________________
विलासवईकहा एक परिचयात्मक अध्ययन
१५५
उच्चारण में उनकी ध्वनि लघु है । इसीलिए उनकी जगह शिष्य श्री सिद्धसेन सूरी थे, जो विलासवई कहाके कर्ता है। कहीं-कहीं इ और उ का प्रयोग परिलक्षित होता है। जिन्होंने विनयवश स्वय को प्रति प्रतिभाहीन वणित किया पेम्म इ-पिम्मइ, पणमेप्पिणु-पणमिप्पिणु, जोग्गयाइ-जुग्गयाइ, है। वे साधुदीक्षा से पूर्व श्रावकाश्रम में साधारण नाम से होन्ति-हुन्ति इत्यादि प्रयोग दृष्टिगोचर होते है। कुछ सबोधित थे अत. पश्चात् भी वे जनता में इस नामसे प्रख्यात
से ही दकल्पिक प्रयाग दृष्टव्य है-जैसे रहे। उन्होने बहुत से मत्र एव प्रार्थनाए रची, जो कि कि चिन्तेवि-चिन्तिव, जे.जि, जे-जिन, देउलेही-दिउल. देश के विभिन्न भागों में बोली जाती है। उन्होंने यह लिही, दुहियहे दुहियहि, घरे-घरि, महुमाही महुमासु कथा साह लक्ष्मीधर के प्राग्रह से रची। लक्ष्मीधर ग्वाइत्यादि । जब ऐसे वैकल्पिक रूप प्राप्त होते है तो यह लियर दुर्ग के (गोपगिरिशिखर) के निवासी थे और स्पष्ट है कि ई और ऊ वास्तव में ए पोर पो है और इ अपने श्री भिल्लमाल कूल में चन्द्रमा के समान थ । प्रस्तुत और उ भी उनका प्रतिनिधित्व करते। हिन्दी मे लघु ए विलासवई जहा सुन्दर भावाभिव्यक्ति एवं सुन्दर सन्धियो और प्रो के लिखने के सकेत चिह्न है ही नहा। केवल (कथाविभाग) के गठन पूर्वक रची गई है और इसकी छन्द के नियमाधार से ही उनकी ह्रस्वता या दीर्घता का कथावस्त समराइच्चकहा से ग्रहण की गई है । इस रचना परिज्ञान होता है। जैसे कि जैन अनुनासिक है परन्तु की समाप्ति घन्धुवकाय नगरी मे सोमवार, संवत् ११२३ जि अनुवर है।
(सन् १०६६) की पौष मास चतुर्दशी को हुई। कता न, श्रीहेमचन्द्र (iv ४१०-१) ने परिज्ञात किया था कि
मूलकथा में पाठकों के हित की दृष्टि से जो अल्प परिवर्तन ई और ऊ अपभ्रश में प्रायः ह्रस्व रूप में प्रयुक्त होते किया है. उसके लिए क्षमाप्रार्थना की है। कृ है। इसी तरह उ, हिं, हं, हु सभी अनुनासिक समझे जाने रचना परिणाम लगभग ३६२० अनुष्टुप छन्द है । अन्त चाहिए जबकि वे किसी छन्द के चरण के अन्त में प्रयुक्त मे उन्होंने सरस्वती की विजय की कामना की है और हो। इन पठन-विकल्पों को कम करने के लिए और ई सरस्वती की कीतिगाथाए स्वर्ग की अप्सराएं भी गाती है, और ऊ का उच्चारण सुविधा एव मूल्यांकन कुछ विशेष इस तरह सरस्वती की प्रश्नसा की है। सरस्वती कमल के रीतियों की आवश्यकता है। निश्चय ही अपभ्रश पाठ्य सिंहासन पर विराजित है, जो वाणी की देवता है और पुस्तको के पाठकों ने इसके लिए कुछ प्रयत्न किए भी
मानन्द की जननी है। ऊपर वर्णन निम्न कथन पर पाषाहै। मैने भी प्रथम संधि का सार उपस्थित करते समय
रित है :निश्चित सकेतो के प्रभाव मे शुद्ध उच्चारण की सुविधा के लिए प्रचलित सकेतों का प्रयोग किया है।
वाणिज्जे मलकुले कोडियगण-विउल-वइर-साहाए । ४. प्रन्थकर्ता-कथाकृति के कर्ता साधारण ने कति विमम्मिय चम्बकुले सम्मि य कव्व-कलाण संताणे ।। की अन्त की प्रशस्ति में प्राकृत गाथानों में कुछ अपना रायसहा-सेहर-सिरिवप्पट्टिसरिस्स । जीवन परिचय दिया है। उसका प्राचीन वंशानुक्रम प्रति जसभद्दसूरि-गच्छ महरा-देसे सिरोहाए । प्राचीन कोई व्यापारियो का कुल है-वणिज्ज जिसे प्रासि सिरिसंतिसूरी तस्स पये प्रासि सूरि-जसदेवो । थनिज्जे भी पढ़ा जा सकता है। उसका गण कोटिक है, सिरि सिद्धसेणसूरी तस्सवि सोसो जडमई सो॥ उसकी शाखा वज़ है, उसका वंश चन्द्रकुल है, जिसमे साहारणो त्ति नामं सुपसिद्धो प्रत्थि पुचनामेणं । काव्य एवं कला की निपुणता परम्परागत निधि है। युइयोत्था बहु-भेया जस्स पढिज्जन्ति देसेसु ॥ बप्पभट्टसूरी एक राज्य दरबार के सर्वप्रधान पूज्य गुरु थे। सिरिभिल्लमाल कुलगयण-चन्द-गोवगिरि-सिहरनिलयस्स । व यशोभद्रसूरि गच्छ से सम्बन्धित थे। उसी गच्छ मे बयण साह लच्छीहरस्स रइया कहा तेण ॥ श्री शान्तिसूरी जी मथुरा प्रदेश के मुख्य प्राचार्य (सरोहा समराइच्चकहाम्रो उद्धरिया सुख-संधि-बंधेण । थे। उनके पाट पर यशोदेवसूरि विराजित हुए । उन्ही के कोऊहलेण एसा पसण्णवयणा विलासबई ॥