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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
विण्टरनिट्ज के वैराग्य काव्य मत का विचार तो पहले तीय भाषाओं के इतिहास के लिए ही नहीं, अपितु भारही किया जा चुका है, परन्तु वे उस सम्बन्ध में फिर भी तीय साहित्य के इतिहास के लिए भी मूलभूत महत्व का कहते है कि "वे लोग जनप्रिय कथानों, परी-कक्षामों, सिद्ध हो सकता है।' उनने इन दोनों समस्यामों पर खूब रूपकों और दृष्टान्तो से अपना मसाला तयार करते है। ही ऊहापोह किया है और इन ग्रन्थों की भाषाई दृष्टि के जैनों को लोक-काव्य और उसमें भी लोक-कथाएँ सदा ही अध्ययन से निकाले गए उनके निष्कर्ष बहुत सूक्ष्म और विशेष प्रिय रही है। जैन साहित्य, प्रागमिक और उससे विचारोत्तेजक भी है। ऐसा कहते हुए उनने मध्य और अधिक प्रागमबाह्य, जनप्रिय कथानों, काल्पनिक किस्सों उत्तरमध्यकालिक गुजरात के श्वेताम्बर प्राचार्यों के लिखे और प्रत्येक प्रकार की वर्णनात्मक कविताओं का सत्य ही संस्कृत वर्णनात्मक ग्रन्थो की ओर विशेष रूप से दृष्टि खजाना है।" उनके विस्तार और ध्वनि-यथार्थता पर वह रखी है। परन्तु मोटामोटी उनका यह मत अन्य जैन वर्णकहता है, "जैनों में वर्णकों की राशि और वर्णक ग्रन्थ नात्मक साहित्य को भी समान रूप से लाग्न होता है और निःसदेह व्यापक और प्रचुर है। काल्पनिक-कथा साहित्य इसलिए उसका सावधानी से अध्ययन अपेक्षित है। यह तो के तुलनात्मक अध्ययन के लिए ही वे अतिशय महत्व के ऊपर पहले ही कहा जा चुका है कि कर्म-सिद्धान्त ही नही है, अपितु इसलिए भी कि अन्य साहित्य शाखो से अनेक कथानो की रीढ़ बना हुआ है और इस सम्बन्ध में अधिक वे हमे जन साधारण के यथार्थ जीवन की झाँकिया श्री हरटल कहते हैं, 'कोई भी उस पवित्र प्रभाव को देखने का अवसर देते है। इन वर्णक साहित्यों की भापा अस्वीकृत नहीं कर सकता कि जो जैनसघ के श्रद्धावान मे जिस प्रकार लोगों की देशज भाषा से मेल खाने वाले सदस्यो पर न केवल अपने साधर्मी भाइयों अपितु पशुबहत स्थल मिलते है, उसी प्रकार उनका चर्चित विषय पक्षियो तक के प्रति किए जाने वाले व्यवहार मे इस कर्मभी न केवल राजो और साधू-सन्यासियों के ही अपितु सिद्धान्त का अवश्य ही पड़ता है। एक जैन के लिए पशुभिन्न-भिन्न स्तरों के व्यक्तियो के यथार्थ जीवन का चित्र प्राणी भी उतना माननीय है जितना कि एक मनुष्य ।' भी ऐसा प्रस्तुत करते है कि जैसा अन्य किसी भी भार- उनने जैन प्रौपदेशिक वर्णनात्मक ग्रन्थो की प्रमुख धाराओं तीय साहित्यिक ग्रन्थो मे, और विशेषकर ब्राह्मण ग्रन्थो में से कुछ का सिंहावलोकन इन शब्दो में किया है :मे कही भी नही मिलता है।" ।
'इन ग्रन्थों [याने प्रौपदेशिक ग्रन्थो] में और सिद्धांत डा० हरटल' ने कि जिनका पचतत्र का अध्ययन सर्व
के टीका ग्रन्थों मे, जैनों का प्रत्यन्त मूल्यवान वर्णनात्मक विदित है, मध्यकालिक वर्णनात्मक जैन ग्रंथों में से अनेक
साहित्य भरा हुमा है जिनमें हर प्रकार की कथाए है : रमका अध्ययन किया है। उनकी सम्मति में "जनों का वर्ण
न्यास, उपन्यास, दृष्टान्त-कथा भौर पशु-रूपककथा, सिद्ध नात्मक साहित्य कितनी ही समस्याग्रो से सम्बन्धित है
पुरुषों की जीवनिया, काल्पनिक कथा और हर प्रकार की जिनमें से प्रमुख समस्याएं इस प्रकार है-(१)
कौतुक एवम् अद्भुत कथा। श्वेताम्बर साधुओं ने इन कथाओं के देशान्तर गमन की समस्या । यह "साहित्यिक
कथाओं को अपने सिद्धान्तों के देशवासियो मे प्रचार और सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र की है। इसका निरा
करने का महत्वपूर्ण साधन बना लिया था और संस्कृत, करण भारतवर्ष के लिए ही नहीं, अपितु अन्य देशों के
प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी प्रादि सभी लिए भी समान महत्व का है।" (२) विशुद्ध भाषाई
भाषामों मे, गद्य और पद्य मे, काव्य मे और दैनिक प्रयोग समस्या, जिसका हल भी 'ऐसे परिणामों पर पहुँचाए
की सीधी-सादी शैली में वर्णन करने की यथार्थ कला का बिना नही रह सकता है कि जो सस्कृत एवम् अन्य भार
भी विकास किया था। अकेली कथा ही नहीं अपितु ऐसी ३. इण्डियन कलचर, भाग १, २, पृ. १४७ । रचनाएं उनकी हैं कि जिनमें अनेक कहानियां कहानी के ४. मान दी लिटरेचर प्राफ दी श्वेताम्बराज माफ गुज- चौखट में ऐसी जड़ दी गई है कि जैसे पचतत्र में जड़ी हैं
रात, लपजिग १९२२, पृ.११ प्रादि, ३, ६ प्रादि। और निम्स बन्धुनों की पारिवारिक कहानियों के संग्रह