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१०६, वर्ष २३ कि०३
अनेकान्त
थे। ५. सन् १८६१-६५ की प्रतिवेदना की स. १३२६ भी रचनात्मक सूचनाए उनमे मिलती हैं। जैन साहित्य के कथासग्रह मे और १८८७-६१ की सं. १२६७ में बहुत की विभिन्न शाखाओं का सूक्ष्म अध्ययन अभी तक शैश. कुछ समानता है। इसमे धनदत्त, नागदत्त, मदनावली वास्था मे ही है हालाकि क्षेत्र की सम्पन्नता का अग्रचिंतन प्रादि की कथाएं भिन्न-भिन्न प्रकार की पूजा प्रादि के श्री व्हूलर ने वर्षों पहले ही यह लिखकर कर लिया था फलो की प्राप्ति के दृष्टान्त रूप दी हुई है। ६. सन् कि जैन लेखकों ने इतने महत्व की सिद्धी व्याकरण, ज्यो१८६१-६५ को प्रतिवेदना की संख्या १३२५ के कथाकोश तिष और साहित्य की कतिपय अन्य शाखाओं में प्राप्त मे सस्कृत गद्य मे पाठ कथाएं, कुरुचन्द्र, पद्माकर प्रादि कर ली है कि उन्हे अपन विरोधियों से भी सम्मान प्राप्त की, साधुप्रो को निवास, शैयातर, पाहार पानी, औषधि, हुए बिना नही रह सका और उनकी कुछ कृतिया तो वस्त्र और पात्रादि देने के फल की कथाए है । इनका आज भी युरोपीय विज्ञान के लिए महत्व की है। दक्षिण उल्लेख उपदेशमाला को २४०वी गाथा 'वसही-सयणासण भारत मे, जहा कि जनो ने द्रविड कबीलों में काम किया मादि' में है। ८. सन् १८७१-७२ को प्रतिवेदना की स. था, वहा भी उनने उनकी भाषानो के विकास को प्रगति दी ३३५ के कथासंग्रह मे पहली कथा विक्रमादित्य की ही थी। कन्नड़ साहित्य की भाषा और तमिल एवम् तेलगू भी है। इसके अतिरिक्त श्रीपाल आदि की अन्य कहानिया है जैन साधुनो की लगाई नीव पर ही खडी है । इस प्रवृत्ति जिनमें जैन व्रतों और ग्राचारों के फलो का प्रभाव परि- ने उन्हे अपने उचित लक्ष्य-बिन्दु से यद्यपि बहुत भटका लक्षित किया गया है। इसकी सब व थाएं संस्कृत मे है, दिया था, परन्तु उसने साहित्य और सस्कृति के इतिहास परन्तु उनमें मराठी और अपभ्र श के उद्धरण भी है। मे एक महत्वपूर्ण स्थान भी उनके लिए बना दिया । यदि सिर्फ एक कथा ही इस सग्रह मे प्राकृत मे है।
कार्यकर्ता अध्ययन की सूक्ष्म एवम् तुलनात्मक शैलीका अनुजिनरत्नकोश के अनुसार और भी कथासग्रह है जैसे सरण करते रहेगे तो उनके अनुसंधान का फल अवश्य ही कि कथाकल्लोलिनी, कथाग्रन्थ, कथाद्वात्रिशिका (परमा- भारतीय-विद्याध्ययन के क्षेत्रो को समृद्ध ही करेगा। जैन नन्द की] कथाप्रबध, कथाशतक, कथासमुच्चय. कथा- वर्णनात्मक साहित्य के सम्बन्ध में विण्टरनिट्ज' कहता है, संचय प्रादि । परन्तु जब तक हस्तप्रतियों की सूक्ष्म परी- "बौद्ध भिक्षुषो की तरह ही जैन साधू भी अपने प्रवचनों क्षाएं नहीं की जाती है तब तक उपयुक्त कथाकोशो स वे को कथा कह कर सजाने में, ऐहिक कथानो को सतो की कहा तक मिलते या नही मिलते है न तो यही कहा जा जीवनियो में परिवर्तन करने में, जैन सिद्धातों को दृष्टात सकता है और न उनकी कथायो आदि के विषय मे ही द्वारा व्याख्या करने में, सदा ही प्रसन्न रहते थे, और इस कुछ कहा जा सकता है।
प्रकार रूपक कथानो के नैसगिक भारतीय प्रम को अपने त्मिक साहित्य पर प्राच्यविद्याविदा क विचार: धर्मानुयायी बढ़ाने एवम् जहा तक बने स्थिर रखने मे प्राच्यविद्याविदों ने जैन साहित्य का अध्ययन बहुत पुरी तरह लाभप्रद उपयोग करते थे।" जैसे कि बौद्ध देर से प्रारम्भ किया था। फिर भी अनेक प्रमुख पण्डितों जातकों मे हुया है, जैन टीकाग्रन्थो में भली प्रकार जमाए ने प्रमुख जन वर्णनात्मक ग्रन्थों पर काम किया है और हुए इस वर्णनात्मक साहित्य में जनोपयोगी कितने ही उससे भारतीय विद्या अध्ययन की अनेक शाखाओं को नई विषय हैं जिनमे कुछ ऐसे भी है कि जो अन्य भारतीय नई सामग्री प्राप्त हुई है। कुछ ने तो भारतीय साहित्य एवम् प्रभारतीय साहित्य में भी मिलते है और यह सार्वऔर जीवन ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की मुख्य- भौमी साहित्य की सामान्य निधि का ही एक भाग है।" मुख्य धाराओं के समझने के लिए उसके अध्ययन परी
झन क लिए उसक अध्ययन पर १. प्रान दी इण्डियन सेक्ट माफ दी जैनाज, लंदन, पर्याप्त बल भी दे दिया है। उनके विचार जैन वर्णनात्मक
१६०३, पृ. २२ ।
१९०३, साहित्य के मूल्यांकन के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु २. ए हिस्ट्री प्राफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ. ४८४, इस क्षेत्र में भावी काम करने वालो की रहनुमाई के लिए ५४५ प्रादि ।