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१५६, वर्ष २३, कि० ४ |
अनेकान्त
एक्कारस सहि गएहि तेवीस-बरिस-अहिएहि ।
१०. जणय-समागमो नाम....."संधी (२७) पोस-चउद्दसि सोमे सिद्धा बंक्यपुरम्मि ।
११. [सणंकुमार-विलासवई-निव्वाण-गमणो नाम एसा य गणिज्जन्ती, पायेणाणुठ्ठभेण छंदेण ।
..."संधी] (३६) सं पुण्णई जाया छत्तीस-सयाई वोसाई।
६. हरिभद्र और साधारण-समराइच्चकहा एवं जंचरियानो अहियं कि पि इहं कप्पियं मए रइयं । उसके रचयिता श्री हरिभद्रसूरि के प्रति कृतज्ञताज्ञापन पडिबोह-कारणेणं खमियव्वं मम सुयणेहि ॥ करते समय साधारण ने उनकी प्रशस्ति में दो गाथाएं जयह तिसिंद-सुंदरि-वंदिय-पय-पकयाकयारूढा ।
प्रस्तुत की हैं। बयणविविन्नवाणी सरस्सई सयलसुहखाणी॥ समराइच्च कहाम्रो उद्धरिया सुद्ध संधि-बन्षेण ।
इस तरह से साधारण, जो साघु पर्याय में सिद्धसेन- कोऊहलेण एसा पसण्ण-वयणा विलासवई॥ मूरि कहलाये, इस विलासवईकहा के रचयिता हैं । उन्होंने जंचरियानो पहियं कि पि इहं कप्पिगं मएरइयं । यह कथा हरिभद्र सूरि विरचित समराइच्चकहा से ग्रहण पडियोह कारणणं खमियव्यं मजा सुयणेहि ॥ को है पोर यत्र तत्र कुछ परिवर्तन एव संवर्धन किया है।
उपर्युक्त गाथानोंसे स्पष्ट प्रमाणित है कि साधारण ने उन्होंने यह कथा ग्वालियर निवासी साहू लक्ष्मीधर मिश्र यह कथा-"समराइच्चकहा" से ग्रहण की है (सम्पादक को वीनती को मान देकर रची है और सन् १०६६ मे हर्मन जेकोबी बी. आई. कलकत्ता १९२६ तथा समरादित्य घंधुका नगरी में यह रचना पूर्ण हुई है। यह जानना सक्षेप में अहमदाबाद १९०६)। बाद में साधारण ने आह्लादकारक है कि धधुका नगरी श्री हेमचन्द्राचार्य की कथा में स्वयं कुछ परिवर्द्धन किया है (पहियं कप्पियम्)। जन्मभूमि है । साधारण ने श्री हेमचन्द्र के जन्म से बाईस उसने अपने को क्षमितव्यरूप में उपस्थित किया है, क्योंकि वर्ष पूर्व यह रचना पूर्ण की। श्री हेमचन्द्र का काल सन् उसने यह परिवर्द्धन पाठकों के प्रानन्दवर्धन के लिए किया १०८८-११७२ है।
है। श्री हरिभद्र (७वी शताब्दी ईस्वी) ने अपनी रचना ५. सग्घिया और उनके शीर्षक-विलासवईकहा को भावो में विभक्त किया है और गद्य, पद्य मिश्रित ग्यारह सन्धियों में विभक्त है। प्रथम और ग्यारहवीं प्राकृत में लिखी है। जबकि साधारण ने अपभ्रंश भाषा मन्धि का कोई विशेष शीर्षक (नाम) नहीं है। श्री पं० का आश्रय ग्रहण किया और उसकी कृति सन्धियों में बैचरदास जी ने संस्कृत में नाम प्रस्तावित किये थे, वे ही विभक्त है। श्री हरिभद्र द्वारा वणित सनत्कुमार की प्राकृत रूपान्तरण कोष्ठकों में नामरूप से कल्पित किये
कथा एक वृहद्कथा समराइच्चकहा का पंचमभाव है तथा गये हैं। प्रत्येक सन्धि के कड़वक के नम्बर कोष्ठक में
सनत्कुमार की कथावर्णन द्वारा यह दिखाया गया है कि निर्देशित हैं :
निदान करने का (किसी तप प्रादि के बदले संसारसुख १. [सणंकुमार विलासवई-समागमो नाम 'संथी] की कोई निश्चित कामना कर लेना) क्या फल होता है।
".(२७) जबकि साधारण की कथा एक स्वतंत्र कथा है और इस २. विणयंघर-संघी......(२२)
रचना का प्रयोजन यह प्रदर्शित करना है कि जरा सा भी ३. भिन्न-वहण-संघी....... (२३)
प्रमाद करने का अगले जन्म में क्या फल प्राप्त होता है। ४. विज्जाहरी-संधी......(२४)
"येवो विकीरह जो पमाउ, ४. विवाह-वियोय-संधी..(३२)
सो परभवे होउ महा विवाउ।" ६. विज्जा-सिद्धि-संधी (३३)
इह भांति से हरिभद्र तथा साधारण ने क्रमशः निदान ७. दुम्मुह-वहो नाम 'सघी (२६)
एवं प्रमाद के परिणामों को प्रदर्शित किया है। ८. भणंगरइ-विजय-रज्जाइसेय-संधी (३८)
निस्सन्देह साधारण ने सामग्रीरूप से समराहच्चकहा १. विणयंघर-संजोगो नाम....."संधी (३४) के पंचमभाव को अपने समक्ष रखा है। परन्तु तुलनात्मक