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________________ २४८, वर्ष २३, कि० ५-६ अनेकान्त हण द्वारा किये गये विनाश के अल्पकालीन अन्तराल को है। गढवा में प्राप्त वैष्णव अवशेष वैष्णव मत एवं छोडकर कौशाम्बी तथा निकटवर्ती प्रदेश गुप्त साम्राज्य के शाक्तमत, राम-पूजा एव कृष्ण-पूजा तथा वैष्णव मत अन्तिम दिनों तक उसी का अग बना रहा । यशोधर्मन् एव बौद्ध धर्म के बीच पारस्परिक समन्वय के सकेत द्वारा गुप्त सत्ता की समाप्ति के पश्चात् इस प्रदेश का सूचित करते है। भाग्य कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गजवशो के इतिहास के जैन पौराणिक अनुश्रुति मे कौशाम्बी का बहुधा साथ जुड़ गया और यहां एक-दूसरे के बाद क्रमशः उल्लेख पाता है, और महावीर के जीवन को कतिपय भौखारियो, हर्ष, यशोवर्मन्, प्रायुधो, गुर्जर-प्रतीहारो तथा मुख्य घटनाग्रो के प्रसग से भी इस नगर का उल्लेख गाडवालो का प्राधिपत्य रहा। यशोवर्मा के समय मे पाता है। महावीर के बाद के युग मे भी यहा जैन गुरुप्रो कशमीर के राजा मुक्तापीड का अभियान तथा प्रतीहारो का काफी पावागमन रहा, और ऐसा भी प्रतीत होता एव गाहडवालों के मध्य अन्तराल में कलचुरियो और रहा है कि जनो के प्रारम्भिक साहित्य प्रणयन से भी पालो के अभियान प्रल्प कालिक थे। १२वी शती ई० के इसका सम्बन्ध रहा। अन्त मे तुर्को द्वारा गाडवाल सत्ता के समाप्त कर दिये बुद्ध ने वत्स प्रदेश में तीन वर्षाव'स किये थे। और जाने के उपरान्त १२४८ ई. तक जब कि यह प्रदेश उनके कुछ महत्त्वपूर्ण प्रवचन भी यही हा थे। विनय अन्ततः दिल्ली के तुर्की मुलतानो के अधिकार में चला के कितने ही महत्त्वपूर्ण नियमो का हेतुक भी काशाम्बी का गया, कडा और कौशाम्बी के निकट अपने गढी से गणक भिक्षु सघ ही था । बुद्ध के बाद भी लगभग एक हजार सामन्तो ने स्वातन्त्र्य समर जारी रखा। १० वी शती ई० वर्ष पर्यन्त कौशाम्बी में स्थित घोमितागम बौद्धधर्म का के द्वितीय चतुर्थाश में कालिजर पर यज्ञोवर्मन् द्वारा एक प्रमुख केन्द्र बना रहा। इस विहार के अवशेषो का अधिकार कर लिये जाने के बाद कालिजर का निकटवर्ती उत्खनन १६५० ई० के दशक में किया गया है । कौशाम्बी के प्रदेश चन्दल राज्य का ही अग बना रहा ।। अतिरिक्त भीटा, देवरिया, मानकुजर, प्रहरौरा, भारहुन समचित माहित्यिक एवं पुरातात्विक सामग्री उप- प्रौर बान्धोगढ इस प्रदेश मे बौद्ध धर्म के अन्य महत्वपूर्ण लब्ध है जो यह सूचित करती है कि भारत के प्रधान केन्द्र थे । धौ के विकास में वत्स प्रदेश का विशिष्ट भाग रहा और अब तक प्रकाश में आये पत्थर के विविध उपकरणो, वह यह भी सकत करती है कि वहा अम्बा, यक्ष और मिट्टी के पात्रो और मिट्टी, पत्थर, धातु, अस्थि एवं नाग-पूजा का प्रचलन भी था। निचक्षु द्वारा कौशाम्बी को शख-सीपी के बने भाति भाति के व्यजनो की सहायता से अपनी राजधानी बना लिये जाने के बाद वैदिक विद्या इस प्रदेश के मानव सभ्यता के विकास के क्रम को जाना की कोई पीठ भी वहाँ स्थापित हो गई प्रतीत होती है जा सकता है और यह भी देखा जा सकता है कि वर्तऔर वैदिक गुरु प्रोति कोसुर-बिन्द प्रौद्दालकि संभवतः मान काल मे भी उस सस्कृति के कौन से अश प्रतिभासित उसी पीठ के स्नातक थे । कौशाम्बी मे याज्ञिक कर्मकाण्ड हो रहे है। कौशाम्बी और सहजाति (भीटा) यहाँ के के प्रचलन के स्पष्ट प्रमाण के रूप मे श्येनचिति के अवशेष प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे तथा व्यापारियो के विभिन्न प्रकाश में पाये है । ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग इस वों एवं कारीगरो व उत्पादको की श्रेणियो के माध्यम चिति का प्रयोग पुरुषमेध यज्ञ करने के लिए किया गया से व्यापार की सुव्यवस्थित योजना थी। अंष्ठि सम्मानित था। कोटिया में प्राप्त मेगालिथ भी किसी याज्ञिक क्रिया थे । व्यावसायिक णियो तथा नगरी एवं ग्रामो के से ही सम्बिन्धित प्रतीत होते है । इस प्रदेश में वैदिक कर्म- निगमो का संचालन पंचायती व्यवस्था के अनुसार होता कण्ड एव शंवमत के पारस्परिक समन्वय तथा शैवमत के था और उनके मामलो में राज्य के अधिकारियो का नागपूजा से सम्बन्धो के प्रमाण भी मिले है और प्राप्त हस्तक्षेप यदा-कदा ही होता था। पुरुषो का परिधान प्राचीनतम शिवलिगो मे से एक लिग भीटा से ही मिला सामान्यत: धोती, चादर (उत्तरीय) और पगड़ी (उष्णीष)
SR No.538023
Book TitleAnekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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