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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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युगप्रधानों और प्राचार्यों का सलग इतिहास प्रसन्न संस्कृत या सदाचार या समझदारी से काम लेने का उपदेश दिया बलोकों और प्रोजस्वी काव्यशैली में देती है। कोई प्राश्चर्य जाता है। तदनन्तर गाथोक्त भावों के स्पष्टीकरण में नहीं कि स्थविरावली ने इस प्राचीन कथावली को बहुत दृष्टान्त रूप से कथा कही गई है। कई स्थलों पर तो वीली काल से इतना भुला दिया था कि यह नष्ट हुई ही समझ प्राकार और विषय पचतंत्र का ही स्मरण करा देती है। मी गई थी जब तक कि उसकी एक मात्र प्रति फिर से इस ग्रन्थ की रचना मे रचयिता के दृष्टिकोण दो रहे उपलब्ध हो कर प्रकाश में नहीं पाई।
मालूम पड़ते हैं। लगभग ८६ कथाएं तो धार्मिक और १५. कथा समास [उपदेशमाला]-यह तो पहले ही नैतिक शिक्षा की ही हैं और शेष १४ का वाग्विदग्धता कहा जा चुका है कि उवएसमाला मे धार्मिक व्यक्तियो के पोर परिहास द्वारा मनोरजन का लक्ष्य है। ग्रन्थ से ही भनेक उल्लेख है कि जिनकी पूर्ण कथाए जिनभद्र रचित यह विभाग दीख पड़ता है, परन्तु विवेचन मे परस्पर इस प्राकृत ग्रन्थ में दी गई है। इस जिनभद्र का समय पृथक्-करण नहीं है। दार्टान्तिक कथाओ में सांसारिक और पहचान पाज भी पूरी तरह से नहीं हो पाई है। चतुराई के सभी विषय हैं और उनमे से कुछ पर जैनधर्म कथाओं के संस्कृत में और भी चयनिकाए है। एक तो और प्राचार की छाप स्पष्ट ही दीख पडती है। यद्यपि सर्वनन्दी की है और दूसरी किसी अज्ञात लेखक की"। दूसरो ने भी इन विषयों पर कथाएं कहो है। फिर भी यह टीकाकारों ने न केवल कहानिया ही दी हैं, परन्तु मूल- बहुत सन
बहुत संभव है कि अधिकाश कथाए काल्पनिक और फरग्रन्थ मे उल्लिखित दृष्टान्तों की कथाओं के स्वतंत्र संग्रह
माइशानुसार घड़ी गई सी प्रतीत होती हैं । कुछ तो भारकरना भी एक सामान्य प्रथा हो गई थी जैसा कि जिन
तीय कथापो के जनप्रिय संग्रह में से चयन की हुई है तो भद्र ने उवएसमाला की कथानों का यह संग्रह तैयार
दूसरी जैसे कि रोहक की, जैन टीका साहित्य में से ली किया है। उत्तराध्ययन, शीलोपदेशमाला, भगवती पारा
गई है कि जिसका बीज चूणियों और भाष्यों में प्राप्त है। धना आदि ग्रन्थों के दृष्टातों की कथाएं भी पृथक रूप में
इसके विकल्प-शीर्षक 'अन्तरकथा' का कदाचित यह अभिसकलित और सग्रहीत की गई है।
प्राय है कि ये कथाए बड़ी कथापो की उपकथा रूप से १६. कयास ग्रह [अन्तर-कथासंग्रह या कथाकोश]- बारम्बार उपयुक्त होती रही हैं"। इसका लेखक है हर्षपुरीय गच्छ के तिलकसरि का शिष्य इनके अतिरिक्त और भी कितने ही कथासंग्रहों का राजशेखर जिसको १४वीं सदी के मध्य का समय दिया उल्लेख जिनरत्नकोशमें है, परन्तु वे या तो अनामी हैं या हमें जा सकता है। इसका प्रबंधकोश सं.१४०५ का रचित है। उनके लेखकोंका विशेष परिचय नही है। उनकी सूची मात्र कथाएं सब सरल संस्कृत गद्य में लिखी है। उनकी शैली यहा दी जाती है:-१. हेमाचार्य का कथासंग्रह, २. प्रानन्द बिलकुल बातचीत की है। शब्द-विन्यास प्रणाली देशज सुन्दर का कथासंग्रह, ३. मलघारीगच्छ के गुणसुन्दरसूरि शब्दों से बहुत कुछ रंगित है। संस्कृत, महाराष्ट्री और के पट्टधर सर्वसुन्दर [सं. १५१०] का कथासग्रह, ४. अपभ्रश गाथाएं बहुलता से ग्रन्थ भर में उद्धत हैं। अनेक १८८४.८७ की प्रतिवेदना की सं. १२७२ के कथासंग्रह कथाएं तो सिद्धान्त की गाथा कह कर ही कही गई है। [जिस पर सं. १५२४ लिखा है] में जीव दया आदि कई ऐसी गाथा में किसी व्रत का गौरव गान किया जाता है, विषयो पर सस्कृत
विषयो पर सस्कृत मे कई उपदेशात्मक छोटी-छोटी कथाएं
है । कथासंग्रहों का यह एक अच्छा नमूना है जिनका उप२६. पाटण हस्त. सूची भाग १, पृ.६०। २७. देखो हस्तप्रति सं. १२७१ [भण्डारकर ५] और
योग साधू लोग अपने प्रवचनों में दृष्टान्तों के लिए करते १३२५, १८६१-६५ की।
२९. श्रीकथाकोश सूर्यपुर १६३७, उद्धरणों प्रादि की वर्ण२८ वेलनकर कृत राएसो, बंबई शाखा की हस्तप्रतियों की क्रमानुसारी सूची सहित; भण्डारकर प्रा. शोम. में
सूची [बबई १९३०] सं. १४१७, १७०३, १६६५; १८८७-६१ की सं. १२९८ की हस्तप्रति में मुद्रित मोर देखो पाराधना कथाकोश प्रन्थ निर्बन्ध प्रागे। सन् प्रति से भिन्न ही प्रारम्भ मिलता है।