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वत्स जनपद का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास
मगध राज्य का उदय हुप्रा और पश्चिम की ओर उतने अहिच्छत्रा, अयोध्या एवं कौशाम्बी से प्राप्त सिक्कों के ही शक्तिशाली अवन्ति राज्य का। मगध राज दर्शक की मित्र-नामान्त वाले राजामों का शुंगो से सम्बन्ध स्थिर बहन के साथ उसका विवाह यह सूचित करता है कि करने योग्य सुनिश्चित साक्ष्य प्रभी उपलब्ध नही है। वह प्रजातशत्रु के राज्यकाल की समाप्ति के बाद भी सम्प्रति को मृत्यु के उपरान्त लगभग २१६ ई० पू० विद्यमान था । कौशाम्बी में किये गये उत्खनन यह प्रकट में सुदेव द्वारा कौशाम्बी के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की करते है कि उसके राज्यकाल में नगर प्राचीर तथा गई प्रतीत होती है । सम्प्रति-पश्चात् और कनिष्क पूर्वराजप्रासाद का पुननिर्माण किया गया था ।
काल मे, जैसा कि सिक्को और अभिलेखों से विदित लगभग ४६७ ई० पू० में मगधराज महानन्दिन् ने होता है, २८ गजायो ने इस राज्य पर शासन किया वत्स के कुरु राजा को अपना करद राजा बना लिया प्रतीत होता है । उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बहसतिमित प्रतीत होता है । ४२४ ई० पू० में उसके पुत्र महापद्म था। वह सम्भवत: मथुग के नवोदित राजवश का ने करद राजा की व्यवस्था भी समाप्त कर दी और वत्स कुमार था और उसी ने अपने नाना अहिच्छत्रा के राजा प्रदेश को मगध साम्राज्य का प्रत्यक्ष अधीनस्थ एक प्रान्त के साथ मिलकर पाटलिपुत्र से मौर्य वश का उच्छेद किया ही बना लिया। मौर्यो के राज्यकाल मे कौशाम्बी को था तथा दूसरी शती ई० पू० के प्रारम्भ मे ही सुदेव के नगर प्राचीर एव प्रासाद प्राचीर का कौटिल्य द्वारा उत्तराधिकारी से कौशाम्बी छीन ली थी। एक अन्य निर्णीत प्रणाली के अनुसार पुननिर्माण हुमा प्रतीत होता महत्त्वपूर्ण राजा राजमित्र था जो पहली शती ई० पू० मे है । मौर्य सम्राट अशोक के शासनादेश यह भी सूचित विद्यमान था, उसने सात सोम यज्ञ किये थे जिनमे करते हैं कि कौशाम्बी नगर के प्रशासक महामात्र पदवी कोशाम्बी के उत्खनन में प्रकाश में पाये श्येनचिति के प्रवके अधिकारी होते थे और उसकी द्वितीय रानी कालुवाकी शेषो से सम्बद्ध पुरुपमेध यज्ञ भी सम्भवतः सम्मिलित ने इस नगर को अपना निवास-स्थान भी बना लिया था। था।
७८ ई० मे अपने राज्यारोहण के तुरत बाद ही लगभग २३६ ई० पू० मे अशोक की मृत्यु के तुरत कृपाण वशी राजा कनिष्क प्रथम ने पूर्व दिशा मे विजय बाद ही मौर्य साम्राज्य विरिछन्न होने लग।। सम्पति के अभियान किया प्रतीत होता है और उसने कुछ समय राज्यत्व में कुछ समय के लिए मायंवश की पाटलिपुत्र कोशाम्बी में भी बिताया प्रतीत होता है। परन्तु हविष्क
पिनी शाखायों का एकीकरण हो गया प्रतीत के राज्य काल के प्रारम्भ मे सवत् ४० (११८ ई.) के होता है परन्तु उसकी मृत्यु के बाद पून. वे अलग-अलग पहल हा कोशाम्बा-वाराणसी क्षत्र में प्रश्वघोष ने अपनी हो गई जिससे साम्राज्य के कुछ सेवको को यह अवसर स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली प्रतीत होती है। एक मिल गया कि वे अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ले दशक अथवा उसके कुछ ही बाद बघेलखड प्रान्तर से यथा मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी और युगल में, अथवा भीमसेन ने पाकर अश्वघोष को भी अपदस्थ कर दिया। अपना प्रभाव बढ़ा लें जैसा कि विदिशा मे सेनापति और कौशाम्बी तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर भीमसेन के विदर्भ में सचिव ने किया। विभिन्न अनुश्रुतियो एवं मुद्रा
वंशजो, तथाकथित मघ राजों, का प्राधिपत्य तीसरी शती सम्बन्धी साक्ष्य के समन्वय से ऐसा सूचित होता है कि
ई० के अन्त तक रहा । तत्पश्चात कुछ समय के लिए सुवर्णगिरि प्रान्त मे सातवाहन और उज्जयिनी प्रान्त मे
पद्मावती के नाग राजा गणेन्द्र का प्राधि पत्य रहा प्रतीत शंग मोर्यों के उत्तराधिकारी हए तथा विदिशा प्रदेश मे होता है और अन्तत: लगभग ३३० ई० मे समुद्रगुप्त द्वारा कण्व शुंगों के उत्तराधिकारी हुए, और यह भी कि मौर्य प्रायवित्त युद्धों में विजय प्राप्त करने के समय यह प्रदेश साम्राज्य के इन उत्तराधिकारियों का पाटलिपुत्र एव
श्री रुद्र या स्वदेश के प्राधिपत्य में था। कौशाम्बी से शायद ही कोई सम्बन्ध था । मथुरा, समुद्रगुप्त द्वारा विजय किये जाने के पश्चात् तोरमाण