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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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किया गया है और प्रसगानुकूल दृष्टान्तो द्वारा वह मम- १०. कथारत्नसागर-इसमे १५ तरग हैं और अंतिम झाया गया है। उदाहरणार्थ यह कहा गया कि नेमिनाथ कथा है अगडदत्त की । इमका रचयिता है तरचन्द्रसूरि", ने जीवदया का पालन किया इसलिए उन्हें प्राध्यात्मिक देवभद्रमूरि का शिष्य । पाटण को इसकी प्रति स. १३६१ लाभ पहुँचा, और रावण को पराई स्त्री की प्रासक्ति के को है। कारण ही दुःख भोगना पड़ा। प्रत्येक इलोक मे एक या ११. कधारत्नाकर-तपागच्छ के कल्याणविजयगणि अधिक दृष्टान्त रूप जीवनियां दी गई है। ग्रंथ की के शिष्य हेमविजयगणि ने म० १६५७ मे इसकी रचना समाप्ति तक पहुँचते-पहुंचते जीवन-दृष्टान्तो की अपेक्षा की है। जैसा कि प्रथकार ने कहा है, इसकी कुछ कथाएँ उसमे उपदेश अधिक से अधिकतर हो जाता है। अन्यकार परम्परा से कही सुनी जाती रही हैं, कुछ काल्पनिक है, हरिषेण वच सेण का शिष्य था, परन्तु इस ग्रन्थ की रचना कुछ की रचना अन्य प्राधारो से की गई है, तो कछ तिथी अभी तक भी निश्चित नही की जा सकी है। शास्त्रों में से ली गई है। दस तरंगो मे कुल २५८ कथाएं
इन कथामों का पूर्ण विवरण देने का काम टीकाकारों है। अनेक सरल सस्कृत गद्य मे लिखी हैं। बहुत थोड़ी ही पर ही छोड़ दिया गया था और छोटी-लबी सब मिला गभीर शैली मे है । इनी-गिनी संस्कृत पद्यो मे हैं। प्रत्येक कर इसकी १५० कथाए है"। रत्नशेखर के शिष्य, सोम- कथा का प्रारम्भ एक या दो उपदेशी गाथा या श्लोक से चन्द्र दाग वि. स. १५०४ के रचित 'कथामहोदधि' मे ये होता है । सारे ही ग्रन्थ मे संस्कृत, महाराष्ट्री, अपभ्रश, सब कथाए दी गई है। खरतरगच्छ के श्री वर्धनसरि के पुरानी हिन्दी पोर पुरानी गुजराती के उद्धरण प्रचुर परि. शिष्य श्री जिनसागर ने 'कर्पूर-प्रकर टीका' लिखी है। माण में पाए जाते है । महाभारत, रामायण प्रादि महाइसका समय सं. १४९२ से १५२० तक का कहा जाता
काव्य, भर्तृहरि के शतक, पंचतत्र, प्रादि-आदि से सुपरिहै। इस प्रकार यह लेखक सोमचन्द्र का समकालिक ही चित कुछ उद्धरण भा ह । ग्रथ का जन दृष्टिकोण उसके प्रतीत होता है। यह पहले तो गाथा की व्याख्या करता
प्रारम्भ के श्लोक, भाव और कथामोरे ही स्पष्ट हो है और फिर दृष्टान्तिक कथा सामान्यतया संस्कृत श्लोको
जाता है। इसमे शृगार से लेकर वैराग्य तक के विचारों मे ही देता है। कथा का प्रवेश पागमो या उपदेशमाला
और भावो का ममावेश है। विण्टरनिटज का कहना है जैसे ग्रन्थों के प्राकृत उद्धरणों, गद्य-पद्य दोनो में, देकर कि बहुत सी कथाए तो पंचनत्र और ऐसी ही कहानियों करता है। मैने 'कथामहोदषि' की कथानों का इसकी को अन्य पुस्तकों जैसी ही है, याने स्त्री-छल की कथाएं. कयामो से मिलान नही किया है। परन्तु दोनो कथाम्रो गुण्डो-बदमाशो की कथाएं, मूखों की कथाए, पशनों की के शीर्षक और क्रम समान हैं। दृष्टान्त मे शलाका-पुरुष कथाए, सभी प्रकार के विवरणो की माख्यायिकाएं जिनमें जैसे कि नेमिनाथ, सनत्कुमार प्रादि । ऐतिहासिक-प्रघं- कुछ ब्राह्मण एवम् अन्य मतावलबी की निदा या व्यंग की ऐतिहासिक व्यक्ति जैसे कि सत्यकी, चेल्लणा, कमारपाल भी है । पचतत्र के जैसे ही कथानो के बीच-बीच मे बुद्धिपादि भिक्षुरत्न जैसे कि अतिमुक्तक, गजसुकमाल मादि। मानी की कहावतें या उक्तिया भी है। कथामों की रचना पौर जैन परम्परा के अन्य धर्मभीरु नर-नारियों के दिए ढीली-ढाली है । वे सुदृढ ढाचे मे सजाई हुई मी नही है। गये हैं।
अधिकॉशत: ग्रन्थ दृष्टिकोण में यथाई रूपेण भारतीय ही
है। जैन ग्रन्थों में सामान्य रूप से माने वाले नामों के १६. इन कथामो की सूची के लिए देखो पेटरसन प्रतिवेदनाएं ३, पृ० ३१६-१६।
अतिरिक्त उसमे भोज, विक्रम, कालिदास, श्रेणिक प्रादि२०.जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से सन् १९१६ मे
आदि की माख्यायिकाएं भी है। कुछ भौगोलिक उल्लेख
भी उसमे बिलकुल आधुनिक हैं और दिल्ली चापानेर भोर प्रकाशित; एच. डी. वेलनकर का बनाई रा. ए. सो. बबई शाखा की सूची भाग ३-४ में सं. १७०५ और
महमदाबाद जैसे नगरों से सम्बन्धित कहानियां भी हैं । १७६८ देखो।
२१. पाटण की हस्तप्रतियों का कंटलोग भाग १, पृ. १४॥