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________________ ब्रह्म साधारण की पहली कृति कोइलपंचमी कहा डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' कवि ब्रह्मसाधरण अपभ्रंश भाषा के कवि हैं। उनके प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण, नरेन्द्रकीति, विद्यानंदि मौर द्वारा लिखित कोइलपंचमीकहा, मउड सत्तमीकहा, रवि. ब्रह्म साधारण । वयकहा, तियालचउवीसी कहा, कुसुमंजलिकहा, निसि. प्रस्तुत कथासंग्रह की यह प्रति वि० सं० १५०८ की सत्तमीवयकहा, णिज्झरपंचमीकहा और अणुपेहा उपलब्ध (सन् १४३०) की लिपि की हुई है। अतः कवि १५वीं हैं। संभव है, उन्होंने और भी ग्रन्थ निर्मित किए हों। शताब्दी के अन्तिम चरण मौर १६वीं शताब्दी के पूर्वार्ष जैन मन्दिर व शास्त्र भण्डारों को देखने से अन्य ग्रन्थों की का विद्वान हो सकता है। प्राप्ति संभावना बढ़ सकती है। उपलब्ध रचनामों को यहाँ कोइलपंचमीकहा को मूलरूप देने के साथ ही रच कर विराम नहीं ले सकता। निश्चित ही उन्होंने उसका संक्षिप्त हिन्दी भाषान्तर दिया जाता हैअनेक ग्रन्थ लिख कर साहित्यिक क्षेत्र में विशेष योगदान जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रान्तरगत कुरु जंगल देश स्थित दिया होगा। रायपुर नामक नगर में वीरसेन राजा राज्य करते थे। उसी कवि की उक्त रचनाएं एक ही जगह संग्रहीत है। राज्य मे धनपाल सेठ अपनी धनमति के साथ सुखपूर्वक अभी तक एक ही प्रति उसकी उपलब्ध हुई है, जो कि रहते थे । उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी। श्रद्धेय पं० परमानन्द जी के पास है। उनकी कृपा से यह जिनमति कुशलगृहिणी और दान पूजा में अभिरुचि रखने प्रति मुझे सम्पादन के लिए प्राप्त हो सकी। तदर्थ मैं वाली थी, परन्तु उसकी सास धनमति को जैनधर्म से शास्त्री जी का अत्यन्त प्राभारी हूँ। बे संस्कृत, प्राकृत, हात पान अधिक प्रेम नहीं था। दोनों के बीच यही एक खाई का अपभ्रश, हिन्दी व भारतीय इतिहास के मूर्धन्य विद्वान कारण था। हैं। पाठादि निर्धारण में उन्होंने यथावश्यक सहयोग कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ दिया है। समय बाँद विषण्णवदना धनमति का भी देहावसान हो गया और पापकर्म के कारण उसने अपने ही घर में कोयल प्रस्तुत कथासंग्रह की प्रति अच्छी है, प्रक्षर सुवाच्य हैं । कुल पत्र वीस हैं । प्रत्येक पत्र १०॥ इच लम्बा और का जन्म धारण किया। दुर्भाव वशात् वह जिनमति के ४॥ इच चौड़ा है। पत्र में प्रायः १२ पक्तियाँ हैं । हर शिर मे हमेशा टक्कर मारकर उसे दुःखित करती रही। पंक्ति में प्राय: ३५ अक्षर है। प्रत्येक पत्र के बीच में एक दिन श्री श्रुतसागर नामक मुनिराज वहाँ माये। वृत्ताकार ताडपत्रीय प्रतियों के सदृश कुछ जगह छोड दी वे अवधिज्ञानी थे। घनभद्र व जिनमति ने उन्हें पाहार गई है जो प्रति की सिलाई के निमित्त रही होगी। कहीं- दान देकर कोयल की गतिविधियों के सन्दर्भ में प्रश्न कही छेवा लगाकर प्रति को सुधारा भी गया है। किये । मुनिराज ने बताया वह तुम्हारी जननी है। मुनि ब्रह्म साधारण ने इन कथाओं के प्रादि-अन्त में अपना के पाहार दान में अन्तराय डालने के कारण वह कोयल क आहे परिचय नहीं दिया और न रचनाकाल का समय ही दिया हुई। धन व लब्धि प्राप्त करेगी। इसके बाद संसार की है । मात्र उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का निर्देशन अवश्य प्रासारता का वर्णन किया और पांच वर्ष तक मासाद किया है । तदनुसार वे प्राचार्य कुन्दकुन्दान्वयी परम्परा मे १. शास्त्री पं० परमानन्द जी, प्रशस्ति संग्रह भाग २, हुए थे। उनकी गुरु परम्परा इस प्रकार है-रत्नकीति, प्रस्तावना, पृ० १२८ ।
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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