का अर्थ है विबुध-देवो को प्रानन्द पहुँचाने वाले।
का दर्शन को धारण करने वाले थे।
क्योकि अश्विनीकुमार सुरवैद्य है।) (विशेष-सत्यनारायण श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार
(रथोद्धता) अर्थ होगा-श्रीमान् लक्ष्मीपति । माथुरवंशज-मथुरा मे
पौरपाटकुलविन्ध्यभूघरे भद्रजातिमहिमन्दीयते । उत्तन्न. मथुरा वासी। सुदर्शन प्राबिभ्राणः सुदर्शनचक्र
उद्यशः कुसुमसौरभ दिशामर्पयनवितयोऽयमद्भुत ॥६३॥ को धारण करने वाले । तमश्छेदविधिच्छेकं जयद्रथ वध मे
अर्थ-श्रेष्ठ जातियो से महिमाशाली पोरवाड वश सुदर्शनचक्र को सूर्य पर से हटा कर दिन कर दिया था
रूपी विध्याचल में उदीयमान यशरूपी फलो की मुगध को यह सुदर्शनचक्र का विशेषण है।)
चारो ओर फैलाते हुए ये 'अद्भुत' नाम के साहू उदित साधुः कुलषरः शम्भु बुधश्च भृगुनन्दनः । सौजन्यवल्लिपर्जन्यः, संन्यस्ताखिलदूषणः ।।५।।
(विशेष-विध्याचल के पक्ष मे "भद्रजाति महिमान" ___ अर्थ-सज्जनता रूपी बेल के लिए मेघ स्वरूप,
का अर्थ इस प्रकार है। भद्र-चदन, सोना प्रादि की समस्त बुराइयों से रहित कुल के रक्षक, भृगु के पुत्र
उत्पत्ति से महिमाशाली। भद्रजाति उत्तम जायफल, नार्गववशी विद्वान् शम्भु साहू थे।
मालती चमेली प्रादि से महिमा शाली।) जौणपाल: कृपालूनां परि धर्मसुधाम्बुधिः । प्रहस्तिहुणपालाह्वः श्रीजिनाराधने धनी ॥५६॥
(अनुष्टुप्) अर्थ- दयालुनों मे मुख्य और धर्मामृत के सागर एतेऽस्मिन्नाहते व्यक्ताः, ना_लयकारिणः । जोणपाल सेठ थे तथा श्री जिनेन्द्र की भक्ति में प्रासक्त वर्धन्तां गोष्ठिका: पुण्यवनकन्दलानां बदाः ॥६४॥ तिडणपाल सेठ थे।
अर्थ-इस उत्कीर्ण शिलालेख मे वणित, पुण्य रूपी (विशेष-प्रह-पासक्त ।)
वन के नवांकुरों के लिए मेघरूप, एक गोठ के, ये सब
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नलपुर का जैन शिलालेख
जिनमन्दिर बनाने वाले पेठ साहूकार सूत्र बढ़े सपन्न हों।
( उपजाति)
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चंद्रमण्डलमंडितेयं तारालिमुक्ताफलहारयष्टिः । कास्ति बावद् गगनस्य लक्ष्मीजनालय नन्दतु तावदेतत् ।। ६५ अर्थ — जब तक यह श्राकाशलक्ष्मी चन्द्र सूर्य रूपी कुण्डल से मंडित और तारागण रूपी मोतियो के हार से सुशोभित है तब तक यह जिनालय शोभायमान रहे । ( शार्दूलविक्रीडित )
चारते कागणारविन्दतरणिः श्रीदेवगुप्तप्रभुः । व्यापानगतोचितक्षितिपतिः इवेतांबर व्याकुलः । प्रासीदुसमप्रवादिकर टिशरूपंचाननस्तत्पादाम्बुजराजहसमहिमा श्रीवीरचन्द्र कविः ।। ६६ ॥ अर्थ - केशगण रूपी कमलों के लिए सूर्य, व्याख्यान के अवसर पर राजाओं को सन्तुष्ट करने वाले, जिनसे श्वेतावर व्याकुल रहते थे और जो समस्त उग्रवादी रूपी हाथियों के लिए कालरूप एक ही सिंह थे ऐसे श्री देव गुप्त स्वामी थे उनके चरण कमलो की शोभा के लिए राजहस रूप श्री वीरचन्द्र कवि थे । तस्माज्जंगमभारतीति जगति ख्याताभिधानाद्गुरोवीरेन्दोरधिगत्य सत्यमहिम भ्राजिष्णुः सारस्वतम् । सिरसिरगिरां शुद्धिः सुधानोरथोः श्रांतः प्रोतपदां प्रशस्तिमकृत श्रीदेवचन्द्रः कृती ॥६७॥
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अर्थ – उन "जगम भारती" ( चलती-फिरती सरस्वती) इस प्रकार विख्यात नाम वाले गुरु वीरचन्द्र से साहित्यिक ज्ञान प्राप्त कर ( सिद्ध सारस्वत होकर ) सत्य महिमा से दैदीप्यमान विद्वान् श्री देवचन्द्र ने परिश्रम से गूंथे गये हैं पदवाक्य जिसमें ऐसी इस प्रशस्ति को बनाया ।
(अनुष्टुप्) वास्तव्यान्वय कायस्थः शेखरः शरदात्मजः । प्रशस्तिम लिखद्वेदेरिमां सोमासमुद्भवः ॥ ६८ !
अर्थ - वास्तव्य गोत्री कायस्थ, शरद् (पिता) के पुत्र चोर सोमा (माना) से उत्पन्न शेखर ने इस बेदी को प्रशस्ति को लिखा ।
(विशेष यह प्रशस्ति मंदिर की वेदी पर सामने की तरफ उरकीर्ण की गई थी।)
१७६
भूतः काश्यपगोत्रेऽसौ पायिकः सूत्रधारकः । वामदेवो सुतस्तस्य प्रशस्ति प्रोष्यकार सः ।। ६६ ।
कास्यप गोत्र मे पायिक नामा शिल्पी (मन्दिरनिर्माता-कारीगर हुए जिनके पुत्र वामदेव से उन्होने इस प्रशस्ति को उत्कीर्ण किया। ( शिलालेख पर टाकी से उकेरा ) ।
( वसततिलका)
श्री माथुरान्ययमहार्णवराजहंस, लोकोपकारकरणे... कलानां । सद्धर्मकर्म ॥७०॥ संवत् १३१६ अर्थ - श्री माथुर वश रूपी मानसरोवर के राजहस, लोकोपकार करने मे ।। सवत् १३१६॥
*****....
इति शुभम् -
नोट – इस शिलालेख ( प्रशस्ति पत्थर) का माप इस प्रकार है- लम्बाई २ फुट ३ इन तथा चौड़ाई २ फुट १०३ इच (२' ३' x २ '१०३'')।
"शिलालेख की हूबहू छाप लेने की विधि"
जितना बड़ा शिलालेख हो उतने ही नाप का (देशी) सफेद कागज लें अगर उतना बड़ा कागज न मिले तो कागज को गोंद से जोड़ कर शिलालेख के नाम के अनुसार काट लें । फिर उस कागज को पानी से तर करके शिलालेख पर चिपका दें और अक्षरों के गड्ढों मे सावधानी से दाब दे । इसके बाद कोयले के पिसे चूर्ण को झीने कपड़े में लेकर उस गीले कागज पर सर्वत्र पोत दे। सूखने पर कागज को उतार ले । बस हूबहू छाप तैयार है। गड्ढो का हिस्सा कोयले से न ले जाने के कारण सफेद अक्षरों के रूप मे निकल आयेगा ।
नलपुर- शिलालेख का श्लोकानुसार संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद ( मगलाचरण)
१. प्रादिनाथ प्रभु तुम्हारा कल्याण करें । २. पार्श्व प्रभु तुम्हे विभूति प्रदान करें ।
३. वीर प्रभु तुम्हे प्रसन्नता दे ।
४. देवी सरस्वती मेरे हृदय में सदा कल्लोल करें । ५. मूलस के दि० मुनिवर तुम्हें पवित्र करे ।
( प्रशस्ति)
६. यज्वपाल नामा एक प्रसिद्ध राजवंश था । ७. इस वंश में बीर बुडामणि परमाद्रिराज उत्पन्न हुए।
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१८०, वर्ष २३ कि. ४
अनेकान्त
८. उनके स्वर्गवासी होने पर चाहड राजा हुए ।
क्षेमसिंह हुआ। है, चाह के भी स्वर्गगामी होने पर शत्रुहता नृवर्मा हए। ३४. एक दिन जैसिंह ने इस प्रकार विचार किया। १०. इन न्यायी नवर्मा के राज में प्रजा अत्यंत सुखो थी। ३५. नित्य एक प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराने वाले विल्ह और ११. नवर्मा के स्वर्गवासी होने पर प्रासल राजेन्द्र हुए।
गुणवान् प्रणग तथा सांभर राज के कृपापात्र क्षेमकर १२. विजय श्री इन पासलनरेन्द्र के सदा चरण चुमती थी।
ये नरपुंगव हुए। १३. इन्होंने अनेक शो को पराजित कर विपुल पृथ्वी ३६. हमारे कुल मे और भी बहुत से धन्यपुरुष हुए इस को अधिकृत किया था।
प्रकार विचार कर पलामकुन्ड के पास भव्य जिन१४. इनके राज्य में पौनलख देश मे नलपुर नाम का नगर मन्दिर बनाकर जैत्रसिंह ने पूर्वजों के नाम को रोशन था।
किया। १५. यहा जैसवाल वश जयवंत था।
३७. वह जिनमंदिर महान् सुन्दर और बडाही लाजवाब था। १६. इस वंश मे पहिले विवेकी साटदेव हुए।
३८. पौरवाड वंश में श्रीधर के भाई के पुत्र बुद्धिमान् १७. उनके श्रीकुमार नाम का पुत्र था।
नागदेव हुए। १८. श्रीकुमार के नागण नाम का पुत्र था ।
३९. नागदेव के दो छोटे भाई चाहड और गांगदेव थे तथा १६. नागण की धर्मपत्नी राजल्लदेवी थी।
दो पुत्र प्राम्रदेव और सोमदेव थे। २०. उनके राज्य-भूषण प्रसिद्ध त्रसिंह पुत्र हुआ । ४०. विद्वान् नागदेव ने महेन्द्र बनकर संवत् १३१६ में २१. जैनसिंह महादानी थे उन्होंने एक भव्य जिनमन्दिर इस चैत्यालय में प्रतिष्ठा की। बनवाया था।
४१. कुवादि-जेता अमरकीर्तिदेव और ज्ञानी वसंतदेव इस २२. उनकी धर्मपत्नी श्रीलक्ष्मी थी जो केशवदेव की प्रतिष्ठा में गुरु बने ।
४२. जैसवाल वंश मे धनी सेठ माधवराज हुए। २३. श्री (लक्ष्मी) ने सात पुत्रो को जन्म दिया।
४३. उनके पुत्र गुणवान् देवसिंह हुए। २४. प्रथम उदयसिंह था जो महान यशस्वी था।
४४. उनके वीरा नाम की पत्नी थी जिनसे सलक्षणसिह २५. साथ ही वह महा धनसपन्न और दानवीर था।
और कृत्यसिंह ये दो पुत्र हुए। २६. वह सब प्रकार के वैभवो से परिपूर्ण था।
४५. जस्सा साहू के पुत्र विजयदेव साहू थे जिनकी पत्नी २७. दूसरा पुत्र शृगार सिंह और तीसरा राजसिंह था।
शृगार देवी थी। २८. चौथा वीरसिंह और पांचवा लक्षणसिंह था।
४६. उनसे सहदेव और आम्रदेव ये दो जुगल पुत्र हुए। २६. छट्ठा रत्नसिंह और सबसे छोटा किन्तु गुणों में बड़ा ४७. परवाड़ वश में जाजे सेठ थे । सातवा नयनसिंह था।
४८. गुणों के भंडार सहदेव थे। ३०. साह उदयसिंह (प्रथम पुत्र) की पत्नी ने चार पुत्रों ४६. दानवीर मैनाक साह थे। को जन्म दिया।
५०. निर्मल हृदय वाले पाहड साहू थे । ३१. उनके नाम क्रमशः कर्मसिंह, देहसिंह, पद्मसिंह और ५१. साहूमों के मुकुट चाहड़ साह थे। धर्मसिंह थे।
५२. अनेक गुणो से युक्त वीचि साहू थे । ३२. शृगार सिंह (द्वितीय पुत्र) के दो पत्नियां थी शोभाल ५३. वे गभीरता में समुद्र और स्थिरता में पर्वत तथा
और दुमडा। तथा राजसिंह (तृतीयपुत्र) के एक दान में राजा बलि के तुल्य थे । पना नाम की स्त्री थी।
५४. कुधामिक बातों से दूर रहने वाले प्राभ साहू थे । १३. वीरसिंह (चतुर्थ पुत्र) के विजयदेवी थी। जिससे ५५. जिनधर्म मे दढ़ माढ और चाहड साह थे।
पुत्री थी।
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नलपुर का जैन शिलालेख
१८१ ५६. श्रावक शिरोमणि, पडित श्रीहुल साहू थे । ६६. काश्यपगोत्री पायिक शिल्पी के पुत्र बामदेव ने यह ५७. माथुरवंशी सम्यग्दृष्टि सत्यनारायण थे ।
प्रशस्ति उत्तीर्ण की। ५८. भार्गववशी विद्वान् शम्भु साहू थे।
७०. माथुरवशी लोकोपकारी.........।मबत् १३३६ ५६. दयालु जौणपाल और जिन भक्त निहुणपाल थे। ६०. सात व्यसनो के त्यागी धर्मात्मा माधव और राशल
-प्राभार प्रदर्शनसाहू थे ।
(१) श्लोक न० २१, २५, २६ और ४६ इन चार ६१ विद्वान् यशस्वी तेजू शाह थे।
श्लाको के अनुवाद में मान्यवर पं० पन्नालाल जी साहि६२. शाह मालू के पुत्र छीहुल और विहुल साह थे। त्याचार्य सागर से सहयोग लिया गया है। उन्होंने यह भी ६३. पोरवाड वंश में अद्भुत साहू थे।
सूचित किया है कि-"श्लोक नं. ५ और २० में गेह६४. ये मब जिनमंदिर बनवाने वाले एक ही गोठ के सेठ णाद्रि का अर्थ उदयाचल नहीं है, कवि सप्रदाय मे रोहण
गिरि का अर्थ-'जिसमें मेघों की गर्जना से रत्न उत्पन्न माहूकार खूब वैभवशाली हों।
होते है' लिया गया है। इस सबके लिए मैं उनका प्राभारी ६५. जब तक आकाश में चन्द्र सूर्य तारे है तब तक जिन
मन्दिर सुशोभित रहे । ६६. केयगण में देवगुप्त स्वामी हए उनके शिष्य वीरचंद्र (२) पंडित दीपचन्द्र जी पाडया का तो इस कवि हुए।
महान् कार्य मे प्राद्यत पूर्ण सहयोग रहा है अतः उनका क्या ६७. उन मे ज्ञान प्राप्त कर विद्वान् देवचन्द्र ने यह प्रशस्ति प्राभार स्वीकार करूं-जो कुछ इसमे 'सत्य शिवं सुदर' ___बनाई।
है वह सब उन्ही का प्रमाद है। ६८ शरद-मोमा के पुत्र वास्तव्यगोत्री कायस्थ शेखर ने () अगर विशेषज्ञ विद्वानो को कोई गलती दष्टिवेदी को यह प्रशस्ति लिखी।
गत हो तो अवश्य सूचित करे में उनका आभारी हाऊंगा। विशेष-अगर कोई सज्जन या सस्था इस कृति को अलग ट्रेवट रूप से छपाना चाहे तो छपा सकते है।
हमारी अनुमति है।
(सन् १६७१ की जनगणना के समयधर्मके।
खाना नं. १० में जैन लिखाकर सही आँकड़े। इकट्ठा करने में सरकार की मदद करें।
amta
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पदर्शन समुच्चय का नया संस्करण
पं० दलसुख मालवणिया
डायरेक्टर ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद
प्रास्ताविक
षड्दर्शनसमुच्चय मूल' और गुणरत्नकृत टीकाका अनुयाद श्री पं० महेन्द्रकुमारजी ने ता० २५६-४० बार बजे पूरा किया था, ऐसी सूचना उनकी पांदुलिपि से मिलती है। धौर टिप्पण लिखने वाला कार्य उन्होंने ई० १९५९ में । अपनी मृत्यु ( ई० १६५६ जून) के कुछ मास पूर्व पूर्ण किया ऐसा डॉ० गोकुलचन्द्रजी की सूचना से प्रतीत होता है। टिप्पणी के लिखने मे डॉ० गोकुलचन्द्र जैन ने सहायता की थी ऐसा भी उनसे मालूम मालूम हुआ है। धनुवाद करके उन्होंने छोड़ रखा था और प्रकाशक की तलाश थी यह तो मैं जानता हूँ किन्तु वेद इस बात का है कि उनके जीवनकाल मे इस ग्रंथ को वे मुद्रित रूप से देख नहीं सके। और इस कार्य को मित्रकृत्य के रूप में करने में दुखमिश्रित सन्तोष का अनुभव में कर रहा हूँ ।
उनकी जो सामग्री मुझे मिली उसे ठीक करके, यत्र
तत्र संशोधित करके मैने प्रेस योग्य बना दी थी। कुछ पृष्ठों के प्रूफ भी मैने देखे और पूरे ग्रंथ के प्रूफ मुद्रणकार्य शीघ्र हो इस दृष्टि से मेरे पास भेजे नहीं गये । अानन्द इस बात का है कि मेरे परम मित्र का यह कार्य पूरा हो गया ।
यह भी आनन्द का विषय है कि इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है। ज्ञानपीठ के आरम्भ काल से ही उनका सम्बन्ध ज्ञानपीठ से एक या दूसरे रूप में रहा है धकलक के कई ग्रन्थों का उद्धार १० महेन्द्रकुमार १. 'षड्दर्शन समुच्चय' गुजराती अनुवादक : श्री चन्द्रसिंह मूरि प्रकाशक-जैन तत्वादर्श सभा, धमदाबाद, ई० १८६२ भ्रष्टकप्रकरण के साथ, प्रकाशक : क्षेमचन्द्रात्मजो नारायणः सुरत, ई० १६१८; हरिभद्रसूरिभ्रन्यमाला मे प्र० जैन धर्मप्रसारक सभा, भावनगर, विक्रम स० १६६४ ( ई० १९०७) ।
जीने किया और ज्ञानपीठ ने उससे दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ी। तीय दर्शनों के ग्रन्थ प्रायः नही टिप्पणी देकर दर्शन ग्रंथों का जी ने शुरू किया था उसी ।
उनका प्रकाशन कियाइतने उत्तम रूप से भारमुद्रित होते । तुलनात्मक संपादन पूज्य प० सुखलाल पद्धति का अनुसरण करके पं० महेन्द्रकुमार जी ने जिस उत्तम रीति से उन ग्रंथों का सपादन किया और ज्ञानपीठ ने उन्हें सुन्दर रूप में छापा यह तो भारतीय दर्शन ग्रन्थ के प्रकाशन के इतिहास मे सुवर्ण पृष्ठ है उन ग्रंथों के जरिये भारतीय दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन को प्रगति मिली है - यह निःसमय है। पं० महेन्द्रकुमार जो जीवित होते तो प्रस्तुत पद् दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना कैसी लिखते यह नहीं कहा जा सकता किन्तु यहा जो लिखा जा रहा है उससे तो बढ़कर होनी इसमें सन्देह नहीं है।
-
षड्दर्शनसमुच्चय और उसकी वृत्ति के संशोधन मे उपयुक्त हस्तप्रतियों के विषय मे मेरे समक्ष प० महेन्द्रकुमारजी के द्वारा लिखित कोई सामग्री नही आयी श्रतएव यह कहना कठिन है कि उन्होंने तत्तत् संज्ञाओं के द्वारा निर्दिष्ट कौन-सी प्रतियो का उपयोग किया है। किन्तु इतना तो निश्चित है कि उन्होंने अच्छी हस्त प्रतियो का उपयोग प्रस्तुत ग्रंथ के संशोधन मे किया है और उसे शुद्ध करने का पूरा प्रयत्न किया है।
उनके द्वारा सम्पादित अन्य ग्रन्थों की तरह इसमे भी उन्होंने महत्वपूर्ण तुलनात्मक टिप्पण अन्य ग्रन्थों से उड़त किये है संकेत सूची के धाधारपर से एक ल तैयार की गयी है जिससे वाचक को पता लगेगा कि प्रस्तुत ग्रंथ के संशोधन के लिए उन्होंने कितना परिश्रम किया है। उन्होने विविध ग्रंथों के कौन से संस्करणों का टिप्पणी मे उपयोग किया है - यह भी पता लगाकर निर्दिष्ट किया गया है।
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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
१८३
प्रस्तुत ग्रंथ मे परिशिष्ट रूप से मणिभद्रकृत सक्षिप्त प्रदीपः सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम् । टीका और अज्ञातकर्तृक प्रवचुरि भी मुद्रित की गयी है । प्राश्रयः सर्वधर्माणां विद्योशे प्रकीर्तिता ।।" उनका संशोधन भी प. महेन्द्रकुमारजी ने किया था।
-न्यायभाष्य १.१.१. मणिभद्रकृत टीका वस्तुत: सोमतिलकसूरि की रचना है
वात्स्यायन ने ठीक ही कहा है क्योकि त्रयी हो या यह स्पष्टीकरण करना जरूरी है। इसकी चर्चा पागे की गयी है।
वार्ता या दण्डनीति-इन सभी विद्याओं के विषय में उन्होंने इस ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी थी कि नहीं
अान्वीक्षिकी ही निर्णायक है-ऐसा कौटिल्य का मत है
- क्योकि प्रान्वीक्षिकी ही के द्वारा अर्थात् हेतुप्रयोग द्वारा यह पता नही लगता । जो सामग्री मेरे समक्ष पायी उसमे
तीनो विद्याप्रो का अन्तिम ध्येय सिद्ध होता है । सुख के तो उसकी कोई सूचना है नही । अतएव मैने प्रस्तावना के
अवसर पर या आपत्ति के अवसर मे बुद्धि को स्थिर रूप में थोड़ा लिख देना उचित समझा है ।
रखनेवाली प्रान्वीक्षिकी ही है। प्रज्ञा मे, वचन में और ज्ञानपीठ के संचालको ने मित्रकृत्य करने का यह शुभ
क्रिया मे वैशारद्य प्रान्वीक्षिकी के कारण ही पाता है । अवमर दिया एतदर्थ मै ग्रथमाला के सम्पादको का और
प्रतएव प्रान्वीक्षिकी सर्व विद्यानों की विद्या है । सब ज्ञानपीठ के संचालकों का प्राभारी हूँ।
विद्यानो के लिए प्रदीप है।' साध्य हो या योग या लोकाषड्दर्शन
यत-ये सभी प्रान्वीक्षिकी का प्राश्रय लेकर ही अपनी दर्शनों की छह सख्या कब निश्चित हई उसका इति
बात को सिद्ध करते थे अतएव कौटिल्य ने भले उन तीनों हास के पक्का पता नही लगता। विद्यास्थानों की गिनती
का नाम आन्वीक्षिकी में गिनाया किन्तु उन तीनो का के प्रसंग में दर्शनों या तर्कों की संख्या की चर्चा होने
प्राधार प्रान्वीक्षिकी अर्थात् न्यायविद्या ही है। वे प्रमाण, लगी थी, इतना ही कहा जा सकता है। छान्दोग्य उप
न्याय या तर्क का प्राश्रय लेकर ही अपनी बात को सिद्ध निपद् (७-१-२) मे अध्ययन के अनेक विषयो की गिनती
कर सकते है ऐमा अभिमत न्यायभाष्यकारका है । इस मे वाकोवाक्य का उल्लेख मिलता है। उसका अर्थ है
पर से हम कह सकते है कि कौटिल्य के समय तक भले वाद-प्रतिवाद । परन्तु' अर्थशास्त्र मे प्रान्वीक्षिकी विद्या
ही न्यायशास्त्र को पृथक् दर्शन के रूप में स्थान मिला मे भी साख्य, योग और लोकायतों का उल्लेख है तथा
नही था किन्तु आन्वीक्षिकी के रूप में उसकी सत्ता प्रान्वीक्षिकी के विषय में कहा है
माननी चाहिए। न्यायशास्त्र में जब वैशेषिक दर्शन को प्रदीपः सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम् ।
ममान तन्त्र माना जाने लगा तब वह सब विद्यायो का प्राश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ।।
प्राधार रूप न रहकर एक स्वतत्र दर्शन बन गया। यही स्मृतियो मे याज्ञवल्क्यस्मृति (१-३) मे १४ विद्या
कारण है कि पुराणो और स्मतियो में न्याय और मीमांसा स्थानो को गिनाया है, उनमे केवल न्याय और मीमासा का
को पृथक् गिनाया गया। इस प्रकार पुराण काल में उल्लेख है । पुराणों में भी जहाँ विद्यानों का उल्लेख है ।
न्याय, सांख्य, योग, मीमासा और लोकायत-ये दर्शन वहा भी प्रायः याज्ञवल्क्यस्मृति का अनुसरण है । किन्तु पृथक सिद्ध होते है। स्मृति और पुराणो में विद्यास्थानों न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने तो न्यायशास्त्र को ही ,
मे साख्य-योग लोकायत को स्थान मिलना सम्भव नहीं आन्वीक्षिकी विद्या माना है। उनका कहना है कि "सेय
३. सास्य योगो लोकायत चेत्यान्वीक्षिकी ।१०। धर्मामान्वीक्षिकी प्रमाणादिभिः पदार्थविभज्यमाना
धौं त्रय्यामर्थानों वार्ताया नयापनयो दण्डनीत्या १. कौटिलीय अर्थशास्त्र-१-२ (काँगले)।
बलाबली चंतासा हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति २. हिस्ट्री प्रॉफ धर्मशास्त्र भा० ५, पृ०८२०, ६२६, . व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति प्रज्ञावाक्यक्रिया११५२।
वैशारद्य च करोति ।११।-कोटिलीय अर्थशास्त्र १२॥
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१८४, वर्ष २३, कि० ४
अनेकान्त
था, क्योकि उनका प्राधार वेद नहीं था। किन्तु महाभारत तदर्शनो का समर्थन किया है। जब कि हरिभद्र ने मात्र और गीता से स्पष्ट है कि दर्शनों में सख्य-योग का स्थान परिचय दिया है। यह भी अन्तर है कि वाचस्पति ने पूरी तरह से जम चुका था। और वे अवैदिक नही, किन्तु दर्शनों पर पृथक-पृथक ग्रंथ लिखे किन्तु हरिभद्र ने एक वैदिक दर्शन में शामिल कर लिए गये थे। इस प्रकार ही ग्रन्थ में छहो दर्शनों का परिचय दिया। यह भी ध्यान ईसा को प्रारम्भ की शताब्दियो मे न्यायवैशेषिक, साख्य- देने की बात है कि वाचस्पति के दर्शनों मे चार्वाक दर्शन योग, मीमांसा-ये दर्शन वैदिको मे पृथक्-पृथक् रूप से का समर्थन नहीं है और न अन्य प्रवैदिक जैन बौद्ध का। अपना स्थान जमा चुके थे। उनके विरोध में जैन, बोद्ध जब कि हरिभद्र ने वैदिक-प्रवैदिक सभी दर्शनों का अपने पौर चार्वाक-ये तीन प्रवैदिक दर्शन भी ईसा पूर्व काल
ग्रन्थ मे समावेश परिचय के लिए कर लिया है। प्राचार्य से वैदिक दार्शनिको के लिए समस्या रूप बने हुए थे।
हरिभद्र ने बौद्ध नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और मीमासो मे कर्म और ज्ञान के प्राधान्य को लेकर दो भेद
जैमिनीय इन छह दर्शनों का समावेश षड्दर्शनसमुच्चय हो गये थे। प्रतएव वैदिको मे षट्तर्क या षड्दर्शन की से स्थापना हो गयी थी जिसमें न्याय-वैशेषिक, साख्य योग पूर्व और उत्तर मीमासा-ये प्राधान्य रखते थे।
____ दार्शनिको में प्रथम तो यह प्रवृत्ति शुरू हुई कि प्रस्तुत प्रथ मे षडदर्शनो का विवरण है किन्तु दर्शनो अपने विरोधी मतो का निराकरण करना । किन्तु प्रागे की छह सख्या और उस छह सख्या में भी किन-किन चलकर वैदिकों में यह प्रवृत्ति भी देखी जाती है कि सच्चे दर्शनों का समावेश है-इस विषय मे ऐकमत्य नहीं
अर्थ मे वेद के अनुयायी केवल वे स्वयं है और उनका दीखता । वैदिक दर्शनो के अनुयायी जब छह दर्शनो की
दर्शन वेद का अनुयायी है, अन्य दर्शन वेद की दुहाई तो चर्चा करते है तब वे छह दर्शनो मे केवल वैदिक दर्शनो।
देते है किन्तु वस्तुतः वद और उसके मत से उनका कोई का ही समावेश करते है। किन्तु प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चय
सम्बन्ध नही । जब स्वयं वैदिक दर्शनो मे ही पारस्परिक में वैदिक-प्रवैदिक सब मिला कर छह सख्या है । यह भी
ऐसा विवार हो तब अवैदिक दर्शनो का तो ये वैदिक ध्यान देने की बात है कि दर्शनों को छह गिनने की प्रक्रिया
दर्शन तिरस्कार ही करे यह स्वाभाविक है । इस भूमिका भी ईसवी सन् के प्रारम्भ की कई शताब्दियों के बाद ही
मे हम देखते है कि न्यायमजरीकार जयन्त केवल वैदिक शुरू हुई है। वाचस्पति मिश्र ने एक वैशेषिकदर्शन को
दर्शनो को ही तर्क मे या न्याय में समाविष्ट करते है छोड कर न्याय, मीमासा-पूर्व और उत्तर, साख्य और
और बौद्धादि अन्य दर्शनो का बहिष्कार घोषित करते है।' योग-इन पाँचो की व्याख्या की। इससे यह तो पता
यह प्रवृत्ति उनके पहले के 'कुमारिल में भी स्पष्ट रूप स लगता है कि उनके समय तक छहो वैदिक दर्शन प्रति
विद्यमान है। और 'शकराचार्य भी उसका अनुवार पण ष्ठित हो नके नशेषिक दर्शन पर पथक लिखना करते है । विशेषता यह कि वे साख्य-योग-बौद्ध, वैशपिक, इसलिए जरूरी नही समझा कि उन दर्शन के तत्त्वों का जैन और न्या पदर्शन को तथा शैव और वैष्णव दर्शनो को विवेचन न्याय मे हो ही जाता है। वाचम्पति एक अपवाद भी बंद विरोधी मानते है । रूप वैदिक लेखक है । इनके पहले किसी एक वैदिक लखक ने तत्तदर्शनो के ग्रथो का समर्थन तत्तत्दर्शनोकी मान्यता
१. न्यायमंजरी पृ० ४। के अनुसार नहीं किया केवल वाचस्पति ने यह नया मार्ग २. तन्ववातिक १, ३, ४ । हिस्ट्री प्रॉफ धर्मशास्त्र भाग अपनाया और जिस दर्शन पर लिखने बैठे तो उसी दशन ५, पृ०६२६ मे उद्धरण है। अन्य उद्धरण उसी में. के होकर लिखा । प्राचार्य हरिभद्र और वाचस्पति में यह पृ० १००६, १२६२ मे है । अन्तर है कि वाचस्पति ने टोकाकार के रूप में या ३. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २,१,१२,१.३; २, १. स्वतंत्र रूप से विरोधी दर्शन का निराकरण करके तत् ३२, १, ११-१२; २, २, १.४४
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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
. सांख्य-योग, म्याय-वैशेषिक ये दर्शन अपनी प्रारम्भिक विचार शिष्यों और जिज्ञास के समक्ष रख रहे थे। उन अवस्था मे बैदिक थे नहीं किन्तु उनकी व्याख्या और विचारो की व्यवस्था थी नहीं। भगवान बुद्ध और भगवान् व्यवस्था जैसे-जैसे होने लगी वे अपने को वैदिक दर्शनो म महावीर के बाद यह स्पष्ट हमा कि वैदिक और पवैविक शामिल करने लगे और अपने प्रागमरूप से वेद को स्थान ऐसी दो धाराएं मख्य है। प्रवैदिक में भी गोशालक प्रादि देने लगे। एक ही वेद परस्पर विरोधी दर्शन का मूल कैसे कई विचारक थे उनमें से बौद्ध, जैन और चार्वाक पागे हो सकता है-इस विचार के विकास के साथ ही ये दर्शन चलकर स्वतन्त्र दर्शनरूप से स्थिर हुए। वैदिकों में भी एक-दूसरे को अवैदिक घोषित करने लगे थे। मौर केवल कई शाखाएँ स्पष्ट हुई। और साख्य-योग, ग्याय-वैशेषिक अपने को ही वैदिक दर्शन गिनने लगे थे। किन्तु वेद की पौर मीमांसा (कर्ममीमांसा, शानमीमांसा मथवा पूर्वमी-- नाना व्याख्याए हुई है और हो सकती है-इस विचार के मांसा और उत्तरमीमासा) प्रादि दर्शन स्थिर हुए। इनमें विकास के साथ ये ही दर्शन अन्य दर्शनों को भी वैदिक से सांख्य योग और न्याय-वैशेषिक प्रारम्भ में भवैदिकदर्शन मानने लगे थे-ऐसा भी हम कह सकते है। इस दर्शन थे किन्तु बाद में वैदिक हो गये। विचार के मूल मे बौद्धो के अनेक दर्शनों की उपस्थिति भी। एक कारण हो सकता है। क्योंकि बौद्ध दर्शनों के विविध
वस्तुत: देखा जाय तो विविध दर्शन एक तत्त्व को भेद हुए। उसके बाद ही परस्पर विरोधी होकर भी वे
अनेक रूप से निरूपित करते थे। अतएव जैसा भी तत्त्व वैदिक दर्शन है ऐसे विचार की भूमिका वैदिको में हम ।
हो किन्तु उसके निरूपण के ये अनेक दृष्टिबिन्दु थे-यह देखते है। और वैदिक दर्शनो की गिनती भी इस भूमिका ।
स्पष्ट है। किन्तु ये दार्शनिक अपने ही मत को दृढ करने के बाद देखते है । वैदिक दर्शन छह हैं--इस बात का
मे लगे हए थे और अन्य मतों के निराकरण में तत्पर थे। उल्लेख जयन्त में हम पाते है किन्तु उनके पूर्व भी पटतर्क
अत: उन दार्शनिकों से यह प्राशा नहीं की जा सकती थी या षडदर्शन की प्रसिद्धि हो चुकी थी। आगे चलकर बौद्धों
कि अनक दृष्टियों से एक ही तत्त्व का निरूपण करें। के दर्शन भेद के विषय में बौद्ध टीकाकार ने यह स्पष्टो
नैयायिका दि सभी दर्शन वस्तु तत्त्व की एक निश्चित प्ररूकरण करना शुरू किया कि ये दर्शन भेद अधिकारी भेद से
पणा लेकर चले थे और उसी मोर उनका प्राग्रह होने से है । स्वय बुद्ध के उपदेश को लेकर जब ये विविध विरोधी तत्-तत् दर्शन की मृष्टि हो गयी थी। तत्-तत् दर्शन के व्याख्याएं होने लगी तो प्रश्न होना स्वाभाविक ही था कि उस परिष्कृत रूप से बाहर जाना उनके लिए सम्भव नहीं एक ही भगवान बुद्ध परस्पर विरोधी बातों का उपदेश था। कैसे दे सकते है ? इसके उत्तर मे यह भी कहना शुरू जैन दार्शनिकों के विषय मे ऐसी बात नहीं है। वे तो हा कि ये उपदेश अधिकारी भेद से भिन्न थे अनाव इन दार्गनिक विवाद के क्षेत्र में नैयायिकादि सभी दर्शनों के उद्देशो मे विरोधी नही । अनाव बौद्धो के दर्शनभेदो मे परिष्कार के बाद अर्थात तीसरी शती के बाद पाए । भी परस्पर विरोध नही। किन्तु अधिकार भेद से ही उन अतएव वे अपना मार्ग निश्चित करने मे स्वतन्त्र थे . पोर दर्शनो की प्रवृत्ति हुई है ऐसा समझना चाहिए। दर्शन भेद उनके लिए यह भी सुविधा थी कि जैनागम प्रन्थों में वस्तुका यही स्पष्टीकरण परस्पर विरोधी वैदिक दर्शनों के विचार नयो के द्वारा अर्थात् अनेक दृष्टियों से हम्रा था। विषय में भी होने लगा-यह हम सर्वदर्शनसग्रह जैसे ग्रथों जैन प्रागमों में मुख्यरूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और से जान सकते है।
भाव इन चार दृष्टियों से तथा द्रव्याथिक और पर्याषड्दर्शनसमुच्चय को रचनाभूमिका
याथिक नयों के द्वारा विचारणा करने की पद्धति वेद से लेकर उपनिषदों तक भारतीय चिन्तनधाग अपनायी गयी है । इसके अलावा व्यवहार और उन्मवत रूप से बह रही थी। प्रन्क प्राश्रमो और प्रति- निश्चय इन दो नयों से भी विचारणा देखी जाती पठानों में अनेक ऋषि मुनि और चिन्तक अपने अपने है। इन पागम ग्रन्थो की ज़ब व्याख्या होने लगी तब सात
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१९६, वर्ष २३, कि०४
मनैकान्त
नयों का सिद्धान्त विकसित हुप्रा । यही समय है जबसे एक ही वस्तु को अनेक दृष्टिय से देखा जा सकता है प्रतलेकर जैनदार्शनिक भारतीय दर्शन क्षेत्र में जो वाद विवाद एव इनमें विरोध को प्रवकाश नहीं है । जैसे एक ही वस्तु चल रहा था उसमें क्रम से शामिल होते गए। परिणाम नाना प्रकार के ज्ञानों से अनेक रूप देखी जा सकती है वैसे स्वरूप विविध मतों के बीच अपने मत का सामंजस्य कैसा ही नाना मयों से उसे अनेक प्रकार से जाना जा सकता है और कैसा होना चाहिए-इस विषय की पोर उनकी है-उसमे कोई विरोध नहीं।' दृष्टि गयी। यह तो स्पष्ट हो गया कि वे जब द्रव्यार्थिक स्पष्ट है कि विविध नयों के द्वारा किया गया दर्शन दृष्टि से वस्तुविचार करते हैं तब वस्तु को नित्य मानने एक ही मत के अनुयायी द्वारा-प्रर्थात् जैनधर्म के अनुवाले दार्शनिकों से उनका ऐकमत्य होता है और जब यायो द्वारा नाना प्रकार के प्रध्यवसाय-निर्णय हैं । उनका पर्यायदृष्टि से विचार करते हैं तब वस्तु को प्रनित्य मानने सम्बन्ध परवादी के मतों से नहीं है-ऐसा स्पष्ट अभिप्राय वाले बौद्धों से ऐकमत्य होता है। प्रतएव इस बात को प्राचार्य उमास्वाति का है। किन्तु चिन्तनशील व्यक्ति को लेकर वे दर्शनों के अन्य विचारों से भी परिचित होने की प्राचार्य उमास्वातिके हम उत्तरसे सन्तोष हो नहीं सकता। पावश्यकता को महसस करने लगे और अन्य दर्शनों से क्योंकि दार्शनिक वाद विवाद के क्षेत्र में परस्पर ऐसे कई जैनदर्शन का किन-किन बातों में मतैक्ग और विभेद है - विरोधी मत वह देखना है और उनका साम्य जनों के द्वारा इसकी तलाश में प्रवृत्त हए। उस प्रवृत्ति के फलस्वरूप विविध रूप से किये गये निर्णयों के साथ भी वह देखता जन प्राचार्यों में अपने नय सिद्धान्त का पुनरवेक्षण करना है, तब नयों का नेतर मतों से सामंजस्य या संयोजन जरूरी हो गया तथा अन्य मतों का सही-सही ज्ञान भी बिठाने का प्रयत्न वह न करे यह हो नहीं सकता। इसी पावश्यक हो गया। इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति प्रक्रिया में से प्रथम तो सर्वदर्शनों का अभ्यास बढाने की नयसिद्धान्त की समयानुकूल व्याख्या करके की गयी और भोर जैनाचार्य प्रवृत्त हुए। और उसके फलस्वरूप नय मौर अन्य दर्शनों के विषय में सही ज्ञान देने बाले प्रकरण लिख जनेतर विविध मतों का किस प्रकार का सम्बन्ध हो सकता कर और अन्य दर्शनों का नयसिद्धान्त से सम्बन्ध जोडकर है इस विचारणा की प्रक्रिया शुरू हुई। भी की गयी। इसी प्रवृत्ति के फल प्राचार्य हरिभद्र के इस विचारणा में अग्रसर प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवासिमुच्चय मे हम विभिन्न हुए ऐसा जान पडता है। विक्रम चौथी-पांचवीं शती में रूप में देखते हैं । इन दोनों ग्रन्थों की अपनी-अपनी क्या होने वाले प्राचार्य सिद्धसेन ने ३२ द्वात्रिशिकाएं लिखी हैं विशेषता है यह हम प्रागे कहेगे। किन्तु उसकी पूर्वभूमिका उनमें से ८वी में जल्पकथा, ७वी में वाद, हवी मे वेदवाद, किस प्रकार बनी यह प्रथम बताना जरूरी है। प्रतएव १२वी में न्यायदर्शन, १३वीं में सांख्यदर्शन, १४वीं में वैशेइसी की चर्चा यहाँ की जाती है।
षिकदर्शन, १५वीं में बौद्धदर्शन, १०वीं में योगविद्या, नयों के विषय में सर्वप्रथम प्राचार्य उमास्वाति ने १६वीं में नियतिवाद प्रादि जैनेतर दर्शनों की चर्चा की है। प्रश्न उठाया है कि एक ही वस्तु का विविध रूप से निरू. और सन्मतितर्क में नय और नयाभास सुनय-दुनय का भी पण करने वाले ये नय क्या तन्त्रान्तरीय मत हैं या अपने स्पष्टीकरण करके नयों में नयी विचारणा का सूत्रपात कर ही मत में प्रश्न कर्तामो ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार दिया है । द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दोनों नय अपने कृछ मतभेद खड़े किए है ? उत्तर दिया है कि न तो ये दृष्टिबिन्दु से विचार करें यह ठीक है किन्तु अपनी मर्यादा नय तन्त्रान्तरीय मत हैं और न ये अपने ही मत के लोगों से बाहर जाकर ऐसा माग्रह रखे कि वस्तु का यही एक ने मतभेद खड़े किए हैं। किन्तु एक ही वस्तु के जानने के रूप है तो प्रत्येक मिथ्यादृष्टि होंगे (१.१३), किन्त यदि नाना तरीके हैं। पुनः प्रश्न किया कि तो फिर एक ही दोनों नय अपने विषय का विभाग करके चलें तो दोनों वस्तु के विषय में नाना प्रकार के निरूपण करने बाले नयों एकान्त मिलकर अनेकान्त बन जाता है (१,१४)। प्रत्येक में पस्पर विरोध क्यों नहीं ? उत्तर में स्पष्ट किया है कि १. तत्त्वार्थभाष्य-१,३५।
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षड्वर्शन समुच्चय का नया संस्करण
१८७
नय दुर्नय बन जाता है यदि अपनी दृष्टि का ही प्रग्रह हो मतो का सग्रह विक्रम पांचवी शती के पूर्वार्ध में भाचार्य (१,१५)। सभी नय मिथ्यादृष्टि होते हैं यदि वे स्वरूप मल्लवादी ने अपने नयचक्र मे कर दिया है। मल्लवादी के साथ ही प्रतिबद्ध हैं किन्तु यदि वे परस्पर की अपेक्षा का यह ग्रन्थ अपने कालकी अद्वितीय कृति कही जा सकती रखते हैं तो सम्यक् हो जाते हैं (१,२१), दोनों नय माने है। वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थ और मतों का परिचय जाय तब ही संसार-मोक्षकी व्यवस्था बन सकती है अन्यथा केवल इस नयचक्र से इसलिए मिलता है कि प्राचार्य मल्लनही (१,१७,२०) । प्राचार्य सिद्धसेन ने अपने इस मत की वादी ने अपने काल तक विकसित एक भी प्रधान मत को पुष्टि के लिए सुन्दर उदाहरण दिया है। उसका निर्देश भी छोडा नहीं। प्रतएव अपने-अपने मत को प्रदर्शित करने जरूरी है। उन्होंने कहा है कि कितने ही मूल्यवान् वैडूयं वाले तत्-तत् दर्शनो के ग्रन्थो की अपेक्षा सर्वसंग्राहक यह मादि मणि हों किन्तु जब तक वे पृथक्-पृथक् है 'रत्नालि' ग्रन्थ षड्दर्शन समुच्चय जैसे ग्रन्थों की पूर्वभूमिका रूप बन के नाम से वंचित ही रहेगे । उसी प्रकार अपने-अपने मतो जाता है। नयचक्र की रचना की जो विशेषता है वह के विषय में ये नय कितने ही सुनिश्चित हो किन्तु जबतक उसके नाम से ही सूचित हो जाती है। नयों का अर्थात् वे अन्य-अन्य पक्षों से निरपेक्ष हैं वे 'सम्यग्दर्शन' नाम से तत्कालीन नाना वादों का यह चक्र है । चक्र की कल्पना के वचित ही रहेगे। जिस प्रकार वे ही मणि जब अपने-अपने पीछे प्राचार्य का प्राशय यह है कि कोई भी मत अपनेयोग्य स्थान मे एक डोर में बंध जाते हैं तब अपने-अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना नामों को छोड़कर एक 'रत्नावलि' नामको धारण करते है, दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी उसी प्रकार ये सभी नयवाद भी सब मिलकर अपने अपने विरुद्ध मत की दलीलों से हो सकता है। स्थापना-उत्थावक्तव्य के अनुरूप वस्तुदर्शन मे योग्य स्थान प्राप्त करके पना का यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकान्तवाद 'सम्यग्दर्शन' नाम को प्राप्त कर लेते है और अपनी विशेष मे ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें तब ही संज्ञा का परित्याग करते है। (१,२२-२५)। यही अने- उनका औचित्य है, अन्यथा नहीं। इसी प्राशय को सिद्ध कान्तवाद है।
करने के लिए प्राचार्य ने क्रमशः एक-एक मत लेकर उसकी स्पष्ट है कि सन्मतिकार सिद्धसेन के मत से नयों का स्थापना की है और भन्य मत से उसका निराकरण करके सुनय मौर दुर्नय ऐसा विभाग जरूरी है। तात्पर्य इतना अन्य मत की स्थापना की गई है । तब तीसरा मत उसकी, ही है कि अन्य दर्शनों के जो मत हैं यदि वे अनेकान्तवाद भी उत्थापना करके अपनी स्थापना करता है-इस प्रकार के एक अंश रूप से हैं तब तो सुनय हैं, अन्यथा दुर्नय । अन्तिम मत जब अपनी स्थापना करता है तब प्रथम मत यहीं से नयवाद के साथ अन्य दार्शनिक मतों के संयोजन उसीका निराकरण करके अपनी स्थापना करता है-इस की प्रक्रिया शुरू हुई है। स्वयं सिद्धसेन ने इस प्रक्रिया का प्रकार चक्र का एक परिवर्त पूरा हुमा किन्तु चक्र का सूत्रपात भी इन शब्दों में कर दिया है-जितने वचनमार्ग चलना यही समाप्त नहीं होता, पूर्वोक्त प्रक्रिया का पुनराहैं उतने ही नयवाद हैं । और जितने नयवाद हैं उतने ही वर्तन होता है। परसमय परमत हैं। कपिलदर्शन द्रव्याथिक नय का अपने काल के जिन मतों का संग्रह नयचक्र में हैं ये वक्तव्य है, और शुद्धोदनतनय का वाद परिशुद्ध पर्यायाथिक हैं-अज्ञानवाद, पुरुषाद्वैत, नियतिवाद, कालवाद, स्वभावनय का वक्तव्य है। तथा उलक (वैशेषिक) मत में दोनों वाद, भाववाद, प्रकृति-पुरुषवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, नय स्वीकृत हैं फिर भी ये सभी "मिथ्यात्व' है क्योकि द्रव्य-क्रियावाद, षड्पदार्थवाद, स्याद्वाद, शब्दात, ज्ञानबादा अपने-अपने विषय को प्राधान्य देते हैं और परस्पर निर. सामान्यवाद, अपोहवाद, प्रवक्तव्यवाद, रूपादिसमुदायवाद, पेक्ष हैं । सारांश कि यदि वे अन्य मतसापेक्ष हो तब ही क्षणिकवाद, शून्यवाद-इन मुख्य वादों के अलावा गौण 'सम्यग्दर्शन' संज्ञा के योग्य है, अन्यथा नहीं (३,४७-४६)। १.इसके विशेष परिचय के लिए देखो, भागमयुग क
सिद्धसेन की इस सूचना को लेकर तत्कालीन सभी जैनदर्शन (मागरा) पृ० २६६।
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१८ वर्ष २३, कि. ४
प्रोकान्त
भी अनेकवादों की चर्चा देखी जा सकती है जैसे कि प्रत्यक्ष ही उद्दिष्ट है। इसके विपरीत शास्त्रवार्तासमुच्चय में लक्षण, सत्कार्य असत्कार्य वाद आदि ।
जैनदष्टि से विविध दर्शनों का निराकरण करके जैनदर्शन नयचक्र के नयविषयक मत का सारांश यह है कि और अन्य दर्शो में भेद मिटाना हो तो तदर्शन मे किस अंश से किया हुअा दर्शन नय है प्रतएव वही एकमात्र प्रकार का सशोधन होना जरूरी हे यह निर्दिष्ट किया है। दर्शन नहीं हो सकता। उसका विरोधी दर्शन भी है और अर्थात जनदर्शन के साथ अन्य-प्रन्य दर्शनों का समन्वय उसको भी वस्तुदर्शन में स्थान मिलना चाहिए। उन्होने
उन दर्शनों में कुछ संशोधन किया जाय तो हो सकता हैउस समय प्रचलित विविध मतो को प्रर्थात् विविध जैनेतर मोर शाग ग्राचार्य हरिभट कि मतों को ही नय माना और उन्ही के समूह को जैनदर्शन पद्धति और शास्त्रवार्ता की पद्धति मे यह मेद है कि नयया अनेकान्तवाद माना। ये ही जनेतर मत पृथक्-पृथक् चक में प्रथम एक दर्शन की स्थापना होने के बाद उसके नयाभास है और अनेकान्तवाद के चक्रमे यथास्थान सन्नि- विरोध में अन्य दर्शन खडा होता है और उसके भी विरोध हित होकर नय है।
में क्रमश अन्य दर्शन - इस प्रकार तत्काल के विविध - स्पष्ट है कि ग्राचार्य उमास्वाति की नय की समझ दर्शनों का बलाबल देखकर मल्लवादी ने एक दर्शन के और प्राचा मल्ल वादी की नय की समझ मे अन्तर है। विरोध में अन्य दर्शन खडा किया है । और दर्शनचक की उमास्वाति नयों को परमतो से पृथक ही रखना चाहते है रचना की है। कोई दर्शन सर्वथा प्रबल नही और कोई वही मल्लवादी परवादों-परमतो को ही नयचक्र में स्थान दर्शन सर्वथा निर्बल नही । यह चित्र नयचक्र मे है। तब देकर अनेकान्तवाद की स्थापना का प्रयत्न करते हैं । नय- शास्त्रवार्तासमुच्चय मे अन्य सभी दर्शन निर्वल ही है और चक्र का यह प्रयत्न उन्ही तक सीमित रहा। केवल नया
केवल जनदर्शन ही सयुक्तिक है-यही स्थापना है । दोनो भासों के वर्णन मे परमतों को स्थान दिलाने मे वे निमित्त ग्रन्थो में समग्रभाव से भारतीय दर्शनों का संग्रह है। नयअवश्य हुए। अकलक से लेकर अन्य सभी जैनाचार्यों ने चक्र मे गौण-मुख्य सभी सिद्धान्तो का और शास्त्रवार्ता मे नयाभास के दृष्टान्तरूप से विविध दर्शनो को स्थान दिया मूख्य मूख्य दर्शनो का और उनमे भी उनके मुख्य सिद्धान्तो है किन्तु नयो के वर्णन मे केवल जैनदृष्टि ही रखी है। का ही सग्रह है। उसे किसी अन्यदीय मत के साथ जोड़ा नहीं है।
जिम रूप मे प्राचार्य हरिभद्र ने दर्शनों की छह संख्या यहाँ यह भी प्रासगिक कह देना चाहिए कि विशेषा- मान्य रखी है वह उनकी ही सूझ है। सामान्य रूप से छह वश्यक के कर्ता प्राचार्य जिनभद्र नयचक्र के इस मत से दर्शनों में छह वैदिक दर्शन ही गिने जाते है किन्तु प्राचार्य सहमत है कि विविध नयों का समूह ही जननदर्शन है हरिभद्र को छह दर्शनो में जैनदर्शन और बौद्ध दर्शन भी (गा० ७२) । किन्तु उन्होने भी नयवर्णन के प्रसंग मे नय- शामिल करना था अतएव उन्होंने १ सास्य, २ योग, ३ रूप से अन्यदीय मत का निरूपण नही किया किन्तु जैन. नैयायिक, ४ वैशेषिक, ५ पूर्वमीमांसा और ६ उत्तरमीमांसा सम्मत नयों का निरूपण किया। इस अर्थ मे वे उमा- इन छह वैदिक दर्शनों के स्थान मे छह संख्या की पूर्ति इस स्वाति का अनुसरण करते है. नयचक्र का नहीं। सारांश प्रकार की-१ बौद्ध, २ नैयायिक, ३ सांख्य, ४ जैन, ५ कि इतना तो सिद्ध हुआ कि सर्वनयों का समूह ही जैन- वैशेषिक और ६ जैमिनीय । और ये ही दर्शन हैं और दर्शन या सम्यग्दर्शन हो सकता है। यही मत सिद्धसेन ने इन्हीं में सब दर्शनों का संग्रह भी हो जाता है-ऐसा भी स्पष्ट रूप से स्वीकृत किया था।
स्पष्टीकरण किया है (का० १-३) और इन छह दर्शनों षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवासिमुच्चय
को प्रास्तिकवाद की सजा दी है। (का० ७५)। प्राचार्य हरिभद्र ने ये दो ग्रन्थ लिखे। उन दोनों में यह भी निर्दिष्ट है कि कुछ के मत से नैयायिक से उनकी रचना की दृष्टि भिन्न भिन्न रही है। षड्दर्शन- वैशेषिकों के मत को भिन्न माना नहीं जाता प्रतएव उनके समुच्चय मे तो छहो दर्शनी का सामान्य परिचय करा देना मतानुसार पाँच प्रास्तिक दर्शन हुए (का० ७८) और
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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
१८४
छह संरूपा की पूर्ति वे लोकायत दर्शन को जोड़कर करते ध्यान देने की बात है कि तत्त्वसग्रह में भी प्रात्म-परीक्षा हैं। प्रताव हम यहां लोकायत दर्शन का भी निरूपण करेंगे प्रकरण में प्रौपनिषदात्मपरीक्षा-यह एक प्रवान्तर प्रक(का० ७६) । सारांश यह हुया कि प्रा० हरिभद्र ने छह रण है । वेदान्त के विषय मे उसमें कोई स्वतंत्र 'परीक्षा' प्रास्तिकदर्शन और एक नास्तिकदर्शन-लोकायत दर्शन नहीं है। तत्त्व-संग्रह के पूर्व में भी समन्तभद्राचार्य की का प्रस्तुन षड्दर्शनसमुच्चय मे निरूपण किया है। इससे प्राप्तमीमांसा मे अद्वैतवाद का निराकरण था ही। वह स्पष्ट है कि हरिभद्र ने वेदान्तदर्शन या उत्तरमीमांसा को प्राचार्य हरिभद्र ने षडदर्शन की रचना के पूर्व न देखा हो इसमें स्थान दिया नहीं। इसका कारण यह हो सकता है यह सम्भव नही लगता । अतएव षड्दर्शन मे वेदान्त को कि उस काल में अन्य दर्शनों के समान वेदान्त ने पृथक् स्वतत्र दर्शन का स्थान न देने में यही कारण हो सकता दर्शन के मप में स्थान पाया नही था। वदान्तदर्शन का है कि उस दर्शन की प्रमुख दर्शन के रूप में प्रतिष्ठा जम दर्शो में स्थान प्रा० शकर के भाष्य और उसकी टीका पायी न थी। भामती के बाद जिस प्रकार से प्रतिष्ठित हुप्रा सम्भवतः मानसंगारक अन्य ग्रन्थ उसके पूर्व उतनी प्रतिष्ठा उसकी न भी हो। यह भी कारण
प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करके अन्य हो सकता है कि गुजरात राजस्थान में उस काल तक
जैनाचार्यों में दर्शनसंग्राहक ग्रथ लिखे। और उनमें भी वेदान्त की उतनी प्रतिष्ठा न भी हो।
उन्होंने प्राचार्य हरिभद्र जैसा ही दर्शनों का परिचय मात्र शास्त्रवासिमुच्चय की रचना तत्त्वस ग्रह को समक्ष
देने का उद्देश्य रखा है। रखकर हुई है। दोनो मे अपनी अपनी दृष्टि से ज्ञातदर्शनों
प्राचार्य हरिभद्र के बाद किसी जैन मुनि ने “सर्वका निराकरण मुख्य है । शास्त्रवातासमुच्चय मे जिनदर्शनो
सिद्धान्तप्रवेशकः" ग्रन्थ लिखा था। उसकी तालपत्र मे का निराकरण है उनका दर्शनविभाग क्रम से नहीं किन्तु
वि० १२०१ मे लिखी गयी प्रति उपलब्ध है-इससे पता विषय-विभाग को लेकर है। प्रसिद्ध दर्शनो मे चार्वाकों के
चलता है कि वह राजशेखर से भी पूर्व की रचना है । भौतिकवाद का सर्वप्रथम निराकरण किया गया है सद
मुनिश्री विजय जी ने इस पुस्तिका का सम्पादन किया है नन्तर ईश्वरवाद जो न्याय-वैशेषिक समत है, प्रकृति पुरुष.
और जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से वह ई० १६६४ वाद (साख्यसंमत), क्षणिकवाद (बौद्ध), विज्ञानाद्वैत
में प्रकाशित है। इसमें क्रमश: नैयायिक, वैशेषिक, जैन, (योगाचार बौद्ध), पुनःक्षणिकवाद (बौद्ध), और शून्यवाद
साख्य, बौद्ध, मीमासा और लोकायत दर्शनों का परिचय (बौद्ध) का निराकरण किया गया है । तदनन्तर नित्या
है। प्राचार्य हरिभद्र का षड्दर्शन पद्यो मे है तब यह गद्य नित्यवाद (जैन) की स्थापना करके प्रतिवाद (वेदान्त)
मे है। वही दर्शन इसमे भी है जो प्राचार्य हरिभद्र का निराकरण किया है। तदनन्तर जैनों के मुक्तिवाद की
के षड्दर्शन में है। इस ग्रन्थ मे दर्शनों के प्रमाण प्रौर स्थापना पोर सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद (मीमांसक) और
वापसम्बन्धमानषधवाद का निराकरण है। इससे स्पष्ट प्रमेय का परिचय कराना लेखकको है कि षड्दर्शनसमुच्चय मे जिस वेदान्त को स्थान नहीं
वायडगच्छ के जीवदेवसूरि के शिष्य प्राचार्य जिनमिला था उसे शास्त्रवार्तासमुच्चय मे (का० ५३४-५५२) ६
दत्तसूरि (वि० १२६५) ने विकविलास' की रचना
___ की है (प्रकाशक, सरस्वती ग्रथमाला कार्यालय, प्रागरा, मिला है इसका कारण सम्भवतः यह है कि आचार्य हरिभद्र ने शान्तिरक्षित का तत्त्व-संग्रह देखा और उसमे से वि० १६७६) उसके अष्टम उल्लास मे 'षडदर्शन विचार
नाम का प्रकरण है-उसमे जैन, मीमासक, बौद्ध, साख्य, प्रस्तुत वाद के विषय में उन्होने जाना तब उस विषय की
शैव (नैयायिक और वंशे पिक) और नास्तिक-- इन छहों उनकी जिज्ञासा वलवती हुई और अन्य सामग्री को भी । उपलब्ध किया। तस्व-सग्रह की टीका में उस प्रोपनिष. १. इसी ग्रन्थ में से सर्वदर्शनसग्रह मे 'बौद्धदर्शन' के दिक अद्वैतावलम्बी कहा गया है (का० ३२८)। यह भी श्लोक उद्धृत है- सर्वदर्शनसग्रह पृ० ४६ (पूना)। .
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१९०, वर्ष २३ कि०४
अनेकान्त
दर्शानों का संक्षेप में परिचय दिया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ मतों को भी अधिकारी के भेद से भिन्न माने हैं । अन्य मे शैव में न्याय-वैशेषिक का समावेश है-यह ध्यान देने वैदिक मतों के विषय में भी इनका कहना है कि ये सभी योग्य है। यह भी प्राचार्य हरिभद्र के समान केवल परि. वेदान्त शास्त्र के प्रर्थ का प्रतिपादन करने के चयात्मक प्रकरण है। अन्त मे जो उपदेश दिया है वह तत्पर है - ध्यान देने योग्य है
बेबाम्तशास्त्र सिद्धान्त: संक्षेपावय कथ्यते । सन्तु शास्त्राणि सर्वाणि सरहस्यानि दूरतः ।
तवर्षप्रवणाः प्रायः सिद्धान्ताः परवादिनाम् ॥१२.१ एकमप्यक्षरं सम्यक शिक्षितं निष्फलं नहि ।।८.३११
वेदबाह्य दर्शनों को लेखक नास्तिक की उपाधि यह प्रकरण ६६ श्लोक प्रमाण है।
देता है। प्राचार्य शंकरकृत माना जानेवाला 'सर्वमिद्धान्त- "नास्तिकान वेदवाद्यास्तान् बोलोकायताहतान् । ५.१ संग्रह' अथवा सर्वदर्शन सिद्धान्तस ग्रह' मद्रास सरकार के
सायण माघवाचार्य (ई. १६००) ने 'सर्वदर्शनप्रेम से ई० १६०६ में श्री रंगाचार्य-द्वारा सम्पादित होकर
सग्रह' नामक ग्रंथ की रचना की-उसकी पद्धति नयचक्र प्रकाशित हुआ है । श्री पं० सुखलाल जी को यह प्रसिद्ध
से मिलती है । भेद यह है कि उन्होने कमश नयचक्र की अद्वैत वेदान्त के प्राद्यशंकराचार्य की कृति होने में सन्देह
तरह, पूर्व-पूर्व दर्शन का उत्तर-उत्तर दर्शन से खण्डन है (समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, पृ० ४२)। किन्तु इतना
करा कर भी अन्त में अद्वैतवेदान्त की प्रतिष्ठा की है। तो कहा ही जा सकता है कि यह कृति सर्वदर्शनसग्रह
उस अन्तिम दर्शन का खण्डन किसी दर्शन से नहीं (माधवाचार्य) से प्राचीन है। इस प्रथकार के मत से भी
कराया । जब कि नयचक्रगत अन्तिम मत का निराकरण वैदिक और अवैदिक ऐसा दर्शन विभाग है। वैदिको मे इनके
सर्वप्रथम उपस्थित मत के द्वारा किया गया है और मत से जैन, बौद्ध और बृहस्पति के मतों का समावेश
खण्डन-मण्डन का चक्र प्रवर्तित है। 'नयचक' के मत से नहीं है । इस ग्रन्थ में भी माधवाचार्य के सर्वदर्शनसग्रह
उपस्थित सभी मत सम्मिलित हो तो सम्यग्दर्शन या की तरह पूर्व-पूर्व दर्शन का उत्तर-उत्तर दर्शन के द्वारा
अनेकान्त होता है। जब कि 'सर्वदर्शनसग्रह' के मत से निराकरण है । दर्शनों का इस प्रकार निराकरण करके
अन्तिम प्रतदर्शन ही सम्यक है। सायण माधवाचार्य ने अन्त में प्रद्वैत वेदान्त की प्रतिष्ठा की गयी है । दर्शनों
क्रमशः जिन दर्शनों का निराकरण किया है और अन्त में का क्रम इस ग्रंथ में इस प्रकार है
प्रद्वैतवाद उपस्थित किया है- ये है -१. चार्वाकदर्शन, १. लोकायतिक पक्ष, २. पाहतपक्ष, ३. माध्यमिक, २. बौद्धदर्शन (चारों भेद), ३. दिगम्बर (पाहतदर्शन), ४. योगाचार, ५. सौत्रान्तिक ६. वैमाषिक, ७. वैशेषिक. ४. रामानुज, ५. पूर्णप्रज्ञदर्शन, ६. नकुलीशपाशुपनदर्शन, ८. नैयायिक, ९. प्रभाकर, १०. भट्टाचार्य, (कुमारांश= ७. माहेश्वर (शेव दर्शन), ८. प्रत्यभिज्ञादर्शन ६. कुमारिल), ११. सांख्य, १२. पतञ्जलि, १३. वेदव्यास,
रसेश्वरदर्शन, १० भोलूक्यदर्शन (वैशेषिक) ११. अक्षपा१४. वेदान्त । इन दर्शनों में से वेदव्यास के दर्शन के नाम ददर्शन (नैयायिक), १२. जैमिनिदर्शन (मीमासा), १३. से जो पक्ष उपस्थित किया गया है वह महाभारत का
पाणिनिदर्शन, १४. सांख्यदर्शन, १५. पातंजलदर्शन, १६. दर्शन है । जैनदर्शन को प्रातिपक्ष में उपस्थित किया गया शांकरदर्शन (वेदान्तशास्त्र)। है किन्तु लेखक ने भ्रमपूर्ण बातों का उल्लेख किया है। प्रस्थानभेद' के लेखक ने जिस उदारता का परिचय पता नहीं उनके समक्ष जनदर्शन का कौन-सा ग्रंथ था। दिया है वह भी इस सर्वदर्शनसंग्रह में नही । वह तो अद्वैत लेखक जैनों के मात्र दिगम्बर सम्प्रदाय से परिचित है। को ही अन्तिम सत्य मानता है। नयचक्र में सर्वदर्शनो के बौद्धों के चार पक्षों को अधिकारी भेद से स्वीकृत किया समूह को भनेकान्तवाद कहा है मौर प्रत्येक दर्शन को है। इतना ही नहीं किन्तु बृहस्पति, प्रार्हत मोर बौद्धों के एकान्त कहा है। उनके अनुसार अद्वैत मत भी एक
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षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण
१९१
एकान्त ही ठहरता है अन्तिम सत्य नहीं । जब कि 'सर्व- योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक'। दोन संग्रह के मत से अद्वैत ही अन्तिम सत्य है। बाकी इस प्रथ की विशेषता यह है कि वह इस क्रम से सब मिथ्या है। वस्तुतः नयचक्र और सर्वदर्शनसंग्रह इन दर्शनों का निरूपण करता है-वैशेषिकदर्शन का सर्वदोनों का एक ही ध्येय है और वह यह कि अपने-अपने प्रथम निरूपण है। किन्तु वैशिषकों के ही विपर्यय के दर्शन को सर्वोपरि सिद्ध करना।
निरूपण प्रसंग में ख्यातिवाद की चर्चा की गयी है-उसी माधवसरस्वती (? ई० १३५०) ने 'सर्वदर्शनकौमुदी' में सदसत्स्याति को मानने वाले जैनो का दर्शन पूर्व पक्ष में नामक ग्रंथ लिखा है जो त्रिवेन्द्रम् संस्कृत ग्रंथमाला में निरूपित है। मोर वैशेषिकों द्वारा विपरीतख्याति की ई. १९३८ में प्रकाशित है । इस ग्रंथकार ने भी वैदिक- स्थापना के लिए उसका निराकरण किया गया है। प्रतअवैदिक-इस प्रकार का दर्शनविभाग स्थिर किया है। एव जैनदर्शन का निरूपण पृथक् करने की मावश्यकता वेद को प्रमाण मानने वालों को वह शिष्ट मानता है लेखक ने मानी नही है। और वेद के प्रमाण को स्वीकार नहीं करनेवाले बोद्ध को बंशेषिक के अनन्तर नैयायिक दर्शन का निरूपण है प्रशिष्ट। माधव सरस्वती ने वैदिक और प्रदिक एस (०६३) और क्रमश: मीमांसा, सांख्य मौर योगदर्शन दो भेद दर्शनों के किये हैं। वैदिक दर्शनो मे इनके अनु- कानिरूपण सार तर्क, तंत्र और साख्य ये तीन दर्शन हैं। तर्क के दो
___ राजशेखर का 'षड्दर्शनसमुच्चय' प्राचार्य हरिभद्र के भेद है-वैशेषिक और नैयायिक । तन्त्र का विभाजन
'षड्दर्शनसमुच्चय का अनुकरण होते हुए भी सामग्री की इस प्रकार है
दृष्टि से विस्तृत है। इसमें तत्तत् दर्शनों के प्राचारों तन्त्र
पौर वेशभूषा का भी निरूपण है। इस ग्रंथ में दर्शनों का
परिचय इस क्रम से हैशब्दमीमासा अर्थमीमांसा
१जैन, २ सांख्य, ३ जैमिनीय, ४ योग, ५ वैशेषिक (व्याकरण)
और ६ सौगत । योगदर्शन का परिचय, अष्टांगयोग, जो
कि सर्वदर्शन साधारण प्राचार है, उसका परिचय देकर कर्मकाण्डविचार ज्ञानकाण्डविचार =पूर्वमीमांसा
उत्तरमीमासा
सम्पन्न किया है। तथा उक्त सभी दर्शन जीव को मानते है जब कि नास्तिक उसे भी नहीं मानते यह कहकर
चार्वाकों की दलीलों का संग्रह करके उस दर्शन का भी भट्ट प्रभाकर
परिचय अन्त में दे दिया है। ये राजशेखर वि० १४०५ सांख्यदर्शन के दो भेदों का निर्देश है-सेश्यरसांख्य में विद्यमान थे ऐसा उनके द्वारा रचित प्रबन्ध कोश की योगदर्शन और निरीश्वरसाख्य-प्रकृतिपुरुष के भेद का प्रशस्ति से ज्ञात होता है । यह षड्दर्शनसमुच्चय यशोप्रतिपादक । इस प्रकार वैदिक दर्शनों के छह भेद हैं- विजय जैन ग्रन्थमाला मे वाराणसी से वीर सं० २४३८ योग, साख्य पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक, और में प्रकाशित है। वैशेषिक ।
प्राचार्य मेरुतुंगकृत (ई. १४वी का उत्तरार्ध) 'षड्प्रवैदिकदर्शन के तीन भाग हैं-बौद्ध, चार्वाक और
२. सर्व दर्शनकौमुदी पृ०४। पाहत । तथा बौद्धदर्शन के चार भेद हैं-माध्यमिक,
३. सर्व दर्शनकौमुदी पृ० ३४ पौर पृ० १०८ । लेखक १. वेदप्रामाण्याभ्युपगन्ता शिष्टः । तदनभ्युपगन्ता बौद्धो- ने जनदर्शन का पूर्व पक्ष जो उपस्थित किया है वह ऽशिष्ट: । -पृ०३।
प्रभ्रान्त नहीं है।
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१९२, वर्ष २३, कि०४
भनेकान्त
दर्शननिर्णय' नामक ग्रथ की हस्तप्रति नं० १६६६ बाम्बे वेदबाह्य होने से पुरुषार्थ मे परम्परा से भी म्लेच्छ प्रादि ब्रांच, रायल एसियाटिक सोसायटी में विद्यमान है। उसकी प्रस्थानों की तरह उनका कोई उपयोग नहीं है। सारांश फोटो कापी लालभाई द० विद्या मन्दिर, महमदाबाद मे यह है कि उनके मत में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व है। उसकी प्रतिलिपि डॉ० नगीन शाह की है। उसे पढ़ने और उत्तर मीमांसा-इन छह प्रसिद्ध वैदिक दर्शनी के से ज्ञात होता है कि उसमे प्राचार्य मेरुतुंग ने क्रमशः बौद्ध, अलावा पाशपत और वैष्णव-पाचरातो का भी वंदिक मीमांसा (वेदान्त के माय), सारूप, नैयायिक, वैशेषिक प्रास्तिक दर्शनों में समावेश है। और नास्तिक अब दिक और जैनदर्शन-इन छह दर्शनों-सम्बन्धी मीमासा की है। दर्शनों मे भी छह दर्शन उनको अभिप्रेत है। इस प्रथ में तत्तत् दरों न-सम्बन्धी खासकर दव, गुरु मार वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान धर्म के स्वरूप का निरूपण करके जैनमतानुसार उसकी
उन्होंने यह कहकर किया है कि ये सभी मुनि भ्रान्त तो समीक्षा की गयी है और अन्त में जनसमत दव-गुरु-धम का हो नहीं मकते क्योंकि वे सर्वज थे। किन्तु बाह्य विषय स्वरूप निरूपित करके, वैसा ही स्वरूप महाभारत, पुराण,
मे लगे हुए लोगों को परमपुरुषार्थ मे प्रविष्ट होना कठिन स्मृति प्रादि भी समर्थित होता है ऐसा दिखाने का प्रयत्न
होता है प्रतएव नास्तिको का निराकरण करने के लिए किया गया है। प्रा. मेरुलुग की यह रचना वि. १४४४ पौर
इन मुनियो ने प्रकार भेद किये है। लोगो ने इन मुनियो वि०१४४६ के बीच हुई है मा श्री देसाई कृत 'जैन साहि- का प्राशय समझा नही और कल्पना करने लगे कि वेद त्यनो संक्षिप्त इतिहास' (पृ. ४४२) से प्रतीत होता है। से विरोधी अर्थ में भी इन मुनियों का तात्पर्य है और
मधुसूदन सरस्वती (ई. १५४०-१६४७) द्वारा उसी का अनुसरण करने लगे है। रचित 'प्रस्थानभेद' भी सर्वदर्शनसग्राहक पंथ कहा जा पडदर्शनसमुच्चय की सोमतिलककृत 'वृत्ति के अन्त सकता है। उसमें सभी प्रधान शास्त्रों का परिगणन किया मे 'लघुषड्दर्शनसमुच्चय' के नाम से प्रज्ञातकर्तृक एक है। तदनुसार वेद के उपागो में पुराण, न्याय, मीमांसा कृति मुद्रित है उसके प्रारम्भ मे ---- और धर्मशास्त्र का संग्रह किया गया है । और उनके मना
जैन नैयायिक बौद्ध काणादं जमनीयकम् । नुसार वैशेषिक दर्शन का न्याय, वेदान्त का मीमांसा में
सांस्यं षड्दर्शनीय [च] नास्तिकीयं तु सप्तमम् ॥ तथा सांख्य पोर पातजन, पाशुपत और वैष्णव मादि
यह कारिका देकर क्रमशः उक्त दर्शनो का परिचय का धर्मशास्त्र में समावेश है। और इन सभी को उन्होंने
अति संक्षेप में दिया गया है। अन्त मे अन्य दर्शनों को 'मास्तिक' माना है।'
दुर्नयकोटि में रख कर जैन दर्शनों को 'प्रमाण बताया ग । मधुसूदन सरस्वती ने नास्तिकों के भी छह प्रस्थानों
है । इससे सिद्ध है कि इसका कर्ता कोई जैन लेखक है। का उल्लेख किया है। वे ये हैं-माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्त्रिक और वैभाषिक-ये चार सौगत प्रस्थान तथा [षड्दर्शन समुच्चय की भूमिका से साभार] चार्वाक और दिगम्बर ।' मधुसूदन का कहना है कि शास्त्रों में इन प्रस्थानों का समावेश उचित नहीं क्योंकि १. प्रस्थानभेद (पुस्तकालय स. स. मंडल, बरोडा, ४. पृ० ५। ई. १९३५) पृ०१। '
५. प्रस्थानभेद पृ० ५७। २. वही प०१। ३.पृ०५।
६. मुक्ताएाई ज्ञानमन्दिर, उभोई द्वारा प्रकाशित ।
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अनेकान्त का अगला अंक
अनेकान्त का अगला अंक संयुक्तांक होगा तथा फरवरी के अन्तिम सप्ताह में प्रकाशित होगा । कान् के तेई वर्ष के इस पूर्णांक मे महत्वपूर्ण शोध सामग्री तथा तेईसवें वर्ष के प्रकों में प्रकाशित शोध निबन्धों की प्रनुक्रमणिका भी रहेगी। चौबीसवें वर्ष के प्रथम अंक से ही अनेकान्त को अधिक उपयोगी तथा महत्वपूर्ण बनाने के विभिन्न प्रयत्न किये जा रहे हैं।
वीर-सेवा मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जो धर्मचन्द जी जन, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट
श्री साहू शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संग, कलकत्ता ५०) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, ५०० ) श्री वैजनाथ जी धर्मनन्द जी, कलकत्ता २५१ ) श्री शिखरचन्द जो झांझरी, कलकत्ता २५१) श्री रा० वा० हरखचन्द जी जैन, रांची
कलकत्ता
२५१ श्री भ्रमरचन्द जी जैन ( पहाडचा), कलकत्ता
२५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी
२५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन स्वस्तिक मेटल बन जगाधरी
"
२५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद २५०) श्री बीर जी जुगलकिशोर जो कलकत्त २५०) श्री मन्दिरदास जी जैन, कलकता २५०) श्री सिधई कुन्दनलाल जी, कटनी
२५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल कला २५०) श्री बी० धार० सी० जैन, कलकत्ता २५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचन्द्र जो, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जो चन्द्रकुमार जो, कलकत्ता
१५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकला १५०) श्री जगमोहन जो सरावगी, कलकत्ता १५०)
१५० )
१५० )
१५० )
१५०)
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१०१ )
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१०१)
,, कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता
"
"
पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता
मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता
け
3.
17
31
"
"}
31
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
वोर सेवामन्दिर २१, दरियागंज दिल्ली ।
"
सेठ चालरचन्दनो बम्बई न० २ लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली
38
39
"
सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली सेठ जगन्नाथजी पाण्डया झूमरीतलं या
सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर
33
१०१)
१०१)
१०१)
बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता
१०१) सेठ दानमल हीरालाल जी, 1. बाई (राज० ) बद्रीप्रसाद जी ग्रात्माराम ओ, पटना रुपचन्दजी जैन,
१००)
कलकत्ता
"
प्रतापमल जी मदन शाल पांड्रा, कलकला
भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता
शिखरचन्द जो सरावगी, कलकत्ता
सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता
मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर
दिगम्बर जैन समाजा, केकड़ी
"
"
१०० )
१००) जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या इन्दोर
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों मे
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्यों की सूची । संपादक मुस्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से मलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए मतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
... २-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
१-५० (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुमा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १२५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-मानार्य विद्यानन्द रचित, महत्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक मत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द ।
४.०० (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४.०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्यनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित '२५ (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ ।
१-२५ (१५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ १९ पैसे, १६ समन्तभद्र विचार-दीपिका १९ पैसे, (१७) महावीर पूजा १६ (१) अध्यात्म रहस्य-पं. पाशाघर की सुन्दर कृति मुस्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (२०) न्याय-दीपिका-मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु० ७.०० (२१) जैन साहित्य मौर इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ५-०० (२२) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १.०० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज पोर कपड़े की पक्की जिल्द ।
.... ... २००० (२३) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३००प. पस्को जिल्द ६००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
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द्वै मासिक
दिसम्बर १९७० फरवरी १९७१
अनेकात
वर्ष २३ : किरण ५-६
HAI
HERE:
....
.
सोनी जी का मन्दिर, अजमेर. दूसरा खण्ड, भीतरी दृश्य
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र
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आगामी अंक के कुछ विशेष लेख
विषय-सूची विषय
पृष्ठ १. श्रीअरिष्टनेमिजिनस्तवनम्--प्राचार्य समन्तभद्र १६३
१. जैन विद्याप्रो के अध्ययम-अनुसन्धान की प्रगति के
बढ़ते चरण । २. धनंजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य -डा० प्रा० ने० उपाध्ये १६४
२. कौशल जनपद के प्राचीन जैन ती।
| ३. जैन शिल्प मे सरस्वती की मूर्तियां । ३. भारतीय अनुमान को जैन ताकिकों की देन
४. भगवान महावीर के पच्चीस सौवे निर्माण महोत्सव -डा० दरबारीलाल कोठिया २०
की अखिल भारतीय योजनाएं। ४. अपभ्रश शब्दों का अर्थ-विचार
- डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री २१२ | वीर सेवा मन्दिर के सदस्यों को अनेकान्त भेंट : ५. कुलवलयमाला में उल्लिखित राजा अवन्ति
वीर सेवा मन्दिर के द्वारा संचालित विभिन्न साहि-प्रो. प्रेमसुमन जैन २२१ | त्यिक और सास्कृतिक प्रवृत्तियो को गति देने और उनमे ६. शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका
सक्रिय सहयोग देने के लिए आप भी इसके सदस्य बन -डा. गोकूलचन्द्र जैन २२५ | सकते है । सदस्यो को सस्थान का मुखपत्र अनेकान्त भेट ७. पाराधनासमुच्चय का रचना-स्थल
स्वरूप तथा प्रकाशित प्रस्थ निर्धारित कम मूल्य मे उप-पं० के० भुजबली शास्त्री २३४ लब्ध होते है। जिन सदस्यो का वार्षिक सदस्यता शल्क ८. तिलकमंजरी : एक प्राचीन कथा
अभी तक नही पाया है, उनसे अनुरोध है कि यथा शीघ्र -डा. वीरेन्द्र कुमार जैन २३५ | भेजने का कष्ट करे । ६. ज्ञात कवियों की कतिपय अज्ञात हिन्दी रचनाएं। डा. गंगाराम गर्ग २४०
व्याख्यानमाला १०. दक्षिण भारत से प्राप्त महावीर प्रतिमाएँ
श्रमण संस्कृति तथा जैन धर्म के विषय में जिज्ञासा -श्री मारुतिनन्दन तिवारी २४२
दिनो-दिन बढ़ रही है। इस विषय में प्रामाणिक एव ११. वत्स जनपद का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक
पर्याप्त जानकारी दी जा सके, इस उद्देश्य मे श्रमण इतिहास -डा. शशिकान्त २४६
सस्कृति तथा जैन धर्म के विभिन्न मंगो-धर्म, दर्शन. १२. जैन दर्शन में आत्मद्रव्य विचार
साहित्य, इतिहास, कला, पुरातत्त्व आदि विषयों पर एक -श्री मुक्ताप्रसाद जैनदर्शनाचार्य
व्याख्यानमाला प्रायोजित की गई है। इसके अन्तर्गत क्रमश. १३. राजस्थान सेमिनार
एक-एक विषय पर उस विषय के विशेषज्ञ एवं ख्याति ---प्रो. प्रेमसुमन, प्रकाश परिमल २५८ प्राप्त विशिष्ट विद्वानो के गवेषणापूर्ण तथा स्थायी महत्व १४. साहित्य-समीक्षा
के व्याख्यान होगे। व्याख्यानमाला का शुभारंभ ७ मार्च १. भरत और भारत
को मध्याह्न २ बजे, वीर सेवा मन्दिर में मुनि श्री विद्या२. मुसङ्गीत जैन पत्रिका ३. दिल्ली जैन डायरेक्टरी
नन्द जी महाराज के मंगल प्रवचन द्वारा होगा। -पं० बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री २६१
मयोजक : १० गोकुलचन्द्र जैन सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये
भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा. प्रेमसागर जैन
मण्डल उत्तरदायी नहीं है। ~ व्यवस्थापक अनेकान्त श्री यशपाल जैन
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया परमानन्द शास्त्री
एक किरण का मूल्य १ रुपमा २५ पैसा
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वर्ष २३ किरण ५-६
प्रभि ग्रह
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वोर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण यवत् २४६७, वि० सं० २०२७
श्रीश्ररिष्टनेमिजिनस्तवनम्
भगवानृषिः परमयोगदहन हुतकल्मषेन्धनः । ज्ञानविपुल किरणः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धकमलायतेक्षणः ॥ हरिवंशकेतुरनवद्य विनय दमतीर्थ नायकः ।
शोलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिनकुञ्ज रोऽजरः ॥
-दिसम्बर १९७० फरवरी १६७१
अर्थ - विकसित कमलदल के समान दीर्घ नेत्रों के धारक और हरिवश में ध्वजरूप हे अरिष्टनेमि जिनेन्द्र, आप भगवान् ऋषि और गोल-समुद्र हुए है; अपने परमयोग रूप शुक्ल ध्यानाग्नि से कल्मषेन्धन को भस्म किया है और ज्ञान की विपुल किरणों से सम्पूर्ण जगत अथवा लोकालोक को जानकर आप निर्दोष विनय तथा दम रूप तीर्थ के नायक हुए है, आप जरा से रहित और भव से विमुक्त हुए हैं ।
- समन्तभद्र : स्वयम्भू स्तोत्र
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धनञ्जयकृत द्विसन्धान महाकाव्य
डा. प्रा० ने० उपाध्ये
संस्कृत भाषा का अर्थ-सामर्थ्य
में कविराज ने ठीक ही कहा हैसस्कृत भाषा मे ऐसी उर्वरा सामर्थ्य है कि उसमे प्रायः प्रकरणक्येन विशेषण-विशेष्ययोः । एक उक्ति एक से अधिक अर्थों को व्यक्त करती है । सर्व- परिवृत्त्या क्वचित्तदुपमानोपमानयो॥ प्रथम एक ही शब्द, चाहे वह क्रिया हो या सज्ञा, विभिन्न क्वचित्पश्च नानाः पवचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः । अर्थ रखता है जिसका मही निश्चय सन्दर्भ के अनुसार
विधास्यते मया काव्यं श्रीरामायणभारतम् ॥ किया जा सकता है। इस प्रकार के पद सस्कृत कोशो मे, प्राप्त विवरण से पता चलता है कि जब अकबर जिन्हे अनेकार्थ या नानार्थ कोश कहा जाता है संगृहीत १५६२ ई० मे कश्मीर जाते हुए लाहौर रुके तो उनके हैं। दूसरे एक दीर्घ समस्त पद प्रक्षरो के विभिन्न प्रकार प्रामन्त्रण पर जिनचन्द्र सूरि उनकी विद्वत्सभा मे गये । से वर्गीकृत वियोजित होने पर भिन्न शब्दो और भिन्न वहां उनके शिष्य ममयसुन्दर ने उनके द्वारा बनायी गयो अर्थों को प्रकट करते है। तीसरे, एक-एक सयुक्त पद की एक कृति (पष्टलक्षार्थी ग्रन्थ ) को बादशाह के सामने विभिन्न प्रकार से व्याख्या की जा सकती है और संयो- पढा । यह अष्टलक्षी थी। उन्होने बादशाह को स्पष्ट जित शब्दो के सम्बन्ध के अनुसार उमका अर्थ बदल किया कि इसमें तीन साधारण सस्कृत शब्दों का एक जाता है।
वाक्य है-'राजानो ददते सौख्यम्' जिसकी व्याख्या पाठ __ संस्कृत कवियो के निर्माण मे यह अनिवार्य उपस्करण लाख प्रकार स की जा सकती है। यह कृति प्राप्य है तथा था कि उन्हे शब्दकोश तथा व्याकरण के मूत्र कण्ठस्थ मुद्रित और प्रकाशित हो चुकी है। (देखे भानुचन्द्रग्ति , होने चाहिए। इस प्रकार से दक्ष कवि (विदग्ध कवि) प्रस्तावना, पृष्ठ १३, सम्पा० एम० डी० देमाई, सिन्धी सस्कृत की इस प्रकृति का लाभ सहज ही ले सकता था। जैन सीरीज, सख्या १५, बम्बई १६४१) । सौ अर्थ देने यह प्रवृत्ति उतनी ही पुरानी है जितना सस्कृत का उप- वाले पद्य, जिन्हें शतार्थी कहा जाता है, के उदाहरण उपयोग । जैसे 'इन्द्रशत्रु' इस समस्त पद में स्वरचिह्न कैसे लब्ध है, उदाहरण के रूप में मोमप्रभ चरित को लिया और क्यों सही सम्बन्ध अभिव्यक्त करते है। संस्कृत के जा सकता है (ई. १९७७-७९, एम. विन्टरनित्ज, इस पक्ष ने दोहरी अर्थवत्ता या इलेष को तथा घुमावदार हिस्टरी प्रॉव इण्डियन लिटरेचर, भाग दो पृष्ठ ५७३, कथन या वक्रोक्ति को जन्म दिया जो काव्यालंकरण माने तथा एच० डी० वेलणकर, जिनरत्नकोश, पूना १९४४, जाते थे, जब मितव्ययिता और प्रभावकारी ढंग से सुबन्धु पृष्ट ३७१)। और बाण जैसे नैसगिक प्रभावशाली कवियों द्वारा उपयोग सन्धानकाव्य किये गये।
१-हेमचन्द्र (१०८६-११७२ ई०), जिनके द्याश्रय सविशेष रूप से दक्षता प्राप्त प्रतिभा तथा कतिपय काव्य सस्कृत तथा प्राकृत दोनों मे सुविदित है, ने एक कवियो के श्रमपूर्ण प्रयत्नो ने संस्कृत के इस लचीलेपन सप्तसन्धान काव्य रचा बताते है (देखे जि. को० पृष्ठ को बेहिसाब हद तक विकृत किया है जिसका परिणाम ४१६), किन्तु अभी तक यह प्रकाश मे नही पाया। इसी सधान काव्यो मे स्पष्ट संप से देखा जाता है । राघव- नाम का एक और काव्य मेघविजयगणि (१७०३ ई.) पाण्डवीय (१-३७-८, काव्यमाला, ६२, बम्बई १८९७) द्वारा लिखित है । यह नौ सों का एक सक्षिप्त काव्य है।
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धनजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य
१९५ इसके प्रत्येक श्लोक से सात अर्थ निकलते है पांच तीर्थ- उन्होंने खुलकर प्रशंसा की (१.१३)। उन्होंने उनकी करों के तथा राम और कृष्ण विषयक । यह जैन विविध तुलना धारा के मुंज (९७३-६५ ई.) से की है। उनका साहित्य शास्त्रमाला ३, बनारस १९१७ में प्रकाशित है। समय ईसा की बारहवीं शती का अन्तिम चरण माना जा २-कवि शान्तिराज कृत स्वोपज्ञ टीका सहित पंचसधान सकता है। (५) हरदत्त जिनका समय निश्चित नहीं है, काव्य उपलब्ध है । जैन मठ कारकल (सा. क.) मे ने राघव-नैषधीय की इस प्रकार की पद्य रचना की है कि इसकी दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध बतायी जाती है । अब प्रत्येक पद्य के दो अर्थ हैं-एक राम से सम्बन्धित, दूसरा तक यह प्रकाशित नहीं हुआ है (देखें, कन्नड प्रान्तीय नल से सम्बन्धित । इस प्रकार की कुछ और भी रचनाएँ ताडपत्रीय ग्रन्थ सूची, बनारस १९४८, पृष्ठ २६१)। है। (६) वेंकटाध्वरिन् कृत यादवराघवीय राम की कथा ३-चिदम्बर कृत राघव-पाण्डवीय-यादवीय (विन्ट रनित्ज कहती है, किन्तु उलटा कहने पर कृष्ण कथा कहती है। हि० इ० लि. भाग ३, पाई, पृष्ठ ८३) त्रिसन्धान काव्य (७) पार्वती रुक्मिणीय मे दो विवाहों की कहानी हैहै, प्रत्येक पद्य से तीन अर्थ निकलते है-एक रामायण एक शिव और पार्वती की तथा दूसरी कृष्ण और रुक्मिणी से सम्बन्धित, दूसरा महाभारत तथा तीसरा भागवतपुराण की (विटरनित्ज, हि० ई.लिभाग ३, प्राई, पृ०८३)। से सम्बन्धित ।
धनंजय कृत द्विसन्धान द्विसन्धान की विशेष लोकप्रियता
१-पाण्डुलिपियाँ तथा टीकाएँ-धनंजयकृत द्विद्विसन्धान पद्धति अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है और सन्धानम् (द्विसं०) द्विसन्धानकाव्य अथवा राघवपाण्डवीय उसके कुछ नमूने हमारे समक्ष है। (१) नेमिनाथचरित (रा. पा०) यदि उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन द्विसन्धान न एक साथ ऋषभ और नेमि जिन की जीवनी को व्यक्त भी माना जाए तो भी प्राचीनों में से एक अवश्य है। करने वाला एक सस्कृत द्विमन्धानकाव्य है। धार नरेश धनजय के समय तक यह (द्वि सन्धान) नाम पर्याप्त प्रचभोज के समय १०३३ में द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचार्य ने लित हो चुका होगा। इसकी पाण्डुलिपियाँ पर्याप्त मात्रा इसकी रचना की थी (देखे जि० को० पृ० २१६) । (२) मे उपलब्ध है । (जि. को० पृ० १८५, क० ता० ग्र० पृ० रामपालचरित काव्य सन्ध्याकग्नन्दि ने रचा है। इसके १२१-२) इसकी कतिपय टीकाओं का भी पता चलता है। प्रत्येक पद्य के दो अर्थ है एक नायक नाम से सम्बन्धित, १. विनयचन्द्र के प्रशिघ्य देवनन्दि के शिष्य नेमिदूसरा राज। रामपाल से सम्बन्धित, जो ग्यारहवी शताब्दी
चन्द्र कृत पदकौमुदी। मे बगाल के शासक थे (विन्टरनित्ज, हि० इ० लि० भाग
२ पुष्पसेन शिष्य कृत टीका। तीन, खण्ड १, पृ. ८२)। (३) नाभेय नेमिकाव्य (ईसवी ३. कवि देवर कृत टीका। वे रामघाट (परवादि बारहवी शती का प्रारम्भ अनुमानित) स्वोपज्ञ टीका युक्त धरट्टि के नाम से ख्यात) के पुत्र थे। यह उन्होंने अपने एक द्विसन्धान काव्य है। इसके लेखक मुनि चन्द्रसूरि के पाश्रयदाता अरलु श्रेष्ठिन् के लिए लिखी थी। कहा जाता प्रशिष्य तथा अजितदेव मूरि के शिष्य हेमचन्द्र सूरि है। है कि इस टीका का नाम राघवपाण्डवीयपरीक्षा है। कवि श्रीपाल ने, जो सिद्धराज तथा कुमारपाल राजापो के अरलु श्रेष्ठिन् कीर्ति कर्नाटक के एक बड़े व्यापारी तथा समकालीन थे, इस रचना को संशोधित किया था। इसमे जैन धर्म के प्रति तीव्र प्रास्थावान् तथा जया के पुत्र थे। ऋषभ तथा नेमि जिन के चरित्र का वर्णन है। (४) सूरि उनमें नैसर्गिक अच्छे गुण थे तथा वे कवियों के प्राश्रयया पडित नाम से ज्ञान कविराज, जिनका सही नाम दाता (संरक्षक) थे । देवर ने प्रारम्भ में अमरकीति, सिंहसम्भवतया माधव भट्ट था, कृत राघवपाण्डवीय एक द्वि- नन्दि, धर्मभूषण, श्री वर्धदेव तथा भट्टारक मुनि को नमसन्थान काव्य है। यह एक साथ रामायण तथा महाभारत स्कार किया है (जि. को० पृ० १८५ तथा क० ता००० की कथा कहता है। जयन्तीपुर के कदम्बवंशीय नरेश काम- पृ० १३१.२) । देवर की टीका की एक प्रति ताडपत्र पर देव (११८३-६७ ई०) उनके प्राश्रयदाता थे, जिनकी कन्नड़ लिपि मे जैन सिद्धान्त भवन, पारा में है, (देखें,
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१९ वर्ष २३, कि०५-६
अनेकान्त
जैन हितैषी १५, पृ० १५३-५४)।
नाममाला (भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९५०) पूर्वप्रकाशन तथा यह संस्करण
जिसे कुछ पाण्डुलिपियों में धनजय निघण्टु भी कहा गया धनंजय कृत द्विसन्धान सन् १८९५ में निर्णयसागर है, पर्यायवाची शब्दों का एक संस्कृत शब्दकोश है। इन्हीं प्रेस, बम्बई से काव्यमाला संख्या ४६ मे बद्रीनाथ की टीका के नाम से एक अनेकार्थ नाममाला भी मानी जाती है। जो कि विनयचन्द्र के प्रशिष्य तथा देवनन्दि के शिष्य नाममाला के अन्त में निम्नलिखित तीन पद्य हैनेमिचन्द्र की टीका का संक्षिप्तीकरण है, के साथ प्रका- प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । शित हुआ था। प्रस्तुत सस्करण मे विनयचन्द्र के प्रशिष्य द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम ॥२०॥ तथा देवनन्दि के शिष्य नमिचन्द्र कृत पदकोमुदी टीका कवेधनंजयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । शामिल की गयी है। प्रत्यक्ष ही काव्यमाला संस्करण में प्रमाण नाममालेति इलोकानां हि शतद्वयम् ॥२०२।। दी गयी बद्रीनाथ की टीका इस टीका पर प्राधारित है। ब्रह्माणं समुपेत्य वेबनिनवव्याजात तुषाराचलसक्ष्म रूप से तुलना करने पर पता चलता है कि बद्रीनाथ स्थानस्थावरमोश्वरं सुरनदीव्याजात्तथा केशवम् । ने कतिपय विस्तार को छोड़ दिया तथा संक्षिप्त किया प्रप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिध्वानोपदेशादहो, और अपना ध्यान मूल की व्याख्या करने में अधिक रखा। फूत्कुर्वन्ति धनंजनस्य च भिया शब्दाः समुत्पीरिताः ॥२०३।। धनंजय की कृतियां
कुछ हस्तलिखित प्रतियो मे निम्नलिखित दो लोक परम्परानुसार धनजय की तीन कृतियां मानी जाती सम्भवतया २०१प्रमाण इत्यादि के बाद प्राप्त होते है:है : (१) विषापहार स्तोत्र (२) नाममाला तथा (३) जाते जगति वाल्मीको शब्दः कविरिति स्मृतः । हिसन्धान या राघव-पाण्डवीय।
कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ।। विषापहारस्तोत्र (काव्यमाला ७, बम्बई १९२६) कवयः कवयश्चेति बहत्व दूरमागतम् । ऋषभजिन की स्तुतिरूप लिखित एक ४० पद्यो (३६ उप- विनिवृत्तं चिरादेतत् कलौ जाते धनंजये। जाति तथा अन्तिम पुष्पिताना) की धार्मिक स्तुति है। ये पद्य श्री एस० वी० बी. वीर राघवाचेरियर ने यह पूर्ण रूप से सरल शब्दावली में प्रभावकारी कल्पना अपने निबन्ध, जिसकी नीचे समीक्षा की गयी है, मे पुनऔर उपमानों में रची गयी है। अन्तिम पद्य श्लेष से रुघृत किये है। यह एक मजे की बात है कि पहला पद्य धनंजय का नामोल्लेख करता हुआ इस प्रकार है : (तीसरे पाद मे किचित् अन्तर के साथ-व्यासे जाते कवी वितरति विहिता यथाकथचिज
चेति) जल्हण ने अपनी सूक्ति मुक्तावलि (बड़ौदा १९३८) जिनविनताय मनीषितानि भक्तिः ।
में कालिदास का बताया है। इसमें दण्डिका सन्दर्भ है त्वयि नुतविषया पुनविशेषाद विशति
इसलिए यह कालिदास का बनाया नहीं हो सकता है। सुखानि यशो धनं जयं च ॥४०॥
द्विसन्धान की रचना से धनंजय की कवि-योग्यताएँ दक्षिण कर्नाटक मे मूडबिद्री के जैन मठ में इसकी प्रमाणशास्त्र में प्रकलंक तथा व्याकरण मे पूज्यपाद के एक सस्कृत टीका उपलब्ध है। (देखे, क. ता० ग्र० पृष्ठ समकक्ष सिद्ध होती है, एक वास्तविक रलत्रय, सभी १९२-३) । सम्भवतया इसका नाम इसके १४वे श्लोक के विशिष्ट तथा अप्रतिम । इन पद्यो में तनिक भी सन्देह प्रथम शब्द से पडा और इस पद्य के माथ एक अनुभुति नहा रहता कि द्विसन्धान तथा नाममाला का लेखक सम्बद्ध हो गयी कि इसका पाठ विष का नाश करता है। ही व्यक्ति है। यह स्वाभाविक है कि एक कवि जिसका इसके कुछ विचार सकेत जो कि अपनी संचेतना में पर्याप्त संस्कृत शब्दो के समुद्र पर अधिकार हो, वह दिसन्धान रूपसे परम्परागत है, प्रादिपुराण में जिनसेन न तथा सोम- काव्य सहज ही लिख सकता है। देव ने यशस्तिलक मे ग्रहण किए है (देखे प्रेमी कृत जैन धनंजय का व्यक्तिगत परिचय साहित्य और इतिहास, पृष्ठ १०६, ff बम्बई १९५६)। धनंजय ने अपने को प्रकलंक तथा पूज्यपाद के सम
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धनञ्जयकृत हिसम्मान महाकाव्य
२९७ कक्ष बताने के अतिरिक्त अन्य कोई परिचयात्मक जान- मार्तण्ड (निर्णयसागर संस्करण, बम्बई १९१२, पृष्ठ ११६, कारी नहीं दी। द्विसन्धान सर्ग १८, श्लोक १४६ जिसमे पक्ति एक बम्बई १९४१ पृष्ठ ४०२) मे द्विसन्धान का प्रत्यधिक श्लेष है, के माधार पर निम्नलिखित परिचया- उल्लेख किया है। स्मक विवरण निकाला है। धनजय वासुदेव तथा श्रीदेवी ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्ती के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था। वे दशरूपक तदविशिष्टवैदिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तिरपि प्रसिद्धरश्रुतके लेखक से भिन्न हैं।
काव्यादिवत् । तन्न प्रतिपत्तावतीन्द्रियार्थदशिना किंचित्प्रयोधनंजय तथा उनकी कृतियों के विषय में सन्दर्भ जनमित्यप्यसारम् । लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेप्यनेकार्थत्व.
पति मा प्राप्त व्यवस्थितेरन्यपरिहारेण व्याचिख्यासितार्थस्य नियमयितुमहुई है और उनकी कविता को यह वैशिष्ट्य प्राप्त हुमा
शक्तेः। न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमस्तेषामप्यनेकप्रवृत्तिहै कि वह द्विसन्धान कवि कहलाने लगे। द्विसन्धान शब्द द्विसन्धानादिवत् । या नाम दण्डि (७वी शताब्दी अनुमानित) जितना प्राचीन वादिराज ने १०२५ ई० मे लिखे अपने पार्श्वनाथतो प्रतीत होता ही है, तथा भोज के निम्नलिखित उद्धरण चरित (बन्बई, १९२६) मे धनंजय तथा एकसे अधिक स्पष्ट बताते है कि धनंजय की तरह दण्डि ने भी द्विसन्धान सन्धान में उनकी प्रवीणता का उल्लेख किया है (१२६)। प्रबन्ध रचा था, जो यद्यपि हमे उपलब्ध नही हुमा । अनेकभेवसंधाना खनम्तो हृदये मुहः।। सम्भवतया काव्यादर्श और दशकुमारचरित के अतिरिक्त बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रिया कथम् ॥ यह उनका तीसरा ग्रन्थ था।
जैसा कि के० बी० पाठक ने स्पष्ट किया है, दुर्गसिंह जैसा कि प्रार० जी० भण्डारकर (नीचे देखें ) ने (१०२५ ई० अनुमानित) ने अपने कन्नड़ पचतन्त्र (मैसूर स्पष्ट किया है कि वर्धमान (११४१-११४६ ई.) ने अपने १८९८) मे धनंजय के राघवपाण्डवीय का इन शब्दों में गुणरत्नमहोदधि पृष्ठ ४३५, ४०६ तथा ६७ एगलिंग एडी- उल्लेख किया हैशन मे धनंजय कृत द्विसन्धान के पद्य ४१६, ६।५१ तथा अनुपमकविवजं जी१८१२२ उद्धृत किए है।
येने राघवपाण्डवीय पेलदु यशोभोज (११वी शती ईसवी का मध्य) के अनुसार वनिताषीश्वरनावं द्विसन्धान उभयालकार के कारण होता है। यह तीन धनंजय वाग्वधूप्रियं केवलने ॥६॥ प्रकार का है-वाक्य, प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्य- डॉक्टर बी. एस. कुलकर्णी, घारवाड़, ने सूचित गत इलेष है, द्वितीय अनेकार्थक स्थिति है तथा तीसरा किया है कि पारा स्थित पचतन्त्र की ताडपत्रीय प्रति राघवपाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथानों को कहने मे पूर्ववर्ती कवियो का उल्लेख करने वाले ये सब पद्य वाला है। भोज ने यहाँ एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है कि नहीं है। दण्डि ने रामायण तथा भारत की कथा पर द्विसन्धान काश्य विद्वानों मे इस विषय मे मतभेद है कि एक ही नागकी रचना की थी।
___ वर्मा हुए अथवा विभिन्न समयो मे दो नागवर्मा (ECO __ "तृतीयस्य यथा दण्डिनो धनंजयस्य वा द्विसन्धान तथा ११४५ ई० अनुमानित)। उनके बताये जाने वाले प्रबन्धौ रामायणमहाभारताविनबध्नाति ।" जिल्द २, पृष्ठ इस या उस ग्रन्थों के नाम से (कर्नाटक कविचरित, ४४४ (वी० राघवन्, भोजकृत-शृगारप्रकाश, पृ० ४०६, बंगलौर, १९६१, पृ० ५३, १५४ इ०) कन्नड़ में छन्दमद्रास १९६३) हमारे लिए सर्वाधिक रुचिकर यह है कि शास्त्र पर लिखित उनके छन्दोम्बुधि ग्रंथ मे निम्नलिखित भोज ने धनजय और उनके द्विसन्धान का उल्लेख किया पद्य मिलते हैंहै । साथ-साथ दण्डि के द्विसन्धानप्रबन्ध का उल्लेख है। जितवाणं हरियंतधःकृतमयूरं तारकारातियंततिमा,
प्रभाचन्द्र (११वीं शती ईसवी) ने अपने प्रमेयकमल- शिशिरांस्पदंते सुरपप्रोच्चकोटबं
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१९८, बर्ष २३ कि० ५-६
अनेकान्त
ते तिरोभूतगुणाढ्यनब्जवनदंताविर्भडिभारतवंतात- नेमिका स्मरण किया है, उसके बाद सरस्वती की प्रशंसा धनंजयकविभबं वाग्गुफदोलनाकिगं ॥
की गयी है। दिगम्बर जैन लेखकों की यह सामान्य यहाँ पूर्व कवियो मे धनंजय का उल्लेख किया गया प्रवृत्ति है कि कथा राजा श्रेणिक के लिए गौतम द्वारा है। भार० नरसिंहाचार्य का मत है कि यह द्विसन्धान कही गयी बतायी जाती है। लेखक ने घटनाग्रो के वर्णन के रचयिता धनंजय का उल्लेख है, किन्तु एक वकट की अपेक्षा विशिष्ट वर्णनो पर अधिक बल दिया है। सुख्खय्या का मत है कि दशरूपक कार धनजय का उल्लेख अधिकाश श्लोक अलंकारयुक्त है और टीकाकार ने उनको अभिप्रेत ।
पूरी तरह प्रकित किया है । अन्तिम अध्याय (विशेष रूप जल्हण (१२५७ ई० अनुमानित) ने अपनी मूक्तिः से श्लोक संख्या ४३ से आगे) में लेखक ने अनेक शब्दामुक्तावली में राजशेखर (१०० ई० अनुमानित) के मुंह लंकारों का चित्रांकन किया है, जैसा कि भारवि, माघ से धनंजय के विषय में निम्नलिखित पद्य कहा है (गा० तथा अन्य कवियो मे समान रूपसे मिलता है, श्लोक संख्या प्रो० सी० स०, ८२, बडौदा १९३८, पृष्ठ ४६)
१४३ सर्वगत प्रत्यागत का उदाहरण है यह मानकर कि दिसन्धा। निपुणतां स तां चक्रे धनंजय ।
सों के अन्त मे दिए हुए पुष्पिकावाक्य (१, २, १६वे यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनं जयः ।। सर्गों में उपलब्ध नहीं है) लेखकके स्वय के है, यह स्पष्ट है यह लेखक के नाम का धन तथा जय रूप पृथक्करण
कि उन्होने अपना नाम धन जय, या धनजय कवि, अथवा ठीक वैसा ही है जैसा स्वयं धनजय ने अपने काव्य म
द्विसन्धान-कवि दिया है तथा अपनी कृति को द्विसन्धान किया है।
काव्य अथवा अपर नाम राधवपाण्डवीय महाकाव्य कहा जैसा कि डॉ. हीरालाल जैन ने षड्खण्डागम धवला
है । प्रत्येक सर्ग के अन्त मे अन्तिम पद्य मे श्लेष से अपना टीका सहित, जिल्द १, अमरावती १९३८, प्रस्तावना
सावना नाम धनजय दिया है जैसा कि विषापहार स्तोत्र मे । पृ०६२, वीरसेन (वही जिल्द ६, प०१४) ने इति इसका अनुकरण राजशेखर के नाम से अभिहित पद्य मे को व्याख्या मे उपयोगी एक पद्य उद्धृत किथा है। जल्हण ने कि यह ठीक वैसा ही है जैसा धनंजयकृत नाममाला का
यदि द्विसन्धान नाम रचना पद्धति को व्यक्त करता ३६वां पद्य।
है, जैसे प्रत्येक श्लोक के दो अर्थ या व्याख्या की जा
सकती है, तो दूसरा नाम राघवपाण्डवीय काव्य की धनंजय का समय
विषयवस्तु का प्राभास देता है कि यह एक साथ राम उपयुक्त संदर्भ हमे धनंजय का समय निर्धारित करने
नथा पाण्डवों की कथा कहता है। इन दोनों से सम्बद्ध में मदद करते है । अकलंक (७-८वी शती ईसवी) तथा
कथा-परम्परा भारतीय सास्कृतिक विरासत का ऐसा वीरसेन जिन्होंने ८१६ ईसवी मे धवला टीका पूर्ण की अपरिहार्य प्रग है कि कोई भी कवि जो एक साथ दो थी के मध्य मे हए । धनंजय का समय ८०० ईसवी अनु- विषय लेना चाहता है, उस ओर अभिमुख होता है विशेमानित निर्धारित किया जा सकता है। किसी भी प्रकार पतया इसलिए कि उन दोनो का वर्णन करने वाले तथा वह भोज (११वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूप से वैकल्पिक चुनाव प्रस्तुतिकरण के लिए बड़ी संख्या में उनका तथा उनके द्विसन्धान का उल्लेख किया है, से बाद
विस्तृत विवरण प्रदान करने वाले महाकाव्य उपलब्ध है। के नहीं हो सकते ।
राघवपाण्डवीय नाम पर्याप्त प्रचलित है। धनंजय के द्विसन्धानकाव्य
अतिरिक्त कविराज, श्रुतकीर्ति प्रादि कवियो ने इसे चुना धनजयकृत द्विधान मे १८ सर्ग है तथा कुल श्लोक है तथा इसी तरह के शीर्षक राघव-यादवीय, राघवसंख्या ११०५ जो कि विभिन्न छन्दो मे लिखे गये है पाण्डव-यादवीय उपलब्ध है। (सूची अन्त मे) । प्रारम्भिक मंगल पद्य मे मुनिसुव्रत या धनंजय के काव्य का प्रथम शीर्षक द्विसन्धान है मौर
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सिम्मान
धनजयकृत
राधव पाण्डवीय
। है।
दण्ड के बाद वह इस विधा के पुरस्कर्ता प्रतीत होते है रामवन्पाण्डवीय मात्र दूसरा शीर्षक है। धनंजय तथा कविराज कृत धनंजय तथा कविराज के काव्य की तुलना रुचिकर है यनंजय के काव्य का एक नाम राघवन्पाण्डवीय जो कि कविराज के काव्य का मूल शीर्षक है । धनजय के काव्य में अठारह सर्ग तथा ११०५ पद्य है, जबकि कविराज के काव्य में तेरह सर्ग तथा ६६४ पद्य है । धनंजय ने श्लेष से अपने नाम का उल्लेख किया है जबकि कविराज ने प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में अपने श्राश्रयदाता कामदेव का नामोल्लेख किया है। वास्तव में उनका काव्य कामदेवाक है । इन दोनों काव्यो की विषयवस्तु की पूर्ण तुलना एक प्रबन्ध का विषय है । साधारणतया पढने पर लगता है कि इन दोनो काव्यों में कोई बहुत बडी समानता नही है । धनंजय के वर्णन अधिक है जब कि कविराज ने श्लेष की बाध्यता के बावजूद अपनी कथा के विवरणों को सफलतापूर्वक अभिव्य किया है (देखे १-५४, ६६ प्रादि) । जहाँ तक श्लेष का सम्बन्ध है कविराज भाषा पर अधिक योग्यता तथा अधिकार व्यक्त करते है । धनजय का काव्य सर्वोच्च काव्य का प्रतीक स्मारक कहा जाता है। निःसन्देह उनका पाण्डित्य विशाल है विशेषरूप से नीतिशास्त्र का और उनके कनिपय अर्थान्तरन्यास वास्तव में गम्भीर एवं प्रभावकारी है । कविराज की शैली सहज तथा सक्षिप्त है जबकि धनजय ने प्राय: कठिन संस्कृत लिखी है, जिसे समझने के लिए प्रापः प्रयत्न की अपेक्षा होती है। उनके वर्णनो की प्रस्तुति में पर्थक दलोक बहुत कम है जब कि कवि राज की रचना में यह सामान्य बात है । जहा तक हमने देखा है इन दोनों काव्यो मे किचित् ही ऐसा होगा जिसे एक दूसरे का अनुकरण कहा जा सके ।
1
श्रुतिकीर्ति और उनका राघव पाण्डवीय एक और कवि है भूतिकति विद्य जिन्होंने गत प्रत्यागत पद्धति से राघवपाण्डवीय की रचना की, जो विद्वानों के लिए घर की वस्तु है, जैसा आश्चयं प्रौत्सुक्य कि नागचन्द्र या अभिनव पम्प ने अपने कन्नड मे लिखित रामचन्द्रचरित पुराण ( पाण्डुलिपि) या पम्परामायण
the
महाकाव्य
( १.२४ ५, बगलौर, १६२१) में लिखा है-श्राव वादिकथाश्रयप्रवणदोल्" विद्वज्जनं में च्चे विद्या के परवादिभिभूत्यक्षभ । देवेड' कविवि विद्यास्त्रदि
विद्यतीति दिव्यमुनियो विश्वातियादि ।।२४।। भतीतिविद्यति राघवपाण्डवीय विपचमत्कृतियेनिसि गतप्रत्यागतविमलकीतियं प्रकटिसि ॥२५॥
ये दो पवनगोन के एक शिलालेख सस्या ४० सी ६४ सन् १९६३ ई० मे उद्धृत है । इन श्रुतकीर्ति त्रैविद्य का उल्लेख तेरदाल के १२२३ ईसवी के एक शिलालेख में है
परवाचार समेतीतिविद्य तिरुपत्वादिप्रतिभाप्रदीपपवन जतदोषर् नेगलूदरखिलभुवनान्तरदोल ।
राजा गोंकने कोनागिरि या कोल्हापुर के मानन्दि सैद्धान्तिक के ( निम्व सामन्त गुरु ) के लिए भेजा था तथा उनके साथी कनकनन्दी तथा भूतकीति विद्य कोल्हापुर से प्राप्त ११३५ ईसवी के एक अन्य शिलालेख (एपिफिया कि जिद १९, पृष्ठ ३०, जैन शिलालेख सग्रह भाग ४, बनारस १९६४, पृष्ठ १६२-६६ ) मे श्रुतकीर्ति का उल्लेख कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के प्राचार्य रूप मे हुआ है-
दादियुतेनेय राक्षससवत्सरद कार्तिक बहुतपचमिसोमवान्दद् श्रीमूलमदेसीवगण पुस्तकगच्छद कोल्लापुरद धीरूपनारायणवस दिवाचार्यरम्प श्रीतकीति श्रीरूपनारायणवसदियाचार्य विद्यदेवर कालं कचि इत्यादि ।
नागचन्द्र ने उन्हें व्रती कहा है। उसी तरह तेरदाल शिलालेख में भी । अर्थात् ११२३ ईसवी में वे व्रती थे किन्तु ११३५ सवो मे एक पाचार्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। विद्वानों की राय में (धार नरसिंहाचार्य कर्नाटक कविचारित भाग १. १९६९, पृष्ठ १२० बंगलोर ई०) नागचन्द्र ११०० ईसवी के लगभग हुए इसका तात्पर्य यह हुआ कि श्रुतकीति का समय ११०० से ११५० ईसबी के मध्य अनुमानित किया जा सकता है। अभी तक
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२०० वर्ष २३, कि० ५-६ उनके राघव-पाण्डवीय की कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं नाम मिला । अभिनव पम्प ने श्रुतकीति विद्य का उल्लेख
राघवपाण्डवीय के लेखक के रूप में किया है। मेषचन्द्र ने के. बी. पाठक धनंजय तथा श्रतकीति की एकता समाधिशतक पर कन्नड भाषा मे पम्प के सुपुत्र के निमित्त श्रुतकीर्ति के राघवपाण्डवीय से निश्चित करने वाले प्रथम एक टीका लिखी पौर मेधचन्द्र के पुत्र (१) वीरनन्दि ने व्यक्ति थे। पार. जी. भण्डारकर ने इसे स्वीकार करने शक सं० १०७६ मे अपने प्राचारसार की रचना समाप्त मे संकोच ठीक ही व्यक्त किया है। किन्तु इस समानता की। इस उल्लेख के प्राधार पर पाठक पम्प का समय के आधार पर प्रस्तावित धनजय के समय की बात मे शक संवत् १०७६ के कुछ पूर्व का स्वीकार करते है। पर्याप्त वजन है।
तेरदाल शिलालेख, जिसमें श्रुतकीति विद्य का नाम धनजय तथा उनका द्विसन्धान या राघव-पाण्डवीय उल्लिखित है, का समय शक स. १०४॥ है। "इसमे और श्रुतकीति और उनके राघव-पाण्डवीय से भिन्न है : सर्व प्राचारसार के रचनाकाल मे इक्कीस वर्ष का अन्तर है । प्रथम क्योकि धनजय एक गृहस्थ थे जब कि श्रुतकीर्ति एक श्रुतकीति विद्य ने शक सं.१०४५ के बाद ही अपने तिन तथा बाद में एक प्राचार्य । दूसरे, न तो धनजय ही ग्रन्थ का निर्माण अवश्य कर लिया होगा।" परन्तु चूंकि न अन्य स्रोत जो श्रुतकीर्ति का उल्लेख करते है, ऐसा कवि ने अपना वास्तविक नाम रचना से सम्बद्ध नहीं प्रमाण देते है कि दोनों नाम एक ही कवि के है। तीसरे किया, राघवपाण्डवीय का लेखक अज्ञात रहा होगा, यहाँ धनंजय की नाममाला से वीरसेन (८१६ ईसवी) ने एक तक कि अपने समकालीनो को भी इस बात से परिचित पद्य उद्धृत किया है तथा उसके द्विसन्धान का विशेष रूप नही कराया । और पम्प, जो जैन और कवि के रूप मे से धनंजय के नामोल्लेख के साथ भोज ने (१०१०-६२ उससे अवश्य परिचित रहा होगा, ने उसके रचयिता के ईसवी अनुमानित) उल्लेख किया है, जब कि श्रुतकीर्ति विषय मे यह महत्त्वपूर्ण तथ्य सुरक्षित रखा। यहाँ फुटका समय ११०० से ११५० ठहरता है। अन्तत , यदि नोट में के. बी. पाठक ने लिखा है कि राघवपाण्डवीय नाम धनजय का द्विसन्धान दण्डि को समकक्षता के लिए प्रसिद्ध के दो संस्कृत काव्य उपलब्ध है एक ब्राह्मण और दूसरा है और भोज (ग्यारहवी शती का मध्य) के द्वारा उल्लेख जैन । परन्तु उपयुक्त जन संस्कृत काव्य, जिसका रचयिता किया जा सकता है तो निश्चय ही यह श्रुतकीति, जो पम्प ने श्रुतकीति विद्य को बनाया, ब्राह्मण संस्कृत काव्य ११३५ ईसवी मे प्राचार्य थे, की रचना नही हो सकती। की अपेक्षा लम्बा है। और वह धनंजय की रचना के रूप इसलिए इस एकता का कोई प्राधार नही है, और इस- में प्रसिद्ध है यहाँ पाठवे अध्याय की पुष्पिका और प्रथम लिए इस एकता के प्राधार पर धनजय का समय ११२३- अध्याय का अन्तिम पद प्रस्तुत किया गया है।" इससे ४० ईसवी निर्धारित नही किया जा सकता।
स्पष्ट है कि श्रुतकीति विद्य और धन जय एक ही व्यक्तिधनंजय के अध्येता
स्व और कृतित्व के दिग्दर्शक है। यहाँ यह उल्लेख करना धनंजय तथा उनके द्विसन्धान ने बहन पहले से ही प्रावश्यक नहीं कि धनंजय कोश के रचयिता कर्णाटक के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है। यह प्रावश्यक है दिगम्बर जैन है । कि विस्तार से उनके मन्तव्यो को यहाँ प्रस्तुत किया जाए पाठक का निष्कर्ष तथ्य संगत दिखाई नहीं देता। तथा उपयुक्त प्रमाण सामग्री के सन्दर्भ में जांचा-परखा। उनसे निर्णय में कुछ त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं । लगता है कि जाए।
वे धनजय को तो रचयिता मानते है पौर श्रुतकीति को पाठक द्वारा श्रुतकीति तथा धनंजय की एकता धनजय की उपाधि स्वीकार करते है। परन्तु द्विसन्धान
के. बी. पाठक ने इडियन एन्टीववेरी जिल्द १४, पृष्ठ काव्य में उन्होने कही भी इस श्रुतिकीति विद्य जैसी १४-२६ में ते रदाल के एक कनडी शिलालेख का सम्पादन उपाधि का उल्लेख नहीं किया है। यहाँ तक कि नामकिया है। पैतीसवी पंक्ति में उन्हें श्रुतकीति विद्य का माला में भी इसका कोई जिक्र नहीं जिसे पाठक धनंजय
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यकृत सन्मान महाकाव्य
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की रचना मानते हैं। दूसरे विच एक उपाधि है जो श्रागम, तर्क और व्याकरण में दक्षता पाने की सूचिका है परन्तु श्रुतकीर्ति इस प्रकार की कोई उपाधि नही, उसे तो अनेक जैनाचार्यों ने अपने नियमित नाम के रूप में स्वीकारा है । प्रतएव धनजय और श्रुतकीर्ति को एक मानना युक्तियुक्त नही । कविराज के समान श्रुतकीर्ति त्रैविद्य ने भी सम्भवतः राघवपाण्डवोय लिखा होगा । वह हमे उपलब्ध नही । परन्तु उसे धनजय के राघवपाण्डवीय से पृथक ही मानना होगा। क्योकि धनंजय और श्रुतकीर्ति को एक व्यक्तित्व मानने के लिए कोई प्रमाण हमारे पास नही है । तीमरे श्रुतकीर्ति दान शिलालेख और पम्प के कथनानु वार व्रती या और बाद मे कोल्हापुर मिलाने मे इन्हे प्राचार्य के रूप मे स्मरण किया है । परन्तु उपलब्ध प्रमाणो से यह हम जानते है कि नहीं । उन्होने अपनी ऐसी किसी परम्परा का भी उल्लेख नही किया और चुतकीति के राघवपाण्डवीय के सन्दर्भ मे अभिनव पम्प द्वारा प्रस्तुत वर्णन घनजय के द्विसन्धान काव्य से मेल नहीं खाता भूतकांति का राघवपाण्डवीय, गत प्रत्यागत प्रकार का है जब कि धनजय का द्विसन्धान इस प्रकार का नही. उसमे तो गतप्रत्यागत प्रकार के एक दो पद्य ही प्राप्त है । इस प्रकार, जैसा स्पष्ट है, वीरसेन नाममाला से एक पद्य उद्धृत किया है और भाज ने धनजय और द्विसन्धान का उल्लेख किया है श्रुतकीर्ति भौर धनजय एक सिद्ध नहीं होते ।
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रचयिता सिन्यान का भी रचयिता है। "काव्य का प्रत्येक पद्य र्थक है, दो प्रकार की प्रर्थ प्रस्तुति को द्विमन्धान कहा जाता है ।" उनके समक्ष काव्य की दो प्रतियाँ ( नम्बर ११४२ और ११४३) रहीं जिनमे दूसरी प्रति नेमिचन्द्र की टीका सहित है। उन्होने भी लिखा है कि वर्धमान ( सवत् १९७६- सन् १९४७ ) ने अपने गुणरत्न महोदधि (१०.५१, १८.२२, ४.६ ) मे द्विमन्धान को उद्धृत किया है ( एगलिंग सम्करण, पृष्ठ ६७, ४०६, ४३५ ) । " काव्य का सही शीर्षक है- -राघव पाण्डवीय : प्रत्येक पद्य में दो अर्थ है, प्रथम अर्थ महाभारत कथानक से सम्बद्ध है और दूसरा रामकथा को व्यक्त करता है ।" चूंकि जैनाचायों ने बाण लोक-साहित्य (Profane literature ) का अनुकरण किया है, और हम जनों के गृहस्थ थे, मुनिमेषदूत से परिचित है, यह कल्पना निश्क नहीं होगी कि
भण्डारकर द्वारा मान्य धनंजय का काल
भार. जी. भण्डारकर (रिपोर्ट आन द सचं फार मंस्ट्सि इन द बाम्बे प्रेसोदेसी ड्यूरिंग द इयरस १०४८५१०८६१००६-०७ १८६४) ने घनजय नामक एक दिगम्बर जैन के काव्य की दो प्रतियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रथम भाग के अन्तिम पद्य मे रचयिता को कवि कहा गया है । उन्होने बाद के पद्य को भी उद्धृत किया है, जिसमे कहा गया है कि "कलक की तर्कपद्धति, पूज्यपाद का व्याकरण और द्विसन्धान के कवि का काव्य ये त्रिग्न है।" उन्होने यह कह कर निष्कर्ष निकाला है कि संस्कृत कोष का
धनजय ने राघव पाण्डवीय को कथा कविराज नामक किसी ब्राह्मण कवि से ली है । कविराज का समय धाराश्रीश मुज के बाद होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने सरक्षक जयन्तीपुरा के कामदेव की तुलना मुज ( मृत्यु ९e६ में हुई) से की है। वर्तमान वा काल ११४७ है । प्रतएव भण्डारकर कविराज और धनजय को सन् ६६६ मौर ११४७ के बीच रखते है, ' धनुकरण की कल्पना को सत्य माना जाए तो कविराज को धनजय से अवस्था में बड़े होना चाहिए । भण्डारकर ने पाठक के मत पर भी विचार किया। उन्होंने लिखा है : ऐसा कोई प्रमाण नही जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रुतकीति और पनजय एक हैतु समकालीन पम्प के पुत्र के समय के यापार पर पूर्व निर्णीत समय सही बैठता है और निष्कर्ष दो व्यक्rिeat और काव्यों को पृथक् स्वीकार करने के विपरीत नहीं पहुँचता
भण्डारकर के मत की समीक्षा
आर. जी. भण्डारकर अपने मत की अभिव्यक्ति मे त्यन्त सावधान रहते है उन्होने पनजय और बुतकीर्ति को एक मानने में पूर्ण स्वीकृति व्यक्त नही की। उनका यह दृष्टिकोण सामान्य कथन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि जंनाचार्यों ने अपन कथा-साहित्य का मनु
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२०२, वर्ष २३ कि० ५-६ करण किया है, परन्तु धनंजय ने कविराज का अनुकरण तेरदाल शिलालेख में उल्लिखित श्रुतकीति से करता है। किया है, यह तथ्य किसी विशेष प्रमाण पर प्राधारित
इन कारणों से पाठक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि श्रुतहोना चाहिए। यहाँ भी भण्डारकर प्राग्रह करते हुए दिखाई नही देते, क्योकि वे कहते है, "यदि अनुकरण की
कीर्ति का ग्रन्थ शक स. १०४५ में लिखा नहीं गया जब कल्पना सही है।" यदि धनंजय ने किसी का अनुकरण
कि शक स. १०६७ पोर १०८५ के बीच वह एक प्रसिद्ध
काव्य माना जाता था। यह भी उल्लेखनीय है कि पम्प किया है तो अब यह कहा जा सकता है कि उनके समक्ष
उसे विद्वत्ता का प्राश्चर्यकारी नमूना मानता है जिससे दण्डी का द्विसन्धान रहा होगा जिनका उल्लेख एक नीचे
श्रुतकीर्ति ने सुप्रसिद्धि प्रजित की। इन कथनों से यह अनुके पद्य में किया गया है । भण्डारकर का यह निष्कर्ष सही
मान लगाया जा सकता है कि पम्प केवल एक जैन काव्य है कि कविराज मुज (९६६ ई ) के उत्तरवर्ती और धनजय
से परिचित थे और वह था सभी द्वारा प्रशसित राघव११४७ ई. के पूर्ववर्ती रहे होगे। नये तथ्यों के प्राचार
पाण्डवीय । पाठक ने यह भी देखा कि वर्धमान (वि. सं. पर यह कहा जा सकता है कि धनंजय भोज के पूर्ववर्ती
११६७ अथवा शक सं. १०६२) किस प्रकार अपने गुणहोगे और कविराज का समय बारहवी शताब्दी के अन्तिम
रत्नमहोदधि मे धनंजय के राघवपाण्डवीय का अनेक बार चरण मे नियोजित किया जा सकता है ।
उद्धरण देते है और किस प्रकार चालुक्य नृपति जगदेवमल्ल पाठक द्वारा स्वमत की पुनरुक्ति
द्वितीय (शक सं. १०६-७२ (१) का समकालीन दुर्गासिंह प्रो. मेक्समूलर के उत्तर मे के. बी. पाठक ने १९७०
यह कहता है कि धनजय राघवपाण्डवीय की रचना से मे "द जैन पोइम राघवपाण्डवीय ए रिप्लाईट प्रो. मेक्स. बृहस्पति हो गए। यह कथन श्रुतकीति के ग्रन्थ के सन्दर्भ मूलर" शीर्षक एक और शोधपत्र प्रकाशित किया ("द
में होना चाहिए जिनका समय शक स. १०४५ सिद्ध है । जर्नल प्राव द बाम्बे ब्राच प्राव द रायल एशियाटिक ऐसी कल्पना निरर्थक सिद्ध होगी कि प्रल्प समय में शक सोसाइटी जिल्द २१, पृष्ठ १, २, ३, बम्बई १९०४) स. १०४५ आर १० उन्होने अपनी पूर्व विचारधारा को प्रागे बढ़ाते हुए कहा द्वयर्थक काव्य दिगम्बर जन सम्प्रदाय के दो कविय कि तेरदाल शिलालेख के माघनन्दि सैद्धान्तिक श्रवणबेल- होंगे। यदि ऐसा होता तो श्रुतकीति का ग्रन्थ शक स. गोल के शिलालेख नम्बर ४० मे उल्लिखित किए गए है। १०६० मे विद्वत्ता की प्राश्चर्यकारी कृति के रूप में माना उन्होने यह बताया कि पम्प के पद्य श्रवणबेलगोल शिला- जाना समाप्त हो जाता। अतएव यह स्पष्ट है कि धन जय लेख में भी पाये जाते है । श्रुतकीति विद्य और देवकीति श्रुतकीर्ति का द्वितीय नाम था और उनके ग्रन्थ का रचना(मृत्यु शक स. १०८५) साथी-समकालीन होना चाहिए। काल शक स. १०४५ से १०६२ के बीच निर्धारित किया उन्होने अधोलिखित गणना सम्बन्धी तथ्य हमारे समक्ष जा सकता है। प्रस्तुत किए है
पाठक के मत की दुर्बलताएँ १. तेरदाल शिलालेख शक स. १०४५ मे श्रुतकीति विद्य का उल्लेख करता है परन्तु राघवपाण्डवीय के
___ यह स्वीकार कर लिया गया है, जैसा हमने अभी रचयिता के सन्दर्भ मे वह मौन है।
देखा, कि तेरदाल, कोल्हापुर और श्रवणबेलगोल शिला
लेखों में उल्लिखित श्रुतकीति वही हैं जिन्हे पम्प ने उद्२. अभिनव पम्प शक स. १०२७ मे श्रुतकीति विद्य
पत किया है। पम्प ने और तेरदाल शिलालेख (शक स. के काव्य का उल्लेख करता है।
१०४५-११२३ ई.) ने उन्हें व्रती कहा है। परन्तु कोल्हा३. श्रवणबेलगोल शिलालेख (नं. ४०, शक स. पुर शिलालेख में उन्हें ११३५ ई. के प्राचार्य के रूप में १०८५) अभिनव पम्प के पद्यों को श्रुतकीति विद्य के उल्लिखित किया गया है। पम्प ने राघव-पाण्डवीय को पद्य रूप मे उल्लेख करता है और श्रुतकीर्ति की पहचान उनसे सम्बन्धित माना है। विद्वानों के बीच उसे माश्चर्य.
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धनजयकृत सिम्बान महाकाव्य
जनक इसलिए नहीं स्वीकार किया गया था कि वह दूधथंक काव्य है बल्कि इसलिए कि वह गत प्रत्यागत प्रकार का था । पाठक ने कुछ तथ्यहीन तर्क प्रस्तुत किये हैं, परन्तु उन्होंने 'धनंजय का दूसरा नाम श्रुतकीर्ति है' यह सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। अतएव वह स्वीकार्य नहीं। यह उक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भोज धनंजय और उनके द्विसन्धान से परिचित था । वह धौर उनका ग्रन्थ स्पष्टतः श्रुतकीर्ति और उनके राघवपाण्डवीय से भिन्न है, परन्तु राघवपाण्डवीय प्रकाश में नहीं माया है। हाँ, कविराज कृत राघवपाण्डवीय प्रवण्य प्रसिद्ध है, पर इन दोनों से वह भिन्न है ।
धनंजय पर राघवाचारियर के विचार
एस. ई. व्ही. वीर राघवाचारियर का निघण्टुक घनंजय का काल (The date of Nighantuka Dhananjaya ) शीर्षक एक लेख जर्नल भाव द मान्ध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी, भाग २, नंबर २, पृष्ठ १८१.८४, राजमुद्री, १६२७ मे प्रकाशित हुआ था। उनका उद्देश्य द्विसन्धान महाकाव्य अथवा राघव पाण्डवीय भौर धनंजय निघट प्रथवा नाममाला के रचयिता धनंजय का काल निर्णय करना था ।
राधव
सुबन्धु और बाण मे श्लेष काव्य रचने का एक विशेष गुण प्रसिद्ध है. परन्तु उनमें कोई भी इयर्थी कवि नहीं अर्थात् किसी ने भी ऐसा काव्य नहीं रखा जो दो कथायों अथवा सिद्धान्तों को लिए हुए समानान्तर रूप से समूचे काव्य में दो व्याख्यानों को उपस्थित कर सके। पाण्डवीय के रचयिता कविराज (६५०-७२५ ई.) द्वद्यर्थी प्रबन्ध लिखने मे पूर्ण दक्ष है । निघंटुक धनंजय, जो द्विसन्धान काव्य के समकक्ष हैं, भी उनके इस गुण की पुष्टि करता है । दशरूपककार घनंजय से वे भिन्न हैं। निघंटुक धनंजय राजशेखर (८८० - ९२० ई.) से पूर्ववर्ती और जैन (श्रीदेवी और वासुदेव के पुत्र, देखिए द्विसन्धान काव्य १८, १४६ ) है जब कि ब्राह्मण कुलीन (विष्णु के पुत्र भौर मुंज का दरबारी कवि ) दशरूपककार धनंजय राजशेखर का उत्तरवर्ती है । 'प्रमाणमकलंकस्य' पद्य के अतिरिक्त दो अन्य प्रधोलिखित पद्य ( निघंटु २.४६-५०) मी उद्धृत
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मिलते है ( नाममाला के ज्ञानपीठ संस्करण में धनुपलब्ध)--- जाते जगति वाल्मीको शब्दः कविरति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति वण्डिनि ॥ कवयः कवयदचेति बहुत्वं दूरमागतम् । विनिवृतं चिरावेतत्कली जाते धनंजये ॥
इन श्लोकों से वीर राघवाचारियर ने पह अनुमान लगाया है कि दंडी (६०० ई. के बाद नहीं) और धनंजय के बीच पर्याप्त प्रन्तर रहा है।" यह अन्तर ६०० र ८०० ई. के मध्य रखा जा सकता है ।
कविराज वामन ( वीं शती) की काव्यालंकार वृति में उल्लिखित हैं। उनका समय सुबन्धु और बाणभट्ट (५००-६५० ई.) के बाद ठहरता है जिनका उल्लेख कविराज ने वक्रोक्ति में दक्ष कवि के रूप में किया है । द्विसन्धान कलापूर्ण है और ऐसा होने पर यदि कविराज धनंजय अथवा उनके सिन्बान से परिचित होता तं निश्चय ही वे उन्हें भी यहाँ ( राघवपाण्डवीय, १.४१ ) सम्मिलित कर लेते। धनजय का द्विसन्धान काव्यत्व प्रदर्शन की भव्यता लिए हुए है। वह कविराज के राघवपांडवीय से किसी भी प्रकार हीन नहीं, सम्भवत: ( अथवा निश्चित ही) उच्च श्रेणी का ही बैठे । धनजय ने पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख नहीं किया, मतएव कविराज का उल्लेख नहीं किया होगा, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि संजय कविराज अथवा उनके काव्य से अपरिचित रहे हों। इसका कारण उपेक्षा अथवा समय का अन्तराल हो सकता है । श्रतएव कविराज का समय ६५०-७२५ और निरंक धनंजय का समय ७५०-६०० ई. नियोजित किया जा सकता है ।
राघवाचारियर के मत की समीक्षा
राघवाचारियर जब कभी निषेधात्मक प्रमाणों का उपयोग करते है। यह उल्लेखनीय है कि जल्हण (१२५७ ई.) ने राजशेखर (१०० ई.) के नाम पर धनंजय के प को उद्धृत किया है। इसके बाद कविराज अपने राघव पांडवीय (१.१८) में स्पष्टतः घार (६७३-६५ ई.) के मुंज का उल्लेख करते है धौर अपने श्राश्रयदाता कदम्ब वंशीय कामराज (१.१३) के विषय में पर्याप्त कहते है ।
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२०४, वर्ष २३, कि० ५-६
यह समझ मे नहीं भाता कि वीर राघवाचारियर ने इन तथ्यों की उपेक्षा क्यों की । कविराज का कालनिर्णय करने के लिए उनका समय प्राधार रूप में स्वीकार नही किया जा सकता ।
प्रकान्स
वेंकट सुध्विय का खण्डन और विचार
वेंकट मुब्बिय 'दी पाच सावदी राघवपांडवीय एण्ड गद्यचिन्तामणि' नामक शोधपत्र (जनंन माफ व बी.डी. एस. सीरीज म्यू सीरीज १ व २ १९२७ पृ. १३४ ) मे ३, पाठक के निष्कर्ष का विरोध करते है : (१) तेरदाल शिलालेख के श्रुतकीति राघवीय के कर्ता के रूप मे पम्प रामायण में उल्लिखित श्रुतकीर्ति से प्रभिन्न होना चाहिए। (२) श्रुतकीर्ति कवि का मूल नाम था और धनंजय मात्र संक्षिप्त नाम था, और ( ३ ) वह तथ्य अभिनव पम्प जानते थे जिन्होंने उनका उल्लेख उनके वास्तविक नाम रामायण से किया है ।
वी.
सुव्विय के अनुसार अभिनव पम्प की रामायण का रचनाकाल ११०० ई. के बाद और १०४२ ई. के पूर्व नहीं हो सकता । श्रतएव श्रुतकीर्ति का राघवपांडवीय १०४३ ई. के पूर्व लिखा गया होगा। उन्होने धार. सिंहाचार्य के मन का उल्लेख किया है कि "त कीर्ति की रचना का वर्णन जो पम्प की रामायण में किया गया है, गत प्रत्यागत काव्य प्रकार का है, अर्थात् ऐसा काव्य जिसके एक ओर पढने से रामकथा और दूसरी ओर पढ़ने से पाडुकथा निकलती है, यह धनजय के द्विसन्धान काव्य मे लाइ नहीं होता। यहाँ यद्यपि एक ही पक्ष मे राम और पाडु की कथा शब्द चमत्कृति दिखाते हुए कही गयी है, फिर भी उसे गतप्रत्यागत काव्य नहीं कहा जा सकता; अतएव धनजय का राघवपाडवीय व श्रुतकीर्ति का रामपाडवीय अभिन्न नहीं और इसलिए धनजय मौर अतकीति एक नहीं कहे जा सकते।
बादिराज द्वारा पावर्तनाथ परिस (समाप्तिकाल बुधबार, २७ दिसम्बर १०२५ ई.) मेति पूर्वकवि सुब्बिय के अनुसार वादिराज के पूर्ववर्ती रहे होंगे । प्रत एवं अधिक सम्भावित यही है कि रामपाडवीय के श्वयिता धनजय वादिराज के पूर्ववर्ती थे । श्रवणबेलगोल
शिलालेख नं. ५४ (६७) मे प्राप्त प्राचार्य परम्परा में मतिसागर के पश्चात् हेमसेन (६८५ ई ) का नाम धाता है । इन्ही का दूसरा नाम विद्याधनजय भी था । "प्रतएव यह कहना प्रत्युक्ति नहीं होगी कि हेमसेन राघवपांडवीय अथवा द्विसन्धान काव्य के कर्ता है और यह काव्य ६६०१००० ई. मे लिखा गया है ।"
श्रुतकीर्ति का काव्य प्रकाश में नहीं आया। वह निश्चित ही संस्कृत में लिखा गया होगा तेरदार पौर । गोल शिलालेख के कति ११२२ ई. मे मान थे और उनका राघवपाडवीय नही लिखा गया ।
१०६० ई. के पूर्व
अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्रुतकीर्ति वही नही जिनका उल्लेख शिलालेख में आया हुआ है, क्योकि वे भिन्न-भिन्न परम्पराम्रो से सम्बद्ध है । "इन दोनो श्रुतकीर्ति नामक आचार्यों ने राघवपाडवीय की रचनाएँ की और वे गतप्रत्यागत प्रकार के पद्यो में थी, यह कल्पना तथ्यसंगत नही । अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। कि उक्त दोनो श्रुतकीर्तियों में कोई एक श्रुतकीर्ति ग्रन्थ के रचयिता थे और इन श्रुतकीर्ति की प्रशंसा में भी पम्प रा यण मे अथवा श्रवणबेलगोल शिलालेख में इन पद्यो का उपयोग किया है ताकि द्वितीय श्रुतकीर्ति भिन्न सिद्ध हो
I
मके । और चूकि अभिनव पम्प जैसे उच्चकोटि के कवि के सन्दर्भ मे यह सोचना व्यर्थ है कि उन्होंने अन्य कवियो द्वारा निर्मित पद्यो को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित किया होगा, अतः यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गतप्रत्यागत प्रकार का राघवपाडवीय पम्प रामायण मे उल्लिखित श्रुतकीति द्वारा रचा गया था न कि उक्त शिलालेख मेति श्रुतकीति द्वारा।"
धनजय और चुतकीर्ति के राघवपाडवीय भिन्न-भिन्न ग्रन्थ है, और उसमे कोई एक पूर्ववर्ती होगे परन्तु मुझे लगता है कि गतप्रत्यागत राघवपाडवीय द्विसन्धान की अपेक्षा अधिक कठिन है और इसलिए उत्तरवर्ती काव्य पहले लिखा गया और श्रुतकीर्ति ने अपना ग्रन्थ धनजय के अनुकरण पर बाद मे लिखा । यदि यह विचार तथ्ययुक्त माना जाये तो श्रुतकीति निश्चित रूप से धनजय के उत्तर.
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धनञ्जयकृत हिसम्मान महाकाव्य
वर्ती होंगे और उन्होंने अपना ग्रन्थ १००० १०२५ ई. में धन जय से पृथक् कर देता है। प्रथवा यदि धनजय को लिखा होगा।
अर्जुन रूप में स्वीकारा जाए तो हेम सेन विद्या धनंजय पाठक के मत की विस्तृत समीक्षा करने के बाद माने जा सकते है । प्रतएव उनकी यह पहचान और तिथि वेंकट सुन्विय कविराज और उनके राघवपाडवीय के ६५०-१००० ई. स्वीकार नहीं की जा सकती। सन्दर्भ मे इन निष्कर्षों पर पहुँचे : कविराज का प्राश्रय- धनंजय पर साहित्यिक इतिहासकार दाता कदम्बवशीय कामदेव द्वितीय है। कविराज धनंजय के उत्तरवर्ती है, और उनका गधवपाडवीय १२३६ पौर
पाठक, भडारकर व अन्य विद्वानो के अध्ययन से यह १३०७ ई. के बीच लिखा गया है न कि ११८२-६७ ई.
पता चलता है कि साहित्यिक इतिहासकारो ने धनंजय के बीच जमा कि पाठक ने मुझाया है।
और उन के द्विसन्धान के विषय में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत
की है । एम. विन्टरनित्ज (भा. सा. इ., भाग ३; जर्मन वेंकट सुन्विय के निष्कर्षों को समीक्षा
संस्करण, पृ. :५, लिपजिग, १९२२, अंगरेजी अनुवाद वेकट सुध्विय का यह विचार स्वीकार्य है कि श्रत- पृ. ८२-३, वाराणसी १६६३) यह स्वीकार करते है कि कीति और उनका राघवपाडवीय धनजय और उनके धनंजय ने ११२३-११४० ई. के बीच अपनी उपाधि श्रुतराघवपाडवीय से भिन्न है। परन्तु उनका यह निष्कर्ष कि कीति के नाम पर ग्रन्थ लिखा। उन्होने कदम्बवंशीय तेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेख में उल्लिखित श्रुत- कामदेव (११८२-६७) के दरबारी कवि कविराज से कीति अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्र तकीति से भिन्न उन्हे पूर्ववर्ती माना। वामन की काव्यालकार वृत्ति (४. होगे, सदिग्ध सम्भावित और भ्रमित प्रमाणो पर प्राधा. १.१०) मे उल्लिखित कविराज से वे भिन्न है। ए. बी. रित है। उन्होने जो कहा वह सही हो सकता है परन्तु कीथ (ए हिस्ट्री आफ सस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ १३७, जैन प्राचार्य इतने सकीर्ण विचारधारा के नही रहे कि ___ अाक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९४८) ने कहा है कि उन्होने सघ, गण, गच्छ और बलि से बाह्य साहित्यकारो दिगम्बर जैन लेखक धनजय, जिन्हें शायद श्रुतकीर्ति कहा को सम्मान न दिया हो। वादिराज ने अपने काव्य में जाना था, ने ११२३ प्रौर ११४० के बीच अपना ग्रन्थ अपने पूर्ववर्ती लेखक और प्राचार्यों का उल्लेख किया है। लिखा। इसके बाद कविराज का नाम पाता है जिनका वे प्राचार्य और लेखक वादिराज के पारम्परिक पूर्ववर्ती वास्तविक नाम कदाचित् माधव भट्ट था और जिनके हो, यह आवश्यक नही । धनजय वादिराज के पारम्परिक प्राश्रयदाता कदम्बवशीय राजा कामदेव (११८२-६७) प्राचार्य थे और हेमसेन व धनंजय एक थे, यह स्वीकार थे । एम. कृष्णमाचारी (हिस्ट्री ग्राफ क्लासिकल सस्कृत नही किया जा सकता। यह एक अन्य पहचान वैसी ही
लिटरेचर, पृ. १६६, १८७, फु. मद्रास, १९३७) धनंजय प्राधारहीन और प्रमाण रहित है जैसी कि पाठक की
को नवी-दसवी शती में रखते है और कविराज को १२वीं कल्पना जिसकी वेंकट सुध्विय ने कट पालोचना की है। शती के उत्तराध में । अन्य प्रमाणो मे नाममाला (वाराप्रथम, धनजय गृहस्थ थे। उन्होंने मुनि अवस्था का कोई णसी, १९५०) की प्रस्तावना नाथूराम प्रेमी का जैन वर्णन नही किया और न प्राचार्य परम्परा का। अतः वे साहित्य और इतिहास पृष्ठ १०८, बम्बई १९५६, बही. वादिराज के निकट पूर्ववर्ती होगे, यह स्वीकार नही किया गैरोला का संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ. ३५०-५१, जा सकता। द्वितीय, घनंजय ने अपने किसी भी ग्रन्थ में वाराणसी, १६६० भी देखा जा सकता है। अपना दूसरा नाम हेमसेन सूचित नहीं किया, और अन्तिम धनंजय का द्विसन्धान महाकाव्य संस्कृत साहित्य में यदि विद्या-धनजय नाम उपयुक्त माना जाये (क्योकि उसे उपलब्ध द्विसन्धान काव्यों में सर्वाधिक पुराना मोर महत्वविद्याधनंजयपद विशद दधानो' भी पढ़ा जा सकता है) पूर्ण काव्य है। वह रामायण और महाभारत की कथा तो 'विद्या' शब्द ही हेमसेन को किसी अन्य पूर्ववर्ती को समानान्तर रूप से प्रस्तुत करता है। अर्थात् प्रत्येक
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२०६, पब २३, कि० ५-६
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पद्य दो अर्थों को प्रस्तुत करता है, प्रथम अर्थ रामायण से १६ प्रमुदितवदना 13.४०.४१ सम्बद्ध है और द्वितीय पर्थ महाभारत से । वह संस्कृत १७ प्रहर्षिणी 5.६५, 8.६,८,२६, 9.५२: 14.१-२४; भाषा के विविष अर्थशक्ति का सुन्दर निदर्शन है । उसकी १८ मत्तमयूर 3.३६; 8१४,१६; 10.३७-३८; 13.१. संस्कृत व्याख्या सहित सम्पादित एक सुन्दर संस्करण की
२८,३६, 14.२६, पावश्यकता थी। भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रो. खुशालचन्द्र १६ मन्दाक्रान्ता 13.४३; 14.३०; गोरावाला द्वारा सम्पादित द्विसन्धान महाकाव्य का प्रका- २० मालिनी 6.५१: 13.४२; 16.८३,८५; 17.87%B दान करके इस कमी को पूरा कर दिया है। इसके लिए २१ रथोद्धता 8.१२, 10.१.३.५७.६.११,१३,१५१७, सम्पादक और प्रकाशक दोनों धन्यवादाह हैं ।
१६,२०,२१२३ २५,२७,१६,३१,३३,३१, द्विसन्धान महाकाव्य में प्रयुक्त छन्द
४४, 17.४८,५६)
२२ वसन्ततिलका 1.५२; 2.३०; 4.५५; 6.५२; 8.६, वृत्तनाम सर्गाः (पांग्लः) इलोकाः (नागरी)
२२,५२, 10.४६, 11,३४,३८,३६१ १ अनुकूला 8.३०-३३;
12.४७,५१,५२, 14.३८-३६% 15. २ अनुष्टुभ 7.१-१४; १.१.५१, 18.१-१४४,
४६-४८.५० 16.८६-८७; 17.८६, ३ प्रपरवक्त्र 13.३७; 15.३४.४४; 18.६५-६६; ४ इन्द्रवज्रा 8.२१,२३,४१,४२,४४; 10.३६;
२३ वंशपत्रपतित 8.१६; 17.८५-८६ ५ इन्द्रवशा 17.७६;
२४ वशस्थ 1.१.५१; 6.१.४६; 10.४३; 11.३१; 13. ६ उद्गता 17.१.३६
३३,३६, 17.७१,७२,८२; ७ उपजाति 2.३१, ३३33.१.३८,४०% 5.१.६४, २५ वियोगिनी 4.१-५४; 11.३६18.३१(समचरण); 6.४७-४८; 8.१८,२५,२८,२६, ३४.४०,
17.४१.४२ ४३,४५-४७, ४६,५१,५४,५५,५७; 10. वैतालीय व वियोगिनी एकच. ३६,४०, 11.३२,३३,३५,३६, 12.४८% २६ वैश्वदेवी 2.१.२६% 8.२७% 13.३०,३२,३५, 14.२५,२७-२८,३३-३६; २७ शार्दूलविक्रीडित 7६५; 14.३६, 18.१४५-१४६) 16.१-८२% 17.४५,४६,५३,५५,५७,६०, २८ शालिनी 2.३२; 3.४१-४२, 6.४६% 8.१०,५०; ६२-६४,६८,७३,७७%
11.१-३०,४०; 12.४६% 14.३२, 17. ८ औपच्छन्दसिक 10.४१४२; 13.३१ (विषम चरण)
४७,७०,७४७५,८०,८१,६०%3 17.४६,५४,६१,७६;
२६ शिखरिणी 11.३७; 12.५०; 13.३४; 14.२६% ६ जलघरमाला 8.७,११,१३,१५,१७,
15.४६; 16.८४; 17.४०% १. जलोद्धतगति 8 २४;
३. स्वागता 5.६६; 10.२,४,६,८,१०,१२,१४,१६,१८, ११ तोटक 8.४७, ५३;
२२,२४,२६,२८,३०,३२,३४, 14.३७) १२ द्रुतविलम्बित 5.६८; 6.५०; 8.१-५,२०;
17.५०,५२,५६,५६,६७,८८, १३ पुष्पिताग्रा 2.३४; 5.६७; 13.३८ 15.१-३३० दरिणी 3.४३: 5.६६: 8.५८% 10.४५: 13.२० 17.५८,८३
15.४५; 17.६९ १४ पृथ्वी 13.४४; १५ प्रमिताक्षरा 8.५६:12.१-४६, 17.४३,४४,७८,८४;- धवला, राजरामपुरी, कोल्हापुर (महाराष्ट्र)
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भारतीय अनुमान को जैन तार्किकों को देन
डा० दरबारीलाल कोठिया
भारतीय अनुमान को जन ताकिकों को क्या देन है, अनुमान के लिए किन घटकों की प्रावश्यकता है, उन्होंने उसमें क्या अभिवृद्धि या संशोधन किया है, इस इसका प्रारम्भिक प्रतिपादन कणाद ने किया प्रतीत होता सम्बन्ध मे यहा जैन तर्क शास्त्र मे चिन्तित अनुमान एव है। उन्होने अनुमान का 'अनुमान' शब्द से निर्देश न कर उसके परिकर का ऐतिहासिक तथा समीक्षात्मक विमर्श लैङ्गिक' शब्द से किया है, जिससे ज्ञात होता है कि प्रस्तुत है।
अनुमान का मुख्य घटक लिङ्ग है । सम्भवतः इसी कारण अध्ययन से अवगत होता है कि उपनिषद् काल मे उन्होने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपों और लिङ्गाभासों का अनुमान की प्रावश्यता एव प्रयोजन पर भार दिया जाने ____ का निरूपण किया है। उसके और भी कोई घटक है, लगा था, उपनिषदो मे "प्रात्मा वारे दृष्टव्यः श्रोतव्यो इसका कणाद ने कोई उल्लेख नहीं किया। उनके भाष्य. मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः,"" मादि वाक्यो द्वारा प्रात्मा । कार प्रशस्तपाद ने अवश्य प्रतिज्ञादि पाँच प्रवयवो को के दर्शन और श्रवण के माथ मनन पर भी बल दिया गया उसका घटक प्रतिपादित किया है और उनका विवेचन है, जो उपपत्तियों (मुक्तियों) के द्वारा किया जाता था। किया है। इससे स्पष्ट है कि उस काल मे अनुमान को भी श्रुति को
तर्कशास्त्र का निबद्धरूप में स्पष्ट विकास प्रक्षपाद के तरह ज्ञान का एक साधन माना जाता था उसके बिना
न्यायसूत्र मे उपलब्ध होता है। प्रक्षपाद ने अनुमान को दर्शन अपूर्ण रहता था। यह सच है कि अनुमान का
'अनुमान' शब्द से ही उल्लेखित किया तथा उसकी कारण 'अनुमान' शब्द से व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाक्यो
सामग्री, भेदो, अवयवों और हेत्वाभासो का स्पष्ट विवेचन वाक्यम्' 'प्राप्वीक्षिकी', 'तकविद्या', 'हेतुविद्या' जैसे किया है। साथ ही अनुमान परीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, शब्दो द्वारा अधिक होता था ।
छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमान-सहायक तत्त्वो का प्राचीन जैन वाङ्मय मे ज्ञानमीमासा (ज्ञानमार्गणा)
प्रतिपादन करके अनुमान को शास्त्रार्थोपयोगी और एक के अन्तर्गत अनुमान का 'हेतुवाद' शब्द से निर्देश किया
स्तर तक पहुँचा दिया है। वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचगया है और उसे श्रुत का एक पर्याय (नामान्तर) बत- स्पति, उदयन और गङ्गश ने उसे विशेष परिष्कृत लाया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने "अभिनिबोध" नाम किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता, परामर्श जैसे तदुपयोगी से उसका उल्लेख किया है। तात्पर्य यह कि जनदर्शन में अभिनव तत्त्वों को विविक्त करके उनका विस्तृत एवं भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष (साव्यवहारिक और सक्ष्म निरूपण किया है। वस्तुतः प्रक्षपाद और उनके पारमार्थिक ज्ञान) की तरह उसे भी प्रमाण एव अर्थ- अनुवर्ती ताकिकों ने अनुमान को इतना परिष्कत किया निश्चायक माना गया है। अन्तर केवल उसम वैशद्य और कि उनका दर्शन 'न्याय (तक-अनुमान)-दर्शन' नाम से ही प्रवेशद्य का है । प्रत्यक्ष विशद है पोर अनुमान प्रविशद विश्रुत हो गया। (परोक्ष)।
प्रसंग, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीति प्रभूति बौद्ध १. बृहदारण्य० २।४।५॥
ताकिकों ने न्यायदर्शन की समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट २. श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । और नयी मान्यताओं के आधार पर अनुमान का सूक्म मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शन हेतवः ।।
मोर प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तन का
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२०५, वर्ष २३ कि. ५.६
अनेकान्त
अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र स्वीकृत प्रत्यक्ष पौर परोक्ष इन दो मूल प्रमाणों के प्रतिभारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुप्रा और अनुमान रिक्त अनुमान पृथक प्रमाण मान्य नहीं है। की विचारधारा पर्याप्त प्रागे बढ़ने के साथ मुक्ष्म से-सूक्ष्म प्रपित्ति अनुमान से पृथक नहीं-प्राभाकर पौर एवं जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध ताकिकों के भाट्ट मीमांस क अनुमान से पृथक् अर्थापत्ति नाम का स्वतत्र चिन्तन ने तर्क मे पायी कुण्ठा को हटाकर पौर सभी प्रकार प्रमाण मानते है। उनका मन्तव्य है कि जहाँ अमुक अर्थ के परिवेशों को दूर कर उन्मुक्त भाव से तत्त्वचिन्तन की प्रमक प्रर्य के बिना न होता हा उसका परिकल्पक होता क्षमता प्रदान की। फलत: सभी दर्शनो में स्वीकृत है वहाँ अर्थापत्ति प्रमाण माना जाता है। जैसे "पीनोऽयं प्रनमान पर अधिक विचार हुपा और उसे महत्त्व देवदत्तो दिवा न भुंक्ते" इस वाक्य मे उक्त 'पीनत्व' अर्थ मिला।
भोजन के बिना न होता हुमा रात्रि भोजन' की कल्पना ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु
करता है, क्योकि दिवा भोजन का निषेध है । इस प्रकार पादि सांख्यविद्वानो, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि
के अर्थ का बोध अनुमान से न होकर अर्यापत्ति से होता
की प्रभृति मीमासक चिन्तको ने भी अपने-अपन ढग स अनुः है। किन्तु जैन विचारक उसे अनुमान से भिन्न स्वीकार मान का चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन नही करने । उनका कहना है कि अनमान अन्यथा नपपन्न चिन्तकों का चिन्तन-विषय, प्रकृति, पुरुष और क्रियाकाण्ड (अविनाभावी) हेतु से उत्पन्न होता है और प्रर्थापत्ति होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तन से अछूने नही रहे। अन्यथानुपद्यमान अर्थ में। अन्यथानुपपन्न हेतु पोर श्रुति के अलावा अनुमान को भी इन्हे स्वीकार करना
अन्यथानपपद्य मान अर्थ दोनो एक है-उनमे कोई अन्तर पड़ा और उसका कम-बढ विवेचन किया है ।
नही है । अर्थात् दोनो ही व्याप्ति विशिष्ट होने से अभिन्न जैन विचारक प्रारम्भ से ही अनुमान को मानने पाये है। डा. देवराज भी यही बात प्रकट करते हुए कहते है है। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या कि 'एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तु का प्राक्षेप तभी हो 'अभिनि बोध' सज्ञा से उन्होने उसका व्यवहार किया हो। मकता है जब दोनो में व्याप्यध्यापक भाव या व्याप्ति तत्वज्ञान, स्वतत्वमिद्धि, परपक्षदूषणोद्भावन के लिए उसे सम्बन्ध हो। देवदत्त मोटा है और दिन मे खाता नहीं स्वीकार करके उन्होंने उमका पर्याप्त विवेचन किया है। है. यहाँ अर्थापत्ति द्वाग रात्रि भोजन की कल्पना की जाती उनके चिन्तन में जो विशेषताएं उपलब्ध होती है उनम है। पर वास्तव में मोटापन भोजन का प्रविनाभावी होने कुछ का उल्लेख यहाँ किया जाता है
तथा दिन में भोजन का निषेध करने से वह देवदत्त के अनुमान का परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भाव- अनुमान
रात्रिभोजन का अनुमापक है। वह अनुमान इस प्रकार प्रमाणवादी सभी भारतीय तार्किको ने अनुमान को स्वतन्त्र
है-'देववत्तः रात्रौ भुक्ते, दिवाऽभोजित्वे सात पीनत्वाप्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन नाकिको ने उसे स्वतत्र यथानुपपत्तेः।' यहाँ अन्यथानुपपत्ति से अन्ताप्ति विव. प्रमाण नही माना । प्रमाण के उन्होने मूलतः दो भद माने क्षित है, बहियाप्ति या सकलव्याप्ति नही क्योकि ये हैं-(१) प्रत्यक्ष प्रौर (२) परोक्ष। इनकी परिभाषानों दोनो व्याप्तियाँ अव्यभिचरित नही है। अतः प्रर्थापत्ति (वेशद्य और प्रवेशद्य) के अनुसार अनमान परोक्ष प्रमाण
और अनुमान दोनो व्याप्तिपूर्वक होने से एक ही हैमें अन्तर्भूत है, क्योकि वह अविशद ज्ञान है और उसके
पृथक्-पृथक प्रमाण नही। द्वारा अप्रत्यक्ष प्रर्थ की प्रतिपत्ति होती है। परोक्ष प्रमाण
अनुमान का विशिष्ट स्वरूप-न्यायसूत्रकार प्रक्षपाद का क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मृति, प्रत्य
की 'तत्पूर्वकमनुमानम्,' प्रशस्तवाद की लिङ्गदर्शनाभिज्ञान, तर्क, अर्यापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थ के परिच्छेदक प्रविशद ज्ञानों का इसी मे.
संजायमान लैङ्गिकम्' और उद्योतकर की 'लिङ्गपरामर्शोsसमावेश है। मतः वैशद्य एवं प्रवेशद्य के प्राधार पर १. पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ०७१।
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भारतीय अनुमान को जैन तालिकों की देन
नुमानम्' परिभाषात्रों में केवल अनुमान के कारण का निर्देश है, उसके स्वरूप का नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैङ्गिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' मे भी लिङ्गरूप कारण का उल्लेख है, स्वरूप का नही । दिङ्नागशिष्य शङ्करस्वामी की 'अनुमानं लिङ्गावर्थदर्शनम्' परिभाषा मे यद्यपि कारण और स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारण के रूप में लिङ्ग को सूचित किया है, लिङ्ग के ज्ञान को नहीं । तथ्य यह है कि प्रज्ञायमान घूमादि लिङ्ग पनि प्रादि के धनुमापक नहीं है। प्रत्यचा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, गृहीतव्याप्तिक है उसे हुप्रा भी पर्वत मे घूम के सद्भाव मात्र से प्रग्नि का धनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है अतः शङ्करस्वामी के उक्त अनुमान के लक्षण में 'लिंगात' के स्थान मे 'लिङ्गदर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमान लक्षण हो सकता है ।
जन तार्किक प्रकलङ्कदेव ने जो अनुमान का स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनताथो मे मुक्त है उनका लक्षण है
लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनियो लक्षणात् । लिङ्गषीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥
इसमें अनुमान के साक्षात् कारण - लिङ्गज्ञान का भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'तिङ्गिषी' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट है। अकलङ्क ने स्वरूप निर्देश में केवल 'श्री' या 'प्रतिपति' नहीं कहा, किन्तु 'लिङ्गि श्री कहा है, जिसका अर्थ है साध्य का ज्ञान; और साध्य का ज्ञान होना ही अनुमान है। व्याय प्रवेशकार शमी साध्य का स्थानापन्न 'अर्थ' का प्रवश्य निर्देश किया है । पर उन्होने कारण का निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलङ्क के इस लक्षण की एक विशेषता और भी है वह यह है कि उन्होंने 'तत्फलं हानाविबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान का फल भी निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः इन सभी बातो से उत्तरवर्ती सभी जंन ताकिको ने प्रकलङ्क की इस प्रतिष्ठित मौर पूर्ण प्रनुमान- परिभाषा को ही अपनाया। इस अनुमान लक्षण से स्पष्ट है कि वही साधन प्रथवा १. लघीयस्त्रय का० १२ ।
२०६
लिङ्ग लिङ्गि (साध्य ग्रनुमेय ) का गमक हो सकता है जिसके विनाभाव का निश्चय है। यदि उसमें मविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पाँच रूप भी विद्यमान हो जैसे 'बस मोह लेख्य है,' 'क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह इत्यादि हेतु तीन रूपों पौर पाँच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अविनाभाव के प्रभाव से सद्धेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है और इसी से वे अपने साध्यों के अनुमापक नही माने जाते । इसी प्रकार 'एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है,' 'समुद्र में वृद्धि होना चाहिए अथवा कुमुदों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्र का उदय है' प्रादि हेतुनों मे पक्षधर्मत्व न होने से न त्रिरूपता है और न पचरूपता । फिर भी श्रविनाभाव के होने से कृतिका का उदय शकटोदय का और चन्द्र का उदय समुद्रवृद्धि एवं कुमुद विकास का गमक है ।
हेतु का एक लक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूपहेतु के स्वरूप का प्रतिपादन अक्षपाद से प्रारम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धान से प्रतीत होता है। उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैध - दोनों दृष्टान्तो पर श्राधारित है ।" श्रतएव नैयायिक - चिन्तको ने उसे द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण और पचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की है कि वो साध्य प्रादि विचारकों ने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है। कुछ तार्किकों ने षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, पर जैन लेखकों ने अविनाभाव को ही हेतु का प्रधान मौर एक लक्षण स्वीकार किया है तथा रूप्य, पांचरूप्य प्रादि को श्रव्याप्त और अतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमान के स्वरूप मे प्रदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट है। इस अविनाभाव को ही प्रत्ययानुपपन्नत्व अथवा धन्ययानुपपत्ति या श्रन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकों को ही उपलब्धि है, जिसके उद्भावक प्राचार्य समन्तभद्र हैं ।'
२. उदाहरणसाधम्र्म्यात्साध्यसाधन हेतुः । तथा वैधर्म्यात् । - न्या० स० १ १ ३४, ३५ ।
३. विशेष के लिए देखें, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ३७-४१ ।
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$20, 22, fix
अनुमान का बस एकमात्र व्याप्तिस्याय, वैशेषिक, साख्य, मीमासक घोर बौद्ध- सभी ने पक्षधमंता और व्याप्ति दोनो को अनुमान का ग्रङ्ग माना है । परन्तु जैन तार्किकों ने केवल व्याप्ति को उसका प्रङ्ग बतलाया है । उनका मत है कि अनुमान में पज्ञपता बनावश्यक है। 'परिवृष्टिरभूत् प्रधोपूरान्यथानुपत्तेः' प्रादि श्रनुमानों मे हेतु पक्ष नहीं है फिर भी व्याप्ति के बल से वह गमक है । 'सश्यामस्तन्पुत्रत्वादितरसत्पुत्रवत्' इत्यादि प्रसद् अनुमानो मे हेतु पक्षधर्म है किन्तु अविनाभाव न होने से वे अनुमापक नही है । अत: जैन चिन्तक अनुमान का श्रङ्ग एकमात्र व्याप्ति ( प्रविनाभाव ) को ही स्वीकार करते है, पक्षधर्मायादि को नहीं।
पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुयों की परिकल्पना कलदेव ने कुछ ऐसे हेतुयो की परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नही माने गये थे । उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरवर मोर सहचर ये तीन हेतु है। इन्हे किसी अन्य तार्किक ने स्वीकार किया हो, यह ज्ञान नहीं किन्तु अबलक ने इनकी आवश्यकता एवं अनिखितना का स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप प्रतिपादन किया है । अतः यह उनकी देन कही जा सकती है।
प्रतिपार्थी की अपेक्षा धनुमान प्रयोग-धनुमान प्रयोग के सम्बन्ध में जहाँ धन्य भारतीय दर्शनों मे व्युत्पन्न धौर त्पन्न श्रौर प्रतिपाद्यों की विवक्षा किये बिना श्रवयवो का सामान्य कथन मिलता है । वहाँ जैन विश्वा रकों ने उक्त दो प्रकार के प्रतिपाद्यो की अपेक्षा उनका विशेष प्रतिपादन किया है। पन्नो के लिए उन्होंने पक्ष और हेतु ये दो अत्रयव श्रावश्यक बतलाये है । उन्हे दृष्टान्त आवश्यक नही है । "सर्व सण सत्त्वात् जैसे स्थानो में बौद्धोने और सर्व अभि
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यं प्रमेयत्वात्' जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानों में नयाथिको ने भी दृष्टा को स्वीकर नहीं किया। धम्पुस्यन्नो के लिए उक्त दोनो अवयवो के साथ दृष्टान्त, उपनय चौर निगमन - इन तीन अवयवो की भी जैन चिन्तको ने यथायोग्य श्रावश्यकता प्रतिपादित की है। इसे और स्पष्ट यो समझिए -
का
पिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद धौर सिद्धसेन के प्रतिपादनों से प्रवगत होता है कि प्रारभ मे प्रतिपाद्यसामान्य की अपेक्षा से पक्ष हेतु और दृष्टान्तइन तीन अवयवो से अभिप्रतार्थ (साध्य) की सिद्धि की जातो थी । पर उत्तरकाल में प्रकलङ्क का सकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्द ने प्रतिपाय कापन्न घरप व्युत्पन्न दो वर्गों में विभक्त करके उनकी धगेक्षा से पृथ अवयवों का कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, प्रमाचन्द्र देवसूरि घादि परवर्ती जैन तर्क प्रधकारी ने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नो के लिए पक्ष प्रौर हेतु — ये दो तथा अव्युत्पनो के बोघार्थ उक्त दो के अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन- ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये। भद्रबाहु ने प्रतिज्ञा, प्रतिमाशुद्धि आदि दश marater भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण दवमूरि, हेमचन्द्र और यशोविजय ने किया है।
T
व्याप्ति का ग्राहक एकमात्र तर्क — अन्य भारतीय दर्शनों में भूयोदशन, सहचारदर्शन और व्यभिनाराग्रह को व्याप्तिग्राहक माना गया है। न्यायदर्शन में वाचस्पति और सायदर्शन में विज्ञानभिक्षु इन दो ताकिको ने व्याप्तिग्रह की उपयुक्त सामग्री मे तर्क को भी सम्मिमित कर लिया है। पर स्मरण रहे, जैन परम्परा में आरम्भ से तर्क की, जिसे चिन्ता ऊहा चादि शब्द से व्यवहुत किया गया है, अनुमान की एकमात्र सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया गया है। कल ऐमे जैन तार्किक है जिन्होंने वाचस्पति और विज्ञान भिक्षु से पूर्व सर्व प्रथम तर्क को व्याप्तिग्राहक समर्पित एवं सम्बुष्ट किया तथा सबलता से उसका प्रामाण्य स्थापित किया । उनके पश्चात् सभी ने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया।
तथोपपति और प्रन्यथानुपत्ति - यद्यपि बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति और अन्तर्व्याप्ति के भेद से व्याप्ति के तीन भेदों समव्याप्ति के तीन दो समस्याप्ति और विप व्याप्ति के भेद से उसके दो प्रकारों तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति इन दो भेदो का वर्णन तर्कग्रन्थो मे उपलब्ध होता है किन्तु तथोपपत्ति और प्रन्यथानुपपत्ति इन दो व्याप्ति प्रकारो ( व्याप्ति प्रयोगों) का कथन
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भारतीय अनुमान को जन ताकिकों की देन
केवल जैन तर्कग्रन्थों में पाया जाता है। इस पर सूक्ष्म और मांख्य तो हेतु को त्रिरूप्य तथा नैयायिक पंचारूप्य ध्यान देने पर जो विशेषता ज्ञात होती है वह यह है कि स्वीकार करते है, अतः उनके प्रभाव में उनके अनुसार अनुमान एक ज्ञान है उसका उपादान कारण ज्ञान भी तीन और पांच हेत्वाभास नो युक्त है। पर सिद्धमेन का होना चाहिए । तथोपपत्ति और अन्यथानपपत्ति-ये दोनों हेत्वाभास त्रैविध्य प्रतिपादन कैसे युक्त है ? इसका समा. ज्ञानाभास है, जबकि उपयुक्त व्याप्तिया श्रेयात्मक धान मिद्धसेन स्वय करते हुए कहते है कि चूकि अन्यथा(विषयात्मक) है। दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियो नुपन्नत्व का प्रभाव तीन तरह से होता है-कही उसकी मे एक अन्ताप्ति ही ऐसी व्याप्ति है, जो हेतु को गम- प्रतीति न होने, कही उसमें सन्देह होने और कही उसका कता में प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियाँ अन्ताप्ति के बिना विपर्याप्त होने गे, प्रतीति न होने पर प्रसिद्ध, सन्देह होने मव्याप्त और प्रतिव्याप्त है, अतएव वे साधक नही है। पर प्रनैकान्तिक और विपर्यास होने पर विरुद्ध ये तीन तथा यह मन्ताप्ति हो तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति- हेत्वाभास सम्भव है। रूप है अथवा उनका विषय है। इन दोनो में से किसी
प्रकला कहते है कि यथार्थ मे हेत्वाभास एक ही है, एक का ही प्रयोग पर्याप्त है।
और वह है प्रकिञ्चित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्व के प्रभाव साध्याभास-प्रकलङ्कने अनुमानाभासों के विवेचन में होता है। वास्तव मे अनुमान का उत्थापक अविनामे पक्षाभास या पतिज्ञाभास के स्थान में साध्याभास गब्द भावी हेतु ही है, अविनाभाव (अन्यथानुपपन्नत्व) के का प्रयोग किया है । अकल के इस परिवर्तन के कारण अभाव में हेत्वाभास की सृष्टि होती है । यत. हेतु एक पर मूक्ष्म ध्यान देने पर अवगत होता है कि चूंकि साधन अन्यथानुपन्न रूप ही है, अतः उसके प्रभाव मे मूलतः एक का विषय (गम्य) माध्य होता है और साधन का अविना- ही हेत्वाभाम मान्य है और वह है अन्यथा उपपन्नत्व भाव (व्याप्ति सम्बन्य) साध्य के ही साथ होता है, पक्ष अर्थात भकिञ्चितकर । प्रसिद्धादि उसी का विस्तार है। या प्रतिज्ञा के साथ नही, अतः साधनाभाम (हेत्वाभास) इस प्रकार प्रकलङ्क के द्वारा 'अकिञ्चित्कर' नाम के नये का विषय साध्याभाम होने मे उसे ही साधनाभामो की हेत्वाभास की परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है। तरह स्वीकार करना युक्त है। विद्यानन्द ने अकलड्डू की
बालप्रयोगाभास- माणिक्यनन्दि ने प्राभासो का इम सूक्ष्म दृष्टि को परखा और उनका सयुक्तिक ममर्थन
विचार करते हुए अनुमानाभास सन्दर्भ में एक 'बालकिया । यथार्थ मे अनुमान के मुख्य प्रयोजक साबन और ।
प्रयोगाभाम' नाम के नये अनुमानाभास की चर्चा प्रस्तुत साध्य होने से साधनाभाम की भाति साध्याभाम ही विवे
की है। इस प्रयोगाभास का तात्पर्य यह है कि जिस मन्दचनाय है । प्रकलङ्कन शकम, आभप्रत आर ग्रासद्ध का प्रज को समझाने के लिए तीन अवयवो की मावश्यकता माध्य तथा अशक्य, अनगिप्रेत और सिद्ध को साध्याभास मला हो ही anil का प्रयोग करना जिसे प्रतिपादित किया है-(साध्य शक्यमाभप्रनमप्रसिद्ध तताऽ- चार की पावश्यकता है उमे तीन और जिसे पांच की परम । साध्याभास विरुद्धादि साधनाविषयत्वन ॥) ज नसेचा का योग करना अथवा विपरीत
अकिञ्चित्कर हेत्वाभास-हेत्वाभासो के विवेचन- क्रम से अवयवो ना कथन करना बाल प्रयोगाभास है और सन्दर्भ में सिद्धसेन ने कणाद और न्यायप्रवेशकार की तरह इस तरह वे चार (द्वि-अवयवप्रयोगाभास, त्रि-प्रवयव. तीन हेत्वाभामो का कथन किया है, प्रक्षपाद की भांति प्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विप.तावयव. उन्होने पांच हेत्वाभाम स्वीकार नहीं किए। प्रश्न हो प्रयोगाभास) सम्भव है। माणिक्यनन्दि से पूर्व इन। सकता है कि जैन नाकिक हेतु का एक (अविनाभाव- कथन दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रत. इसके पुरस्कर्ता अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते है, प्रतः उसके प्रभाव में माणिक्य नन्दि प्रतीत होते है। • नका हेत्वाभास एक ही होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध
[शेष पृष्ठ २२० पर]
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अपभ्रंश शब्दों का अर्थ-विचार
डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
पहले अपभ्रंश को प्राकृत से भिन्न नही समझा हए जलभरित झरने थे, और कहीं काले (चितकबरे) जाता था। प्राज भी कई विद्वान् प्राकृत शब्दकोश से नाहल-चीते थे। अपभ्रश का शब्द-भण्डार भिन्न नही मानते । किन्तु 'महापुराण" मे 'णाहल' शब्द का प्रयोग निम्नलिखित वास्तविकता यह है कि जब तक अपभ्रंश का विशाल शब्द- रूप मे हमा हैभण्डार एक शब्दकोश क रूप में सकालत तथा निणीत हाकर कत्थइमरमरियई णिज्रहं कत्था जलरियई कंबरई। सामने नही पाता तब तक अपभ्रश का वास्तविक मूल्याकन कत्थई बीणियवेल्लीहलई विट्ठह मज्जतईणाहलइं। नही हो सकता। कतिपय ऐसे शब्दो का मर्थ-विचार
१५.१.८-६ संक्षेप में प्रस्तुत है जो प्राकृत ग्रन्थो के अर्थ से भिन्न है
पन्न ह- यह भी सिन्धसर के सघन वन के वर्णन के प्रसंग मे णाहल
वणित है । घनी अटवी का वर्णन इस प्रकार हैइस शब्द का अर्थ 'पाइप्रसद्दमहण्णव' में इस प्रकार कही पर झर-झर कर झरने बह रहे थे, पौर कही लिखा हमा है--णाहल पु. (लाहल) म्लेच्छ की एक पर कन्दरामी मे जल भर गया था। कही पर बिम्बीफल जाति (पृ० ३८७)। सम्भवतः इमी अर्थ को ध्यान मे झम रहे थे। भागते हए णाहल-चीते दिखाई पड़ रहे थे। रख कर वीर कवि विरचित 'जबूसामिचरि" की कही पर पर हिरन छलांगे भर रहे थे ।...... निम्नलिखित पक्ति मे .'नाहल' का अर्थ म्लेच्छ किया इस प्रकार उक्त दोनो स्थलो पर 'नाहल' तथा गया है।
'णाहल' शब्द का प्रयोग चीते अर्थ मे हुपा है। कहि मि पज्झरियखलखलियजलवाहला कसणतणनाला। किन्त 'पाइप-मदद-महण्णव' में म्लेच्छ अर्थ-सम्भवतः
५.८. २१ प्राकृत साहित्य की किसो पहाडी जाति के लिए प्रागत -कही खल खल करके झरते हुए जल के छोटे-छोटे ।
जान पडता है। महापुराण के टिप्पण में श्री प्रभाचन्द्र प्रवाह थे, और कही वाले शरीर वाले म्लेच्छ थे।
ने 'शबर' अर्थ लिखा है। उक्त पंक्ति के टिप्पण मे प्रसगतः यह विन्ध्याटवी का वर्णन है। इस मे बत- प्रकित हैलाया गया है कि कही गिरिमेखला पर गज व क्रुद्ध सिंह णाहलई शबराः (महापुराण १५. ११. ६) गर्जन कर रहे थे। कही शस्त्रो से पाहत बाधो की चिघाड़
किन्तु यह विचारणीय है कि वन-पशुयो के वर्णन के से अटवी गूंज रही थी और कही नील गाय विदीर्ण कर ।
विदाण कर प्रसग में शबर कहा से पा गया? उक्त दोनो ही उद्धरण दी गयी थी। कही घुरघुराने हुए वनले सुपरो की दाढो से
इतने स्पष्ट एवं स्फीन है कि मरिता के तट पर सघन वन उखाडे हुए कन्द सूख रहे थे। कही हुंकारा भरते हुए की जो स्वाभाविक सुषमा होती है उसे ही प्रकट करने शक्तिशाली महिषों के मोगों से पाहत हुए वृक्ष गिर गये वाले हैं। वन-पशुमो के प्रसग मे ‘णाहल' का अर्थ व्याघ्र थे । कही लम्बी चीत्कारें छोडते हुए बन्दर दौड रहे थे। या चीता उपयुक्त प्रतीत होता है । पुष्पदन्त के महाकही घ-धू करते हुए सैकडों उल्लुओं की पावाज से रुष्ट पराण मे
स रुष्ट पुराण मे एक अन्य स्थल पर भी इसका प्रयोग मिलता हुए कौवे कांव कीव कर रहे थे। कही खल खल करते है
१. जबसामिचरिउ : सम्पा०-अनु० डॉ० विमलप्रकाश २. महापुराण : सम्पा० डॉ० पी० एल. बंद्य, माणिकजैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी।
चन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई।
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अपभ्रंश शब्दों का पर्व-विचार
२१७
रावियाई कोहलकुलई भयतसियाई रसियह रणाहलई। इसका का अर्थ किया गया है-दुष्ट बैल के द्वारा
१३.११.६ (तेलवाहक बैलों की) जोड़ी को लात मार देने से तेल प्रसग है-राजा भारत दिग्विजय के हेतु मालवा नष्ट हो गया। होते हुए दक्षिण के देशो पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित
इस अर्थ में दुष्ट बल के साथ जुड़ा हुमा दुष्ट विशेकरते हए विजयाच पर्वत के निकट पहुँच गये। वहाँ पर षण पर्थ की दष्टि से ठीक नहीं है। क्योंकि 'कल्होड' का गुफा के द्वार से दूर डेरा डाला। राजा की षडंग सेना प्रथं दुष्ट नही है। डॉ. विमलप्रकाश जैन ने अनुवाद ने वहाँ प्रावास किया। वहा के सरोवर भैसो के झण्डों से करते समय 'दष्ट' प्रथं किया, पर शब्द-कोष के अन्तर्गत मदिल हो कीचड युक्त दिखलाई पड़ रहे थे । पके हुए लिखा हैफलों का स्वाद लिया जा रहा था, शादल (हरी-हरी कल्होड (दि.)-वत्सतर, बछड़ा (जबूसामि पृ० ३०४) घास) काटी जा रही थी। उड़ाया हुमा कोकिल वृन्द
यह स्पष्ट है कि उक्त 'कल्होड' शब्द का प्रयोग भय से अमित था। णाहल-चीते दहाड रहे थे। सैकडों
विशेषण के रूप मे हुमा है, किन्तु यहाँ उसका अर्थ दुष्ट झण्डों मे दसो दिशाओं में चिघाड़ते हुए हाथी इधर-उधर
या बछडा नही है । वत्सतर का अर्थ सस्कृतकोशों में क्षुद्र घूमते फिर रहे थे।
वत्स है परन्तु क्षुद्र वत्म का अर्थ दुष्ट नहीं होता । वाचइन प्रसंगो को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता
स्पत्य कोश मे इसका विवरण इस प्रकार हैहै कि नाहल या णाहण का अर्थ शबर या म्लेच्छ न
वत्सतर पुं. स्त्री क्षुद्र वत्स. पल्पत्वे तरप् । शुद्रवत्से । होकर बाघ या चीता है । पुष्पदन्त के प्रभाचन्द्र के टिप्पण
अप्राप्तवमनकाले गवादी अमर: स्त्रियां डीप । वत्सतरी के अतिरिक्त एक टीका और मिली है, जिसमे णाहल का
(पृ० ४८४४) अर्थ व्याघ्र किया गया है जो उचित है। शब्द के विकास
वस्तुत: 'कल्होड' शब्द देशी है। इसलिए प्राकृत के का दृष्टि से भी देखें तो यह शब्द इस प्रकार है
शब्दकोशो मे नही मिलता। पाइप्रसदमहण्णव में देशीणाहल-णाहर-नाहर
नाममाला से संकलित किया गया है। उसमें इसका वत्समाज भी नाहर शब्द एक विशेष प्रकार के बाघ के
तर अर्थ ही किया गया हैअर्थ मे देश के कई भागो मे प्रचलित है। अतएव मेरी
कल्होडो बच्छयरे बगम्मि कंडरकाउल्ला।-देशी ४,३२६ दृष्टि में 'णाहल' का अर्थ चीता होना चाहिए । यद्यपि प्राकृत के सबसे बृहत कोश 'अभिधान राजेन्द्र कोष' मे
'वत्सतर' का अर्थ क्षुद्र वत्म न होकर जवान बछडा
है। और इससे भी स्पष्ट अर्थ है-गाडी, हल प्रादि में णाहल का अर्थ म्लेच्छ विशेष है, किन्तु मूल में वह
जोतने योग्य बैल । अभिधानचिन्तामणि में यही अर्थ है-- 'लाहल' शब्द है। कहा गया है
वत्सः शकृत्करिस्तो बम्यवत्सतरौ समो। ४,३२६ णाहल-लाहल न० । लाहललाङ्गललाङ्कले वा अर्णः ॥१२२५६ इत्यावेलस्य वा णः । म्लेच्छविशेषे ।
अल्पावस्था वाले बछड़ा-बछियों को वत्स, शकृत्करि (पभि० को० पृ० २०१६) जाहल शब्द 'णाह' से व्युत्पन्न
तथा तर्ण कहते है तथा जुतने योग्य बैल को दम्य मौर हुमा है और उसका अर्थ वन का स्वामी नाहर तथा
वत्सतर कहते है। अतएव यहां कल्होड का अर्थ जोतने जम्बूस्वामीचरित के सन्दर्भ के अनुसार चीता है ।
योग्य बैल है; दुष्ट बैल नही। अधिक से अधिक हस उन्हें
युवा बैल कह सकते हैं। इस प्रर्थ की पुष्टि गोस्वामी यह शब्द वीर कवि विरचित जंबूसामीचरिउ मे तुलसीदास की शब्दावली से भी होती है, कवितावली की मिलता है । इसका प्रयोग इस प्रकार हुप्रा है
पंक्तियां हैकल्होडबइल्ल जायरेल्लु संघाडल्लालिउ गयउ तेल्लु । सोहै सितासित को मिलिबो,
५.७. २३
तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे।
कल्होण
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२१४, वर्ष २३ कि० ५-६
मानों हरे तन चारु चरे,
कतिपय टिप्पणों के अर्थ पर विचार बगरे सुरषेनु के धौल कलोरे ॥ १४४ ॥ अहिट्टिय उक्त कलोरे शब्द जवान बछडे के लिए प्रयुक्त हमा पउमचरिउ' में इस शब्द का प्रयोग मिलता हैहै। शब्द के विकाम को दृष्टि से कलोग शब्द कल्होड
जोइस भवणन्तरेहिं प्रहिद्विय । २. १.४ का विकसित रूप है
इसके टिप्पण मे 'हर्षित' पर्थ किया गया है । कल्होड-कल्लोड-कलोड--कलोर
यह शब्द सरकृन के अधिष्ठिन से विकसित हुया है। पिल्लिक्खिणि
अधिपूर्वक स्था धातु से अधिष्ठान और अधिष्ठित यह शब्द करकण्डचरिउ' में मिलता है--
निष्पन्न होते है । जंबुसामिचरिउ में कई स्थानों पर तथा पिल्लि क्खिरिण फेंफरि उंबरी वि
महापुराण मे कई स्थलों पर यह शब्द प्रयुक्त है । इसके
विभिन्न अर्थगत प्रयोगो पर विचार कर लेना सगतिपूर्ण जो वज्जइ इह पंचुंबरी वि । ६. २१.५
होगा। पुष्पदन्त के महापुराण में एक स्थल पर इसका 'पिल्लिक्खिणि' एक शब्द है; न कि दो। सम्पादक
अर्थ सहित किया गया हैने इसे दो शब्दों के रूप में विश्नेपित किया है, जिससे
अहिट्ठियउ सहितम. म० पु०१५. २१.६ । अर्थ मे विसंगति मा गई है। इसका अर्थ इस प्रकार किया
जबूसामिचरिउ मे अधिष्ठित अर्थ मे प्रयोग हुप्रा हैहै -'फिर जो कोई मद्य, मांस, मधु और पाच उदुम्बगें
जहि देसि न दिट्ठउ ताउ अहिट्रिउ तहि उज्जलउको छोडता है (वह श्रावक है)।
सुवण्णु जइ। ४. १३.१६ यह गृहस्थ के पाठ मूलगुणो का प्रसग है । मामान्यत:
अन्य स्थलो पर भी इसी अर्थ मे प्रयोग परिलक्षित मद्य, मांस, मधु और पाच उदुम्बरी (बड़, पीपर, पाकर,
होता है। ऊमर और कठूमर) के त्याग को प्रष्ट मूलगुण कहा
पाइप्रसहमहण्णव मे भी यह अर्थ दिया हया है। गया है--
अतएव अहिट्ठिय का अर्थ अधिष्ठित है; हर्षित नही । यदि मद्यमांसमवृत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकः ।
'अहिहटिय' शब्द होता तो अत्यन्त हर्ष अर्थ हो सकता प्रष्टौ मूलगुणानाहगृहिणां श्रमणोत्तमः ।।
था। क्योकि सस्कृत के 'हृष्ट' के लिए 'हट्ट' शब्द मिलता अतएव उक्त प्रसंग में णावणियाइ तथा पिल्लिक्ििण है। इसलिए या तो डॉट का नवनीत और पिल्लो, खिरनी अर्थ उचित नही है। प्रतिटिठय ।। पिल्लिक्खिणि एक शब्द है और इसका प्रथं पिलखन है। अर्द्धमागधी काश में भी अहिठिय शब्द का अर्थ पिलखन पाकर के पेड को कहते है । सम्कृत मे इसे प्लक्ष, मधिष्ठित है। इस प्रकार व्युत्पत्ति तथा शब्द-प्रयोग एव पकेटी और जटी भी कहते है। पिलखन शब्द प्लक्षिन् का कोशगत अर्थ की दष्टि से प्रधिष्ठित अर्थ ही मान्य होगा। विकसित रूप जान पड़ता है। आज भी पिलखन शब्द वडिढउ पाकर के लिए प्रचलित है। फिर, विवणि का खिरनी टिप्पणगत प्रों के मन्दर्भ मे पउमचरिउ के एक प्रर्थ अपभ्रश के किसी काव्य में नहीं मिलता । इसलिए प्रसग का उल्लेख करना अनुचित न होगा। भोजन का पिल्लिविवणि का पाकर अर्थ समुचित प्रतीत होता है। वर्णन करते हुए महाकवि स्वयम्भू कहते हैउदुम्बरी का अर्थ यहां गूलर है । और फेफरी का अर्थ वडिढउ भोयणु भोयण-सेज्जए सभवतया जघनफल प्रर्थात कठमर ।
अच्छए पच्छए लण्हए पेज्जए। ५०. ११. ४ १. करकंडचरिउ : सम्पा०-अनु० डॉ० हीरालाल जैन, २. पउमचरिउ : सम्पा० डॉ० एच० सी० भायाणी, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी।
सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बंबई ।
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अपभ्रंश शब्दों का प्रचं-विचार
२१५
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार किया गया है। मवत्ति उन्होने भोजन की थाली मे सुन्दर सूक्ष्म पेय के साथ पउमरिउ के उपयुक्त सन्दर्भ में ही एक पक्ति इस भोजन परसा।
प्रकार है-- यहां पर सर्वप्रथम 'वड्ढिउ' शब्द विचारणीय है। विजणेहि स-महिय-बहि-खीरेहि सिहरिणी-भूमबत्तिसोबीरहि । टिप्पण मे इसका अर्थ 'परोसितः' तथा हिन्दी अनुवाद
५०.११.१३ परसा किया गया है। सामान्य रूप से वड्ढिउ का अर्थ यहाँ टिप्पणो के आधार पर 'सिहरिणि' का अर्थ वधित-बढ़ा हुआ है।
बधारा हुँमा तथा 'धूमवत्ति' का अर्थ कांजी किया गया है, अर्द्धमागधी कोण मे वढि के तीन प्रों का उल्लेख जो गलत है। धमवत्ति का अर्थ हीग मे बघारा हुमा है।' मिलता है-उपज; भावज और वृद्धि । पउमचरिउ में सौवीर कई स्थलों पर इसका प्रयोग हुमा है और अधिकतर स्थानो उपयूक्त पक्ति. मे पाये सौवीर का अर्थ काजी पर इसका बढ़ा या बढाया हुमा प्रर्थ लक्षित होता है। है। डॉ. हीगलाल जैन ने 'णायकुमारचरिउ' के शब्दउदाहरण के लिए
__ कोश मे सबीर-सौवीर (बटर-मिल्क, पाइपलच्छी० देवासुर-वल सरिसई वढिय हरिसई कंचुय- कवय-विसट्टइ। २६८) का अर्थ मट्ठा, तक किया है जो गलत है। (दे.
४.७.१० १० १६७) । पाइपलच्छी का पाठ हैअग्भिट्टा वढिय कलयलाई, भरहेसर वाहवली बलाई।
सौवीरं प्रारनालं, नेहो पिम्म रसोय अणुरागो।
पारनाल का तथा सौवीर का अर्थ सभी सस्कृत तथा एक अन्य स्थल पर 'वडढविय' का प्रयोग भी
की । मिलता है।
काज्चिकं काज्जिकं धाग्याम्लारनाले तुषोदकम् ।। परे प्रतहोणउ पडिरक्स किय जं लालिय पालिय बढविय।
महारसं सुधीराम्लं सौषीरं क्षणं पुनः ।। ६.१०.६
-अभिधानचितामणि, ३,७६-८० किन्तु एक स्थान पर उक्त शब्द स्पष्ट रूप से बढिया
इसी प्रकार के अन्य टिप्पण भी है जिनके कारण या उत्तम प्रर्थ में प्रयुक्त हुमा है
कही-कही अर्थ का अनर्थ हो गया है। विहि मि राम-रामण-बलहुं एमकु विवडिवमउ ण दोस।
उदाहरण के लिए पउमचरिउ के कतिपय टिप्पण इस ४५.२.६
प्रकार हैयहाँ पर 'वडिढमाउ' शब्द का अर्थ वृद्धिमान् या मालर बढ़िया है।
हे मालूर-पवर-पीवर-थणे कुवमय-वल-पफुल्लिय-लोमणे । बढ़ा हुआ-वढिप-मागे चल कर बढिया हो गया। इसका सबसे स्पष्ट प्रयोग उपर्युक्त सदर्भ मे हमा
मालर का अर्थ टिप्पण में 'बिम्बफल इव' दिया हग है है, जहाँ 'वड्ढिउ' का अर्थ परोसा न होकर बढिया है,
किन्तु यह अर्थ गलत है। स्तन की उपमा बिम्बफल से जो भोजन का विशेषण है । अतएव अर्थ होगा-भोजन
नही दी जाती । स्तन के लिए प्रायः बेल उपमान प्रयुक्त के लिए बढिया भोजन सिद्ध किया गया (पकाया गया)। किया गया है। प्रतएव मालर के कोशगत कंथ तथा बेल स्वच्छ पथ्य तथा चिकने पेय तैयार किए गए । 'लव्ह' का अर्थ सूक्य न होकर चिकना है।
२. सम्भवतया यह टिप्पण की भूल सख्या क्रम बदल
जाने से हुई है । ३ सिहरिणि की संख्या ३ धूमवत्ति १. पउमचरिउ, भाग १: सम्पा०-अनु० डॉ० देवेन्द्र- को होनी चाहिए और ४ बमबत्ति की संख्या ४ कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी।
सौवीर को होनी चाहिए।
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२१६, वर्ष २३ कि. ५-६
अनेकान्त फल इन दो प्रों में से बेल का फल ही ग्रहण करना प्राकृत शब्दों से प्रथं में भिन्न हैं। यही नहीं, निम्नलिखित चाहिए । और यहाँ स्पष्ट रूप से मालूर का अर्थ बेल का ऐसे शब्दो की सूची प्रस्तुत है जो प्राकृत कोशों में लक्षित फल है। एक अन्य स्थल (४.३२.२) पर मालूर का अर्थ नही होतेटिप्पण मे भी बिल्बफल बत् लिखा हुप्रा मिलता है।' पउमचरिउ टालिउ
छिव्वर-चपटी (१, २ ११) टिप्पणी मे इसका अर्थ शतखण्ड लिखा हुआ मिलता घुम्भल-शेखर (१७, १२, २) है। परन्तु यह अर्थ ठीक नही है। पउमचरिउ को पक्ति है- जालोलि-ज्वालावली (८, २, ६) केण पहज्जणु बद्ध पडेण मेह महागिरि टालिउ केण। णियासण-निवसन (६, १४, ४)
३१.६.८ णियल-निगड (१, ५, ६) इस पंक्ति का अर्थ है-वस्त्र से प्रभजन (पवन) णियच्छिय-निग्रच्छ दृश् (१६, ६, ६) को कौन बांध सकता है और सुमेरु पर्वत को कोन हटा दोर-पशु (२, ७, ३) सकता है।
णाइसप्प-नसर्प (४, ६, ६) एक अन्य स्थल पर भी सुमेरु को हटाने के अर्थ मे जिणाल-जिनालय (६, २, ५) 'टालई' शब्द का प्रयोग मिलता है । देखिए
डोह -क्षोभ (२, १३, ४) । मेह विटालइ बढामरिसु तहो अण्णु णराहिउ तिणुसरिसु । लजिया-दासी (२३, ४, २)
पउमचरिउ के शब्दकोश मे भी 'टाल' का अर्थ हटाना रसय (रसक)--मद्य-भाजन (२६, ७, ६) (गुजराती टाल) है। अतएव हटाना या खिसकाना सरुजा-वाद्य विशेष (४०, १७, ४) अर्थ उचित है।
सोयवत्ति-मिष्टान्न विशेष (५०, ११, ६) रहोला
मुसुमूर-चूर्ण, चरन (३८, ६, ५) पउमचरिउ की एक पक्ति है
टिविल-दुलकिया, छोटी ढोलक (२४, २, २) जो डिण्डीर णियह मन्दोलह णावह सो जे हारु रलोला। प्राडोह-विलोडन (२६, ७, १)
१४.३.७
खडवक-पर्वत (३१ ३, ६) इसकी टिप्पणी में 'रलोल इ' का अर्थ 'विलासति'
डेक्कार-गर्जना, डकारना दलाकना (२४, १३, ३) किया गया है। किन्तु रङ्खोलइ शब्द दोलय का समानार्थी भज्जिय-भाजी, पत्ती वाली शाक (५०, ११, ११) है। प्रतः इसका अर्थ है-झूलना। प्राकृत के शब्दकोशो
पत्तिय-पत्नी (४६, २०, ६) मे यही प्रथं मिलता है। उक्त पंक्ति मे तथा दो अन्य
तुणव - भेगे (२६, १४, ३) स्थलों पर प्रयुक्त शब्द का भी यही अर्थ हैं । स्वयं टिप्पण.
जरवणी-सन्तापदायिनी (४१, ४, ४) कार ने अन्यत्र यह अर्थ दिया है
प्रायल्लिय-पीड़ित (२७, ३, ७) पवलय-माला-रलोलिराइं मरगय-रिज्छोलि-पसोहिराई।
प्राहुट्ठ- प्रर्द्ध चतुर्थ (४०, १८,१०) यहां 'रङ्खोलिराई' शब्द के टिप्पण मे लिखा है- गत्तल-गतं (४६, ७, ७) प्रान्दोलिता (नि)। प्रतएव रोल का अर्थ झूलना उचित प्रबलुय- खेद (२०, ११, ४) है। अपभ्रंश के प्रकाशित तथा प्रप्रकाशित लगभग दस पोट्टिउ - घोट डाला (४६, ४, ६) प्रन्थों मे यह शब्द झूलने के अर्थ में मिलता है। गिल्ल-होदा (४६, १३, ७)
उक्त टिप्पणों के अतिरिक्त अनेक ऐसे शब्द हैं जो वाउलि-पक्षी विशेष (२७, १५ ५) १. सभवतया पहले टिप्पण मे मुद्रण की भूल है। ह' के पाणिय-हारि-पनिहारी (२४, १, ६) के स्थान पर 'म' हो गया है।
बल-वृषभ, बेल (२७, १७, ३२)
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अपशब्दों का पर्व-विचार
लोणिय-नवनीत, लोनी (३७, १, ५) सूडिय-त्रुटित, भंजित (२४, ७, ५) हलुवारय-लघुकतर (३४, १३, १) हेवाइय-गर्वित (५६, १०,६) चिक्कम इ-जाता है (५६, १४, ४) रह-रथ्या, मार्ग, गली (५६, १४, ६) पारक्क-शत्रु जन (५६, १०, ६) झंसी-वृक्ष विशेष (५, ८, ७) जंबूसामिचरिउ विटलटल-गठरी (११, ६, ३) घार-चील (७.१, १२) करकंडचरिउ णण्ह-स्निग्च (८, २, ६) टेवंत-तेज करना, टेना (१०, १६, ८) तेइया-पेटिका (१, ७, २) फेफरि --फल विशेष (६, २१, ५) परिणडिप्र--वचित (३, २१, ४) हउ--हो (बज), मै (२, ५, ८) हिलहिलत-हीसना, हिनहिनाना (३, १३, ४) सूय-सून (संस्कृत), पारद (६, ६, ६) वेल्लत- व्याकुल होना (५, ११, १४) लबेल्लि ललक पूर्वक (८, ७, ८) महापुराण वीसनु --बीभत्स (७, १२, ८) प्रलियल्लि-व्याघ्र (१५, १३, ३) ढेक-दहाड (३, ५, १०) तंडउ --टोली, जत्था (१६, २२, ८) के या-वरत्रा, हाथी कसने का रस्सा (१२, ११, ५) विड्डम-भय (१८, २३, १) विसभर-कोरी, जुलाहा (३१, १७, १२) सल-चिना, शवशयनस्थान (२३, ८, ६) सवलहण समलिम्भन (विलेपन) (३,४,७) हेडि-शृखला (७, १३, ८) हवाइद्ध-कुपित (३२, २०.४) सेहीर-सिह (२५, ३, ५) झपह-सिंह (१२, १२, ५)
बिलिब्बिल-बीभत्स (२०, १०, ११,
प० च. ५४, ११,१) खे -प्रालिंगन (२६, १६ २) डावि. -मुद्रिका, अंगूठी (३५, ५, ३) णिययणी-रस्सा २५, १८, १२) दवट्टि-शीघ्र (२६, ६, ३)
हीर-कुकुम (२५, ६, १२) तक्कारि-सारथि (१२, १३, ६) तियाउस-भस्म (३७, २२, ६) तिडिवक-स्फुलिंग (३७, २१, १०) तालवट्ट-पुच्छ (३४, १०, १५) सूय-श्री (३४, १, ६) वट्टप-प्रतिशय, अत्यन्त (३२, १६, १३) लया --कोरी, जुलाहा (३१, १०, ६) तोतडिल्ल-मिश्रित (२८, १, ५) चंचेल - वक्र, टेढ़ा (२३, ४, १३) मउंद मृदंग (२२.८, ८) प्रठाण-कायोत्सर्ग (२१, ७, १) दुवालि-अन्याय (२०, २४, १०) सोणरि-शृगाल (२०, २१, १) णिहाउ-समूह (२०, २२, १२) कुयल-भूतल (२०, ३,६) तुदाहि-गण्डूपद, केचुना (७, १, २, ७) देट -वृन्त (४, ११, ११) पासुय-प्रासुक, शुद्ध (६, ७, ४) मेल-प्रति वृद्ध, बहुत बूढ़ा (२६, २५, १२) मल्लारम- भला, उत्तम (७, १७, ११) चोवाण-यष्टि, लाठी (१, १६, १०) चेचइय-प्रलंकृत (३ २, ४) चदकव-मयूर, मोर (१३, ७, १०) डुंग-समूह (९, २, २७) थेम --बिन्दु (३, १४, २०) पेल्लावेल्लि-सम्भ्रम (६, १८, १६) पालिद्धय-झंडो (१२, ६, ४) दडत्ति-शीघ्र (धड़कन ?) (6, १३, २) लाणि-मर्यादा (४, ५, १४)
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२१८, वर्ष २३, कि० ५-६
इस प्रकार के अनेक क्षब्द महाकवि पुष्पदन्त रचित सिद्धकपा-नरसेन 'महापुराण' में उपलब्ध है। सम्भव है कि इनमे से कई वरटियाल (१,१,१) जग्णवाम-जनवासा (१, १२) शब्द 'देशी नाममाला' या पाइयलच्छो नाममाला' में गूडर-गूदड़ (१ १०) लगुष्ण-लगुन (१, १२) समान या भिन्न अर्थ में देखने को मिल जाये, किन्तु संट (१, १३) जण-मत (१, १४) प्रधिकतर शब्द नये टकसाली या भिन्न भाषाम्रो से प्रागत किकाण (१,१५) पहाड-पहाड (१, २३) है। कतिपय वाद-सस्कृत को काव्य परम्परा से समागत घाड-घाटी (१.२३) टोपरी-टोपी (१,२६) है। ऐसे शब्दो की सख्या भी कम नहीं है जो प्रायतर टाटर शिरस्त्राण (१,२६) वाखरु (१, २६) भाषानों के कहे जाते है। विशेष कर महापुराण में ऐसे चाटी (१, ३२) कचोल कटोरा (१, ३५) शब्द प्रचुर है, जो द्रविड भाषाओं के है। उनमे से कुछ
राणा-राजा (१, ३६) विल्लहई-बिललाती(१, ३७) सब्द देशी नाममाला मे भी मिलते है। प्राकृत बोलचाल
लह-लोहू, रक्त (१, ४४) पाछे-पीछे (१, ४४) की भाषा होने के कारण अनेक देशी प्रवाहो के शब्द
णातिय उ-नाती (१,४६) कबलि-कण्ठ का प्राभूषण (१,५४) सहज ही चिर काल से व्यवहृत होते पा रहे है।
कडय-कडा (२, १६) दमाम-दमामा वाद्य (१, ५४) ___महापुराण के अतिरिक्त कई अपभ्रश के हस्तलिखित छइ-है (२-१६) डि चाद्यविशेष (४२, १) तथा अप्रकाशित प्रबन्ध काव्यों में ऐसे शब्द मिलते है नो
संतिणाहचरिउ-महिंदु अन्य काव्य-कृतियो में तथा कोशो मे नही मिलते। ऐसे
सवील-पक्षिविशेष (१, ६) दुगालि (१, ७) ही कुछ शब्दो की सूची यहाँ प्रस्तुत है
विट्टिर-टिटहरी (१. ६) डुर इव (१, ४) सुदंसण चरिउ (प्रब प्रकाशित)
सप्पर (१, ३)
डोहिय (१, ७) मंट (६,११) फरिय (५, २१)
वरकर (१,८) णिन्भमि उ (२, १६) गोल्ली (४, ६) ट रट र (८,१६)
भट्ठउ (१, १४) छायाल-छियालीस (३,११) खुटु (६, ११)
घवघव (३, ७) चडफड-छटपटाना (२, २०) ममण (३,७) थडा (२, १३)
रिट्रणेमिचरिउ-धवल झडा (२ १३) रिट्ठी का गुली (४, ५) डेडा (३, ७) छेर इ-छिनत्ति (६, ११)
ललक्क (४१, ६) दट्टर (२३, ६) घुग्घुर (३, ७) सल्लइ (४, ६)
डिक्कर (१३, १०) विट्टल (१३, १२)
पहिल्नी-प्रथम, पहली (१४,१) लड मनोज्ञ ? (१४, ५) जिनदत्तचरित-लाखू
वियाई (१४, ६) वहल-विल (१४, १०) णी उ-नीच (१८) खणरूवा-विद्युत् (५, ६) मद्दि (१४, १४) गारी (१४, १६) हीर-अधीर (४,५) पायाल-शेष (४, ३) मिग्गु-मृग (१४, १६) चदोबा-च दोवा (१५, १ मल्हाविय-भ्रमित (४, ३) विच्छिडु-निरन्तर (३, ३३) भडारी (१५, ३)
ढोउ (१६, १०) फर-खेडा, गाव (३, ३१) सीयर-स्वीकार (३,३०) रडी विधवा (१५, १०) माढा (१५, १३)। बालुम्वि-गयचकित (३,२७) कंधर मेध (३, २५) प्रल्ल-पशु विशेष, व्याघ्र ?(१३,६) विसउ विश्रुत, प्रसिद्ध(३ २५) तिमिय-मत्स्य (३, २५) अणुवैक्ख अनुप्रेक्षा, अनुचिन्तन (१५,४) प्रलयद्द सर्प (१, ११) उक्कोविय उद्घाटित(१,१९) पिछल्ली-पिछली-पिछली (१४, १) वणफणि-मयूर (२, १५) भुसुरु ताम्बल (२, १७) इगम-जाति विशेष के देव (१४, ३) णिहुवउ-मौन (३, १०) बरु-श्रेष्ठ (३, १२) मोट्टिया 'मोट्टियारुण धडियउ वज्जे' (१४, १२)
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प्रपत्रंश शब्दों का प्रर्ष-विचार अपभ्रंश के कई प्रकाशित काव्यों में भी ऐसे शब्द पियलि-टीका, तिलक (८, १४, १४) मिलते है जिनके दर्शन प्राकृत-कोशो में नहीं होते । विशेष रसट्ट-रसाढ्य (४, ८, १४) रूप से 'प्राकृत शब्द-महार्णव' में नही पाये जाने वाले
खुद एक वाद्य (५, ६, १३) शब्दों की तालिका इस प्रकार है :
सलसलिय-सलसलाया, कांसे का शब्द (५, ६, ८) करकंडचरित
हूहुय-शंख का शब्द (१, १५, ६) काणि-लज्जा (१, २, ६)
भविसयत्तकहा टेवंत-टेना, तेज करना (१०, १६, ८)
गयारि-गवार (१४, ५, ७) णण्ह-स्निग्ध (८, २, ६)
प्राभुरीय-दही बडा ? (१२, ३, ६) पेइया-पेटिका, पेटी (१, ७, २)
खज्जा-खाजा, एक प्रकार का पक्वान्न (१२, ३, ४) फेंफरि-फल विशेष (६, २१, ५)
सुहाली-एक प्रकार का पक्वान्न (१२, ३, ४) जंबूसामिचरिउ
हुक्कडं ? (२, २, ६) उसं-पोस (१० ७, ६) प्राकृत शब्द मे उस्स है।
ढोक्कर प्रायुध विशेष (२, २, ७) उच्चेडिय- उच्चाटित, उचटा हुअा (६ ४, ६)
णिरारि उ-अलग किया हुअा (२, १२, ३) उण्णाह-बाढ (६, १०, १)
मंच्छुडु-शीघ्र (२, १४, ३) उद्दम-उपदेश (प्रशस्ति २०)
यद्यपि महाकवि धनपाल कृत 'भविसयत्तबहा' के उडम-रोमाचिन (१, ८.३)
विशिष्ट शब्दो का संकलन 'पाइन-सह-महण्णव' के द्वितीय उप्पुछिय-ऊपर से पोंछी हुई (१०, १६, ६)
सस्करण में किया गया है, फिर भी अनेक शब्द ऐसे है उपफेरिय सवारी हुई (१०, १६, ६)
जो उममे पाकलित नही हो सके है। उन सबका उल्लेख उल्लिच्चण-रहट (४, ११, ६)
करना इस छोटे से निबन्ध में सम्भव नही है । इसी प्रकार प्रोडिय-उठाने वाला (१, ११, ६)
अपभ्रश के अन्य अप्रकाशित तथा प्रकाशित काव्यो में प्रोडिय-उठाने वाला (१, ११, ८)
अनेक शब्द ऐसे मिलते है जो प्राकृत के कोशो मे परिपोहालिय-प्रवलिप्त (६, १०, १३)
लक्षित नहीं होते है। कचाइणि-कात्यायनी (५, ८, ३५) डोह-दोह , अवगाह (४, २१, ३)
उक्त तथ्यों को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो जाता तरिया तैराक (१०, ११, ७)
है कि अपभ्रश की शब्द-सूची प्राकृत से अभिन्न नही है । तोर-तुम्हारा (४, १८, १) छत्तीसगढी तोग, तोला यद्यपि कही कही अपभ्रंश गन्दो की बनावट तथा अर्थ थगदुग-वाद्य (५. ६, ११)
समझने के लिए प्राकृत शब्द समूह से बहुत कुछ सहायता कच्छड य-कछोटा (५, ७, १३) प्राकृतशब्द. कच्छोटी मिलती है, किन्तु अपभ्र श का भुकाव देशी भाषामो के घडि-कुण्डल (१०, १६, ४)
अधिक निकट होने के कारण इसपे देश्य शब्दो की प्रचुनेसणय-वस्त्र (५, ६, ११)
रता है। जो विद्वान यह कहते है कि अपभ्र श मे ६५ पट्टोल-वस्त्र विशेष (४, ८, ६)
प्रतिशत से अधिक शब्द वे ही है जो पाइय-सद्द महण्णवो पड्डल-पाटल पुष्प (८, १६, ४)
तथा देशी नाममाला आदि मे पाये जाते है, व केवल पद्धा-स्पर्धा (१, ११, १३)
अपभ्रश के कुछ प्रकाशित तथा परिशिष्ट मे सलग्न शब्दपल्लीवण-चोरो के निवास योग्य सघन वन (५, ८, २४) कोशो के आधार पर निर्मित अपनी धारणा प्रकट करत पारग्गह-युद्ध (६, १, १२)
है। और जिन विद्वानो का यह मत है कि अपभ्रंश कोश
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२२०, बर्ष २३,कि. ५-६
प्राकृत कोश से भिन्न नहीं हो सकता वे अपभ्रश के स्व. अपभ्रंश की शब्द-संपदा केवल देशज या माधुनिक भारतन्त्र अस्तित्व को नकारते हुए प्रतीत होते हैं। किन्तु अब तीय मार्यभाषामों की नहीं है, उसमे संस्कृत-प्राकृत तथा भाषा वैज्ञानिक अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राकृत द्रविड़ भाषामों के शब्द उसी प्रकार समाये हुए है जैसे तथा अपभ्रश भिन्न-भिन्न युगों की साहित्यिक भाषाएँ कि हिन्दी में विविध प्रान्तीय बोलियो के शब्द सहज ही रही है। उनकी शब्द तथा पद-रचना मे ही नही वाक्यो समाविष्ट है । स्व. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने सर्वकी बनावट तथा शब्द-सम्पदा में भी विशिष्ट अन्तर प्रथम 'अपभ्रंश-कोश' के सम्पादन का कार्य अपने हाथ में लक्षित होता है। केवल उच्चारण की भिन्नता से ही नही लेने का विचार किया था मौर सम्भवतः कुछ कार्य भी किया युग की मनोवृत्ति तथा सम्पर्क के कारण अपभ्रश मे जो था। उन्हीं की प्रेरणा से मैने सन् १९६४ मे प्रथम बार यह बहुविध परिवर्तन हुए उसके कई रूप माज भी साहित्य प्रयत्न किया था कि ऐसे शब्दो का प्राकलन किया जाये में लक्षित होते हैं। प्रतएव यह कथन-अपभ्रंश-कोश जो प्राकृत कोशो मे तथा संस्कृत के कोशों में नहीं मिलते प्राकृत से भिन्न नही हो सकता। क्योकि अपभ्रंश के बहुत हैं। ऐसे लगभग एक सहस्र शब्दो का सकलन किया जा से शब्द प्राकृत मे मिलते है । जो शब्द सरलता से प्राकृत चुका है। कोशों में नही मिलते वे देश्य वर्ग में परिगणित किये जाते विचारणीय यह है कि केवल उन्ही शब्दो का माकलन है। इस प्रकार एक और अपभ्रश का शब्द-समूह देशज है किया जाये जो 'प्राकृत-शब्द-महार्णव' में नहीं मिलते या पौर दूसरी मोर माधुनिक भारतीय पार्यभाषामों का- अपभ्रंश भाषा मोर साहित्य के प्रध्येता अनुसन्धित्सु का उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसे ही विचारो के कारण दृष्टि में रखकर एक परिपूर्ण अपभ्र श कोश का निर्माण माज तक किसी अपभ्रंश-कोश का निर्माण नहीं हो सका। किया जाये।
-हिन्दी-विभाग, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच (मन्दसौर : म.)
[पृष्ठ २११ का शेषांश ]
मनमान में अभिनिबोध मतिज्ञानाभास और भृत- निबोध कहा है, जो वचनात्मक नहीं है और षट्खण्डास्पता-जैन वाङ्मय मे अनुमान को अभिनिबोधमतिज्ञान गमकार तथा उनके व्याख्याकार वीरसेन ने परार्थापौर श्रति-दोनो निरूपित किया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने नुमान को श्रुतरूप प्रतिपादित किया है, जो वचनात्मक उसे अभिनिबोध कहा है जो मतिज्ञान के पर्यायो मे पडित होता है । विद्यानन्द का यह समन्वयात्मक सूक्ष्म चिन्तन है । षट्खण्डागमकार भूतबलि-पुष्पदन्त ने उसे 'हेतुवाद' जैन तर्कशास्त्र में एक नया विचार है जो विशेष नाम से उसे व्यवहृत क्यिा है और श्रुत के पर्यायनामो उल्लेख्य है, इस उपलब्धि का सम्बन्ध विशेषतया जैन ज्ञानमें गिनाया है । यद्यपि इन दोनो कथनो मे कुछ विरोध- मीमासा के साथ है। सा प्रतीत होगा। पर विद्यानन्द ने इसे स्पष्ट करते हुए इस तरह जैन चिन्तको का अनुमान-सम्बन्धी चिन्तन लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने स्वार्थानुमान को अभि- भारतीय तर्कशास्त्र के लिए कई नये तत्व देता है।
-संस्कृत महाविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
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कुवलयमालाकहा में उल्लिखित राजा अवन्ति
प्रो० प्रेम सुमन जैन राजस्थान मे रचित ग्रन्थों के ऐतिहासिक महत्त्व की समस्या पर विचार किया जा सकता है। परम्परा मे उद्योतन सूरि द्वारा ७७६ ई० में जालोर मे कुवलयमाला मे उद्योतन ने अवन्ति नरेश के सम्बन्ध रचित कुवलयमालाकहा प्राकृत भाषा का एक महत्वपूर्ण में तीन प्रमुख सन्दर्भ दिये है। प्रथम संदर्भ में उज्जयिनी ग्रन्थ है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी उपयोगी है । यद्यपि के राजा की सेवा में कोई क्षत्रिय वंश उत्पन्न क्षेत्र भटयह एक कथा ग्रन्थ है किन्तु प्रसंगवश उद्योतन ने कई नाम का एक ठाकुर रहता था। बाद मे उसके पुत्र वीर. ऐतिहासिक तथ्य उद्घाटित किये है, जिनसे राजस्थान एवं भट एवं उसके पुत्र शक्ति भट ने उज्जयिनी के राजा की मालवा के इतिहास पर नवीन प्रकाश पड़ता है। सेवा की, शक्तिभट क्रोधी स्वभाव का था। एक बार
कुवलयमाला मे हाल, देवगुप्त, प्रभजन, दृढ़वर्मन, राज्य सभा में शक्तिभट प्राया। उसने राजा प्रवन्तिजयवर्मन, महेन्द्र, भृगु, अवन्तिवर्द्धन, श्रीवत्स, विजयनरा- वर्धन को प्रणाम कर अपने स्थान की पोर देखा, जहाँ धिय, प्रवत्ति, चन्द्र गुप्त, वैरिगुप्त, हरिगुप्त, तोरमाण, कोई भूल से पुलिदराज पुत्र बैठ गया था। शक्तिभट ने श्रीवासराज रणस्तिन मादि राजामो के उल्लेख है, उसे न केवल अपने प्रासन से उठा दिया प्रपितु इसमे जिनमे अधिकाश ऐतिहासिक है। प्रस्तुत निबन्ध में अपना अपमान समझकर उसकी हत्या भी कर दी और प्रवन्ति राजा के सम्बन्ध में विचार किया गया है। वहां से भाग गया।' अवन्तिवढन भवन्ति
इस प्रसग में 'राहणो अवन्तिबद्धणस्स कम-ईसि-णमो. उद्योतन ने कुवलयमाला मे विनीता के राजा दृढ- कारों का उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ हुमा वर्मन और मालव नरेश (?) के बीच युद्ध होने का सकेत कि उज्जयिनी का राजा भवन्तिवर्धन था, जिसकी सभा दिया है, जिसमे मालव नरेश का पांचवर्षीय पुत्र महेन्द्र मे वंश परम्परा से मेवक ठाकुरो का अधिक सम्मान था अपने पिता के हार जाने के कारण दृढ़वर्मन के समक्ष तथा पुलिंद राजकुमार भी वहाँ उपस्थित रहते थे। यह उपस्थित किया जाता है।' कुमार महेन्द्र के कथनानुसार अवन्तिवर्धन राजा कौन था, अवन्ति के राजनैतिक इतिमालव नरेश हरिपुरन्दर, विक्रम जैसा प्रतापी था। हास की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ? उत्तम वंश और कुल वाला था।' इससे मात होता है उद्योतन ने एक दूसरे सन्दर्भ मे उज्जयिनी के राजा कि उस समय मालव पर किसी प्रतापी राजा का शासन का नाम श्रीवत्स कहा है, जो पुरन्दर के समान सत्य और था। वह कौन था, इल की पहचान विचारणीय है। वीर्यशाली था। उसका पुत्र श्रीवर्धन था। सम्भव है पाठवी शदी मे मालव (प्रवन्ति) की राजनैतिक स्थिरता उपयुक्त प्रसग के प्रवन्तिवर्धन एव इस श्रीवर्धन में कोई अनिश्चित-सी बनी रही। अतः उद्योतन के समकालीन वशानुगत सम्बन्ध रहा है। उज्जयिनी मथवा मालवा के वहाँ किसका शासन था यह निश्चित करने में थोडी कठि- के साथ अवन्तिवर्धन राजा का सम्बन्ध तत्कालीन नाई है। किन्तू उद्योतन के उल्लेखों के अनुसार ही इस ४. तमो गणो वतिazणय ग. * राजस्थान इतिहास कांग्रेस के चतुर्थ अधिवेशन, पहनो वच्छत्थलाभोए पुलिदो इमिणा रायउत्तो। बीकानेर में पठित निबन्ध ।
-वही, ५०-३१ १. देवस्स चेव प्राणाए तइया मालव णरिद विजयस्थ ५. उज्जयणीपुरी रम्मा (१२४.२८) 'तम्मि य गयो।
-कु०, ६.२३ पुरवरीए सिरिवच्छो णाम पुरन्दर सम-सत्त-वीरिय२. तायस्स हरि पुरदर-विक्कमस्स... -- वही, १०-२६
विहवो । तस्स य पुत्तो सिरिवर्तणो णाम । ३. महावंश कुल-प्पसूया रायउत्सा -वही, ११-५
-वही, १२५-३
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२२२, बर्व २३, कि० ५-६
अनेकान्त
इतिहास मे नही मिलता । किन्तु इससे यह सोचने के लिए प्रादि तो प्रचलित हुए हैं। किन्तु कहीं ऐसा तो नहीं है प्राधार प्राप्त होता है कि उद्योतन के थोड़े समय बाद कि स्वय उस जनपद का नाम किसी प्रवन्ति के राजा के लगभग ८१० ई० में कशमीर के उत्पलवश मे भवन्ति. कारण प्रवन्ति पड़ा हो ? वर्धन नाम का एक लोकप्रिय राजा हुमा है।' सम्भव २. मालवा मे ६९६ ई० मे विनयादित्य राष्ट्रकूट है उसका मालवा से उद्योतन के समय में कोई सम्बन्ध के बाद ७६४ ई० में गोविन्दधारावर्ष ततीय के शासन के रहा है। किन्तु इसकी प्रामाणिकता के लिए अभी अनेक बीच किन-किन राजानों का शासन प्रवन्ति पर रहा? साक्ष्यो की प्रतीक्षा करनी होगी।
उनमें से प्रवन्ति नाम के राजा की पहचान किससे की भवन्ति नाम के नरेश के सम्बन्ध में उद्योतन द्वारा
जा सकती है ? जिसका उद्योतन सूरि ने संकेत दिया है ? प्रस्तुत कुवलयमाला का तीसरा उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण
३.७८३ ई० मे प्राचार्य जिनसेन द्वारा हरिवंशहै। अरुणाभ नगर के राजा कामगजेन्द्र के समक्ष एक
पुगण में उल्लिखित 'पूर्वी श्रीमदवन्तिभूभति' का इतिचित्रकार अपने चित्र की यथार्थता को प्रामाणिक करते
हामज्ञों ने अबतक जो अर्थ लगाया है उस पर उद्योतन हुए कहता है कि-गजन, उज्जयिनी मे अवन्ति नाम का
के 'प्रवन्ति राजा' के उल्लेख से क्या प्रकाश पडता है ? एक राजा है, उसकी पुत्री के सौदर्य को देखकर ही मैंने यह तदरूप चित्र बनाया है :
४. तथा गुर्जर प्रतिहार राजा को अवन्ति जनपद का 'उज्जेणीए राया अस्थि प्रवन्ति ति तस्स धूयाए। शासक मानने वाले विद्वानों के मत पर उपर्युक्त उल्लेखों बढ़ण इमं स्वं तहउ चिच विलिहियं एरथ ॥ का क्या प्रभाव पड़ता है तथा पाठवी सदी मे मालवा
(२३३.१६) और राजस्थान के क्या सम्बन्ध थे? प्रागे भी अवन्ति की रानी-रण्णो अवन्तिस्स (३१)
प्रथम प्रश्न के समाधान से सम्बन्ध में कहा जा तथा 'प्रवन्तिणा दिण्णा तस्स' (३२-३३) जैसे शब्दों के
सकता है कि 'अवन्ति जनपद' का उल्लेख पाणिनी के समय प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि उज्जयिनी के राजा
भी होता था। उसके बाद यह नाम निरन्तर प्रयुक्त का नाम अवन्ति था ।
होता रहा । साहित्य में और यत्रतत्र कला अवशेषों में कुवलयमाला के उपयुक्त तीन उल्लेख कई महत्त्व
भी किन्तु इस जनपद विशेष का नाम अवन्ति कैसे पड़ापूर्ण प्रश्न उपस्थित करते हैं, जिन पर इतिहासज्ञों को विचार करना प्रावश्यक है । यथा
इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पौरा१. मालवा प्रदेश का पूर्ण नाम 'अवन्ति जनपद
णिक विचारधारा है कि प्रत्येक कल्प मे यह शस्थली प्रचलित होने का क्या प्राधार है? अवनि जनपद के देवता, तीर्थ, प्रोषधि, बीज एव प्राणियो का प्रवन अनुसार वहाँ जातियो के नाम यथा--प्रवन्ति ब्रह्मा, (रक्षण) करती है अतः प्राचीन समय से ही अवन्ति नाम स्त्रियो के नाम यथ!-अवन्ति', भाषा का नाम यथा
से इसकी प्रसिद्धि है। यह प्राचीन समय क्या है ? कह प्रवन्तिजा' तथा निवासियों का नाम यथा--प्रवन्तिक' पाना कठिन है। किन्तु जहा तक रक्षण का प्रसंग है वह
किसी प्रतापी प्रजावत्सल राजा के साथ भी हो सकता है। १. राजतरगणी-कल्हण ।
जो राजा वहा के निवासियों प्रादि का भनी भाति रक्षण २. दृष्टव्य पाणिनीकालीन भारतवर्ष--डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० १०१
करता रहा हो बाद मे उसी के नाम से इस प्रदेश विशेष ३. प्राच्या विदूषकादीना योज्या भाषा प्रवन्ति जा- का नाम प्रवन्ति पड़ गया हो। साहित्य में प्रवन्ति नाम
नाट्यशास्त्र। के राजामो की परम्परा प्राप्त होती है। कालिदास ने ४. भाभीरकावन्तिककोशलाश्च मत्स्याश्च सौराष्ट्रविन्ध्यपालाः।
५. पौराणिक प्रवन्तिका और उसका माहात्म्य-वरांगचरित, उपाध्ये, ६ अध्याय, १५ श्लोक ३३ रामप्रताप त्रिपाठी, -विक्रम स्मृति ग्रन्थ, पृ० ४४३
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कुवलयमालाकहा में उल्लिखित राजा प्रवन्ति
प्रवन्तिनाथ,' प्रद्योतन ने प्रवन्ति एव अवन्तिवर्धन,' श्री प्रकाश परिमल का सुझाव है कि सम्भवतः उद्योतन जिनसेन के प्रवन्तिभूभृत का उल्लेख किया ही है। इति- ने दन्तिदुर्ग को ही प्रवन्ति समझ लिया है । अथवा लिपिहास मे कशमीर के हवीं सदी के एक राजा का नाम कार ने यह गड़बड़ी पैदा की है। किन्तु कुवलयमाला के अवन्तिवर्मन था। प्रतः किमी राजा का नाम प्रवन्ति होना स्पष्ट उल्लेखों के सन्दर्भ में यह सुझाब म्वीकार्य नही पाश्चर्य की बात नही है। १२वी सदी में अनहिल के लगता । सम्भवतया मालवा से प्राप्त अवशेषो के अध्य. प्रसिद्ध राजा जयसिंह सिद्धराज ने अवन्ति पर विजय यन से इस पर कुछ प्रकाश पड़ सके । प्राप्त कर 'अवन्तिनाथ' उपाधि भी धारण की थी।
मालवा का (उज्जयिनी) राजा प्रवन्ति था, उद्योतन दूसरे राजा के नाम पर नगर का नाम रखे जाने की के इस कथन की पुष्टि उनके ठीक ५ वर्ष बाद के प्राचार्य परम्परा भी भारत मे खोजी जा सकती है। बीकानेर जिनसेन द्वारा की जाती है । ७८३ ई० मे जिनसेन ने नगर का नाम महाराजा बीकाजी से जुड़ा हुआ है और हरिवंश पुराण की रचना की। उसमे उन्होने लिखा हैनगर से पूरे स्टेट को भी बीकानेर स्टेट कहा जाता सात सौ पाच शक सवत मे, जबकि उत्तर दिशा का इन्द्रा. रहा है। प्रत. इम सम्भावना पर विचार किया जा सकता युध, दक्षिण का कृष्णराज का पुत्र श्राबल्लभ, पूर्व दिशा है कि किसी अवन्ति नाम के राजा ने उज्जयिनी के सीमा- का श्रीमान् प्रन्तिगज और पश्चिम दिशा का वत्सवर्ती प्रदेश में विशेष प्रमिद्धि प्राप्त की हो और बाद मे राज तथा मौर्यों के अधिमण्डल सौराष्ट्र का वीर जयवराह उसकी स्मृति में वह प्रदेश विशेष प्रवन्ति के नाम से जाना पालन करता था...तब इस ग्रन्थ की रचना की गयी जाने लगा हो। पौराणिक मान्यता और साहित्य से इस थी। जिनसेन के इस श्लोक के तीसरे पद 'पूर्वा सम्भावना को बल मिलता है, ऐतिहासिक तथ्य मिलने श्रीमदन्तिभूति नृपेवत्सादिराजेऽपरा' का विद्वानो ने यह पर यह बात प्रमाणित भी हो सकती है ।
अनुमान लगाया कि वत्सराज अवन्ति का राजा था। उद्योतन द्वारा उल्लिखित उज्जयनी के राजा प्रवन्ति किन्तु डॉ. दशरथ शर्मा ने अनेक साक्ष्यो के माधार पर इस का कोई समय नही दिया गया है। किन्तु यदि प्रवन्ति अर्थ का खण्डन किया तथा यह स्थापना है कि वत्सराजा को उनका समकालीन ही माना जाय तो यह देखना राज पश्चिम प्रदेश का राजा था और पूर्वप्रदेश के राजा होगा कि इतिहास में किससे पहचान को जा सकता है। का नाम जिनसेन ने लिया नही, केवल प्रवन्तिराज कह प्रवन्ति जनपद (मालवा) पर ६६६ ई. में विनयादित्य दिया है। का शासन था, उसके बाद दन्तिदुर्ग राष्ट्रकूट राजा का
किन्तु उद्योजन के उपयुक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो वहाँ ७५३ ई० मे शासन रहा । ७९४ई. मे गोविन्द्र- गया कि उस समय मालवा का गजा कोई अवन्ति नाम धारावर्ष ने नागभट्ट।। से पवन्ति का शासन छीन लिया। का राजा था। अत: जिनसेन ने भी पूर्व दिशा के राजा का प्रतः ७५३ से ७६४ ई. के बीच के समय मे नागभट नाम छिपाया नही अपितु 'अवन्तिभूभूति' उसका असली का प्रवन्ति में कब शासन रहा यह विचारणीय है। नाम हा दिया है । जिसका मालवा पर ७७६ इ० स ७५३ तथा इसी समय क्या कोई अवन्ति नाम का शासन भी ई० तक तो शासन था ही, जिसका इन दोनों प्राचार्योवहा रहा? यह एक खोज का विषय है। मेरे एक मित्र उद्योतन-जिनसेन ने उल्लेख किया है। प्रतः सम्भवतः
दन्तिदुर्ग के बाद मालवा का शासन अवन्तिभूभूति के हाथों १.प्रवन्तिनाथोऽयमुदप्रवाहुविशालवक्षास्तनुवृत्तमध्यः। -
-रघुवंश, ६-३२ ६. शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिश पंचोत्तरेषतरां २. कुवलयमाला, २३३-१६; १५०,३१ ।
पानीन्द्रायुषनाम्नि कृष्णनुपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । ३. हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, श्लोक ५२।
पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वस्मादिराजेऽपरां, ४. विक्रम स्मृति ग्रन्थ, पृ. ४२७ । -दृष्टव्य सूर्याणामधिमण्डल जयजुते वीरे वराहेऽवति ।। ६६.५२ ५. वही, भास्कर भार.सी. मालेराव का लेख-दृष्टव्य । ७. राजस्थान यू. व एजेज, पृ० १२६ इत्यादि।
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२२४२३० १
अनेकान्
मे रहा हो। उसके बाद नागभट्ट II शासक बना हो तथा उसे हटाकर गोविन्द धारावर्ष ने मालवा पर अपना अधि कार किया हो ।
१. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १, पृ० ३५१ २. तत्वप्रभावमहनीयतमस्य तस्य शिष्योऽवभवज्जगति
उद्योतनम्ररि द्वारा उल्लिखित उज्जयिनी के राजा प्रवन्ति की पहचान यशोवर्मन के उत्तराधिकारी प्रवन्तिवर्मन से भी की जा सकती है। प्राचीन ग्वालियर राज्य से प्राप्त रनोड अभिलेख से ज्ञात होता है कि अवन्तिवर्मन नाम का एक राजा हुमा है, जो कि धर्म का अनुयायी था तथा मत्तमयूरनाव (वुश्दर) का समकालीन था। डॉ प्रकाश ने विस्तृत एवं सूक्ष्म अध्ययन के आधार पर अवन्तिवर्मन का समय ७६२ ई० से ७६७ ई० के मध्य निश्चित किया है। तथा यशोवर्मन के पत्र ग्राम एवं वतवर्मन को एक माना है, जिसका ग्वालियर राज्य पर शासन था । अवन्तिवर्मन का पुत्र पुण्डुक था, सम्भवतः जिसे उद्योतनसूरि ने दृढ़वर्मन कहा है ।"
इस अवन्तिवर्मन से उद्योतन द्वारा उल्लिखित अवन्ति राजा की पहचान करना अधिक उपयुक्त है। क्योंकि इसका समय भी उद्योतन के समय से मिलता-जुलता है।
मत्तमयूरनाथः ।
निःशेष कल्मषमषीमपहृत्य येन सङ्क्रामितम्परमहो नृपतेरवन्तेः ।
- कार्पस् इन्सक्रिप्शनस् इण्डीकरुम, भाग ४, पृ० २१३, दलोक ४९
तथा उसका राज्य भी ग्वालियर स्टेट में था, जो सम्भव है उज्जयिनी तक फैला रहा हो ।
३. In any case, it is Patent that this saint lived in the latter half of the eight cen tury and his contemporary Avantivarman flourished at that time.
- प्रास्पेक्टस् ग्राफ इंडियन कलचर एण्ड सिवि लाइजेशन, पृष्ठ ११३-१५
Y. It appears that this king (Ama) is the same as Avantivarman, the rular of the Gwalior region, mentioned above. His real name was Avantivarman and surname Ama. वही, पृष्ठ ११६
५. वही, पृ० १९६
उक्त प्रश्नों के इन समाधानों से चौथा प्रश्न कि वत्मराज प्रतिहार प्रवन्ति का शासक था - यह मान्यता स्वयमेव अर्थहीन हो जाती है ! वत्सराज राजस्थान के विभिन्न स्थानों का शासक रहा तथा उसका प्रवन्तिजनपद से कोई सम्बन्ध नहीं था- इस विषय मे डॉ० दशरथ शर्मा एवं डॉ० हीरालाल जैन ने सतर्क प्रमाण प्रस्तुत किये है, जिनका डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने निम्नलिखित शब्दो मे अनुमोदन किया है ।
I agree with Dr. Dasharatha Sharma and Dr. H. L. Jain that Vatsaraja need not be connected with Avanti the name of the rular of which is not obviously mentioned by Jinasena.
इस मान्यता को कुवलयमाला के एक प्रसंग से और बल मिलता है। उद्योतन ने वत्सराज की राजधानी जालोर मे रहकर कुवलयमालाकहा की रचना की है । वत्सराज उस समय वहाँ का प्रतापी राजा था। उद्योतन ने अनेक देशो के व्यापारियो के रूपरंग एवं स्वभाव का वर्णन करते हुए मालवा के व्यापारियों का वर्णन किया है कि शरीर से काले, ठिगने, क्रोधी, मानी एवं रौद्र स्वभाव वाले मालव 'भाउप भइणी तुम्हे' शादि शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। यदि उस समय का वत्सराज का मालवा पर शासन होता तो उसके राज्य मे रहने वाला लेखक मालवो के सम्बन्ध में ऐसे शब्द लिखने का साहस न करता । इस वर्णन से तो यह स्पष्ट लगता है कि वत्सराज श्रौर मालव राज्य के बीच अच्छे सम्बन्ध नही थे, जो तात्कालिक राजनीतिक स्थिति को देखते हुए बहुत स्वाभाविक था ।
न कालेज बीकानेर (राजस्थान)
६. वही, पृ० १२५ - २८५ ।
७. इण्ट्रोडक्शन टू कुवलयमालाकहा, डॉ० ए० एन० उपाध्ये १० १०७
८. तणु साम-मउह दे हे कोवणए माण-जीविणो- रोद्द | 'भाउय भइणी तुम्हे' भणिरे ग्रह मालवे दिट्ठ | कु. १५२.६
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जैन न्याय की एक अप्रकाशित कृति :
शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका
डा० गोकुलचन्द्र जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डी. प्रमेयकण्ठिका जैन न्याय की एक लघुकाय किन्तु विषय सप्तभंगी रूप है। संक्षेप में इसका विवेचन महत्त्वपूर्ण कृति है। माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुख के किया गया है। प्रथम सूत्र, 'स्वापूर्वाथव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' ५. पाचवें स्तबक में विस्तार के साथ जगत्कर्तुत्ववाद को प्राधार बनाकर इमकी रचना की गई है । लेखक ने की समीक्षा करके सर्वज्ञमिद्धि का प्रतिपादन किया ग्रन्थ के मगल श्लोक में कहा है कि परीक्षामुख के प्रथम गया है। सूत्र का विवेचन कर रहा है। वास्तव मे ग्रन्थ मे मात्र
ग्रन्थकार ने प्रत्येक स्तबक तथा ग्रन्थ के अन्त में इसी सूत्र का विवेचन नही है प्रत्युत प्रमाण शास्त्र के
इसका नाम प्रमेयकण्ठिका दिया है । कठिका गले मे पहसभी प्रमुख विषयो-प्रमाण का लक्षण. प्रमाण का फल,
नने का एक विशिष्ट आभूषण होता है। जिस प्रकार प्रामाण्य, प्रमाण का विषय, सर्वज्ञत्व विचार प्रादि का
कठ की शोभा कठिका से और अधिक बढ़ जाती है, उसी संक्षेप मे सुव्यवस्थित विवेचन किया गया है । जैन न्याय
प्रकार प्रमेयकण्ठिका से प्रमाणशास्त्र की श्रीवृद्धि होगी। माहित्य में इस प्रकार का दूसरा उदाहरण न्यायदीपिका
प्रमेयकण्ठिका में जितना विषय है, उतना तो प्रमाण है । धर्मभूषण यति ने तन्वार्थसूत्र के "प्रमाण
शास्त्र के अध्येता के गले मे रखा रहना चाहिए-उसे नये रधिगम." नामक सूत्र को आधार बनाकर इस की
कठान रहना चाहिए। कठिका समृद्धि की प्रतीक है, रचना की है तथा सक्षेप में प्रमाण शास्त्र के सभी विषयो प्रमयकाण्ठका विद्वत्ता का । को समाहित करने का प्रयत्न किया है।
प्रमेयकण्ठिका की भापा सरल सस्कृत है। पूरे ग्रंथ
मे मगलाचरण तथा अन्त के चार पद्यो के अतिरिक्त शेष विषय-विभाग
भाग गद्य में है । शैली अन्य न्याय ग्रन्थो जैसी होते हुई प्रमेयकण्ठिका पाच स्तबकों में विभाजित है ।
भी सरस प्रौर प्रवाहमयी है । ग्रन्थकार ने न्याय जैसे विषय वस्तु के साथ वे इस प्रकार है
दुरूह विषय को भी हृदयग्राही शैली में प्रस्तुत किया है। १. प्रथम स्तबक मे प्रमाण का सामान्य लक्षण, प्रमाण
प्रमयकण्ठिका का मैने सर्वप्रथम सम्पादन किया है। पोर फल का परम्पर सम्बन्ध तथा कथचित् उनके भेदाभेद का प्रतिपादन किया गया है।
इसका प्रकाशन शीघ्र होगा।
यह सस्करण निम्नलिखित दो हस्तलिखित प्रतियों २. द्वितीय स्तबक मे क्रमशः नयायिक, माख्य, प्रभाकर,
के आधार पर तैयार किया गया हैभाट्ट तथा बौद्ध सम्मन प्रमाण लक्षणो का विवेचन
प्र-यह प्रति श्री जैन सिद्धान्त भवन, पारा और उनकी समीक्षा प्रस्तुत की गई है।
(बिहार) की है। इसमे सफेद कागज पर लिखे ८३"x ३. तृतीय स्तबक में प्रामाण्य की ज्ञप्ति तथा उत्पत्ति के
६६ प्राकार के ३८ पत्र है। प्रत्येक पत्र में दोनों विषय में दर्शनान्तर सम्मत विचारधारामो की समीक्षा करके जैन दृष्टि का प्रतिपादन किया गया १. इसी प्रकार के कागज पर लिखे किसी अन्य न्याय
ग्रन्थ के पाठ पत्र भी इसी बस्ते मे भूल से रख दिये ४. चतुर्थ स्तबक में बताया गया है कि प्रमाण का गये लगते हैं, जिन्हे इसी ग्रन्थ का समझ लिया गया ।
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२२६, वर्ष २३, कि०५-६
मोर मिलाकर २२ पंक्तियां तथा प्रति पक्ति २१ अक्षर
विषय विवेचन है। प्रतिलिपिकार ने प्रतिलिपि करने का विवरण इस
प्रमार-लक्षरण विचार प्रकार दिया है
प्रमाण का व्युपत्तिलभ्य अर्थ है-प्रमीयते येन तत् "कोषनसवत्सरे माघमासे कृष्णचतुर्दश्यां विजयचनेण
प्रमाणम् अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो, वह नक्षत्रियेण श्रीशान्तिणिविरचिता प्रमेयकण्ठिका लिखि
प्रमाण है। सभी भारतीय दार्शनिको ने प्रमाण की यह वत्वा समापिता । भा भूयात् । वर्षता जिनशासनम् ॥"
सामान्य परिभाषा स्वीकार की है। यह प्रतिलिपि किस मूल प्रति से की गई है, इसकी प्रमाण से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का बोध होता जानकारी न तो इस प्रतिलिपि से प्राप्त हाती है और न ही है। तदनुसार हेय, उपादेय और उपेक्षणीय अर्थो मे यथा. किसी अन्य स्रोत से पता लग सका । अक्षरो की बनावट नुरूप प्रवृत्ति, निवृत्ति पोर उपेक्षा होती है। यही प्रमाण साधारणतया स्पष्ट होते हुए भी ग्रन्थ बहुत अशुद्ध है। शास्त्र की महत्ता और उपयोगिता का प्रमुख कारण है । प्रस्तुत सस्करण में इस प्रति के पाठान्तर प्रसकेत के साथ
भारतीय चिन्तन में प्रमाणशास्त्र के विकास की एक पाद टिप्पण में दिये गए है।
दीर्घकालीन परम्परा है। वेदो को स्वतः प्रमाण मानन ब-यह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वतीभवन, वाल मीमासक, ईश्वर का जगत का कर्ता मानने वाले व्यावर (राजस्थान) की है। इसम ११३"x६३" नयायिक, प्रकृति और पुरुप को सृष्टि का कारण और प्राकार के मफेद कागज पर लिखे १८ पत्र है । पहला मूल तत्त्व मानने वाले साख्य, सत्ता मात्र को क्षणिक पत्र एक मोर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र में दोनो ओर मानने वाले बौद्ध तथा अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को मिला कर २२ पत्तियाँ तथा प्रत्येक पक्ति मे पचास के मानने वाले जनों की सुदीर्घ चिन्तन परम्परा, विचारो के लगभग प्रक्षर है। प्रतिलिपि का विवरण इस प्रकार पारस्परिक आदान-प्रदान एव घात-प्रतिघात से प्रमाणदिया है
शास्त्र का पर्याप्त विकास हुमा है और प्रत्येक चिन्तन "मिति पौष सुदी १२ सवत् १९९१ ह. पं० ठाकुर- पद्धति के अनेक विशिष्ट ग्रन्थ उपलब्ध होत है । उन्ही के बास बोबे मुकाम चन्देरी।"
मालोक मे यहाँ विचार किया जायगा। यह प्रतिलिपि किस मूल प्रति से की गयी है, इसका
न्याय-बशेषिक पता नही चलता । प्रारा की प्रति की अपेक्षा यह शुद्ध है,
कणादका प्रमाण-लक्षण किन्तु पूर्णरूप से शुद्ध नहीं है। इस प्रति के पाठान्तरब
ताकिक परम्परा के उपलब्ध इतिहास मे कणाद का सकेत के साथ पाद टिप्पण मे दिये गए है।
स्थान प्रथम है । उन्होने प्रमाण सामान्य का लक्षण इस उपयुक्त दोनो प्रतियों के प्राधार पर पाठ सशोधन
प्रकार दिया हैकिया गया है। यदि अधिक प्राचीन और शुद्ध प्रति उप
"प्रदुष्टं विद्या ।" ६.२.१२ लब्ध होती तो सम्पादन में विशेष उपयोगी होती। इन अर्थात् निर्दुष्ट विद्या को प्रमाण कहते है। प्रमाण दोनो प्रतिलिपियो के तुलनात्मक अध्ययन से प्रतीत होता का यह लक्षण कारण शुद्धिमूलक है। है कि प्रतिलिपियाँ अलग-अलग मूलप्रतियो से की गयी है। गौतम का प्रमाण-लक्षण पारा की प्रति श्री नेमिचन्द्र जैन तथा ब्यावर की प्रति प्रक्षपाद गौतम का न्यायसूत्र प्रमाणशास्त्र का एक ५० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री के मौजन्य से प्राप्त हुई प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें प्रमाण सामान्य का लक्षण नही थी। इसके लिए दोनों का मामारी हूँ।
है । न्याय भाष्यकार वात्स्यायन ने इस कमी को प्रमाण विषय वस्तु के अनुसार पांच स्तबकों की सामग्री को शब्द के निर्वाचन द्वारा इस प्रकार पूरा किया हैमैंने एक सौ छम्बीस पेराग्राफों में विभाजित किया है। 'उपलग्यिसाधनानि प्रमाणानि इति समाख्यानिर्वचन
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शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका
२२७ सामर्थ्यात् बोद्ध व्यं प्रमीयते अनेन इति करणार्थाभिधानो मीमासकों की इस परम्परा मे न्याय-वैशेषिक तथा हि प्रमाणशब्दः।"
-न्याय भा० १.१.३ बौद्ध दोनो परम्परामों का संग्रह हो जाता है। 'प्रदुष्टइस लक्षण में कणाद की तरह कारण शुद्धि पर ध्यान कारणारब्ध विशेषण से कणाद कथित कारणदोष का न रखकर मात्र उपलब्धि रूप फल की अोर दृष्टि रवी निवारण हो जाता है तथा 'निर्बाधत्व' एव 'अपूर्वार्थत्व' गयी है।
विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्परा का भी समावेश हो वाचस्पति मिश्र
जाता हैवाचस्पति ने वात्स्यायन के उपर्युक्त निर्वचन मूलक "एतच्चविशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारेण कारणदोषप्रमाण-लक्षण में पाने वाले दोषो का परिहार करते हुए बाषकज्ञानरहितम् प्रगहोतग्राहिज्ञानं प्रमाणमिति 'अर्थ' पद का सम्बन्ध जोड़ कर प्रमाण लक्षण को इस
प्रमाणलक्षणं सचितम् ॥" प्रकार प्रस्तुत किया है
-शास्त्रदीपि० पृ० १२३ ___ "उपलब्धिमात्रस्य अभ्यभिचारिणः स्मृतेरन्यस्य कुमारिल कर्तृक माने गये निम्नलिखित इलोक से यह प्रमाणशब्देन अभिधानात् ।" -तात्पर्य०, पृ० २१ और भी स्पष्ट हो जाता हैउदयनाचार्य
"तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाघजितम् । उदयनाचार्य ने उपयुक्त लक्षण को 'गौतमनयसम्मत' अदुष्टकारणारब्धं प्रमाण लोकसम्मतम् ॥" कह कर इस रूप में प्रस्तुत किया है
इस लक्षण मे प्रमाणसामान्य लक्षण के ऐतिहासिक "यथार्थान भवो मानमनपेक्षतयेष्यते ।
विकास की दृष्टि से अनधिगत बोधक 'अपूर्व' पद का मिति: सम्यक परिच्छिति तद्वत्ता च प्रमातता।
समावेश प्रमाणलक्षण मे देखा जाता है। तदयोगव्यवच्छेद. प्रामाण्य गौतमे मते ।।"
बौद्ध ----न्यायकुसु० ४. १. ५ दिङ्नाग ने प्रमाण का लक्षण इस प्रकार दिया हैबाद के सभी न्याय-वैशेषिक ग्रन्थो में प्रमाण की यह 'स्वसंवित्तिः फलं चात्र तदरूपावर्थनिश्चयः । परिभाषा ममान रूप से मान्य है। इस परिभाषा के विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मोयते ।।" निष्कर्ष रूप में प्रमाण-मामान्य के लक्षण में मुख्यतया
-प्रमाणस० ११० निम्नलिखित बाते ध्यान देने योग्य है
इस लक्षण में स्वसवित्ति' पद का फल के विशेषण १. कारणदोष के निवारण द्वारा कारणशद्धि को रूप में निवेश किया गया है।
धर्मकीति ने प्रमाण लक्षण इस प्रकार दिया है२. विषयबोधक अर्थपद का लक्षण में प्रवेश ।
"प्रमाणमविसंवादिज्ञानमर्थक्रियास्थितः । मीमांसक
अविसंवादनं शाम्वेऽप्यभिप्रायनिवेदनात् ।।" प्रभाकर और उनके मतानुयायी मीमांसक विद्वानो
-प्रमाणवा० २.१. ने अनुभूति को प्रमाण माना है -
इम लक्षण में धर्मकीति ने 'अविसवादित्व' विशेषण "अनुभूतिश्च नः प्रमाणम् ।" -वृहती १. १. ५ का निवेश किया है। यह वात्स्यायन के 'प्रवृत्तिमामर्थ्य'
कुमारिल तथा उनकी परम्परा वाले अन्य मीमांसको तथा कुमारिल के 'निधित्व' विशेषण का पर्याय समझना ने यह लक्षण माना है
चाहिए। "पौत्पत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते ।
न्यायबिन्दु (१.२०) में धर्मकीति ने दिड नाग के पर्थप्रबायो व्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता ॥ सारूप्य का ही निर्देश किया है। सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा ॥'
शान्तरक्षित के लक्षण में दिङ्नाग तथा धर्मकीर्ति -श्लोकवा० पौत्प० श्लो०१०-११ दोनो के प्राशय का संग्रह देखा जाता है ।
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२२८, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
"विषयाषिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते ।
८. हेमचन्द्र स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।"
"सम्यगर्यनिर्णयः प्रमाणम्।" -प्रमाणमी० १.२ -तत्त्वसं० का० १३४४ ६. धर्मभूषण बौद्ध परम्परा के इस प्रमाण लक्षण में 'स्वसंवेदन' के
"सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।" -न्यायदी० पृ०१ विचार का प्रवेश हुमा तथा उसके द्वारा ज्ञान में 'स्वपर
जैन सम्मत प्रमाण लक्षरण का विकास प्रकाशत्व' को सूचित किया गया ।
प्रमाण के उपर्युक्त लक्षणों को देखने से ज्ञात होता प्रसंग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद स्थापित किया है कि हेमचन्द्र ने सभी जैन-जैनेतर प्रमाण लक्षणों को पर दिङ्नाग ने उसका जोरों से समर्थन किया। इस ध्यान में रख कर अपना प्रमाण-लक्षण निश्चित किया है। स्थापना और समर्थन पद्धति में स्वसंविदितत्व या स्वप्रका- इसमे पूर्वाचार्यों के स्व पद को सर्वथा अलग कर दिया शत्व का सिद्धान्त स्फुटतर हुमा, जिसका किसी न किसी गया है तथा 'अवभास', 'व्यवसाय' प्रादि पदो के स्थान रूप में अन्य दार्शनिकों पर भी प्रभाव पड़ा।
पर निर्णय पद रखा है एवं उमास्वामि धर्मकीर्ति तथा
भासर्वज्ञ के सम्यक पद को ग्रहण किया है। जैन परम्परा मे प्रमाण सामान्य के लक्षण का विकास धर्मभूषण ने सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कहा, क्योंकि निम्नलिखित रूप में देखा जाता है--
वही सम्यम् अर्थ का निर्णायक है। १. समन्तभद्र
इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में शाब्दिक मन्तर रहते "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।" हुए भी अर्थरूप में विशेष अन्तर नहीं है, प्रत्युत लक्षणो
-प्राप्तमी० १०१ का क्रमिक विकास विचार विकास का द्योतक है। "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।"
भारतीय प्रमारण शास्त्र में प्रमाण __ - बृहत् स्व०६३ प्रमाण लक्षण के इस ऐतिहासिक विकास क्रम को १. सिद्धसेन
देखने के उपरान्त वैचारिक दृष्टि से भी इसका पर्याय"प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बापाविजितम् ॥"
लोचन अपेक्षित है। -न्यायवा० १
प्रमाण के उक्न लक्षणों मे ज्ञात होता है कि भारतीय ३. प्रकलंक
प्रमाणशास्त्र में मुख्य रूप से दो दृष्टियाँ रही है"प्रमाणमविसवादिज्ञानम्, मनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्॥"
१. ज्ञान को प्रमाण मानने वाली। -प्रष्ट श० प्रष्टस० पृ० १७५
२. इन्द्रिय आदि को प्रमाण मानने वाली। ४. माणिक्यनन्दि "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् ।"
जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना
-परीक्षा० १.१ गया है। दोनो मे अन्तर यह है कि जैन सविकल्पक ज्ञान ५. विद्यानन्द
को प्रमाण मानते है बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को। इन "तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता ।
मान्यताप्रो की पृष्ठभूमि में दोनों परम्पराग्रो का सैद्धालक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ।।"
तिक चिन्तन विद्यमान है। जैनो की मान्यता है कि -- तत्त्वार्थश्लो० १.१०.७७;--प्रमाणपरी० पृ०५३
निविकल्पक ज्ञान प्रर्थ का निश्चायक नही हो सकता। ६. अभयदेव
इसलिए उनके यहाँ सविकल्पक ज्ञान नही बनता । "प्रमाणं स्वार्थनिर्णोतिस्वभावं ज्ञानम् ।'
दूसरी परम्पग वैदिक दर्शनो की है। न्याय-वैशेषिक, -----सन्मतिटी. पृ० ५१८ सांख्य-योग, मीमांसक सभी किसी न किसी रूप मे इन्द्रि७. वादो देवसूरि
यादि को प्रमाण मानते हैं। इसका भी कारण उनकी "स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम् ।"--प्रमाणन य०१.२ सैद्धान्तिक चिन्तन-परम्परा है । वैदिक दर्शनो मे ब्रह्म ही
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शान्तिवीकृत प्रमेयाकष्ठिका
२२९
सत्य है, जगत् मिथ्या है। ऐसी स्थिति में इन्द्रियादिक मानना चाहिए कि इन्द्रिय जिस पदार्थ से सम्बन्ध नहीं की प्रमाणता अपेक्षित है।
करती, उसे नहीं जानती, क्योकि यह कारक है, जैसे चार्वाक प्रात्म तत्त्व को ही नही मानता। इस- बढई का बसूला लकड़ी से दूर रह कर अपना काम नहीं लिए उसे इन्द्रिय ज्ञान को ही प्रमाण मानना अनिवार्य है। करता। जिस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय पदार्थ को छ कर
चिन्तन की इन दो विरोधी दष्टियों का प्रभाव प्रमाण जानती है, उसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ भी पदार्थ सस्पृष्ट की परिभाषा, उसके भेद तथा प्रामाण्य आदि के निर्धारण हो कर जानती है । पर पड़ा है। उसी का परिणाम है कि प्रारम्भ से अन्त सन्निकर्ष को प्रवृत्ति प्रक्रिया (न्यायमं० पृ०७४) तक यह दृष्टि-भेद सर्वत्र उपलब्ध होता है।
प्रत्यक्षज्ञान चार, तीन पथवा दो के सन्निकर्ष से नयायिकों का सन्निकर्षवाद
उत्पन्न होता है। बाह्य रूप प्रादि का प्रत्यक्ष चार के नैयायिक इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्रमाण मानते है। सन्निकर्ष से होता है । पात्मा मन से सम्बन्ध करता है, मन वात्स्यायन ने न्यायभाष्य मे प्रत्यक्ष की व्याख्या इस इन्द्रिय से, इन्द्रिय अर्थ से। सुखादि का प्रत्यक्ष तीन के प्रकार की है
सन्निकर्ष से होता है। इसमे इन्द्रिय काम नहीं करती। "प्रक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् । वृत्तिस्तु योगियों को जो आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। वह केवल मन्निकर्षी शान वा, यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमिति, प्रात्मा और मन के सन्निकर्ष से होता है। यदा ज्ञान सदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।" सन्निकर्षवाद की समीक्षा
--यायभा० १.१.३ नैयायिको के इस लक्षण का निरास जैन ताकिकों ने उद्योतकर ने भी न्यायवार्तिक में वात्स्यायन के भाष्य विस्तार के साथ किया है (न्यायकुसु० पृ० २५-३२, का अनुगमन करके सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों को प्रत्यक्ष प्रमेयक पृ० १४.१८) । सक्षेप मे वह इस प्रकार है। प्रमाण मान कर इसका प्रबल समर्थन किया है ।
१. वस्तु का ज्ञान कराने मे सन्निकर्ष साधकतम (न्यायवा० १.१. ३.) नही है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है। जिसके होने पर न्यायसूत्र की व्याख्या मे वाचस्पति का भी वही ज्ञान हो तथा नहीं होने पर न हो, वह उसमें साधकतम तात्पर्य है
माना जाता है। सन्निकर्ष में यह बात नहीं है। कही. गनियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमध्यवेश्यमव्यभिचारि
कही सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।" -न्याय० १.१.४ घट की तरह ग्राकाशप्रादि के साथ भी चक्ष का सन्ति
न्यायभाष्य (पृष्ठ २५५) तथा न्यायमजरी (पृ. ७३, कर्ष रहता है, फिर भी, आकाश का ज्ञान नहीं होता। ४७६) में इसका विस्तृत विवेचन है ।
प्रताव मन्निकर्ष प्रमाण नही है। सन्निकर्षवादी नैयायिको का कहना है कि अर्थ का
२. सभी इन्द्रियाँ छू कर जानती हों, यह बात नहीं ज्ञान कराने में सबसे अधिक मांधक सन्निकर्ष है । चक्षु
है। चक्ष छु कर नही जानती। यह छू कर जानती, तो का घट के साथ सन्निकर्ष होने पर घट का ज्ञान हाता आँख में लगे हुए प्रजन को देखना चाहिए, किन्तु नहीं है। जिस प्रथं का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नही होता, देखती। इसी प्रकार यदि छु कर जानती तो ढकी हुई उसका ज्ञान भी नही होता। यदि इन्द्रियों से असन्निकृष्ट वस्तु को नही जानना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। कांच प्रर्थ का भी ज्ञान माना जाएगा, तो सबको सब पदार्थों का प्रादि पारदर्शी द्रव्य से ढकी हुई वस्तु को वह जान लेती ज्ञान होना चाहिए । किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ है। अतएव चक्षु प्राप्यकारी नही है। जैन दार्शनिकों ने दृष्टि से मोझल होते है, उनका ज्ञान नहीं होता। चक्ष के प्राप्यकारित्व का विस्तार से खण्डन किया है
दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है, प्रार कारण (तत्त्वा. ग. वा. पृ० ८, न्यायकु० पृ० ७५-६२, दूर रह कर अपना काम नही कर सकता। प्रतएव यह प्रमेयक० पृ० २२०-२२६) ।
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२३०, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
३. सन्निकर्ष को प्रमाण मानने पर सर्वज्ञ सिद्ध नहीं बाली गाय को भी साधकतम कारण मानना होगा । इस हो सकता। क्योंकि यदि सर्वज्ञ सन्निकर्ष द्वारा पदार्थों तरह कारणों का कोई प्रतिनियम ही नहीं रह जाएगा। को जानेगा, तो उसका ज्ञान या तो मानसिक होगा या सांख्य का इन्द्रियवृतिवाद इन्द्रियजन्य । मन और इन्द्रियों की प्रवृत्ति अपने विषयों सांख्यों की मान्यता है कि अर्थ की प्रमिति में इन्द्रियमें क्रमशः होती है, तथा उनका बिषय भी नियत है, वृत्ति ही साधकतम है, अत: उसी को प्रमाण मानना जबकि त्रिकालवर्ती ज्ञेय पदार्थों का अन्त नहीं है । सूक्ष्म, चाहिए । इन्द्रियां जब विषय के प्राकार परिणमन करती अन्तरित तथा व्यवहित पदार्थों का इन्द्रियो के साथ है तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द प्रादि का ज्ञान कराती सन्निकर्ष नही हो सकता, अत: उनका ज्ञान भी नही हैं। इस प्रकार पदार्थ का सम्पर्क होने से पहले इन्द्रियों होगा। इस तरह सर्वज्ञ का प्रभाव हो जाएगा (मर्वार्थ का विषयाकार होना इन्द्रियवृत्ति है। वही प्रमाण है। पृ० ५७, तत्त्वा० ० ३६ न्यायकु० पृ० ३२)। योगदर्शन व्यासभाष्य में लिखा है
उपयुक्त दोषों के कारण इन्द्रियादि के सन्निकर्ष को 'इन्द्रियप्रणालिकया बाद्यवस्तुपरागात् सामान्यप्रमाण नहीं माना जा सकता।
विशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्षम्।" जरन्नयायिकों का कारकसाकल्यवाद
-योगद० व्यासभा० पृ० २७ जरन्नयायिकों की मान्यता है कि अर्थ का ज्ञान किसी इन्द्रियवृत्ति की प्रक्रिया के विषय मे साख्यप्रवचनएक कारक से ही होता, प्रत्युत कारकों के समूह से भायकार:
भाष्यकार ने लिखा हैहोता है । एक दो कारको के होने पर भी ज्ञान उत्पन्न
"प्रत्रयं प्रकिया इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्निकर्षण नही होता पार ममग्र कारका क रहन पर नियम स हाता लिंगज्ञानाविना वा प्रावो बुद्धः अर्थाकारा वृत्तिः जायते ।" है। इसलिए कारकसाकल्य ही ज्ञान की उत्पत्ति मे साधक
-सांख्यप्र. भा० पृ० ४७ तम कारण है । प्रतएव वही प्रमाण है । ज्ञान प्रमाण नहीं इन्द्रियवृत्ति की समीक्षा है, क्योकि वह ती फल है। फल को प्रमाण मानना बौद्ध, जैन तथा नैयायिक ताकिको ने सांख्यों का उचित नहीं है, क्योकि प्रमाण और फल भिन्न-भिन्न होते खण्डन किया है । बौद्ध तार्किक दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय है। न्यायमंजरीकार ने लिखा है
(१. २७) में, नैयायिक उद्योतकर ने न्यायवार्तिक (पृ० "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधा- ४३) मे, जयन्त भट्ट ने न्यायम जरी (पृ० १०६) मे तथा वोषस्वभावा सामग्री प्रमाणम् ।" -न्यायमजरी पृ० १२ जैन तार्किक प्रकलक ने न्यायविनिश्चय (१. १६५) में, समीक्षा
विद्यानन्द ने तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८७) मे, प्रभाचन्द्र कारकसाकल्य की उपयोगिता को स्वीकारते हुए भी ने न्यायकूमदचन्द्र (१०४०-४१) और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैन दार्शनिकों ने विशेष रूप से इसका खण्डन किया है (पृ० १६) मे, देवमूरि ने स्याद्वादररत्नाकर (पृ०७२) (न्यायकू. पृ० ३५-३६, प्रमेयकमल० पृ० ७-१३)। मे तथा हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा (q. २४) मे इन्द्रियउनका कहना है ---
वृत्ति का विस्तार से निरास किया है। जिसका सक्षिप्त १. कारकसाकल्य ज्ञान की उत्पत्ति में कारण अवश्य सार यह है - है, पर अर्थोपलब्धि मे तो ज्ञान ही कारण है। इसलिए १. इन्द्रियवृत्ति अचेतन है, इसलिए वह पदार्थ को कारकसाकल्य को अर्थोपलब्धि मे माधकतम कारण नही जानने में साधकतम नही हो सकती। माना जा सकता।
२. इन्द्रियों का पदार्थ के प्राकार होना प्रतीति २. यदि परम्परा कारणों को ग्रर्थोपलब्धि में साधक- विरुद्ध है। जैसे दर्पण पदार्थ के प्राकार को अपने में तम कारण माना जाएगा तो जिस पाहार या गाय के दूध धारण करता है, वैसे श्रोत्र मादि इन्द्रिया पदार्थ के से इन्द्रियों को पुष्टि मिलती है, वह माहार तथा दूध देने माकार को अपने में धारण करती नहीं देखी जातीं।
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शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकष्ठिका
२११
३. इन्द्रियवृति यदि इन्द्रियों से भिन्न है तो उसका ४. अर्थापत्ति से भी ज्ञातव्यापार सिद्ध नही होता इन्द्रियों से सम्बन्ध नही बनता और यदि अभिन्न है तो क्योकि प्रर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का साध्य के साथ सुप्तावस्था में भी इन्द्रिय व्यापार जारी रहना चाहिए। सम्बन्ध नही बनता । ___ इन कारणों से इन्द्रियवृत्ति प्रमाण नही है ।
५. प्रमाणो से सिद्ध न होने पर भी ज्ञातव्यापार का मीमांसकों का ज्ञातृव्यापार
अस्तित्व मानना उपयुक्त नहीं है। मोमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते है । उनका बौद्धसम्मत-लक्षण कहना है कि ज्ञातृव्यापार के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं हो बौद्ध न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष-लक्षण की दो परम्पराए सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमे देखो जाती है -पहली प्रभ्रान्त पद रहित और दूसरी क्रिया होती है । प्रात्मा, इन्द्रिय. मन तथा पदार्थ का मेल प्रभ्रान्त पद सहित । पहली परम्परा के पुरस्कर्ता दिङ्नाग होने पर ज्ञाता का व्यापार होता है और है तथा दूसरी के धर्म कीति । प्रमाणसमुच्चय (१.३) और वह व्यापार ही पदार्थ का ज्ञान कराने में कारण न्यायप्रवेश (पृ. ७) में पहली परम्परा के अनुसार लक्षण होता है। अतः ज्ञाता का व्यापार ही प्रमाण है
और व्याख्या है । न्यायबिन्दु (१. ४) और उसकी धर्मो(मीमासा इलो० १० १५१, शास्त्रदी० पृ० २०२)। तरीय प्रादि वृत्ति में दूसरी परम्परा के अनुसार लक्षण ज्ञातव्यापारवाद की समीक्षा
एव व्याख्यान है । शान्तक्षित ने तत्वसग्रह (का० १२१४) मीमांसकों की इस मान्यता का खण्डन वैदिक, बौद्ध में दूसरा सपरावा समर्थन किया है। धर्ममाति का तथा जैन सभी ताकिको ने किया है। वैदिक परम्पग में लक्षण इस प्रकार हैउद्योतकर ने न्यायवार्तिक (१० ४३) मे, वाचस्पति ने "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम् ।" -न्यायवि. १.४. तात्पर्यटीका (पृ.१५५) में तथा जयन्तभद्र ने न्याय- निविकल्पक प्रत्यक्ष मंजरी (१० १००) में विस्तार से खण्डन किया है। अभ्रान्त पद का ग्रहण या प्रग्रहण करने वाली दोनो बौद्ध दार्शनिकों में सर्वप्रथम दिङनाग ने अपने प्रमाण परम्पगो मे प्रत्यक्ष को निर्दिवरपक माना गया है। समुच्चय (१. ३७) मे इसका खण्डन किया है । शान्त
बौद्धो का कहना है कि प्रत्यक्ष मे शब्द-संसृष्ट मर्थ का रक्षित प्रादि ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है ।
ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योकि प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण जैन परम्परा में अकलंक, विद्यानन्द (तत्त्वार्थश्लो.
है,और वह क्षणिक है । इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक पृ० १८७, इलो० ३७). प्रभाचन्द्र (न्यायकु० पृ० ४२.
ही होता है।
क्षणभंगवाद ४५, प्रमेय० पृ० २०.२५), अभयदेव (सन्मति० १०
बौद्धो की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में उनका दार्श५३४, हेमचन्द्र (प्रमाणमी० पृ. २३) तथा देवसूरि
निक सिद्धान्त क्षणभगवाद है । 'सर्व क्षणिकम्'-सब कुछ (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३२१) ने ज्ञातृव्यापार का विस्तार
क्षणिक है- इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्यक्ष जिस स्वसे खण्डन किया है । जिसका निष्कर्ष इस प्रकार है
लक्षण को ग्रहण करता है उसमे कल्पना उत्पन्न हो, १. ज्ञातव्यापार किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहाहाता इसके पर्व ही वह नष्ट हो जाता है। इसलिए वह सवि. इसलिए वह प्रमाण नही है ।
कल्पक नही हो सकता। २. प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता। इन्द्रियज्ञान में तदाकारता का प्रभाव क्योंकि न तो ज्ञातृव्यापार का सम्बन्ध है और न मीमांसक बौद्धो का कहना है कि प्रथं में शब्दो का रहना स्वसंवेदन को मानते हैं।
सम्भव नही है और और न अर्थ शब्द का तादात्म्य ३. अनुमान प्रमाण से भी ज्ञातृव्यापार सिद्ध नही सम्बन्ध ही है । इसलिए प्रर्थ से उत्पन्न होने वाले ज्ञान होता, क्योंकि उसमे साधन से साध्य का ज्ञान रूप अनुमान को उत्पन्न न करने वाले शब्द के प्राकार का संसर्ग नही नहीं बनता।
रह सकता। क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता वह
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२१२. वर्ष २३ कि. ५-६
उसके प्राकार को धारण नही कर सकता। जैसे रस से अनुपयोगी है। जिस प्रकार मार्ग मे चलते हुए तृणस्पर्श मादि उत्पन्न होने वाला रसज्ञान अपने प्रजनकरूप प्रादि के का प्रनध्यवसाय रूप ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से लोक प्राकार को धारण नहीं करता। इन्द्रियज्ञान केवल नील व्यवहार में उपयोगी नहीं है, उसी प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान प्रादि अर्थ से उत्पन्न होता है, शब्द से उत्पन्न नहीं होता। भी अनुपयोगी है । अतएव वह प्रमाण नहीं हो सकता। इसलिए वह शब्द के प्राकार को धारण नही कर सकता। प्रमाण का फल इस प्रकार शब्द के प्राकार को धारण न करने के कारण जैन न्याय मे ज्ञान को प्रमाण माना गया है। इसवह शब्दग्राही नही हो सकता। जो ज्ञान जिसके प्राकार लिए अज्ञाननिवृत्ति को उसका फल माना है। प्राचार्य नहीं होता वह उसका ग्राहक नही हो सकता । प्रतएव समन्तभद्र ने लिखा हैनिविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है ।
"उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यावानहानधीः । निर्विकल्पक ज्ञान और लोक-व्यवहार
पूर्वा वाज्ञाननाशो वा सर्वस्थास्य स्वगोचरे ॥" निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न
-- प्राप्तमीमामा १०२ । करने की शक्ति है। प्रत: वह उसके द्वारा समस्त व्यव.
केवल ज्ञान का फल उपेक्षा बुद्धि है। शेष मति प्रादि हारो मे कारण होता है। निविकल्प प्रत्यक्ष के विषय को
ज्ञानो का फल हेय, उपादेय और उपेक्षा है । यह परम्परा लेकर ही पीछे के विकल्प उत्पन्न होते है। इसलिए निवि
फल है । माक्षान् फल प्रज्ञान निवृत्ति है। प्राचार्य पूज्यकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।
पाद ने सर्वार्थसिद्धि (१६१०) में इसका विस्तार से बौखों के सक्षण की समीक्षा
विवेचन किया है । भट्ट अकलक ने लिखा है
"प्रमाणस्य फलं साक्षात् सिद्धिः स्वार्थविनिश्चयः।" बौद्धो की इस मान्यता का बौद्धतर तक ग्रन्थों में
-सिद्धिवि० १।३। विस्तार से खण्डन किया गया है । भामह ने काव्यालकर
अर्थात् प्रमाण का साक्षात् फल अभीष्ट अर्थ के (५. ६. पृ.० ३२) और उद्योतकर के न्यायवार्तिक (१.
निश्चय की सिद्धि रूप अज्ञान की निवृत्ति है। १. ४ पु० ४१) मे दिङ नाग के प्रत्यक्ष लक्षण तथा वाच.
बाद के जैन दार्शनिको ने भी इसी दृष्टिकोण का स्पति मिश्र की तात्पर्यटीका (पृ० १५४), जयन्त भट्ट की
प्रतिपादन किया है । शान्तिवर्णी ने प्रमाण के फल का न्यायमजरी (पु. ५२), श्रीधर की न्यायकन्दली
विस्तार से विवेचन किया है। (१० १९०)प्रोर शालिकनाथ की प्रकरणपरीक्षा (पृ०४ )
जनेतर न्याय मे ज्ञान को प्रमाण का फल तथा ज्ञान मे धर्मकीति के प्रत्यक्ष-लक्षण की समीक्षा की गयी है।
के कारणो को प्रमाण माना गया है। वात्स्यायन और जैन दार्शनिको ने दिङ्नाग तथा धर्मकीति दोनो के
न्यायम जरीकार ने भी ज्ञान को प्रमाण मानने की स्थिति लक्षणो की समीक्षा की है। विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक
मे हेय, उपादेय और उपेक्षाबुद्धि को उसका फल कहा हैवार्तिक (पृ० १८५), प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ०
"यवा सन्निकरतदानानं प्रमितिः, यवा ज्ञानं तवा ४७) तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड (१० ४६) मे एव हेमचन्द्र ने
हानोपावेयोपेक्षाबुद्धयः फलम्।"-वात्स्यायन भा० पृ० १७ प्रमाणमीमासा (पृ. २३) मे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का
"प्रमाणतायां सामनपास्तज्ज्ञानं फलमिष्यते । विस्तार से खण्डन किया है।
तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः ॥" निर्विकल्पक ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से प्रप्रमाण
-न्यायम० पृ० ६२। निर्विकल्पक ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होता है । अनिश्च- प्रमाण पोर फल का भेदाभेव यात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि जैन न्याय मे प्रमाण और फल का कचित् भेदाभेद प्रमाण वही कहलाता हैं जो निश्चयात्मक हो।
माना गया है। जैन दर्शन में प्रात्मा को ज्ञान रूप माना लोक-व्यवहार में साधक न होने से प्रमाण
है तथा ज्ञान रूप होने से प्रमाण पोर फल दोनों रूप में निर्विकल्प ज्ञान प्रनिश्चयात्मक होने से व्यवहार में परिणमन करता है। प्रतएव एक प्रमाता की अपेक्षा
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शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका
२३६ प्रमाण पोर फल में प्रभेद तथा कार्य और कारण रूप से होने से किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं । इस हेतु से सर्वज्ञ की पर्याय भेद होने के कारण दोनों में भेद है। शान्तिवर्णी सिद्धि होती है। ने यह भी लिखा है कि ज्ञान रूप से दोनों में अभेद है भट्ट प्रकलंक ने सर्वज्ञता का समर्थन करते हुए लिखा तथा प्रमाण पोर फल रूप से भेद है।
है कि प्रात्मा में समस्त पदार्थों के जानने की पूर्ण सामर्थ्य जैन और बौद्ध न्याय के अतिरिक्त अन्य सभी नया- है। संसारी अवस्था में उसके ज्ञान का ज्ञानावरण से यिकों ने ज्ञान को प्रमाण का फल तथा ज्ञान के कारणों पावत होने के कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब को प्रमाण माना है। इस प्रकार वे प्रमाण और फल में चैतन्य के प्रतिबन्धक कमों का, पूर्ण क्षय हो जाता है तब सर्वथा भेद मानते है । विपरीत इसके बौद्ध प्रमाण प्रौर
उस अप्राप्यकारी ज्ञान को समस्त प्रों के जानने में क्या फल का सर्वथा प्रभेद मानते हैं ।
बाधा है (न्यायवि० श्लो० ४६५)। यदि अतीन्द्रिय सर्वज्ञसिद्धि
पदार्थों का ज्ञान न हो सके तो सूर्य, चन्द्र प्रादि ज्योतिर्ग्रहों सर्वज्ञता की खान्तिक पृष्ठभूमि
की ग्रहण आदि भविष्यकालीन दशाओं का उपदेश कैसे जैनदर्शन में प्रात्मा को ज्ञान गुण युक्त चेतन द्रव्य
हो सकेगा। ज्योतिज्ञानोपदेश प्रविसंवादी और यथार्थ माना गया है। कर्मों के प्रावरण के कारण उसका यह
देखा जाता है । अत: यह मानना अनिवार्य है कि उसका ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता। जैसे-जैसे कर्म का
पथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ दर्शन के बिना नही हो प्रावरण हटता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान का विकसित रूप
सकता। जैसे सत्य स्वप्न दर्शन इन्द्रिय मादि की सहायता प्रकट होता जाता है। इस प्रकार जब प्रावरण सर्वथा हट
के बिना ही भावी राज्यलाभ भादि का यथार्थ स्पष्ट जाता है तो निरावरण केवलज्ञान प्रकट होता है । इसे
ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान क्षायिक ज्ञान भी कहते है। केवल ज्ञानी त्रिकालवर्ती सभी
भी भावी पदार्थों मे सवादक और स्पष्ट होता है। जैसे रूपी-प्ररूपी द्रव्यो को समस्त पर्यायो को एक साथ जानता
ईक्षणिकादि विद्या प्रतीन्द्रिय पदार्थों का स्पष्ट भान करा है। कुन्दकुन्द ने लिखा है - "जं ताकालियमिवरं जाणदि जगव समतदो सम्वं ।
देती है, उसी तरह प्रतीन्द्रिय ज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक
होता है (सिद्धिवि० न्यायवि० आदि)। प्रत्यं विचित्त विसमं तं जाणं खाइयं भणिय ।।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा हैजो ण विजाणवि जुगवं प्रत्ये तेकालिके तिवणत्थे ।
"प्रजातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धस्तत्सिविः ।" णाएं तस्स ण सक्कं सपज्जय दम्मेक वा ।।
-प्रमाणमी० ११६ वश्वमणंतपज्जयमेकमणताणि दध्वजावाणि ॥
सर्वज्ञता की सिद्धि में बाधक प्रमाण का प्रभाव ण विजाणवि जवि जुगवं कब सो सव्वाणि जाणादि ।।" ।
प्रकलक ने सर्वज्ञता की सिद्धि में एक और यह हेतु -~-प्रवचनसार १।४७.४६ सर्वशसिद्धि का दार्शनिक प्राधार
दिया है कि सर्वज्ञता की सिद्धि में कोई भी बाधक प्रमाण सर्वज्ञ की उपयुक्त सैद्धान्तिक मान्यता को बाद के नही है। बाधक का प्रभाव सिद्धि का बलवान् साधक है। दार्शनिको ने तार्किक प्राधार देकर सिद्ध किया है। मुख्य जैसे मैं सुखी हूँ यहाँ सुख का बाधक प्रमाण नहीं है। आधार अनुमान प्रमाण है । समन्तभद्र ने लिखा है- चूकि सर्वज्ञ की सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, इस"सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षाः कस्यचिव्यथा।
लिए उसकी निधि सत्ता सिद्ध है। प्रकलक ने लिखा हैअनुमेयत्वतोऽन्याविरितिसर्वज्ञसंस्थिति:॥"
प्रस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासभवद्वापकप्रमाणत्वात् -आप्तमीमासा श्लो०५ सुखादिवत् ।'
-(सिद्धिवि०) सूक्ष्म पदार्थ परमाणु प्रादि, अन्तरित राम, रावण इसी सरणि पर बाद के जैन दार्शनिकों ने सर्वशसिद्धि प्रादि, दूरार्थ सुमेरु पर्वतादि अग्नि प्रादि की तरह अनुमेय का विस्तृत विवेचन किया है।
-L २२, नवीन शाहदरा दिल्ली-३२
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आराधनासमुच्चय का रचना-स्थल
पं०के० भुजबली शास्त्री, विद्याभूषण श्री क्षु० सिद्धसागर जी महाराज के द्वारा सम्पा- की मूर्तियां विराजमान है। यह मन्दिर प्राचीन और दित और हिन्दी में अनुवादित एवं दिगम्बर जैन समाज कलापूर्ण है । अनुमानत: ११वी शताब्दी का यह मन्दिर मोजमाबाद (जयपुर) के द्वारा प्रकाशित श्री रविचन्द्र वीरराजेन्द्र नन्नि चगाल्वदेव द्वारा पुन: प्रतिष्ठापित मुनीन्द्र विचरित प्राराधनासमुच्चय मेरे पास समालोच- होकर 'राजेन्द्र चोल जिनालय के नाम से प्रसिद्ध है। नार्थ पाया है । प्रस्तुत कृति की प्रस्तावना डॉ० कस्तूर. इस जिनालय के निकट कई शिलालेख हैं । इनसे चन्द्र कासलीवाल, एम० ए०, पी-एच०डी० (जयपुर) के सिद्ध होता है कि एक जमाने मे यह स्थान जैनो का एक द्वारा लिखी गई है
प्रसिद्ध केन्द्र रहा । लेखों में कतिपय मुनियों की परम्परा प्रस्तावना मे डॉ. कासलीवाल ने पाराधनासमुच्चय भी दी गई है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ के रचयिता रविचन्द्र मुनीन्द्र के सम्बन्ध मे लिखते हुए पर एक विशाल जैन मठ और प्रासपास बहुत से जैन यो लिखा है
मन्दिर विद्यमान थे। बल्कि आज भी इस स्थान पर "श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रः पनसोगेग्रामवासिभिग्रंथ.।
इसके बहुत से चिन्ह दृष्टिगोचर होते है। रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्वन्मनोहारी ॥
दक्षिण कन्नड जिला अन्तर्गत कारकल मे जैनो का इस पद्य से केवल उनके नाम का तथा पनसोगे ग्राम जो प्रसिद्ध 'जन मठ' है, वह इस हनसोगे मठ का हो का जहाँ इस कृति की रचना समाप्ति हुई थी, जानकारी
__ शाखा मठ है । यह बात अनेक शिलालेख एव ग्राथिक मिलती है। पनसोगे ग्राम डा० ए० एन० उपाध्ये के प्रमाणो से सिद्ध हो चुकी है। कारकल के मठ के ठीक अनुसार कर्नाटक प्रदेश में स्थित है। इससे यह तो सभ सामने 'चतुर्मुख जिनालय' के सामने जो विशाल, कलापूर्ण वतः स्पष्ट है कि कवि दक्षिण भारत के निवासी थे और मन्दिर है, तत्सम्बन्धी शिलालेख में भी स्थानीय ललित उनका कार्यक्षेत्र भी दक्षिण भारत ही रहा था। क्योकि कीर्ति भट्रारक को हनसोगे अथवा पनसोगे के देशीयअब तक जितने रविचन्द्र नाम के विद्वानों के उल्लेख गणीय स्पष्ट उल्लेख किया है। कविचन्द्रमविरचित मिले है, वे सब दक्षिण भारत से सम्बन्धित हैं।" 'गोम्मटेश्वरचरिते' में, इन्होने भट्टारक ललितकीति को
प्रागे कस्तूरचन्द जी फिर लिखते हैं कि उक्त (डा. पनसोगे पूर्वाद्रि के अनुपम सूर्य बतलाया है । ए० एन० उपाध्ये द्वारा) सभी रविचन्द्र कर्नाटक प्रदेश इसी प्रकार 'जिनयज्ञफलोदय' के रचयिता मुनि में हुए और वही प्रदेश उनकी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कल्याणकीति जी ने भी गुरु ललित कीति जी को मूलसघ, गातावधियो का कन्द्र रहा । इसालए यहा अाधक सम्भव कुन्दकुन्दान्वय, देशीयगण, पुस्तक गच्छीय देवकीर्ति जी के है कि पाराधनासमुच्चय के कर्ता भी कनटिक प्रदेश के शिष्य, पनसोगे वंश के रत्न चारित्रवान्, शीलवान् प्रादि रहे हों और दक्षिण भारत ही उनकी गतिविधियों का
बतलाया है। विशेष विवरण के लिए मेरे द्वारा सम्पादित केन्द्र रहा हो।"
__ और 'जैन सिद्धान्तभवन' पारा की ओर से प्रकाशित अब हनसोगे का परिचय लीजिए । मैसूर जिलान्तर्गत
'प्रशस्ति संग्रह' में कल्याणकीर्ति का 'जिनयज्ञ फलोदय' कृष्णराजनगर तालूके में साले ग्राम से लगभम ५ माल दूरा ग्रंथ का परिचय देखें। पर अवस्थित हनसाग हा अाराधनासमुच्चय का रचना इस प्रकार प्राराधनासमुच्चय का रचनास्थल का स्थल है। यहां पर इस समय एक त्रिकूट जिनालय मोजूद परिचय है। मनि रविचन्द्रजी का विशेष परिचय मालूम है। इस जिनालय मे प्रादिनाथ, पाश्वनाथ और नेमिनाथ होने पर उसे भी अवश्य प्रकाशित करूंगा।
-मूरविडी (दक्षिण कनारा)
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तिलकमञ्जरी: एक प्राचीन कथा
डा० वीरेन्द्रकुमार जैन
धनपाल (११वीं शती) कृत तिलकमंजरी प्राचीन संस्कृत गद्य साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति है। काव्य शास्त्र की दृष्टि से यह कृति जितने महत्व और उपयोग की है, उससे भी अधिक महत्व और उपयोग की इसलिए है क्योंकि इसमे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास की प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है। पिछले वर्षों में तिलकनंजरी पर दो शोध-प्रबन्धों पर पी० एच० डी० मिली है तथा एक और तैयार हो रहा है
१. तिलकमंजरी का श्रालोचनात्मक अध्ययन डा० वीरेन्द्रकुमार जैन, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, १६६६, स्वीकृत, श्रप्रकाशित ।
२. धनपालकृत तिलकमजरी का श्रालोचनात्मक अध्ययन : डा० जगन्नाथ पाठक, हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, १९६६, स्वीकृत, अप्रकाशित ।
३. ए क्रिटिकल स्टडी आफ तिलकमजरी ग्राफ धनपाल : श्री एस० के० शर्मा, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ( तैयारी में)
।
इन प्रबन्धों के प्रकाशित होने पर तिलकमंजरी की महनीय सामग्री का उपयोग हो सकेगा । अभी तक तिलकमञ्जरी का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित नही हुआ इसलिए इसे व्यापक प्रसार नहीं मिला। यहाँ प्रस्तुत है तिलकमंजरी की संक्षिप्त कथा वस्तु उत्तर कोशल देश मे अवस्थित अयोध्या नगरी मे सार्वभौम ऐक्ष्वाकुवंशी राजा मेघवाहन थे और उनकी रूप गुण युक्ता पट्टरानी मदिरावती थी । सर्वसुख उन्हें सुलभ थे किन्तु निःसन्तानता से वे दुःखी थे । एक बार विद्याधर मुनि श्राकाश मार्ग से उनके भवन के ऊपर से निकले। राजा रानी की भक्ति से प्रसन्न मुनि ने उन्हे राजलक्ष्मी देवी की उपासना करने का उपदेश दिया । देवी की प्राराधना और अनन्य समर्पण से राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम हरिवाहन रखा गया । हरिवाहन को योग्य शिक्षा-दीक्षा दी गई और राजा उसके योग्य मित्र को खोजने को उत्सुक रहने लगे ।
एक बार जब वे राजसभा मे बैठे थे तब ही दक्षिणा पथ के सेनापति वज्रायुध का प्रधान राजपुरुष विजयवेग प्राया और उसने बालारुण नामक अगुलीयक राजा को भेंट किया। राजा ने बच्चायुध की कुवालक्षेम पूछीविजयवेग ने उसके उत्तर मे सेनापति और राजकुमार समरकेतु के बीच हुए प्रद्भुत युद्ध का विवरण सुनाया ।
उसने कहा कि आपसे भेंट करने हेतु वह नगर के बाह्यद्यान मे आया हुआ है । राजा ने हरदास नामक महाप्रतिहार को भेजकर समरकेतु को सादर बुलाया और उसका मादर सरकार किया। राजा ने हरिवाहन और समर केतु को अभिन्न मित्र बना दिया ।
दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। एक बार ग्रीष्म मे वे मत्तकोकिल उद्यान को गए । वहाँ पर उनकी गोष्ठी में मन्जीर नामक बन्दिपुत्र एक प्रेम पत्र ले भाया । उसपर एक भार्या लिखी थी। उसके विचार-विनिमय से सभी प्रसन्न थे किन्तु राजकुमार नमरकेतु को अपना प्रेमप्रसंग स्मरण प्राया और वह अत्यन्त खिन्न हुआ । हरिवाहन के द्वारा खिन्नता का कारण पूछने पर समरकेतु ने अपना कथन प्रारम्भ किया ।
'सिंहलद्वीप की रंगशाला नगरी मे चन्द्रकेतु नाम का राजा है। मैं उनका भद्वितीय पुत्र हैं । दृष्ट सामन्तो को दमन करने के लिए जल सेना को लेकर पिता ने द्वीपांतरों को भेजा था । मेरी सहायता के लिए सकल कैवर्ततंत्र का
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२३६, वर्ष २३, कि०५-६
अनेकान्त
नायक तारक मेरे साथ था। अपना राजकार्य पूर्ण करके एक दिन अकस्मात् वैरियमदण्ड नामक प्रधान हस्ती जब एक बार मेरी सैन्य रत्नकूट नामक द्वीप पर विश्राम गजशाला से निकल गया और उसे वश में करने के सभी कर रही थी तब ही मुझे अद्भुत गीत-बादित्रों की ध्वनि उपाय निष्फल हो गए । करिसाधनाध्यक्ष के निवेदन पर सुन पड़ी। उसे सुनकर, उसके उद्भव का कारण जानने हरिवाहन ने अपने अद्भुत वीणावादन से उसे वश में की मुझे जिज्ञासा हुई। तारक के साथ नाविकों सहित, कर लिया और उस पर जा बैठा । ज्योंही उसने अंकुश रात्रि में ही, एक नौका द्वारा हम सबने उसी ध्वनि की मारा, हस्ती प्रत्यन्त वेग से बढ़ा और लाख प्रयत्नों के दिशा की पोर प्रस्थान किया। जैसे ही नौका उस ध्वनि पश्चात् भी न रुक सका और राजकुमार को लिए हुए के निकट पहुँची वह ध्वनि समाप्त हो गई। मुझे अपने अदृश्य हो गया। समरकेतु प्रादि को अत्यधिक दुख हुआ। इस अविचारित कार्य पर पश्चात्ताप हुमा। तब ही एक अन्त में हरिवहन के लिखे हुए एक पत्र से सभी को उसकी प्रभाराशि युक्त खेचर नरेन्द्र वन्द प्राकाश मार्ग से निकला। सुरक्षा के विषय में प्राश्वासन मिला। सम्मुख एक कांचन शिलामय दिव्य पायतन देखकर मुझे समरकेतु अपने मित्र के बिना एकाकी नही रह प्रसन्नता हुई।
सकता था और उसे अन्वेषण करने के लिए वह एकाकी ___ मैंने निश्चय किया कि मन्दिर के भीतर अवश्य ही ही निरन्तर छह मास तक जंगलो, नगरो, पर्वतो पर कोई होना चाहिए। कुछ ही काल पश्चात कुछ सुन्दरी भटकता हुमा एकशृग पर्वत के निकटस्थ प्रदृष्टपार सरोवर कन्यायें उस मन्दिर के ऊपरी छ। पर दष्टिगोचर हई। पर जा पहुँचा। उसके शीतल एव सुगन्धित जल से उनके मध्य मे सविशेष रूप से सुन्दरी एक षोडशवर्षीया मायायित होकर वह सो गया। उसे स्वप्न में पारिजात कन्या थी।' समरकेतु इतना कह ही रहा था कि प्रतिहारी वृक्ष दिखाई दिया। उससे उसे मित्र के मिलने का शुभ एक दिव्य चित्रपट ले माई। उसने कहा कर्णामत के संकेत प्रतीत हुप्रा । तत्पश्चात् अश्ववृन्द की हेषाध्वनि पश्चात् ईक्षणामृत का स्वाद लीजिए और उसे हरिवाहन सुनाई दी। उसके उद्भव को जानने की कामना से वह के प्रागे बढ़ा दिया। हरिवाहन ने गन्धर्वक से उस चित्र उत्तर दिशा की ओर चल पडा। कुछ दूर चलने पर उसे में अकित राजकुमारी का परिचय प्राप्त किया। उनके एक मनोरम उद्यान, उसके भीतर कल्पतरु खण्ड मौर मध्य चित्रकला के विषय में मधुगलाप हए। चित्र में उसी के मध्य मे पराग शिलापो से निर्मित एक प्रायतन विजया की दक्षिण श्रेणी के चक्रवर्ती चमसेन की पुत्री दिखाई दिया। उसके भीतर चिन्तामणिमयी, महाप्रमाण, तिलकमंजरी अंकित थी। गन्धर्वक ने अपने दूरगमन का प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव की प्रतिमा दृष्टिगोचर हुई। प्रयोजन कहकर राजकुमार से विदा ली और पुन दूसरे उसने बड़ी भक्ति से भगवान की स्तुति की। दिन आने को कह कर चला गया। उसे चलते हुए राज- अभी वह अपने पाश्चर्य मे ही डूबा था कि उसे कुमार समरकेतु ने काची नगरी मे राजकुसुम शेखर और हरिवाहन' नाम सुनाई दिया। बाहर निकला तो उसे गन्धर्वदत्ता की पुत्री मलयसुन्दरी को एकान में देने के लिए एक मठ दिखाई दिया। तत्पश्चात् गन्धर्वक मिला । एक पत्र भेंट किया।
गन्धर्वक ने कहा अभी-अभी हरिवाहन को विद्याधरों का राजकुमार हरिवाहन ने दूसरे दिन गन्धर्वक के पाग- चक्रवर्तित्व मिला है । पाप भी उनके दर्शन करे । मन्दिर मन का पथ देखा, किन्तु वह न पाया। इस प्रकार कई के बाहर चारों पोर अजितादि तीर्थंकरों की चौबीसी मास निकलते गये और हरिवाहन तिलकमंजरी के विरह की वन्दना करके, लिलकमंजरी सहित बैठे हुए हरिवाहन से व्याकुल रहने लगा । अन्त में देशदर्शन की प्राज्ञा लेकर से समरकेतु ने भेंट की। वह मित्रों सहित वर्षों के पश्चात् अयोध्या से बाहर निकल तत्पश्चात उत्तर श्रेणी के विद्याधरों की राजधानी पड़ा। चलते-चलते वह कामरूप देश में जा पहुँचा और गगनबल्लभनगर में प्रवेश के लग्न की सूचना विराध लोहित्य नदी के तट पर स्कन्धावार डाल दिया। नामक नर्मसचिव ने दी। उसे श्रवण कर अपने-अपने
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तिलकमजरी : एक प्राचीन कपा
घोड़ों पर बैठ कर वे वहां पहुंचे। भोजनादि के पश्चात् तब मैंने महाशय मुनि से सुनी अपनी माता गन्धर्वसमर केतु ने हरिवाहन से हाथी के द्वारा अपहरण से पागे दत्ता की कथा (मर्थात् उसके माता पिता, उनके नगर में की कथा पूछी। हरिवाहन ने अपना लम्बा वृत्तान्त कहना विप्लव में हुआ उसका वियोग, उनसे पुनर्मिलम प्रादि प्रारम्भ किया। उसने कहा-जैसे ही मैंने प्राकाशगामी की) सुनाई। विचित्रवीर्य और उनके मंत्री को इससे उस मायावी हाथी को रोकने के लिए खड्गधेनुका स्पर्श विश्वास हो गया कि यह गन्धर्वदत्ता उन्हीं की अपहृत की, उसने चिंघाड़ कर अपने सहित मुझे नीचे स्थित पुत्री है । प्रातःकाल स्वस्थान को जाने के पूर्व विचित्रवीर्य अदृष्टपार सरोवर में गिरा दिया। मैं तैर कर किनारे ने एक विद्याधर को प्रादेश दिया कि वह राजकुमारियों लगा और कर्मशक्ति की प्रचण्डता को सोचने लगा । को सुन्दर स्थानादि दिखाये और उन्हें प्रलक्षितरूपेण निर्जन वन मे किसी भी व्यक्ति से पथ पूछने हेतु एक अपने अपने गृहों को भेज दे। दिशा की ओर चल पडा। चलते हुए मुझे मानुषपद तत्पश्चात् मन्दिर की छत पर चढकर मैंने एक पठा. श्रेणी दिखाई दी। उसके अनुसार चलकर एक एलालता- रह वर्षीय राजकुमार को समुद्र पर नाविकों सहित नाव गृह में पहुँचा । उसमें एक दिव्य कन्या थी। मुझे देखकर में अवस्थित देखा। उसे देखकर मुझे उसके प्रति अनुगग वह डर गई। उसे प्राश्वस्त कर अपना परिचय देकर मैने हुमा । वह राजकुमार भी मुझे देखकर कामपीड़ित हमा । उससे स्थान प्रादि का परिचय जानना चाहा किन्तु वह उसके नाविक तारक और मेरी सखी वसन्त सेना के बिना उत्तर दिए ही चली गई।
माध्यम से हम दोनों ने अपने को एक दूसरे को समर्पित उसके चले जाने पर चित्र के अनुरूप उसका स्मरण कर दिया। इतने में उस विद्याधर ने भाकर मुझे पौर कर मैं अधीर हो गया और उसे तिलकमंजरी होना सभी सखियों को हरिचन्दन के तिलक लगाये और दिव्य निश्चय करके उसका अन्वेषण करने लगा | उसकी मालाएं पहनाई । तिलक लगते ही हम सब अदृश्य हो गई पदपंक्ति का अनुसरण करते हुए उसी मन्दिर मे जा और माला को मैंने ऊपर से ही नीचे अवस्थित राजकुमार पहुँचा और प्रादि तीर्थकर की स्तुति मे ध्यानमग्न होकर के गले मे वरमाला की भांति डाल दी। राजकुमार एक तापस कन्या को देखा । पूजन के पश्चात् उसने मेरा अत्यधिक प्रसन्न था। इसी बीच तारक ने कहा कि तुम्हारी हार्दिक प्रातिध्य किया। मैंने अपना वहाँ तक पहुँचने का प्रेयसी का मायावियों ने अपहरण कर लिया है । मुझे वहाँ वत्तान्त उसे सुनाया। उसके वृत्तान्त को श्रवण करने हेतु अवस्थित न देखकर राजकुमार ने शोकवश समुद्र में छलांग जब मैंने प्रश्न किया तो वह रोने लगी। पाश्वस्त करने लगा दी। उसी के साथ सभी नाविक भी डूब गये। अपने पर उसने कहना प्रारम्भ किया
प्रेमी की इस अप्रत्याशित घटना को देखकर शोकविह्वल ____ 'मैं दक्षिण में कांची के राजा कुसुमशेखर और गर्व हो समुद्र मे कूद गई। दत्ता की पुत्री है। मेरा नाम मलय सुन्दरी है। जन्म के जब मेरी निद्रा दूर हुई तो मैंने अपने को अपनी उसी समय ही ज्योतिषी बसुरात ने कहा कि मुझसे विवाह शयनशाला मे पाया। सखी बन्धुसुन्दरी के माश्चर्य का करने वाला विशाल विद्याधर राज्य सम्पदा का उत्तरा- दूर करते हुए मैने उसे समस्त घटना सुनाई। उसने मुझे धिकारी होगा। एक बार शयनशाला से मेरा रात्रि मे प्राश्वस्त किया। एक युद्ध से त्रस्त मेरे पिता ने सन्धि के अपहरण हो गया। अनेक राजकुमारियों से मैं घिरी थी। हेतु मुझे वायुध को विवाहित करना चाहा। उस समामझे ज्ञात हमा कि विचित्रवीर्य चक्रवर्ती, भगवान महावीर चार से खिन्न होकर मैने कामदेवोथान में फांसी लगाकर का निर्वाणोत्सव मनाने पाया है और नृत्य हेतु इन राज- प्रात्म हत्या करनी चाही। बन्धुसुन्दरी के प्रयास से बची कुमारियों का अपहरण कर लाया गया है। मेरी दिव्य हुई मैंने, जब अपनी मांखें खोलीं तब समरकेतु को देखा। नृत्य कला से विचित्रवीर्य को पाश्चर्य हुमा । अनन्तर बन्धुसुन्दरी ने मेरा उसे परिचय दिया। समरकेतु ने भी उसने मुझसे कहा कि मैंने यह नृत्य कला कैसे सीखी। अपने समुद्र से बचने, कांची में कुसुमशेखर की सहायता
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२३२३० ५-६
-अनेकान्त
को धाने यादि का वृत्तान्त मुझे बतलाया बन्धुसुन्दरी हुमा । उसी समय देवी तिलकमंजरी ने, भदृश्य रूप से ने हमारा पुनः पाणिग्रहण कराया ।
नगरदर्शन हेतु एक निशीथ नामक दिव्य पट भेजा था । उस शुक को जैसे ही मैंने उठाया कि दिव्य पट के प्रभाव से वह गन्धर्वक बन गया। इस माश्चयं से चमत्कृत गन्धक ने अपनी कथा कही ।
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अयोध्या में प्रापके प्रथमदर्शन के पश्चात् चक्रवर्ती विचित्रवीर्य से दिव्य दारुमय विमान लेकर मैं कांची की घोर वेग से चला मार्ग में मूच्छित मन्यसुन्दरी को लेकर शीघ्र ही अपहृत करने हेतु, भगवान महावीर के जिनालय के ऊपर से दुर्भाग्यवश जा निकला। उसके रक्षक महोदर यक्ष से वाद-विवाद के कारण शापवश शुक बना दिया गया। महोदर ने ही बताया कि उसने समुद्रमरण से समरकेतु और उसके नाविकों तथा मलय- सुन्दरी की रक्षा की थी उसी ने अपनी दिव्य शक्ति से विमान सहित मलयसुन्दरी को श्रदृष्टपार सरोवर मे उपस्थित कर दिया था इसी महोदर ने बेतास बनकर राजा मेघवाहून की परीक्षा ली थी।
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तत्पश्चात् समरकेतु प्रपने शिविर में प्राया धोर geet लेकर बन्धु सुन्दरी भन्तःपुर में भाई । फांसी लगाने की घटना से दुखी पिता ने मुझे वायु को न देने का निश्चय करके प्रशान्तबंराश्रम को रातोंरात भेज दिया । वहाँ पर एक दिन सायंकाल एक ब्राह्मण पाया मौर उसने कुलपति को बच्चायुप और समरकेतु के युद्ध तथा उसमें समरकेतु की दीर्घनिद्रा का समाचार सुनाया । उसको सुनकर मैंने पुनः समुद्र में मरण करने का निश्चय किया किन्तु तरंगलेखा को प्राती देखकर निकटस्थ किपाक नामक विष फल का भक्षण कर लिया। मूर्च्छा के पश्चात् जब मेरी निद्रा समाप्त हुई तो सरोवर में पड़े हुए एक दाम विमान में अपने को पड़े हुए पाया। मैने पुनः जल मे मरने की कामना से अपना गात्रिका बन्धन दृढ़ करते उसमें हुए लेख बंधा पाया । एक तत्पश्चात् प्रियतम से मिलने की भाशा से मरणनिश्चय, छोड़कर यहां पर ही एकाकिनी रहती हुई भगबद-भक्ति में समयापन करती है। यहीं पर चित्रलेखासे पूर्व परिचय के कारण देवी पत्रलेखा एवं उनकी पुत्री तिलकमंजरी से परिचय हुआ और यह ज्ञात हुआ कि वह दारुमय विमान विचित्र वीर्य चक्रवर्ती ने अपनी दूसरी पुत्री पत्रलेखा के लिए गन्धर्वक द्वारा भेजा था। मलयसुन्दरी की कथा को सुनकर मैंने उसे प्राश्वस्त किया और तुम्हारे जीवित होने का समाचार सुनाया । तत्पदात हरिवाहन ने एक पत्र लिखा जिसे एक शुक लेकर उसके स्कन्धावार को ले गया । इसी बीच मलयसुन्दरी की दासी चतुरिका ने तिलकमंजरी की अस्वस्थता का समाचार दिया। उसने तिलकमजरी के पुष्पा वचय, एक हाथी के सरोवर मे गिरने, और सभी से तिलकमंजरी की प्रस्वस्थता का समाचार दिया ) । मलयसुन्दरी ने उससे कहा कि मेरे यहाँ राजकुमार हरिवाहन अतिथि रूप से उपस्थित है प्रतएव उसे एकाकी छोड़कर नहीं पा रही है।
दूसरे दिन तिलकमजरी स्वयं धाई और मलयसुन्दरी .को भोर मुझे अपने भवन को ले गयी । भोजन के पश्चात् जब मैं बैठा था, तभी वही शुक एक पत्र लाकर उपस्थित
पत्र को पढ़कर तुम्हें ( समरकेतु को ) देखने की इच्छा से मलयसुन्दरी और तिलकमंजरी से अनुमत होकर चित्रमाथ विद्याधर सहित विमान मे बैठकर अपने मण्डल की घोर चल पडा । शिविर मे पहुँच कर जब मुझे ज्ञात हुआ कि तुम मेरे लिए जगलों में खोज रहे हो तब मैं भी चित्रमा को लौटाने के लिए अपनी असमर्थता प्रदर्शित करके तुम्हें खोजने के लिए निकल पड़ा। एक बार मार्ग मे गन्धर्वक मिला। उसने मेरे वियोग में समाप्त तिलक मंजरी की करुणाभरी अवस्था का वर्णन किया - "जब चित्रमा ने पहुंच कर मित्र कोने के लिए आपके प्रयत्न को तिलकमंजरी को सुनाया तब तिलकमंजरी की आज्ञा से अनेक विद्याधर सैनिकों के द्वारा आपको बूढ़ता हुआ मैं यहाँ पहुँचा हूँ । प्राप चलिए धौर मठ में ठहरिए । प्रापके मित्र की खोज विद्याधर करेंगे।" मैं तिलकमंजरी के माह से मठ में जा पहुंचा ।
वहाँ रहते हुए एक बार पिता जी ने मेरे पास चन्द्रात दिव्यहार और बालारुण दिव्य मंठी भेजी। मैने तिलकमजरी देवी के लिए हार धौर मलयसुन्दरी के लिए बालारुण मंगुलीयक भेंट स्वरूप भेज दिए। इसके
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तिलकमन्जरी : एक प्राचीन कया
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दूसरे दिन एक दासी ने पाकर एक पत्र मुझे दिया जिसका महावीर स्वामी का और एक श्रृंग पर प्रादिनाथ के माशय यह था कि इस हार के कारण अब तिलकमजरी मन्दिर बनवाये थे। महर्षि ने यह भी बतलापा कि देवी का मापसे विवाह न हो सकेगा। इस अप्रत्याशित हरिवाहन तद्भव मोक्षगामी है। समाचार से मैं मरण के लिए चल पड़ा। चलते हुए मैंने तभी से प्रापको निरंतर ढूढ़ने का प्रयत्न किया मार्ग में एक मरणोत्सुक राजकुमार को देखा जिसे उसकी गया। एक बार ज्ञात हा कि प्राप सार्वकामिक प्रपात पत्नी न मरने के लिए मना रही थी । उसका प्रयोजन शिखर पर मरण हेतु जा चढ़े है। इसे सुनकर तिलकमजरी जानकर उसकानामत्त मन अनक विद्यामा का पाराधना ने जल समाधि द्वारा प्रात्म-हत्या करनी चाही, किन्तु पिता की। जब विद्यायें सिद्ध हुई तब ज्ञात हुआ कि वह केवल के अनरोध पर छह मास और खोजने के लिए अपना एक स्वाग था। उत्तर-श्रेणी के विद्याधर चक्रवर्ती विक्रम-मित कर दिया। प्राजक मास का अन्तिम बाह संन्यास लेकर चले गए थे। सर्वज्ञ की वाणी से दिन है। निश्चय करके, चक्रवर्ती के बुद्धि-सचिव ने, मुझे उसके
इतना सुनते ही घोड़े पर बैठ कर मैं मठ में पहुँचा। योग्य बनाने हेतु वह सब प्रपच रचा था। परिणामस्वरूप
तभी तुम भी मुझे अन्वेषण करते हुए प्रा मिले। इस मैं उत्तर-श्रेणी के विद्याधर राज्य का चक्रवर्ती बना।
प्रकार हरिवाहन ने हाथी द्वारा अपहरण से यहाँ तक की जिस समय राजधानी के पुरप्रदेश के लिए मैं तैयार कथा सुनाई । इससे सभी प्रमन्न हुए । समरकेतु को था तभी गन्धर्वक प्रा पहुँचा। गन्धर्वक ने तिलकमजरी अपने पूर्वभव के और इस भव के कृत्यों पर बड़ा दुःख की अवस्था को शोचनीय बताया। गन्धर्वक ने कहा- हुमा। हरिवहन के समझाने पर वह भी नि:शल्य जब मैंने दिव्यहार चन्द्रातप के, राज कुमार के हाथो तक हमा। पहुँचने की कथा सुनाई तब यह मूर्छित हो गई। प्रभात- इसी बीच विचित्रवीर्य का पुत्र कल्याणक पाया । काल मे सपरिजना देवी तिलकमंजरी ने एक त्रिकालज्ञ हरिवाहन की सम्मति से समरकेतु उसके साथ विचित्रमहर्षि के दर्शन करके उनसे अपने पूर्वज और अपने प्रेमी वीर्य के नगर पहुँचा । वहाँ राजा कुसुमशेखर पोर के पूर्व जन्म तथा इस जन्म मे अवतार लेने का प्रश्न गन्धर्वदत्ता एव अन्य सभी की साक्षी मे मलयसुन्दरी के पूछा और तब उसे ज्ञात हा कि पूर्वभव का प्रेमी साथ उसका सानन्द विवाह हुमा । यहाँ गगनवल्लभनगर ज्वलनप्रभ ही इस जन्म में हरिवाहन हमा। और उसी ने से हरिवाहन को लाकर राजा चन्द्रसेन पौर पत्रलेखादेवी पूर्वभव में यह हार अपने पिता राजा मेघवाहन को भेट ने अपनी पुत्री तिलकमजरी का उससे विवाह किया । किया था। इसी प्रकार मलयसुन्दरी के पूर्वभव तथा तत्पश्चात् हरिवाहन ने अपने परममित्र समरकेतु को उसके पूर्वभव के प्रेमी सुमालीदेव और उसी को इस जन्म विजया की उत्तर श्रेणी का राज्य समर्पित किया। राजा में राजकुमार समरकेतु जानकर उन दोनो को प्रपार दुःख मेघवाहन ने अपने पुत्र को अपना राज्याधिकार समर्पित हमा । महर्षि ने इस जन्म मे मिलने का स्थान प्रादि भी कर परलोक साधन का उद्यम किया। राजा चन्द्रकेतु ने बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि इन दोनों देवियों समरकेतु को अपना राज्याधिकार समर्पित किया । इस क्रमशः मलयसुन्दरी और तिलकमंजरी ने ही अपनी दिव्य प्रकार सम्पूर्ण राज्य मे सुव्यवस्था करते हुए सभी सानन्द शक्ति से पूर्व जन्म में अन्तिम समय में रत्नकूट पर रहने लगे।
-गवर्नमेन्ट डिग्री कालेज, गुना, (म.प्र.)
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ज्ञात कवियों की कतिपय अज्ञात हिन्दी रचनाएं
डा० गंगाराम गर्ग
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भाषाश्रो की तरह हिन्दी भाषा मे भी पर्याप्त जैन साहित्य लिखा गया है। हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारो की खोज करने पर अनेक जैन कवि प्रकाश में आए है फिर भी कुछ घच्छे कवि ऐसे हैं जिनकी समस्त रचनाएं उपलब्ध नहीं हो पाई है। यहाँ कुछ प्रसिद्ध कवियो की प्रज्ञात रचनाओंों का परिचय प्रस्तुत है
हर्षकोति
डा० प्रेमसागर जैन ने इन्हें हर्ष कति रिसे पृथक मानते हुए इनका निवास स्थान जयपुर क्षेत्र मे होने की सभावना प्रगट की है। हर्षकीर्ति की रच नाऐं जयपुर के वधीयन्द, भूणकरण और ठोलियो के जैन मन्दिरों तथा टोक के पांच मन्दिरो मे मिलती है । दूसरे हर्ष कीर्ति की रचनाम्रो पर ढूढ़ारी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है। इन दो कारणों से हर्षकीर्ति ढू ढ़ाड़ प्रदेश के प्रतीत होते है। हर्ष कोति की एक रचना बड़ोदा गाँव मे लिखी गई, जो सवाई माधोपुर के पास स्थित है। इससे हर्षकीर्ति का मुख्य साधना स्थल बडोदा गाँव प्रतीत होता है। डॉ० प्रेमसागर जैन ने हिन्दी जंन भक्तिकाव्य पौर कवि में हर्षकीति की 'पंचगति बेलि', 'नेमिनाथ राजुल गीत', 'मोरा' 'नेमीश्वर गीत, बीस तीर्थकर खड़ी 'चतुर्गति बेलि', 'कर्महिण्डोलना' छहलेश्या' 'कवित्त और भवन व पद संग्रह प्रादि रचनाओ की चर्चा की है। उक्त रचनात्रों के अतिरिक्त इनकी निम्नाकित रचनाएं प्राप्त हुई है
१. त्रेपन क्रिया जयमाल :
इस ग्रंथ की रचना बड़ौदा गाँव मे सवत् १८६४ में हुई। इसमें २६ छंदों मे आवकों की ५३ वा का वर्णन किया गया है ।
२. सोमन्धर का समोसरण :
इसमें ६ मोटक छंदों में तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के
समवशरण का उत्सव वर्णित हुआ है ।
३. जिनराज को जयमाल :
इसमे १० छदों मे जिनेन्द्र के नाम स्मरण की महत्ता कही गई है।
४. बारहमास्यो :
इसमे २१ छदों मे राजुल की विरहावस्था का चित्रण है । राजुल के विरह को उद्वीप्त करने वाला प्राकृतिक चित्रण भी बड़ा मर्मस्पर्शी बन पड़ा है :हो स्वामी चंतज प्राथा मोरीया, नर नारी मो
भंवर गुजार करें घणा, प्रति ही गुण सोहै ॥१६॥ हे स्वामी साला धन मोरीया, मोरी सब बेलि
मोरी चम्पा केतको मुझ सही |१७| ५. जिनजी को बधावो
यह आदि तीर्थकर के जन्मोत्सव का बधाई गीत है। ६. परनारी-निवारण गीत :
इस गीत में परनारीगमन को स्वास्थ्य, सम्मान श्रीर श्रात्म-शान्ति का विनाशक कहा गया है
जीव तपं जिम बीजली रे, मनड़ो रहे न ठांम काया दाह मिटं नहीं, गाँठ न रहे दाम । विनोदीलाल :
डा०
प्रेमसागर जैन पोर पं० परमानन्द ने क्रमशः 'हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि तथा श्रनेकान्त में प्रकाशित 'अग्रवालों का जैन संस्कृति मे योगदान' निबन्ध में विनोदीलाल का परिचय देते हुए उनको 'भक्तामर कथा' 'सम्यक्त कौमुदी' 'श्रीपाल विनोद' राजुल पचीसी' 'नेमिनाथ का व्याला' 'फूलमाला पच्चीसी' और 'नेमिनाथ का बारहमासा आदि सात एचनामों की चर्चा की है। कवि विनोदीलाल के सर्वयों की मर्मस्पर्शिता 'रसखान' की याद दिला देती है। तेरहपंथी
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शात कवियों की कतिपय प्रशात हिन्दी रचनाएं
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मन्दिर टोंक के गुटका न० ५०ब में 'विनोदीलाल' के तीन मलिनाथ बिन उमहा जोषा, गीत भी उपलब्ध है
मुनिसुबत जिन जगत समोषा । १. सुमति कुमति को झगड़ो :
समोधि जगत उधार कीन्हो । यह गग सारग मे लिखा हा १२ चरण का गीत
नमि जिनेस मनाइए । है । इस गीत मे कृमति और सुमति दोनों ही 'चेतन' को श्री नेमिनाथ जिनन्द के गुन । अपने वश में करने का प्रयत्न कर रही है। चेतन के प्रति
मधुर सुर स्यों गाइए । कुमति का व्यवहार कुनागे जैसा ही हैकुमति कहै सुनि कंत बावरे, यह तोकू फुसलावं।
विश्वमूषरण : यह दूती चंचल सिवपुर की, कितेक कंद याहि प्रावे। प्रागरा जिले में स्थित हथिकात नगर के प्रसिद्ध हो सूधी प्रापनि घर बैठी, ताों ग्रंक लगावै। भट्टारक विश्वभूषण की 'निर्वाण मंगल', 'अष्टाह्निका कथा',
तो सौं कत पाय कर भोदू, क्यों नहिं नाच नचावं। 'पारती', 'नेमि जी का मंगल', 'पार्श्वनाथ का चरित्र', २ जिन गारी:
पचमेरु पूजा', "जिनदत्त चरित्र', 'जिनमत खिचरी' पौर इस गीत को रचना फागुन शुक्ला १३ सवत् १:४३ पदा का काव्यात्मक परिचय 'हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और मेहई । इस गीत मे कवि ने कूमति के दुश्चरित्र की चर्चा कवि' में प्राप्त है। विश्वभूषण की अन्य एक रचना तेरहकरते हए चेतन को 'सूमति' को ध्याहने का प्रेरणा दी पथी मन्दिर टोक के एक गुटके में मिली है।
मुनीश्वरां को बोनती: गारी तो एक सुनो तुम चेतन, सुनत श्रवण सुखवाई। तुम्हरी तो कुमति बुर ढंग लागी, समझत नहि समुन्नाई। दू ढाडी भाषा के इस गीत में ८ चरण है । इसमें अति ही प्रचंड भई दारी डोल, जोबन की मतवारी। मुनि के गुणो की प्रशसा करते हुए उनके प्रति कवि ने पंचन स्यों बारी रति मान, कान न करत तुम्हारी। अपना भाव-भ
शरीर अपनी भाव-भीनी श्रद्धा प्रकट की है
बाईस परीस्या सहै दिन राति, छांडो संग कुमति बनिता को, घर ते बेड निकारी वे। असुभ करम पर जालतां । व्याहौ सुमति बधू सो बनिता उर न ब्याहनहारी वे। भवि जीवानं समोधनहार, ३. चौबीस तीर्थवरो की स्तुति
प्राप तिरंजो भव त्यारता। इस रचना में कवि ने चौवासो तीर्थरो के प्रति अंसा जो मुनिवर है कोई प्राजो, अपना भक्ति-भाव प्रदर्शित किया है
ज्यांन नति उठि करस्यां वंदना । श्री कुंथनाथ रिक्षा करौ मेरी,
विसभूषण इहि कोयो छ वषाण, परह जिनन्द सरनि हो तेरी ।
जे र भणे जी भव सुख लहै ।
-राजकीय महाविद्यालय, टोंक
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दक्षिण भारत से प्राप्त महावीर प्रतिमाएँ
श्री मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी 'मानसार' के अनुसार ध्यान-निमग्न जिन मूर्तियो को बतलाते है । पृष्ठभाग मे प्रालेखयुक्त मूर्ति (ऊंचाई ३४.३ मानवाकार, द्विभुज, दो नेत्रो, एक शरीर व श्रीवत्स चिह्न से० मी०, चौडाई २२.१ सें. मी.) मे महावीर को सहित निराभरण व वस्त्ररहित उत्कीर्ण किया जाना चाहिए- उल्टे कमल के पासन पर प्रद्धपद्मासन मुद्रा में पासीन निराभरणसर्वाग निर्वस्त्रांगमनोहरम् ।
प्रदर्शित किया गया है । इस चित्रण की विशेषता है पृष्ठसत्यवक्षस्थले हेमवर्ण श्रीवत्सलाञ्छनम् ॥
भाग मे उत्कीर्ण कान्ति मण्डल से संबद्ध रूप में दो मकर
मुख वाले चौड़े दण्डो का अकन, जिसे दो छोटे स्तम्भ -मानसार, ८१-८२
दोनों पाश्वो मे सहायता दे रहे है। इन दोनों स्तम्भो के प्रागे लिखा है कि तीर्थकर को या तो समभग मुद्रा बाह्य भाग में दो क्रोधित मिह प्राकृतियों को मकर मे (कायोत्सर्ग) खडा या अभय मुद्रा का प्रदर्शन करते ।
प्रणाली युक्त घुमानों को सहायता देते हए उत्कीर्ण किया हए होना चाहिए। पचासन मुद्रा में प्रासीन होने गया है। इन दण्डों से पूनः दोनों पोर एक खड़ी चामर. पर तीर्थकर की वाम हथेली पर दाहिनी हथेली ऊपर की धारी प्राकृति को प्रकट होते दिखाया गया है । दोनो ही पोर स्थित होगी। सिंहासन व प्रभावली पर नारद, प्राकृतियां मुकुट आदि विभिन्न प्रलकरणो से सुसज्जित ऋषियों, विद्यापरों, देवगणों को खड़े या प्रासीन मुद्रा मे है। मध्य का समस्त प्रकन एक देवालय के रूप मे प्रदमूर्तिगत किया जाना चाहिए, जो देवता की वन्दना करते शित चित्रण से वेष्टित है। सपूर्ण प्रकन का सपुजन एक और भेंट चढ़ाते हुए चित्रित होगे । सिंहासन के नीचे दो देवालय के रूप में कल्पित है। इस चित्रण के ऊर्ध्व भाग तीर्थकर प्राकृतियां उपासना मुद्रा मे प्रकित होगी। साथ मे दो माल्यधारी प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है और अन्तिम वाम ही सिद्धो, महतो को भी उत्कीर्ण किया जाना चाहिए। भाग मे मस्तक पर सप्तफणों के घटाटोप से पाच्छादित मध्यस्थ जिन प्राकृति उत्तम-दशताल-माप के अनुसार तीर्थकर पार्श्वनाथ का चित्रण हुमा है। दूसरी मोर भी निर्मित होगी।
सभवत: एक तीर्थकर प्रतिमा रही होगी, जो संप्रति नष्ट __ दक्षिण भारतीय तीर्थकर प्रतिमानो मे उत्तर
हो चुकी है । दूसरी प्रतिमा सभवत: आदिनाथ की रही भारतीय तीर्थकर प्रतिमानो के विपरीत सामान्यत:
होगी । पीठिका के मध्य भाग में उत्कीर्ण सिह प्राकृति उष्णीष का अभाव होता है और श्रीवत्स चिह्न तीर्थकर
महावीर के लाछन के लिए प्रयुक्त हुई है। इस अंकन के के दाहिने वक्ष पर उत्कीर्ण किया गया है।
निचले भाग मे दाहिने पार्श्व के निकले (projection)
हुए भाग में एक द्विभुज और तुदिली यक्ष प्राकृति प्रदर्शित तीर्थकर महावीर को दक्षिण भारतीय शिल्प में है जिसकी वाम भजा में एक थैला उत्कीणं है । इस उपयुक्त निर्देशो के प्राधार पर ही विभिन्न युगो मे प्रकन के दसरे पावं मे प्रबिका को चित्रित किया गया मूर्तिगत किया गया। कतिपय मूर्तियो का विवरण इस
१. Shah, Umakant P., Jaina-Bronzes in Hariप्रकार है
das Swali's collection, Bull. of Prince of १. श्री हरिदास स्वालि के संग्रह मे स्थित एक महा- Wales Museum of Western India, Bombay, वीर प्रतिमा को डॉ० यू०पी० शाह दक्षिण भारत की कृति No.9, 1964-66, pp. 47-48.
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दक्षिण भारत से प्राप्त महावीर प्रतिमाएं
है, जिसकी दाहिनी भुजा में एक बालक और बायी में में संगृहीत है। इस निधि से उपलब्ध मूर्तियों को अन्य माघ्र फल प्रदर्शित है। डॉ. यू. पी. शाह ने निर्मिती, मण्डन, स्थलों से प्राप्त होने वाली कांस्य प्रतिमामों की साम्यता अलंकरण तत्त्वों के प्राधार पर इस कांस्य प्रतिमा को के आधार पर ११वी-१२वी शती में तिथ्यांकित किया हवीं शती के अन्तिम चरण मे तिथ्याकित किया है। गया है। इस निधि से प्राप्त होने वाली एक प्रतिमा की समूचे अंकन की देवालय के रूप में कल्पना के प्राधार पर
पहचान महावीर अंकन से की गई है। किन्तु यह पहचान उनका अनुमान है कि इस प्रतिमा का प्राप्ति-स्थल कही लाञ्छन के प्रभाव में निश्चित नही है। वक्षस्थल पर कर्नाटक मे होना चाहिए।
श्रीवत्स चिह्न का प्रभाव और दक्षिण भारत की सामान्य २. पालघाट जिले के कावश्शेरी अम्शोम नामक
विशेषता के विपरीत उष्णीष का प्रदर्शन इस चित्रण की स्थान के पालटूर नामक स्थल (केरल) से प्राप्त जन अपनी विशेषता है । मन्दिरों के ध्वंसावशेषो के साथ ही प्राप्त दो प्रतिमानों ४. अकोला जिले के कारंजा नामक स्थल से प्राप्त में एक तीर्थकर महावीर का चित्रण करती है। महावीर होने वाली महावीर की एक अन्य कांस्य प्रतिमा प्रतिमा साधारण किन्तु भली भांति निर्मित है और महा- (२३ इंच ऊँची) मे पधामनस्थ महावीर को सत्वपर्यडू वीर को पूर्ण भद्रासन पर पर्यङ्कासन मुद्रा में पासीन प्रासन मे सिंहासन पर पासीन चित्रित किया गया है।' प्रदर्शित करती है। देवता की सम्पूर्ण निर्मिती भव्य महावीर प्राकृति त्रिछत्र और एक मुख वाले सर्पफण के पौर सानुपातिक है। मुखाकृति से ही महावीर की नीचे अवस्थित है। त्रिछत्र के चारों पोर शाल पत्तियां अन्तर्दृष्टि और प्रात्मानुभूति का भाव सुस्पष्ट है। महावीर लिपटी है। पीठिका पर उत्कीर्ण सिंह प्राकृति के नीचे की मखाकृति का मण्डन वृत्ताकार है, और लम्बे कर्णव धर्मचक निर्मित है । साथ ही सिंहासन के निचले भाग पर सीधे व वर्गाकार स्कन्धों वाले देवता की भजामों व अण्ट ग्रहों को मूर्तिगत किया गया है। सिंहासन का पृष्ठ. शरीर की निमिती भी प्रशंसनीय है। श्रीवत्स चिह्न भाग अलकरणात्मक है, जिस पर गरजते हुई सिंह पाकअनुपलब्ध है, किन्तु देवता के मस्तक पर प्रदर्शित निछत्र, तियो के ऊपर मकर-मुख निर्मित है । साथ ही देवता के नग्नता, लम्बी भुजाएं, युवा शरीर और महावीर के लाछन, दोनो पावों में यक्ष-यक्षिणी और चांवरधारी प्राकृतियों सिंह का चित्रण स्पष्ट है। प्रतिमा मे गन्धर्व प्राकृतियो का मनोहारी चित्रण हमा है। तीर्थङ्कर प्राकृति के नीचे को मुख्य प्राकृति के दोनो पोर उत्कीर्ण किया गया है। दो अलग पीठिकापो पर दोनो पाश्वों मे उनके यक्षगन्धवों के दाहिने हाथो में चौरी स्थित है, जब कि उनके यक्षिणी, मातंग और सिद्धायिका का काफी विशद प्रकन बाएं हाथ नितम्बो पर स्थित है। इस चित्रण मे सिंहासन हुआ है। द्विभुज मातग को धन का थैला व जबीरी नीबू के सूचक दो सिंह प्राकृतियो का सुन्दर अंकन हुआ है। (Citron) धारण किये हुए उत्कीर्ण किया गया है । मूर्ति की कलागत विशेषताएं इसके ९वीं.१०वीं शती चतुर्भुज सिद्धायिनी के हाथो में कुल्हाडी, कमल पुष्प, जबीरी में तिथ्याकित किए जाने की पुष्टि करती है। नीबू और पुष्प ( ) स्थित है। यक्ष प्राकृतियो के ऊपर
महावीर प्रतिमा के दोनों पाश्वों में उत्कीर्ण दो रथिकायो ३. प्रान्ध्रप्रदेश के गुन्टूर जिले में स्थित बपतला नामक
जैसे देवालयों में कायोत्सर्ग मुद्रा मे खडे पार्श्वनाथ (वाहिनी स्थल से कुछ वर्ष पूर्व जैन कास्य प्रतिमानो का एक संग्रह प्राप्त हुआ था, जो सप्रति हैदराबाद पुगतात्त्विक सग्रहालय ३. Ramesan, N., Jaina Bronzes from Bapa
tala, Lalit Kala, No. 13, p. 29. 2. Unnithan, N.G. Relics of Jainism Alatur, ४. Barrett, Douglas, A Jain Bronze from
Tour. Indian History, Vol XLIV, Pt. I, the Deccan, Oriental Art, Vol. V, No 1 Serial No 130, April 1966, p 540.
(N. S.) 1959. pp. 162-65.
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२४४, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
पोर) और बाहुबलि की भाकृतियां निर्मित हैं । पाश्र्वनाथ प्रदर्शित किया गया है। पीठिका के मध्य मे चित्रित सिंह के मस्तक पर पांच सर्पफणो का घटाटोप प्रदर्शित है। देवता का लांछन है और पार्श्व-स्थित सिंह प्राकृतियाँ निर्मिती और शैली के प्राधार पर इस मूर्ति को स्वी पीठिका के मिहासन होने के सूचक है। प्रतिमा के काफी शती ई० मे तिथ्यांकित किया गया है। महावीर की एक भग्नावस्था में होने के उपरान्त भी पृष्ठभाग में प्रभाअन्य ध्यानमुद्रा में पासीन मूर्ति (४ इंच ऊँची) पुडुकोट्ट मण्डल रहे होने का प्राभास स्पष्ट है । महावीर की से प्राप्त होती हैं, जिसे डा० यू० पी० शाह ने राष्ट्रकूट पीठिका पर ध्यान मुद्रा मे प्रासीन एक अन्य कास्य प्रतिमा काल का बताया है।
का प्राप्ति-स्थल अज्ञात है। पात्र शैली मे निर्मित कास्य ५. दक्षिण भारत के बेल्लरी जिला के हरपन हल्लित- प्रतिमा के पादपीठ के मध्य में महावीर का लाञ्छन लुक नामक स्थल के कोगली ग्राम स महावीर की तीन उत्कीर्ण है, जिसके दोनो पोर चित्रित सिंह प्राकृतियाँ विशिष्ट कांस्य प्रतिमाए प्राप्त होती है। ये सभी सिंहासन के सूचक है । यह प्रतिमा सप्रति मद्राम गवर्नमेण्ट चित्रण संप्रति मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम, मद्रास । म्यूजियम, मद्रास मे स्थित है। में संगृहीत है। इनमें से पहली मूर्ति (३६.३ से. ६. महावीर प्रतिमानो के कई उदाहरण चित्तौड मी. ऊंची, १६.५ से. मी. चौड़ी) मे पीठिका जिले में स्थिति पल्लव युगीन वल्लिमलाई की जैन गुफाम्रो पर स्थित पद्मासन पर महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्ण है ।' पास-पास ही में उत्कीर्ण दा महावीर में खडे है। महाबीर के दोनो पाश्वों में उनके यक्ष व मतियों मे मुलनायक की प्राकृति एक पीठिका पर ध्यान यक्षिणी का चित्रण हमा है। सिर के पीछे उत्कीर्ण प्रभावली मद्रा में पासीन है। तीन भागो में विभक्त पादपीठ के पर, जो काफी खण्डित है, अन्य पूर्ववर्ती २३ तीर्थङ्करों दो छोरों पर प्रदर्शित सिंह प्राकृतियां सिंहासन के भाव का एक वृत्त के रूप मे प्रकन ध्यातव्य है। देवता की का बोध कराते है, और मध्य में स्थित सिंह महावीर का केश रचना छोटे-छोटे गुच्छको के रूप में प्रदर्शित है। लाछन है। महावीर के दोनो पावों में दो चांवरधारी बालों के गुच्छकों का मस्तक के दोनो ओर से स्कन्धों तक
प्राकृतियाँ चित्रित है। इन दोनो महावीर प्रतिमानो के लटकते हए अकन इस प्रतिमा की अपनी विशेषता है। होनो
दोनो पाश्वों में एक स्त्री व पुरुष प्राकृति प्रदर्शित है, जो
श्री यह प्रतिमा निर्मिती की दृष्टि स उत्कृष्ट है । दूसरी सम्भवतः सम्मिलित रूप से दोनो के यक्ष-यक्षिणी प्राकृति मनोज्ञ प्रतिमा (१३.३ सें. मी. ऊँची १७.४ से० मी० के लिए प्रयुक्त हसा लगता है । इसी गुफा के बाह्य चौड़ी) मे यासीन महावीर की पीठिका के मध्य में एक
पाठका क मध्य में एक चट्टान पर भी महावीर की दो पासीन प्रातमाएं देखी जा सिंह को दो घुटने टेके उपासक आकृतियो से वष्टित सकती है। पूर्व प्रतिमानो की तुलना में ये कुछ दूर-दर प्रदर्शित किया गया है। पृष्ठभाग में उत्कीर्ण प्रभामण्डल उत्कीर्ण है। दोनो ही मनियो में पिछत्र के नीचे ध्यानमे दो गन्धर्वो और महावीर से सम्बद्ध विद्या देवियो को
निमग्न महावीर चौकोर थिका में उत्कीर्ण है । पृष्ठभाग चित्रित किया गया है। देवता के दोनो पाश्वों में उनके ।
में ममकोण चतुर्भुज के आकार का अलकरणहीन कान्तियक्ष यक्षिणी की प्राकृतियाँ स्थित है। २६ से. मी.
मण्डल प्रदर्शित है । इमी स्थल पर उत्कीर्ण एक अन्य ऊँची तीसरी प्रतिमा मे मूलनायक को तीन सिंहों का
प्रतिमा मे समकोण चतुर्भुज प्राकार के प्रभा मण्डल से चित्रण करने वाले पादपीठ पर कायोत्सग मुद्रा में खड़ा यक्त महावीर को एक पीठिका पर त्रिछत्र के नीचे प्रासान ५. Sundaram T. S., Jaina Bronzes from चित्रित किया गया है। महावीर के दोनो पावों में अलग
Pudukottai, Lalit Kala Nos. 1-2, p. 79. ६. Ramachandran, T. N.. Jaina Monuments ७. Ramchandran,T. N. Ibid., descriptions of
and Places of First Class Importance, the images are mainly based on the plates Calcutta, All India Sasana Conference, of the Vallimalai figures given in the 1949, pp. 64-66.
book.
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दक्षिण भारत से प्रान्त महावीर प्रतिमाएं
२४५
अलग पीठिका पर उनके शासन देवतामो को उत्कीर्ण ८. महावीर की कई प्रतिमाएँ हैदराबाद संग्रहालय में किया गया है। साथ ही स्कन्धों के समीप दोनों पोर सकलित है।" इस संग्रहालय में स्थित एक विशिष्ट दो चावरधारी प्राकृतियाँ प्रदर्शित है और ऊपर की पोर प्रतिमा मे कायोत्सर्ग मुद्रा में खडी महावीर की प्राकृति उड़ती हुई गन्धर्वो और अन्य कई मवान प्राकृतियों को के चारो ओर अन्य २३ तीर्थङ्करों को मूर्तिगत किया गया मूर्तिगत किया गया है। बिल्कुल इन्ही विवरणों से युक्त है। नीचे की ओर दो चाँवरधारी प्राकृतियाँ चित्रित है। एक अन्य प्रतिमा भी इसी गुफा मे उत्कीर्ण है। स्कन्धों के ऊपर दोनो पावों मे दो गजारूढ़ और वाद्य
७. महावीर की एक विशिष्ट ताम्र प्रतिमा दक्षिणी वादन करती प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है । मूलनायक को केशाकन्नड क्षेत्र से प्राप्त हुई है जिसमे उ कीर्ण सिंह प्राकृति वलि गुच्छको के रूप में प्रदर्शित है। एक अन्य मनोज ही केवल इसके महावीर प्रकन होने की पुष्टि करता है। प्रतिमा मे कायोत्सर्ग मुद्रा में खडी महावीर प्राकृति को पद्मासनस्थ देवता के हाथ योगमुद्रा में प्रदर्शित है। मम्तक २ खडी और २१ प्रासीन तीर्थरो की प्राकृतियों मे के चारों ओर सप्तफणो मे निमित एक छत्र के साथ ही वेष्टित चित्रित किया गया है। देवता के पृष्ठ भाग में शासन देवतामों और ग्राभरण व अल करणो से युक्त वृत्ताकार प्रभामण्डल और विरेवात्मक किरीट, जिस पर सेवक-से विकारों की भी प्राकृतियो का भव्य सयोजन हुअा कलश स्थित है, उत्कीर्ण है । वारगल से भी महावीर की है। सहायक प्राकृतियों के अलकृत होने के बावजूद मुख्य दो प्रामीन प्रतिमाएँ प्राप्त होती है, जिनमे से एक मे प्राकृति तुलनात्मक दृष्टि से बिल्कुल मादी है। देवता को मृत्ताकार प्रभामण्डल और गुच्छको के रूप मे पीठिका पर उत्कीर्ण लेख इस प्रतिमा को १०वीं-११वी प्रदर्शित केशावलि से युक्त चित्रित किया गया है। दूसरी सदी में प्रतिष्ठित बतलाता है। किन्तु इस प्रतिमा की प्रतिमा मे ये दोनो ही विशेषताएँ अनुपलब्ध है । चालुक्यों पहचान महावीर अंकन से करना पी०सी० नाहर का के विशिष्ट कलाकेन्द्र बादामी (६५० ई.) से भी तर्कसंगत नही प्रतीत होता है। उनकी धारणा है कि महावीर की एक मनोज्ञ प्रतिमा उपलब्ध होती है। यह चित्रण पार्श्वनाथ का होना चाहिए क्योंकि सप्त महावीर की कल विशिष्ट मूर्तियाँ दक्षिण भारत के प्रसिद्ध सर्पक्षणों का घटाटोप २३वे तीर्थ छुर की ही विशेषता कला-केन्द्र एलोरा में भी उत्कीर्ण है ।" गुफा न० ३०, है। स्वय हडवे ने महावीर के दोनो पाश्वं स्थित ३१.३२ (इन्द्रमभा), ३३, ३४ मे महावीर को अनेकशः प्राकृतियो की पहचान धरणेन्द्र और पद्मावती से को अपने यक्ष-यक्षिणी, मातङ्ग भौर सिद्धायिका के साथ है, जो पार्श्वनाथ के शासन देवता है । महावीर के शासन ध्यान मुद्रा मे पासीन चित्रित किया गया है। इन चित्रणो देवतागों का नाम मातंग और सिद्धायिका है । जहाँ तक में महावीर को लांछन (सिंह), त्रिछत्र, श्रीवत्म यादि से पीठिका पर उत्कीर्ण सिंह प्राकृति के प्रौचित्य का प्रश्न युक्त प्रदर्शित किया गया है । ये ममस्त मूर्तियां वी है वह महावीर के लाछन रूप में उत्कीर्ण न होकर शताब्दी से ११वी शताब्दी के मध्य निर्मित हुई प्रतीत सिंहासन का प्रतीक है। मै भी मात्र सिंह के प्राधार पर होती है। इस प्रतिमा की महावीर प्रकन से पहचान करना उचित
-पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी-५ नहीं समझता।
१०. Rao, S. Hanumantha, Jainism in the ८. Hadaway, w. S., Notes on Two Jaina Deccan, Tour. Indian History, 69.XXVI, Metal Images, Rupam, No. 17, Jan.
1948, Pts. 1-3, pp. 45-49. 1924, pp. 48-49.
११. Gupte, Rames Shankar & Mahajan, B. D. ६. Nahar, P.C., Note on Two Jain Images from South India, Indian Culture, Vol. I..
Ajanta, Ellora and Aurangabad Caves, July 1934-April 1935 Nos.1-4,pp. 127-28. Bombav, 1962, pp. 129-223.
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वत्स जनपद का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास
डा० शशिकान्त एम. ए., डी. प्रार., पी-एच. डी.
वत्स जनपद भारतवर्ष के मध्यदेश में अवस्थित था मूल्यवान् विविध सामग्री प्राप्त हुई है । और इसकी राजधानी यमुना नदी के उत्तरी तट पर स्थित अब तक प्रकाश मे पाये प्राचीन स्थल यह सूचित कौशाम्बी नगरी थी जिसकी पहचान इलाहाबाद जिले के करते है कि यह प्रदेश मानव के प्राचीनतम पावास-स्थलों कोसम प्राम से की जाती है । बौद्ध एवं जैन साहित्य तथा मे से एक था और यहां भारत की पूर्व-पाषाण युगीन, भास के नाटकों में प्राप्त ज्ञातव्य के अनुसार भारत के मध्य-पाषाण युगीन, नव्य-पाषाण युगीन एव ताम्र-पाषाण छठी शती ई० पू० के राजनैतिक मानचित्र के प्राधार युगीन सभ्यताओं का क्रमिक विकास हुआ था। यहा के पर यह प्रतीत होता है कि वत्स जनपद यमुना नदी के ताम्र-पाषाण युगीन लोगो का पश्चिम भारत मे बसे उभय तटों पर गगा-यमुना दोघाब के निचले भाग में अपने समवतियों से भी सहज सम्पर्क था। पौराणिक स्थित था। दोमाब में पश्चिम की ओर इसका प्रसार
अनुश्रुतियों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल मे पांडु-गगा प्रौर सेगर-यमुना सगमो तक का तथा पूर्व वत्स प्रदेश प्राय' काशी राज्य के अधीन रहा। कौशाम्बी
पार गगा-यमुना सगम तक था, भार इसका सामाग्रा में प्रकाश मे पाया पुरातात्त्विक साक्ष्य यह सूचित करता को उत्तर मे गंगा, पूर्व में करमनासा, दक्षिण में सोन
म गगा, पूर्व में करमनासा, दाक्षण म सान प्रतीत होता है कि वशो की प्रार्य जाति यहां महाभारत तथा पश्चिम मे केन नदिया पावृत करती थी। अक्षाश
युद्ध (१५वी शती ई० पू०) के सौ-दो सौ वर्ष पहले ही २४.४ व २६२ उ० तथा देशान्तर ८०° व ८४° पू० के पाकर बसी होगी। मध्य स्थित कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, वादा, मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और रीवा के वर्तमान जिलो का
हस्तिनापुर के विनाश के उपरान्त लगभग १३वीअधिकाश भूभाग इसके अन्दर समाविष्ट था। कोसल,
१२वी शती ई० पू० मे परीक्षित् के छठे वशज कुरु राजा काशी, मगध, अग, कलिंग, चेदि, अवन्ति, कुरु और पचाल
निचक्ष ने कौशम्बी को अपनी गजधानी बनाया और जनपद उसे प्राय: वृत्ताकार व्यूह मे घेरे हुए थे और थल
तत्पश्चात २३ अन्य कुरु राजानो ने कौशाम्बी से ही राज्य मागों एवं अन्तर्देशीय जल मार्गों द्वारा प्राचीन भारत के
किया जब तक कि उसका विलय मगध साम्राज्य मे नही महत्त्वपूर्ण राजनैतिक एवं व्यापारिक केन्द्रो से इसका हो गया। उक्त राजाओं में से शतानीक द्वितीय और व्यवस्थित सम्पर्क था ।
उसका पुत्र उदयन छठी शती ई०पू० मे विद्यमान थे। प्रायः गत सौ वर्षों में की गयो खोजो के फलस्वरूप
लौकिक संस्कृत साहित्य एव जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मणीय इस प्रदेश मे ऐतिहासिक महत्त्व के लगभग एक सौ स्थल
धार्मिक साहित्य में उदयन के व्यक्तित्व एवं कार्यकलापो प्रकाश में प्रा चुके है, और उन स्थलो से ऐसी काफी
से सम्बन्धित कितने ही प्रसग मिलते है। अवन्ति के सामग्री मिली है जिसकी सहायता से इस प्रदेश के प्राचीन
राजा प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता के साथ उसके प्रणय की इतिहास का पुननिर्माण किया जा सकता है। कौशम्बी
कथा प्राचीन भारतीय साहित्य में विशेष रूप से लोकप्रिय और भीटा में बड़े पैमाने पर पुरातात्त्विक खुदाई भी हुई
थी। उदयन लगभग ५५५ ई०पू० में सिंहासनारूढ़ हुमा है और वहां खुदाई द्वारा ऐतिहासिक दृष्टि से प्रति
प्रतीत होता है । तत्पश्चात् ही उस समय विद्यमान राज्यो लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच. डी. की उपाधि का विघटन तेजी से प्रारम्भ हो गया और प्रायः एक के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध का सार-संक्षेप । दशक के भीतर ही वत्स के पूर्व में सर्वशक्ति-सम्पन्न
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वत्स जनपद का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास
मगध राज्य का उदय हुप्रा और पश्चिम की ओर उतने अहिच्छत्रा, अयोध्या एवं कौशाम्बी से प्राप्त सिक्कों के ही शक्तिशाली अवन्ति राज्य का। मगध राज दर्शक की मित्र-नामान्त वाले राजामों का शुंगो से सम्बन्ध स्थिर बहन के साथ उसका विवाह यह सूचित करता है कि करने योग्य सुनिश्चित साक्ष्य प्रभी उपलब्ध नही है। वह प्रजातशत्रु के राज्यकाल की समाप्ति के बाद भी सम्प्रति को मृत्यु के उपरान्त लगभग २१६ ई० पू० विद्यमान था । कौशाम्बी में किये गये उत्खनन यह प्रकट में सुदेव द्वारा कौशाम्बी के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की करते है कि उसके राज्यकाल में नगर प्राचीर तथा गई प्रतीत होती है । सम्प्रति-पश्चात् और कनिष्क पूर्वराजप्रासाद का पुननिर्माण किया गया था ।
काल मे, जैसा कि सिक्को और अभिलेखों से विदित लगभग ४६७ ई० पू० में मगधराज महानन्दिन् ने होता है, २८ गजायो ने इस राज्य पर शासन किया वत्स के कुरु राजा को अपना करद राजा बना लिया प्रतीत होता है । उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बहसतिमित प्रतीत होता है । ४२४ ई० पू० में उसके पुत्र महापद्म था। वह सम्भवत: मथुग के नवोदित राजवश का ने करद राजा की व्यवस्था भी समाप्त कर दी और वत्स कुमार था और उसी ने अपने नाना अहिच्छत्रा के राजा प्रदेश को मगध साम्राज्य का प्रत्यक्ष अधीनस्थ एक प्रान्त के साथ मिलकर पाटलिपुत्र से मौर्य वश का उच्छेद किया ही बना लिया। मौर्यो के राज्यकाल मे कौशाम्बी को था तथा दूसरी शती ई० पू० के प्रारम्भ मे ही सुदेव के नगर प्राचीर एव प्रासाद प्राचीर का कौटिल्य द्वारा उत्तराधिकारी से कौशाम्बी छीन ली थी। एक अन्य निर्णीत प्रणाली के अनुसार पुननिर्माण हुमा प्रतीत होता महत्त्वपूर्ण राजा राजमित्र था जो पहली शती ई० पू० मे है । मौर्य सम्राट अशोक के शासनादेश यह भी सूचित विद्यमान था, उसने सात सोम यज्ञ किये थे जिनमे करते हैं कि कौशाम्बी नगर के प्रशासक महामात्र पदवी कोशाम्बी के उत्खनन में प्रकाश में पाये श्येनचिति के प्रवके अधिकारी होते थे और उसकी द्वितीय रानी कालुवाकी शेषो से सम्बद्ध पुरुपमेध यज्ञ भी सम्भवतः सम्मिलित ने इस नगर को अपना निवास-स्थान भी बना लिया था। था।
७८ ई० मे अपने राज्यारोहण के तुरत बाद ही लगभग २३६ ई० पू० मे अशोक की मृत्यु के तुरत कृपाण वशी राजा कनिष्क प्रथम ने पूर्व दिशा मे विजय बाद ही मौर्य साम्राज्य विरिछन्न होने लग।। सम्पति के अभियान किया प्रतीत होता है और उसने कुछ समय राज्यत्व में कुछ समय के लिए मायंवश की पाटलिपुत्र कोशाम्बी में भी बिताया प्रतीत होता है। परन्तु हविष्क
पिनी शाखायों का एकीकरण हो गया प्रतीत के राज्य काल के प्रारम्भ मे सवत् ४० (११८ ई.) के होता है परन्तु उसकी मृत्यु के बाद पून. वे अलग-अलग पहल हा कोशाम्बा-वाराणसी क्षत्र में प्रश्वघोष ने अपनी हो गई जिससे साम्राज्य के कुछ सेवको को यह अवसर स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली प्रतीत होती है। एक मिल गया कि वे अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ले दशक अथवा उसके कुछ ही बाद बघेलखड प्रान्तर से यथा मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी और युगल में, अथवा भीमसेन ने पाकर अश्वघोष को भी अपदस्थ कर दिया। अपना प्रभाव बढ़ा लें जैसा कि विदिशा मे सेनापति और कौशाम्बी तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर भीमसेन के विदर्भ में सचिव ने किया। विभिन्न अनुश्रुतियो एवं मुद्रा
वंशजो, तथाकथित मघ राजों, का प्राधिपत्य तीसरी शती सम्बन्धी साक्ष्य के समन्वय से ऐसा सूचित होता है कि
ई० के अन्त तक रहा । तत्पश्चात कुछ समय के लिए सुवर्णगिरि प्रान्त मे सातवाहन और उज्जयिनी प्रान्त मे
पद्मावती के नाग राजा गणेन्द्र का प्राधि पत्य रहा प्रतीत शंग मोर्यों के उत्तराधिकारी हए तथा विदिशा प्रदेश मे होता है और अन्तत: लगभग ३३० ई० मे समुद्रगुप्त द्वारा कण्व शुंगों के उत्तराधिकारी हुए, और यह भी कि मौर्य प्रायवित्त युद्धों में विजय प्राप्त करने के समय यह प्रदेश साम्राज्य के इन उत्तराधिकारियों का पाटलिपुत्र एव
श्री रुद्र या स्वदेश के प्राधिपत्य में था। कौशाम्बी से शायद ही कोई सम्बन्ध था । मथुरा, समुद्रगुप्त द्वारा विजय किये जाने के पश्चात् तोरमाण
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२४८, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
हण द्वारा किये गये विनाश के अल्पकालीन अन्तराल को है। गढवा में प्राप्त वैष्णव अवशेष वैष्णव मत एवं छोडकर कौशाम्बी तथा निकटवर्ती प्रदेश गुप्त साम्राज्य के शाक्तमत, राम-पूजा एव कृष्ण-पूजा तथा वैष्णव मत अन्तिम दिनों तक उसी का अग बना रहा । यशोधर्मन् एव बौद्ध धर्म के बीच पारस्परिक समन्वय के सकेत द्वारा गुप्त सत्ता की समाप्ति के पश्चात् इस प्रदेश का सूचित करते है। भाग्य कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गजवशो के इतिहास के जैन पौराणिक अनुश्रुति मे कौशाम्बी का बहुधा साथ जुड़ गया और यहां एक-दूसरे के बाद क्रमशः उल्लेख पाता है, और महावीर के जीवन को कतिपय भौखारियो, हर्ष, यशोवर्मन्, प्रायुधो, गुर्जर-प्रतीहारो तथा मुख्य घटनाग्रो के प्रसग से भी इस नगर का उल्लेख गाडवालो का प्राधिपत्य रहा। यशोवर्मा के समय मे
पाता है। महावीर के बाद के युग मे भी यहा जैन गुरुप्रो कशमीर के राजा मुक्तापीड का अभियान तथा प्रतीहारो
का काफी पावागमन रहा, और ऐसा भी प्रतीत होता एव गाहडवालों के मध्य अन्तराल में कलचुरियो और
रहा है कि जनो के प्रारम्भिक साहित्य प्रणयन से भी पालो के अभियान प्रल्प कालिक थे। १२वी शती ई० के
इसका सम्बन्ध रहा। अन्त मे तुर्को द्वारा गाडवाल सत्ता के समाप्त कर दिये
बुद्ध ने वत्स प्रदेश में तीन वर्षाव'स किये थे। और जाने के उपरान्त १२४८ ई. तक जब कि यह प्रदेश
उनके कुछ महत्त्वपूर्ण प्रवचन भी यही हा थे। विनय अन्ततः दिल्ली के तुर्की मुलतानो के अधिकार में चला
के कितने ही महत्त्वपूर्ण नियमो का हेतुक भी काशाम्बी का गया, कडा और कौशाम्बी के निकट अपने गढी से गणक
भिक्षु सघ ही था । बुद्ध के बाद भी लगभग एक हजार सामन्तो ने स्वातन्त्र्य समर जारी रखा। १० वी शती ई०
वर्ष पर्यन्त कौशाम्बी में स्थित घोमितागम बौद्धधर्म का के द्वितीय चतुर्थाश में कालिजर पर यज्ञोवर्मन् द्वारा
एक प्रमुख केन्द्र बना रहा। इस विहार के अवशेषो का अधिकार कर लिये जाने के बाद कालिजर का निकटवर्ती
उत्खनन १६५० ई० के दशक में किया गया है । कौशाम्बी के प्रदेश चन्दल राज्य का ही अग बना रहा ।।
अतिरिक्त भीटा, देवरिया, मानकुजर, प्रहरौरा, भारहुन समचित माहित्यिक एवं पुरातात्विक सामग्री उप- प्रौर बान्धोगढ इस प्रदेश मे बौद्ध धर्म के अन्य महत्वपूर्ण लब्ध है जो यह सूचित करती है कि भारत के प्रधान केन्द्र थे । धौ के विकास में वत्स प्रदेश का विशिष्ट भाग रहा और अब तक प्रकाश में आये पत्थर के विविध उपकरणो, वह यह भी सकत करती है कि वहा अम्बा, यक्ष और मिट्टी के पात्रो और मिट्टी, पत्थर, धातु, अस्थि एवं नाग-पूजा का प्रचलन भी था। निचक्षु द्वारा कौशाम्बी को शख-सीपी के बने भाति भाति के व्यजनो की सहायता से अपनी राजधानी बना लिये जाने के बाद वैदिक विद्या इस प्रदेश के मानव सभ्यता के विकास के क्रम को जाना की कोई पीठ भी वहाँ स्थापित हो गई प्रतीत होती है जा सकता है और यह भी देखा जा सकता है कि वर्तऔर वैदिक गुरु प्रोति कोसुर-बिन्द प्रौद्दालकि संभवतः मान काल मे भी उस सस्कृति के कौन से अश प्रतिभासित उसी पीठ के स्नातक थे । कौशाम्बी मे याज्ञिक कर्मकाण्ड हो रहे है। कौशाम्बी और सहजाति (भीटा) यहाँ के के प्रचलन के स्पष्ट प्रमाण के रूप मे श्येनचिति के अवशेष प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे तथा व्यापारियो के विभिन्न प्रकाश में पाये है । ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग इस वों एवं कारीगरो व उत्पादको की श्रेणियो के माध्यम चिति का प्रयोग पुरुषमेध यज्ञ करने के लिए किया गया से व्यापार की सुव्यवस्थित योजना थी। अंष्ठि सम्मानित था। कोटिया में प्राप्त मेगालिथ भी किसी याज्ञिक क्रिया थे । व्यावसायिक णियो तथा नगरी एवं ग्रामो के से ही सम्बिन्धित प्रतीत होते है । इस प्रदेश में वैदिक कर्म- निगमो का संचालन पंचायती व्यवस्था के अनुसार होता कण्ड एव शंवमत के पारस्परिक समन्वय तथा शैवमत के था और उनके मामलो में राज्य के अधिकारियो का नागपूजा से सम्बन्धो के प्रमाण भी मिले है और प्राप्त हस्तक्षेप यदा-कदा ही होता था। पुरुषो का परिधान प्राचीनतम शिवलिगो मे से एक लिग भीटा से ही मिला सामान्यत: धोती, चादर (उत्तरीय) और पगड़ी (उष्णीष)
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बस जनपद का गजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास
२४ थे परन्तु योद्धा लोग कसा बटनदार कोट और लम्बे जुते १३वीं शती ई. में निर्मित हैं। पहनते थे। स्त्रियां साडी पहनती थीं, अपने वक्ष पर मूर्त कला के अवशेषो मे चमकीली पालिश वाले मगिया धारण करती थीं और सिर पर पल्ला ढंकती थीं। अशोक के पाषाण स्तम्भ प्राचीनतम है । जैनों के मायागअपने शरीर के विभिन्न प्रगो को वे विविध प्राभूषणो से पट्ट, प्रासनपट्ट और मूर्तियां बौद्धों के प्रार्यपट्ट, बोधिसत्व अलंकृत करती थी, शारीरिक सौष्ठव के प्रति सजग थी, एवं बुद्ध की मूर्तियों तथा भारहुत से प्राप्त प्रस्तगकन, श्रगार-प्रसाधनो की शौकीन थी और उनकी रुचि शिवलिग और शिव-पार्वती की मतियाँ, विष्णु और उसके परिष्कृत थी। जन-जीवन मामान्यत: प्रामोद-प्रमाद मय अवतारो की मूर्तियाँ, त्रिदेवो की मूर्तियां और कृष्ण की था। नगर सुनियोजित थे और उनमें व्यापारिक माल, लीलामो का प्रस्तरांकन इस प्रदेश में प्राप्त मतिकला के भोज्य पदार्थों एवं मनोरजन के साधनो की प्रचुरता थी। विविध उदाहरण प्रस्तुत करते है।
विशेष रूप से कोमम और भीटा से लगभग १००० कौशाम्बी मे नगर प्राचीर की खुदाई के परिणाम
ई० पूर्व मे १००० ई. के बीच निर्मित बहुत सी मृणमूनियाँ स्वरूप लगभग दूसरे सहस्राब्द ई० पू० के मध्य में पहले।
मिनी हे जिनमें कुछ तो स्वतः पूर्ण मूर्तियां हैं और कुछ सहस्राब्द ई. के मध्य के बीच हुए नगर की किलेबन्दी के
माचे द्वारा बनाये गये पट्ट है । जिस पर विविध प्राकृतियाँ ऋमिक विकास का अनुमान लगाया जा सकता है।
अकित है। यह मृणमूर्तिया सामाजिक जीवन को सुन्दर कडा का किला और कालिजर का पहाडी किला गुप्त
झांकी प्रस्तुत करती है। इनसे मिट्टी में मूर्ति ढालने की पश्चात युग के दुर्ग स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण है।
कला के क्रमिक विकास का भी परिचय मिलता है कि कौशाम्बी में हुए उत्खनन से प्राचीन भारत में प्रासाद
किस प्रकार प्रारम्भ मे मतियां हाथ से बनाई जाती थीं, स्थापत्य के विकास पर भी प्रकाश पड़ना है। कोसम
फिर साँचे से बनाई जाने लगी और अन्ततः हस्तपोर भीटा में की गई खुदाई से निजी एव सार्वजनिक
कौशल द्वारा स्वाभाविक गढन प्रदान की जाने लगी। भवनो तथा बाजार हाट क निर्माण की विधि पर भी
___ अब तक प्राप्त वस्तुओं मे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश पडा है। घोमिताराम के अवशेषो में प्रकाश में
प्राभूपण ताबे, कांसे, मोने, शाम्ब मीपी, हाथी दात, शीशे, पाये स्तूप तथा भारहुन का स्तूर बोद्ध स्तूप स्थापत्य के
मुल्यवान पापाणो पोर रत्लो के बनाये जाते थे परन्तु विशिष्ट उदाहरण है। कौशाम्बी में खुदाई के फलस्वरूप
चाँदी के नही बनाए जाते थे। विभिन्न प्रकार के प्राभूघोमितागम का जो नक्शा प्रकाश में पाया है वह उक्त
षणों का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनो ही करते थे। मनको विहार के हजार वर्षों गेहा क्रमिक विकास को प्रकट
(गुरियो) का कितनी ही प्रकार से प्रयोग किया जाता करता है और यह बौद्ध विहागे का प्राचीनतम प्रत्यधिक
था और वे शंख सीपी, शीशे, मूंगों कार्नेलियन, टोपाज, पूर्ण एव सक्षन अधुनाजात चित्र प्रस्तुत करता है।
प्रगेट (सुलेमानी पत्थर), वड्यं (नीलम) पोर सोने के शलकत (चट्टान में काटकर बनाये गये) स्थापत्य के बन जाते तथा कभी.सीमातिविशिष्ट उदाहरणो में लगभग दूसरी शती ई० पू० मे उन्हें चित्रित भी किया जाता था। निर्मित पभोसा स्थित जैन निशिया, दूसरी शती ई० में बनी जो सिक्के इस प्रदेश में प्राप्त हुए हैं उनमें चादी व बान्धोगढ़ स्थित बौद्ध पावास-गुफाये और गुप्त काल में तांबे के पांच-मार्क मिक्के, बिना अभिलेख के ढले हए निमित परन्तु १०६० ई० मे अन्तिम रूप प्राप्त कालिजर सिक्के, नगर-निगम या श्रेणी के नाम से अंकित सिक्के स्थित नीलकण्ठ मन्दिर के नाम से विख्यान शिवालय को तथा गजा के नाम से अंकित सिक्कं सम्मिलित है। गिना जा सकता है। ईट चूने से बने मन्दिरो के विशिष्ट अशोक-पश्चात् व कनिष्क-पूर्व तथा कनिष्क-पश्चात् व उदाहरण गढवा का वैष्णव मन्दिर और बडा कोटरा में समुद्रगुप्त-पूर्व युग के अधिकाश राजामो का नाम मात्र एवं मऊ के निकट स्थित शेव मन्दिर है जो सभी १२वी- इन्हीं सिक्कों के माध्यम से ज्ञात हमा है।
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२५०, वर्ष २३, कि.५-६
अनेकान्त मिट्टी, जवाहिरातों, धातु और हाथी दांत की बनी हास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। राजमित्र का यूप. बहुत सी मुद्राएं भी मिली है जिन पर प्रायः मुद्रा के प्रभिलेख कौशाम्बी मे सम्पन्न पुरुषमेध यज्ञ के होने की स्वामी का नाम उत्कीर्ण है और कुछ चिह्न भी अंकित सूचना देता है। समुद्रगुप्त की इलाहाबाद-प्रशस्ति ही हैं । ये मुद्राए लगभग तीसरी शती ई० पू० से १०वी शती उसके कार्यकलापों का एकमात्र पूर्ण विवरण प्रस्तुत करती ई. तक की है और इनमे धार्मिक, नगमिक, राजकीय है। मुसलमान इतिहासकारों द्वारा उल्लिखित राजा बल्किएवं निजी, सभी प्रकार की मुद्राएं सम्मिलित हैं जो राज- वो मल्कि को चीन्हने के लिए उद्दल देवी का अभिलेख नैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश एक अत्यन्त वाछनीय सूत्र प्रस्तुत करता है। अन्त में डालती हैं।
लक्ष्मण का अभिलेख गाहडवाल सवत् के प्रयोग का एक लगभग २६० ई० पूर्व से १२४८ ई. तक के एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। मौ से भी अधिक प्रभिलेख यहां मिले है जो वत्स के ही अपनी विविध प्रचुर सामग्री, भौगोलिक अवस्थिति से इतिहास की नही वरन् सम्पूर्ण भारतीय इतिहास की उद्भुत प्राचीन भारत के राजनैतिक इतिहास के निर्माण कितनी ही गुत्थियो को सुलझाने में सहायता प्रदान करते मे अपनी प्राधारिक स्थिति, भारतीय धर्मों के विकास मे है। प्रशोक के प्रहरौरा से प्राप्त अभिलेख ने उसके प्रथम अपने योगदान, और सभ्यता के प्रारम्भ से ही हमारे लघु शिलालेख का सही प्राशय स्पष्ट करने में सहायता शोधाधीन समय के अन्तिम दिनों तक भारतीय जनदी है। उसके सघ भेद प्रभिलेख ने उसकी बौद्ध धर्म जीवन को समृद्ध करने के लिए अपने निरन्तर प्रयास के को सरक्षण प्रदान करने से सम्बन्धित साहित्यिक मनु- कारण समग्र दृष्टि से देखने पर भारतीय इतिहास में वत्स श्रुतियो की पुष्टि की है । भाषाढ़ सेन के पभासा की गुफा जनपद का अपना एक विशिष्ट एव स्पृहणीय स्थान है। में उत्कीर्ण लेखो ने अशोक-पश्चात् उत्तरी भारत के इति
-ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ
पता
'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ब्यौरे के विषय में प्रकाशक का स्थान
वीर सेवा मन्दिर भवन, २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्विमासिक मुद्रक का नाम
प्रेमचन्द राष्ट्रीयता
भारतीय
२१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
प्रेमचन्द, मन्त्री, वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१, दरियागंज, दिल्ली सम्पादकों का नाम
डा० प्रा० ने० उपाध्थे, कोल्हापुर, डा. प्रेमसागर, बडौत
यशपाल जैन, दिल्ली, परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली गष्ट्रीयता
भारतीय पता
मार्फत : वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी सस्था
वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागज, दिल्ली मै प्रेमचन्द घोषित करता है कि उपयुक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-७१
ह. प्रेमचन्द
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जैन दर्शन में आत्म- द्रव्य विचार
श्री मुक्ताप्रसाद
जंनदर्शनाचार्य
संस्थापक के रूप में पादि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का होना केवल जैन शास्त्रों से ही नहीं बल्कि जैन धर्मेतर ग्रन्थों के भी सन्दर्भों एवं विश्लेषणो द्वारा स्पष्टतः सिद्ध होता है । इस प्रकार की पर्याप्त सामग्री प्रबंध में दी गयी है ।
मनुष्य की प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही दुःख विनाश के प्रति उन्मुख रही है। इसलिए दृश्यमान् समस्त जगत् एवं तज्जन्य पर्यायों के प्राप्त सुख एवं दुःखों के प्रात्यन्तिक विनाश के उपरान्त परमश्रेय की प्राप्ति के उद्देश्य से विभिन्न ऋषियों ने अपने अपने दृष्टिकोणों से तत्तद्दर्शनो का निर्माण किया है। इन अनिश्चित संख्या वाले विभिन्न दर्शनों को प्रमुख दो ग्रास्तिक एव नास्तिक श्रेणियो मे बाँटा जाता है। अभी तक के सिद्धांतो पर पर्यालोचन करने पर इसका अनौचित्य स्वतः सिद्ध हो जाता है। क्योकि एक ओर तो उपनिषदो और गीता जैसे दार्शनिक ग्रन्थों को, जो कि वेदों के लौकिकत्व का प्रबल समर्थन करते है, तथा साख्य और वैशेषिक जैसे निरीश्वरवादय को भी प्रास्तिक श्रेणी में रखा गया है, जबकि दूसरी ओर पर माध्यात्मिक जैन प्रोर बौद्ध दर्शनों को नास्तिक श्रेणी में रखा गया है। इस सन्दर्भ मे प्रमुख सिद्धातो का समालोचन प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में विस्तार से किया गया है । कतिपय भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान जैन दर्शन का प्रतिक्रियात्मक रूप में मानते चले आ रहे है जब कि अनेक भारतीयों एवं पाश्चात्य विद्वानो ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है कि महावीर भगवान ने प्रतिक्रियात्मक रूप में जैन दर्शन की स्थापना नही की, अपितु उन्होंने उसी प्राचीन दर्शन ( एवं धर्म) का प्रचार एव प्रसार किया है, जो कि उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के द्वारा प्रचारित एव प्रसारित किया गया था। इस प्रकार यह धर्म पार्श्वनाथ तीबंदूर (तेईसवे तीर्थदूर) से भी पूर्ववर्ती कई तीर्थङ्करों द्वारा विकास को प्राप्त होता रहा था। वस्तुतः इस धर्म के तथा दर्शन के
वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की विद्यावारिधि (Ph. D.) उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का सक्षिप्त सार ।
जीव को अपना प्रभीष्ट (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए यह परमावश्यक हो जाता है कि उसे इस संसार की सृष्टि के मूल कारणभूत द्रव्यों का वास्तविक ज्ञान हो। इसी उद्देश्य से जैन दर्शन ने वस्तु जो धर्म माने हैं, वस्तुतः इनके दर्शन (साक्षात्कार) के प्रभाव में इन इव्यों का स्वरूप सर्वथा अस्पष्ट रह जाता है। विज्ञान ने भौतिक जगत के सम्बन्ध मे जो कुछ भी जानकारियां देना प्रारम्भ किया है, चाहे वह भी पूर्ण ही क्यों न हों, किन्तु उनसे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हम अभी तक जिस द्रव्य को 'एक रूप' मानते थे और यह सोचते थे कि इसका विभाजन असम्भव है, इसलिए इसके एकाधिक रूप नही हो सकते, यह धारणा एक ही द्रव्य के अन्य अनेक स्वरूपो एवं भेदों को प्रकट करके जैन दर्शन की उन मान्यताओं का प्रबल समर्थन कर दिया है जिनमे स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य सामान्य विशेष स्वरूप वाला, सप एवं प्रसव एकानेकात्मक, मनस धर्मात्मक (भावाभावात्मक ), नित्यानित्यामक तथा भेदाHere आदि अनेक स्वरूपों से प्रतिक्षण सम्बन्धित रहता है।
याधुनिक विज्ञान ने जैन दर्शन के द्रव्यों के निर्धारण के प्रोषित्य को सिद्ध करने के लिए भी अपने पाfवष्कार ईथर' द्रव्य के द्वारा धर्मद्रव्य की सार्थकता का समर्थन कर दिया है। ईधर और धर्मद्रस्य सम्बन्धी माधुनिक वैज्ञानिक और जैन दार्शनिको के निर्णयात्मक विश्लेषण के स्वरूप को देखने पर ऐसा लगता है कि यह वही 'ईथर' द्रव्य है जो कि सहस्रों वर्ष पूर्व जैन दार्शनिको ने धर्मद्रव्य
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२५२, बर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त
माना था। माधुनिक विज्ञान ने जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत है 'प्रपेक्षावाद' का सिद्धांत । यह सिद्धांत भी एक तरह . शब्द की पोद्गलिकता (पार्थिवस्वरूप) को जिस हद तक से 'स्याद्वाद' का ही विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत दूसरा अपने भौतिक यत्रों द्वारा शब्द को संगृहीत करके पुष्ट रूप ही है और कुछ नहीं। इस सिद्धात की सरलता एव किया है उसके लिए जैन दार्शनिको को उपकृत समझना कठिनता के विश्लेषण के साथ इसके ज्ञान के द्वारोचाहिए। इस प्रकार गति के माध्यम के रूप में एक नवीन सात नयों का भी विवेचन किया गया है जिसमे यह द्रव्य धर्म की कल्पना, जो कि अन्य दार्शनिकों के लिए स्पष्ट किया गया है कि विभिन्न स्वभाव वाले ये सातो अभी तक दुग्वबोध बनी हुई है तथा शब्द की पौद्गलिकता नय यदि परस्पर निरपेक्ष हैं नो वे मिथ्या होने के कारण जिसे अन्य दार्शनिक स्वीकार करना नहीं चाहते। जैन 'स्याद्वाद' के स्वरूप के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कगने दार्शनिक सिद्धात, जो कि कालद्रव्य की वर्तना के बारे मे मे सर्वथा असमर्थ रहते है । किन्तु जब यही पररपर जैन दार्शनिको ने स्वीकृत करते समय निर्धारित किया सापेक्ष रहते है तो सम्यक स्वरूप प्राप्त करके वस्तु के था कि 'काल के विभाजन का व्यवहार मनुष्य क्षेत्र से अनन्त धर्मों के व्यवस्थापक स्याद्वाद के बोधक हो जाते बाहर के क्षेत्रों तथा अन्य लोकों में मनुष्य क्षेत्र के है। इस प्रकार जैन दर्शन में आधुनिक विज्ञान के इस व्यवहार के आधार पर ही होता है' का प्रबल प्रमाण सिद्धात की भी चरितार्थता प्राप्त हो जाती है कि--'दो रूस और अमेरिका द्वारा प्रेषित 'लूना' तथा 'अपोलो' ऋण' मिलकर 'धन' बन जाते है अर्थात् दो निगेटिवों के नामक चन्द्रयानों के कार्यक्रमो के काल-निर्धारण ने प्रति- सयोग को ही पोजीटिव माना गया है। इसी प्रकार इन पादित कर दिया है । द्रव्यो के विवेचन के इसी प्रसङ्ग मे पृथक्-पृथक् मिथ्या नयो का (निरपेक्षता का) सयोग अन्य दार्शनिकों द्वारा परिकल्पित द्रव्यों का जैन दार्शनिक सापेक्षता (सम्यकत्व) का स्वरूप प्राप्त कर लेता है। द्रव्यों मे अन्तर्भाव का निरूपण करते हुए अव्यवावयवियो, 'प्रात्मा' का विवेचन शोध प्रबंध के तीसरे प्रध्याय गणपर्यायो के पृथक-पृथक् मानने के सिद्धांतों का खण्डन से प्रारम्भ है, जो कि उपसंहार तक चलता है। इस विवेचन तथा गुणों को भी स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मानने की में जैन दर्शन सम्मत 'जीव' (ससारावस्था में स्थित) तथा युक्तियों का उल्लेख भी स्पष्टत: कर दिया है।
'प्रात्मा' (सामारिक बन्धनो से रहित, विशुद्ध चैतन्यशक्ति) जैन दर्शन के प्राणभूत 'स्याद्वाद' का विश्लेषण द्रव्यों की व्यत्पत्ति में प्रात्मा को ज्ञान शक्ति वाला (प्रततिके ज्ञान का प्रत्यावश्यक प्रग है । इसके समझे बिना, गच्छति इति प्रात्मा) तथा जीव को दश प्राणो से युक्त इसे स्वीकार किए बिना द्रव्यो की अनन्त घत्मिकता जीवन क्रिया वाला (दशभिः प्राण सह योऽजीवन, जीवति, बद्धि से परे ही रहती है । वास्तव में जिस सिद्धात को हम जीविष्यति च य सः जीवः) माना गया है । यहाँ पर विशेष अपने दैनिक व्यवहार में कभी भी असंगत नही मानते है, स्मरणीय यह है कि 'प्राण' जैन दार्शनिको न जीव के ही माने हमे इस बात पर कभी भी प्रापत्ति नहीं होता है कि एक है, न कि आत्मा के । इन्ही प्राणो से किसी जीव को रहित व्यक्ति जिसे अपना पिता समझता ही नहीं बल्कि अपने कर देना 'हिंसा' है। प्रात्मा को प्राय. सभी दार्शनिक जीवन भर के तमाम प्राचरणों से सिद्ध करता है कि यह अछेद्य, अभेद्य, अमर मानते है इसलिए प्रात्मा का मरण मेरा पिता है, उसी व्यक्ति को दूसरे लोग भाई, चाचा, तो कथमपि सम्भव नहीं होता। इस जीव का लक्षण जैन मामा, साला, बहनोई सिद्ध करने में अपना जीवन तक दार्शनिको ने 'देखने और जानने का स्वभाव'(उपयोग वाला) बाजी पर लगा देते है। इसी सिद्धात को मानने के लिए माना है। इसलिए जीव स्वभावतः जगत के प्रत्येक पदार्थ जब किसी विद्वान के सामने पदार्थों को माध्यम बनाया को देखते और जानते हुए जब उसमे रागात्मक प्रवृत्ति करने जाता है तो वे क्यो हिचकिचात है, ममझ मे नही पाता। लगता है, तो उसका शुद्ध स्वरूप विकृत होने लगता है। जहां तक इसकी वैज्ञानिकता का प्रश्न है, आज बीसवी और इसके साथ जब उसको प्रवृत्ति मे नरन्तर्य मा जाता है, शताब्दी की विज्ञान को जो प्रमुख देन मानी जाती है वह तो उसकी इसी परिणति को विभाव परिणति कहा जाता है।
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जैन दर्शन में पारम-व्य विचार
२५०
इस प्रकार हम स्वभाव परिणति वाले शुद्ध प्रात्मा को जब माना गया है। यही पात्मा अपनी जगत्प्रवृति में उलझ जाने विभावप रिणति करते हुए देखते है, तभी मर्त पुदगलो से के कारण ससरण करता हुग्रा भनेक जन्म धारण करता संश्लिष्ट होने के कारण प्रात्मा को 'मूर्त' भी कहा जाता हुआ एक देह से दूसरे देह में प्रविष्ट होता रहता है। है । किन्तु वस्तुतः यह प्रात्मा अपने शुद्धरूप मे इन्द्रियों इसी ससरण से युक्त पात्मा को 'संसारी' की संज्ञा दी के माध्यम से न तो किसी पदार्थ को स्वयं ग्रहण करता है गयी है। यह जब तक जगत् के प्रत्येक पदार्थ को 'अपना' (अतीन्द्रिय-स्वभावात्) और न ही दूसरे जीव इसे इन्द्रियों समझता रहता है तब तक इसे जैन दार्शनिकों के अनुसार के माध्यम से ग्रहण कर सकते है इसलिए इसको 'प्रलिङ्ग 'बहिरात्मा' कहा जाता है, जब यही प्रात्मा अपनी सासारिक ग्रहणम्' भी कहा गया है। सांसारिक प्रवृत्ति मे सलग्न जीव दृष्टि को बदलकर 'सम्यग्दृष्टि' स्वरूप को प्राप्त करता है अपने पुद्गल कर्मों का कर्ता होता है क्योकि परिणाम और तब इसे 'अन्तरात्मा' कहा जाता है। तथा अपने इसी परिणामी मे अभेद मानने से जीव की समस्त परिणाम रूप वैराग्य को प्रगतिशील रहते हुए जब समस्त घातिकर्मों का क्रियायों को जीव की ही क्रिया के रूप में मानना पडता है. विनाश तथा जगत् के समस्त पदार्थों का सम्यक ज्ञान प्राप्त किन्तु जब इसी परिणाम को शुद्ध दृष्टि से देखा जाता है तो कर लेता है, तब इसे 'परमात्मा' (सकल) कहते है और जीव इन समस्त परिणामो-क्रियायोका कर्ता सिद्ध नही होता इसके बाद घाति तथा प्रघाति सभी कर्मों के विनाशोपरान्त है जीवको इसी प्रकार भोक्तृत्व और प्रभोक्तृत्वरूप माना गया शरीर रहित होकर सिद्धत्व को प्राप्त करता है, तब इसे है। प्रात्मा के शरीर प्रमाण को अन्य दर्शनों से पृथक रूप मे परमात्मा' (विकल) कहते है इस अवस्था को प्राप्त होने मानते हुए जैन दार्शनिको ने स्पष्ट तया प्रतिपादित कर पर ही जीव का 'ऊर्ध्वगति स्वभाव' सार्थक होता है। दिया है कि प्रात्मा मे एक ऐसी विशिष्ट शक्ति है जिससे जन्म-मरणादि अवस्थानों में ससरण करता हुमा जीव, वह अपने प्रदेशो के यथावसर सकोच एवं विस्तार मे पूर्ण- अनेक प्रकार के कमों के करने से विभिन्न प्रकार के जन्म तया समर्थ है । यही कारण है वह चीटी जैसे लघु शरीर मरणादि के प्राश्रयभूत शरीरों को प्राप्त करता हुमा से लेकर हाथी जैसे दीर्घ शरीर तक में प्रविष्ट होकर अपने अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करता है। को मुस्थित रखता है। जब हम इसी सिद्धान्त के प्राधार इन्ही योनियो के प्राधार पर सासारिक जीव को चार पर दूसरे (जनेतर) ग्रन्थो पर भी दृष्टिपात करते है तो श्रेणियो- दव, मनुष्य, नारक एवं तिर्यञ्च-मे विभाजित पाते है कि महाभारत के श्री कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप करके, जैन दार्शनिको ने एक पुष्ट सिद्धान्त स्थापित कर जब अर्जुन को दिखलाया, तथा रामायण में सुरसा राक्षसी दिया है कि सत्कों (पुण्यो)से सम्प्राप्न देवयोनि ही हमारा पौर रामभक्त हनुमान ने अपने अपने शरीरों के विस्तार चरम लक्ष्य नहो है जैसा कि कुछ वैदिक दर्शन मानते किए है तो उनके उन विस्तृत अङ्गो मे भी तो उसी तरह की है। बल्कि वह भी सासारिक जीवो की एक उच्च या चेतनशक्ति का विवरण दिया गया है जैसा कि उनके विस्तार श्रेष्ठ (प्रपेक्षाकृत) श्रेणी ही है । इन चारो ही प्रमुख विसे पूर्व के मङ्गो मे थी। यदि प्रात्मा मे उपसहार और प्रसर्पण भागों के विश्लेषण के प्रसङ्ग में प्रत्येक विश्लेषण की प्रमुख की शक्ति न मानी जाये तो उन विस्तृत अङ्गोका क्या स्वरूप विशेषताओं का भी उल्लेख सूक्ष्मरूपेण किया गया है । जैसे होगा? विचारणीय है !किन्तु कुछ अवसरी (वेदना-कषाय- देवों के विभाजन में उनकी उन समस्त श्रेणियों का मनुष्य विक्रिया प्रादि) में प्रात्मा को देह प्रमाण नही माना गया क्षेत्र की श्रेणियो (राजा से लेकर सेवको तक की श्रेणियो) है । क्योंकि इस अवस्था मे मात्मा के प्रदेश शरीर से बाहर की तरह स्पष्ट विवेचन, पौर उनमे अन्य मनुष्य प्रादि भी निकलकर जाते है। इसी प्रात्मा को संवित्ति समुत्पन्न श्रेणियो की अपेक्षा श्रेष्ठता का कारण नारकियो मे तदितर केवलावस्था में व्यवहार से(ज्ञान की अपेक्षा से)लोक व्यापक श्रेणियों को अपेक्षा गर्हता, नीचता एव अशुभता के साथ भी माना है। इसी तरह समाधिकाल में पञ्चेन्द्रिय और इनके भी आवास प्रादि की श्रेणियों का प्रतिपादन, मनुष्यों मन के विकल्प से रहित होने के कारण आत्मा को 'जड़' भी के विवेचन में मनुष्य-क्षेत्र मनुष्यों की जातियों मादिक.
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२५४ वर्ष २१० ५-६
तथा तिर्यों में भी इनके प्रमुख विशेषणों के स्पष्टीकरण द्वारा मनुष्य को ( जीव को ) संसार की उन तमाम दुःखद परिस्थितियों से परिचित कराना आवश्यक समझा जाता है, जिससे कि वह अपने को उनसे सुरक्षित रखता हुआ वास्तविक स्वरूप (परमात्मत्व) की प्राप्ति की घोर उन्मुख हो सके ।
जैन दर्शन में अन्य धार्मिक ग्रन्थों की तरह ८४००००० लाख योनियों को प्रतिपादित किया गया है, किन्तु अन्तर यही है कि जैन दार्शनिकों ने इन योनियों में से प्रत्येक योनि में पैदा होने वाले जीवों का लेखा निश्चित करके रख दिया है, जो अपनी एक विशेषता रखता है। संसार की इन दुःखद अवस्थामों मे जीव को स्वेच्छा मे नहीं, बल्कि उसके द्वारा अजित जगत की पराधीनता से ही भ्रमण करना पडता है। इस पारतन्त्र्य के मूल मे जगत के प्रति जीव का राग, द्वेष, मिथ्यात्व मा रोइ ध्यान, सकापयत्व (क्रोध, मान, माया, लोभ-युक्तता ) ही कार्य करता है। जिसके कारण एक जन्म से जन्मान्तर प्राप्ति के समय सम्मूर्च्छन-गर्भ और उपपाद जैसे कष्ट दायक जन्मों को ग्रहण करता है। इस भवान्तर प्राप्ति के समय (जन्म से जन्मान्तर प्राप्ति के पूर्व तक के समय ) के मध्य जीव किन-किन श्रेणियों से होकर गुजरता है, किस जन्म मे पहुंचने के लिए जीव को बीच मे कितनी बार 'माहार' ग्रहण करना पडता है, किन जन्मो को प्राप्ति के लिए जीव को 'अनाहारक' रहना पडता है, इसका भी विवेचन जैन दार्शनिकों के द्वारा अन्य दर्शनों से विशिष्ट रूप मे सूक्ष्म रीति से किया है ।
जिस प्रकार मदिरा आदि मादक द्रव्यों के सेवन करने वाले की मादकता ( मतवालेपन) का कारण मदिरा बादि मादक द्रव्य होते है उसी तरह रागद्वेषादि कषायो द्वारा जीव को भी परिणमनशीन होना पड़ता है। चूंकि जीव रागद्वेषादि से युक्त होने के कारण प्रतिक्षण परिस्पन्दरूपा किया होती रहती है, इसलिए वह इस क्रिया के परिणाम के रूप मे अनेक प्रकार के कर्मों को अपने मे प्रावित करता रहता है जिससे यह कर्मबन्धन के नैरन्तर्य में जकड़ता जाता है। इस प्रकार जीव जब-जब रागद्वेषादि से उत्तप्त हो कर हलन चलन क्रियाम्रो से युक्त
अनेकान्त
होता है, तब-तब अपने पास की पुद्गल कार्याणवर्गणामों को उसी तरह अपनी पोर प्राकृष्ट करता है, जिस तरह अग्नि से उत्तप्त लोह-गोलक पानी में पड़ने पर अपने समीपस्थ जलायों को ग्रहण करता है। इन गृहीत कर्मों में से कुछ का उपभोग तो अपने परिणमन काल में ही करता रहता है, शेष कर्म जो कि श्रात्मा के चतुर्दिक् अपना जाल-सा बना लेते है, संश्लिष्ट हो जाते है, भोर उन कुछ कर्मों के उपभोग के समय पुनः जीव अपने परिमन द्वारा नूतन कर्मों को पूर्ववत् ग्रहण करता रहता है। जिससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि यह कर्म परम्परा किसी निर्धारित समय से न तो प्रारम्भ हुई है, और न ही भविष्य में कोई ऐसा समय आ सकता है जबकि जगत् की कार्याणवणाओं का ग्रहीता कोई भी जीव अवशिष्ट न रहे ।
इससे दो बातें स्पष्ट होती है एक तो यह कि यह संसार अनादि है, क्योकि इससे प्रतिक्षण प्रनन्तानन्त जीव अपना बन्ध प्राप्त करते रहते है, जिनका क्रम कभी भी समाप्त होना सम्भव है । दूसरी यह कि प्रत्येक जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता है, जैसे वह कर्म करता है तदनुकूल ही परिणाम उसको मिलेगा । किन्तु फिर भी यदि जीव चाहे तो वह अपने इस ससरण से स्वयं को बचा सकता है। चूंकि आत्मा स्वभावतः ज्ञानदर्शन शक्तियुक्त है और उसे जब अपनी इस शक्ति का आश्रय थोडी सी भी मात्रा मे मिलना प्रारम्भ हो जाना है, तब उसे यह आभास होने लगता है कि 'मैं' पृथक् हैं, और मेरे से बधे हुए यह 'कर्म' पृथक् है । इसी लिए मै इनसे मुक्त हो सकता है जब जीव अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न प्रारम्भ करता है, तभी जैन दर्शन के इस सिद्धान्त की सार्थकता समझ में आती है कि यह जीव ( श्रात्मा ) यद्यपि धनादि काल से ही शुद्ध रूप वाला है, किन्तु प्रयोगों द्वारा यह शुद्ध भी हो सकता है। इन प्रयोगों द्वारा हो जीव की ज्ञान-दर्शन शक्तियों पर पड़े हुए भावरण धीरेधीरे हटने लगते है, और यह पुन: अपनी उन शक्तियों को प्राप्त करने लगता है ।
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यद्यपि जीव और पुद्गल क्रमश: 'चेतन' और 'प्रचेतन' रूप परस्पर विरुद्ध पदार्थ है, फिर भी स्वभावतः उन
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चन वर्शन में प्रात्म-व्य विचार
२५५
दोनों का पारस्परिक बन्ध होता है, इसी से यह जगत या कषाय और योग) कुछ दार्शनिक चार (मिथ्यात्व, प्रवि स्थित है। और इस जगत का कोई भी प्रदेश ऐसा नही रति, कषाय और योग) तथा कुछ दार्शनिक इन्हीं चारों है जहां पर कि बढ जीव न हो, इससे यह भी निश्चित को प्रमाद के साथ बन्ध के पाच हेतुमों के रूप में मानते तौर पर मानना पड़ता है कि जीव और पुद्गल चूकि है। किन्तु यहाँ पर इतना अवश्य स्मरणीय है कि जिन्होंने सत्स्वभाव वाले है इसी लिए इन दोनों की बन्ध प्रक्रिया बन्ध के केवल चार ही हेतुपो को (प्रमाद को छोड़कर) भी सद्रूप है। इस 'बन्ध' का लक्षण जैनदर्शनाचार्यों ने माना है, उन्होने प्रमाद और कषाय को प्रभेदरूप माना एक-सा नही माना है। उत्तराध्ययन मूत्र की नेमिचन्द्रीय है, इसलिए कर्मप्रकृति' प्रादि ग्रन्थों मे भी केवल चार ही टीका में 'जीव और कर्मों का सश्लेष बन्ध है' माना है, बन्धहेतप्रो का निर्देश मिलता है। इनमे-जो पदार्थ जिस जब कि स्थानाङ्गसूत्र की टीका मे 'जीव के द्वारा स्वभा- वास्तविक रूप में स्थित है उसको उसी रूप मे न स्वीवत: कर्मयोग्य पुदगलो के ग्रहण' को बन्ध कहा गया है। कारना ही 'मिथ्यात्व' है। हिसा अनूत, अस्तेय, प्रब्रह्म मभयदेवसूरि ने स्थानाङ्ग की ही टीका मे हथकडी' और परिग्रह रूप पाच पापो से विरत न होना 'अविरति' प्रादि के बन्धन को 'द्रव्यबन्ध' और कर्मों के बन्धन को है। 'प्रमाद' के बारे मे पूज्यपाद ने केवल 'कुशलेश्नादा: 'भावबन्ध' कहते हुए एक नया वैशिष्ट्य प्रस्तुत किया है। प्रमाद: कह कर इति कर दी, जब कि भट्टाकलङ्क ने 'सयम' तथा पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थ सिद्धि टीका मे कर्मों की और धर्मों के प्रति अनुत्साह या अनादर को, तथा उमापौर प्रात्मा का एक-दूसरे के प्रदेशो मे प्रदेश, अवगाहन स्वामि (ति) ने स्मृत्यनवस्थान, योगदुष्प्रणिधान तथा को 'द्रव्यबन्ध' के रूप में स्वीकार किया है।
कुशलों मे अनादर को 'प्रमाद' माना है। जीव के बोषा. ___ कुछ भी हो इन स्वीकृतियो से इतना ही निश्चित हो दिरूप परिणामो को 'कषाय रूप माना गया है । 'योग' पाता है कि यह बन्ध अपने प्रवाह की अपेक्षा से अनादि को प्रात्मप्रदेशो के परिस्पन्दन के रूप में, तथा काय, वाङ् है क्योंकि अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि जीव और मन की प्रवृत्ति के रूप में भी माना है। इनके प्रवापहले उत्पन्न हुमा, या कर्म। जिस तरह बन्ध का लक्षण तर भेदो का विश्लेषण, तथा विवेचन प्रसङ्गवशात् कर कई रूपों में मिलता है उसी तरह बन्ध के हेतुभूत कारणो। दिया गया है । इन हेतुप्रो को विभिन्नता के कारण बन्ध का भी वीभन्य जैनदार्शनिको का दृष्टिपथ मे अनायास ही का भी विभिन्न रूपो में होना स्वाभाविक है। इसलिए पा जाता है। स्थानाङ्कसूत्र में केवल राग और द्वेष को इनके द्वारा होने वाले बन्धो को भी जैनाचार्यों ने प्रमुख ही बन्ध हेतुरूप माना है। किन्तु टीकाकार ने यहां पर चार बन्ध-प्रकृति, स्थिति, पनुभाग (अनुभाव), और राग से माया पोर लोभ का तथा द्वेष से क्रोध और मान प्रदेश, के रूप में बाँटा है। इनमे जीवों से अपने स्वाका ग्रहण किया है। इसी टीका मे मागे 'प्रकृतिबन्ध' भावानुमार कर्मो का जो बन्ध होता है वह 'प्रकृतिबन्ध' पौर 'प्रदेशबन्ध' के हेतुरूप मे 'योग' को, तथा 'स्थिति' है, किन्तु प्रत्येक प्रकृतिबन्ध द्वारा बधे हुए कर्म एक और 'मनुभाग' बन्ध के हेतुरूप मे 'कषाय' को निश्चित अवधि तक ही जीव से बधं रहते है, इसी लिए प्रतिपादित किया है। जिससे 'योग' और 'कषाय' ही तात्कालिकबन्ध को प्राचार्यों ने 'स्थितिबन्ध' की संज्ञा दी बन्ध-हेतु ठहराते है। यहीं पर पागे मिथ्यात्व, अविरति, है। प्रकृतिबन्ध के समय जब कर्म जीव में बषते हैं तभी कषाय और योग को बन्धहेतुत्व का निर्देश मिलता है। वे अपने उदयकाल में कितना तीव्र या मन्द परिणाम देगे', यहाँ पर 'प्रमाद' को ग्रहण नही किया है जबकि अन्य निर्धारित हो जाता है, उस समय का यह अनुभव ही मागमयंघों (भगवतीसूत्र) मे तथा उमास्वामि (ति) ने 'अनुभावबन्ध' नाम से स्वीकृत किया है । मात्मा के असंख्य भी अपने तत्वार्थसूत्र मे इसका ग्रहण किया है। इस प्रदेशो में से प्रत्येक प्रदेश मे अनन्तानन्त कर्म वर्गणामो का प्रकार बन्ध हेतु के रूप मे कुछ जैन दार्शनिक केवल एक सग्रह अर्थात् जीव भोर कर्मपुद्गलो का एक-दूसरे के प्रदेशों (संश्लेष-जीव और कर्मों का), या दो (राग मोर वेष, मे अवगाहन पूर्वक स्थित हो जाना 'स्थितबन्ध' है। इन
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२५६, वर्ष २३, कि० ५-६
भनेकान्त
सभी के विशेष ज्ञान के लिए प्रवान्तर भेदो (कर्मप्रकृतियों) नम्, १२. क्षीणकषाय (वीतरागछयस्थ) गुणस्थानम्, का विवरण भी दे दिया गया है ।
१३. सयोगकंवलिगुणस्थानम्, १४. प्रयोगकेवलिगुणस्थानम् । उपयुक्त बन्धहेतुभून कर्मों का प्रास्रव जब तक प्रात्म इन गुणस्थानों में सम्यक्त्व से युक्त (चतुर्थगुणस्थाप्रदेशों में होता रहता है तब तक यह कर्म निरन्तर बंधते निक) 'श्रावक, पञ्चमगुणस्थानिक 'देशविरत', षष्ठम रहते है । किन्तु पात्मा स्वभाव मे प्रतिविशुद्ध और निर्मल
और सप्तम स्थानिक 'विरत', तथा अष्टम से एकादश तक है इसलिए जब वह अपने इम स्वरूप को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है तो वह इन बन्धहेतूमो के 'क्षयक', त्रयोदशतमस्थानिक जिन' (सयोगकैवलि), एवं विनाशकहतुओं का प्राश्रय ग्रहण करने लगता है । और चतुदशतमस्थानिक भी 'जिन' (किन्तु प्रायोगकाल) जब उसे यह ज्ञान होता है कि इन-इन कर्मों से बन्धन का
सज्ञामो से अभिहित होते है । इस प्रकार कर्मों के क्रमशः मानव तब होता है वह उनके निरोष के उपाय अपनाने
उपशम एव भय से अन्त मे केवलित्व को प्राप्त कर लेने लगता है इन्ही उपायों को जैनाचार्यों ने 'सवर' की सजा
पर जीव ससार मे तब तक ठहरता है जब तक कि उसको दी है । बन्धहेतुमो के मास्रव को जिस प्रकार 'द्रव्य' और
'निर्वाण' (सासारिक शरीर की निवृत्ति) नहीं प्राप्त होता 'भाव' भेद मे दो प्रकार का माना है। उसी प्रकार उन
है। तभी वह 'मोक्ष' प्राप्त करके लोक के अग्र भाग मे उन मिथ्यादर्शनादि प्रास्त्रवो के निरोधो को भी उपयुक्त
स्थित होकर 'जीव' की चरमोत्कर्षता का प्रमाण बनता है। दो भेद रूप माना है। जिसमे भवान्तरप्राप्ति रूप ससार
'मोक्ष' क्या है ? इसकी व्याख्या करते हुए जन दार्शका निरोध 'भावसवर' तथा इस निरोध से पाने वाले
निको ने कहा है कि-'जीव का समस्त कमों से छुटकारा
प्राप्त करना (कृत्स्नकर्मविप्रयोग.) ही 'मोक्ष है। चीक कर्मों का निरोध 'द्रव्यसबर' कहा गया है। इस प्रकार
प्रात्मा अनादि काल से ही बन्ध को प्राप्त करते हुए पार. निरोध (मवर) के माध्यम से क्रमपूर्वक जब जीव अपने
तव्य को अनुभव करता रहता है इसलिए 'मोक्ष' के प्रति समस्त प्रागत कर्मों को भी विनष्ट कर चुकता है तभी वह
उसकी प्रवृत्ति, और 'मोक्ष की प्राप्ति ही 'मोक्ष' की सत्ता अपने शुद्ध वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करके सिद्ध' कह
(सदभाव) को सिद्ध कर देनी है । जैनेतर दार्शनिको लाने में समर्थ होता है । इस बन्धविनाश के पूरे समय को
ने 'मोक्ष प्राप्ति' का कारण 'तत्तत् पदार्थों के ज्ञान' को कुछ विशिष्ट श्रेणियो में विभाजित किया गया है, जिनके
ही माना है, किन्तु जैनाचार्यों ने इस ज्ञान की परिपक्वता नाम से ही उस श्रेणी में ही स्थित जीव के कितने को
के लिए इससे पूर्व उन-उन पदार्थों के प्रति सच्ची श्रद्धा'
ही का किस प्रवधि (सीमा) तक विनाश हो गया है । इसका
(सम्यग्दर्शन) तथा दर्शनपूर्वक होने वाले ज्ञान की चरिशान हो जाता है।
नार्थता के लिए ज्ञानपूर्वक प्राचरण' (सम्यक्चारित्र) को सासारिक जीव की जब से कमों के विनाश की प्रक्रिया भी मोक्षप्राप्ति के लिए परमावश्यक माना है। इस प्रकार प्रारम्भ होती है, तब से सिद्धत्व प्राप्ति तक कुल १४ इन तीनो को चरमपरिणति का सयुक्तरूप ही मोक्षमार्ग श्रेणियों निर्धारित की गई है। वे है -१. मिथ्यादष्टि- के रूप में मानकर अन्य दार्शनिको के ज्ञान मात्र को मोक्षगुणस्थानम्, २. सासादनसम्यग दृष्टिगुणस्थानम्. ३. सम्यङ्- मागं मानने की अपूर्ण पद्धति को पूर्णता प्रदान करने का मिथ्याष्टिगुणस्यानम्, ४. प्रसयतमम्यग्दृष्टिगुणस्थानम्. श्रेय इमी दर्शन को है। 'मोक्षमार्ग' के प्रमुख तीन क्रम ५. सयतासयतगुणस्थानम्, ६. प्रमत्तसयतगुणस्थानम्, २९ जैनागमो में पाए जाते है जिनका विशेष विवरण यथा७. प्रप्रमत्तसयतगुणस्थानम्. ८. अपूर्वकरण (उपशमक्षरक) प्रसङ्ग प्रबन्ध मे प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही जब गुणस्थानम्, ६. अनिवृत्तिकरण (बादरोपशमकक्षपक) मोक्ष के स्वरूप का विवेचन जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित गुणस्थानम, १०. सू०मसाम्पराय (उपशमक्षपक) गुण- किया गया तो उन्होंने इन बातो का स्पष्टतः खण्डन किया स्थानम्, ११. उपशान्तकषाय (वीतरागछपस्य) गुणस्था- है कि मोक्ष मे 'दीपक के निर्वाण की तरह मात्मा का भी
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जैन दर्शन में पात्म-द्रव्य विचार
२५७ निर्वाण (समाप्ति) हो जाता है, या 'ज्ञानादि गुणों का है। उपनिषदों में प्रात्मा के विभिन्न रूपों के सूक्ष्म सर्वथा उच्छेद हो जाता है। बल्कि उन्होने यह स्पष्ट किया विश्लेषण के माध्यम से प्रात्मा और जगत् दोनों के ज्ञान है कि मोक्ष में न तो 'प्रात्मा' (जीव) का ही विनाश होता को प्रावश्यक बतला कर अनेकता में एकता के समन्वय है और न ही कर्म पुदगलों का विनाश होता है, क्योंकि ये का (जीवन की विभिन्न धारामों के मोक्ष में विलय का) दोनों ही द्रव्य-दृष्टि से नित्य है। इसलिए इनका सर्वथा सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।
नैयायिकों ने प्रात्मा को मोक्ष में भी मन के साथ विनाश नहीं हो सकता। मोक्ष में जो प्रात्मा के चतुर्दिक कर्मपुद्गल बधे हुए (सश्लिष्ट) थे, उनकी स्थिति प्रात्मा के
'स्वरूप योग्यता से युक्त माना है जिससे यदि वहां पर समीप से सर्वथा समाप्त हो जाती है। इसीलिए प्रात्मा
भी किसी तरह वे प्रावश्यक साधन प्रात्मा को प्राप्त हो पुन: अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इस
जाएं जो जीवात्मा ससार मे प्राप्त करता रहता है, तो प्रकार मोक्ष का सरल अर्थ है-प्रात्मा और कर्मपुद्गलो
इन दोनो मे कोई भी अन्तर न रह जाय । इसी प्रकार का जो सम्मिलित रूप (जीव) था उसमे से कर्मपृद्गल
साख्य का पुरुष भी विवेक बुद्धि (भेद-बुद्धि) को प्राप्त पृथक हो गए और पात्मा पृथक हो गया। यही पात्मा
करके कैवल्य को प्राप्त करता है। यही अशेष दुखों की की स्वतन्त्रता, है, यही कृत्स्नकर्मों का विप्रयोग है जोकि
प्रात्यन्तिक निवृत्ति है। किन्तु कैवल्य प्राप्ति के बाद भी मोक्ष के लक्षण रूप में माना गया है। इस प्रकार यह
उसको प्रकृति का द्रष्टा मानने पर यह भी मानना पड़ेगा जीव पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप के प्रति श्रद्धालु एवं
कि उसको सत्वगुण से वहां पर भी पृथकत्व प्राप्त नही जिज्ञासु होता हुआ उनके ज्ञानानुरूप अपना माचरण करके
हुअा। अन्यथा वह प्रकृति का द्रष्टा नही हो सकेगा। ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । किसी भी एक के
मीमासक का पात्मा एक तो जड़रूप है, उस पर भी प्रभाव में यह सम्भव नही होता। दूसरे शब्दों में हम इस
इनके यहाँ स्वर्ग से भिन्न मोक्ष नहीं है। इससे मीमांसकों बन्ध व मोक्ष को (कृत्स्नकर्म विप्रयोग को) 'पात्मा के अपने
का विवेचन पारलौकिक न होकर ऐहलौकिक ही रह जाता गुणो के साक्षात्कार' रूप मे मान सकते है। ऐसी प्रात्मानो
है पौर अद्वैत वेदान्त मे तो माया, जगत् के संश्लेष से को भी जैनाचार्यों ने पाच स्वरूपो मे माना है। इन पाचो
कोई फर्क ही नही पड़ता, क्योवि. सभी ब्रह्ममय है। यदि रूपो (साधु, उपाध्याय, प्राचार्य, सिद्ध एवं महंन्तो) मे
ऐसा वास्तव में हो तो फिर यह कैसे समझ में आ सकता चित्त का नेमल्य, शान्तत्व, शिवत्व और निरज्जनत्व स्व
है कि-ब्रह्मरूप जीवात्मा से ब्रह्मरूप माया एवं जगत् का भावतः रहता है। यही परमात्मा के गुण प्रायः सभी दार्श
प्रभाव (विनाश) हो सकता है ? क्योकि इस प्रभाव से निक मानते है।
तो स्वय ब्रह्म के स्वरूप के ही प्रभाव का प्रसङ्ग उपस्थित जैन दर्शन के प्रात्म-सम्बन्धी विचारो की जब हम हो जाता है । इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि ये दर्शन अन्य दर्शनों से तुलना करते है तो ज्ञात होता है कि- प्रात्मा एव मोक्ष के स्वरूप के प्रांशिक विवेचक ही है, चार्वाक केवल भौतिक पदार्थों तक ही सीमित रहकर इनमे पूर्णता किसी में भी दिखलाई नहीं पड़ती। जबकि पुत्र, धन, देह, इन्द्रियादि रूपो मे ही प्रात्मा को खोजता जैन दर्शन जीव को प्रारम्भिक अवस्था (सांसारिक हुमा भटकता रहता है और बौद्धो की बुद्धि मे यही अवस्था) से मुक्ति पर्यन्त तक के प्रत्येक पहल का सूक्ष्मनिश्चित न हो सका कि वे प्रात्मा को माने या न मान। तम एव विशद तथा व्यवस्थित विवेचन करके यह इसीलिए गौतम बुद्ध भी आत्मा के बारे में कोई निश्चित दिखलाता है कि एक संसारी जीव (चाहे वह किसी भी मत स्थापित नहीं कर सके । वेदों मे वणित प्रात्मा का श्रेणी में स्थित हो) किस तरह परमात्मत्व (अपने वास्त. स्वरूप कभी एकेश्वरवाद में, तो कभी बहुदेववाद मे विक स्वरूप) को प्राप्त कर सकता है। इसी बात को हम निश्चित किया जाता रहा है। किन्तु कुछ स्थलों पर दूसरे शब्दों में इस तरह कह सकते हैं कि-"जैनदर्शन प्रास्मा का वैसा ही चित्र (स्वरूप) प्रगट किया हुआ प्रात्मा के द्वारा परमात्मत्व को प्राप्त करने तक की यात्रा मिलता है जैसा कि भवैत वेदान्त में ब्रह्म का प्राप्त होता का विवेचक है।' -संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली
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जैनॉलॉजिकल रिसर्च सोसाइटी के तत्वावधान में प्रायोजित
राजस्थान सेमिनार
संयोजक-प्रो. प्रेम सुमन बन; प्रकाश परिमल, बीकानेर २६, ३० नवम्बर '७० को बीकानेर में राजस्थान श्री बलवन्तसिंह मेहता ने उद्घाटन किया। मापने कहा इतिहास प्रेस के चतुर्थ अधिवेशन के अवसर पर जैनॉ कि राजस्थान में जैन विद्यानों की सामग्री पग-पग पर लॉजिकल रिसर्च सोसायटी के तत्त्वावधान में स्थानीय बिखरी पड़ी है। उसकी पूरी सुरक्षा होनी चाहिए। सदस्यों द्वारा १ दिसम्बर १९७० को एकदिवसीय क्योंकि यदि राजस्थान के इतिहास मे से जैन संस्कृति के राजस्थान सेमिनार का प्रायोजन किया गया। लगभग सहयोग को निकाल दिया जाय तो वह फीका पड़ जाएगा। ४० प्रतिनिधियों ने सेमिनार में भाग लिया। उनमें प्रमुख जैन विद्यापो के, अध्ययन-अनुसन्धान को यदि पर्याप्त थे-डॉ० दशरथ शर्मा जोधपुर, डॉ. गोपीनाथ शर्मा गति यहाँ मिली तो अनेक संघर्ष स्वयमेव समाप्त हो सकते जयपुर, श्री बलवन्त सिंह मेहता उदयपुर, डॉ. जगत- हैं। जैन समाज के कार्यकर्तामों को अधिक सजग रहने नारायण प्रासोपा जयपुर, डॉ० रामचन्द्र राय, डॉ. की पावश्यकता है कि उनके शास्त्री एवं मूर्तियों का कस्तूरचन्द कासलीवाल, डॉ गोपीचन्द वर्मा, श्री रामवल्लभ व्यापार न हो पाये। सोमानी, डॉ० वशिष्ठ, कु. फूलकुवर जैन, कु. सुनीता सेमिनार के सयोजक प्रो. प्रेम सुमन जैन ने जैनाजोहरी, सत्यनारायण पारीख, कु. पयजा,डॉ. मनोहर लोजिकल रिसर्च सोसायटी का प्रगति विवरण प्रस्तुत शर्मा, श्री अगरचन्द नाहटा, श्री ज्ञान भारिल्ल, श्री देव- करते हुए बतलाया कि सोसायटी की स्थापना जैन कुमार जैन, प्रो. विजयकुमार जैन, श्री प्रीतमचन्द जैन, विद्यानों के उच्चस्तरीय प्रध्ययन-अनुसंधान को सही डॉ. त्रिलोकचन्द जैन, श्रीमती डॉ. किरण जैन, श्री दिशा प्रदान करने एवं विद्वानों में सहयोग-सम्पर्क बनाये प्रकाश परिमल, श्री रमेश जैन, श्री ज्ञानचन्द सुराना, रखने के लिए हुई है। सोसायटी शीघ्र ही एक पत्रिका श्री नरेन्द्रसिंह कोठारी, श्री सुमेरचन्द जैन, श्री शान्ति लाल प्रकाशित कर रही है, जिसमें जैन विद्याभों के अध्ययन जैन, डॉ. महावीर राज गेलड़ा, श्री सत्यनारायण स्वामी, अनुसंधान का अपटूडेट विवरण प्रस्तुत किया जायगा। श्री रामप्रसाद जैन, डॉ० बी० के. जैन, श्री जी. एस. मई १९७१ में दिल्ली में समर इन्स्टीट्यूट प्रॉफ जैनोंजैन तथा श्री महेन्द्र कुमार जैन आदि ।
लाजिकल स्टडीज का प्रायोजन करने का विचार किया उद्घाटन समारोह:
जा रहा है। सेमिनार का उद्घाटन समारोह, १ दिसम्बर १९७० उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष डॉ० गोपीनाथ शर्मा, को प्रात: १०३ बजे श्री मगनमल कोचर द्वारा णमोकार इतिहास विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर ने मन्त्र एवं सरस्वती वन्दना से प्रारम्भ हुमा । स्थानीय सेमिनार के प्रायोजन का स्वागत करते हुए कहाजैन समाज के प्रमुख व्यापारी एवं जैनकला प्रेमी श्री राजस्थान के प्रामाणिक इतिहास निर्माण के लिए यह मोतीचन्द्र खजाची ने सेमिनार में सम्मिलित सभी प्रति- एक शभ प्रयास है। राजस्थान की संस्कृति को जैननिधियों का स्वागत करते हुए कहा कि सरकार को जैन प्राचार्यों ने अपने साहित्य में सुरक्षित रखा है। उन्होंने कला अवशेषों की सुरक्षा मे रुचि लेना चाहिए । क्यों कि प्रेस के प्रभाव को अपनी कार्य क्षमता के कारण अनुभव जैन कला और दर्शन ने भारतीय कला और दर्शन को नहीं होने दिया। उनके साहित्य में केवल जैनधर्म के जीवित रखा है। सेमिनार का उद्घाटन डॉ. गोकुल- सिद्धांत ही वणित नहीं है, अपितु जिन बातों से जन चन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली के द्वारा होना कल्याण हो सकता था उन सबको उन्होंने अपने साहित्य निश्चित था। किन्तु उनके न पा पाने से मेवाड़ इतिहास में स्थान दिया है । जैनाचार्यों की भारतीय इतिहास एवं के मर्मज्ञ विद्वान् एवं राजस्थान सरकार के भूतपूर्व मंत्री संस्कृति को यह अमूल्य देन है। राजस्थान में जैन विद्यामों
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राजस्थानमिनार
२५९ के अध्ययन को गति मिले इसमें मेरा पूरा सहयोग रहेगा। मैं स्रोतों के माधार पर राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास चाहता हूँ कि प्रति वर्ष राजस्थान इतिहास कांग्रेस के साथ लिखा जाना चाहिए । राजस्थान सेमिनार के प्रायोजन से यह सेमिनार मायोजित हो ताकि विद्वान् इतिहास प्रध्ययन मुझे कई प्राशाए हैं। तदनन्तर सयोजक द्वारा धन्यवाद में जैन शास्त्रों का उपयोग करने के लिए प्रेरित हों। ज्ञापन के बाद प्रथम बैठक समाप्त हुई। प्रथम बैठक:
द्वितीय बैठक: सेमिनार की प्रथम बैठक के विद्वान वक्तामों ने दोपहर के भोजन के बाद सेमिनार की द्वितीय बैठक "राजस्थान में जैन विद्यानों का अध्ययन : एक सर्वेक्षण" ३ बजे प्रारम्भ हुई। अध्यक्ष थे डा० दशरथ शर्मा, जोधविषय पर अपने विचार व्यक्त किए। प्रो. नरोत्तम पुर विश्वविद्यालय, जोधपुर । इस बैठक मे विचार-विमर्श स्वामी ने कहा कि राजस्थान शोध-कर्तामों के लिए काम- का प्राधान्य रहा । सर्वप्रथम श्री प्रगरचन्द नाहटा ने जैन धेनु है। बहुमूल्य ग्रन्थों की सुरक्षा में जैनों का विशेष कथा कोश के निर्माण की बात कही। मापने जैन कथा योगदान है। इसका मूल्यांकन होना चाहिए। डॉ. कस्तूर- साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उसमें लोकतांत्रिक चन्द कासलीवाल, जयपुर ने सेमिनार की उपयोगिता पर अध्ययन की पोर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। प्रकाश डालते हुए राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों को सामग्री डा. गोपीचन्द्र वर्मा जयपुर ने कहा कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन की पावश्यकता पर जोर दिया डा० रामचन्द्र का अध्ययन जैन विद्याप्रो के बिना एकांगी है। विद्वानों राय जयपुर ने जन शिलालेखों एवं मूर्तियों के अध्ययन के को इसमे स्वयं रुचि और लगन से कार्य करना चाहिए। दौरान घटित अपने संस्मरण सुनाए तथा यह अपील की कि क्योकि जन विद्या का अध्ययन करना किसी समाज विशेष जैन विद्यामों के अध्ययन-अनुसंधान को गति देने के लिए पर अहसान करना नहीं है। यदि कार्य ठीक होगा तो जैन समाज को अपना दृष्टिकोण विशाल करना होगा जैन सुविधा स्वयं मिलेगी। मापने जैनॉलॉजिकल रिसर्च सोसाशिलालेखों के अध्ययन से राजस्थान की जनभाषा एवं यटी को व्यापक होने की कामना की एव इसका नाम लोक संस्कृति का अच्छा अध्ययन हो सकता है। हिन्दी मे रखे जाने का सुझाव दिया। श्री रामबल्लभ
राजस्थान विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के सोमानी जयपुर ने जैन स्तम्भ लेखों का उपयोग इतिहास प्राध्यापक डा. जगतनारायण प्रासोपा ये राजस्थान में निर्माण के लिए अपरिहार्य है, इस पर बल दिया। श्री जैनविद्यामों के अनुसंधान को प्रगति के लिए यह प्रावश्यक दीनदयाल पोझा, बीकानेर ने जैसलमेर जैसे उपेक्षित जैन बतलाया कि विश्वविद्यालयों में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा विद्या के क्षेत्र की ओर विद्वानो का ध्यान प्राकर्षित किया के जानकार विद्वान् रखे जाने चाहिए। इससे शोधार्थियों एवं वहां एक शोध-सस्थान स्थापित करने का सुझाव एवं रुचिशील प्राध्यापको को जैन साहित्य मे कार्य करने की दिया। डा. महावीरराज गेलड़ा, बीकानेर ने कहा कि प्रेरणा मिलेगी। सहयोग भी। टीमवर्क भी प्रारम्भ किया जैन विद्यालो पर कार्य करने वालो को सामाजिक सुरक्षा जा सकता है।
भी प्राप्त होनी चाहिए । तथा जैन-शोध का समाज के प्रथम बैठक के कार्यकारी अध्यक्ष श्री अगरचन्द नाहटा
लिए भी उपयोग हो तभी प्रचुरता से कार्य हो सकेगा। ने विद्वान् वक्तामों द्वारा उठाई गई समस्याग्रो पर अपने
मापने प्रचार के लिए अग्रेजी माध्यम को अपनाने का विचार व्यक्त किए। प्रापने अपने अनुभव के माधार पर सुझाव दिया । खेद व्यक्त करते हुए कहा कि जिन जैन स्रोतो की मैने डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल जयपुर ने अपभ्रश ३० वर्ष पूर्व देखा था, पाज वे नष्ट हो रहे है । यह स्थिति साहित्य के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किए जाने पर जोर जैन विद्यामों के अध्ययन के लिए शुभ नही है। सुरक्षा के दिया तथा कहा कि हिन्दी और प्राकृत के बीच की कड़ी लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों तरह के प्रयत्न होना स्पष्ट होनी चाहिए। तभी लोग जैन विद्यामों के महत्त्व चाहिए। दूसरी बात यह कि राजस्थान के इतिहास लेखन मे को समझेंगे । विचारकों के अन्त मे पं० विद्याधर जी शास्त्री 4 स्रोतों का उपयोग बहुत कम हमा है। मतः पुनः जैन ने कहा कि इस प्रकार के प्रायोजन बीकानेर में और पहले
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२६०, वर्ष २०, कि० ५-६
प्रारम्भ हो जाना चाहिए थे। जैन विद्यामों के मध्ययन- ६. जैनकथामोंका विकास-क्रमसे अध्ययन किया जाय। मनुसंधान के लिए संस्कृत भाषा का जान प्रत्येक शोधार्थी ७. राजस्थान की जैन विद्यापों से सम्बन्धित सामग्री को मावश्यक है। जैनदर्शन की महानता ही लोगों से का किसी एक संस्थान में संग्रह किया जाय, जहाँ शोध करवा लेगी । चिन्तित होने की जरूरत नहीं है।
विद्वान् प्राकर कार्य कर सके। अध्यक्षीय भाषण देते हुए डा० दशरथ शर्मा ने जैन ८. जैन विद्या पर शोध निबंध पढ़ने वाले विद्वानों कथाप्रन्थों के उद्धरण देते हुए कहा कि जैन साहित्य में को पर्याप्त सुविधाएं जुटाई जाये। वह जन-जीवन चित्रित है जो वास्तव में इतिहास कहलाने ६. जैन स्रोतों के प्राधार पर राजस्थान का सास्कृ. योग्य है। इस दृष्टि से जैन विद्याओं का अध्ययन अनु- तिक इतिहास लिखा जाय । संधान पाज के युग के लिए अनिवार्य हो गया है। न
१०. प्रति वर्ष राजस्थान इतिहास कांग्रेस के अवसर केवल इतिहास और संस्कृति के ज्ञान के लिए अपितु
पर यह राजस्थान-समिनार मायोजित किया जाय । जीवन में सामञ्जस्य और शान्ति के लिए भी जैन धर्म दर्शन
समापन : के सिद्धांत अधिक व्यावहारिक हैं । मानव का चारित्रिक
अन्त मे सेमिनार के संयोजक प्रो. प्रेम सुमन जैन ने विकास जैनधर्म के अनुकरण से अधिक सुलभ है। किन्तु
दोनो बैठकों के अध्यक्षो, मुख्य अतिथि तथा प्रतिनिधियों का जैन समाज में जो जैनत्व नजर नहीं पा रहा उसके लिए
माभार मानते हुए तथा समाज की सहयोगी संस्थानों एवं विद्वानों को भी अपना दायित्व समझना होगा। विद्वान्
सहकर्मियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करते हुए सेमिनार का विचारकों ने अभी अपने-अपने विभिन्न सुझाव प्रस्तुत किए ममापन किया। हैं। उनमें से किसी को भी तुरन्त लिया जा सकता है।
स्वागत सहयोग: जैन कथा कोश तैयार करने के साथ-साथ जैनकथानों के
बीकानेर में राजस्थान सेमिनार के संयोजन में स्थाविकास-क्रम का भी प्रध्ययन होना चाहिए । राजस्थान
नीय श्री प्रात्मानन्द जैन सभा, श्री श्वे. तेरापथी महासेमिनार के प्रायोजन से पापने जैन धर्म के संबंध में लोगों
सभा, श्री जैन साधुमार्गी सघ तथा श्री दिगम्बर जैन को इतना सब सुनने समझने का अवसर दिया। मै चाहता
समाज का पूर्ण सहयोग प्राप्त रहा । व्यक्तिगत रूप है कि युवक कार्यकर्ता प्रागे आकर कुछ ठोस कार्य हाथ में
से श्री मोतीचन्द खजाची, श्री रामप्रसाद जैन, श्री ए. के. ले और इन्हे पूरा करें।
जैन, आदि का पार्थिक सहयोग भी रहा। जे. भार. निष्कर्ष-ज्ञापन : द्वितीय बैठक के अन्त में जे. प्रार. एस. के स्थानीय
एस. के स्थानीय सदस्यो ने तो, दिन-रात एक करके इस सदस्य श्री प्रकाश परिमल, उप-निदेशक सादूल राज
सेमिनार को सफल बनाया। सोसायटी इन सब महानुस्थानी रिचर्स इन्स्टीट्यूट, ने सेमिनार मे रखे गए विभिन्न
भावों के प्रति अपना प्राभार व्यक्त करती है। सुझावों को संक्षेप मे इस प्रकार प्रस्तुत किया
जैन विद्यानों के उच्चस्तरीय प्रध्ययन-अनुसन्धान को १. जैन विद्या के ग्रन्थों की वर्णनात्मक सचियों का गति देने की दिशा में जैनॉलॉजिकल रिसर्च सोसाइटी के निर्माण किया जाय ।
तत्त्वावधान में प्रायोजित इस सेमिनार से यह प्रेरणा २. प्रत्येक युगके जैन साहित्यका इतिहास लिखा जाय। मिलती है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष तथा विदेशों में जैन ३. पुरातत्त्व एवं अभिलेखीय सामग्री की सुरक्षा की विद्यामों के अध्ययन-अनुसन्धान के जो प्रयत्न चल रहे है, व्यवस्था हो।
उनमें परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करने, अनुसंधान कार्य ४. विश्वविद्यालयों में प्राकृत एवं अपभ्रंश का मध्या- को सही दिशा देने तथा अनुसन्धातामों को विभिन्न प्रकार पन प्रारम्भ हो।
से सहयोग देने की दृष्टि से इस प्रकार के प्रायोजन सभी ५. अपेक्षित शोष-कार्यकी विषय सूचियां प्रकाशित हों। क्षेत्रों में अपेक्षित हैं।
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साहित्य-समीक्षा [समीक्षार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियां प्राप्त होना आवश्यक है।] भरत पौर भारत-ले० डा. प्रेमसागर जैन, सफल हमा। कागज व छपाई प्रादि सभी प्रच्छी हैं। प्रकाशक-दिन कालेज प्रबन्ध समिति, बडौत (मेरठ) माकार डिमाई, पृष्ठ संख्या ४८ ।
सुसंगीत जैन पत्रिका-सम्पादक डा. जयकिशन
प्रसाद खडेलवाल, प्रागरा। प्रकाशक श्रमण जैन भजन भारत यह नाम ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत सम्राट के पर
प्रचारक संघ, देहली-मेरठ। पृष्ठ संख्या १००। साईज नाम से प्रसिद्ध हुमा है या दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम से,
२२४ ३६=८ । मूल्य २ रुपये। यह विवाद कुछ समय से चल रहा है। विद्वान् लेखक ने मग्निपुराण, मार्कण्डेयपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, नारद
जैन साहित्य में संगीत अधिक प्रतिष्ठित रहा है, पुराण, स्कन्दपुराण, श्रीमद्भागवत और महापुराण के इसकी पोषक प्रस्तुत पत्रिका है । इसके प्रारम्भ में उद्धरणों को देकर यह सिद्ध किया है कि यह क्षेत्र ऋषभ डा. प्रेमसागर का एक लेख है- 'सगीत की निष्पत्ति के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष प्रसिद्ध हमा है।
हर शिव से।' इसमें संगीतोपनिषद् सारोद्वार के एक उक्त सभी ग्रन्थो मे इसका उल्लेख स्पष्ट रूप से किया श्लोक (२।४) के प्राशय से यह सिद्ध करने का प्रयत्न गया है । लिंगपुराण (४७.१९-२३) मे तो यहाँ तक कहा
किया गया है कि संगीत की उत्पत्ति तीर्थकर ऋषभदेव गया है कि "नाभि ने मरुदेवी पत्नी से अतिशय बुद्धिमान्
से हुई है। उक्त लोक में प्रयुक्त हर (शंकर) शब्द ऋषभ नामक उस पुत्र को उत्पन्न किया जो सब क्षत्रियों वृषभनाथ का वाचक है। उनके १००८ नामों मे शिव, मे श्रेष्ठ था। ऋषभ के सौ पुत्र हए, जिनमे भरत ज्येष्ठ
शंकर व हर प्रादि है। लेख पठनीय है। 'जैन परिप्रेक्ष्य था। ऋषभ ने भरत का राज्याभिषेक किया मोर स्वय
मे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' शीर्षक मे जो भारतेन्दु जी की वैराग्य को प्राप्त होते हुए इन्द्रिय-सर्पो को जीतकर पौर
कविता दी गई है, वह परम अहिंसा धर्म का प्राचरण परमात्मा को प्रातःकरण मे स्थापित कर वस्त्र का परि
करने वालों को 'नास्तिक' कहने एवं 'हस्तिना ताड्यमानो
पिन गच्छेज्जिनमन्दिरम्' जैमी उक्ति गढ़ने वालों की त्याग करते हुए नग्नता को स्वीकार किया। इस प्रकार वे शैव पद (मुक्ति) को प्राप्त हुए । उन्होंने हिमाद्रि---
विवेकहीनता की परिचायक है। श्री मुनि विद्यानन्द जी हिमालय-के दक्षिण दिशागत क्षेत्र को भरत के लिए का 'भाषा एव शब्द' शीर्षक लेख में महत्वपूर्ण सामग्री दिया था। उसी भरत के नाम से विद्वान इसे भारतवर्ष प्रस्तुत की गई है। अन्य सभी लेख उपयोगी हैं। अन्त में कहते है ।" इनके अतिरिक्त एकनाथी भागवत, सूरसागर, सुप्रभात स्तोत्र, दृष्टाष्टक स्तोत्र, महावीराष्टक, भावाशिवपुराण, मत्स्यपुराण, पुरुदेव चम्पू और वसुदेव हिण्डी ष्टक (मराठी) और कछ माध्यात्मिक भजन प्रस्तत किए मादि के अन्य भी कितने ही प्रमाण दिये गये है।
गए है। मुखपृष्ठ पर जो सरस्वती का चित्र दिया गया 'वीरभोग्या बसुन्धरा' शीर्षक में क्षत्रिय धर्म पर भी
है वह पतिशय मनोहर है। पत्रिका की साज-सज्जा व प्रच्छा प्रकाश डाला गया है। अन्त मे प्रभिधान राजेन्द्र छपाई मादि सभी उत्तम है। इसमें जिन-जिम महानभावों काश के प्राधार से ऋषभ के १०० पुत्री के नामों का भी
का सहकार रहा है उनके लिए धन्यवाद देना चाहिए। निर्देश किया गया है । ऋषभ के १६ पुत्रों के नाम विल्ली जैन गयरेक्टरी-सम्पादक श्री सतीशकुमार श्रीमद्भागवत के अनुसार भी दिए गए हैं । ऐसी उपयोगी जैन मादि । प्रकाशक जैन सभा, नई दिल्ली। पृष्ठ संख्या पुस्तक के प्रस्तुत करने में लेखक का परिश्रम पूर्णतया ३२८ । प्राकार २०४३०८ । मूल्य १२ रुपये।
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२६२, वर्ष २३, कि० ५-६
प्रस्तुत डायरेक्टरी का यह संस्करण विशेष महत्व पूर्ण है। इसमें जैन मन्दिर, जैन स्थानक, धर्मशाला पाठशाला, घोषचालय, पुस्तकालय प्रादि अनेक संस्थानों का परिचय कराया गया है। साथ ही केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों, दिल्ली प्रशासन, नगर निगम एवं बैंक प्रादि में काम करने वाले जैनों का अलग अलग नाम निर्देश भी किया गया है। इसके प्रतिरिक्त जैनों द्वारा संचालित मनेक प्रकार के उद्योगों एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों के परिचय के साथ ही प्रमुख वैज्ञानिक, साहित्यकार,
मनेकान्त
विद्वान् धौर समाजसेवियों का भी परिचय कराया गया है। इसके प्रारम्भ में दिया गया 'दिल्ली और जैन समाज : ऐतिहासिक अवलोकन' लेख खोजपूर्ण है । इस प्रकार से इसमें सभी महत्वपूर्ण विषय समाविष्ट हैं । यह गुरुतर कार्य सम्पादक के कठिन परिचक का सूचक है। इस सर्वोपयोगी प्रकाशन के लिए सम्पादक मण्डल व जैन सभा दिल्ली के अधिकारी प्रादि प्रतिशय धन्यवाद के पात्र है। पुस्तक की छपाई आदि भी पाक है। -सिद्धान्तास्त्री
लक्षणावली के प्रथम भाग का प्रकाशन
वीर सेवा मंदिर को स्थापना के कुछ ही समय बाद लक्षणावली के निर्माण और प्रकाशन की योजना बनी थी और उसके बाद अनेक विद्वान इसकी तैयारी में लगे रहे। जैन वाङ्मय के तीन सौ से अधिक विशिष्ट ग्रन्थों से जैन पारिभाषिक शब्दों के लक्षणों का मूल संस्कृत, प्राकृत में संकलन, सम्पादन, संयोजन और हिन्दी अनुवाद का श्रम और समय साध्य कार्य अनेक व्यवधानों के बाद भी चलता रहा।
अब तक जो सामग्री संकलित हुई है उसके आधार से बड़े आकार के ३१२ पृष्ठों में स्वर भाग छप चुका है। पुस्तक रूप में इसका शीघ्र प्रकाशन होगा। अपनी प्रति के लिए लिखेंव्यवस्थापक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर शासन संघ के महत्वपूर्ण प्रकाशन
जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द
कसाया सुप्त : मूलग्रन्थ की रचना भाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । Reality मा पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में धनुवाद बड़े माकार के ३०० पू. पक्की जिल्द जैन निबन्ध रत्नावली श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
:
प्राप्ति स्थान : वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली-६
...
...
५-००
२०-००
६-०० ५-००
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अनेकान्त के तेईसवें वर्ष की पूर्ण विषय-सूची
अगरबाद नाहटा
बलसुख मालवणिया मध्यप्रदेश का जैन पुरातत्व २३।२।८६
षड्दर्शन समुच्चय का नया संस्करण २३४११०२ जैन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत के शब्दकोश २३।३।११५ देवेनकुमार शास्त्री (10) खम्भात के श्वे० भण्डार में प्राप्त तीन दि. ताडपत्रीय ।
अपभ्रंश शब्दों का अर्थ-विचार २३१५-६।२१२ प्रतियाँ २३।४।१४६
परमानन्द शास्त्री पा० ने० उपाध्ये (डा.)
सत्य से प्रादर्श की पोर २३॥१॥३१ भारत मे वर्णनात्मक कथा-साहित्य २३।११३
साहित्य के प्रति उपेक्षा क्यो? २३३११४० २३।२।५०
सर्वोषधि दान २३.११४६ २३।३।१८
साहित्य समीक्षा-जैन साहित्य का वृहत् इतिहास विलासवई कहा : एक परिचयात्मक अध्ययन २३।४।१५३
२३१११४८ धनंजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य २३१५.६।१६५
तिजारा : एक ऐतिहासिक परिचय २३३२१६५ कस्तूरचन्द कासलीवाल (डा.)
माली रासो २३:२।६८ जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और उनका साहित्य
गोम्मटसार की पजिका टीका २३।२१७२
२३।३।१३६ जयपुर के प्रमुख दि० जैन मन्दिर २३।४।१६६
दिल्ली पट्ट के मूल सघीय भट्टारक प्रभाचन्द्र २३।३।१२६
मथुरा के सेठ मनीराम २३।३।१३१ कन्हैयालाल मुनि कथनी और करनी २३३२१७१
१३वी शताब्दी के विद्वान हरिभद्र । एक अध्ययन
२३१३३१३७ कस्तूरचन्द जैन
वीर शासन जयन्ती २३।२।८३ भीमपुर का जैन अभिलेख २३।१।१५
साहित्य समीक्षा-१. जैन शोध और समीक्षा के. भुजबली शास्त्री
२. पाराधना समुच्चय पाराधना समुच्चय का रचना स्थल २३॥५-६।२३४
३. जिन सहस्रनाम प्रदीप गंगाराम गर्ग (10)
४. महावीर जयन्ती स्मारिका हढाड़ी भाषा की जैन रचनाएं २३।११२२
५. अणुव्रत (साधना विशेषांक) टू ढाड़ी कवि ब्रह्मनाथू की रचनाएँ ३३।३।११६
२३।२।६६ ज्ञात कवियों की कतिपय हिन्दी रचनाएँ २३३५-६।२४० ब्रह्म यशोधर २३३३३१४१ गोकुलचन्द्र जैन (म०)
पन्नालाल अग्रवाल शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका २३॥५-६।२२५
हिन्दी भाषा के कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ ३३।२।८२ गोपीलाल 'प्रमर'
पचनम्दि मुनि देवगढ़ की जैन कला का सांस्कृतिक अध्ययन २३।२।६१
जिनतरस्तवनम् २३॥३॥९७ चम्पालाल सिंघई
प्रेमचन्द्र जैन जैनों में सती प्रथा २३।२।७०
वीर शासन जयन्ती २३।२।६२ बरवारीलाल कोठिया (डा.)
प्रेमचन्द बन्नसा जैन भारतीय अनुमान को जैन ताकिकों की देन २३१५-६।२०७ चित्तोड़ का जैन कीर्ति स्तम्भ २३३१०२०
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२६४, वर्ष २३, कि० ५-६
अनेकान्त प्रेम सुमन जैन (प्रो.)
रामवल्लभ सोमाणी कुवलयमाला मे उल्लिखित राजा प्रवन्ति २३॥५-६२२१ जंबूसामिचरिउ मे वणित गुजरता प्रदेश २३।११२ बालचन्द्र एम० ए०
ऊपर गाँव का अप्रकाशित जन लेख २३।२।८६ प्रात्म समर्पण २३।२१७६
जैन कीर्तिस्तम्भ का निर्माता शाह जीजा २३।४।१५१ बालचन सिद्धांतशास्त्री
रायप्पा धरणप्पा टोकण्णवर साहित्य समीक्षा
प्रमाणप्रमेयकलिका के रचयिता नरेन्द्रसेन २३.१ ४१ भारत और भारत २३।५-६।
रूपचन्द कवि सुसङ्गीत जैन पत्रिका २३॥५-६
एक पद २३१११३५ दिल्ली जैन डायरेक्टरी २३।५-६॥
वर्णोजी भागचन्द्र जैन 'भास्कर' (डा.)
प्रत्म-विश्वास २३.११४५ ब्रह्म साधारण की पहली कृति कोइल पचमी कहा। विद्याधर जोहरापुरकर
२३।१।२५
गुणकीर्तिकृत विवेक विलास २३।२।६४ धर्म की कहानी : अपनी जबानी २३।११३६
वी० के० प्रार०वी. राव (डा.) भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' (डा.)
तमिल व कन्नड़ साहित्य के निर्माण मे जैनाचार्यों का इतिहास के परिप्रेक्ष्य मे पवाजो २३।१।११
विशेष योगदान २३।११३६ मंगलराम चिलकानावासी
वीरेन्द्र कुमार जैन (डा.) उद्बोधक पद २३।३।१२१
तिलक मजरी : एक प्राचीन कथा २३१५-६।२३५ महेन्द्रकुमार मुनि
शशिकान्त डा. पावा कहाँ ? गगा के दक्षिण में या उत्तर में २३॥३॥६८
वत्स जनपद का राजनैतिक तथा सास्कृतिक इतिहास भी मारुतिनन्दन तिवारी
२३१५-६२२४६ दक्षिण भारत से प्राप्त महावीर की प्रतिमाएँ २३१५-६।२४२ समन्तभद्र प्राचार्य मुक्ताप्रसाद जनदर्शनाचार्य
श्रीवर्धमान जिनस्तुति २३।११ जैन दर्शन में प्रात्मद्रव्य विचार २३१५-६।२५१
नमिजिनस्तुति २३।२।४६ मोहलाल बाठियां
प्रादिजिनस्तवनम् २३।४।१४५ चतुर्मास मध्य विहार : प्राचार्य श्री तुलमी २३।३।१४३ श्रीअरिष्टनेमिजिनस्तवनम् २३।५-६।१६३ रतनलाल कटारिया
सुबोषकुमार जैन नलपुर का जैन शिलालेख २३।२।११०
वैदेही मीता २३।११२५ नलपुर का जैन शिलालेख २३।४।१७४
शृगाल से सिद्ध २३१२१७६ रमेश जैन
सम्राट का प्रधूरा सपना २६।३।१२२ राजस्थानी लोक-कथानो में अभिप्राय पोर कथानक संकटाप्रसाद शुक्ल (डा०) रूढ़ियों की सीमा रेखाएं २३।३।१३३
मृण्मूर्तिकला में नगमेष २३।४।१७२
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संस्थान समाचार
अनेकान्त की घोर से आप के लिए
प्रस्तुत ऋद्ध के साथ अनेकान्त अपने २३ वर्ष पूर्ण कर रहा है । इस अवसर पर अनेकात को ओर से इसके पाठको, यसको को पर पार्थिक सहयोग प्रदान करने वाले महानुभावो के प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और आशा करते है कि घागामी वर्षों के लिए भी सभी की शुभ-कामनाएं और सहयोग पूर्ववत् प्राप्त होगा ।
अनेकान्त को और अधिक व्यापक तथा उपयोगी बनाने विद्वानों का मक्रिय सहयोग प्राप्त करने के प्रयत्न किए जा रहे है अनेकात को विशेष स्वरूप दिया जा सकेगा ।
पर इस सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है आपका सहयोग । अनेकान्त की ग्राहक संख्या संचालक समिति मे कई बार यह प्रश्न प्राता है कि इसे चलाया परिस्थितियों में अनेकान को बन्द करने का निर्णय लिया गया तो अनुमपान करने वालो के लिए एक अपूरणीय क्षति होगी ।
के उद्देश्य से विशेष दृष्टि सम्पन्न और अनुभवी और बाधा है कि २४ वर्ष के आरम्भ से ही
अतएव आपसे अनुरोध है कि आप अपना मस्थाओ को भी इसका ग्राहक बनने को प्रेरित करे। मके या अपने मित्रों से बहुमूल्य प्रभिमत भी अवश्य क्या प्रयत्न किए जाये ।
अत्यल्प है । इसलिए जाये या बन्द कर दिया जाये । यदि किन्ही निश्चय ही जैन विद्याओं के विविध क्षेत्री मे
तत्काल भेजे हो, अपने मित्रो तथा सम्बद्ध अनेकात के लिए विशेष मार्थिक सहयोग दे आपसे यह भी अनुरोध है कि आप अपना भेजे कि अनेकान्त को और अधिक व्यापक उपयोगी तथा स्वावलम्बी बनाने के लिए
J
ग्राहक शुल्क तो और यदि भाप
दिला सके तो हम आपके अत्यन्त कृतज्ञ होगे
।
वीर सेवा मन्दिर को केन्द्रीय शोध संस्थान बनाने का संकल्प
हमारी हार्दिक इच्छा है कि वीर सेवा मन्दिर को जैन विद्याओ के उच्चस्तरीय अध्ययन अनुसंधान के लिए केन्द्रीय शोध संस्थान के रूप में विकसित किया जाये तथा इसके द्वारा संचालित होने वाले शोध कार्यो को और अधिक व्यापकता देने के लिए इसे विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया जाये ।
वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक स्व० आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार साहब तथा बहुत समय तक सस्था के कार्य का संचालन करने वाले अध्यक्ष स्व० बाबू छोटेलाल जी ने प्राचीन जैन साहित्य, संस्कृति, पुरातत्त्व के अन्वेषण के जी महत्वपूर्ण कार्य पारम्भ किए थे उनको धागे बढाने तथा कार्य की नयी योजनाएं बनाने के लिए यह नितान्त घावश्यक है कि सस्था की एक और दर्शन, साहित्य, मस्कृति और पुरातत्व के विशिष्ट विद्वानों का सहयोग प्राप्त हो, दूसरी ओर ऐसे श्रीमानों का सहयोग उपलब्ध हो जो इन योजनाम्रो को आगे बढ़ाने तथा पूरा कराने में प्राधिक सहयोग करें।
वीर सेवा मन्दिर की वर्तमान कार्य प्रवृत्तियो को किस प्रकार गति दी जाए तथा केन्द्रीय शोध संस्थान के रूप में विकसित करने के लिए क्या प्रयत्न किए जाएं, इस सम्बन्ध में विचार करने और रिपोर्ट देने के लिए कार्यसमिति की पिछली बैठक में एक उपसमिति बनायी गयी थी, जिसके चार सदस्य थे- डा० प्रा० ने० उपाध्ये, डा० गोकुलचन्द्र जैन, श्री यशपाल जैन, धी बंशीधर शास्त्री उपसमिति की रिपोर्ट प्राप्त हो गई है तथा उसे क्रियान्वित करने के सम्बन्ध मे अपेक्षित कार्रवाई की जा रही है ।
I
समाज के विद्वानों और श्रीमानो से विनम्र अनुरोध है कि राजधानी में जैन विद्यामो के अध्ययनअनुसन्धान के लिए वीर सेवा मन्दिर को केन्द्रीय शोध संस्थान का स्वरूप देने में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करे ।
-व्यवस्थापक
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R. N. 10591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर, विवेचन को लिए हा, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२-०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अल कृत सुन्दर जिल्द-सहित ।।
१-५० अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० युक्त्यनुशासन · तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हना था । मुरूनारथी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १२५ श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र . प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रगस्तियो का मगलाचरण
महिन अपूर्व सग्रह. उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द ।
४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४-०० अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्यार्घसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुरूनार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
'२५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक
१६ अध्यात्म रहस्य : पं० आशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०२ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थ कागे के ऐतिहामिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स.५० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.००
प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित ।
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