SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४, वर्ष २३ कि०४ अनेकान्त में टाइप की हई अपने प्रबन्ध की प्रति भारतीय ज्ञानपीठ भाले के चिह्न "बहु वयण" से प्रारम्भ होती है और वाराणसी को प्रकाशनार्थ भेजी। सर्व सामान्य सम्पादक "खाण" शब्द से समाप्त होती है। के नाते मैंने उसे पड़ा । मैने देखा कि उन्होने अपने महा इति सम्पूर्णम् ॥ निबन्ध विलासवई के सम्बन्ध मे कुछ पृष्ठ लिखे है, परतु। हस्तलिखित प्रति को विशेषता तथा पुस्तक गठनमैने देखा कि उनका वर्णन भिन्न प्रकार का । उनका दीना हो हस्त लिपियों के अक्षर म-स, स्थु-द्ध, क-व, ध्यान विशेषतः साहित्यिक समालोचना पर केन्द्रित है। उ-यो, ए-प, व-य इत्यादि परस्पर प्राकार सम्भ्रान्ति उनके विचार अहमदाबाद से प्राप्त हस्तलिखित प्रति पर उत्पन्न करते है और प्रायः प्रशुद्ध रूप से प्रतिलिपि किये अाधारित हैं । यह प्रति मुझे तब उपलब्ध हुई जब मै इस गये है। प्रादर्श में पडिमात्रा प्रायः प्रशुद्ध रूप से समझी विसमा अध्ययन को प्रायः पर्ण कर गई एव अशुद्ध ही अकित की गई है। अनेक स्थलों पर असावधानता वश लेखन की भूलें पाई जाती है । स्वीकृति चुका था। पद्धति के अनुसार दोनो प्रतियो मे पर सवर्ण के लिए वर्तमान अध्ययन की प्राधार सामग्री-मेरे वर्तमान अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। परन्तु अनेक स्थलों विलासवाई कहा के अध्ययन प्राधार निम्नलिखित हस्त पर "न्त" का प्रयोग देखा जाता है। कही-कहीं अनुनालिखित प्रतियाँ है सिक उ का प्रयोग है तो कही यह भी रूप से समाप्त जे०-यह एक चित्र प्रति ग्रहीत प्रति है। ७६-७६ होता है। अनुस्वार के प्रयोग स्थान में कही भी समता अ पृष्ठो सहित और इसका प्राकार १६४८.५ सैण्टी नहीं है। य श्रुति के लेखन एवं प्रयोग मे भी दोनों प्रतियों मीटर है। यह प्रति श्री पं० बैचरदास जी अहमदाबाद मे समानता नही है । यद्यपि जे० प्रति इस विषय मे कुछ के कथनानुसार १०.५४ ०.७५ इन्च प्राकारयुक्त ताड़पत्र विशेष सावधान है। तीत और तीए दोनों को समान पर अकित जैसलमेर वाली कृति को प्रामाणिक प्रतिलिपि मानकर प्रयोग किया है। सम्भवतः बाद मे ई स्वर ए है। भाले के चित्र के पश्चात् इसका प्रारम्भ इस तरह का या य का स्थानापन्न मान लिया गया है । न और न्न होता है को दोनों प्रतियो में समान मानकर प्रयोग किया गया ___ नमो वीतरागाय ॥ बहु रमण इत्यादि । सम्भवतः है यद्यपि जे० प्रति मे ण और एण का बाहुल्य है। यह यह जैसलमेर नं० १६७ को प्रति, जिसका उल्लेख ऊपर निश्चित है कि जे. और बी० प्रतियां एक या दूसरे को किया गया है, की प्रतिलिपि है। प्रतिलिपिकार अपने प्रतिलिपि नहीं है। विषय में इस प्रकार लिखता है-- ___ सम्पादन रीति के विषय में यह ज्ञातव्य है कि वर्णलिखित लेखक पुरोहित जयगोपाल शर्मा ।। रेवासी विन्यास में कुछ समानता रखी गई है। न तथान्न में मु० नागोर मारवाड़। हाल लिखित जैसलमेर राज समानता है परन्तु बाद में ण और ण्ण का प्रयोग परिलपूताना ॥ संवत् १६६ रा मिति मिगसिर सुदी १४ क्षित होता है। यदि कही संस्कृत भाग में भी ण है तो सोमवार । भी ण्ण का प्रयोग है । देसी शब्द ण का प्रारम्भिक प्रयोग बी:-यह चित्रप्रतिग्रहीत प्रति ८६४२ शीट्स है। परन्तु नम् पौर नावई णम् और णावइ रूप में प्रयुक्त २७४११.५ सैण्टीमीटर और हस्तलिखित प्रति न० है। उद्धत स्वत के स्थान पर य श्रुति का प्रयोग है। ६६६५ संण्टीमीटर लायब्रेरी डिपार्टमैट बड़ौदा से उप- और पासमानार्थक से दो ! लब्ध प्रति से चित्रग्रहीत है। श्री डा० पी० एल० वैद्य, परन्तु अनुस्वार दोनों प्रतियों मे समान रूप से प्रयुक्त हैं। पूना से मुझे यह प्रति प्राप्त हुई है और उन्होंने इसे ए और प्रो की ध्वन्यात्मकता मिली-जुली-सी हो १९२७ में तैयार किया था। पृष्ठ ५१ से ५४ तक इस गई है, विशेषतः दोनों प्रति के अपभ्रंश रूपों में इसकी प्रति में अप्राप्य हैं और यह भाग ८वीं सघि के ४ से २० बहुलता है । ए और प्रो की ध्वनि कुछ दीर्घता लिये हुए कड़वक को समावेशित करता है । हस्त लिखित प्रति होती है यदि उसके बाद व्यंजन समूह का प्रयोग हो परत
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy